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________________ ७४२ [समराइच्चकहा अह अन्नहा य दिट्ठा नियए गेहम्मि अच्छमाणेहि । तुब्भेहि साहुणीओ समुयाणकए पविटाओ॥६०६॥ दठ्ठण तओ ताओ सद्धासंवेगपयडपुलएहि । पडिलाहियाउ फासुयभिक्खादाणेण विहिपुव्वं ॥१०॥ कत्थ दियाउ तुब्भ इय पुढाओ य ताहि वि य सिढ़। वसुसेटिघरसमोवे पडिस्सए नयरमज्झम्मि ॥११॥ घेत्तण फल्लनियरं वासरविरमम्मि तो पयट्राई। पुवकहियं सहरिसं पडिस्सयं भत्तिजुत्ताई॥१२॥ पत्ताइं च कमेणं पइसमयं वड्ढमाणसद्धाइं। दिट्ठा य तत्थ गणिणी सुपसंता सुव्वया नाम ॥१३॥ पुरओ संठियपोत्थयनिविद्वदिट्ठी नमंततणुणाला। लोयणभमरभरोणयसुवयणकमला कमलिणि व्व ॥१४॥ अथान्यदा च दृष्टा निजे गेहे आसीनाभ्याम् । युवाभ्यां साध्व्यः समुदानकृते प्रविष्टाः ॥६०६॥ दृष्ट्वा ततस्ताः श्रद्धासंवेगप्रकटपुलकाभ्याम् । प्रतिलाभिताः प्रासुकभिक्षादानेन बिधिपर्वम् ॥६१०॥ कुत्र स्थिता यूयमिति पृष्टाश्च ताभिरपि शिष्टम् । वसुश्रेष्ठिगृहसमीपे प्रतिश्रये नगरमध्ये ॥६११॥ गृहीत्वा पुष्पनिक र वासरविरमे ततः प्रवृत्तौ। पूर्वकथितं सहर्ष प्रतिश्रयं भक्तियुक्तौ ॥६१२॥ प्राप्तौ च क्रमेण प्रतिसमयं वर्धमानश्रद्धौ। दृष्टा च तत्र गणिनो सुप्रशान्ता सुव्रता नाम ॥६१३॥ पुरतः संस्थितपुस्तकनिविष्टदष्टिर्नमत्तनुनाला। लोचनभ्रमरभरावनतसुवदनकमला कमलिनीव ॥६१४॥ होकर रहते थे। इसके बाद एक दिन तुम दोनों को अपने घर में बैठे देखकर आहार के लिए साध्वियां प्रविष्ट हई। अनन्तर उन्हें देखकर श्रद्धा और वैराग्य के कारण जिन्हें रोमांच प्रकट हुए हैं ऐसे तम दोनों ने विधिपूर्वक प्रासूक भिक्षा (आहार) का दान दिया। 'आप सब कहाँ ठहरी हैं?'-ऐसा पूछने पर उन्होंने भी कहा कि नगर के बीच में वसु श्रेष्ठि के घर के पास प्रतिश्रय (आश्रम) में ठहरी हुई हैं। अनन्तर दिन की समाप्ति होने पर भक्ति से युक्त हो हर्षपूर्वक फूलों को लेकर तुम दोनों पहले कहे हुए आश्रम में गये। प्रति समय क्रमश: बढ़ती हुई श्रद्धा वाले तुम दोनों वहाँ पहुँचे, वहाँ सुप्रशान्त सुव्रता नामक गणिनी के दर्शन किये। वह गणिनी सामने रखी हुई पुस्तक पर दृष्टि लगाये हुई थीं, उनका शरीररूपी कमलदण्ड कुछ झुका हुआ था, नेत्ररूपी भौरों के भार से अवनत मुखकमल वाली कमलिनी के समान वह मालूम पड़ रही थीं, कमल के पत्तों से भी अधिक कोमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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