Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला :१५: उत्तराध्ययन-सत्र : एक परिशीलन डा० सुदर्शनलाल जैन सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्तियां १. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान २. शतावधानी रत्नचन्द्र पुस्तकालय ३. श्रमण (मासिक) ४. साहित्य - निर्माण ५. शोधवृत्तियां ६. छात्रावास एवं छात्रवृत्तियां ७. व्याख्यानमाला ८. प्रकाशन २५) रु० Personal & Private Use Only . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला : १५ : उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन लेखक डा० सुदर्शनलाल जैन एम० ए०, पी-एच० डी०, श्राचार्य ( जैनदर्शन, साहित्य व प्राकृत ) ॐ ESIGE 1515 क सम्पादक Astro मोहनलाल मेहता DEFECRECER पदम ताण तथा दया प्रकाशक सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति अमृतसर प्राप्ति-स्थान पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी - ५ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी द्वारा पी-एच० डी० की उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध प्रकाशक : सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति गुरु बाजार प्रमृतसर प्राप्ति-स्थान : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान जैनाश्रम हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी-५ मुद्रक : अरुण प्रेस बी० १७ /२, तिलभाण्डेश्वर वाराणसी - १ प्रकाशन - वर्ष : सन् १९७० मूल्य : प चालीस 40/= For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धेय गुरुवर्य डा० सिद्धेश्वर भट्टाचार्य को सादर समर्पित For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय ला० लद्दा मल जी जैन (लाहौर वाले) Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय सेठ नाथालाल एम० पारख (बम्बई ) For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय जैन आगम - साहित्य में उत्तराध्ययन का विशेष स्थान है । दिगम्बर- साहित्य में भी इसका सादर उल्लेख है । इस सूत्र का परिशीलन डा० सुदर्शनलाल जैन ने लिखा है । डा० जैन को सेठ नाथालाल एम० पारख के नाम पर उनके परिवार द्वारा प्रदत्त रिसर्च स्कोलरशिप प्रदान की गई थी । ग्रन्थ के प्रास्ताविक में उत्तराध्ययन के कालादि का विचार किया गया है । अंत में उपसंहार भी लिखा है। हर एक प्रकरण के अन्त में सुगम सरल अनुशीलन भी है । विश्व अनादि है । उसी प्रकार अनन्त भी है । वह सदैव से है और रहेगा । किसी ईश्वर या कर्ता ने उसे बनाया नहीं है । वह स्वयंभू है । उसमें ऐसे तत्त्व मौजूद हैं जिनके कारण वह स्वचालित यन्त्र की तरह निरन्तर चलता रहता है । जितना हमें प्रतीत होता है विश्व उतना ही सच्चा और ठोस है । निःसन्देह उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है परन्तु उसका सर्वथा नाश नहीं होता है । सूत्र में संसार की असारता, नश्वरता, भ्रम-रूपता आदि सब आध्यात्मिक दृष्टि से कहे गये हैं । 1 सोना, तांबा, लोहा, गन्धक आदि धातुएं विश्व में दूसरे पदार्थों से मिश्रित रूप में मिलती हैं, उसी प्रकार प्राणी भी दो पदार्थों-जीव ( चेतन) और अजीव ( अचेतन ) के मिश्रित रूप में उपलब्ध होते हैं । सबसे अधिक विकसित प्राणी मनुष्य ने यही पाया कि एक अदृष्ट तत्त्व जब शरीर से निकल जाता है तो शेष शरीर निरर्थक और व्यर्थ हो जाता है । वह फेंक देने के सिवाय और किसी काम का नहीं रहता । उसी अदृष्ट द्रव्य की विद्यमानता में शरीर मनुष्य या प्राणी था । उस चेतन तत्त्व के निकल जाने से उसने For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) मरण का भी अनुभव किया । फलतः उस प्राणदाता तत्त्व को ढूंढ निकालने का विचार मनुष्य के मन में उत्पन्न हुआ । जैन तत्त्ववेत्ताओं ने आत्मा ( जीव ) को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्थिर किया । यह तत्त्व हर प्राणी में मूलतः एक ही प्रकार का - समान गुणों वाला प्रतीत हुआ। हर प्राणी के जीव के साथ दूसरे द्रव्य का जो सम्बन्ध रहा हुआ था उसके कारण बाहरी फर्क सामने आता रहा । वह दूसरा द्रव्य रूपी अचेतन पुद्गल है । उसके लक्षण हैं शब्द, अन्धकार, प्रकाश, कान्ति, छाया, आतप, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और आकार । वायु, जल, आग और पृथ्वी भी पुद्गल हैं । वर्तमान विज्ञान के Matter और Energy भी पुद्गल हैं । रागद्वेष के कारण मनुष्य और अन्य प्राणियों द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्म भी पुद्गल हैं । मिश्रित धातुओं को असल या शुद्ध रूप में लाने के लिए अनेक विधियों और साधनों से विशुद्ध करते हैं । उसी प्रकार मनुष्य के जीव तत्त्व को मिश्रित अजीव तत्त्व से अलग या स्वतन्त्र रूप में लाने के लिए अर्थात् मुक्त करने के लिए विधिपूर्वक प्रयत्न जरूरी है । उत्तराध्ययन सूत्र का यह विषय है । इस ग्रन्थ के निर्माता ने उस विषय का सरल, स्वाभाविक भाषा में सुन्दर वर्णन किया है। डा० रघुवीर के शब्दों में जैन तत्त्ववेत्ताओं ने Godless Spiritua lity (निरीश्वर अध्यात्मवाद) का विकास किया है । प्राणी मात्र से मैत्री का व्यवहार करना उसका निश्चित मत है । परस्पर मैत्री कर सकने का आधार उन्होंने स्वयं पर संयम रखना बताया है । उसी आचार के विकास का सर्वप्रथम नियम अहिंसा से आरम्भ किया गया है । जीव किस प्रकार अजीव से पृथक् किया जा सकता है, उन साधारण और विशेष उपायों का साध्वाचार के दो प्रकरणों और रत्नत्रय में विस्तृत निर्देश है । इनके अलावा मुक्ति और उसकी अलौकिकता की चर्चा भी ग्रन्थ में है । इस प्रकाशन का खर्च श्री मुनिलाल और भाई लोकनाथ ने अपने पिता श्री लाला लद्दामल की पुण्यस्मृति में किया है । For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) लालाजी लाहौर के प्रतिष्ठित नौलखा ओसवाल वंश के थे । उनका जन्म वि० सं० १९३४ में हुआ था । पिता का नाम लाला धर्मचन्द और माता का नाम भगवान देवी था। पांच वर्ष की आयु में मां का और चौदह वर्ष में पहुँचते-पहुँचते पिता का साया सिर से सदा के लिए उठ गया । परिवार का भार नन्हीं उमर में सिर आ पड़ा। आपने साबुन देशी के बनाने का धन्धा शुरू किया। इस व्यापार में बड़ी सफलता प्राप्त हुई । धर्माचरण में आप दृढ़ निष्ठावान रहे । आपके विशाल दिल ने किसी प्रार्थी को निराश नहीं लौटाया । ज्ञान, ध्यान, सेवा और पर सहायता के कामों में आप अपने धन का सदुपयोग करते रहे । जीवन नित्य-नियम से व्यतीत होता रहा । जब देश का विभाजन हुआ तो अन्य हिन्दू-सिक्खों की भांति लालाजी ने विस्तृत विशाल कारोबार को छोड़ पंजाब को जो पाकिस्तान के हिस्से आया था त्याग कर शेष बचे भारत में शरण ली। दिल्ली में आकर उन्होंने पहले का व्यवसाय ही आरम्भ किया । उनके परिवार ने उस व्यवसाय को खूब उन्नत किया है। नये कारखाने भी लगाये हैं । उनके डिपो पर साबुन खरीदने वालों की भीड़ लगी रहती है । वि० सं० २०१२ में आपका देहावसान हो गया था। उसके २१ दिन पूर्व ही उन्होंने सांसारिक मोह त्यागने का यत्न आरम्भ किया था और स्वात्म शुद्धि के लिए ध्यान में लग गये थे । I सेठ नाथालाल एम० पारख का, जिनकी पुण्यस्मृति में डा० जैन को रिसर्च स्कोलरशिप प्रदान की गई थी, संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : सौराष्ट्र राज्यान्तर्गत जेतपुर नामक स्थान में सन् १९०९ में श्री नाथालाल पारख का जन्म हुआ था। पांच वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का देहान्त हो गया । फलतः उनके लालनपालन का भार उनकी माता पर आ पड़ा तथा उन्हें १२ वर्ष की अवस्था में ही चावल की मिल में काम करने के लिए रंगून जाना पड़ा। वहां से लौटने पर वे बम्बई में एक बोतल व्यापारी की For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) दुकान में लिपिक के रूप में नियुक्त हुए । इसके बाद उन्होंने स्वयं अपना व्यापार करने का निश्चय किया और घर-घर से खाली बोतलों का संग्रह करने का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया। बाद में उनका एक प्रमुख जर्मन- कम्पनी से सम्पर्क हुआ और उन्होंने जर्मनलेबल भारत में बेचना प्रारम्भ किया। अपने अनुकूल अनुभव से प्रोत्साहित होकर उन्होंने छोटे लेबल उत्पादन करने का अपना एक छोटा-सा प्रेस शुरू किया जो अन्त में देश के एक बृहत्तम लेबल - उद्योग के रूप में परिणत हुआ । तब श्री पारखी सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने लगे और अपनी योग्यता के अनुसार उन्होंने दो दर्जन से अधिक सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक संस्थाओं के ट्रस्टी, अध्यक्ष अथवा मंत्री पद को सुशोभित किया। वे जन्मभूमि- समूह के समाचार पत्रों के स्वामी सौराष्ट्र- ट्रस्ट के ट्रस्टी भी रहे । कांग्रेस से विशेष सम्बन्ध होने के कारण श्री पारखजी बम्बई प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी की स्मारिका समिति तथा वित्त समिति के अध्यक्ष बने । वे विधान परिषद् के सदस्य थे और पुन: १९६४ में निर्विरोध चुने गए। उनकी प्रशंसनीय सेवा से प्रभावित होकर सरकार ने उन्हें 'जस्टिस ऑफ पीस' की उपाधि प्रदान की, जिसके गौरव की रक्षा श्री पारखजी ने अन्त समय तक की । For Personal & Private Use Only प्रकाशक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीम पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के नाथालाल पारख शोध-छात्र डा० सुदर्शनलाल जैन का उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नामक प्रस्तुत प्रबन्ध सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति द्वारा प्रकाशित पांचवां शोध-ग्रन्थ है। डा० सुदर्शनलाल जैन समिति के छठे सफल शोध छात्र हैं। इनके बाद समिति के पांच अन्य शोध-छात्रों ने अब तक सफलता प्राप्त की है। वर्तमान में सात शोध छात्र विभिन्न जैन विषयों पर पी-एच० डी० की उपाधि के लिए प्रबन्ध लिखने में संलग्न हैं। - प्रकृत प्रबन्ध में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन आगम-ग्रन्थ उत्तराध्ययन-सूत्र का सर्वाङ्गीण समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। उत्तराध्ययन प्राकृत वाङ्मय का एक उत्कृष्ट धार्मिक काव्य-ग्रन्थ है। इसमें प्रधानतया मुनियों के आचार-विचार के साथ जैनदर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों की चर्चा की गई है। उत्तराध्ययन-सूत्र का अनेक आचार्यों एवं विद्वानों ने अनेक रूपों में अध्ययन एवं विवेचन किया है। प्रस्तुत प्रबन्ध इस शृंखला में विशिष्ट स्थान प्राप्त करेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। इस ग्रन्थ के अध्ययन से उत्तराध्ययन का हार्द सरलता से समझ में आ सकेगा। समिति पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के अध्यक्ष डा. मोहनलाल मेहता के प्रति कृतज्ञ है जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ का पर्याप्त परिश्रमपूर्वक सम्पादन किया है। यह ग्रन्थ स्वर्गीय लाला लद्दामलजी जैन की पुण्यस्मृति में प्रकाशित किया जा रहा है । समिति इस प्रकाशन से सम्बन्धित सब महानुभावों का आभार मानती है। हरजसराय जैन - मन्त्री For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन एम० ए० परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मेरी उत्कट अभिलाषा शोधकार्य की ओर देखकर परम पूज्य डा. