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छट्ठी भवो]
કહે भवे । तओ घेत्तण विज्जाहरविइण्णं ओसहिवलयं आरुहिय वेसरं कइवयनियपुरिसपरिवारिओ तुरियतुरियं गओ सत्थवाहपुत्तो। दिट्ठो य तेणं नग्गोहपायवतलम्मि चियगासन्नसंठिओ रुहिरधारापरिसित्तगत्तो सिणेहसारमसह च रोवमाणीए' जायाए संगओ कालसेणो। निवेइओ से वृत्तंतो सवरजुवाणएण । अन्भुट्ठमाणो य मुच्छानिमीलियलोयणो निवडिओ धरणिवढे । धरणेण भणियं । उदयमुदयं ति । तओ आणीयमुदयं नलिणिपत्तेणं। छूढमोसहिवलयं दाऊणमुत्तिमंगखडं। सित्तोय पेण, जाव अचितयाए ओसहिपहावस्त पुबरूवाओ वि अहिययरं दसणीओ अलक्खिज्जमाणवणविभाओ उढिओ कालसेणो । तुट्ठा य से धरिणी सह परियणेण । चलणेसु निवडिऊण भणियं च णेणअज्ज, पिययमाजीयरक्खणेणं संपाडियमहापओयणा तुह संतिया पाणा; किमेत्थ अवरं भणीयइ । धरणेण भणियं-सव्वसाहारणा चेव महापुरिस, पाणा हवंति। किमेत्थ असियं । कालसेणेण भणियंता आइसउ अज्जो, जं मए कायवं ति। धरणेण भणियं-महापुरिसो खु तुम; ता कि अवरं
गृहीत्वा विद्याधरवितीर्णमोषधिवलयमारुह्य वेसरं कतिपयनिजपुरुषपरिवृतस्त्वरितत्वरितं गतः सार्थवाहपुत्रः । दृष्टस्तेन न्यग्रोधपादपतले चितासन्नसंस्थितो रुधिरधारापरिषिक्तगात्रः स्नेहसारमशब्दं च रुदत्या जायया सङ्गतः कालसेनः । निविदितस्तस्य वृत्तान्तः शबरयूना। अभ्युत्तिष्ठंश्च मूर्छानिमीलितलोचनो निपतितो धरणीपृष्ठे। धरणेन भणितत्–'उदक मुदकमिति'। तत आनीतमुदकं नलिनीपत्रेण । क्षिप्तमोषधिवलयं दत्त्वोत्तमाङ्गखण्डम् । सिक्तस्तेन, यावदचिन्त्यतया ओषधिप्रभावस्य पूर्वरूपादप्यधिकतरं दर्शनीयोऽलक्ष्यमाणव्रणविभाग उत्थितः कालसेनः । तुष्टा च तस्य गृहिणी सह परिजनेन। चरणयोर्निपत्य भणितं च तेन-आर्य ! प्रियतमाजीवितरक्षणेन सम्पादितमहाप्रयोजनास्तव सत्काः प्राणाः, किमत्रापरं भण्यते। धरणेन भणितम्-सर्वसाधारणा एव महापुरुष ! प्राणा भवन्ति, किमत्राधिकम् । कालसेनेन भणितम्-तत आदिशत्वार्यः, यन्मया कर्तव्यमिति । धरणेन भणितम्--महापुरुषः खलु त्वम्, ततः किमपरं भण्यते, तथापि सत्त्वेषु दया ।
अनन्तर विद्याधर के द्वारा दी गयी औषधिसमूह को लेकर खच्चर पर चढ़कर कतिपय निजपुरुषों से घिरा हुआ सार्थवाह-पुत्र शीघ्रातिशीघ्र गया। उसने वटवृक्ष के नीचे चिता के समीप स्थित कालसेन को देखा, जिसके कि शरीर से खून की धारा वह रही थी तथा स्नेह से भरी हुई, बिना शब्द के रोती हुई पत्नी जिसके साथ थी। शबर युवक ने उसका वृत्तान्त निवेदन किया । मूर्छा के कारण नेत्र ब द किये हुए वह उठा और पृथ्वी पर गिर पड़ा। धरण ने कहा 'पानी (लाओ) पानी'। अनन्तर कमलिनी के पत्ते (दोना) में पानी लाया गया। दोना में औषधिसमूह को डालकर सिरपर लगाया गया। उससे (औषधि के पानी से) सींचा । औषधि के अचिन्तनीय प्रभाव से पहले से भी अधिक दर्शनीय होकर, जिसके घाव का भाग दिखाई नहीं पड़ रहा है, ऐसा कालसेन उठ खड़ा हुआ । उसकी पत्नी परिजनों के साथ सन्तुष्ट हुई। चरणों में गिरकर उसने (कालसेन ने) कहा- "आर्य ! प्रियतमा के जीवन की रक्षा करने से जिसने महान् प्रयोजन की सिद्धि की है ऐसे आपके सत्कार में मेरे प्राण (उपस्थित) हैं और क्या कहा जाय।" धरण ने कहा- हे महापरुष! प्राण तो सभी को आवश्यक होते हैं और अधिक क्या कहूँ ?" कालसेन ने कहा-"तो आर्य ! मेरे योग्य कर्तव्य का आदेश दें।" धरण ने कहा-"तुम पुरुष हो अतः क्या कहें ? तथापि प्राणियों पर दया करनी चाहिए।" कालसेन ने कहा-'आर्य के वचनों के अनुसार
१. रोयमाणीए-क, २. पोइणिवत्तेहि-क, ३. छोढ़णमो-क, ४. णमोसहिधोवउदएण-क।
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