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________________ ५८२ जत्थ य पिर्यति तरुणा पवरमहुं कामिणीण 'अहरे य । वति यखेडाई सुरयाइं बहुवियारायाई ॥। ५८५॥ एवंगुणाहिरा य पत्ते वसंतसमए सो सेणकुमारो कीलानिमित्तमेव विसे सुज्जलनेवच्छ्रेण संगओ परियणं पयट्टो अमरनंदणं उज्जाणं । दिट्ठो य पासायतलगएणं विसेणकुमारेणं निम्मलfafaadaaraant बहलहरियंदण विलित्तदेहो विमलमाणिक्ककयभूसियकरो पउमरायखचियकेर पडिवाहू भुवणसार कडि सुत्तन्छ इयक डियडो निम्मलकबोल घोलं तसवणकुंडलो विविहवररयण कलियम उडपसाहिउत्तिमंगो आरूढो धवलवारणं पवज्जमाणे णं वसंतचच्चरीत्रेणं नच्चमाणेहिं किंकरगणेहिं एरावणगओ विय तियसकुमारपरियरिओ देवराओ त्ति । वच्छलाभोयविरइयवररयणपालंबो संतिमई विभूसियसहियण परिवारिया विसालच्छी । पवरदुगुलनिवसणा चंदणनिम्मज्जियसरीरा ॥ ५८६ ॥ यत्र पिबन्ति तरुणाः प्रवरमधु कामिनीनामधरांश्च । वर्तते खेलानि सुरतानि बहुविकाराणि ॥५८५|| एवंगुणाभिरामे च प्रवृत्ते वसन्तसमये स सेनकुमारः क्रीडानिमित्तमेव विशेषोज्ज्वलनेपथ्येन सङ्गतः परिजनेन प्रवृत्तोऽमरनन्दनमुद्यानम् । दृष्टश्च प्रासादतलगतेन विषेणकुमारेण निर्मल विचित्रदेवाङ्गनिवसनो बहलहरिचन्दनविलिप्तदेहो विमलमाणिक्य कट कभूषितकरः पद्मरागखचितकेयूरप्रतिपन्न हुर्भुवनसारकटिसूत्रावच्छादितकटितटो वक्षःस्थलाभोगविरचितवररत्नप्रालम्बो निर्मलकपोल 'भ्रमच्छ्रवणकुण्डलो विविधवर रत्नकलित मुकुटप्रसाधितोत्तमाङ्ग आरूढो धवलवारणं प्रवाद्यमानेन वसन्तचर्चरीतूर्येण नृत्यद्भिः किङ्करगणैरैरावणगत इव त्रिदशकुमारपरिकरितो देवराज इति । [ समराइच्चका शान्तिमत्यपि च भूषितसखीजनपरिवृता विशालाक्षी । प्रवरदुकूलनिवसना चन्दननिर्मार्जित (उपलिप्त ) शरीरा ॥ ५८६ ॥ Jain Education International जहाँ पर तरुण लोग मधु और स्त्रियों के अधर का पान कर रहे थे तथा जहाँ बहुत-सी विकारयुक्त, सम्भोगकीड़ाएँ हो रही थीं । ५८५॥ इस प्रकार के गुणों से सुन्दर लगनेवाले वसन्त समय के आने पर वह सेनकुमार क्रीड़ा के लिए विशेष उज्ज्वल पोशाक पहिनकर परिजनों के साथ 'अमरनन्दन' उद्यान में गया । भवन के नीचे गये हुए कुमार विषेण ने उसे देत्रकुमारों से घिरे हुए इन्द्र के समान देखा । वह निर्मल, विचित्र, दैवीय वस्त्र पहिने था, अत्यधिक हरिचन्दन से उसका शरीर लिप्त था, निर्मलमणियों से निर्मित कड़ों से उसके हाथ भूषित थे, भुजाओं में पद्मरागमणि से जड़े हुए भुजबन्द थे, लोकों के साररूप कटिसूत्र ( करधनी) से उसकी कमर का तट आच्छादित था, वक्षःस्थल के विस्तृत भाग पर श्रेष्ठ रत्नहार लटक रहा था, स्वच्छ गालों पर कर्णकुण्डल डोल रहे थे, अनेक प्रकार के श्रेष्ठ रत्नों से युक्त मुकुट से उसका सिर सजा हुआ था, वह सफेद हाथी पर सवार था, वसन्त मास की नृत्यमण्डलियों के बाजों के साथ किकर नृत्य कर रहे थे, ऐसा मालूम पड़ रहा था जैसे ऐरावत हाथी पर सवार होकर इन्द्र जा रहा हो । कुमार विषेण ने शान्तिमती को भी देखा। वह शान्तिमती भी भूषित सखीजनों के साथ थी । उसके नेत्र विशाल थे । वह उत्कृष्ट रेशमी वस्त्र पहिने हुए थी । चन्दन से उसका शरीर लिप्त था ।। ५६६ ॥ १. अहरेण । २. घोलियढ़ लियाइ भमिअत्थे ( पाइयलच्छी ५२९) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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