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य, अध्यक्ष, संस्कृत-पालि विभाग ( काशी विश्वविद्यालय ), ने मुझे जैन आगम-साहित्य के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ उत्तराध्ययन-सूत्र पर शोध.. कार्य करने का सुझाव दिया तथा अपने निर्देशन में अनुमति भी दी। ग्रन्थ का अध्ययन करने के बाद मैंने अनुभव किया कि इस ग्रन्थ पर अन्य जैन आगम-ग्रन्थों की अपेक्षा विपुल व्याख्यात्मक साहित्य मौजूद होने पर भी इसका वैज्ञानिक एवं समालोचनात्मक अध्ययन बहुत ही आवश्यक और समयोपयोगी है। यद्यपि शान्टियर, याकोबी, विन्टरनित्स आदि पाश्चात्य विद्वानों ने इसके साहित्यिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि पहलुओं के महत्त्व की ओर संकेत किया परन्तु ग्रन्थ के अन्तरङ्ग विषय का सर्वाङ्गीण समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया। मेरे शोधकार्य के पूर्ण हो जाने के एक वर्ष बाद आचार्य तुलसीकृत 'उत्तराध्ययन-सूत्र: एक समीक्षात्मक अध्ययन' प्रकाशित हुआ। देखने पर ज्ञात हुआ कि तुलसीकृत प्रबन्ध से प्रस्तुत प्रबन्ध सर्वथा भिन्न प्रकार का है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मूल ग्रन्थ के विषय को सरल व सुबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है जबकि आचार्य तुलसीकृत प्रबन्ध में मूल व टीका-ग्रन्थों आदि का मिश्रण हो जाने से उत्तराध्ययन का मूल विषय गौण हो गया है। इस कारण प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रकाशन की आवश्यकता पूर्ववत् ही बनी रही। प्रस्तुत प्रबन्ध में प्रास्ताविक और आठ प्रकरणों के अतिरिक्त चार परिशिष्ट हैं। प्रबन्ध के अन्त में सहायक ग्रन्थ-सूची, अनुक्रमणिका, तालिकाएँ एवं वृत्तचित्र दिए गए हैं। प्रत्येक प्रकरण के अन्त में समालोचनात्मक अनुशीलन दिया गया है। अन्तिम प्रकरण में समस्त प्रबन्ध का परिशीलनात्मक उपसंहार प्रस्तुत किया गया For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७ ) है। इसीलिए प्रस्तुत प्रबन्ध का नाम ‘उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन' रखा गया है। आचार्य तुलसीकृत प्रबन्ध से इस प्रबन्ध का पार्थक्य बतलाने के लिए भी यह नाम रखना उचित समझा गया। ' प्रस्तुत प्रबन्ध के प्रास्ताविक में जैन आगम-साहित्य में उतराध्ययन का स्थान, विषय-परिचय, रचनाकाल, नामकरण का कारण, भाषा-शैली, महत्त्व तथा टीका-साहित्य के साथ विविध संस्करणों की सूची दी गई है। इसके बाद प्रथम प्रकरण में विश्व की भौगोलिक रचना, सृष्टि तत्त्व और द्रव्य के स्वरूप का निरूपण किया गया है। द्वितीय प्रकरण में संसार की दुःखरूपता और उसके कारणों का विचार करते हुए कर्म-सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। तृतीय प्रकरण में मुक्ति-मार्ग का वर्णन करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय का विचार किया गया है। चौथे प्रकरण में ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य विषय साधुओं के सामान्य सदाचार का और पांचवें प्रकरण में साधुओं के विशेष सदाचार ( तप.) का वर्णन किया गया है। छठे प्रकरण में सम्पूर्ण साधना की प्रतिफलरूप 'मुक्ति' का तथा सातवें प्रकरण में समाज और संस्कृति का विवेचन किया गया है। आठवें प्रकरण में ग्रन्थ की उपयोगिता का वर्णन करते हए सम्पूर्ण प्रबन्ध का परिशीलनात्मक सिंहावलोकन किया गया है। चार परिशिष्टों में से प्रथम परिशिष्ट में कथा-संवाद दिए गए हैं। द्वितीय परिशिष्ट में ग्रन्थोल्लिखित राजा आदि महापुरुषों .. का परिचय दिया गया है। तृतीय परिशिष्ट में साध्वाचार सम्बन्धी कुछ अवशिष्ट तथ्यों को दर्शाया गया है। चतुर्थ परिशिष्ट में ग्रन्थोल्लिखित देशों व नगरों का परिचय दिया गया है। इस तरह सम्पूर्ण प्रबन्ध को मूलग्रन्थ का अनुसरण करते हुए सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। प्रस्तुत प्रबन्ध यद्यपि २० मार्च, १९६७ को पूर्ण हो चुका था परन्तु पीएच० डी० की उपाधि मिलने तथा प्रकाशन-कार्य में तीन वर्ष का For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलम्ब हआ। इस बीच मैंने अपने प्रबन्ध को यथासंभव पुनः परिमार्जित व परिवधित किया। आज इसे छपे रूप में विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । इस तरह यद्यपि इस प्रबन्ध को सर्वाङ्गीण सुन्दर बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है फिर भी मानव की शक्तियां सीमित होने के कारण वह पूर्णता का दावा नहीं कर सकता। यदि इससे पाठकों का थोड़ा-सा भी लाभ हो सका तो मैं अपना परिश्रम सफल समझूगा। ___ अन्त में उन सभी सज्जनों के प्रति आभार प्रकट करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मुझे प्रोत्साहित किया। इसके साथ ही साथ मैं उन सभी ग्रन्थों, ग्रन्थकारों व ग्रन्थसम्पादकों आदि का भी आभारी हूँ जिनसे प्रस्तुत प्रबन्ध में सहायता मिली है। सर्वप्रथम में श्रद्धेय पूज्य गुरुवर्य डा० सिद्धेश्वर भट्टाचार्य का आभारी हूँ जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय व निर्देशन आदि देकर इस प्रबन्ध को इस रूप में प्रस्तुत करने के योग्य बनाया। इसके बाद पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के अध्यक्ष डा. मोहनलाल मेहता का आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत प्रबन्ध के संपादन में बहुमूल्य योगदान दिया। इसके बाद में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान तथा स्याद्वाद महाविद्यालय व वहां के सभी पदाधिकारियों का आभारी हूँ जहाँ से मुझे प्रबन्ध-लेखन के काल में हर प्रकार की ( आर्थिक, पुस्तकीय व आवासीय ) सुविधाएँ प्राप्त हुई। पं० दलसुख मालवणिया तथा डा० नथमल टाटिया का भी आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत प्रबन्ध का परीक्षण करके अपने बहुमूल्य सुझाव दिए। वाराणसी १-८-७० सुदर्शनलाल जैन प्राध्यापक-संस्कृत-पालि विभाग काशी विश्वविद्यालय For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ० = उत्तराध्ययन उ० आ० टी० = उत्तराध्ययन- आत्माराम टीका उ० घा० टी० = • उत्तराध्ययन-घासीलाल- टीका उ० तु० = उत्तराध्ययन- आचार्य तुलसी उ० नि० = उत्तराध्ययन-निर्युक्ति संकेत-सूची उ० ने० टी० = उत्तराध्ययन-नेमिचन्द्र- टीका उ० शा ० = उत्तराध्ययन- शार्पेन्टियर उ० समी० ० - उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन के० लिं० जे० = हिस्ट्री आफ दी के नौनिकल लिटरेचर ऑफ दी जैन्स कैं ० जै० = जैनधर्म - कैलाशचन्द्र गो० जी० = गोम्मटसार- जीवकाण्ड जै० ध० = देखिए - कै ० जै० जै ० ० भा० स० = जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज जै० सा० इ० पू० = जैन साहित्य का इतिहास : पूर्वपीठिका to ० सा० बृ० इ० = जैन साहित्य का बृहद् इतिहास डा० जे० = डॉक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स तर्क सं० तर्कसंग्रह त० सू० = तत्वार्थ सूत्र द० उ० = दशवैकालिक तथा उत्तराध्ययन ( आचार्य तुलसी ) पृ० - पृष्ठ परि० = परिशिष्ट For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) पा० टि०=पाद-टिप्पण पा० यो० =पातञ्जल-योगदर्शन प्रा० सा० इ० = प्राकृत साहित्य का इतिहास बौ० द० =बौद्ध-दर्शन भा० द० ब० =भारतीय-दर्शन-बलदेव भा० द० रा० = भारतीय-दर्शन-राधाकृष्णन् ... भा० सं० ० भा० सं यो भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान महा० ना० = महाभारत की नामानुक्रमणिका समवा० = समवायाङ्गसूत्र सां० का० = सांख्यकारिका से० बु० ई०=सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट-भाग ४५ स्था० सू० स्थानाङ्गसूत्र हि० इ० लि. