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[ समराइच्चकहा
भणियं-असंखेज्जेसु पोग्गलपरियट्टेसु समइच्छिएसु तिरियगईए सदूलसेणराइणो पहाणतुरंगमो होऊण पाविस्सइ, जओ 'अहो महाणुभावो' ति मं उद्दिसिय चितियमणेण । एएणं च पसत्थविसयचितणेण आसगलियं गणपक्खवायबीयं; कारणं च तं परंपरयाए सम्मतस्स। अईएसु य असंखेज्जभवेस संखनाममाहणो होऊण सिज्झिस्सइ ति । एवं सोऊण हरिसिओ वलंधरो। वंदिऊण भयवंतं गओ निययथामं । भयवं पि विहरिओ केवलिविहारेण।
अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया य चोरवइयरेण उज्जेणीए चेव गहिओ गिरिसेणपाणो, वावाइओ कुंभिपाएण। तहाविहभयवंतपओसदोसओ समुप्पन्नो सत्तममहीए। भयवं पि विहरमाणो कालक्कमेण गओ उसहतित्थं । नाऊण कम्मपरिणइं कओ केवलिसमग्घाओ. पडिवन्नो सेलेसि, खवियाई भवोवग्गाहिकम्माइं। तओ सव्वप्पगारेण चइऊण देहपंजरं अफुसमाणगईए गओ एक्कसमएण तेलोक्कचूडामणिभूयं अप्पत्तपुव्वं तहाभावेण परमबंभालयं उत्तमं सव्वथामाण सिवं एगतेण अचलमरुज साहयं परमाणंदसुहस्स जम्मजरामरणविरहियं परमं सिद्धिपयं ति। कया तियसेहि
भगवता भणितम्-असंख्येयेषु पुद्गलपरिवर्तेष समतिक्रान्तेषु तिर्यग्गतौ शार्दूलसेनराजस्य प्रधानतुरङ्गमो भूत्वा प्राप्स्यति, यतो 'अहो महानुभावः' इति मामुद्दिश्य चिन्तितमनेन । एतेन च परमार्थविषयचिन्तनेन प्रादुर्भूतं गुणपक्षपातबीजम्, कारण च तत् परम्परया सम्यक्त्वस्य । अतीतेषु चासंख्येयभवेषु शङ्खनाम ब्राह्मणो भूत्वा सेत्स्यतोति । एतच्छुत्वा हर्षितो वे लन्धरः। वन्दित्वा भगवन्तं गतो निजस्थानम् । भगवानपि विहृतः केवलि विहारेण ।।
अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च चौरव्यतिकरेण उज्जयिन्यामेव गहीतो गिरिषेणप्राणः, व्यापादितः कुम्भिपाकेन । तथाविधभगवत्प्रवषदोषतः समुत्पन्नः सप्तममह्याम् । भगवानपि विहरन् कालक्रमेण गत ऋषभतीर्थम् । ज्ञात्वा कर्मपरिणति कृत: केवलि समुद्घातः, प्रतिपन्नः शैलेशीम क्षपितानि भवोपग्राहिकर्माणि । ततः सर्वप्रकारेण त्यक्त्वा देहपञ्जरमस्पृशद्गत्या गत एकसमयेन त्रैलोक्यचूणामणिभूतमप्राप्तपूर्व तथाभावेन परमब्रह्मालयमुत्तमं सर्वस्थानानां शिवमेकान्तेनाचल
या नहीं ?' भगवान् ने कहा-'असंख्य पुद्गल परावर्त बीत जाने पर तियंचगति में शार्दूलसेन राजा का प्रधान घोडा होकर प्राप्त करेगा; क्योंकि 'ओह ! महान् प्रभाववाला है'-इस प्रकार इसने सोचा। इस परमार्थ विषय का चिन्तन करने से गुणों के प्रति पक्षपात का बीज उत्पन्न हआ और वह परम्परा से सम्यक्त्व का कारण है। असंख्य भवों के बीत जाने पर शंख नामक ब्राह्मण होकर प्राप्त करेगा।' यह सुनकर वेलन्धर हर्षित हआ।' भगवान् की बन्दना कर अपने स्थान पर चला गया। भगवान् भी वेवलीगमन से विहार कर गये।।
कुछ समय बीत गया । एक बार चोरी की घटना से उज्जयिनी में गिरिसेन नामक चाण्डाल पकड़ा गया। कुम्हार के आवे में डालकर मार दिया गया। उस प्रकार के भगवान के प्रति द्वेष के कारण सातवें नरक में उत्सल हआ। भगवान भी विहार करते हुए कालक्रम से ऋषभतीर्थ गये। कर्म की परिणति को जानकर केवलिसमुद्घात किया, शै ने शी स्थिति (मेरु की तरह निश्चल साम्यावस्था अथवा योगी को सर्वोत्कृष्ट अवस्था) को प्राप्त किया। संगर का योग करानेवाले कर्मों का नाश कर दिया। उन्होंने सब प्रकार से शरीररूपी पिंजड़े को छोड़कर अमी गति से एक साथ तीनों लोकों के चूड़ामणि भूत. जिसे पहले नहीं पाया है ऐसे परम ब्रह्मालय
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