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________________ [समराइचकहा भयवंतदसणवडियाए । मए भणियं-अज्जउत्त, जुतमेयं ति । गओ मं घेत्तण सह परियणेण राया। दिट्टो भयवं, वंदिओ हरिसियमणेण, धम्मलाहिओ भयवया । भणियं च ण-भयवं, साहिओ ममं भयवंतदसणाइओ सयलवुतंतो चेव देवोर। जाओ य मे संतासो, 'अहो एहहमेतस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवाओ' त्ति । अणेयदुक्कडसमन्निओ य अहयं । ता न याणामो, किमेत्थ कायब्वं ति। भयवया भणियं-महाराय सुण, जमेत्थ कायन्वं । राइणा भणियं-आणवेउ भयवं । भयवया भणियं-सुप्पणिहाणं वट्टमाणसयलसावज्जजोयविरमणं संविग्गयाए अईयपडिक्कमणं अच्चंतमणियाणमणागयपच्चक्खाणं ति । एवं च कए समाणे महंतकुसलासयभावेण महामेहवुट्टिहयाणि विय खुद्दजलणुद्दित्तयाइं पसमंति दुक्कडाई। तओ वित्थरइ कुसलासओ, उल्लसइ जीववीरियं, विसुज्झए अंतरप्पा: परिणमइ अप्पमाओ, नियत्तए मिच्छावियप्पणं, अवेइ कम्माणुबंधो, खिज्जइ भवसंतती, पाविज्जइ परमपयं । तत्थ उण सव्वकालं न होंति दुक्कडजोया, अच्चंतियं च निरुवमसुहं। ता इमं कायव्वं । राइणा भणियं-भयवं, एवमेयं, अणुग्गिहीओ अहं भयवया, कुसलजोएण करेमि भयवओ आणं ति। गच्छावो भगवद्दर्शननिमित्तम् । मया भणितम् -आर्यपुत्र ! युक्तमेतदिति । गतो मां गृहीत्वा सह परिजनेन राजा । दृष्टो भगवान्, वन्दितः हर्षितमनसा, धर्मलाभितो भगवता । भणित च तेनभगवन् ! कथितो मम भगवद्दर्शनादिक: सकलवृत्तान्त एव देव्या । जातश्च मे सन्त्रासः, 'अहो एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदृशो विपाक इति । अनेकदुष्कृतसमन्वितश्चाहम् । ततो न जानीमः किमत्र कर्तव्यमिति । भगवता भणितम् -महाराज ! शृणु, यदत्र कर्तव्यम् । राज्ञा भणितम्-आज्ञापयतु भगवान् । भगवता भणितम् -सुप्रणिधानं वर्तमानसकलसावद्ययोगविरमणं संविग्नतयाऽतीतप्रतिक्रमणमत्यन्तमनिदानमनागतप्रत्याख्यानमिति । एवं च कृते सति महाकशलाशयभावेन महामेघवृष्टि. हतानीव क्षुद्रज्वलनोद्दीप्तानि प्रशाम्यन्ति दुष्कृतानि । ततो विस्तीर्यते कुशलाशयः, उल्लसति जीववोर्यम्, विशुद्धयत्यन्तरात्मा, परिणमत्यप्रसाद:, निवर्तते मिथ्याविकल्पनम्, अपैति कर्मानुबन्धः, क्षोयते भवसन्ततिः, प्राप्यते परमपदम् । तत्र पुनः सर्वकालं न भवन्ति दुष्कृतयोगाः, आत्यन्तिकं च निरुपमसुखम् । तत इदं कर्तव्यम् । राज्ञा भणितम -भगवन् ! एवमेतद्, अनुगृहीतोऽस्म्यहं भगवता, आओ, भगवान् के दर्शन के लिए चलें।' मैंने कहा---'आर्यपुत्र ! ठीक है।' राजा मुझे लेकर परिजनों के साथ गये । भगवान् के दर्शन किये, हर्षित मन से वन्दना की, भगवान् ने धर्मलाभ दिया। राजा ने कहा---'भगवन् ! भगवान् के दर्शन आदि समस्त वृत्तान्त को महारानी ने मुझे बता दिया है। मुझे भय उत्पन्न हुआ है; ओह ! इतने से दुष्कृत का इतना फल हुआ और मैं अनेक दुष्कृतों से युक्त हूँ, अतः नहीं जानता हूँ, यहाँ क्या करना चाहिए ?' भगवान् ने कहा – 'यहाँ जो करना चाहिए सुनो।' राजा ने कहा---'भगवान् आज्ञा दें।' भगवान ने कहा-'सम्यक समाधि, वर्तमान के सभी सावद्ययोग (पापयुक्त कार्यों के संयोग) का त्याग, भयभीत होकर पहले किये हुए कार्यों का प्रतिक्रमण, अत्यन्त रूप से निदान न करना और भविष्य में किये जानेवाले दुष्कर्मों का त्याग करना-ऐसा करने पर महाशुभ आशयवाले भावों से, जिस प्रकार महामेघ की वर्षा से क्षुद्र प्रदीप्त अग्नि ताडित होकर शान्त हो जाती है, उसी प्रकार दुष्कर्म भी शान्त हो जाते हैं। अनन्तर शुभ भावों का विस्तार होता है, आत्मशक्ति विकसित होती है, अन्तरात्मा शुद्ध होती है, अप्रमाद पूर्ण वृद्धि को प्राप्त होता है, मिथ्या विकल्प दूर हो जाता है, कर्मबन्ध छूट जाता है, संसार परम्परा क्षीण हो जाती है । मोक्ष की प्राप्ति होती है । फिर वहाँ दुष्कर्मों का योग (बन्ध) कमी भी नहीं होता है और आत्यन्तिक अनुपम सुख की उपलब्धि होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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