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर-भाग २ हि० के० लि० ज० देखिए-के० लि. जै. For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र मूलसूत्र उत्तराध्ययन सूत्र का परिचय रचयिता एवं रचनाकाल उत्तराध्ययन सूत्र : यह नाम क्यों ? भाषा-शैली और महत्त्व टीका- साहित्य द्रव्य- विचार लोक-रचना ऊर्ध्व लोक मध्यलोक अधोलोक षट - द्रव्य अचेतन द्रव्य गुण - पर्याय प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रास्ताविक चेतन द्रव्य संसारी जीवों के विभाजन के स्रोत स्थावर जीव त्रस जीव द्रव्य - लक्षण अनुशीलन प्रकरण १ प्रकरण २ संसार संसार की दुःखरूपता तिर्यंच और नरकगति के कष्ट For Personal & Private Use Only १-५१ ६ १४ २६ ३७ ४० ४७ ५३-१२८ ५४ ५५ ५७ ६० ६१ ६३ ८१ ६० ६३ १०१ ११८ १२० १२१ १२३ १२-१७८ १२६ १३१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ १३४ १४१ १४७ १४७ १५० १५३ १५३ १६२ १७३ १७६-२४६ ( १२ ) मनुष्य व देवगति के सुखों में दुःखरूपता विषयभोग-जन्य सुखों में सुखाभासता दुःखरूप संसार की कारण-कार्य-परंपरा कर्म-बन्ध कर्मबन्ध शब्द का अर्थ विषमता का कारण-कर्मबंध कर्म-सिद्धान्त भाग्यवाद नहीं कर्मों के प्रमुख भेद-प्रभेद कर्मों की संख्या, क्षेत्र, स्थिति-काल आदि कर्मबन्ध में सहायक लेश्याएँ अनुशीलन प्रकरण ३ रत्नत्रय नव तथ्य मुक्ति का साधन-रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन के आठ अंग सम्यग्दर्शन के भेद सम्यग्ज्ञान ज्ञान के प्रमुख पाँच प्रकार गुरु-शिष्यसम्बन्ध गुरु के कर्त्तव्य सम्यक्चारित्र सम्यक्चारित्र के प्रमुख पाँच प्रकार चारित्र के विभाजन का दूसरा प्रकार अनुशीलन प्रकरण ४ सामान्य साध्वाचार सामान्य साध्वाचार विशेष साध्वाचार दीक्षा की उत्थानिका दीक्षा लेने का अधिकारी EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE १७६ १८६ १६७ १६६ २०१ . २३६ २४७-३२८ २४७ २४८ २४८ २४८ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SKAR . २५४ २५८ 1 २६० २६० २६१ दीक्षार्थ माता-पिता की अनुमति परिवार एवं सांसारिक विषय-भोगों का त्याग दीक्षा पलायनवाद नहीं दीक्षागुरु वस्त्राभूषण का त्याग एवं केशलौंच बाह्य उपकरण या उपधि सामान्य उपकरण विशेष उपकरण पाँच महाव्रत अहिंसा-महाव्रत सत्य-महाव्रत अचौर्य-महाव्रत ब्रह्मचर्य-महाव्रत अपरिग्रह-महाव्रत महाव्रतों के मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना प्रवचनमाताएँ-गुप्ति और समिति गुप्तियाँ-प्रवृत्ति-निरोध समितियाँ-प्रवृत्ति में सावधानी षट-आवश्यक सामाचारी सामाचारी के दस अंग दिनचर्या एवं रात्रिचर्या बसति या उपाश्रय निवासयोग्य भूमि कैसी हो ? आहार किन परिस्थितियों में आहार ग्रहण करे किन परिस्थितियों में आहार ग्रहण न करे किस प्रकार का आहार ग्रहण करे आहार के विषय में कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें अनुशीलन प्रकरण ५ विशेष साध्वाचार - तपश्चर्या-तप तप के भेद २६४ २६६ २६७ २७८ २८१ २८४ २८६ rrrr mr m mrar mr mr mr mmr ० ० ० ० ० wwwwww ao wg is om ms won २५८ ३२६-३७४ .३२६ ३३० For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) m mr mr m mmmmm mmmmmmmmr" CO ३४० ३४२ ३४४ ३४५ बाह्यतप अनशन तप ऊनोदरी तप भिक्षाचर्या तप रस-परित्याग तप कायक्लेश तप प्रतिसंलीनता तप आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त तप विनय तप वैयावृत्य तप स्वाध्याय तप ध्यान तप कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग तप परीषह-जय परीषह-जय के भेद व स्वरूप परीषय-जय की कठोरता साधु की प्रतिमाएँ प्रतिमा-अनशन तपविशेष का अभ्यास समाधिमरण-सल्लेखना समाधिमरण आत्महनन नहीं समाधिमरण के भेद समाधिमरण की अवधि समाधिमरण की विधि समाधिमरण की सफलता अनुशीलन प्रकरण ६ मुक्ति मुक्ति के अर्थ में प्रयुक्त कुछ शब्द मोक्ष में जीव की अवस्था मुक्तों के ३१ गुण ३४८ ३५० ३५२ ३५३ ३५६ ३६४ ३६४ ३६८ .. ३७५-३६० ३७५ ३७८ ३८१ For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ០ mr me ០ M Mmm mr ០ mr mr X5 ៤ mr ३६०-४३६ ३६१ ० ० ० ( १५ ) सादिमुक्तता मुक्तात्माओं का निवास मुक्ति किसे, कब और कहां से मुक्त जीवों की एकरूपता जीवन्मुक्ति अनुशीलन प्रकरण ७ समाज और संस्कृति वर्णाश्रम व्यवस्था जाति व वर्ण-व्यवस्था आश्रम-व्यवस्था पारिवारिक जीवन माता-पिता व पुत्र भाई-बन्धु नारी रीति-रिवाज एवं प्रथाएँ यज्ञ विवाह-प्रथा सौन्दर्य प्रसाधन दाह-संस्कार पशु-पालन खान-पान मनोरंजन के साधन व्यापार और समुद्रयात्रा रोगोपचार मंत्र-शक्ति व शकुन में विश्वास राज्य-व्यवस्था व मानव-प्रवृत्तियां राज्य-व्यवस्था मानव-प्रवृत्तियां धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदाय अनुशीलन ० ० ० ० ० ० ०१३ त . ४१५ ४१६ ४१८ ४२० ४२१ ४२२ ४२३ ४२८ ४२६ ४३१ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७-४४७. ४४६-४७२ ( १६ ) प्रकरण ८ उपसंहार परिशिष्ट १ . कथा-संवाद परिशिष्ट २ विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय परिशिष्ट ३ साध्वाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य परिशिष्ट ४ देश तथा नगर सहायक ग्रन्थ-सूची अनुक्रमणिका तालिकाएं व वृत्तचित्र ४७३-४८७. ४८८-४६४ ४६५-५०४ ५१३ ५३३ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक जॅन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक जैन आगम ग्रन्थ है । भगवान् महावीर ( ई० पू० ६ ठी शताब्दी ) के जिन उपदेशों को उनके शिष्यों ने सूत्रग्रन्थों के रूप में निबद्ध किया वे ग्रन्थ 'आगम' या 'श्रुत' के नाम से प्रसिद्ध हैं । ' इन ग्रन्थों में जो भगवान् महावीर के साक्षात् प्रधान शिष्यों ( गणधरों) द्वारा रचित हैं वे अंगप्रविष्ट ( अंग ) कहलाते हैं और शेष जो उत्तरवर्ती श्रुतज्ञ शिष्यों द्वारा रचित हैं वे अंगबाह्य ( अनंग ) । २ इनमें साक्षात् महावीर के शिष्यों द्वारा रचित होने के कारण अंग ग्रन्थों की प्रधानता है । इन्हें बौद्ध त्रिपिटक की तरह 'गणिपिटक ' ' तथा ब्राह्मणों के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों की तरह 'वेद' कहा गया है। इनकी संख्या १२ नियत होने से 3 ૪ १. प्राचीन काल में इसे 'श्रुत' कहते थे और श्रुतज्ञानी को 'श्रुतकेवली' | वर्तमान में आगम शब्द अधिक प्रचलित है । देखिए, जै० सा० बृ० इ०, भाग १, प्रस्तावना, पृ० ३१. २. तं जहा - अंगपविट्ठ, अंगबाहिरं च । से किं तं अंगबाहिरं ? गहिरं विहं पण्णत्तं । तं जहा - आवस्सयं च आवस्यवइरित्तं च । - नंदी, सूत्र ४३; यद् गणधर शिष्यप्रशिष्यैरारातीयै रधिगतश्रुतार्थतत्त्वः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचन विन्यासं तदङ्गबाह्यम् तत्वार्थ वार्तिक १.२०.१३. ३. दुवाल संगे गणिपिडगे ४. दुवालसंगं वा प्रवचनं वेदो - समवा०, सूत्र ९ तथा १३६. - प्रा० सा० इ०, पृ० ४४. For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इन्हें 'द्वादशाङग'१ भी कहा जाता है। इस तरह अर्थरूप में ये सभी अंग-ग्रन्थ महावीर-प्रणीत ही हैं परन्तु शब्दरूप में गणधरप्रणीत हैं । इनके अतिरिक्त जो अङ्गबाह्य आगम-ग्रन्थ हैं वे प्राचीन परम्परानुसार प्रथमतः दो भागों में विभक्त है--आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त । आवश्यक में छः ग्रन्थ थे जो आजकल एक आवश्यक-सूत्र में ही सन्निविष्ट हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के पुनः कालिक और उत्कालिक-ये दो भेद किए गये हैं और प्रत्येक के कई प्रकार हैं। जिनका अध्ययन किसी निश्चित समय ( दिन व रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहर ) में किया जाता है उन्हें 'कालिक' और जिनका अध्ययन तदतिरिक्त समय में किया जाता है उन्हें 'उत्कालिक' कहते हैं। उत्तराध्ययन आदि कालिक श्रुत हैं तथा दशवकालिक आदि उत्कालिक । १. वही; बारह अंग-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तःकृद्दशा, अनुत्त रोषपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद। . २. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ । -आवश्यक-नियुक्ति, गाथा १६२. ३. देखिए-पृ० १, पा० टि० २. ४. वही; आवश्यक के छः नाम ये हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । ५. यदिहनिशाप्रथमचरिमपौरुषीद्वय एवं पठ्यते तत्कालेन निवृत्त कालिकं-उत्तराध्ययनादि । यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्व कालिकादित्युत्कालिकम्-दशवकालिकादीति । -स्था० सू० ७१ अभयवृत्ति । नंदी, सूत्र ४३, ४७ में इसकी विस्तृत सूची दी गई है। तदङ्गबाह्यमनेकविधम्-कालिकमुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम् । अनियतकालमुत्कालिकम् । तद्भेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः । -तत्त्वार्थवार्तिक, १.२०.१४. For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ३ इस तरह यह कालिक और उत्कालिक का भेद सिर्फ अंगबाह्य आवश्यक व्यतिरिक्त ग्रन्थों में है । परवर्ती काल में दृष्टिवाद को छोड़कर शेष ग्यारह अंग-ग्रन्थों को भी कालिक में गिनाया है । " दृष्टिवाद के विषय में स्पष्ट कथन नहीं मिलता है कि वह कालिक है अथवा उत्कालिक | परन्तु ग्यारह अंगरूप कालिक श्रुत के ही साथ कहीं-कहीं दृष्टिवाद को भी गिनाया है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि दृष्टिवाद का उच्छेद हो गया था । अतः इसके प्रति उपेक्षा होना स्वाभाविक है । दिगम्बर- परम्परा में सिर्फ अंगबाह्य ग्रन्थों को ही कालिक और उत्कालिक में विभक्त किया है, अंग ग्रन्थों को नहीं । 3 २. इस तरह आगम- साहित्य के प्राचीन विभाजन के अनुसार उत्तराध्ययन-सूत्र अंगबाह्य आवश्यक व्यतिरिक्त कालिक श्रुत का एक भेद है । . वर्तमान परम्परा में अंगबाह्य का विभाजन भिन्न प्रकार से किया जाता है । प्राचीन आगम ग्रन्थों में इस प्रकार का विभाजन नहीं मिलता है। जहां तक ज्ञात है, इस विभाजन का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख श्री भावप्रभसूरि ( १८ वीं शताब्दी) द्वारा विरचित १. इहैकादशाङ्गरूपं सर्वमपि श्रुतं कालग्रहणादिविधिनाऽधीयत इति मुच्यते । - विशेषावश्यक भाष्य - मलधारी टीका, गाथा २२६४; विशेष - जै० सा० ई० पू०, पृ० ५७६-५७८. २. कालियसुअ दिट्ठीवाए य - आवश्यक नियुक्ति, ७६४; एक्कारस अंगाई पइण्णगं दिट्टिवाओ य । - उ० २८.२३; उत्तराध्ययनमें अन्यत्र द्वादशाङ्ग ( 'बारसंगविऊ बुद्धे' उ० २३.७; 'दुवालसंग जिणक्खायं' उ० २४.३ ) तथा अङ्ग और अङ्गबाह्यसूत्र ( 'जो सुत्त महिज्जन्तो.अंगेण बहिण व' उ० २८.११ ) के रूप में भी उल्लेख मिलता है । ३ देखिए - पृ० २, पा० टि० ५. For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन जैनधर्मवरस्तोत्र ( श्लोक ३० ) की स्वोपज्ञ टीका में मिलता है ।' तदनुसार विभाजन क्रम निम्नोक्त है : १. अथ उत्तराध्ययनः १ आवश्यक २ पिण्डनिर्युक्ति तथा ओघनियुक्ति ३ दशवैकालिक ४ इति चत्वारिमूलसूत्राणि । 