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________________ ५१४ [समराइच्च कहा विय तिमिरनिवहेण 'ओत्थयाए रयणोए उढिओ कुमारो संतिमई य। भणियं च णेण--सुंदरि, बीहाणि देसंतराणि, विचित्ता कम्मपरिगई, आवयाभायणं च एत्थ पाणिणो। बाहेइ य म कुमारनेहाणबंधो, उपपेक्खामि य इह अवत्थाणम्मि तस्स आवयं, अणिवईए य चित्तस्स न सक्कुणोमि इह चिद्विलं, अणुचिया य तुमं किलेसायासस्स । ता न याणामि, किमेत्य जुत्तं ति। संतिमईए भणियंअज्जउत्तचित्तनिव्वुइसंपायणं ति । को य मम अज्जउत्तसहियाए किलेसायासो त्ति । तओ भवियन्वयाए' निओएण संतिमईसमेओ घेत्तण असिवरं अलविखओ परियण निग्गओ उज्जाणाओ। गओ रयणीए चेव चंपावासयं सन्निवेसं। एत्थंतरम्मि अइक्कंता रयणी, उग्गओ अंसुमाली। परिस्पंता संतिमइ त्ति ठिओ एगमि बणनिगुंजे। दिट्ठो य तत्थ तामलित्तिपत्थिएण रायउरनिवासिणा साणुदेवनामेण सत्थवाहपुत्तेण, पच्चभिन्नाओ म णेण । जाया य से चिता । कि पुण एसो रइदुइओ विय मयरकेऊ रायधूयामेत्तपरियणो एवं वट्टइ। कि राइणा निव्वासिओ ति । अहवा न संभवइ एवं रायधूयापयाणाणुमाणमुणियसिणेहाइतिमिरनिवहेनावस्तृतायां रजन्यामुत्थितः कुमारः शान्तिमती च । भणितं च तेन-सुन्दरि ! दीर्घाणि देशान्तराणि, विचित्रा कर्मपरिणतिः, आपद्भाजनं चात्र प्राणिनः । बाधते च मां कुमारस्नेहानुबन्धः, उत्प्रेक्षे चेहावस्थाने तस्यापदम् । अनिर्वृत्या च चित्तस्य न शक्नोमीह स्थातुम , अनुचिता च त्वं क्लेशायासस्य । ततो न जानामि किमत्र युक्तमिति। शान्तिमत्या भणितम्-आर्यपुत्रचित्तनिर्वतिसम्पादनमिति । कश्च ममार्यपुत्रसहितायाः क्लेशायास इति । ततो भवितव्यताया नियोगेन शान्तिमतीसमेतो गृहीत्वाऽसिवरमलक्षितः परिजनेन निर्गत उद्यानात् । गतो रजन्यामेव चम्पावासं सन्निवेशम् । अत्रान्तरे अतिक्रान्ता रजनी, उद्गतोऽशुमाली। परिश्रान्ता शान्तिमतीति स्थित एकस्मिन् वननिकुञ्ज । दृष्टश्च तत्र ताम्रलिप्तीप्रस्थितेन राजपरनिवासिना सानुदेवनाम्ना सार्थवाहपुत्रेण, प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । जाता च तस्य चिन्ता। किं पुनरेष रतिद्वितीय इव मकरकेतू राजदुहितमात्रपरिजन एवं वर्तते । किं राज्ञा निर्वासित इति । अथवा न सम्भवत्येतद् राजदुहितप्रदानानुमानज्ञातगमन करती है, उसी प्रकार कुमार सेन और शान्तिमती उठे। उस समय रात्रि काले वस्त्र के समान अन्धकार समूह से आच्छादित हो रही थी। कूमार सेन ने कहा- 'सन्दरि ! देशान्तर दीर्घ होते हैं, कर्मों की परिणति विचित्र है, यहाँ प्राणी आपत्ति के पात्र होते हैं। कुमार के प्रति स्नेह का सम्बन्ध मुझे पीड़ित कर रहा है। यहाँ पर ठहरने में उसकी आपत्ति देखता हूँ । चित्त की शान्ति न होने के कारण यहाँ नहीं रह सकता हूँ। तुम क्लेश और थकावट के योग्य नहीं हो, अत: नहीं जानता हूँ, यहाँ क्या युक्त है ।' शान्तिमती ने कहा---'आर्यपुत्र के चित्त की शान्ति का सम्पादन (करना ही यहाँ उचित है । अतः आर्यपुत्र के साथ मुझे क्लेश और थकावट कहाँ ?' मनन्तर भवितव्यता के नियोग से शान्तिमती के साथ श्रेष्ठ तलवार लेकर परिजनों के द्वारा न दिखाई देते हुए उद्यान से निकल गया। रात्रि में ही चम्पावास नामक सन्निवेश में पहँचा। इसी बीच रात्रि बीत गयी, सूयंदिय हुआ। शान्तिमती थक गयी है-ऐसा सोचकर एक वनकंज में ठहर गया। वहाँ पर ताम्रलिप्ती को जाते हुए राजपुर के निवासी 'सानुदेव' नामक सार्थवाहपुत्र ने देख लिया और पहिचान लिया . उसे चिन्ता हुई । रति के साथ कामदेव की तरह राजकुमारी मात्र ही जिसकी सेवक है, ऐसा (यह कुमार सेन) इस अवस्था में क्यों है ? क्या राजा ने निकाल दिया? अथवा राजपुत्री के प्रदान के अनुमान १, उच्छइया रयणीक । २. -यानिओ----क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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