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________________ अट्ठमो भवो ] . ७८७ अइक्कतो कोइ कालो। इओ य वाणमंतरस्स खीणप्पाए इहभवाउए उदयाभिमुहोहूयं रिसिवहपरिणामसंचियं असुह- .. कम्म, समुप्प-नो तिव्वो वाही उवहयाइ इंदियाइं, पणट्ठो नियसहावो, उइण्णा असुहवेयणा । तओ य उवयरिज्जमाणो पसिद्धोवक्कमेण सहावविवरीययाए अहिययरमक्कंदमाणो अनिउणवेज्जवयणेण अप्पसिद्धोवक्कमेण विट्ठाइविट्टालणाइकंटयसयणीयसंगओ महामोहगमणेण परिचत्तकंदसद्दो गमिऊण कंचि कालं अइरोद्दज्झाणदोसेण मओ समाणो समुप्पन्नो महातमाहिहाणाए निरयपुढवीए तेत्तीससागरोवमाऊ नारगत्ताए ति। भयवं पि विहरिऊण विसुद्धविहारेण सेविऊण परमसंजमं खविऊण कम्मरासि काऊण भावसंलेहणं भाविऊण भावणाओ खामिऊण सव्वजीवे गंतण पहाणथंडिल वंदिऊण वीयरागे रुभिऊण चेटाओ काऊण महापयत्तं पवन्नो पायवोवगमणं ति । अणुपालिऊण तमेगंतनिरइयारं वंदिज्जमाणो मुणिगणेहि अति कान्तः कोऽपि कालः। ___ इतश्च वानमन्तरस्य क्षीणप्राये इहभवायुषि उदयाभिमुखीभूतं ऋषिवधपरिणामसंचितमशुभकर्म, समुत्पन्नस्तीवो व्याधिः, उपहतानीन्द्रियाणि, प्रनष्टो निजस्वभावः, उदीर्णाऽशुभवेदना। ततश्चोपचर्यमाणः प्रसिद्धोपक्रमेण स्वभावविपरीततयाऽधिकतरमा क्रन्दन् अतिनिपुणवैद्यवचनेनाप्रसिद्धोपक्रमेण विष्टादिविट्टालनादि (अस्पृश्यपरिलेपन)-कण्टक शयनीयसङ्गतो महामोहगमनेन परित्यक्ताक्रन्दशब्दो गमयित्वा कंचिद् कालमतिरौद्रध्यानदोषेण मृतः सन् समुत्पन्नो महातमोऽभिधानायां निरयपृथिव्यां त्रयस्त्रिशत्सागरोपमायु रकत्वेनेति । भगवानपि विहृत्य विशुद्धविहारेण सेवित्वा परमसंयम क्षपयित्वा कर्मराशि कृत्वा भावसंलेखनां भावयित्वा भावना: क्षामयित्वा सर्व जीवान् गत्वा प्रधानस्थण्डिलं वन्दित्वा वीतरागान् रुद्ध्वा चेष्टाः कृत्वा महाप्रयत्नं प्रपन्नः पादपोपगमनमिति । अनुपाल्य तदेकान्तनिरतिचारं वन्द्य भगवान् विहार कर गये । कुछ समय बीत गया। इधर इस भव की आयु लगभग क्षीण होने पर, ऋषि के वधरूप परिणामों से अशुभ कर्मों का संचय करने के कारण वानमन्तर को तीव्र रोग उत्पन्न हो गया, इन्द्रियाँ विनष्ट हो गयीं, अपना स्वभाव खो गया, अशुभ वेदना उदीर्ण हुई। अनन्तर प्रसिद्ध उपक्रमों से उपचार किया जाता हुआ, स्वभाव की विपरीतता से अत्यधिक चीखता हुआ, अत्यन्त निपुण वैद्य के वचनों से अप्रसिद्ध उपक्रम के द्वारा विष्टा, वीट आदि अस्पृश्य लेपन तथा काँटों की शय्या से युक्त हो अत्यधिक मूच्छित हो चीखना छोड़कर, कुछ समय बिताकर, अत्यन्त रौद्रध्यान के दोष से मरकर 'महातम' नामक नरक की पृथ्वी में तेतीस सागर की आयुवाले नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ। भगवान् भी विहार कर विशुद्ध विहार से परम सयम का सेवन कर, कर्मराशि का क्षय कर, भावपूर्वक सल्लेखना धारण कर, भावनाओं का चिन्तन कर, समस्त जीवों को क्षमाकर, प्रधान स्थण्डिल जाकर, वीतरागों की वन्दना कर, चेष्टाओं को रोककर, महाप्रयत्न कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। उस (समाधिमरण) का अत्यन्त रूप से निरतिचार पालन कर मुनिजनों द्वारा वन्दित हो, लोगों से पूज्य हो, अप्सराओं द्वारा गाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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