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________________ ४७० [समराइच्चकहा भणीय तहा वि सत्तेसु क्या। कालसेणेण भणियं-परिवज्जिया जावज्जीवमेव मए अज्जवयण पारद्धी । धरणेण भणियं--कयं मे करणिज्जं । तओ गओ सत्यवाहपुत्तो निययसत्थं । अइक्कंता कइवि दियहा अणवरयपयाणएण'। विट्टो य ग पक्खसंधीए उववासहिएणं आयामुहीसन्निवेसम्मि आवासिए सत्थे जरचीरनिबसणो गेरुतविलित्तसव्वात्तो खंधदेसारोवियतिक्खसूलिओ अचोरो चेव चोरो ति करिए गहिओ वज्जतविरसडिडिमं वज्झत्थामं नीयमाणो चंडालजुवाणओ त्ति । तेण वि य महंतं सत्थमवलोइय सुद्धयाए आसयस वल्लयाए जीवियस्स तस्स समोवमि चेव महया सद्देण जंपियं । भो भो सत्थिया, सुमेह तुब्भे । महासरनिवासी मोरिओ नाम चंडालो अहं, कारणेण य कुसत्थलं पयट्टो, विष्पलद्धबुद्धीहि य दंडवासिएहि अपेच्छिऊण चोरे अदोसयारी चैव मंदभागो गिहीओ म्हि । ता मोयादेह, भो मोयावेहसरणागओ अहं अज्जाणं। अन्नंच, मरणदुक्खाओ वि मे इयमन्भहियं, जंतहाविहनिक्कलंकपुनपुरिसज्जियस्स जसस्स विणा वि दोसेणं मइलण त्ति । ता मोयावेह भो मोयावेह ! तओ सुद्धचित्तयाए चितियं धरणेण । न खलु दोसयारी एवं कालसेनेन भणितम् --परिवजिता यावज्जीवमेव मयाऽऽयवचनेन पापद्धिः । धरणेन भणितम्-कृतं मे करणीयम् । ततो गतः सार्थवाहपुत्रो निजसार्थम् । अतिक्रान्ता कत्यपि दिवसा अनवरतप्रयाणकेन । दृष्टस्तेन पक्षसन्धौ उपवासस्थितेन आयामुखीसन्निवेशे आवासिते सार्थे जरच्चीरनिवसनो गेरुकविलिप्तसर्वगात्रः स्कन्धदेशारोपिततीक्ष्णशूलिकोऽचोर एव चोर इति कृत्वा गृहीतो वाद्यमानविरसडिण्डिमं वध्यस्थानं नीयमानश्चण्डालयुवेति । तेनापि च महान्तं सार्थमवलोक्य शुद्धतयाऽऽशयस्य वल्लभतया जीवितस्य तस्य समीप एव महता शब्देन जल्पितम् -भो भोः साधिका: ! शृणुत यूयम्, महाशरनिवासी मौर्यो नाम चण्डालोऽहम्, कारणेन च कुशस्थलं प्रवृत्तः, विप्रलब्धबुद्धिशिश्च दण्डपाशिकरप्रेक्ष्य चौरान् अदोषकार्येव मन्दभाग्यो गृहीतोऽस्मि । ततो मोचयत भो भोचयत, शरणागतोऽहमार्याणाम् । अन्यच्च मरणदुःखादपि मे इदमभ्यधिकम् , यत्तथाविधनिष्कलङ्कपूर्वपुरुषार्जितस्य यशसो विनापि दोषेण मलिनतेति । ततो मोचयत भो मोचयत । ततः शुद्धचित्ततया चिन्तितं धरणेन । न खलु दोषकारी पाप को बढ़ाने वाली हिंसा का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया।" धरण ने कहा- 'जो मेरे योग्य कार्य था, उसे मैंने कर दिया।" अनन्तर सार्थवाहपुत्र अपने पड़ाव की ओर चला गया। निरन्तर गमन करते हुए कुछ दिन बीत गये । उपवास में स्थित उसने पास में वर्तमान आयामुखी सन्निवेश में अपने सार्थ को आवासित कर देने के बाद जीर्णशीर्ण कपड़ों को पहने हुए, गेरू से जिसका सारा शरीर लिप्त था, कन्धे पर जिसके तीक्ष्ण शूल रखी थी, चोर न होने पर भी जो चोर मानकर पकड़ा गया था; नीरस डिण्डिमनाद जहाँ हो रहा था ऐसे वध्यस्थान को ले जाये जाते हुए चाण्डाल युवक को देखा । उसने भी बड़े व्यापारियों के समह को देखकर आशय की शद्धता तथा प्राणों के प्रति प्रेम के कारण उसके समीप ही जोर से कहा-हे हे व्यापारियो, आप सब सुनें ! 'महाशर' का निवासी 'मौर्य' नामक चाण्डाल हूँ। किसी कारणवश कुशस्थल गया । ठगने की बुद्धि रखनेवाले सिपाहियों के द्वारा चोरों के न दिखाई पड़ने पर बिना दोष किये ही भाग्यहीन मैं पकड़ लिया गया हूँ। अत: 'छुड़ाओ, छुड़ाओ', मैं आर्य लोगों की शरण में हूँ। दूसरी बात जो कि मरण के दुःख से भी अधिक बढ़कर है, वह यह कि दोष के बिना भी पूर्वपुरुषों द्वारा उपार्जित उस प्रकार के १. पयाणएहिं वच्चमाणेण-क, २. कुलजसस्स-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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