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[ समराइच्चकहा हिमवंताओ। 'मा सिरिविजस्स अच्चाहियं भविस्सइ' ति पडिनियतो एण। पत्तो एवं निउज्ज, खोणयाए वेयागमणेग वीसमणनिमित्तं ओइग्णो इहइं, कयं चलणसोयं उबविट्ठो कुरवयपायवसमीवे, ठिओ महत्तमेतं, उच्चलिओ य उज्जेणि । सुमरिया गयणगामिणी विज्जा जाव अहिणवगिहीयतणेण' गमणसंभमेण य विसुमरियं मे पयं । तओ सा न वहइ त्ति उप्पाय निवाए करेमि। धरणेण भणियंभो एवं ववस्थिए को इह उवाओ। हेमकुंडलेण भणियं-नस्थि उवाओ । अओ चेव रायउत्तविणास संकाए उत्तम्मइ मे हिययं, पणस्सइ मे मई। सव्वहा न अप्पपुण्णाणं समीहियं संपज्जइ त्ति दढं विसण्णो मिह । धरणेण भणियं--भो अस्थि एस कप्पो, जं सा अन्तस्स' समक्खं पढिज्जइ । हेमकंडलेण भणियं-'अत्थि'। धरणेण भणियं--जइ एवं, ता पढ; कयाइ अहं ते पयं लहामि । तओ हेमकंडलेग 'नथि अविसओ पुरिससामथस्स' ति चितिऊण सामन्नसिद्धि काऊण पढिया विज्जा। पयाणसारित्तणेण लद्धं पयं धरणेण । साहियं हेमकुंडलस्स । परितुहो एसो । भणियं चे जेण-भो भो महापुरिस, दिन्नं तर जीवियं मम समीहियसंपायणेण रायउत्तरस, ता कि ते करेमि । धरणेण गतो हिमवत्पर्वतम् । गृहीतौषधिः । अवतीर्णो हिमवतः । ‘मा श्रीविजयस्यात्याहितं भविष्यति' इति प्रतिनिवृत्तो वेगेन । प्राप्त एतद् निकुञ्जम् । क्षीणतया वेगागमनेन विश्रमणनिमित्तमवतीर्ण इह । कृतं चरणशौचम्, उपविष्ट: कुरवकपादपसमीपे, स्थितः मुहूर्तमात्रम्, उच्चलितश्चोज्जयिनीम् । स्मृता गगनगामिनी विद्या, यावदभिनवगृहीतत्वेन गगनसम्भ्रमेण च विस्मृतं मया पदं । ततः सा न वहतीति उत्पातनिपातान् करोमि। धरणेन भणितम्-भो एवं व्यवस्थिते क इहोपायः । हेमकुण्डलेन भणितम्-नास्त्युपायः । अत एव राजपुत्रविनाशशङ्कया उत्ताम्यति मे हृदयम्, प्रणश्यति मे मतिः । सर्वथा नाल्पपुण्यानां समीहितं सम्पद्यते इति दृढं विषण्णोऽस्मि । धरणेन भणितम्-भो अस्त्येष कल्पः, यत्साऽन्यस्य समक्षं पठ्यते । हेमकुण्डलेन भणितम् –'अस्ति' । धरणेन भणितम्यद्येवं ततः पठ, कदाचिदहं तव पदं लभे। ततो हेमकुण्डलेन 'नास्त्यविषयः पुरुषसामर्थ्यस्य' इति चिन्तयित्वा सामान्यसिद्धि कृत्वा पठिता विद्या। पदानुसारित्वेन लब्धं पदं धरणेन । कथितं हेमकुण्डलाय । परितुष्ट एषः । भणितं च तेन--भो भो महापुरुष ! दत्तं त्वया जीवितं मम समीहित
का कोई अनिष्ट न हो' अतः वेग से लौटा। इस निकुंज में आया। शीघ्र आने के कारण थक जाने से यहाँ उतर पड़ा। पैरों को धोया। कुरबक वृक्ष के समीप बैठ गया। क्षणभर बैठा रहा । (बाद में) उज्जयिनी के लिए चल पड़ा। आकाशगामिनी विद्या का स्मरण किया। नये रूप में ग्रहण करने तथा आकाश में चलने की घबराहट के कारण मैं एक पद भूल गया । अतः वह चल नहीं रही है, इस कारण ऊपर जाता हूँ और नीचे आता हूँ। धरण ने कहा-"अरे, ऐसी स्थिति में अब क्या उपाय है ?" हेमकुण्डल ने कहा--"उपाय नहीं है अतः राजपुत्र के विनाश की आशंका से मेरा हृदय आकुल-व्याकुल हो रहा है, मेरी बुद्धि नष्ट हो रही है । अल्प पुण्य वालों का इष्ट कार्य सब प्रकार से सम्पन्न नहीं होता है-ऐसा सोचकर मैं बहुत अधिक दुःखी हूँ।" धरण ने कहाउपाय है । क्या वह दूसरे के सामने पढ़ा जाता है ?" हेमकुण्डल ने कहा- "पढ़ा जाता हैं।" धरण ने कहा-"यदि ऐसा है तो पढ़ो, कदाचित् मैं तुम्हारे पद को ढूंढ निकालूं ।" तब हेमकुण्डल ने 'पुरुष की सामर्थ्य के बाहर की कोई बात नहीं है'-ऐसा सोच कर सामान्य सिद्धिकर विद्या को पढ़ा। पद के अनुसार धरण को पद मिल गया । (उसने) हेमकुण्डल से कहा । वह (हेम कुण्डल) सन्तुष्ट हुआ । उसने कहा-'हे हे महापुरुष ! मेरे योग्य कार्य का
१, गहीयत्तणेण -क, २, अन्नाणं वि --- ।
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