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________________ ८५८ [ समराइच्चकहा रस्स चउनागधारिणो पहासायरियस्स पायमले, जहुत्तसिद्धतविहिणा पवन्नो पव्वज ति। वंदिओ देवराईहिं, पूजिओ मुणिचंदेण । कराविया णेण नयरीए जिणाययणेसु अट्ठाहिया, घोसाविया अमारी हरिसिया जणवया, पयट्टा धम्ममगे। ___ इमिणा वइयरेण दूमिओ गिरिसेणो, गहिओ कसाएहि । चिंतियं च णेण-अहो मूढया जणस्स, जमेयस्सि अपंडियरायउत्ते एवंविहो बहुमाणो। अवणेमि एएसि बहुमाणभायणं, बावाएमि एवं दुराया। समागओ इयाणि एस अम्हारिसाणं पि दंसणगोयरं । ता निव्ववेमि चिरयालपलित्तं एयमंतरेण हिययं । पयट्रो छिद्दन्नेसणे। भयवं च समराइच्चो जहुत्तसंजमपरिवालणरई भयवओ पहासायरियस्स पायमूले परिवसइ । अइक्कंतो कोइ कालो। पुव्वभवब्भासजोएण विसिट्ठखओवसमभावओ थेवयालेणेवाहिज्जियं दुवालसंगं, आसेविओ किरियाकलावो, ठाविओ वायगपए। अन्नया य सीसगणसंपरिवडो विहरमाणो अहाकप्पेण विबोहयंतो भवियारभिदे गओ शीलाङ्गरत्नाकरस्य चतुर्ज्ञानधारिणः प्रभासाचार्यस्य पादमूले, यथोक्तसिद्धान्तविधिता प्रपन्नः प्रवज्यामिति । वन्दितो देवराजभिः, पूजितो मुनिचन्द्रेण । कारिता तेन नगर्यां जिनायतनेषु अष्टाह्निका, घोषिताऽमारी, हर्षिता जनवजाः, प्रवृत्ता धर्म मार्गे। अनेन व्यतिकरेण दूनो गिरिषेणः, गृहीतः कषायैः। चिन्तितं च तेन-अहो मढता जनस्य, यदेतस्मिन् अपण्डितराजपुत्रे एवंविधो बहुमान: । अपनयाम्येतेषां बहुमानभाजनम, व्यापादयाम्येतं दुराचारम् । समागत इदानीमेषोऽस्मादृशानामपि दर्शनगोचरम् । ततो निर्वापयामि चिरकालप्रदीप्तमेतद्विषये हृदयम् । प्रवृत्तश्छिद्रान्वेषणे । भगवांश्च समरादित्यो यथोक्तसंयमपरिपालनरतिर्भगवतः प्रभासाचार्यस्य पादमले परिवसति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । पूर्वभवाभ्यासयोगेन विशिष्टक्षयोपशमभावत: स्तोककाले नैवाधीतं द्वादशाङ्गम्, आसेवितः क्रियाकलापः, स्थापितो वाचकपदे । अन्यदा च शिष्यगणसम्परिवृतो विहरन् यथाकल्पं विबोधयन् भविकारविन्दानि गतोऽयोध्या चार ज्ञान के धारी प्रभासाचार्य के पादमूल में गये, यथोक्त सिद्धान्त विधि से दीक्षा प्राप्त की। देवों और राजाओं ने वन्दना की, मुनिचन्द्र ने पूजा की। उसने नगर के जिनायतनों से अष्टाह्निका करायी, अमारी घोषित की, जनसमूह हर्षित हुआ, धर्ममार्ग में प्रवृत्त हुआ। ___इस घटना से गिरिषेण दुःखी हुआ। (उसे) कषायों ने जकड़ लिया। उसने सोचा--ओह लोगों की मूढ़ता, जो इस मूर्ख राजपुत्र का इस प्रकार सम्मान कर रहे हैं। इनके सम्मान के पात्र को दूर करता हूँ, इस दुराचारी को मारता हूं। यह इस समय हम जैसे लोगों के भी दृष्टिपथ में आ गया, अतः इसके विषय में चिरकाल से जलते हुए हृदय को शान्त करता हूँ। वह छिद्रान्वेषण में लग गया । भगवान् समरादित्य यथोक्त संयम के पालन में रत होकर भगवान् प्रभासाचार्य के चरणमूल में रहने लगे। कुछ समय बीत गया । पूर्वभवों के अभ्यास के योग से विशिष्ट क्षयोपशम भाव के कारण थोड़े से ही समय में द्वादशांग पढ़ लिया । क्रियाओं का पालन किया। वाचक पद पर स्थापित हो गये। एक बार शिष्यगण के साथ नियमानुसार विहार करते हुए, भव्यकमलों को सम्बोधित करते हुए (वह) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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