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________________ सत्तमो भवो ६०६ त्ति चितियमणेहिं । नीया वीसउरं. कुमारचरियसणाहं च निवेइया सरवकेउणो, परक्कमवल्लहत्तणेण दिट्ठा य जेणं । कुमाररूवाइसएण विम्हिओ गया। चितियं चणेण-अहो को उण एसो महाणुभावो। अहवा भवियन्वमण नरवइसुएणं । अन्नहा कह ईइसा रूवपरक्कम त्ति । ता गर्वसिस्सामि ताव एयं, इम पुण तक्करं वावाएमि त्ति । आइट्ठच गं-हरे वावाएह एवं दुरायारं तक्कर, इमं पुण महाणुभावं पडियग्गह ति। कुमारेण भणियं-अहो मे महाणभावया, जो एयम्मि वावाइज्जमाणे पाणे रक्खेमि। ता किं इमिणा; ममं चेव वावायसु त्ति । तओ 'अहो से धीरगरुओ आलावो: अहवा उचियमेव एवं इमाए आगिईए'त्ति चितिऊण जंपियं नरिदेणं- भो महाणुभाव, कं पुण भवंतमवगच्छामि । तओ कुमारेण निरूवियाई पासाइं। एत्थंतरम्मि मणियकुमारवृत्तंतो कइवयपुरिसेहि' घेत्तूण दरिसणिज्जं कुमारवुत्तंतसाहणत्थमेव राइणो समागओ साणुदेवो। पडिहारिओ पडिहारेणं । अणुमओ राइणा। पविट्ठो य एसो। दिट्ठो नरवई। समप्पियं दरिसणिज्जं बहुमन्निओ राइणा। दवावियं आसणं । भणिओ य णेणं- 'उविससुत्ति । सो य तहा अणेयपहारपोडियं पेच्छिऊण कुमार नीतौ विश्वपुरम्, कमारचरितसनाथं च निवेदितौ शबरकेतोः, पराक्रमवल्लभत्वेन दृष्टौ च तेन । कुमाररूपातिशयेन विस्मितो राजा। चिन्तितं च तेन -- अहो कः पुनरेष महानुभावः । अथवा भवितव्यमनेन नरपतिसुतेन । अन्यथा कथमीदशौ रूपपराक्रमौ इति । ततो गवेषयामि तावदेतम्, इमं पुनः तस्करं व्यापादयामीति । आदिष्टं च तेन-अरे व्यापादयतैतं दुराचार तस्करम्, इमं पुनमहानुभावं प्रतिजागृतेति । कुमारेण भणितम्-अहो मे महानुभावता, य एतस्मिन् व्यापाद्यमाने प्राणान् रक्षामि । ततः किमनेन, मां चैव व्यापादयेति । ततो 'अहो तस्य धीरगुरुक आलापः, अथवोचितमेवैतदस्या आकृत्याः' इति चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्रेण । भो महानुभाव ! कं पुनर्भवन्तमव. गच्छामि । ततः कुमारेण निरूपितानि पाश्र्वाणि । अत्रान्तरे ज्ञात कुमारवृत्तान्त: कतिपय पुरषैगहीत्वा दर्शनीयं कुमारवृत्तान्तकथनार्थमेव राज्ञः समागतः सानुदेवः । प्रतिहारितः (अवरुद्धः) प्रतीहारेण । अनुमतो राज्ञा। प्रविष्टश्चषः । दृष्टो नरपतिः । समर्पितं दर्शनीयम् । बहुमानितो राज्ञा । दापितमासनम् । भणितश्च तेन 'उपविश' इति । स च तथाऽनेकप्रहारपीडितं प्रेक्ष्य कुमारं विस्मित हुए। 'यह कौन है'-ऐसा इन लोगों ने विचार किया। दोनों को विश्वपुर ले गये, कुमार के चरित के साथ दोनों को शबरकेतु से निवेदन किया। पराक्रम के प्रति प्रेम रखने के कारण उसने दोनों को देखा । कुमार के रूप की अतिशयता से राजा विस्मित हुआ। उसने सोचा-ओह ! यह कौन महानुभ व है ! अथवा इसे राजपुत्र होना चाहिए, नहीं तो इस प्रकार का रूप और पराक्रम कैसे होता? अत: इसके विषय में खोज करता हूँ और इस चोर को मार डालता हूँ। उसने आदेश दिया- 'अरे ! इस दुराचारी चोर को मार डालो और इन महानुभाव (कुमार) के प्रति सावधान रहो।' कुमार ने कहा-'ओह, मेरी महानुभावता ! जो कि इसके मारे जाते हुए मैं प्राणों की रक्षा कर रहा हूँ ? अत: इससे क्या, मुझे ही मार दो।' तब ओह ! इसका धीरता के गौरव से युक्त कथन अथवा इसकी आकृति के यह योग्य है - ऐसा सोचकर राजा ने कहा -- 'हे महानुभाव ! मैं आपको कौन ज यूँ ?' अनन्तर कुमार ने आस-पास देखा। इसी बीच कुमार का वृत्तान्त जानकर कुछ पुरुषों के द्वारा लाया हुआ, दर्शनीय कुमार के वृत्तान्त को राजा से कहने के लिए ही मानो सानदेव आ गया। द्वारपाल ने रोक दिया। राजा ने अनुमति दे दी। यह प्रविष्ट हुआ । राजा को देखा ! देखने योग्य वस्तु भेंट की। राजा को सम्मान दिया, आसन १. परियरिओ' इत्यधि: कापूस्तके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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