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________________ ३[समराइच्चकहा तह पाइओ रसंतो तत्ताइ तउयतंबसीसाइं। संडासरियमहो मज्जरसासंगदोसेणं ॥६७४ ॥ . तिरिएस वि ससारे असई पत्ताइ तिव्वदुक्खाई। वहवाहणनेलंछणदहणकणभेय भिन्नाई ॥ ६७५ ॥ मणुएस वि य नराहिव! परवसदारिद्दपंडगादीणि । एवं न किंचि एय ति चयसु निक्कारणं सोय ॥६७६ ॥ राइणा भणियं-भयवं, असोयणिज्जो तुमं, कओ तए सफलो मणयजम्मो, पत्तं विवेयाउहं, निउतो ववसाओ, थिरीको अप्पा, विजिओ भावसत्तू, वसीकया तवसिरी, उज्झिओ पमाओ, वोलियं भवगहणं, पत्तप्पाओ मोक्खो ति। सोयणिज्जो उण सो किलिटुसत्तो, जो भयवओ उवसग्गकारि त्ति । भयवया भणियं-महाराय. ईइसो एस संसारो; ता किमन्नचिताए, अप्पाणयं चितेहि । राइणा भणियं-आइसउ भयवं, कस्स उण समीवे अहं सयलसंगचायं करेमि। भयवया भणियंभयवओ विजयधम्मगुरुणो ति। पडिस्सुयं राइणा, अणुचिट्ठियं विहाणेण । विहरिओ भयवं । तथा पायितो रसन् तप्तानि वपुताम्रसीसानि । संदंशधृतमुखो मद्यरसासङ्गदोषेण ॥६७४।। तिर्यक्ष्वपि संसारेऽसकृत्प्राप्तानि तीव्रदुःखानि । वधवाहननिर्लाञ्छनदहनाङ्कनभेदभिन्नानि ।।९७५॥ मनुजेष्वपि च नराधिप ! परवशदारिद्रयपण्डगादीनि । एवं न किञ्चिदेत दिति त्यज निष्कारणं शोकम् ।।९७६॥ राज्ञा भणितम् -भगवन् ! अशोचनीयस्वम, कृतस्त्वया सफलं मनजजन्म, प्राप्त विवेकायुधम्, नियुक्तो व्यवसायः, स्थिरीकृत आत्मा, विजितो भावशत्रुः, वर्श कृता तपश्रोः, उज्झितो प्रमाद., अतिक्रान्तं भवगहनम्, प्राप्तप्रायो मोक्ष इति । शोचनीयः पुनः स क्लिष्टसत्त्वः, यो भगवत उपमर्गकारीति । भगवता भणितम् -महाराज ! ईदृश एष संसारः, ततः किमन्यचिन्तया, आत्मानं चिन्तय । राज्ञा भणितम्-आदिशतु भगवान्, कस्य पुनः समोपेऽहं सकलसङ्गत्यागं करोमि । भगवता भणितम्-भगवतो विजयधर्मगुरोरिति । प्रतिश्रुतं राज्ञा, अनुष्ठितं विधानेन । विहृतो भगवान। काटकर खिलाया गया । मद्यरस के प्रति आसक्ति के दोष से सँडासी से मुंह में डालकर तपाये हुए रांगे, तांबे तथा शीशे का रस पिलाया गया। इस संसार में वध, वाहन, छेदन, जलाना, अंकन, भेदनरूप भेदवाले तीव्र दुःखों को अनेक बार तिर्यचगतियों में भी प्राप्त किया और मनुष्य भवों में भी । हे राजन्, दूसरे के वश में होना. दरिद्रता तथा नपसक होना आदि दुःखों को भोगा। यह तो कुछ नहीं है अत: निष्कारण शोक छोड़ो।' १९४७-६७६।। : राजा ने कहा--'भगवन् ! आप शोक करने के योग्य नहीं हैं, आपने मनुष्यजन्म को सफल कर दिया। विवेकरूपी आयुध को पा लिया, कार्य नियुक्त कर लिया, आत्मा को स्थिर कर लिया, भावरूप शत्रु को जीत लिया. प्रमाद को छोड दिया, तपरूप लक्ष्मी को वश में कर लिया, गहन संसार को लाँघ लिया और मोक्ष को लगभग पा लिया। वह विरोधी प्राणी शोक करने के योग्य है जिसने भगवान पर उपसर्ग किया। भगवान ने कहा---'महाराज ! यह संसार ऐसा ही है अत: अन्य की चिन्ता से क्या, अपने विषय में सोचो।' राजा ने :: कहाँ : 'भगवन, आदेश दीजिए मैं किसके पास समस्त परिग्रहों का त्याग करूँ ?' भगवान ने कहा- 'भगवान् विजय धर्म गुरु के पास समस्त परिग्रहों का त्याग कीजिए।' राजा ने स्वीकार किया और विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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