'गाथा - इक्कारस अंगाइ बारस उवंगाइ दस पयन्नाई । छ छेय मूल चउरो नंदी अणुयोग पणयाला ॥ — जैनधर्मं वरस्तोत्र-स्वोपज्ञ टीका, पृ० ९.४. इस प्राकृत गाथा के उद्धृत करने तथा आगम ग्रन्थों के स्पष्ट विभाजन से प्रतीत होता है कि इसके पहले भी इस प्रकार का विभाजन हो चुका था । आ० तुलसी ने द० उ०- भूमिका, पृ० ६, ९ पर समयसुन्दर ( वि० सं० १६७२ ) कृत सामाचारीशतक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें दशवेकालिक, ओवनिर्युक्ति, पिण्डनियुक्ति और उत्तराध्ययन को मूलसूत्र माना है। प्रभावकचरित ( वि० सं० १३३४ ) में भी अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद के भेद से आगमों के प्राचीन विभाजन का उल्लेख मिलता है ततश्चतुर्विधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया । ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्यग्रन्थच्छेदकृतागमः ॥ - आर्य रक्षितप्रबन्ध, श्लो० २४१. प्रभावक - चरित के इस उल्लेख से यह सिद्ध नहीं होता है कि कौन-कौन से ग्रन्थ किस-किस विभाग में थे ? परन्तु ऐसा विभाजन पहले से मौजूद था जिसको आर्यरक्षित ने ४ अनुयोगों में विभक्त किया । भद्रबाहु (द्वितीय) की आवश्यकनियुक्ति ( वि० सं० ६ ठी शता० ) में कल्पादि को छेदसूत्रों में परिगणित करने से इस प्रकार के विभाजन की और अधिक प्राचीनता का पता चलता है 1 जं च महाकष्पसुयं जाणि य सेसाणि छेयसुत्ताणि । - आवश्यक निर्युक्ति, गा० ७७८. तथा देखिए - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २२६५. For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र आगम अंगबाह्य अंग (१२) उपाङ्ग' मूलसूत्र छेदसूत्र' अविभाजित (नंदी प्रकीर्णक (१२) (४) (६) और अनुयोग) (१०) (२) इस तरह सामान्यतया ४६ आगम ग्रन्थ माने जाते हैं उनमें बारहवें अंग दृष्टिवाद का उच्छेद मान लेने पर ४५ आगमग्रन्थों की परम्परा है। . १. बारह उपांग ये हैं-औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचला और वृष्णिदशा। अन्तिम पांच को निरयावलिया भी कहते हैं। इनका अंगों के साथ वस्तुत: कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी इन्हें रूढ़ि से उपांग कहा जाता है। सिर्फ पांच निरयावलियों की उपांग संज्ञा मिलती है। __ - देखिए-जै० सा० ब० इ०, भाग २, पृ० ७-८. २. छः छेदसूत्र ये हैं-निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, आचार दशा या दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प तथा पंचकल्प या जीतकल्प । इनमें साधुधर्म का पालन करते समय लगे हए दोषों की प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है । अतः ये छेदसूत्र कहलाते हैं। ३. यद्यपि नंदी (सूत्र ४३ ) में कालिकश्रुत को तथा उत्तराध्ययन में . . (देखिए-पृ० ३, पा० टि० २) अंगातिरिक्त को प्रकीर्णक कहा है परन्तु वर्तमान में इनकी संख्या १० नियत है-चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, तंडुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान तथा वीरस्तव । इन नामों में कुछ सम्प्रदायगत अन्तर भी हैं। ४. श्वेताम्बर स्थानकवासी इनमें से ३२ तथा कुछ मूर्तिपूजक श्वेताम्बर ८४ आगम मानते हैं। -देखिए-प्रा० सा० इ०, पृ० ३३-३४ फुटनोट । For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन दिगम्बर - परम्परा में इस प्रकार का विभाजन नहीं मिलता है । वहाँ प्रथमतः अंग और अंगबाह्य ऐसे दो भेद किए गए हैं, फिर अंग के १२ और अंगबाह्य के १४ भेद किए हैं ।" इस तरह दिगम्बर- परम्परा में २६ आगमों की मान्यता है । परन्तु उनकी मान्यता है किं दृष्टिवाद के अंश विशेष के आधार पर लिखे गये षट्खण्डागम और कषायप्राभृत' को छोड़कर शेष अंग और अंगबाह्य आगम विच्छिन्न हो गये हैं, जबकि श्वेताम्बरपरम्परा में दृष्टिवाद का विच्छेद हुआ है और शेष आगम अविच्छिन्न हैं । दिगम्बर- परम्परा में अंगबाह्य के जो १४ भेद हैं, वे निम्नोक्त हैं : १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३ वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ६. कल्पव्यवहार, १०. कल्पाकल्प, ११. महाकल्प, १२. पुंडरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धिका । इनमें आदि के छः भेद क्रमश: छः आवश्यकरूप हैं तथा अन्त: के छः भेदों का समावेश श्वेताम्बर सम्मत कल्प, व्यवहार और निशीथ नामक छेद सूत्रों में माना जाता है । शेष दो – दशवैकालिक और उत्तराध्ययन महत्त्वपूर्ण मूलसूत्र हैं । 3 इस तरह इस वर्तमानकालिक प्रचलित परम्परा में उत्तराध्ययन को अंगबाह्य मूलसूत्र के भेदों में गिनाया जाता है । परन्तु उत्तराध्ययन को मूलसूत्र क्यों कहा जाता है ? इस पर विचार करने के पूर्व मूलसूत्रों पर दृष्टि डालना आवश्यक है । मूलसूत्र : सामान्यतया मूलसूत्रों की संख्या चार मानी जाती है परन्तु कुछ विद्वान् उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक इन्हीं तीनों की १. धवलाटीका - षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृ० ६६; गो० जी०, गाथा ३६६-४६७. २. ये दोनों ग्रन्थ अंग के १२ भेदों में से दृष्टिवाद के अन्तर्गत आते हैं । देखिए - षट्खण्डागम, भूमिका, पृ० ७१. ३. देखिए - भा० सं० जे० यो०, पृ० ५४; जै० सा० ई० पू०, पृ० ६७९. For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ७ गणना मूलसूत्रों में करते हैं ।' विन्टरनित्स आदि विद्वान् चौथा मूलसूत्र पिण्डनियुक्ति को मानते हैं । २ परन्तु कुछ दशवैकालिक और frost स्थान पर ओघनियुक्ति और पाक्षिकसूत्र को मूलसूत्र मानते हैं तथा कुछ पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति को छेदसूत्रों में भी गिनाते हैं । 3 स्थानकवासी ( श्वेताम्बर) दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी और अनुयोगद्वार इन चार को मूलसूत्र मानते हैं । परन्तु ८४ आगम माननेवाले आवश्यक के साथ पाँच मूलसूत्र मानते हैं। प्रो० कापड़िया ने दशवैकालिक की दो चूलिकाएँ भी मूलसूत्रों में गिनाई हैं ।" इस तरह मूलसूत्रों की संख्या और नामों पर्याप्त अन्तर पाया जाता है फिर भी उत्तराध्ययन के मूलसूत्र होने में किसी को संदेह नहीं है तथा क्रम में अन्तर होने पर भी प्रायः सभी उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र मानते हैं । १. जै० सा० बृ० इ०, भाग-२, पृ० १४३ - १४४. २. हि० इ० लि०, भाग - २, पृ० ४२६; जै० सा० बृ० इ०, भाग - १, प्रस्तावना, पृ० २८. ३. हि० इ० लि०, भाग - २, पृ० ४३०. ४. प्रा० सा० इ०, पृ० ३३, फुटनोट । ५ हि० के० लि० जै०, पृ० ४८. ६ मूलसूत्रों की संख्या व क्रम के विषय में विभिन्न मत : विद्वान् संख्या क्रम १. भावप्रभसूरि ४ २. समयसुन्दर ३. स्थानकवासी और ४ ४ ४ तेरापन्थी श्वेताम्बर कुछ मूर्तिपूजक श्वेताम्बर ५ उत्तराध्ययन, आवश्यक, पिण्डनियुक्ति नियुक्ति तथा दश वैकालिक | कालिक ओघ नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और उत्तरा ध्ययन । - उद्धृत द० उ०, भूमिका, पृ० ६ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार । उत्तराध्ययन, दशकालिक आवश्यक, नंदी और अनुयोगद्वार । For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] उत्तराध्ययन-सूत्र: एक परिशीलन . . संख्या, नाम और क्रम की तरह 'मूलसूत्र' का अर्थ भी विवादास्पद है । ये मूलसूत्र क्यों कहे जाते हैं ? इस विषय में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तर्क उपस्थित किए हैं क्योंकि प्राचीन कोई भी ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें इसका अर्थ स्पष्ट किया गया हो। मूलसूत्रों के नामों में अन्तर होने से भी इसका स्पष्ट कथन कर सकना सम्भव नहीं है । 'मूलसूत्र' शब्द के अर्थ पर विचार ५. प्रो० वेबर और प्रो० बूलर ३ उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवकालिक । ६. डॉ० शारपेन्टियर, डॉ० ४ उत्तराध्ययन. आवश्यक, दशवं. विन्टरनित्स और डॉ० कालिक और पिण्डनियुक्ति । गेरिनो ७. प्रो० शुब्रिग ५ उत्तराध्ययन, दशवकालिक, आवश्यक, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति। ८. प्रो० हीरालाल कापडिया ६ आवश्यक, उत्तराध्ययन. दशव कालिक, दशवकालिक चलिकाएँ, पिण्डनियुक्ति और ओघ नियुक्ति । ६. डॉ. जगदीशचन्द्र,पं० दल- ४ उत्तराध्ययन, दशवकालिक, सुख मालवणिया और आवश्यक और पिण्डनियुक्ति; डॉ. मोहनलाल मेहता अथवा उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक और पिण्डनियुक्ति ओघनियुक्ति। १०. आचार्य तुलसी २ दशवकालिक और उत्तरा ध्ययन । -विशेष के लिए देखिए-जै० सा० बृ० इ०, भाग २, पृ० १४४; जै० सा० बृ० इ०, भाग १, प्रस्तावना, पृ० २८; हि० के० लि. जै०, पृ० ४४-४८; प्रा० सा० इ०, पृ० ३५; द० उ० भूमिका, पृ० ७-८. . For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ करने के पूर्व आवश्यक है कि सभी मान्य मूलसूत्रों का प्रथमतः संक्षिप्त परिचय दिया जाय । १. २ उत्तराध्ययन- यह एक धार्मिक श्रमण काव्य-ग्रन्थ है । इसमें नवदीक्षित साधुओं के सामान्य आचार-विचार आदि का वर्णन किया गया है । कहीं-कहीं जैनदर्शन के सामान्य मूलभूत सिद्धान्तों की चर्चा की गई है । इसका विशेष विचार आगे किया जाएगा २. दशवैकालिक - यह भी उत्तराध्ययन की ही तरह आचारधर्म का प्रतिपादक धार्मिक श्रमण-काव्य है । इसमें विनय, नीति, उपदेश और सुभाषितों की प्रचुरता है। कुछ अध्ययन और गाथाएं उत्तराध्ययन और आचाराङ्ग से साम्य रखती हैं ।" इसके रचयिता शय्यंभव ( ई० पू० ४५२ - ४२६ ) हैं । भद्रबाहु की नियुक्ति के अनुसार 'इसका चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पाँचवां कर्मप्रवाद पूर्व से, सातवां सत्यप्रवाद पूर्व से और बाकी के प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व के तीसरे अधिकार ( वस्तु ) से लिए गए हैं । 