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________________ ६७४ [समराइचकहा इय तव्वयणं सोउं हरिसियवयणेण तो कुमारेणं । भणियं तुब्भेहि कहिं एवं आलोइयं रूवं ॥६६३॥ संसारसारभूयं नयणमणाणंदयारयं परमं । तिहयणविम्हयजणणं विहिणो वि अउध्वनिम्माणं ॥६६४॥ भणियं च तेहि नरवर ! सुण संखउरम्मि गुणनिहाणम्मि। दरियारिमद्दणरई राया संखायणो नाम ॥६६५॥ तस्सेसा गुणखाणी ओहामियतियससुंदरिविलासा । धूया पाणब्भहिया रयणवई नाम नामेण ॥६६६॥ अम्हेहि वम्महमहे दिट्ठा एस ति कन्नया नाह । नयराओ निक्खमंती दिव्वं जंपाणमारूढा ॥६६७॥ धरियधवलायवत्ता सहियणपरिवारिया विसालच्छी। उज्जाणं गंतुमणा दाहिणकरनिमियसयवत्ता ॥६६८॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा हर्षितवदनेन तत: कमारेण । भणितं युष्माभ्यां कुत्रैतदालोकितं रूपम् ।। ६६३ ।। संसारसारभूतं नयनमन आनन्दकारकं परमम् । त्रिभुवनविस्मयजननं विधेरपि अपूर्वनिर्माणम् ॥ ६६४ ॥ भणितं च ताभ्यां नरवर ! शृण शङ्खपुरे गण निधाने । दप्तारिमर्दनरती राजा शङ्खायनो नाम ।। ६६५ ॥ तस्यैषा गुणखानि र्लघूकृत त्रिदशसुन्दरीविलासा । दुहिता प्राणाभ्यधिका रत्नवती नाम नाम्ना ॥ ६६६ ।। आवाभ्यां मन्मथमहे दृष्टषेति कन्यका नाथ ॥ नगराद् निष्कामन्ती दिव्यं जम्पानमारूढा ।। ६६७ ।। धृतधवलातपत्रा सखोजनपरिवता विशालाक्षी। उद्यानं गन्तुमना दक्षिणकरन्यस्तशतपत्रा।। ६६८ ।' नैपुण्य दिखलाया है । सम्पूर्ण रूप और शोभा का चित्रण हम लोगों ने नहीं किया है। इस प्रकार उनके वचन सुनकर हर्षित मुखवाले कुमार ने कहा -'आप दोनों ने इस रूप को कहाँ देखा ? संसार का सारभूत, नेत्रों को और मन को उत्कृष्ट आनन्द देनेवाला, तीनों लोकों को विस्मय उत्पन्न करनेवाला यह ब्रह्मा का (कोई) अपूर्व ही निर्माण है।' उन दोनों ने कहा-'नरश्रेष्ठ ! सुनो---गुणों के निधान शंखपुर में गर्वीले शत्रुओं के मर्दन में जिसकी रति है-ऐसे शंखायन नाम के राजा हैं। उनकी यह गुणों की खान, देवांगनाओं के विलासों को तिरस्कृत करने वाली, प्राणों से भी अधिक प्यारी रत्नवती नामक पुत्री है। मदनमहोत्सव पर हम दोनों ने, दिव्य पालकी पर आरूढ़ होकर नगर से निकलती हई इस कन्या को देखा है। विशाल नेत्रोंवाली वह सफेद छत्र को धारण किये हए सखियों के साथ उद्यान को जा रही थी । दायें हाथ में उसने कमल ले रखा था ॥६४६.६६८॥ १, लहइ ओहाभियं तुलिय (पायल, ५३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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