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________________ सत्तमो भवो] जम्मि सहयारपरिमलखित्तो भरियावराहविणियत्तो। अंदोलइ दोलासु व माणो गरुओ वि विलयाणं ॥५७६।। मुच्छानिमीलियच्छे जम्मि य पहिए 'विसंथुलोअल्लो। विसकुसुमाण व गंधो पसरंतो कुणड बउलागं ॥५८०।। दटुं नवमंजरिए चुए गुंजतभमरपरिथरिए। जम्मि अइमच्छरेण व धणियं फुति अंकोल्ला ॥५८१॥ वज्जंतभमरवंसं कोइलकलसद्दबद्धसंगीयं । पवणधुयपल्लवकरं नच्चंति व जत्थ रण्णाई॥५८२॥ जम्मि य गयणविलग्गा सहति पवियसियकुसुमपभारा। मयगयवइगहिओल्लोल्लसोल्लभारा इव पलासा॥५८३॥ जम्मि य सहति किसुयकुसुमाइं थलोण पदणपडियाई। तक्खणसमागयाइं महणा सह नहवयाइ व्व ॥५८४ । यस्मिन् सहकारपरिमलक्षिप्तः स्मृतापराधविनिवृत्तः । आन्दोलयति दोलास्विव मानो गुरुरपि वनितानाम् ॥५७६।। मच्छानिमीलिताक्षान् यस्मिश्च पथिकान विसंस्थुलपर्यस्तः । विषकुसुमानामिव गन्धः प्रसरन् करोति बकुलानाम् ॥५८०॥ दष्टवा नवमञ्जरीकान चतान गञ्जदभ्रमरपरिकरितान । यस्मिन्नतिमत्सरेणेव गाढं स्फुटन्ति अङ्कोठाः ।।५८१॥ वाद्यमानभ्रमरवंशं कोकिलकलशब्दबद्धसङ्गीतम्। पवनधूतपल्लवकरं नृत्यन्तीव यत्रारण्यानि ॥५८२ । यस्मिश्च गगनविलग्ना राजन्ते प्रविकसितकुसुमप्राग्भाराः। मृतगजपतिगृहीतार्द्रमांसभारा इव पलाशाः ॥५८१॥ यस्मिश्च राजन्ते किंशुककुसुमानि स्थलीनां पवनपतितानि । तत्क्षणसमागता मधुना सह नखवजा इव ॥५८४॥ जिसमें आम की मुगन्ध्रि के रूप में फेंका हुआ स्मरण रूप अपराध से लौटाया हुआ स्त्रियों का भारी मान भी मानो झूलों पर झूलता था, जिसमें मूर्छा से नेत्र बन्द किये हुए पथिकों के ऊपर विषम रूप से फेंके गये नीलकमलों के समान गन्ध बकुलों का प्रसार करती थी, जिन पर गुंजार करते हुए भ्रमरों से युक्त नवमञ्जरी वाले आमों को देखकर मानो अत्यन्त ईर्ष्या से ही अंकोष्ठ अत्यधिक रूप से विकसित हो रहे थे, जहाँ पर भ्रमररूपी बाँसुरी को बजाकर कोयलों की मधुर ध्वनि के रूप में गाना गाकर वायु के द्वारा पल्लवरूपी हाथों को हिलाते हुए वन मानो नृत्य कर रहे थे, जहाँ पर आकाश में लगे हुए अत्यधिक विकसित फूलों के समूहवाले पलाश मरे हुए सिंहों से गृहीत आर्द्र मांस के भार के समान शोभित हो रहे थे, जिसमें वायु के द्वारा पृथ्वी पर गिरे हुए किंशुक के फूल उसी क्षण मधु के साथ आये हुए नखवज्रा के समान शोभित हो रहे थे । ॥५७९-५८४ ॥ १. -थलयिल्लो । २. वठण व.- क, ख । ३. भरियं लढिय सुमरियं-(पाइयलच्छी, ५६४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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