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________________ छट्ठो भवो] ४६७ भणियं-कयं ते करणिज्ज; गच्छ समीहियं संपाडेहि। तओ हेमकुंडलेण 'अहो से महाणुभावय' त्ति चितिय परत्थं करेज्जासि त्ति भणिऊण दिन्नं ओसहिवलयखंडं। पणयभगभीरुत्तणेण गहियं च णेण । गओ विज्जाहरो, आगओ च धरणो निययसत्थं । अइक्कंता कहवि दियहा ॥ अन्नया य गिरिनइतीरम्मि समावासिए सत्थे गवलजलयवण्णा वेल्लिनिबद्धद्धकेसहारा वक्कलद्धनिवसणा कण्णियकोडंडवावग्गहत्या सुणयवंद्रसंगया सदुक्खं रुयमाणा दिट्ठा धरणेण नाइदूरगामिणा सवरजुवाण त्ति। सद्दाविया गेण पुच्छिया य । भो किंनिमित्तं रुयह त्ति। तेहिं भणियं-अज्ज, अस्थि अम्हाणं कालसेणो नाम पल्लीवई। जस्स इह विम्हियाओ सत्तिनियाणाणि चितयंतीओ। न समल्लियंति दुग्गं परचक्कभए वि वाहीओ॥४८३॥ एक्कसरघायलद्धा जस्स य करिकुंभदारणेक्करसा। न वि विहलंतसरोरा गच्छंति पयं पि केसरिणो ॥४८४॥ सम्पादनेन राजपुत्राय, ततः किं ते करोमि । धरणेन भणितम् -कृतं त्वया करणीयम्, गच्छ समीहितं सम्पादय । ततो हेमकुण्डलेन 'अहो तस्य महानुभावता' इति चिन्तयित्वा परार्थे कुर्याः' इति भणित्वा दत्तमोषधिवलयखण्डम् । प्रणयभङ्गभीरुत्वेन गृहीतं च तेन । गतो विद्याधरः, आगतश्च धरणो निजसार्थम् । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः ।। अन्यदा च गिरिनदीतीरे समावासिते सार्थे गवलजलदवर्णा वल्लीनिबद्धोर्ध्वकेशहारा वल्कलाधनिवसनाः कणिङ्ककोदण्डव्यापृताग्रहस्ताः शुनकवन्द्रसङ्गताः सदुःखं रुदन्तो दृष्टा धरणेन नातिदूरगामिना शवरयुवान इति । शब्दायितास्तेन पृष्टाश्च । भोः किंनिमित्तं रुदितेति । तैर्भणितम्-आर्य ! अस्त्यस्माकं कालसेनो नाम पल्लिपतिः। यस्येह विस्मिता शक्तिनिदानानि चिन्तयन्त्यः । न समालीयन्ते समाश्रयन्ति) दुर्ग परचक्रभयेऽपि व्याध्यः (व्याधपत्न्यः)॥४८३।। एकशरघातलब्धा (प्राप्ता) यस्य च करिकुम्भदारणैकरसाः । नापि विह्वलच्छरीरा गच्छन्ति पदमपि केसरिणः ॥४८४।। सम्पादन कर तुमने राजपुत्र को जीवित कर दिया, अतः तुम्हारा क्या (उपकार) करूँ !" धरण ने कहा-आपने करने योग्य कार्य को कर दिया, जाओ, इष्ट कार्य को पूरा करो।" तब हेमकुण्डल ने 'अहो इसकी महानुभावता'ऐसा सोचकर 'परोपकार करना चाहिए'-ऐसा कहकर औषधि का टुकड़ा दे दिया। प्रार्थना के भङ्ग होने के डर से उसने ग्रहण कर लिया। विद्याधर गया, धरण अपने डेरे पर आया । कुछ दिन बीत गये। दूसरी बार पर्वतीय नदी के किनारे काफिले के पहुंचने पर नीले मेघ के समान वर्णवाली, लता से ऊँचा जूड़ा बांधे हुए, पेड़ की छाल का आधा वस्त्र पहिने हुए, धनुष की प्रत्यंचा में हथेली को लगाये हुए, कुत्तों के झुण्ड से युक्त, दुःखसहित रोते हुए शबर युवकों को धरण ने देखा । उसने (धरण ने उन्हें बुलाया और पूछाकिस कारण से रो रहे हो?" उन्होंने कहा-"आर्य ! मेरा कालसेन नामक भीलों का स्वामी था। जिसकी शक्ति और श्रम का विचार करते हुए व्याध की पत्नियाँ शत्रुओं का भय उपस्थित होने पर भी दुर्ग का आश्रय नहीं लेती हैं। एक बाण के मारने से हाथी का गण्ड स्थल प्राप्त करना ही जिसका एक रस है और विह्वलशरीर वाले सिंह भी (जिसके भय के कारण) थोड़े से भी आगे नहीं बढ़ते हैं ॥४८३-४८४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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