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________________ छट्ठो भवो ] ४६१ नयरिमहंत एहि । आलोचियं च णेंहि । दुवे वि खु महापुरिसपुत्ता, न खलु एत्थ एगस्स वि निरागरणं जुज्जइति । ता इमं एत्थ पत्तयालं; निब्भच्छिज्जंति एए। जहा 'कीस तुब्भे पुव्वपुरिसज्जिएणं विहवेणं गव्वमुव्वहह । केण तुम्हाण नियभूओवज्जिएणं दविणजाएणं दिन्नं महादाणं । केण वा काराविओ धम्माहिगारो । केण वा अब्भुद्धरिओ विहलवग्गो । केण वा परिओसिया जणणिया । ता किमेइणा निरत्थएण बुहजणोवहसणिज्जेण अहोपुरिसियापाएण चेट्टिएणं । अओ उपसंहरह एवं ओसारेह नियनियथामाओ चेव पिट्ठओ रहवरे' किमन्नेणं ति । एवमालोचिऊण 'इमेव तुम्भेहि ते वत्तव्व' त्ति भणिऊण विसज्जिया व रणविन्नासकुसला धम्मत्थविसारया परिणया ओत्थाएं निवासो उबसमस्स' इहपरलोयावायदंसगा सुट्टिया धम्मपक्खे सयलनपरिजगबहुमया चत्तारि चारिया | गया ते तेसि समीवं । अब्भुट्टिया य णेहिं ; अणुस। सिया चारिएहि । साहिओ पराहिपाओ । 'अहो सोहणं ति' परितुट्टो देवनंदी । असोहणं ति लज्जिओ धरणो । भणियं च नगरीमहद्भिः । आलोचितं च तैः । द्वावपि खलु महापुरुषपुत्रौ न खल्वत्र एकस्यापि निराकरणं युज्यते इति । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, निर्भत्स्येते एतौ यथा कस्माद् युवां पूर्वपुरुषार्जितेन विभवेन गर्वमुद्वहथः । केन युवयोनिजभुजोपार्जितेन द्रविणजातेन दत्त महादानम्, केन वा कारितो धर्माधिकारः, केन वाऽभ्युद्घृतो विह्वलवर्ग:, केन वा परितोषितौ जननीजनकौ । ततः किमेतेन निरर्थकेन बुधजनोपसनीयेनाहोपुरुषिकाप्रायेण चेष्टितेन । अत उपसंहरतैतद्, अपसारयतं निजनिजस्थानादेव पृष्ठतो रथवरौ, किमन्येनेति । एवमालोच्य 'इदमेव युष्माभिस्तौ वक्तव्यौ' इति भणित्वा विसर्जिता वचनविन्यासकुशला धर्मार्थविशारदाः परिणता वयोऽवस्थया निवास उपशमस्य इहपरलोकापायदर्शकाः सुस्थिताः धर्मपक्षे सकलनगरीजनबहुमताश्चत्वारश्चारिकाः ( प्रधानपुरुषाः ) गतास्ते तयो समीपम् | अभ्युत्थिताश्च ताभ्याम् । अनुशासितौ च चारिकैः । कथितः पौराभिप्रायः । अहो शोभनमिति परितुष्टो देवनन्दी | अशोभनमिति लज्जितो धरणः । भणितं च तेन - भो भो नगर के बड़े लोगों ने जाना । उन्होंने ( इसकी ) आलोचना की । दोनों ही महापुरुष के पुत्र थे, अतः किसी एक का निराकरण भी युक्त नहीं है। समय आया, इन दोनों की निन्दा हुई - किस कारण आप दोनों पूर्वजों द्वारा अर्जित किये हुए धन पर गर्व धारण करते हो ? आप दोनों में से किसने अपने आप अर्जित किये हुए धन का महादान दिया है ? धार्मिक कार्यों की व्यवस्था किसने करायी है ? किसने व्याकुल वर्ग का उद्धार किया है ? किसने मातापिता को सन्तुष्ट किया है ? अत: विद्वानों द्वारा उपहास के योग्य इस निरर्थक अहंकार चेष्टा से क्या ? अतः इसकी समाप्ति कीजिए । अपने-अपने स्थान से रथ को पीछे हटाइए, और अधिक क्या ?' इस प्रकार आलोचना कर 'यही आप लोग उनसे कहना' - ऐसा कहकर वचन के प्रयोग में कुशल, धर्म और अर्थ के ज्ञाता, उम्र में बड़े, शान्ति के निवासस्थान, इस लोक और परलोक की हानि को देखकर धर्मपक्ष में भलीभांति स्थिर, नगर के समस्त लोगों द्वारा बहुत माने हुए प्रधानपुरुषों ने ऐसा कहकर उनको ( नागरिकों को ) भेजा । वे उन दोनों के समीप गये। वे दोनों के सामने खड़े हुए। प्रमुख लोगों ने उन दोनों को उपदेश दिया । नगर-निवासियों का अभिप्राय कहा । 'अरे यह ठीक है' - इस प्रकार देवनन्दी सन्तुष्ट हुआ । 'अरे यह ( हमने ) ठीक नहीं किया इस प्रकार धरण लज्जित हुआ। उसने कहा- "हे हे महानुभावो ! जो आप लोगों ने आज्ञा दी, वह मुझे - १. धम्मस्स क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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