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________________ नवमो भवो ] एगंतेण विज्जमाणोवाए अचितिऊण एवं अलमिमिणा नच्चिएण, उवाएं चैव खलु जुत्तो जत्तोति । नायरएहि भणियं देव, एवमेयं, तहावि लोयट्ठिई एसा; ता न जुत्तं देवस्स सयलनायरयाण पवत्ते महूसवे अत्थाणे रसभंगकरणं । सारहिणा भणियं देव, जुत्तं भणियमेहि; ता विविहरणाई ताव पेक्ख देवो ति । कुमारेण भणियं -अज्ज, एवं । तओ पवत्ताओ चच्चरीओ, पेच्छमाणो य कुमारो गओ कंचि भूमिभागं । दिट्ठे च णेण नियधरोवरिट्ठियं निसण्णं सव्वंगएसु अच्चंत सिढिलगत्तं पणट्ठेहि सिरोरुहे हिं पगलंतलोयणं कंपमाणेण देहेण वज्जियं दसणावलीए संगयं काससासेहिं परिहूयं परियणेण जरापरिणयं सेट्ठिमिहुणयं ति । तं च दट्ठूण 'अहो असारया संसारस्स' त्ति पवड्ढमाणसंवेएण पडिबोनिनित्तमेव भणिओ सारही- -अज्ज सारहि, अह किं पुण इमं पेरणं ति । तेण भणियं - देव, न खलु एयं पेरणं, एवं खु जरापीडियं सेट्ठिमिहुणयं ति । कुमारेण भणियं - अज्ज, अह का उण एसा जरा भण्णइ । सारहिणा भणियं देव, जा अजिणं पि सरीरं कालेण एवं करेइ । कुमारेण भणियं ८१५ धर्मचिकित्साम् । कुमारेण भणितम् - भो नागरका ! किमेवमेतद् । नागरकैर्भणितम् - देव ! एवमेतद् । कुमारेण भणितम् - भो यद्येवं ततः सर्वसाधारणं एतस्मिन् अशोभने प्रकृत्याऽपकारके एकान्तेन विद्यमानोपाये अचिन्तयित्वा एतमलमनेन नर्तितेन, उपाये एव खलु युक्तो यत्न इति । नागरकैर्भणितम् - देव ! एवमेतद्. तथापि लोकस्थितिरेषा ततो न युक्तं देवस्य सकलनागरकाणां प्रवृत्ते महोत्सवेऽस्थाने रसभङ्गकरणम् । सारथिना भणितम् - देव ! युक्तं भणितमेतैः, ततो विविधप्रेक्षणानि तावत् पश्यतु देव इति । कुमारेण भणितम् - आर्य ! एवम् । ततः प्रवृत्ताश्चर्चर्यः । प्रेक्षमाणश्च कुमारो गतो कञ्चिद् भूमिभागम् । दृष्टं च तेन निजगृहोपरिस्थितं निसन्तं ( क्लान्तं ) सर्वाङ्गकेषु अत्यन्तशिथिलगात्रं प्रनष्टः शिरोरुहैः प्रगलल्लोचनं कम्पमानेन देहेन, वर्जितं दशनावल्या, संगतं कासश्वासैः परिभूतं परिजनेन, परिणतं श्रेष्ठमिथुनकमिति । तच्च दृष्ट्वा 'अहो असारता संसारस्य' इति प्रवर्धमानसंवेगेन प्रतिबोधननिमित्तमेव भणितः सारथि: - आर्य सारथे ! अथ किं पुनरिदं प्रेक्षणकमिति । तेन भणितम् - देव ! न खल्वेतत् प्रेक्षणकम् एतत् खलु जरापीडितं श्रेष्ठिमिथुनकमिति । कुमारेण कोई ) उपाय नहीं है।' कुमार ने कहा - 'हे नागरिको ! क्या यह ठीक (सच ) है ?' नागरिकों ने कहा- 'यह ठीक ( सच) है। कुमार ने कहा- 'अरे, ऐसा है तो इस अशोभन का सभी के लिए सामान्य होने तथा स्वभाव से अपकारक होने पर एकान्त से उपाय विद्यमान होने पर इसे न सोचकर नाचना व्यर्थ है, उपाय में ही यत्न करना निश्चित रूप से ठीक है।' नागरिकों ने कहा- 'यही ठीक है, तथापि यह संसार की मर्यादा है, अतः महाराज का समस्त नागरिकों के महोत्सव में प्रवृत्त होने पर रसभंग करना उचित नहीं है ।' सारथी ने कहा- 'महाराज ! इन लोगों ने ठीक कहा है अतः महाराज अनेक प्रकार के दृश्य देखें ।' कुमार ने कहा- 'आर्य ! ठीक है ।' अनन्तर नृत्यमण्डलियां चलीं । कुमार देखता हुआ कुछ दूर और चला । उसने एक बूढ़े सेठ के जोड़े को देखा । वह अपने घर के ऊपर बैठा हुआ था। उसके सभी अंग क्लान्त थे, शरीर अत्यन्त ढीला था, बाल खतम हो गये थे, नेत्र नष्ट हो गये थे, शरीर कांप रहा था, दन्तपंक्ति से रहित था, खाँसी श्वासों से युक्त और परिजनों से तिरस्कृत था । उसे देखकर 'ओह, संसार की असारता ! इस प्रकार बढ़ी हुई विरक्तिवाला कुमार प्रतिबोधन के लिए ही सारथी से बोला- 'आर्य सारथी ! क्या यह नाटक है ?' उसने कहा - 'महाराज ! निश्चित रूप से यह नाटक नहीं है । यह बुढ़ापे से पीड़ित सेठ दम्पती हैं ।' कुमार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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