3 कालान्तर में इस पर विपुल टीकासाहित्य लिखा गया । भाषा और विषय की दृष्टि से यह भी उत्तराध्ययन की तरह प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है । ३. आवश्यक नंदीसूत्र के वर्गीकरण के अनुसार पहले यह छः स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में था । परन्तु अब यह एक ही ग्रन्थ के रूप में विद्यमान है। इसमें साधु की छः नित्य क्रियाओं (आवश्यक) का वर्णन किया गया है । इस पर भी कालान्तर में विपुल टीकासाहित्य लिखा गया । ४. पिण्डनिर्युक्ति - यह दशवैकालिक सूत्र के 'पिण्डेषणा' नामक ५ वें अध्ययन पर लिखी गई भद्रबाहु की रचना है । विस्तार एवं महत्त्व के कारण इसे पृथक् ग्रन्थ के रूप में माना १. जै० सा० बृ० इ०, भाग - २, पृ० १८१; हि० के० लि० जै०, पृ० १५६. २. प्राचीन काल में समस्त श्रुतज्ञान १४ पूर्व-ग्रन्थों में अन्तर्निहित था । उनके नाम इस प्रकार हैं- उत्पाद, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, समयप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्य, प्राणावाय, क्रियाविशाल और बिन्दुसार । ३. दशवैकालिक - नियुक्ति, गाथा १६-१७. For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.० ] उत्तराध्ययन : सूत्र एक परिशीलन . जाता है। पिण्ड का अर्थ है-भोजन। इसमें साध के भोजनविषयक सिद्धान्त की चर्चा की गई है। इसमें वर्णित साधु के भोजनसम्बन्धी नियमों से कई महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। ५. ओघनिर्यक्ति-ओघ का अर्थ है-सामान्य । इसमें साधु के सामान्य आचार-विचार का ही दृष्टान्तशैली में वर्णन है। इसमें श्रमणसंघ के इतिहास की झलक मिलती है। बीच-बीच में कथाएँ भी हैं। यह भी पिण्डानियुक्ति की तरह भद्रबाहु की ही रचना है। ६-७ नंदी और अनुयोगद्वार - ये दोनों ग्रन्थ आगमों के लिए परिशिष्ट का काम . करते हैं। अतः इन्हें चलिकासूत्र कहा जाता है। आगमों के अध्ययन के लिए ये प्राथमिक भूमिका का भी कार्य करते हैं । नंदी में विशेषकर ज्ञान की चर्चा की गई है और अनुयोगद्वार में मूल भत सिद्धान्तों और पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है। नंदी' दृष्यगणि के शिष्य देववाचक की तथा 'अनुयोगद्वार' आर्यरक्षित की कृति है। ये महावीर-निर्वाण के बहुत बाद में लिखी गई थीं। ८ पाक्षिकसूत्र - इसमें साधु के पाक्षिक प्रतिक्रमण ( आवश्यक का एक भेद ) का वर्णन किया गया है। ६. . दशवकालिकचलिकाएँ ये वास्तव में दशवैकालिक के ही अंश के रूप में हैं। अतः इन्हें पृथक् गिनाना उचित नहीं है। इनमें संसार के प्रति रागभावना का त्याग तथा साधुओं को मद्य-मांस आदि के त्याग का उपदेश देकर कर्तव्य-कर्म करने का उपदेश दिया गया है । इस तरह इन संभाव्य मूलसूत्रों का संक्षिप्त परिचय देखने से मूलसूत्र शब्द का अर्थ यद्यपि स्पष्ट नहीं होता है फिर भी अन्य अंगबाह्य ग्रन्थों की अपेक्षा इनमें मूलरूपता, प्रामाणिकता और उपयोगिता को ध्यान में रखा गया है। वास्तव में उत्तराध्ययन, दशवकालिक और आवश्यक' को मूलसूत्र मानना उपयुक्त है क्योंकि ये प्राचीन भी हैं तथा साधु-जीवन के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रामाणिक प्रति. १. आचार्य तुलसी का यह कयन (द० उ०, भूमिका, पृ० ७) कि अङ्गबाह्य आगम ग्रन्थों के आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त इन दो विभागों में आवश्यक का अपना स्वतन्त्र व महत्त्वपूर्ण स्थान होने से 'आवश्यक' को मूलसूत्रों की संख्या में सम्मिलित करने का कोई हेतु प्रस्तुत नहीं है - ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि वर्तमान परम्परा में जो अङ्गबाह्य For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [११ पादन भी करते हैं। अन्य ग्रन्थों को जो मूलसूत्रों में गिना जाने लगा है वह या तो उनके महत्त्व को प्रकट करने के कारण या मूल आगम-ग्रन्थों से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण है। जैसे-पिण्डनियुक्ति दशवकालिक से और ओघनियुक्ति आवश्यकनिक्ति से सम्बन्धित होने से, पाक्षिकसूत्र आवश्यक का ही एक अंग होने से, दशवैकालिकचलिकाएँ दशवैकालिक के ही अंशरूप होने से तथा नंदी और अनुयोगद्वार के समस्त आगमग्रन्थों की विश्लेषणरूप भूमिका होने से इन्हें मूलसूत्रों के साथ जोड़ा गया है। इस तथ्य की पुष्टि के पूर्व मूलसूत्र के विषय में विभिन्न विद्वानों के मतों का पर्यवेक्षण आवश्यक है। १. जार्ल शान्टियर ने महावीर के शब्द होने से इन्हें मूलसूत्र कहा है। परन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि महावीर के शब्द होने के नाते आचारांग आदि को ही मूल संज्ञा दी जा सकती है, अंगबाह्य को नहीं। इसके अतिरिक्त अंग और अंगबाह्य ग्रन्थों को छेदसूत्र, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि भागों में बाँटा जाता है उनमें से आवश्यक को किस विभाग में रखा जाएगा ? आवश्यक के महत्त्वपूर्ण होने के कारण मूलसूत्र में ही रखना उचित है। अन्य विभागों में रखा नहीं जा सकता। अत: या तो इसे मूलसूत्र विभाग में ही रखा जाए या फिर अन्य प्रकार से विभाग की कल्पना की जाए । आचार्य तुलसी ने (द० उ०, भूमिका, पृ० ६) मूलसूत्र कहे जाने के कारण को बतलाते हुए लिखा है-'आचार की जानकारी के लिए आचारांग मूलभूत था, वैसे ही दशवैकालिक भी आचारज्ञान के लिए मूलभूत बन गया। संभव है, आदि में पढ़े जाने के कारण तथा मुनि की अनेक मूलभूत प्रवृत्तियों के उद्बोधक होने के कारण इन्हें मूलसूत्र की संज्ञा दी गई।' इससे भी स्पष्ट है कि 'आवश्यक' मुनि की आवश्यक क्रिया का प्रतिपादक होने के नाते क्यों नहीं मूलसूत्र कहा जाएगा? 1. ......Mala in the sense of 'original text', and perhaps not so much in opposition to the later abridgments and commentaries as merely to denote the actual words of Mahavira himself. -उ० शा०, भूमिका, पृ० ३२ For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन सभी ग्रन्थों का सम्बन्ध अर्थतः महावीर के वचनों से है । दशवैकालिकसूत्र शय्यंभव की रचना होने तथा पिण्डनियुक्ति आदि भी बाद की रचनाएँ होने से उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है । यह कथन कुछ अंशों में उत्तराध्ययन एवं आवश्यक की अपेक्षा से ठीक है। मालूम पड़ता है कि शार्पेन्टियर के इस कथन का आधार उत्तराध्ययन की अन्तिम गाथा रही है जिसमें बतलाया है कि भगवान् महावीर उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों का वर्णन करके परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये ।' इसी तरह 'समयं गोयम मा पमायए', 'सुयं मे आउस तेगं भगवया एवमक्खायं' आदि सूत्रस्थल रहे हैं । डा० गेरिनो " एवं प्रो० पटवर्धन का भी यही मत है । ४ પ २. प्रो० विन्टरनित्स ने मूल शब्द का अर्थ टीकाओं के आधारभूत 'मूलग्रन्थ के रूप में किया है । इसका तात्पर्य है कि इन १. इय पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वए । छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंवडे । - उ० ३६. २६६. २. उ. १०.१-३६. ३. उ. १६.१ (गद्य) । ४. उ. २६. १ ( प्रारम्भिक गद्य); २.१ ( गद्य), ४६ आदि । 5. Guerinot (La Religion, Djaina, P. 79 ) translates Mūlasutra by "trates originaux." - के. लि . जै., पृ. ४२. 6. "Thus the term Mula-sutra would mean "the original text" i. e. "the text containing the original words of Mahāvīra (as received directly from his mouth). - दी दशवेकालिक सूत्र : ए स्टडी, पृ० १६. 7. Why these texts are called " root-sūtras” is not quite clear. Generally the word mula is used in the sense of "fundamental text" in contra-distinction to the commentary. Now as there are old and important commentaries in existence precisely in the case of these texts, they were probably termed "Mula-texts." - हि. इ. लि., भाग २, पृ. ४६६, पाद-टिप्पणी १. For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ १३ सूत्र ग्रन्थों के ऊपर महत्त्वपूर्ण प्राचीन टीकाएं उपलब्ध हैं । अतः इन टीकाओं से मूल ग्रन्थ का पार्थक्य बतलाने के लिए ही 'मूलसूत्र' शब्द का प्रयोग हुआ है । परन्तु यह कथन ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि केवल टीकाओं से भेद बतलाने के लिए ही मूल शब्द का प्रयोग नहीं है । पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति भी तो वास्तव में टीकाएं ही हैं । इसके अतिरिक्त अन्य कई ग्रन्थों पर भी टीकाएं लिखी गई फिर उन्हें क्यों नहीं मूलसूत्र कहा गया ? अनेक टीकाओं का लिखा जाना उनकी प्रसिद्धि, उपयोगिता एवं प्रामाणिकता का परिचायक है । वेबर भी मूलसूत्र शब्द का अर्थ सूत्र से अतिरिक्त कुछ नहीं मानते । ' ३. डा० शुब्रिंग ने प्रारम्भिक साधु जीवन के मूलभूत नियमों के प्रतिपादक होने के कारण इन्हें मूलसूत्र कहा है । 2 प्रो० एच० आर० कापड़िया, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ४, आचार्य तुलसी" आदि विद्वान् कुछ संशोधन के साथ इसी सिद्धान्त के पक्ष में हैं । बहुत कुछ अंशों में यह कथन उचित भी प्रतीत होता है। इन विभिन्न मतों को देखने तथा मूलाचार, मूलाराधना आदि ग्रन्थों में प्रयुक्त 'मूल' शब्द का अर्थ देखने से पता चलता है कि मूल का अर्थ है-बीजरूपता । उत्तराध्ययन आदि १. देखिए - जै० सा० ई० पू० पृ० ७०१. 2. .This designation seems to mean that these four works are intended to serve the Jain monks and nuns in the beginning (मूल) of their career. - दसवेयालिय- सुत्त, भूमिका, पृ० ३ ( उदधृतके० लि० जै०, पृ० ४२). 3. "My personal view is the same as one expressed by Prof. Schubring and mentioned on P. 42. - के०लि० जै०, पृ० ४३. ४. