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अट्ठमो भवो]
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जह पंचहि बहुएहि वि एगा हिंसा मसं विसंवाए। इच्चाइ झाणम्मि य झाएयव्वं अगाराई ॥७६५॥ सइ अप्पमत्तयाए संजमजोएसु विविहभेएसु । जा धम्मियस्स वित्ती एवं बज्झं अणुट्ठाणं ॥७६६॥ एएण न वाहिज्जइ संभवइ य तं दुगं पि नियमेण । एएण जो विसुद्धो सो खल छेएण सुद्धो त्ति ॥ ७६७॥ जह पंचसु समिईसुं तोसु य गुत्तोसु अप्पमत्तेणं। सव्वं चिय कायव्वं जइणा सइ काइगाई वि ॥७६८॥ जे खल पमायजणया वसहाई ते वि धज्जणीया उ। महयरवित्तीए तहा पालेयव्वो य अप्पाणो ॥७९॥ जत्थ उ पमत्तयाए संजमजोएसु विविहभेएसु । नो धम्मियस्स वित्ती अणणुट्ठाणं तयं होइ ॥८००।
यथा पञ्चभिर्बहुभिरपि एका हिंसा मृषा विसंवादः : इत्यादि ध्याने च ध्यातव्यमगारादि ।।७६५॥ सदाऽप्रमत्ततया संयमयोगेषु विविधभेदेषु । या धार्मिकस्य वृत्तिरेतद् बाह्यमनुष्ठानम् ॥७६६॥ एतेन न बाध्यते सम्भवति च तद् द्विकमपि नियमेन । एतेन यो विशुद्धः स खलु छेदेन शुद्ध इति ।।७६७।। यथा पञ्चसु समितिषु तिसषु च गुप्तिष अप्रमत्तेन । सर्वमेव कर्तव्यं यतिना सदा कायिकाद्यपि ॥७६८।। ये खलु प्रमादजनका आवसथादयस्तेऽपि वर्जनीयास्तु । मधकरवृत्त्या तथा पालयितव्यश्चात्मा ।।७६६॥ यत्र तु प्रमत्ततया संयमयोगेषु विविधभेदेष । नो धार्मिकस्य वृत्तिरननुष्ठानं तद् भवति ।।८००॥
करने में समर्थ है और ध्यानादि से भी वह अशुद्ध नहीं होता है । पाँच अथवा अनेक पापों में से एक हिंसा (अथवा) झूठ धोखा देता है इत्यादि, गहस्थ को यह सदा ध्यान में रखना चाहिए । सतत अप्रमादी होकर संयम और योग के विविध भेदों के प्रति जो धार्मिक का आचरण है, यह बाह्य अनुष्ठान है। बाह्यानुष्ठान से संयम और योग का नियम से कोई विरोध नहीं है । इससे जो विशुद्ध है वह देह से शुद्ध है । यति को कायिक दृष्टि से सदा पाँच समितियों और तीन युप्तियों में अप्रमादी होकर सभी का पालन करना चाहिए और जो प्रमाद के जनक उपाश्रय आदि हैं, उन्हें भी छोड़ना चाहिए । भ्रमरवृत्ति से अपना पालन करना चाहिए। संयम और योग के विविध भेदों में प्रमाद के कारण जहाँ धार्मिक का आचरण नहीं है वह अनुष्ठान नहीं होता है। इससे (अनुष्ठान से) जो
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