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________________ ७६६ [ समराइच्चकहा करइस्सइ । एएण कारणेण अच्चंतसुहिओ होहि त्ति। भणिऊण तुहिक्को ठिओ भयवं । एयमायणिऊण 'अहो धन्नो महाराओ' ति हरिसिया अहं । हिययत्थं वियाणिऊण भणिया य भयवयावच्छे तुम पि गेण्हाहि ताव सव्वमंतपरममंतं अइदुल्लहं जोवलोए विणासणं भयाणं साहणं परमपयस्स पूयणिज्जं सयाणं अचितसत्तिजतं गाहगं सयलगुणाणं उवमाईयकल्लाणकारणं भयवया वीयरागेण पणीयं पंचनमोक्कारं ति। मए भणियं-भयवं, अणुग्गिहीय म्हि। भयवया भणियं-ठायसु मे वामपासे पुव्वाहिमुह ति। ठिया ईसि अवणया, वंदिओ भयवं । कयं भयवया परमगुरुसरणं । तओ उवउत्तेण अक्खलियाइगुणसमेओ दिनमो नमोक्कारो, पडिच्छिओ मए सुद्धभावाइसएण। तयणंतरं च पणमिव भवभयं, समागयं विय मुत्तिसुहं ति। भयवया भणियं-वच्छे, इणमेव अणुसरंतीए गमेयन्वा तए इमाए एगपासट्टियाए गिरिगुहाए रयणी, न बोहियव्वं च । संपवं गच्छामि अहयं, सुए पुणो अम्हाणं दंसणं ति । मए भणियं-भयवं, अणुग्गिहीय म्हि । गओ भयवं । नमोक्कारपराए य परमपमोयसंगयाए थेववेला विय अइक्कंता रयणी । पहायसमए य आसदोषनिर्धातनसमर्थ दुष्करं कापुरुषाणां वीतरागवचनानुष्ठानं करिष्यति । एतेन कारणेनात्यन्तसुखितो भविष्यति इति । भणित्वा तूष्णिकः स्थितो भगवान् । एतदाकर्ण्य 'अहो धन्यो महाराजः' इति हृष्टाऽहम् । हृदयस्थ विज्ञाय भणिता च भगवता-वत्से ! त्वमपि गृहाण तावत् सर्वमन्त्रपरममन्त्रमतिदुर्लभ जीवलोके विनाशनं भयानां साधनं परमपदस्य पूजनीयं सतामचिन्त्यशक्तियुक्तं ग्राहकं सकलगुणानामुपमातीतकल्याणकारणं भगवता वीतरागेण प्रणीत पञ्चनमस्कारमिति । मया भणितम् -भगवन् ! अनुगृहीताऽस्मि । भगवता भणितम्-तिष्ठ मे वामपार्वे पूर्वाभिमुखेति । स्थिता ईषदवनता । वन्दितो भगवान् । कृतं भगवता परमगुरुस्मरणम् । तत उपयुक्तेनास्खलितादिगणसमेतो दत्तो नमस्कारः । प्रतीप्सितो मया शुद्धभावातिशयेन । तदनन्तरं च प्रनष्टमिव भवभयम्, समागतमिव मुक्तिसुखमिति । भगवता भणितम्-वत्से ! इममेवानुस्मरन्त्या गमयितव्या त्वयाऽस्यामेकपाश्र्वस्थितया गिरिगहायां रजनी, न भेतव्यं च । साम्प्रतं गच्छाम्यहम, श्वः पनरस्माकं दर्शनमिति । मया भणितम् -भगवन् ! अनुगृहीताऽस्मि । गतो भगवान्। नमस्कारपरायाश्च परमप्रमोदसंगतायाः स्ताकवेलेवातिक्रान्ता रजनी । प्रभातसमये चाश्वदुष्कर ऐसे वीतराग के वचनों का वे पालन करेंगे, इस कारण अन्यन्त सुखी होगे'--यह कहकर भगवान् मौन हो गये । यह सुनकर 'ओह मह राज धन्थ हैं' यह कहकर मैं हर्षित हुई। हृदय की स्थिति को जानकर भगवान् ने कहा-'पुत्री, तुम भी सब मन्त्रों में उत्कृष्ट मन्त्र, संसार में अत्यन्त दुर्लभ, भयों का नाशक, मोक्षपद का साधक, सज्जनों द्वारा पूजनीय, अचिन्त्यशक्ति से युक्त, समस्त गुणों का ग्राहक, जिसकी उपमा नहीं दी जा सकती, ऐसे कल्याणकारक भगवान् वीतराग द्वारा प्रणीत पंचनमस्कार मन्त्र को ग्रहण करो।' मैंने कहा-'भगवन् । मैं अनुगहीत हूँ।' भगवान ने कहा-'मेरी बायीं तरफ पूर्व की ओर मुख करके बैठो।' कुछ सिर झुकाकर मैं बैठ गयी। वन्दना की। भगवान् ने परमगुरु का स्मरण किया। तब उन्होंने अस्खलित आदि गुणों से युक्त नमस्कार मन्त्र दिया। मैंने शुद्ध भावों के अतिशय से स्वीकार किया। अनन्तर संसार का भय मानो नष्ट हो गया, मुक्तिरूपी सुख का समागम हुआ। भगवान् ने कहा---'पुत्री ! इसी का स्मरण करते हुए तुम इस पर्वत की गुफा के एक ओर स्थित हो, रात्रि बिताओ और डरना मत । अब मैं जाता हूँ, कल पुनः हमारा दर्शन होगा।' मैंने कहा-'भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ।' भगवान् चले गये। नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए अत्यधिक हर्षं से युक्त मेरी थोड़े से ही समय में गत्रि व्यतीत हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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