SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८० [ समराइच्चकहा भमिरभमरउलकयवमालो वियसियसहयाररेणुधूलिधूसरियनहयलो कुरुबयकुसुमामोयहरिसियमुद्धमहुयरिगणो सुइसुहसुव्वंतचच्चरीतूरमहरनिग्योसो भवणंगणुब्बद्ध विविहविडवहिंडोलयाउलो, महुमहो व्व महुयररिंछोलिसामलच्छाओ लच्छिपडिवन्नवच्छो य, पसाहियवारविलयानिवहो व तिलउज्जलो जणियमयणपसरो य, मुणियपरमत्थजोइनाहो व्व अइमुत्तयालंकिओ दढमसोयचित्तो य, सुरासुरमहिज्जतदुद्धोयहि व्व "वियंभियसुरापरिमलो विइण्णभुवणलच्छी य। अवि य नलिणीए बद्धराओ त्ति जमि मणिउं व दक्खिणदिसाए। विच्छभइ दियसयरो मलयाणिलमक्कनीसासं ॥५७७॥ वियसियपंकयनयणा जम्मि य वोलेंति मंथरं दियहा। उउसिरिदसणसंभमपहरिसहीरतहियय व ॥५७८।। भ्रमभ्रमरकुलकृत 'कलकलो विकसितसहकाररेणुधूलिधूसरितनभस्तलः कुरुबककुसुमामोदहृषितमुग्धमधुकरीगण: श्रुतिसुखश्रूयमाणचर्चरीतूर्यमधुरनिर्घोषो भवनाङ्गणोबद्धविविधविटपहिन्दोलाकुलो मधमथ इव मधुकरश्रेणि श्यामलच्छायो लक्ष्मीप्रतिपन्नवक्षाश्च, प्रसाधितवारवनितानिबह इव तिलकोज्ज्वलो जनितमदनप्रसरश्च, ज्ञातपरमार्थयोगिनाथ इवातिमुक्तका(ता)लंकृतो दृढमशोकचित्र (त) श्च, सुरासुरमथ्यमानदुग्धोदधिरिव विजृम्भितसुरापरिमलो वितीर्णभुवनलक्ष्मीश्च । अपि च नलिन्यां बद्धराग इति यस्मिन् ज्ञात्वेव दक्षिण दिशा । विक्षिप्यते दिवसकरो मलयानिलमुक्तनिःश्वासम् ।।५७७॥ विकसितपङ्कजनयना यस्मिश्च व्यतिक्रामन्ति मन्थरं (मन्द) दिवसाः । ऋतुश्रीदर्शनसम्भ्रमप्रहर्षह्रियमाणहृदया इव ॥५७८॥ ध्वजास्वरूप मलयपवन बढ़ गया, फूलों के मधु से मतवाले होकर धूमनेवाले भौंरों का समूह गुंजार करने लगा, विकसित आम के पराग की धूलि से आकाश धूसरित हो गया, कुरबक के फूलों की सुगन्धि से हर्षित भौरियों का समूह मुग्ध हो गया, नृत्यमण्डली के वाद्यों की मधुर आवाज कानों में सुख देती हुई सुनाई देने लगी, भवन के आंगन अनेक प्रकार के वृक्षों में बाँधे गये झूलों से व्याप्त हो गये। भौंरों की पंक्तियाँ मधुमथ की भाँति श्याम कान्तिवाली हो रही थीं। वृक्ष शोभासम्पन्न हो गये थे। काम के प्रसार को उत्पन्न करनेवाला उज्ज्वल तिलक (वृक्षसमूह) सज्जित वाराङ्गनाओं के समूह की तरह लग रहा था अत्यधिक मोतियों से अलंकृत दृढ़ अशोक परमार्थ को जाननेवाले योगिनाथ की भांति लग रहा था। सुर और असुरों के द्वारा मथे जाते हुए क्षीरसागर के समान मद्य की सुगन्धि को बढ़ाती हई ही मानो भवनलक्ष्मी उतर आयी थी। और भी - जिस वसन्त ऋतु में दक्षिण दिशा सूर्य को कमलिनी के प्रति राग में बँधा हुआ जानकर मलयपवन के द्वारा लम्बी साँस छोड़कर विकल हो रही थी, जिसमें ऋतुरूप लक्ष्मी के दर्शन के उत्साह से हर्षित होकर हरे गये हृदयवालों के समान विकसित नेत्रकमलों वाले दिन मन्द गति से व्यतीत हो रहे थे ॥५७७-५७८।। १. सुरहिपरिमलो-क।२. रोलो रावो वयलो हलबोलो कययलो वमालोय ॥ (पाइयलच्छी, ४७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy