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________________ [समराइच्चकहा गहिओ महासोएणं । निवडिओ धरणिवठे। तओ राइणा 'हा किमयं' ति सिंचाविओ उदएणं, वीयाविओ चेलकणेहि । समागया से चेयणा । भणिओ य राइणा-भद्द, किमयं ति। साणदेवेण भणियं-देव, सच्चमेयं रिसिवयणं 'असारो संसारो, आवयाभायणं च एत्थ पाणिणो', जेण चंपा. हिवसुयस्स कुमारसेणस्य वि ईइसी अवत्थ त्ति । तओ 'न अन्नहा मे वियप्पियंति चितिऊण जपियं नरिदेणं-भद्द, कहं पुण एस एहमेत्तपरियणो इमं अरण्णमुवगओ ति। साणदेवेण भणियं-देव, न याणामि परमत्थं; मए वि एस रायउराओ तामनित्ति पत्थिएणं चंपावासए सन्निवेसे कलत्तमेत्तपरिवारो वणनिउंजे उवलतो ति। रायउरदसणाणुसरणेण पच्चभिन्नाओ य एसो। जाया य मे चिता। किं पुण एस रइदुइओ विय मयरकेऊ रायधूयामत्तपरियणो एवं वट्टइ ति । एवमाई साहिओ पत्थणापज्जंतो सयलवइयरो। तओ देव, आयणियं मए सबरपुरिसेहितो, जहा देवाएसागयाए धाडीए नीया कुमारपल्लोवइणो । एयं च सोऊण इमस्स चेव वइयरस्स विन्नवणनिमित्तं आगओ देवसमीवं । संपयं देवो पमाणं ति। राइणा भणियं-भद्द, साहु कयं ति । जुत्तमेव एवं तएजारिसाणं गहीतो महाशोकेन, निपतितो धरणीपृष्ठे। ततो राज्ञा 'हा किमेतद्' इति सिञ्चित उदळेन, वीजितश्च चेलकर्णैः । समागता तस्य चेतना। भणितश्च राज्ञा-भद्र ! किमेतदिति । सानुदेवेन भणितम्-देव ! सत्यमेतद् ऋषिवचनम्, 'असार: संसारः, आपद्भाजनं चात्र प्राणिनः', येन चम्पाधिपसुतस्य कुमारसेनस्यापीदृश्यवस्थेति । ततो 'नान्यथा मे विकल्पितम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्रेण-भद्र ! कथं पुनरेष एतावन्मात्रपरिजन इदमरण्यमुपगत इति । सान्देवेन भणितम -देव ! न जानामि परमार्थम्, मयाऽपि एष राजपुरात् ताम्रलिप्ती प्रस्थितेन चम्पावासके सन्निवेशे कलत्रमात्रपरिवारो वननिकुञ्ज उपलब्ध इति । राजपुरदर्शनानुस्मरणेन प्रत्यभिज्ञातश्चैषः । जाता च मे चिन्ता । किं पुनरेष रतिद्वितीय इव मकरकेतू राजदुहितृमात्रपरिजन एवं वर्तत इति । एवमादिः कथितः प्रार्थनापर्यन्तः सकलव्यतिकरः । ततो देव ! आकणितं मया शबरपुरुषेभ्यः, यथा देवादेशादागतया धाट्या नीतौ कुमारपल्लीपती। एतच्च श्रुत्वा अस्य चैव व्यतिकरस्य विज्ञापननिमित्तमागतो देवसमीपम् । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । राज्ञा भणितम् .. भद्र, साधु कृतमिति । युक्त दिया और उससे कहा-'बैठो।' वह अनेक प्रहारों से पीड़ित कुमार को वसा देखकर बहुत दुःखी हुआ और (दुःखातिशय के कारण वह) धरती पर गिर गया। तदनन्तर राजा ने---'हाय यह क्या' ऐसा कहकर पानी से सीचा और कपड़े के पखों से हवा की। उसे होश आया। राजा ने कहा--'भद्र ! यह क्या है ?' सानुदेव ने कहा---'महाराज ! ऋषि के वचन सत्य हैं कि संसार असार है और यहाँ प्राणी आपत्ति के पात्र होते हैं, जिससे कि चम्पानगरी के राजपुत्र कुमारसेन की यह अवस्था है।' अनन्तर 'मैंने भिन्न प्रकार से नहीं सोचा था' - ऐसा विचारकर राजा ने कहा- 'भद्र! यह कैसे इतने मात्र परिजनों से युक्त होकर इस वन में आया ?' सानदेव ने कहा -- 'महाराज, वास्तविक बात नहीं जानता हूँ। राजपुर से ताम्रलिप्ती को जाते हुए 'चम्पावास' नामक सन्निवेश में स्त्री मात्र परिवार के साथ यह वन के निकुंज में प्राप्त हुआ था। राजपुर में चूंकि इसे देखा था, अतः पहिचान लिया और मुझे चिन्ता हुई-रतियुक्त कामदेव के समान राजपूत्री मात्र परिजन युक्त यह ऐसा क्यों ? इस प्रकार आदि में लेकर प्रार्थना पर्यन्त समस्त घटना कही । अनन्त र महाराज ! मैंने शबरपुरुषों से सुना कि महाराज के आदेश से सेना आकर कुमार और पल्लीपति को ले गयी। यह सुनकर इसी घटना का निवेदन करने के लिए महाराज के पास आया हूँ । अब महाराज प्रमाण है।' राजा ने कहा - 'भन्द ! सीक किया ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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