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[समराइच्चकहा
अज्ज, दुवा खु एसा अहिया लोयस्स; ता कीस ताओ एवं उवेक्खइ । सारहिणा भणियं-कुमार, अणायत्ता खु एसा तायस्स । कुमारेण भणियं-आ कहमणायत्ता नाम। जणपडिबोहणत्थं च मग्गिऊण खग्गं 'आ पावे दुटुजरे, मुंच मुंच एयं सेद्विमिहुणयं, इत्थिया तुमं, किमवरं भणियसि' त्ति भणमाणो समुट्ठिओ रहवराओ, पयट्टो तयभिमुहं । 'हा किमेयमवर' ति उवसंताओ चच्चरीओ, मिलिया पुणो जणा। पणिओ सारहिणा-देव, न हि जरा नाम काइ विग्गहवई इत्थिया, जा एवमुवलंभारिहा देवस्स, किंतु सत्ताणमेवीरालियसरीरिणं कालवसेण परिणई एसा। अओ न उवलभारिहा देवस्स, साहारणा य एसा एएसि देहीणं । कुमारेण भणियं-भो भो नयरिजणा, किमेवमेयं ति । तेहिं भणियं-देव, न संदेहो। कुमारेण भणियं-अज्ज सारहि, अओ परं अवगओ मए इमीए भावत्थो अभवणविही य, ता भणामि अज्जं नरिजणं च । न कायवो खेओ, कि जुत्तमेयाए पणासणोए पोरुसस्स अश्यारिणीए धम्मत्थकामाण जणणीए परिहवस्स संबद्धणोए ओहसणिज्ज
भणितम् -आर्य ! अथ का पुनरेषा जरा भण्यते । सारथिना भणितम् - देव ! याऽजीर्णमपि शरीरं कालेनैवं करोति । कुमारेण भणितम्-आर्य ! दुष्टा खल्वेषाऽहिता लोकस्य, ततः कस्मात् तात एतामुपेक्षते । सारथिना भणितम्-कुमार ! अनायत्ता खल्वेषा तातस्य । कुमारेण भणितम्-आः कथमनायत्ता नाम । जनप्रतिबोधनार्थं च मार्गयित्वा खड्गं 'आ पापे दुष्ट जरे ! मुञ्च मुञ्चैतत् श्रेष्ठिमिथुनकम्, स्त्री त्वम्, किमपरं भण्यसे' इति भणन् समुत्थितो रथवरात्, प्रवृत्तस्तदभिमुख म्। 'हा किमेतदपरम्' इत्युपशान्ताश्चर्यः, मिलिता: पुनर्जनाः । प्रभणितः सारथिना-देव ! नहि जरा नाम काऽपि विग्रहवतो स्त्री, या एवमुपलम्भार देवस्य, किन्तु सत्त्वानामेवौदारिकश रोरिणां कालवशेन परिणतिरेषा, अतो नोपलम्भारे देवस्य, साधारणा चैषा एतेषां देहिनाम् । कुमारेण भणितम्-- भो भो नगरीजनाः ! किमेवमेतदिति । तैर्भणितम्- देव ! न सन्देहः । कुमारेण भणितम्-आर्य सारथे ! अतः परमवगतो मयाऽस्या भावार्थोऽभवनविधिश्च । ततो भणाम्याय नगरीजनं च । न कर्तव्यः खेदः, किं युक्तमेतस्यां प्रणाशन्यां पौरुषस्य अपकारिण्यां धर्मार्थकामानां जनन्यां परिभवस्य
ने कहा-'बुढ़ापा किसे कहा जाता है ?' सारथी ने कहा-'महाराज ! जो न जीर्ण हुए भी शरीर को समय पर ऐसा कर देता है ।' कुमार ने कहा-'आर्य ! यह बुढ़ापा संसार के लिए अहितकर है अतः पिताजी क्यों इसकी उपेक्षा करते हैं ?' सारथी ने कहा - 'कुमार ! यह पिताजी के आधीन नहीं है।' कुमार ने कहा- 'अरे कैसे आधीन नहीं है ?' लोगों के प्रतिवोधन के लिए तलवार लेकर - अरे पापी दुष्ट बुढ़ापे ! इस सेठ दम्पती को छोड़, (जरा नाम होने कारण) तू स्त्री है, अधिक क्या कहा जाय !' ऐसा कहकर श्रेष्ठ रथ से वह उठा और उसकी ओर बढ़ा । 'हाय ! यह अब और क्या हो गया !' इस प्रकार नृत्यमण्डलियाँ शान्त हो गयीं। लोग पून: इकटठे हो गये । सारथी ने कहा - 'महाराज ! जरा (बुढ़ापा) नाम की कोई शरीरधारिणी स्त्री नहीं है जो महाराज के इस प्रकार के उलाहने के योग्य हो, किन्तु औदारिक शरीरवाले प्राणियों की काल के आधीन यह परिणति होती है, अतः महाराज के उलाहने के योग्य नहीं है । इन शरीरधारियों के लिए यह साधारण है।' कुमार ने कहा
हे हे नागरिको ! क्या यह ठीक (सच) है ?' उन्होंने कहा-'महाराज ! निस्सन्देह ठीक (सच) है ।' कुमार ने कहा 'आर्य सारथी ! मैंने इसका भावार्थ जान लिया और न होने की विधि भी जान ली। अतः आर्य से, नगरी के लोगों से कहता हूँ। खेद न करें । पौरुष की नाशिनी, धर्म-अर्थ काम की अपकारिणी, निरादर को उत्पन्न करने
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