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________________ छट्टो भवो] ४७३ तीए वहिऊण सत्थो तिष्णि पयाणाइ पल्ललसमीवे । आवासिओ य पल्ललजलयरसंजणियसंखोहं ॥४६० । आवासिऊण तोरे सरस्स मज्झम्मि कोलिऊण सुहं ।' तो रयणीए सत्थो सुत्तो दाऊण थाणाई ॥ ४६१।। 'रयणीए चरिमजामम्मि भीसण (य) सिंगसदृगद्दाभा। अह सवरभिल्लसेणा पडिया सत्थम्मि वीसत्थे ॥४६२।। हण हण हण त्ति गद्दब्भसहसंजणियजुवइसंतासा। अन्नोन्नसंभमालग्गदीहको दंडसंघाया ॥४६३।। तीसे ससद्दबोहियसत्थियपुरिसेहि सह महाभीमं । जुज्झमह संपलग्गं सरोहविच्छिन्नसरनियरं ॥४६४।। सत्थियपुरिसेहि दढं सेणा दप्पुधुरेक्कवीरेहि। आवाए च्चिय खित्ता दिसो दिसं हरिणजह व्व । ४६५।। तस्यामूढवा (वहनं कृत्वा) सार्थस्त्रीणि प्रयाणानि पल्वलसमीपे । आवासितश्च पल्वलजलचरसञ्जनितसंक्षोभम् ॥४६०।। आवास्य तीरे सरसो मध्ये क्रीडित्वा सुखम् । ततो रजन्यां सार्थः सुप्तो दत्त्वा (थाणाई दे.) रक्षाः ।। ४६१।। रजन्याश्चरमयामे भीषणशङ्गशब्द (गद्दभा दे.) कठोरा। अथ शबरभिल्लसेना पतिता सार्थे विश्वस्ते ॥४६२।। जहि जहि जहीति कठोरशब्दसञ्जनितयुवतिसन्त्रासा। अन्योन्यसम्भ्रमाद् लग्नदीर्घकोदण्डसंघाता ॥४६३॥ तस्याः स्वशब्दबोधितसार्थिकपुरुषैः सह महाभीमम् । युद्धमथ सम्प्रलग्नं शरौघविच्छिन्नशरनिकरम् ॥४६४॥ साथिकपुरुषैर्दै ढं सेना दर्पोद्धरैकवीरैः । आपाते एव क्षिप्ता दिशि दिशि हरिणयूथवत् ॥४६५।। व्यापारी-संघ तीन पड़ाव (प्रयाण) करके उस अटवी में तालाब के किनारे, तालाब के जलचरों को क्षोभ उत्पन्न करता हुआ बस गया। तट के किनारे आवास बनाकर तालाब के मध्य क्रीड़ा करके रात्रि में पहरा लगाकर व्यापारी संघ सो गया। अनन्तर रात्रि के अन्तिम प्रहर में सिंगों का भयंकर शब्द करने वाली शबर और भीलों की सेना विश्वासपूर्वक सोये हुए व्यापारियों के समूह पर टूट पड़ी। मारो-मारो-मारी- इस प्रकार क कठोर शब्दों से युवतिजन में वह भय (सन्त्रास) पैदा कर रही थी, परस्पर आवेगयुक्त होने से (यह सेना) बड़े बड़े धनुषों का शब्द करने में संलग्न थी। उस शबर-सैन्य का स्वशब्द से बोधित व्यापारी पुरुषों के साथ महाभयंकर युद्ध होने लगा। बाणों के समूह से बाण टूटने लगे। दर्पयुक्त वीर व्यापारी पुरुषों ने सुदृढ़ शबर सैन्य को अकस्मात् प्राप्त संकट की दशा में हरिणों के झुण्ड की भाँति दिशाओं-दिशाओं में गिरा दिया अर्थात् तितर-बितर (छिन्न भिन्न) कर दिया ।। ४६०-४६५॥ १. चिरं-क । २. एत्थंतरम्मि- इत्यधिकः पाठः क-पुस्तके । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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