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________________ ७४० तुह जे पहाणजोहा ते सव्वे सिरिबलं समल्लीणा । अन्भुवनओ तुमाए तेण समं तह वि संगामो ॥ ८७॥ जाय तम्मितइया महाविमद्देण सिरिबलेण तुमं । anarsओ सिसाय विणियनियसेन्न सेसेण ॥ ८८ ॥ मरिण य उववन्नो रोद्दज्झाणेण नवर निरयम्मि । सत्तर ससागराऊ नेरइओ कम्मदोसेण ॥८६॥ सोऊण तुज्झ मरणं असोयदेवी वि उवगया मोहं । 'हित्थेण परियणेणं नवरं आसासिया संती ॥ ६०० ॥ रोज्झाणोवगया काऊणं धम्मविग्घमच्चत्थं । तु नेहमोहियमई नियाणमेवं महापावं ॥ ६०१ ॥ राया समरमियंको उप्पन्नो नवर जत्थ ठाणम्मि । तत्थेव मंदभग्गा जाएज्ज अहं पि नियमेण ||६०२॥ Jain Education International तव ये प्रधानयोधास्ते सर्वे श्रीबलं समालीनाः । अभ्युपगतस्त्वया तेन समं तथापि संग्रामः || ८६७ ॥ जाते च तस्मिन् तदा महाविमर्देन श्रीबलेन त्वम् । व्यापादितोऽसि श्रावक ! विनिहतनिज सैन्यशेषेण ॥ ८८ ॥ मृत्वा चोपपन्नो रौद्रध्यानेन नवरं निरये । सप्तदशसागरायूर्वैरयिकः कर्मदोषेण ॥ ८६ ॥ श्रुत्वा तव मरणमशोकदेव्यपि उपगता मोहम् । त्रस्तेन परिजनेन नवरमाश्वासिता सती ॥ १०० ॥ रौद्रध्यानोपगता कृत्वा धर्मविघ्नमत्वर्थम् । तव स्नेहमोहितमतिर्निदानमेवं महापापम् ॥ ६०१ ॥ राजा समरमृगाङ्क उत्पन्नो नवरं यत्र स्थाने । तव मन्दभाग्या जायेयाहमपि नियमेन ॥ ६०२ || सब श्रीबल से मिल गये तथापि तुमने उसके साथ संग्राम किया । तब हे श्रावक ! संग्राम होने पर महान् योद्धा श्रीबल के द्वारा तुम मारे गये, तुम्हारी शेष सेना भी मारी गयी । रौद्र ध्यान के कारण मरकर कर्म के दोष से प्रथम नरक में सत्रह सागर की आयु वाले नारकी हुए। तुम्हारे मरण को सुनकर महारानी भी मूर्च्छा को प्राप्त हुई । मात्र दुःखी परिजनों से वह होश में लायी गयी । तदनन्तर रौद्रध्यान को प्राप्त कर धर्म में अत्यधिक विघ्न कर तुम्हारे स्नेह से मोहित बुद्धिवाली उसने इस प्रकार के महापापी निदान को किया, 'राजा समरमृगांक जिस स्थान में उत्पन्न हुआ है एक मात्र उसी स्थान में मन्दभाग्य वाली मैं भी नियम से उत्पन्न होऊँ ।' अनन्तर अग्नि १. दिशेणडे, बा [ समराइच्चकहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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