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________________ [समराइच्चकहा चणेण, जाव अस्थि कोडिमेत्तं ति । तओ गहियं मायंदिसंववहारोचियं भंडं। भराविओ सत्थो। पयट्टो नियदेसागमणनिमित्तं महया चडयरेण । पइदियहपयाणेग य सवरवहूगेयसु(म)हियमयजूहं । थेवदियहेहि सत्थो पत्तो कायंबरि अडविं ॥४८५॥ वसहमयम हिससद्यकोलसयसंकुलं महाभीमं । माइंदविदचंदणनिरुद्धससिसूरकरपसरं ॥४८६॥ फलपुट्ठतरुवरट्टियपरपुटविमुक्कविसमहलबोल । तरुकणइकयंदोलणवाण रवुक्काररमणिज्जं ॥४८७॥ मयणाहदरियरुंजियसद्दसमुत्तत्यफिडियगयजहं । वणदवजालावेढियचलमयरायंतगिरिनियरं ॥४८॥ नियवराहधोणाहिघायजज्जरियपल्ललोयंतं । दप्पुर्धरकरिनिउरुंबदलिहितालसंघायं ।।४८६ ।। च तेन, यावदस्ति कोटिमात्रमिति । ततो गृहतं माकन्दसंव्यवहारोचितं भाण्डम् । भरितः सार्थः । प्रवत्तो निजदेशागमननिमित्तं महताऽऽडम्बरेण । प्रतिदिवसप्रयाणेन च शबरवधूगेयमुग्धमगयथाम् । स्तोक दिवसैः सार्थः प्राप्त: कादम्बरीमटवीम् ॥४८५।। वृषभ-मृग-महिष-शार्दूल-कोलशतसंकुलां महाभीमाम् । माकन्दवृन्द-चन्दननिरुद्धशशि-सूरकरप्रसराम् ॥४८६।। फलपुष्टतरुवरस्थितपरपुष्टविमुक्तविषमकोलाहलाम् । तरुलताकृतान्दोलनवानरवुत्कारमणीयाम् ॥४८७॥ मृगनाथदृप्तरुञ्जितशब्दसमुत्त्रस्तस्फेटितगथयूथाम् । वनदवज्वालावेष्टितचलन्मगराजदगिरिनिकराम ॥४८८।। निर्दयवराहघोणाभिघातजरितपल्लवलोपान्ताम् । दोधुरकरिनिकुरम्बदलितहिन्तालसंघाताम् ॥४८६।। (वह) एक करोड़ प्रमाण था। अनन्तर माकन्दी में बेचने योग्य माल को लिया । सौदागरों की टोली के साथ माल को लेकर बडे ठाठ-बाट के साथ अपने देश को आने के निमित्त प्रवृत्त हआ। प्रतिदिन प्रयाण करता हुआ व्यापारी-संघ थोड़े ही दिनों में अत्यन्त भयङ्कर कादम्बरी नामक अटवी में पहुँचा। इस अटवो में शाबरवधुएँ सुन्दर मृगसमूह के विषय में गीत गा रही थीं। बैलों, हरिणों, भैसों, चीतों तथा सैकड़ों बड़े सूकरों से व्याप्त थीं, आमों के वृक्ष तथा चन्दन वृक्षों से सूर्य और चन्द्र की किरणों का प्रसार जहाँ अवरुद्ध था, फलों से पुष्ट उत्तम वृक्षों पर बैठी कोयलों द्वारा जहाँ विषम कोलाहल हो रहा था, वृक्षों और लताओं पर हलचल करनेवाले वानरों के शब्द से जो रमणीय थी, सिंह की गर्वीली दहाड़ों से भयभीत (आतंकित) तथा चिंघाड़ते हुए गज समूह से जो युक्त थी, दावाग्नि की ज्वालाओं से वेष्टित चलते हुए मुगों से जहाँ के पर्वत समूह क्षोभित हो रहे थे, निर्दय शूकरों की नाक के प्रहारों से जहाँ तालाब के किनारे जर्जरित हो रहे थे और दर्पयुक्त हाथियों का समूह जहाँ हिन्ताल (एक प्रकार के जंगली खजूर) के पेड़ों को तोड़ रहा था। ४३५-४८६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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