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अट्ठमो भवो ]
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साहणेण अन्नेसणत्थं समागओ राया। पत्ता य णे समीवे कइवि आसवारा । दिट्ठा य णेहि, हरिसनिभहि साहिया राइणो । आगओ मे समीवं राया । बाहोल्ललोयणेणं भणियं च णेणं- देवि, न मे कुपिन्वं अन्नाणमेत्थमवरज्झइ । मए भणियं अज्जउत्त, को एत्थ अवसरो कोवस्स; नियदुच्चरियविवागसेसमेयं । राइणा भणियं -- देवि, अमेत्थ निमित्तं । मए भणियं - अज्जउत्त, जम्मंतरे विओपडिबद्ध नियदुच्चरियसामत्थेण पहूययरमणुभूयं तत्थ कि तुमं निमित्तं ति । सव्वहा मए कओ एस दोसो ति । राइणा भणियं देवि, सामन्नेण वियाणामि अहमिणं, जमणादी संसारो कम्मवसगा य पाणिणो । देवी उण विसेसपरिन्नाणसंगया विय मंतेइ । मए भणियं - अज्जउत्त, एवं । राणा भणियं - देवि कहं विय । साहिओ मए मरणववसाय गुरुदंसणाइओ नमोक्कारलाहपज्जवसाणो परिकहियवृत्तंतो । 'अहो भयवओ नाणाइसओ' त्तिविम्हिओ राया । 'अहो असारया संसारस, एहमेत्तस्स वि दुक्कडस्स ईइसो विवाओ' त्ति संविग्गो राया । भणियं च णेण - देवि, दूरे इओ भयवं गुरु ति । मए भणियं - अज्जउत्त, इओ थोवंतरे । राइणा भणियं -- ता एहि, गच्छम्ह
साधनेनान्वेषणार्थं समागतो राजा । प्राप्ताश्न मे समीपे कत्यप्यश्ववाराः । दृष्टाश्च तैः हर्षनिर्भरैः कविता राज्ञः । आगतो मे समीपं राजा । बाष्पार्द्र लोचनेन भणितं च तेन देवि ! न मे कुपितव्यम्, अज्ञानमत्रापराध्यति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! कोऽत्रावसरः कोपस्य, निजदुश्चरितविपाकशेषमेतद् । राज्ञा भणितम् - देवि ! अहमत्र निमित्तम् । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! जन्मान्तरे वियोगप्रति - बद्धनिजदुश्चरितसामर्थ्येन प्रभूततरमनुभूतम्, तत्र किं त्वं निमित्तमिति । सर्वथा मया कृत एष दोष इति । राज्ञा भणितम् - देवि ! सामान्येन विजानाम्यहमिदम् यदनादिः संसारः कर्मवशगाश्च प्राणिनः । देवी पुर्नावशेषपरिज्ञानसंगतेव मन्त्रयति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! एवम् । राज्ञा नणितम् - देवी कथमिव । कथितो मया मरणव्यवसाय गुरुदर्शनादिको नमस्कारलाभपर्यवसानः परिकथितवृत्तान्तः । 'अहो भगवतो ज्ञानातिशयः' इति विस्मितो राजा । 'अहो असारता संसारस्य, एतावन्मात्रस्यापि दुष्कृतस्येदृशो विपाकः' इति संविग्नो राजा । भणितं च तेन देवि ! कियद्दूरे भगवान गुरुरिति । मया भणितम् - आर्यपुत्र ! इतः स्तोकान्तरे । राज्ञा भणितम्- - तत एहि,
गयी । प्रातःकाल घोड़े से ( मुझे ) खोजने के लिए राजा आये। कुछ अश्वारोही मेरे समीप आये । उन्होंने हर्षित हो ( मुझे ) देखा और राजा से कहा । राजा मेरे पास आये। आंसुओं से आर्द्र नेत्रवाले उन्होंने कहा - 'महारानी ! मुझ पर कुपित न हों, अज्ञान ने यहाँ अपराध कराया है।' मैंने कहा- 'आर्यपुत्र ! यहाँ क्रोध का क्या अवसर, अपने दुश्चरित का यह शेष फल था । राजा ने कहा- 'महारानी ! इसमें मैं निमित्त हुआ ।' मैंने कहा - 'आर्यपुत्र ! दूसरे जन्म में वियोग कराने सम्बन्धी अपने दुश्चरित की सामर्थ्य से मैंने अत्यधिक (फल) अनुभव किया। वहाँ पर आप कैसे निमित्त हो सकते हैं ? सर्वथा मेरे द्वारा किया हुआ ही यह दोष है ।' राजा ने कहा- 'महारानी ! सामान्य रूप से मैं यह जानता हूँ कि संसार अनादि है और प्राणी कर्मों के वश में है । पुनः महारानी मानो विशेष ज्ञान से युक्त हो कह रही हैं।' मैंने कहा - 'आर्यपुत्र ! ऐसा ही है ।' राजा ने कहा- 'महारानी, कैसा ?' मैंने मरण का निश्चय और गुरुदर्शन आदि से नमस्कार प्राप्तिपर्यन्त ( बात ) बतलायी । 'भगवान् के ज्ञान की अधिकता आश्चर्यमय है' - ऐसा कहकर राजा विस्मित हुआ । ओह, संसार की असारता ! इतने से दुष्कृत का ऐसा फल हुआ ! इस प्रकार राजा भयभीत हुए और उन्होंने कहा--- 'महारानी ! भगवान् गुरु कितनी दूर हैं ?" मैंने कहा- 'आर्यपुत्र ! यहाँ से थोड़ी दूर हैं।' राजा ने कहा- 'तो
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