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छट्टो भवो]
४७५ हेऊ । कालसेणेण भणियं-अस्थि हओ अईयवरिसम्मि कयंतेणेष केसरिणा कहंचि कंठगयपाणो अहं कओ आसि । तओ इओ उत्तरावहं वच्चमाणेण केणावि सत्थवाहपुत्तेण न याणामो कहिंचि जीवाविओ म्हि। ता एवं मझ सो पाणपयाणहेउ त्ति । तओ सुमरिऊण वृत्तंतं पच्चभियाणिऊण' कालसेणं भणियं संगमेण-जइ एवं, ता आसि दिट्टो तुमए। कालसेणेण सबहुमाणमवरंडिऊण पुच्छिओ संगमओ-भद्द, कहिं सो सत्थवाहपुत्तो। तओ बाहजलभरियलोयणेण भणियं संगमएण-भो महापुरिस, देव्वो वियाणइ त्ति । कालसेणेण भणियं-- कहं विय । संगमएण भणिय- सुण, एसो ख तस्स संतिओ चेव सत्थो । आवडिए य सत्थघाए कोदंडसरसहाओ दिटो मए सबरसम्मुहं धावमाणो। तओन संपयं वियाणामि। तओ एयमायण्णिऊण दोहं च नीससिय 'हा कयमकज्ज' ति भणिऊण मोहम वगओ कालमेणो, वक्कलाणिलेण वीइओ सबरेहि, लद्धा चेयणा । भणियं च णेण - हरे, न एत्थ कोइ वावाइओ त्ति। सबरेहि भणियं - न वावाइओ, केवलं पहारीको त्ति । तओ निरूविया पडिबद्धपुरिसा, न दिट्ठो य धरणो। तओ एगत्थ रित्थं करेऊण समासासिऊण सत्थं पडिबद्धपुरिसाण अस्तीतोऽतीतवर्षे कृतान्तेनेव केसरिणा कथञ्चित् कण्ठगतप्राणोऽहं कृत आसम् । तत इत उत्तरापथं व्रजता केनापि सार्थवाहपुत्रेण न जानीमः कथञ्चिज्जीवितोऽस्मि । तत एवं मम स प्राणप्रदानहेतुरिति । ततः स्मृत्वा वृत्तान्तं प्रत्यभिज्ञाय कालसेनं भणितं सङ्गमेन- यद्येवं तत आसं दृष्टस्त्वया । कालसेनेन सबहुमानमालिङ्गय पृष्ट: संगमकः- भद्र ! कुत्र स सार्थवाहपुत्रः ? ततो वाष्पजलभृतलोचनेन भणितं सङ्गमकेन-भो महापुरुष ! दैवं विजानातीति । कालसेनेन भणितम्-कथमिव । सङ्गमकेन भणितम् -शृणु, एष खलु तस्य सत्क एव सार्थः । आपतिते च सार्थघाले कोदण्डशरसहायो दृष्टो मया शबरसमुखं धावन् । ततो न साम्प्रतं विजानामि । तत एतदाकर्ण्य दीर्घ च निःश्वस्य 'हा कृतमकार्यम्' इति भणित्वा मोहमुपगतः कालसेनः, वल्कलानिलेन वीजितः शबरैः, लब्धा चेतना । भणितं च तेन-अरे नात्र कोऽपि व्यापादित इति । शबरैर्भणितम्-न व्यापादितः, केवलं प्रहारीकृत इति । ततो निरूपिताः प्रतिबद्धपुरुषाः । न दृष्टश्च धरणः । तत एकत्र रिक्थं कृत्वा
तुम्हारे प्रागदान का कारण कैसा?" कालसेन ने कहा--"पिछले वर्ष यमराज जैसे सिंह के द्वारा जब मेरे प्राण कण्ठगत हो गये थे, तब इधर से उत्तरापथ की ओर जाते हुए किसी व्यापारी के पुत्र के द्वारा न मालूम कैसे जीवित कर दिया गया हूँ। इस प्रकार वह मेरे प्राणदान का कारण है ।" इसके बाद वृत्तान्त का स्मरण कर कालसेन को पहिचान कर संगम ने कहा- "यदि ऐसा है तो तुमने ठीक देखा।" काल सेन ने बहुत सत्कार के साथ आलिंगन कर संगम से पूछा-'भद्र ! वह सार्थवाहपुत्र कहाँ है ?" तब आँसुओं से भरे हुए नेत्रों वाले संगम ने कहा- "हे महापुरुष ! भाग्य जानता है।" कालसेन ने कहा-"कैसे?" संगम ने कहा - "सुनो, ये उसके ही साथ का व्यापारियों का काफिला है । अनायास ही सार्थ के मारे जाने पर धनुष-बाण जिसका सहायक है, ऐसे उसे मैंने शबरों के सम्मुख दौड़ते हुए देखा । अतः इस समय (उसके विषय में) नहीं जानता हूँ।" तब इस बात को सुनकर दीर्घ निःश्वास लेकर 'हाय ! मैंने अकार्य किया'-ऐसा कहकर, कालसेन मूच्छित हो गया। वल्कल की वायु से शबरों द्वारा पंखा किये जाने पर चेतना प्राप्त हुई। उसने कहा- "अरे किसी को मारा तो नहीं ?" शबरों ने कहा- "मारा नहीं, केवल प्रहार किया है।" इसके बाद बन्दीपुरुष देखे गये। धरण दिखाई नहीं पड़ा । तब धन को एकत्र कर, साथं को
१. पञ्चहियाणिऊण-क। २. संगमो-क। ३. संगमेण-के। ४.-बुरिस-क । ५. न वृण-क।
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