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० १९२. ५. द० उ०, भूमिका, पृ० ३. For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन मलसत्रों में अंगग्रन्थों में निहित सिद्धान्त एवं आचार का बीजरूप से वर्णन किया गया है जिनका अध्ययन करने पर अन्य सूत्रग्रन्थों को समझना सहज हो जाता है। अतः इनका अध्ययन अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा पहले किया जाता था। ये सरल तथा नवदीक्षित साधुओं के लिए प्रारम्भिक अभ्यासावस्था में सिद्धान्त एवं आचार का ज्ञान कराने के लिए उपयोगी हैं। इस तरह मूलसूत्र से तात्पर्य है जो नवदीक्षित साधुओं के लिए प्रारम्भिक अभ्यास की अवस्था में साधुजीवन के मूलभूत आचार एवं सिद्धान्त. का सरल ढंग से स्पष्ट ज्ञान कराएं। यहाँ पर यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह 'मूलसूत्र' का विचार अंगबाह्य ग्रन्थों की अपेक्षा से है क्योंकि अंगप्रविष्ट सभी ग्रन्थ गणधर-प्रणीत होने से मूल-ग्रन्थ ही हैं। मूलरूपता एवं प्राचीनता की दृष्टि से अंगबाह्य ग्रंथों में तीन ही मूलसूत्र हैं। अन्य पिण्डनियुक्ति आदि रचनाएँ अपने महत्त्व के कारण मूलसूत्रों में गिनी जाती हैं। उत्तराध्ययन-सूत्र का परिचय : उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन (अध्याय) हैं जिनमें सामान्यरूप से साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। समवायांग सूत्र के ३६वें समवाय में उत्तराध्ययन के जिन ३६ अध्ययनों के नाम मिलते हैं उनसे वर्तमान उत्तराध्ययन के अध्ययन कुछ भिन्न हैं । २ नामों में सामान्य अन्तर परिलक्षित होने पर भी विषय की दष्टि से कोई अन्तर प्रतीत नहीं १. आयारस्स उ उरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुव्वं तु । दसवेयालिय उवरिं, इयाणि किं ते न होंति उ । - व्यवहारभाष्य, उद्देशक ३, गाथा १७६. विशेषश्चायं यथा -- शय्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति । - उ० बृहद्वृत्ति, पत्र ५. २. उत्तराध्ययन-नियुक्ति और समवायांग के अनुसार उत्तराध्ययन के नामादि विषयक साम्य-वैषम्य : For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [१५ होता है क्योंकि दोनों प्रकार के नामों के साथ विषयगत संगति ठीक बैठ जाती है। इन ३६ अध्ययनों के नामादि इस प्रकार हैं . अध्ययन नाम अध्ययन नाम सूत्र-संख्या विषयवस्तु (उ.नि. के अनुसार) समवायांग के (आत्माराम (उ.नि. के अनुसार टीका के अनुसार) अनुसार) पद्य+गद्य १. विणयसुर्य विणयसुयं ४८ - विनय २. परीसह परीसह ४६ +३ प्राप्त कष्ट-सहन का विधान ३. चउरंगिज्ज चाउरंगिज्ज २० - चार दुर्लभ अंगों का प्रतिपादन ४. ' असंखयं असंखयं १३ - प्रमाद और अप्रमाद का कथन ५. अकाममरणं. अकाममरणिज्ज ३२ - मरणविभक्ति (अकाम और सकाममरण) . ६. नियंठ (खुड्डागनियंठ) पुरिसविज्जा १७ + १ विद्या और आचरण ७. ओरब्भं उरभिज्ज ३० - रसलोलुपता का त्याग ५ काविलिज्ज काविलिज्ज २० - अलोभ ९. णमिपज्जा नमिपव्वज्जा ६२ . -- निष्प्रकम्प भाव १०. दुमपत्तयं दुमपत्तयं ३७ -- अनुशासन ११. बहुसुयपुज्ज बहुसुयपूजा ३२ - बहुश्रत की पूजा १२. हरिएस हरिए सिज्ज ४७ - तप का ऐश्वर्य १३. चित्तसंभूइ चित्तसं भूयं ३५ ... निदान (भोगा भिलाषा) १४. उसुआरिज उसुकारिज्जं ५३ - अनिदान १५. सभिक्ख सभिक्खु गं १६ भिक्षु के गुण १६. समाहिठाणं समाहिठाणाई १७+ १० ब्रह्मचर्य की ____ (उ. तु. १२) गुप्तियाँ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन १. विनयश्रुत - इसमें ४८ गाथाएँ (पद्य) हैं, जिनमें विनयधर्म का वर्णन किया गया है । प्रसंगवश विनीत एवं अविनीत शिष्यों के गुणदोषादि के वर्णन के साथ गुरु के कर्तव्यों का भी वर्णन किया गया है। गुरु-शिष्य-सम्बन्ध जानने के लिए यह अध्ययन बहुत ही उपयोगी है । दशवैकालिक का नौवाँ अध्ययन भी विनयविषयक है । १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४ २५. पावसमणिज्जं संजज्जं २७. २८. २६. मियचारिया के सिगोयमिज्जं . जन्नइज्जं २६. सामायारी खलु किज्जं मुख अप्पमाओ ( सम्मत्तपरक्कम ) पावस मणिज्जं २१ संजइज्जं नियंठिज्जं ( महानियंठ ) अणाहपव्वज्जा ६० समुद्धपालिज्जं समुद्दपालिज्जं २४ रहमी रहने मिज्जं ५४ पापवर्जन भोग व ऋद्धि ( उ. तु. ५३ ) का परित्याग अपरिकर्म समओ (पवणमाया) समितीओ मियचारिता ६६ (उ.शा. ६८ ) ( अपनी परि ( उ० तु. ६८) चर्या न करना) अनाथता विचित्र चर्या : ( आचरण ) ५१ -- आचरण का ( उ . शा. ४६ ) स्थिरीकरण गोयम के सिज्जं ८६ ( उ. तु. ४६ ) . २७ ― ― - जन्नतज्जं समायारी ५३ (उ. तु. ५२ ) खलु किज्जं १७ मोक्खमग्गगई ३६ अप्पमाओ ४५ (उ. तु. ४३ ) - धर्म (चतुर्या पंचयामरूप) का स्थिरीकरण समितियां ( गुप्तियों के साथ ) ब्राह्मण के गुण - For Personal & Private Use Only सामाचारी अशठता मोक्षमार्ग ७४ अप्रमाद Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [१७ २. परीषह-साधु के संयमी जीवन में आनेवाली प्रमुख २२ बाधाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रत्येक का दो-दो पद्यों में वर्णन किया गया है। प्रारम्भ में भूमिका-रूप कुछ गद्यखण्ड है और अन्त में उपसंहारात्मक पद्य । ३. चतुरङ्गीय-बीस गाथाओं में मोक्ष के साधनभूत चार दुर्लभ अंगों का प्रतिपादन किया गया है। प्रसंगवश कर्मों की . विचित्रता तथा देवों के अमरत्व का खण्डन भी किया गया है। ४. असंस्कृत-तेरह गाथाओं में संसार की क्षणभङ्गुरता का प्रतिपादन करके भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त रहने का उपदेश दिया गया है। इसमें जीवन के असंस्कृतरूप (नश्वरता) का चित्रण होने से इसका नाम असंस्कृत पड़ा है। यह सबसे छोटा अध्ययन है । ५. अकाममरण-इसमें बत्तीस गाथाएँ हैं जिनमें धार्मिक और अधार्मिक की मृत्यु का वर्णन किया गया है। धर्महीन सामान्य व्यक्तियों की मृत्यु को अकाममरण और धार्मिक व्यक्तियों की मृत्यु को सकाममरण, समाधिमरण, पण्डितमरण आदि नामों से कहा गया है। सामान्य व्यक्तियों के मरण के आधार पर इसका नाम अकाममरण रखा गया है। ६. क्षल्लक-निर्ग्रन्थीय-इसमें १७ गाथाओं के साथ अन्त में थोड़ा-सा गद्य-खण्ड है। विद्वान् कौन है ? मूर्ख कौन है ? इसका ३०. तव तवोमग्गो ३७ तपस्या ३१. चरण चरणविही २१ चारित्र ३२. पमायठाणं पमायठाणाई १११ प्रमादस्थान ३३. कम्मप्पयडी कम्मपगडी २५ कर्म ३४. लेसा लेसज्झयणं ६१ लेश्या ३५. अणगारमग्गे अणगारमग्गे २१ भिक्षु के गुण ३६. जीवाजीवविभत्ती जीवाजीववि- २६६ जीव-अजीव भत्ती (उ.शा. २६७) का विवेचन (उ. तु. २६८) -देखिए-उ. नि., गाथा १३-२६, २३६, ४२५, ४५८, ५०३; समवा. ३६वां समवाय । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन परिचय देकर जैन साधु के सामान्य आचार-विचार का वर्णन किया गया है । अतः इसका नाम क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय ( जैनसाधु ) रखा गया है । समवायांग में इसका नाम जो 'पुरुषविद्या' मिलता है उसका आधार इस अध्ययन की पहली गाथा ( जावंतविज्जापुरिसा० ) है । ७. एलय ( उरभ्रीय ) - एलय और उरभ्र का अर्थ है - बकरा । प्रारम्भ में अतिथि के भोज के लिए स्वामी के द्वारा पाले जाने वाले करे आदि के दृष्टान्त से संसारासक्त जीवों की दुर्दशा का चित्रण किया गया है । इसके बाद धर्माचरण से होने वाले शुभ फल का वर्णन किया गया है। बकरे के दृष्टान्त की प्रमुखता होने से इस अध्ययन का नाम एलय रखा गया हैं । इसमें ३० गाथाएँ हैं । ८. कापिलीय - इसके प्ररूपक कपिलऋषि' हैं अतः इसका नाम कापिलीय रखा गया है । इसमें बीस गाथाओं द्वारा दुर्गति से बचने के लिए लोभत्याग का उपदेश दिया गया है । ६. नमित्रव्रज्या - इसमें ६२ गाथाएँ हैं । इसमें प्रव्रज्या के लिए अभिनिष्क्रमण करनेवाले राजर्षि नमि का ब्राह्मणवेशधारी इन्द्र के साथ आध्यात्मिक संवाद वर्णित है जिसमें प्रव्रज्या के समय उठने वाले सामान्य व्यक्ति के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का सुन्दर चित्रण किया गया है । इस संवाद में ब्राह्मणवेषधारी इन्द्र मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रश्न करते हैं और प्रव्रज्याभिलाषी राजर्षि नमि उत्तर देते हुए उन मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों का समाधान करते हैं । इस प्रकार का अन्तर्द्वन्द्व प्रायः सभी प्रव्रजितों के हृदय में उठना स्वाभाविक है । नमि की प्रव्रज्या का वर्णन होने से इसका नाम नमिप्रव्रज्या रखा गया है । १०. द्रुमपत्रक - इसमें सैंतीस गाथाएँ हैं । प्रारम्भ में वृक्ष के पीले पत्ते के दृष्टान्त द्वारा जीवन की क्षणभङ्गुरता का प्रतिपादन है अतः इस अध्ययन का नाम द्रुमपत्रक रखा गया है । इसमें गौतम को लक्ष्य करके साधु को अप्रमत्त रहने का उपदेश दिया गया है। १. इइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं । - उ०८.२०० For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [१६ प्रत्येक गाथा के अन्त में 'समयं गोयम मा पमायए' तथा अन्तिम गाथा में 'सिद्धि गई गए गोयमे' पद आया है। ११. बहुश्रुत-पूजा-इसमें ३२ गाथाएँ हैं जिनमें शास्त्रज्ञ व्यक्ति (बहुश्रुत) की प्रशंसा की गई है। प्रारम्भ में विनय अध्ययन की तरह विनीत और अविनीत शिष्यों के गुण-दोषादि का वर्णन किया गया है। विनीत को बहुश्रुत और अविनीत को अबहुश्रुत कहा है । ... १२. हरिकेशीय-इसमें ४७ गाथाएँ हैं जिनमें चाण्डाल जैसी नीच जाति में उत्पन्न हरिकेशिबल मनि के उदात्त चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त हरिकेशिबल और ब्राह्मणों के मध्य हुए संवाद में कर्मणा जातिवाद की स्थापना, तप का प्रकर्ष तथा अहिंसा-यज्ञ की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। १३. चित्तसंभतीय-इसमें चित्त और संभूत नाम के दो भाइयों के छः जन्मों की पूर्व-कथा का संकेत है। पुण्य-कर्म के निदान-बन्ध के कारण भोगासक्त संभूत के जीव (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती) का पतन तथा संयमी चित्तमुनि का उत्थान बतलाकर जीवों को धर्माभिमुख होने तथा उसके फल की अभिलाषा (निदान) न करने का उपदेश दिया गया है। इसमें यह भी बतलाया गया है कि साधु-धर्म का पालन न कर सकने पर व्यक्ति को गृहस्थ-धर्म का पालन अवश्य करना चाहिए। इसमें ३५ गाथाएं हैं। ::. १४. इषुकारीय-त्रिपन गाथाओं में इषुकार नगर के ६ जीवों - के अभिनिष्क्रमण का वैराग्योत्पादक वर्णन होने से इसका नाम . इषुकारीय रखा गया है। इसमें पति-पत्नी तथा पिता-पुत्र के बीच होनेवाले संवाद दार्शनिक विषयों से सम्बन्धित होकर भी प्रभावोत्पादक हैं। . १५. सभिक्षु-इसकी सोलह गाथाओं में साधुओं के सामान्य गणों का वर्णन है। प्रत्येक गाथा के अन्त में 'स भिक्ख' पद आया है। अतः इस अध्ययन का नाम 'सभिक्षु' रखा गया है । दशवैकालिक के १०वें अध्ययन का भी नाम 'सभिक्षु' है । