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समराइच्चकहा
arasो । तओ अट्टज्भाणदोसेण मरिऊण समुप्पन्नो निययगेहम्मि चेव सूयरो । जायं से पुव्वोवभुतपरसावलोयणेणं जाईसरणं । अन्नया य उर्वाट्ठिए पिइदिवसए सिद्धपाए भोयणे समासन्नाए परिवेसणवेलाए अवहरियमज्जारमंसाए सुवयारीए वेलाइक्कमगिहवइ भएणं मंसनिमित्तं पच्छन्नगेव वावाइऊण विसिओ कोलो । तहा कोहाभिभूओ य मरिऊण समुप्पन्नो तम्मि चेव हे भुयंगमत्ताए ति । तत्थ वितं चैव दट्ठूण हम्मियं तं च सूवयारि भयसंभमाभिभूयस्त परिणामविसेसओ समुत्पन्नं से जाइसरणं । विचित्तयाए कंपरिणामस्स न गहिओ कसाएहिं, अणुगंपियं च णेणं । एत्थंतरम्मि उवलद्धो सुवयारीए' । तओणाए कओ कोलाहलो 'सप्पो सप्पो' ति । तं च सोऊण समागया मोग्गरवावडगहत्था कम्मरा । वावाइओ हि । समुत्पन्नो य तहा अकामनिज्जराए मरिऊण निय्यपुत्तस्स चेव नागदत्ताभिहाणस्स बंधुमईए भारियाए कुच्छसि पुत्तत्ताए ति । जाओ उचियसमएणं । कयं च से नामं असोदति । अइक्कंत संवच्छरस्स तं चैव सूवयारि पेच्छिय जणणिजणए य अचितयाए कम्मसामत्थस्स समप्पन्नं से जाईसरणं । चितियं च णेणं- वहुया जणणी सुओ चेव य पिया । अओ
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आर्तध्यानदोषेण मृत्वा समुत्पन्नो निजगेहे एव शूकरः । जातं तस्य पूर्वोपभुक्त प्रदेशावलोकनेन जातिस्मरणम् । अन्यदा चोपस्थिते पितृदिवसे सिद्धप्राये भोजने समासानायां परिवेषणवेलायां अपहृतमार्जार मांसया (मार्जारापहृतमांसया) सूपकार्या वेलातिक्रमगृहपतिभयेन मांसनिमित्तं प्रछन्नमेव व्यापाद्य विशस्तः (पाचितः) कोलः । तथा क्रोधाभिभूतश्च मृत्वा समुत्पन्नस्तस्मिन्नेव गेहे भुजङ्गमतयेति । तत्रापि च तमेव दृष्ट्वा हर्म्ये तां च सूपकारी भयसम्भ्रमाभिभूतस्य परिणामविशेषतः समुत्पन्नं तस्य जातिस्मरणम् । विचित्रतया कर्मपरिणामस्य न गृहीतः कषायैः । अनुकम्पितं च तेन । अत्रान्तरे उपलब्धः सूपकार्या । ततोऽनया कृतः कोलाहलः 'सर्पः सर्पः' इति । तं च श्रुत्वा समागता मुद्गरव्यापृताग्र हस्ताः कर्मकराः । व्यापादितस्तैः । समुत्पन्नश्च तथाऽकामनिर्जरया मृत्वा निजपुत्रस्यैव नागदत्ताभिधानस्य बन्धुमत्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयेति । जात उचितसमयेन । कृतं च तस्य नाम अशोकदत्त इति । ततोऽतिक्रान्त संवत्सरस्य तामेव सूपकारी प्रेक्ष्य जननीजनको चाचिन्त्यतया कर्मसामर्थ्यस्य समुत्पन्नं तस्य जातिस्मरणम् । चिन्तितं च तेन - वधूर्जननी, सुत एव च पिता । अत:
न किसी कार्य में लगा रहता था । तब आर्तध्यान के दोष से मरकर अपने ही घर सुअर हुआ। पहले भोगे हुए स्थानों के देखने से उसे जातिस्मरण हो गया। एक बार पितृदिवस उपस्थित होने पर भोजन करते समय बिल्ली द्वारा मांस ले जाने के कारण, रसोइया ने देर हो जाने के कारण गृहस्वामी के भय से मांस के निमित्त छिपाकर मार दिया और पका दिया। सुअर क्रोधित होकर मरा और अपने ही घर में काला साँप हुआ । पुनः उसी भवन और उसी रसोइन को देखकर भय और घबराहट से अभिभूत होकर उसे जातिस्मरण हो गया । कर्म के परिणामों की विचित्रता से उसने कषाय नहीं की। उसने दया की। इसी बीच रसोइन आयो । तब इसने (रसोइन ने ) कोलाहल किया । 'साँप, साँप।' उसे सुनकर, जिनके हाथ में मुद्गर थे, ऐसे नौकर आये । उन लोगों ने उसे मार दिया । अकामनिर्जरा से मरकर अपने ही पुत्र नागदत्त के यहाँ उसकी बन्धुमती नामक भार्या की कोख में के रूप में आया । उचित समय पर उत्पन्न हुआ। उसका नाम अशोकदत्त रखा गया। एक वर्ष बीत जाने पर उसी रसोइन और माता-पिता को देखकर कर्म की सामर्थ्य की अचिन्त्यता से उसे जातिस्मरण हो गया । उसने सोचा- बहू माता है, पुत्र ही पिता है, अतः खिलौने के समान संसार-निवास को धिक्कार है । अब मैं कैसे
पुत्र
१. ओमवावग्गत्या आगया कम्म - का
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