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________________ अट्ठमो भवो एसा विसालनयना दाहिणकरधरियरम्म सयवत्ता । रूवि व्व मयणघरिणी चित्तगया हरइ चित्ताइं ॥ ६५६ ॥ जइ पुण मणयसुरासुरलोएसु हविज्ज एरिसी कावि । विग्गहवई सुरूवा निज्जिय रइलच्छिलावण्णा ।। ६५७॥ ता नसिऊण इमीए मयणो नियकज्जभारमुद्दामं । हेला विणिज्जियजओ भुवणम्मि सुवेज्ज वीसत्थो । ६५८ ॥ ता अइसयको सल्लं तुम्हाण इमं दढं महं चित्तं । अवहरइ अहिउवं निउणगुणा के च न हरंति ॥ ६५६ ॥ एवं परिम्मि गुणचंदे तेहि निउणपुरिसेहि । भणियं न एत्थ अहं अइसयनिउणत्तणं नाह ॥ ६६०॥ अइसन णत्तं पुण एत्थं सुण भयवओ पयावइणो । जेण जयसुंदरमिणं लडहं रूवं विणिम्पवियं ॥ ६६१॥ अम्हेहि लिहियमेत्तं नरवर ! दट्ठूण किमिह निउणत्तं । अम्हाण रूवसोहं संपुष्णमणालि हंताणं ॥ ६६२ ॥ Jain Education International एषा विशालनयना दक्षिणकरधृतरम्यशतपत्रा । रूपिणीव मदनगृहिणी चित्रगता हरति वित्तानि ॥ ६५६ ॥ यदि पुनर्मनुजसुरासुरलोकेषु भवेदोदशी काऽपि । विग्रहवती सुरूपा निर्जितरतिलक्ष्मीलावण्या ।। ६५७ ।। ततो न्यस्यास्यां मदनो निजकार्यभारमुद्दामम् ॥ लाविनिर्जितजगद् भुवने स्वप्याद् विश्वस्तः ।। ६५८ ।। ततोऽतिशय कौशल्यं युवयोरिदं दृढं मम चित्तम् । अपहरत्यधिका पूर्वं निपुणगुणाः के च न हरन्ति ।। ६५६ ।। एवं प्रजल्पति गुणचन्द्रे ताभ्यां निपुणपुरुषाभ्याम् । भणितं नात्रावयोरतिशयनिपुणत्वं नाथ ।। ६६० ।। अतिशयनिपुणत्वं पुनरत्र शृणु भगवतः प्रजापतेः । येन जगत्सुन्दरमिदं रम्यं रूपं विनिर्मितम् ॥ ६६१ ॥ आवाभ्यां लिखितमात्रं नरवर ! दृष्ट्वा किमिह निपुणत्वम् । आवयो रूपशोभां सम्पूर्णामनालिखतोः ।। ६६२ ॥ है । यह विशाल नयनोंवाली, दायें हाथ में रमगीय कमल को धारण किये हुए, शरीरधारी कामदेव की पत्नी (रति) जैसी चित्रित होकर चित्त को हर रही है। यदि शरीरधारिणी, अच्छे रूपवाली, रति लक्ष्मी के लावण्य को जीतनेवाली, सुर और असुरों में भी ऐसी कोई हो तो संसार में कामदेव ने विश्वस्त होकर अपने आप इस पर अपने उत्कृष्ट कार्यभार को रखकर खेल ही खेल में जगत् को जीत लिया। अतः आप दोनों की यह अतिशय कुशलता मेरे चित्त को निश्चय ही अपूर्व रूप से अत्यधिक हर रही है। निपुणता रूप गुण वाले किसको ( किसके मन को) नहीं हरते हैं ?' गुणचन्द्र के ऐसा कहने पर उन दोनों निपुण पुरुषों ने कहा - 'नाथ ! यहाँ पर हम लोगों की अतिशय निपुणता नहीं है। अतिशय निपुणता तो यहाँ भगवान् प्रजाति की सुनो, जिसने संसार में सुन्दर ऐसे रमणीय रूप को निर्मित किया है। जब आप उसे देखेंगे तो पायेंगे कि हम दोनों ने कितना सा चित्र ६७३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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