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[ समराइच्चकहा
तो वीरसेणपमुहा सबरा सव्वे पुणो वि मिलिऊण । अन्नोन्नतज्जणाजणियरोसपसरा समल्लीणा ॥४६६॥ अह निज्जिओ स सत्थो थेवत्तणओ य सबरसेणाए। पयरो पिवीलियाणं भीमं पि भुयंगमं डसइ ॥४६७।। निज्जिणिऊण' य सत्थं रित्थं घेत्तण निरवसेसं पि।
बंदं पि किंपि सबरा उवट्ठिया कालसेणस्स ।।४६८।। मणियं च णेहि-एयं रित्थं सत्थाओ देव आणीयं बंदं च किपि थेवं। संपइ देवो पमाणं ति। तओ कालसे गेण पुच्छिया बंदयपुरिसा-भो कुओ एस सत्थो कस्स वा संतिओ ति। एत्यंतरम्मि सीहकयपहारसंरोहणनिमित्तं सत्यवाहपुत्तेण सहागओ उवलद्धो पच्च भिन्नाओ णेण संगमो नाम सत्यवाहपुत्तपुरिसो। भणियं च णेण-भद्द, कहिं तुमं मए दिहो त्ति। तेण भणियं-न याणामो, तुमं चेव जाणसि ति । कालसेणेण भणियं-अवि आसि तुम इओ उत्तरावहपयट्टस्स मम पाणपयाणहेउणो अविन्नायनामधेयस्स सस्थवाहपुत्तस्स समीवे । संगमेण भणियं-को कहं वा तुह पाणपयाण
ततो वीरसेनप्रमुखाः शबराः सर्वे पुनरपि मिलित्वा। अन्योन्यतर्जनाजनितरोषप्रसराः समालीनाः ॥४॥६॥ अथ निजितः स सार्थः स्तोकत्वाच्च शबरसेनया। प्रकरः पिपीलिकानां भीममपि भुजङ्गमं दशति ॥४६७॥ . निर्जित्य च सार्थ रिक्थं गृहीत्वा निरवशेषमपि।
बन्दिनमपि कमपि शबरा उपस्थिता: कालसेनस्य ॥४४८॥ भणितं च तै:-एतद् रिक्थं सार्थाद्, देव! आनीतं बन्दी च कोऽपि स्तोकः । सम्प्रति देवः प्रमाणमिति । ततः कालसेनेन पृष्टा बन्दिपुरुषाः । भोः कुत एष सार्थः कस्य वा सत्क इति । अत्रान्तरे सिंहकृत-प्रहारसंरोहणनिमित्तं सार्थवाहपुत्रेण सहागत उपलब्ध: प्रत्यभिज्ञातस्तेन सङ्गमो नाम सार्थवाहपुत्रपुरुषः । भणितं तेन--भद्र ! कुत्र त्वं मया दृष्ट इति। तेन भणितं- न जानामि, त्वमेव जानासीति । कालसेनेन भणितम् --अपि आसीस्त्वमित उत्तरापथप्रवृत्तस्य मम प्राणप्रदानहेतोरविज्ञातनामधेयस्य सार्थवाहपुत्रस्य समीपे। सङ्गमेन भणितम्-कः कथं वा तव प्राणप्रदानहेतुः। कालसेनेन भणितं,
__तदनन्तर वीरसेन जिसमें प्रमुख था। ऐसे सभी शबर मिलकर एक-दूसरे को धमकाने से अत्यधिक रोषयुक्त होकर फिर से संगठित हो गये। थोड़े होने के कारण वह व्यापारियों का समूह शबर-सेना के द्वारा जीत लिया गया। चीटियों का समूह भयंकर सर्प को भी डंस लेता है। सार्थ को जीतकर, उनके सम्पूर्ण धन को
और कुछ बन्दियों को भी लेकर शबर कालसेन के सामने उपस्थित हुए । ४६६.४६८।। - उन्होंने (शबरों ने) कहा--- "देव ! व्यापारियों के समुदाय से यह धन लाये हैं, कुछ बन्दी भी लाये हैं । इस समय जो करने योग्य हो उसे कीजिए।" तब कालसेन ने बन्दिपुरुषों से पूछा-"अरे ! यह सार्थ कहाँ से आया
और यह किसके साथ है ?" इसी बीच सिंह के द्वारा किये हुए प्रहार को ठीक करने के निमित्त सार्थवाह पुत्र के साथ आये हुए संगम नामक सार्थवाहपुत्र को उसने पहिचान लिया। उसने कहा-"भद्र ! तुम मुझे कहाँ दिखाई दिये थे?" उसने कहा- "मैं नहीं जानता हूँ, तुम ही जानते हो।" कालसेन ने कहा-“यहाँ उत्तरापथ को जाते हुए मेरे प्राणदान के हेतु अज्ञात नाम सार्थवाहपुत्र के समीप क्या तुम भी थे ?” संगम ने कहा-"कौन ? अथव
१. अह निजिजऊण सत्य-क। २. सहसमागओवलद्धो-क।
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