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________________ नवमो भवो] ८६३ मत्तंगएसु मज्जं सुहपेज्जं भायणाणि भिगेसु । तुडियंगेसु य संगयतुडियाणि बहुप्पगाराणि ॥१०२०॥ दीवसिहा जोइसनामया य निच्चं करति उज्जोयं। चित्तंगेसु य मल्लं चित्तरसा भोयणट्टाए ॥१०२१॥ मणियंगेसु य भसणवराणि भवणाणि भवणरुक्खेसु। आइण्णेसु य पत्थिव वत्थाणि बहुप्पगाराणि ॥१०२२॥ एएसु य अन्नेसु य नरनारिगणाण ताणमुवभोगो। भविया पुणब्भवरहिया इय सव्वन्नू णिणा बेंति ॥१०२३॥ न खलु एयाण विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना। खीयमाणाणि य आउयपमाणाणि हवंति जाव सुसमारंभकालो। सुसमारंभकाले उण दुपलिओवमाउया, पमाणेण दोन्नि गाउयाणि । उवभोगपरिभोगा वि जणा(काला)णुहावेण ऊणाणुहावा । न खलु एयाण वि विसिट्ठा धम्माधम्मसन्ना । खीय मत्तङ्गकेष मद्यं सुखपेयं भाजनानि भङ्गेषु । तूर्याङ्गेषु च संगततूर्याणि बहुप्रकाराणि ॥१०२०।। दीपशिखा ज्योति म काश्च नित्यं कुर्वन्ति उद्योतम् । चित्राङ्गेषु च माल्यं चित्ररसा भोजनार्थम् ॥१०२१।। मणिताङ्गेषु च भूषणवराणि भवनानि भवन वृक्षेषु । आकोर्णेषु च पार्थिव ! वस्त्राणि बहुप्रकाराणि ॥१०२२॥ एतेषु चान्येषु च नरनारीगणानां तेषामुपभोगः । भविका: ! पुनर्भवरहिता इति सर्वज्ञा जिना ब्रुवन्ति ॥१०२३॥ न खल्वेतेषां विशिष्टा धर्माधर्मसंज्ञा । क्षीयमाणानि चायःप्रमाणानि भवन्ति यावत सुषमारम्भकाल: । सुषमारम्भकाले पुनद्विपल्योपमायुष्का:, प्रमाणेण द्वे गव्यते। उपभोगपरिभोगा अपि जना(काला)नुभावेन ऊनानुभावाः। न खल्वेतेषामपि विशिष्टा धमधिर्मसंज्ञा। क्षीयमाणानि चित्ररस, मणितांग, गेहाकार और अनग्न। मतंगकों में सुख से पीने योग्य मद्य होता है, भृगों में पात्र होते हैं, तयांग अनेक प्रकार के वाद्यों से युक्त होते हैं, दीपशिखा और ज्योति नाम के कल्पवृक्ष नित्य उद्योत (प्रकाश) करते हैं, चित्रांगों में मालाएं होती हैं, चित्ररस भोजन के लिए होते हैं, मणितांगों में श्रेष्ठ आभूषण होते हैं, भवनवृक्षों (गेहाकारों) में भवन और आकी) (अनग्नों) में अनेक प्रकार के वस्त्र होते हैं। उस समय के नरनारी इनका और अन्य कल्पवृक्षों का उपभोग करते हैं, भव्य होते हैं, पुनर्भव से रहित होते हैं, ऐसा सर्वज्ञ जिन कहते हैं ॥१०१७-१०२३॥ ये धर्म और अधर्म की संज्ञा से विशिष्ट नहीं होते हैं। सुखमा के आरम्भ समय के ये क्षीयमाण (निरन्तर कम होते गये) आयुप्रमाण वाले होते हैं । सुषमा के आरम्भ काल में लोग दो पल्य की आयुवाले होते हैं और इनकी लम्बाई दो गव्यूति (कोश) की होती है । लोगों के उपभोग-परिभोग भी काल के प्रभाव से कम-कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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