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] उत्तराध्ययन-सूत्र: एक परिशीलन १६. ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान-इसकी सत्रह गाथाओं में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए १० बातों का त्याग आवश्यक बतलाया है। ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रकट करने वाले इस अध्ययन को गद्य तथा पद्य में पुनरावृत्त किया गया है। १७. पापश्रमणीय-इसमें पथभ्रष्ट श्रमण (साधु) का वर्णन होने से इसका नाम पापश्रमणीय रखा गया है। इसकी २१ गाथाओं में से तीसरी गाथा से लेकर उन्नीसवीं गाथा पर्यन्त प्रत्येक गाथा के अन्त में 'पावसमणि त्ति वुच्चई' पद आया है। १५. संजय'-इसमें ५४ गाथाएँ हैं जिनमें राजर्षि संजय की दीक्षा लेने का वर्णन है। प्रसंगवश कई राजाओं आदि का उल्लेख है जिन्होंने साधुधर्म में दीक्षित होकर मुक्ति प्राप्त की थी। १६. मृगापुत्रीय-इसमें ६६ गाथाएं हैं जिनमें मृगापुत्र की वैराग्यसम्बन्धी कथा के साथ मृगापुत्र और उसके माता-पिता के बीच होनेवाला संवाद बहुत ही सुन्दर है। इसमें साधु के आचार के प्रतिपादन के साथ प्रसंगवश नारकीय कष्टों का भी वर्णन है। मृगचर्या के दृष्टान्त द्वारा भिक्षाचर्या का वर्णन होने से संभवतः समवायांग में इसका नाम 'मृगचर्या' दिया गया हो जो बाद में मृगापुत्र की प्रधानता के कारण मृगापुत्रीयं कर दिया गया हो। २०. महानिर्ग्रन्थीय-इसमें ६० गाथाएँ हैं । इसमें अनाथी मुनि और राजा श्रेणिक के बीच सनाथ और अनाथविषयक संवाद बड़ा ही रोचक है। अनाथी मुनि की प्रव्रज्या की घटना का विशेषरूप से वर्णन होने के कारण समवायांग में संभवतः अनाथप्रव्रज्या नाम दिया गया हो। प्रकृत-ग्रन्थ में जो महानिर्ग्रन्थीय नाम मिलता १. कुछ टीकाकारों ने इस अध्ययन का संस्कृत नाम 'संयतीय' लिखा है जबकि प्राकृत में 'संजइज्ज' नाम है। संजय राजा का वर्णन होने से 'संजय' नाम ही ठीक प्रतीत होता है । याकोबी तथा नियुक्तिकार की भी यही मान्यता है। -देखिए-से० बु० इ०, भाग-४५, पृ० ८०; उ० नि०, गाथा ३६४. For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र है उसका संकेत इस अध्ययन की दो गाथाओं में मिलता है । " महानिर्ग्रन्थ का अर्थ है - सर्वविरत साधु । इस तरह क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय अध्ययन का ही विशेष रूप से वर्णन करने के कारण इसका नाम महानिर्ग्रन्थीय है । २१. समुद्रपालीय - इसमें २४ गाथाएँ हैं जिनमें वणिक् - पुत्र समुद्रपाल की कथा के साथ प्रसंगानुकूल साधु के आचार का वर्णन है । २२. रथनमीय - इसकी ५१ गाथाओं में यदुवंशी अरिष्टनेमी, कृष्ण, राजीमती, रथनेमी आदि का चरित्र चित्रण है । यह अध्ययन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । रथनेमी के संयमच्युत होने पर राजीमती के उपदेश से संयम में दृढ़ होने की घटना को प्रधानता देने के कारण इसका नाम रथनेमीय रखा गया है । अन्यथा राजीमती और अरिष्टनेमी की भी प्रभावोत्पादक घटना के आधार पर इस अध्ययन का नाम रखा जा सकता था । दशवैकालिक का द्रुमपुष्पित अध्ययन इससे साम्य रखता है । २३. केशिगौतमीय - इसमें भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य केशी और भगवान् महावीर के शिष्य गौतम के बीच एक ही धर्म में सचेलअचेल, चार महाव्रत और पाँच महाव्रत रूप परस्पर विपरीत द्विविध धर्म के विषय-भेद को लेकर एक संवाद होता है जिसमें समयानुकूल धर्म में परिवर्तन आवश्यक समझकर समन्वय किया गया है। यह अध्ययन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । इससे वर्तमान में प्रचलित धर्मविषयक मतभेदों के समन्वय की प्रेरणा मिलती है। इसमें ज़ैनधर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो सम्प्रदायों के भेद का स्रोत भी स्पष्ट परिलक्षित होता है । गाथाएँ ८६ हैं । २४. समितीय - नेमिचन्द्र की वृत्ति में इसका नाम 'प्रवचनमाता' मिलता है क्योंकि इसमें प्रवचनमाताओं (गुप्ति और समिति ) १. मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं महानियंठाण वए पहेणं । - उ० २०.५१. महानियण्ठज्जमिणं महासुयं से काहए महया वित्यरेणं । For Personal & Private Use Only - उ० २०.५३. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन का वर्णन है। प्रवचनमाता के अर्थ में समिति शब्द का भी प्रयोग होने से समितीय नाम भी उपयुक्त है।' इसकी गाथा-संख्या २७ है। २५. यज्ञीय-इसमें ४५ गाथाएँ हैं। जयघोष मूनि यज्ञ-मण्डप में ब्राह्मणों के साथ होनेवाले संवाद में सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप, यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या और कर्म से जातिवाद की स्थापना करते हुए साधु के आचार का वर्णन करते हैं। इसकी १६ से २६ गाथाओं के अन्त में 'तं वयं बूम माहणं' पद पुनरावृत्त है। 'सभिक्षु' और 'पाप-श्रमणीय' अध्ययन की तरह इसका नाम 'सब्राह्मण' रखा जा सकता था परन्तु ब्राह्मणों के मुख्य कर्म यज्ञ को दृष्टि में रखकर तथा यज्ञविषयक आध्यात्मिक व्याख्या होने से इसका नाम 'यज्ञीय' रखा गया है। यद्यपि हरिकेशीय-अध्ययन में भी यज्ञविषयक घटना वर्णित है परन्तु वहाँ पर हरिकेशी को ही प्रधानता देने के कारण 'हरिकेशीय' नाम रखा गया है। २६. सामाचारो-इसमें ५३ गाथाएँ हैं। साध की सामान्य सम्यक् दिन और रात्रिचर्या का वर्णन होने से इसका नाम सामाचारी रखा गया है। २७. खलुङ कीय-खलुङ्कीय का अर्थ है-दुष्ट बैल। इसमें दुष्ट बैल के दृष्टान्त द्वारा अविनीत शिष्यों की क्रियाओं का वर्णन है अतः इसका नाम खलुङकीय रखा गया है। अविनीत शिष्यों का संपर्क होने पर साधु के कर्त्तव्यों को भी बतलाया गया है। गाथासंख्या १७ है। २८. मोक्षमार्गगति-इसमें ३६ गाथाएँ हैं। मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) का वर्णन होने से इसका नाम मोक्षमार्गगति है। २६. सम्यक्त्व-पराक्रम-इसमें ज्ञान, श्रद्धा (दर्शन) और सदाचार के विभिन्न अंशों को लेकर ७३ प्रश्नोत्तरों में आध्यात्मिक १. अट्ठपवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य । -उ० २४.१. एयाओ अट्ठ समिईओ समायेण वियाहिया । -उ० २४.३. For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [२३ विकास का वर्णन किया गया है। यह पूरा अध्ययन गद्य में है। दूसरे और सोलहवें अध्ययन की तरह 'सुयं मे आउसं तेण भगवया' आदि गद्यांश अध्ययन के प्रारम्भ में पुनरावृत्त है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सम्यक्त्व-रूप होने से इसका नाम 'सम्यक्त्व-पराक्रम' रखा गया है। समवायांग में इसका नाम 'अप्रमाद' है। परन्तु प्रकृतग्रन्थ में इस अध्ययन का नाम स्पष्ट रूप से सम्यक्त्व-पराक्रम ही मिलता है।' इससे प्रतीत होता है कि संभवतः यह अध्ययन लुप्त हो गया हो जो बाद में गद्य-खण्ड में लिखा गया हो। इसमें वर्णित ७३ प्रश्नोत्तरों का वर्णन न्यूनाधिकरूप से भगवतीसूत्र ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) में भी मिलता है । ३०. तपोमार्ग-इसमें तपश्चर्या का वर्णन होने से इसका नाम तपोमार्ग है । इसमें ३७ गाथाएँ हैं । ३१. चरणविधि-इसमें १-३३ की संख्या को माध्यम बनाकर क्रमशः साधु के चारित्र और ज्ञान से सम्बन्धित कुछ सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। प्रथम गाथा में चारित्र की विधि के वर्णन की प्रतिज्ञा होने से इसका नाम 'चरणविधि' रखा गया है । समवायांग और स्थानांगसूत्र में भी इसी प्रकार संख्या-गणना द्वारा जैन-सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है। उत्तराध्ययन में मात्र सिद्धान्तों का संकेत है जबकि समवायांग आदि में विस्तृत वर्णन । इसकी २१ गाथाओं में से ७-२० के अन्तिम दो चरण ज्यों के त्यों पुनरावृत्त हैं। तीसरे से छठे पद्य में तीसरे चरण की मात्र क्रिया में परिवर्तन है, शेष अन्तिम दो चरण पूर्ववत् पुनरावृत्त हैं । - ३२. प्रमादस्थानीय-इन्द्रियों की राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति को प्रमादस्थानीय मानकर इस अध्ययन का नाम प्रमादस्थानीय रखा गया है। इसमें १११ गाथाएँ हैं। इसकी २१वीं गाथा में वर्णित १. इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेण भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइए जं सम्म "। -उ० २६ का प्रारम्भिक तथा ७४ वां गद्यांश । २. से० बु० इ०, भाग-४५, पृ० ८०. For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] . उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . विषय' का ही आगे की गाथाओं में विस्तार हुआ है। इसमें मनोज्ञामनोज्ञ विषयों की ओर प्रवृत्त इन्द्रियों की वृत्ति को हटाने का मुख्यरूप से उपदेश दिया गया है। ३३. कर्मप्रकृति-इसमें २५ गाथाएँ हैं। कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं (प्रकृतियों) का वर्णन होने से इसका नाम कर्मप्रकृति रखा गया है। ३४. लेश्या-इसमें ६१ गाथाएँ हैं। कर्मों की स्थिति में विशेषरूप से सहायक लेश्याओं का वर्णन होने से इसका नाम लेश्या-अध्ययन है। ३५. अनगार-अनगार का अर्थ है- गृहत्यागी साधु । इसकी २१ गाथाओं में साधु के गुणों का वर्णन है अतः इसका नाम 'अनागार' रखा गया है। ३६. जीवाजीवविभक्ति-इसमें चेतन (जीव) और अचेतन (अजीव) का सविस्तार वर्णन होने से इसका नाम जीवाजीवविभक्ति रखा गया है। इसमें २६६ गाथाएँ हैं और यह सबसे बड़ा अध्यय। है। अध्ययन के अन्त में समाधिमरण (सल्लेखना) का भी वर्णन है। इसकी अन्तिम गाथा में उत्तराध्ययन को भगवान महावीर का अन्तिम उपदेश कहा है और ग्रन्थ के अध्ययनों की ३६ संख्या का संकेत किया है। इस तरह इन अध्ययनों में मुख्यरूप से संसार की असारता तथा साध के आचार का वर्णन किया गया है। यद्यपि उत्तराध्ययन का धर्मकथानुयोग में परिगणन किया गया है। परन्तु इस में आचार का प्रतिपादन होने से चरणानयोग का और दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन होने से द्रव्यानुयोग का भी मिश्रण १. जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाई। न यामणुन्नेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ -उ० ३२. २१. २. अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः। 