SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमो भवो] ८३१ तस्स विद्विगोयरं, मोहदोसेण निरूविया, अन्झोववन्नो तीए। अहो चित्तन्नुओ ति परिउट्ठा रई। ठिओ सोएगदेसे मोहदोसेण, दुन्निवारणीओ मयणपसरो त्ति । 'हला, आणेहि एयं जुवइजणमणसुहं जुवाणय'ति भणिऊण पेसिया रईए अभिन्नरहस्सा जालिणी नाम चेडी। 'सुबुज्झाव(वि)याणि एत्थ वइयरे कामिहिययाई' ति पयारिऊणमाणिओ य णाए, पेसिओ वासहरे, उवविट्ठो पल्लंके । पणामियं से रईए तंबोलं, अद्धगहियमणेण । एत्यंतरम्मि सुओ बंदिकलयलो। 'समागओ राय' त्ति भीया रई । 'न एत्थ अन्नो उवाओ' ति पेसिओ कच्चहरए । पविट्ठो राया, उवविट्ठो पल्लंके, ठिओ कंचि वेलं । भणियं च णेण-अरे सद्दावेह वारियं, पविसामो पावरखालयं ति । सद्दिओ वारिओ। सुयमिणं सुहंकरेण । 'नियमओ वावाइज्जामि' त्ति अच्चंतभीएण जीवियाभिलासिणा अगाहे वच्चकुवे निच्चंधयारम्मि अच्चंतदुरहिगंधे निवासे किमिउलाण पवाहिओ अप्पा। निवडिओ वच्चहरयाओ कंठए, भरिओ (असुइएण, विधिओ किमोहि, निरुद्धो दिटिपसरो, संकोडियं अंगं, उइण्णा वेयणा, आउलीहूओ दढं, गहिओ संमोहेण । इओ य सो राया पच्चवेक्खियं अंगरखेंहि पविट्टो वच्चहरयं । गोचरम् । मोहदोषण निरूपिता, अध्युपपन्नस्तस्याम् । 'अहो चित्तज्ञ.' इति परितुष्टा रतिः । स्थितः स एकदेशे मोहदोषेण, दुनिवारणीयो मदनप्रसर इति 'हला (सखि), आनयतं युवतिजनमनःसुखं युवानम्' इति भणित्वा प्रषिता रत्याऽभिन्न रहस्या जालिनी नाम चेटी। 'सुबोधितानि अत्र व्यतिकरे कामिहृदयानि' इति प्रतार्यानीतश्च नया, प्रेषितो वासगृहे, उपविष्टः पल्यङ्क । अर्पितं तस्य रत्या ताम्बूलम्, अर्धगृहोतमनेन । अत्रान्तरे श्रुतो बन्दिकलकलः । 'समागतो राजा' इति भीता रतिः । 'नात्रान्य उपायः' इति प्रेषितो वर्चीगृहे । प्रविष्टो राजा, उपविष्टः पल्यङ्क, स्थितः काञ्चिद् वेलाम् । भणितं चानेन - अरे शब्दाययत नापितम् । प्रविशामः पायुक्षालकमिति । शब्दायितो नापितः । श्रुतमिदं शुभङ्करेण । 'नियमतो व्यापाये' इति अन्यन्तभीतेन जीविताभिलाषिणा अगाधे वर्चःको नित्यान्धकारेऽत्यन्तदुरभिगन्धे निवासे कृमिकलानां प्रवाहित आत्मा । निपतितो व!गहात् कण्ठके, भृतोऽशुचिना, विद्धः कृमिभिः; निरुद्धो दृष्टिप्रसरः, संकोटितमङ्गम् , उदीर्णा वेदना, आकलीभूतो दृढम्, गृहीतः सम्मोहेन । इतश्च स राजा प्रत्युपेक्षितं (शोधित) अङ्गरक्षकैः प्रविष्टो व!गृहम् । यह भी उसके दृष्टिगोचर हुई । मोह के दोष से देखा, उसके प्रति आसक्त हो गया। 'ओह चित्त को जानने वाला है' - इस प्रकार रति सन्तुष्ट हुई। वह मोह के दोष से एक ओर खड़ा हो गया। काम का विस्तार कठिनाई से रोका जाने योग्य होता है । 'सखी! युवतियों के मन को सुख देनेवाले इस युवक को लाओ'-ऐसा कहकर रति ने रहस्य का भेदन न करनेवाली जालिनी नामक दासी को भेजा। इस अवसर पर कामियों के हृदय जागत हैं' अत: छलपूर्वक यह ले आयी, शयनगृह में भेज दिया, पलग पर बैठ गया। रति ने उसे पान दिया । इसने आधा (पान, लिया। इसी बीच बन्दियों का कोलाहल सुनाई दिया। 'राजा आ गये हैं' - इस प्रकार रति भयभीत हुई। यहाँ अन्य कोई उपाय नहीं है अतः शौचालय में भेज दिया। राजा प्रविष्ट हुआ, पलग पर बैठा, कुछ समय बैठा रहा। इसने कहा - 'अरे ! नाई को बुलाओ। शौचालय में प्रवेश करें।' नाई को बुलाया। यह शुभंकर ने सुना। 'निश्चित रूप से मारा जाऊँगा' - अत्यन्त भयभीत होकर जीने की अभिलाषा से अगाध वर्चकप (शौचालय का गड्ढा, मोरी) में जहाँ पर कि सदैव अन्धकार रहता था, कीडों के समह का निवास था अपने आपको डाल दिया। शौचालय से कण्ठक (मोरी) में गिर गया, अपवित्र पदार्थ से भर गया, कीड़ों से बिंध गया, नेत्रों का विस्तार रुक गया, देह सिकुड़ गयी, वेदना उत्पन्न हुई, अत्यधिक आकुल हो गया, मूच्छित हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy