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________________ अट्ठमो भवो] ७४१ तो हुयवहं पविट्ठा किलिटुचित्ता य नवर मरिऊण। जत्थेव तुमं नरए इमी वि तत्थेव उववन्ना ॥६०३॥ सत्तरससागराऊ गमिओ दुक्खेण कहवि तुहिं । तत्थ अहाउयकालो निच्चुग्विग्गेहि भीएहि ॥६०४॥ उव्यट्टिऊण य तमं निरयाओ पुक्खरद्धभरहम्मि । जाओ सि गहवइसुओ 'वेण्णाए दरिद्दगेहम्मि ९०५॥ एसा वि तुज्झ जाया तत्थेव य भारहम्मि वासम्मि । जाया दरिद्दधूया नवरं तुझं सजाईए ॥६०६॥ कालेण दोण्णि वि तओ तुब्भे अह जोवणं उवगयाइं। जाओ य कहवि नवरं तत्थ वि तुम्हाण वीवाहो ॥६०७॥ नेहवसेण य तुम्भे तत्थ वि दारिद्ददुक्खविमुहाई। चिट्ठह जहासुहेणं अन्नोन्नं बद्धरायाई ॥६०८॥ ततो हुतवहं प्रविष्टा क्लिष्टचित्ता च नवरं मत्वा । यौव त्वं नरके इयमपि तत्रैवोपपन्ना ॥६०३॥ सप्तदशसागरायुर्गमितो दुःखेन कथमपि युवाभ्याम् । तत्र यथायुःकालो नित्योद्विग्नाभ्यां भीताभ्याम् ॥६०४॥ उद्वर्त्य च त्वं निरयात् पुष्कराईभरते। जातोऽसि गृहपतिसुतो वेण्णायां दरिद्रगेहे ॥६०५॥ एषापि तव जाया तत्रैव च भारते वर्षे । जाता दरिद्रदुहिता नवरं तव सजात्या ।।६०६।। कालेन द्वावपि ततो युवामथ यौवनमुपगतो। जातश्च कथमपि नवरं तत्रापि युवयोविवाहः ॥९०७॥ स्नेहवशेन च युवां तत्रापि दारिद्रयदुःखविमुखौ। तिष्ठथो यथासुखेनान्योन्यं बद्धरागौ ॥६०६॥ में प्रविष्ट होकर दुःखीमन अकेली मरकर जिस नरक में तुम थे उसी नरक में यह भी उत्पन्न हुई। तुम दोनों ने जिस किसी प्रकार सत्रह सागर की आयु बितायी। वहाँ पर नित्य उद्विग्न और भयभीत रहकर आयु पूरी कर तुम दोनों ने मरण प्राप्त किया और तुम नरक से निकलकर पुष्कराच भरत की वेष्णा नगरी में गृहपति दरिद्र के घर पुत्र उत्पन्न हुए। यह तुम्हारी पत्नी भी उसी भारतवर्ष में तुम्हारी सजातीय दरिद्रपुत्री हुई। समय पाकर तुम दोनों युवा हुए और यौवनावस्था को प्राप्त तुम दोनों का वहाँ किसी प्रकार विवाह भी हो गया। स्नेह के वश वहाँ भी तुम दोनों दरिद्रता के दुःख से विमुख होकर सुखपूर्वक रहकर एक दूसरे के प्रति राग में बंधे १. चित्ताए-पा. ज्ञा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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