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________________ ८६४ [ समराइच्चकहा एयं आपण्णिऊण 'एवमेयं' ति संविग्गा सव्वे । वेलन्धरेण भणियं-भयवं, कोइसं पुण सरूवं सिद्धस्स। भयवधा भणियं-सोम, सुण। से न दोहे न रह(ह)स्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले; वण्णेण न किण्हे न नोले न लोहिए न हालिद्दे न सुविकले; गंधणं न सुरहिगंधे न दुरहिगंन्धे; रसेणं न तित्ते न कडुए म कसाए न अंबिले न लवणे न महुरे; फंसेण न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लक्खे; न संगे न रहे न काउ न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा। परिन्ना सन्ना उवमा चेव न विज्जइ। अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि। से न सद्दे नासहे,से न रूवे नारूवे, से न गन्धे नागन्धे, से न फासे नाफासे, से न रसे नारसे । इमेयं सिद्धसरूवं ति । अवि य सयलपवंचरहियं सत्तामत्तसरूवं अणन्ताणंदं परमपयं ति। एयमायण्णिऊण खओवसममवगयं चारित्तमोहणीयं मणिचंदस्स देवीणं सामंताण य। भणियं च हिं—भयवं, अग्गिहीयाणि अम्हे भगवया इमिणा धम्मदेसगेण । समप्पन्नो य अम्हाणं भयवओ चरियसवणेण संसारचारयाओ निव्वेओ। ता आइसउ भयवं, किमम्हेहि कायव्वं ति। भयवया भणिय-धन्नाणि तुम्भे। पावियं एतदाकर्ण्य ‘एवमेतद्' इति सविग्नाः सर्वे । वेलन्धरेण भणितम् - भगवन् ! कीदश पुनः स्वरूप सिद्धस्य । भगवता भणितम् -सौम्य ! शृण । स न दी? न ह्रस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतुरस्रो न परिमण्डलः; वर्णेन न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लः; गन्धेन न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धः; रसेन न तिक्तो न कटको न कषायो नाम्लो न लवणो न मधुरः; स्पर्शन न कर्क शो न मृदुर्न गुरुको न लघुको न शीतो न उष्णो न स्निग्धो न रूक्षः; न सङ्गो न रुहो न क्लोबो न स्त्री न पुरुषो नान्यथा। परिज्ञा संज्ञा उपमा चैव न विद्यते । अरूपी सत्ता, अपदस्य पदं नास्ति । स न शब्दो नाशब्दः, न रूपो नारूपः, स न गन्धो नागन्धः, स न स्पर्शो नास्पर्शः स न रसो नारसः । इदमेतत् सिद्धस्वरूपमिति । अपि च सकलप्रपञ्चरहितं सत्तामात्रस्वरूपमनन्तानन्दं च परमपदमिति । एतदाकर्ण्य क्षयोपशममुपगतं चारित्रमोहनीयं मुनिचन्द्रस्य देवीनां सामन्तानां च । भणितं च तैःभगवन् ! अनुगृहीता वयं भगवताऽनेन धर्मदेशनेन । समुत्पन्नश्चास्माकं भगवतश्चरित्रश्रवणेन संसारचारकाद् निर्वेदः । तत आदिशतु भगवान्, किमस्माभिः कर्तव्यमिति । भगवता भणितम्-- यह सुनकर- 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार सभी लोगों ने अनुभव किया। वेलन्धर ने कहा- 'भगवन् ! सिद्ध का स्वरूप कैसा है ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो । वे सिद्ध न दीर्घ, न ह्रस्व, न गोल, न तिकोने, न चौकोर और न घेरेवाले हैं। वर्ण से न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीले, न शुक्ल हैं। गन्ध से न सुगन्धित हैं, न दुर्गन्धित हैं। रस में न तीखे हैं, न कडुए हैं, न कषायले हैं, न अम्ल हैं, न लवण हैं, न मधुर हैं। स्पर्श में न कर्कश हैं, न मृदु हैं, न भारी हैं, न लघु हैं, न शीत हैं, न उष्ण हैं, न चिकने हैं, न रूखे हैं, न आसक्त हैं, न उत्पन्न होते हैं, न नपुंसक हैं, न स्त्री हैं, न पुरुष हैं, न अन्य प्रकार के हैं । पहचान, संकेत (तथा) उपमा ही नहीं है। अरूपी सत्ता है, अपद का पद नहीं होता है। वे न तो शब्दवाले हैं, न शब्दरहित हैं, न रूपी हैं, न अरूपी हैं, न न गन्धयुक्त हैं, न गन्धरहित हैं। वे न स्पर्शवाले हैं, न स्पर्शरहित हैं। वे न रसवाले हैं और न रसरहित हैं। यह सिद्ध का स्वरूप है । वे सिद्ध परमात्मा समस्त जंजालों से रहित, सत्ता मात्र स्वरूपवाले, अनन्त आनन्द से युक्त और परमानन्दवाले हैं।' यह सुनकर मुनिचन्द्र, महारानियों तथा सामन्तों के चारित्रमोह का क्षयोपशम हो गया और उन्होंने कहा- 'भगवन् ! भगवान् के इस धर्मोपदेश से हम अनुगृहीत हैं। हम लोगों को भगवान् के चरित्र के सुनने से संसाररूपी कारागार से वैराग्य उत्पन्न हो गया है । अत. भगवान् आदेश दें कि हम लोगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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