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नवमो भवो ]
एत्थ मंगलं । राइणा भणियं-अज्जा, एवमेयं; ता करेह उचियकरणिज्जं, अलं विलंबेण । अमच्चेहि भणियं-ज' देवो आणवेइ। घोसाविया वररिया, पट्टियं महादाणं, कराविया सव्वाययणपूया, संमाणिओ पउरजणवओ, पूजिया बंदिमादी, संमाणिया सामंता, पूजिया गरवो, ठाविओ रज्जम्मि निवभाइणेओ पसत्थजोएण उचिओ खत्तियवंसस्स मणिचंदकुमारो त्ति। तओ य पसत्थे तिहिकरणमुहुत्तजोए समं गुरुयणेण मित्तवंद्रेण धम्मपत्तीहि अमच्चलोएण पहाणसामंतेहिं पुरंदरेण उयत्तसेट्टीहि उचियनायरेहि महया रिद्धिसमदएण समारूढो दिव्वसिवियं; वज्जतेहिं मंगलतूरेहि नच्चंतेहिं पायमूलेहि थुव्वमाणो बंदोहिं पूरंतो य पण इमणोरहे संगओ रायलोएण अणुहवंतो कुसलकम्मं पुलइज्जमाणो नायरएहि जणेतो तेसि विम्हयं वड्ढयंतो संवेगं विहितो बोहिबीयाई विसुज्झमाणपरिणामो खवेंतो कम्मजालं महया विमद्देण निगओ नयरीओ गओ पुप्फकरण्डयं उज्जाण । एत्थंतरम्मि समा. गया देवा, पत्युयं पूधाकम्म, जाओ महाभयओ, आणंदिया नयरी । गओ य भयवओ सोलंगरयणाय
भूतः कुमारोऽत्र मङ्गलम्। राशा भणितम-आर्या ! एमेवतद, ततः करुलोचितकरणीयम, अलं विलम्बेन । अमात्यैर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । घोषिता वरवरिका, प्रवर्तितं महादानम कारिता सर्वायतनपूजा, सम्मानित: पौरजनवजः, पूजिता वन्द्यादयः, सम्मानिताः सामन्ताः, पूजिता गुरवः, स्थापितो राज्ये निजभागिनेयः प्रशस्तयोगेन उचितः क्षत्रियवंशस्य मुनिचन्द्रकुमार इति । ततश्च प्रशस्ते तिथिकरणमुहूर्तयोगे समं गुरुजनेन मित्रवन्द्रण धर्मपत्नीभ्याममात्यलोकेन प्रधानसामन्तैः पुरन्दरेण उदात्तश्रेष्ठिभिरुचितनागरैमहता ऋद्धिसमुदायेन समारूढो दिव्यशिबिकाम, वाद्यमानै मङ्गलतून त्यदभिः पात्रमलैः स्तूयमानो बन्दिभिः पूर यंश्च प्रणयिमनोरथान् सङ्गतो राजलोकेनानभवन कुशलकर्म दुश्यमानो नागरकैर्जनयन् तेषां विस्मयं वर्धयन संवेगं विदधद बोधिबीजानि विशध्यमानपरिणामः क्षपयन् कर्मजालं महता विमर्देण निर्गतो नगर्या, गतः पूष्पकरण्डकमद्यानम। अत्रान्तरे समागता देवाः, प्रस्तुतं पूजाकर्म, जातो महाभ्युदयः, आनन्दिता नगरी। गतश्च भगवतः
यहाँ मंगलरूप हैं।' राजा ने कहा-'आर्य ! यह ठीक है, अत: योग्य कार्यों को कराओ, विलम्ब मत करो।' अमात्यों ने कहा-'जो महाराज की आज्ञा।' ईप्सित वस्तु के दान देने की घोषणा की, बहुत अधिक दान दिया, सभी मन्दिरों में पूजा करायी, नगरवासियों का सम्मान किया, बन्दियों आदि का सत्कार किया, सामन्तों का सम्मान किया, गुरुओं की पूजा की, क्षत्रियवंश के योग्य कुमार मुनिचन्द्र को राज्य पर बैठाया। अनन्तर उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त के योग में गुरुजन, मित्रसमूह, दोनों धर्मपत्नियों, अमात्यजन, प्रधान सामन्तों, नागरिकों, बड़े सेठों और योग्य नगरवासियों के साथ बड़ी ऋद्धि से युक्त हो दिव्य पालकी पर (कुमार) सवार हुआ । उस समय मंगल वाद्य बजाये जा रहे थे, अभिनेता नत्य कर रहे थे, बन्दीजन स्तुति कर रहे थे, याचकों का मनोरथ पूर्ण किया जा रहा था, नृपजन साथ थे, शुभकर्मों का अनुभव किया जा रहा था, नागरिक देख रहे थे, उनको विस्मय हो रहा था, उनकी विरक्ति बढ़ रही थी, वे बोधिबीज धारण कर रहे थे - इस प्रकार विशुद्ध परिणामों से कर्मसमूह को नष्ट करते हुए बड़ी भीड़ के साथ निकल कर राजा पुष्पक रण्डक उद्यान में गया। इसी बीच देव आये, पूजा कार्य प्रस्तुत किया, बहुत बड़ा अभ्युदय हुआ, नगरी आनन्दित हुई। शील के भेदों के समुद्र,
१. कयं चैव देवस्स कुमारस्स य नियपुण्णसम्भारेण के अम्हे कायव्वस्न । तहा बि जं देवो-पा. शा. ।
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