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________________ सत्तमो भवो] ५६५ सयस्स राइणो हरिसेणस्स । गणायरो य एसो, गुणेगंतपक्खवाई य राया। अओ अपक्खो चेव एसो त्ति । न य अन्नो कोइ निवासणसमत्थो। एत्थ एहमेत्तपरियणो य एसो। ता भवियश्वमणेणं नियनिव्वेयनिग्गएणं । विचित्ताणि य विहिणो विलसियाणि । ता इमं एत्य पत्तयालं, पणमिऊण पुच्छामि एयं ति । चितिऊण पणमिओ कुमारो संतिमई य । भणियं च णेणं-देव, अमणियवृत्तंतो ति बिन्नविस्सं देवं । तओ न कायव्वो खेओ। कुमारेण भणियं-मद्द, को एत्थ अवसरो खेयस्स; ता भगाउ भद्दो। साणुदेवेण भणियं - देव, अहं खु रायउरवस्थव्वओ साणुदेवो नाम सत्थवाहपुत्तो, पयट्टो सत्थेन तामलित्ति । आवासिओ य णे सत्थो एत्थ सन्निवेसे । आयमणनिमित्तं च समागओ इओ नाइदूरदेसवत्तिणं सरं । उवलद्धं च एवं वणनिजं । तओ समपन्नो मे पमोओ.। आचिक्खियं विय हियएणं, जहा एत्थ कल्लाणं ते भविस्सइ ति। तओ भवियव्वयानिओएण समागओ इहइं। उवलद्धो य देवो सामिधूया य। रायउरोवलद्धसंगयाणस्सरणगुणेण य समुप्पन्न पच्चभिन्नाणं । तओ आणंदियं पि विसणं विय मे चित्तं, 'कहिं देवो, कहिं एहमेत्तपरियणो' ति। ता आइसउ देवो, जइ अकहणीयं न स्नेहातिशयस्य राज्ञो हरिषेणस्य । गणाकरश्चैषः, गुणकान्तपक्षपाती च राजा । अतोऽपक्ष एष इति । न चान्यः कोऽपि निर्वासनसमर्थः । अत्र एतावन्मात्रपरिजनश्चैषः। ततो भवितव्यमनेन निजनिर्वेदनिर्गतेन । विचित्राणि च विधेविलसितानि । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, प्रणम्य पृच्छाम्येतमिति । चिन्तयित्वा प्रणतः कुमारः शान्तिनती च । भणितं च तेन-देव ! अज्ञातवृत्तान्त इति विज्ञपयिष्ये देवम्, ततो न कर्तव्यः खेदः । कुमारेण भणितम्-भद्र ! कोऽत्रावसरः खेदस्य, ततो भणतु भद्रः। सानुदेवेन भणितम्-अहं खलु राजपरवास्तव्यः सानुदेवो नाम सार्थवाहपत्रः प्रवृत्तः सार्थेन ताम्रलिप्तीम् । आवासितश्चास्माभिः सार्थोऽत्र सन्निवेशे। आचमननिमित्तं च समागत इतो नातिदूरदेशवर्ति सरः । उपलब्धं चैतद् वननिकजम् । ततः समुत्पन्नो मे प्रमोदः । आख्यातमिव हृदयेन, यथाऽत्र कल्याणं ते भविष्यतीति । ततो भवितव्यतानियोगेन समागत इह। उपलब्धश्च देव स्वामिदुहिता च। राजपरोपलब्धसङ्गतानुस्मरणगुणेन च समुत्पन्न प्रत्यभिज्ञानम् । तत आनन्दितमपि विषण्णमिव मे चित्तम, कत्र देवः, कत्र एतावन्मानपरिजन इति । तत आदिशतु देवो यद से जिसका स्नेहातिशय ज्ञात होता है-ऐसे राजा हरिषेण में यह बात सम्भव नहीं है। यह राजा गुणों की खान और गुणों का एकान्त रूप से पक्षपाती है। अतः यह पक्ष नहीं हो सकता है। दूसरा कोई निकालने में समर्थ है नहीं। यहाँ पर इतने मात्र परिजन से यह युक्त है । अतः अपनी ही विरक्ति से इसे निकला हुआ होना चाहिए । भाग्य के विलास विचित्र हैं । तो अब समय आ गया है, प्रणाम कर इसी से पूछू-ऐसा सोचकर उसने कुमार और शान्तिमती को प्रणाम किया और कहा-'महाराज ! मुझे चूंकि वृत्तान्त ज्ञात नहीं है, अतः महाराज से निवेदन करना चाहता हूँ, अतः खेद न करें।' कुमार ने कहा--'भद्र ! यहाँ पर खेद का क्या अवसर, अतः भद्र, कहिए।' सानुदेव ने कहा-'मैं राजपुरी का निवासी सानुदेव नामक वणिक्पुत्र सार्थ (काफिले) के साथ ताम्रलिप्ती जा रहा हूँ। हम लोगों के सार्थ ने यहाँ सन्निवेश में डेरा डाला है । पानी पीने के लिए यहाँ समीपवर्ती तालाब पर आया और इस वन-निकुंज तक आ पहुँचा। अनन्तर यहाँ मुझे हर्ष हुआ। हृदय ने मानो कहा कि यहाँ तुम्हारा कल्याण होगा। अतः होनहार के नियोग से यहाँ आया हूँ। यहाँ पर महाराज और स्वामिपुत्री मिले। राजपुर में प्राप्त मेल के स्मरणरूप गुण से पहिचान लिया। उससे आनन्दित होने पर भी मेरा मन खिन्नसा है । कहाँ तो महाराज और कहां इतने मात्र परिजन ! अतः महाराज ! यदि अकथनीय न हो तो कहिए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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