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अट्ठमो भवो]
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अम्हेहि तओ हुलियं गेहं गंतूणमह पडं घेत्तुं । लिहिया मुद्धमयच्छी दंसणमणुसम्भरंतेहि ॥६६६॥ न य तीए सुंदरत्तं रूवस्साराहियं इहम्हेहि। मन्ने न विस्सयम्मो वि अवितहं तं खमो लिहिउं॥६७०॥ दर्छ पि जं न नज्जइ अबुहेहिं साहिउं च वायाए। दिलृ पि चितयम्मे तं आराहिज्जए कह ण ॥६७१॥ सोऊण इमं वयणं गणचंदो मयणगोयरं पत्तो। रायाणुभावओ च्चिय आलंबणपगरिसाओ य ॥६७२॥ गृहंतेण तहावि य नियमागारमह जंपियं तेग। भण भो वित्थयबद्धी अन्नं पसिणोत्तरं किंचि ॥६७३॥ जं आणवेइ देवो भणिउ परिओसवियसियच्छेण ।
अणुसरिऊणमिणं तो पढियं पसिणोत्तरं तेण ॥६७४॥ किं देंति कामिणीओ ? के हरपणया ? कुणंति किं भयगा? कं च मऊहेहि ससी धवलेइ ?
आवाभ्यां ततः शोघ्र गेहं गत्वाऽथ पट गृहीत्वा । लिखिता मुग्धमृगाक्षी दर्शनमनुस्मरद्भ्याम् ॥ ६६६ ।। न तस्याः सुन्दरत्वं रूपस्था राधितमिहावाभ्याम् । मन्ये न विश्वकर्माऽप्यवितथं तत् क्षमो लिखितुम् ।। ६७० ।। दृष्टवाऽपि यन्न ज्ञायतेऽबधैः कथयितुं च वाचा। दृष्टमपि चित्रकर्मणि तदाराध्यते कथं नु।। ६७१ ॥ श्रत्वेदं व वनं गुणचन्द्रो मदनगोचरं प्राप्तः । राजानुभावत एव आलम्बनप्रकर्षाच्च ।। ६७२।। गृहता तथापि च निजमाकारमथ जल्पितं तेन । भण' भो विस्तृतबुद्धे ! अन्यत् प्रश्नोत्तरं किञ्चित् ।। ६७३ ।। यदाज्ञापयति देवो भणित्वा परितोषविक सिताक्षण।
अनुस्मत्येदं ततः पठितं प्रश्नोत्तरं तेन ॥ ६७४ ।। किं ददति कामिन्यः, के हरप्रणतः, कुर्वन्ति किं भुजगा: ? कं च मयूखैः शशी धवल
तब हम दोनों ने शीघ्र जाकर वस्त्र लेकर दर्शन का स्मरण करते हुए, मृग जैसी भोली-भाली आँखोंवाली (इस कन्या को) चित्रित किया। हम दोनों ने उसके रूप की सुन्दरता की यहाँ आराधना नहीं की। मैं मानता हूँ कि विश्वकर्मा भी पूरी तरह से उसे चित्रित नहीं कर सकता है। देखकर भी जिसे अविद्वान लोग नही जान सकते और (जिसका) वाणी से कथन नहीं कर सकते, चित्र में देखी हुई उसकी आराधना कैसे की जा सकती है ?' इस वचन को सुनकर आलम्बन की प्रकर्षता और राजकीय सामर्थ्य के कारण गुणचन्द्र काम-मार्ग को प्राप्त हो गया। तथापि अपने आकार को छिपाकर उसने कहा-'हे विस्तृत बुद्धिवाले ! कुछ अन्य प्रश्नोत्तर करो।' अनन्तर 'महाराज जो आज्ञा दें-ऐसा कहकर सन्तोष से विकसित नेत्रोंवाले उसने स्मरण कर प्रश्नोत्तर पढ़ा !॥६६६-६७४॥
'कामिनियाँ (स्त्रियां) क्या देती हैं ? शिव को नमस्कार कौन करता है ? साँप (भोगी) क्या करते हैं ?
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