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________________ अट्ठमो भवो] ७२१ अह भयवं पि जिणवरो नियठाणठियाण सव्वसत्ताण । भवजलहिपोयभूयं इय धम्म कहिउमाढतो॥७८३।। जीवो अणाइनिहणो पवाहओऽनाइकम्मसंजत्तो। पावेण सया दुहिओ सुहिओ उण होइ धम्मेण ॥७८४॥ धम्मो चरित्तयम्मो सुयधम्माओ' तओ य नियमेण । कसच्छेयतावसुद्धो सो च्चिय कणयं व विन्नेओ ॥७८५॥ पाणवहाईयाणं पावट्टाणाण जो उ पडिसेहो। झाणज्झयणाईणं जो य विही एस धम्मकसो ॥७८६॥ बज्जाणाणणं जेण न वाहिज्जइ तय नियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो उग धम्मम्मि छेओ ति ।।७८७।। जोवाइभाववाओ बंधाइपसाहओ इहं तावो। एएहि सुपरिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ ॥७८८॥ अथ भगवानपि जिनवरो निजस्थानस्थितानां सर्वसत्त्वानाम् । भवजलधिपोतभूतमिति धर्म कथयितुमारब्धः ।।७८३॥ जीवोऽनादिनिधनः प्रवाहतोऽनादिकर्मसंयुक्तः । पापेन सदा दुःखितः सुखितः पुनर्भवति धर्मेण ॥७८४॥ धर्मश्चारित्रधर्मः श्रतधर्मात ततश्च नियमेन । कषच्छेदतापशुद्धः स एव कनकमिव विज्ञ यः ॥७८५॥ प्राणवधादिकानां पापस्थानानां यस्तु प्रतिषेधः । ध्यानाध्ययनादीनां यश्च विधिरेष धर्मकषः ॥७८६।। बाह्यानुष्ठानेन येन न बाध्यते तन्नियमाद् । सम्भवति च परिशुद्धं स पुनर्धर्मे छेद इति ।।७८७।। जीवादिभाववादो बन्धादिप्रसाधक इह तापः । एतैः सुपरिशुद्धो धर्मो धर्मत्वमुपैति ।।७८८।। अनन्तर भगवान् जिनवर ने भी अपने (-अपने) स्थान पर स्थित समस्त प्राणियों को संसाररूपी सागर के लिए जहाज के तुल्य धर्म का कथन प्रारम्भ किया। जीव अनादिनिधन है, प्रवाह से अनादिकालीन कर्मों से संयुक्त है, पाप से सदा दुःखी और धर्म से सुखी होता है। चारित्रधर्म धर्म है, श्रुतरूपी धर्म से नियमपूर्वक उसे कसौटी पर कसे गये तथा अग्नि में शुद्ध स्वर्ण के समान जानना चाहिए। प्राणिवध आदि पापस्थानों का जो निषेध है और ध्यान, अध्ययन आदि की जो विधि है - यही धर्म की कसौटी है । बाह्यानुष्ठान से जो बाधित नहीं होता है और उस नियम से परिशुद्ध हो सकता है वह धर्म का भेद है। जीवादि पदार्थ से युक्त बन्धादि को सजानेवाला इस संसार में दुःखी होता है। इनसे सुपरिशुद्ध धर्म धर्मपने को प्राप्त करता है। १. सुयधम्मो -उ पा. ज्ञा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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