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समराइच्चकहा
आणवेउ सुंदरी । लच्छीए भणियं-सुण । अहं खु मायंदीनिवासिणो कत्तियसे द्विस्स धूया लच्छिमई नाम पुत्ववैरिएण वि य परिणीया धरणेण । अणिट्ठो मे भतारो, पसुत्तो य एसो एत्थ देवउले । ता अंगीकरेहि मं, परिच्चयसु मोसं, पावेउ एसो' सकम्मसरिसं गति । पहायाए रयणीए गिहीएहि तुम्भेहि नरवइसमक्खं पि भणिस्सामि अहयं 'एसो महं भत्तारो, न उण एसो' त्ति । तओ सो चेव' भयवओ कयंतस्स पाहुडं भविस्सइ। चंडरुद्दण भणियं-सुन्दरि, अत्थि एयं, कि तु अहमेत्थ वत्यव्यओ चउवरणपडिबद्धो। अओ रियाणइ मे तं अगिहीयनाम सव्वलोओ चेव एत्थ भहिलियं त्ति । लच्छीए भणियं-जइ एवं, ता को पण इह उवाओ। चंडदेण भणियं - अस्थि ए.थ उवाओ, जइ थेवमुदयं हवइ। तीए भणियं कहं विय'। चंडरुद्देण भणियं - सुण। अस्थि मे चिंतामणिरयणभूया भयवया खंदरुद्देण विइण्णा दिटुपच्चया परदिटिमोहणी नाम चोरगुलिया। तीए य उदयसंजोएण अंजिएहि नयणेहि सहस्सलोयणो देवाहिवो वि न पेच्छइ पाणिणं, किमंग पुण मच्चलोय. वासी जणो । लच्छीए भणियं-जइ एवं, ता कहिं गुलिया। चंडरुद्देण भणिध - "उट्टियाए । लच्छोए आज्ञापयतु सुन्दरी । लक्ष्म्या भणितम् -शृणु । अहं खलु माकन्दीनिवासिनः कार्तिकश्रेष्ठिनो दुहिता लक्ष्मीवती नाम पूर्ववैरिकेनापि च परिणीता धरणेन । अनिष्टो मे भर्ता, प्रसुप्तश्च एषोऽत्र देवकुले । ततोऽङ्गीकुरु माम्, परित्यज मोषं (मुषितम्), प्राप्नोत्वेष स्वकर्मसदृशीं गतिम् । प्रभातायां रजन्यां गृहीतयोर्युवयोर्नरपतिसमक्षमपि भणिष्याम्यहम् ‘एष मम भर्ता, न पुनरेष' इति । ततः स एव भगवतः कृतान्तस्य प्राभृतं भविष्यति । चण्डरुद्रेण भणितम्-सुन्दरि ! अस्त्येतत्, किन्तु अहमत्र वास्तव्यश्चतुश्चरणप्रतिबद्धः (भार्यायुक्तः), अतो विजानाति मे तामगृहीतनाम्नीं सर्वलोक एवात्र महिलामिति । लक्ष्म्या भणितम् --यद्येवं ततः कः पुनरिहोपायः। चण्डरुद्रेण भणितम्-अस्त्यत्र उपायः, यदि स्तोकमुदकं भवति । तया भणितम्-'कथमिव' । चण्डरुद्रेण भणितम् - शृणु। अस्ति मे चिन्तामणिरत्नभूता भगवता स्कन्दरुद्रेण वितीर्णा दृष्टप्रत्यया परदृष्टिमोहनी नाम चौरगुटिका। तया चोदकसंयोगेन अजितयोर्नयनयोः सहस्रलोचनो देवाधिपोऽपि न प्रेक्षते प्राणिनम्, किमङ्ग पुनर्मर्त्यलोकवासी जनः । लक्ष्म्या भणितम्– यद्येवं ततः कुत्र गुटिका? चण्ड रुद्रेण भणितम्लक्ष्मी ने कहा-सुनो ! मैं माकन्दी के निवासी कार्तिक सेठ की पुत्री लक्ष्मीवती हूँ। पूर्वजन्म के वैरी धरण के साथ मेरा विवाह हुआ है । मेरा पति मुझे इष्ट नहीं है । यह मन्दिर में सो रहा है । अत: मुझे अङ्गीकार करो, चोरी छोड़ दो, यह (धरण) अपने कर्मों के अनुसार गति प्राप्त करे। रात्रि के बाद प्रभात होने पर आप दोनों के पकड़े जाने पर भी राजा के सामने नहीं कहूँगी-'यह मेरा पति है, यह नहीं ।' अतएव वही भगवान् यम का अतिथि होगा । चण्डरुद्र ने कहा- सुन्दरी, यह ठीक है, किन्तु यहाँ का निवासी मैं भार्यायुवत हूँ। अतः सभी लोग जानते हैं कि यह मेरी पत्नी है । लक्ष्मी ने कहा - यदि ऐसा है तो फिर यहाँ क्या उपाय है ? चण्डरुद्र ने कहायदि थोड़ा जल हो तो उपाय है। उसने कहा- कैसे? चण्डरुद्र ने कहा-सुनो ! मेरे पास चिन्तामणिरत्न के समान भगवान् स्कन्दरुद्र द्वारा दी गयी विश्वस्त परदृष्टिमोहिनी नाम की चोरगोली है । उसे जल के साथ नेत्रों में आँजनेवाले मनुष्य को हजार नेत्रवाला इन्द्र भी नहीं देख सकता है, मर्त्यलोक के वासी मनुष्य की तो बात ही क्या है ! लक्ष्मी ने कहा-- यदि ऐसा है तो गोली कहाँ है ? चण्ड रुद्र ने कहा-उष्ट्रिका (पात्र विशेष) में। लक्ष्मी ने कहा- यदि ऐसा है तो क्यों नहीं आँज लेते? चण्डरुद्र ने कहा- जल नहीं है । लक्ष्मी ने कहा
१. सो संपयमसरिसं-क । २. चेव नरवई-क । ३. पट्टविस्सइ-क।
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