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________________ ८६२ [ समराइच्चकहा दुस्समा दुस्समसुसमा दुस्समा दुस्समदुस्सम त्ति। एयाओ य एयपमाणाओ हवंति । सुसमसुसमा पवाहरूवेण चत्तारि सागरोवमकोडाकोडोओ, सुसमा तिण्णि, सुसमदुस्समा दोन्नि, दुस्समसुसमा एगा सागरोवमकोडाकोडी ऊणा बायालीसेहि वरिससहस्सेहिं । इगवीसवरिससहस्समाणा दुस्समा, इगवीसवरिससहस्माणा चेव दुस्समदुस्सम त्ति । तत्थ सुसमसुसमाए पारंभसमम्मि तिपलिओवमाउया लोया, पमाणेण तिण्णि गव्याणि। उवभोगपरीभोगा जम्मंतरसुकयबीयजायाओ। कप्पतरुसमूहाओ होंति किलेसं विणा तेसि ॥१०१७॥ ते पुण दसप्पगारा कप्पतरू समणसमयकेहिं । धीरेहि विणिट्टिा मणोरहापूरगा एए ॥१०१८॥ मत्तगया य भिगा तुडियंगा दीवजोइचित्तंगा। चित्तरसा मणियंगा गेहागारा अणियणा य ॥१०१६॥ प्ररूपणा । तद् यथा - सुषमसुषता, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा, दुःषमदुःष मेति । एताश्चंतत्प्रमाणा भवन्ति । सुषमसुषमा प्रवाहरूपेण चतस्रः सागरोपमकोटाकोटयः, सुषमा तिस्र., सुषमदुःषमा द्व, दुःषमसुषमा एका सागरोपमकोटाकोटी ऊना द्विचत्वारिंशद्भिर्वर्षसहस्रः। एकविंशतिवर्षसहस्रमाना दुःषमा, एकविंशतिवर्षसहस्रमानव दुःषमदुःषमेति। तत्र सुषमसुषमाया : प्रारम्भसमये त्रिपल्योपमायुष्का लोकाः, प्रमाणेन त्रीणि गव्यूतानि । उपभोगपरिभोगा जन्मान्तरसुकृतबीजजातात् । कल्पतरुसमूहाद् भवन्ति क्लशं विना तेषाम् ॥१०१७।। ते पुनर्दशप्रकाराः कल्पतरवः श्रमणसमकेतुभिः । धीरैर्विनिर्दिष्टा मनोरथापूरका एते ॥१०१८।। मत्तङ्गकाश्च भृङ्गाः तूर्याङ्गा दीपज्योतिश्चित्राङ्गाः । चित्ररसा मणिताङ्गा गेहाकारा अनग्नाश्च ॥१०१६॥ सुखमा, सुखमा, सुखम-दुःखमा, दुःखम-सुखमा, दु:खमा, दु:खम-दुःखमा। ये इस प्रमाणवाले होते हैं-सुखमसुखमा प्रवाहरूप से चार कोडाकोड़ी सागर का, सुखमा तीन कोडाकोड़ी सागर का, सुखम-दुःखमा दो कोडाकोड़ी सागर का, दुःखम-सुखमा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागर का, दुःखमा इक्कीस हजार वर्ष का और दुःखमा-दुःखमा भी इक्कीस हजार वर्ष का होता है। उनमें से सुखमा -सुखमा के प्रारम्भ समय में तीन पल्य की आयुवाले लोग होते हैं, उनका प्रमाण तीन गव्यूति (कोश) का होता है । उन लोगों के उपभोग परिभोग के लिए बिना क्लेश के दूसरे जन्मों के पुण्यरूपी बीज से उत्पन्न कल्पवृक्षों के समूह होते हैं । वे कल्पवृक्ष दश प्रकार के होते हैं । श्रमणों के सिद्धान्तों के लिए पताका के तुल्य धीरपुरुषों ने इन्हें मनोरथ को पूर्ण करने वाला बतलाया है। उनके नाम ये हैं-मतंगक, भूग, तूर्यांग, दीपशिखा, ज्योति, चित्रांग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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