2 -उ० चूणि, पृ० १. . For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [ २५ हो गया है। उत्तराध्ययन के इन ३६ अव्ययनों में से कुछ अध्ययन शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का, कुछ धम्मपद की तरह उपदेशात्मक साधु के आचार एवं नीति का और कुछ कथा एवं संवाद के द्वारा साधु के आचार का ही प्रतिपादन करते हैं। मोटेरूप से निम्न विभाजन संभव है : (अ) शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक अध्ययन-२४वाँ समितीय, २६वां सामाचारी, २८वाँ मोक्षमार्गगति, २६वाँ सम्यक्त्व-पराक्रम, ३०वाँ तपोमार्ग, ३१वां चरणविधि, ३३वाँ कर्मप्रकृति, ३४वाँ लेश्या और ३६वाँ जीवाजीवविभक्ति। इनके अतिरिक्त दूसरे और सोलहवें अध्ययन का गद्य-भाग। .(ब) नीति एवं उपदेशप्रधान अध्ययन-१ला विनय, २रा . परीषह, ३रा चतुरङ्गीय, ४था असंस्कृत, ५वाँ अकाममरण, ६ठा क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय, ७वाँ एलय, दवाँ कापिलीय, १०वा द्रुम-पत्रक, ११वाँ बहुश्रुतपूजा, १५वाँ सभिक्षु, १६वाँ ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान का पद्यभाग, १७वाँ पापश्रमणीय, २७वाँ खलुङ्कीय, ३२वाँ प्रमादस्थानीय और ३५वाँ अनगार । (स) आख्यानात्मक अध्ययन -हवाँ नमिप्रव्रज्या, १२वाँ हरिकेशीय, १३वाँ चित्तसंभूतीय, १४वाँ इषुकारीय, १८ वाँ संजय (संयतीय), १९वाँ मृगापुत्रीय, २०वाँ महानिर्ग्रन्थीय, २१वाँ समुद्रपालीय, २२वाँ रथनेमीय, २३वाँ केशिगौतमीय और २५ वाँ यज्ञीय। इस तरह ऊपर जिन अध्ययनों का विभाजन किया गया है वह .. प्रधानता की दृष्टि से है।' अन्यथा इस प्रकार का विभाजन १. डा० नेमिचन्द्र ने अपने प्राकृत भाषा और साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास (पृ० १९३) में यज्ञीय-अध्ययन को इस विभाग में नहीं गिनाया है और कापिलीय को इस विभाग में गिनाया है। उत्तराध्ययन की टीकाओं में कपिल-ऋषि की कथा मिलती है जिसकी पुष्टि उत्तराध्ययन के कुछ पद्यों से होती है। इस अध्ययन में आख्यान की उतनी प्रधानता नहीं है जितनी उपदेश की प्रधानता है। क्योंकि इस अध्ययन के प्रथम पद्य For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन संभव नहीं है क्योंकि प्रायः सभी अध्ययनों में सैद्धान्तिक चर्चा आदि का सम्मिश्रण है । उपर्युक्त जिन अध्ययनों की गाथा - संख्याएँ दी गई हैं वे आत्मारामजी के संस्करण के आधार पर दी गई हैं । वहअन्यत्रकहीं-कहीं २-३ संख्याओं का अन्तर पाया जाता है । परन्तु कोई खास महत्त्वपूर्ण नहीं है । इन अध्ययनों में आपस में यद्यपि कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है परन्तु कुछ टीकाकारों ने उनमें सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की है । रचयिता एवं रचनाकाल : उत्तराध्ययन सूत्र किसी एक व्यक्ति के द्वारा किसी एक काल में लिखी गई रचना नहीं है अपितु यह एक संकलन -ग्रन्थ है । शुद्ध में दुर्गति में न ले जानेवाले कर्म के विषय में कोई प्रश्न पूछता है तो कपिल ऋषि उसका उत्तर देते हैं, ऐसा अंतिम गाथा से सूचित होता है । यह संभव है कि उन्होंने जो उपदेश दिया है वह उनके जीवन से सम्ब न्धित हो और टीकाकारों ने उसे अपना लिया हो । अथवा इसका पूर्वरूप अन्य रहा हो । शार्पेन्टियर ने भी अपनी उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ० ४४ में उपर्युक्त तथ्य को ही स्वीकार किया है । सम्यक्त्व - पराक्रम में यद्यपि प्रश्नोत्तर-शैली है परन्तु वह शुद्ध सैद्धान्तिक व वर्णनात्मक ही है। एलक-अध्ययन में बकरे के दृष्टान्त की प्रमुखता होने से उसे आख्यानात्मक कहा जा सकता है । परन्तु वास्तव में वहाँ प्रधानता नीति एवं उपदेश की ही है । जहाँ तक यज्ञीयअध्ययन का प्रश्न है, उसमें स्पष्टरूप से दो ब्राह्मणों का संवाद है । अत: उसे आख्यानात्मक विभाग में रखना ही उचित है। आचार्य तुलसी (उत्तरज्झयणाणि, भाग -१, भूमिका, पृ०१ ) ने उत्तराध्ययन के अध्ययनों का विभाजन इस प्रकार किया है : १. धर्मकथात्मक १४ अध्ययन हैं - ७ से ६, १२ से १४, १८ से २३, २५, २७. २. उपदेशात्मक ६ अध्ययन हैं - १, ३ से ६, १०. ३. आचारात्मक & अध्ययन हैं - २, ११, १५ से १७, २४, २६, ३२, ३५. ४. सैद्धान्तिक ७ अध्ययन हैं- २५ से ३१, ३३-३४, ३६. For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [ २७ सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करनेवाले अध्ययन तथा गद्यभाग कुछ बाद के प्रतीत होते हैं। शेष भाग अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन है। इनमें भी समय-समय पर संशोधन एवं परिवर्तन होते रहे हैं। आगमों के संकलन के लिए श्वेताम्बर-परम्परा के . अनुसार . होनेवाली तीन वाचनाओं (सम्मेलनों)' से इस बात की पुष्टि हो जाती है। - भगवान् महावीर के निर्वाण (ई० पू० ५२७) के लगभग १६० वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मगध में भयंकर अकाल (दुर्भिक्ष) पड़ा जिससे बहत से साधु भद्रबाह के नेतृत्व में समुद्र तट की ओर चले गये । जो बाकी बचे वे स्थूलभद्र (स्वर्गगमन वी०नि० सं० २१६) के साथ वहीं रहे। अकाल के दूर होने पर स्थूलभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में जैन-साधुओं का एक सम्मेलन हुआ और मौखिक चले आ रहे अंग-ग्रन्थों का संकलन किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद भद्रबाहु को छोड़कर किसी को याद नहीं था। अतः उसका बाद में संकलन नहीं हो सका और शनैः-शनैः वह लुप्त हो गया। इसके बाद (महावीर-निर्वाण के ८२७ या ८४० वर्ष बाद, ई० सन् ३००-३१३) आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में दूसरा सम्मेलन मथुरा में बुलाया गया । इस सम्मेलन में जिसे जो याद था उसे संकलित कर लिया गया। करीब इसी समय नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में वलभी (सौराष्ट्र) में एक दूसरा सम्मेलन हुआ। इसके बाद दोनों नेता आपस में मिल नहीं सके जिससे पाठभेद बना रह गया। महावीर-निर्वाण के लगभग ९८०-६६३ वर्ष पश्चात वलभी में ही देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में एक तीसरा सम्मेलन हुआ। .१. प्रा० सा० इ०, पृ० ३६-३६. बौद्ध साहित्य में भी इसी प्रकार की तीन संगीतियों का उल्लेख मिलता है जिनमें ग्रन्थों को सुदृढ़ किया गया था। अन्तिम बौद्ध-संगीति बुद्धपरिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद अशोक के राज्यकाल में हुई थी। जनों की अंतिम वाचना बहुत बाद (वी० नि०६८०-६६३) में हुई। जनों के सम्मेलन की तरह बौद्ध-संगीतियों का कारण दुभिक्ष नहीं था। -देखिए-बुद्धचर्या, पृ० ५४८-५८०. For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इसे चौथा सम्मेलन भी कह सकते हैं । इस सम्मेलन में आगमों को संकलित करके लिपिबद्ध कर दिया गया। वर्तमान में उपलब्ध सभी आगम-ग्रन्थ इसी वाचना में लिपिबद्ध किए गए थे।' इससे स्पष्ट है कि अकाल आदि के पड़ने से तथा मौखिकपरम्परा से चले आने के कारण स्वाभाविक है कि आगमों में समयसमय पर (विस्मृति के कारण) परिवर्तन और संशोधन किए गए हों तथा सम्मेलन बुलाकर उन्हें सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया गया हो। इस तरह ई० पू० ५ वीं शताब्दी से लेकर ई० ५ वीं शताब्दी तक (१००० वर्ष के मध्य ) उनमें अनेक संशोधन एवं परिवर्तन होते रहे जिससे जैन आगम-ग्रन्थ अपने पूर्ण मूलरूप में सुरक्षित न रह सके। फिर उत्तराध्ययन में ऐसा न हुआ हो, यह सम्भव नहीं है। देवधिगणि की अध्यक्षता में लिपिबद्ध समवायांग में उत्तराध्ययन के अध्ययनों के नाम भिन्न प्रकार से आने के कारण यह स्पष्ट है कि वर्तमान उत्तराध्ययन में देवधिगणि की वाचना के बाद भी कुछ संशोधन अवश्य हुए हैं। पाठभेद, विषय की पुनरावृत्ति आदि कुछ ऐसे सामान्य तत्त्व हैं जिनसे इसके संशोधन एवं परिवर्तन की पुष्टि होती है । इन परिवर्तनों के होने पर भी उत्तराध्ययन की मूलरूपता अधिक नष्ट नहीं हुई है। अब यहाँ कुछ तथ्यों को लेकर इसके प्राचीन-रूप और अर्वाचीन-रूप का विचार किया जाएगा : उत्तराध्ययन पर मिलनेवाले टीका-साहित्य में सर्वप्रथम आचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति मिलती है। इनका समय वि० सं० ५००-६०० के बीच सिद्ध होता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि इस समय से पूर्व उत्तराध्ययन अपनी १. दिगम्बर-परम्परा इस प्रकार की वाचनाओं को प्रामाणिक नहीं मानती है। उसके अनुसार महावीर-निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञान की परम्परा रही है। किन्तु उसे संकलित करने या लिपिबद्ध करने का कोई सामूहिक प्रयत्न नहीं किया गया । -देखिए-जै० सा० इ० पू०, पृ० ५२८. २. श्रमण, सितम्बर-१९५४, पृ० १५. For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [ २६ पूर्ण-स्थिति में आ चुका था। दिगम्बर-परम्परा में भी इसका सादर उल्लेख मिलने से स्पष्ट है कि संघभेद होने के पूर्व यह मान्यता प्राप्त कर चुका था। अन्यथा इसका वहाँ उल्लेख न मिलता। किंच, दशवैकालिक की रचना में उत्तराध्ययन के अंशों का आधार होने से तथा दशवकालिक की रचना हो जाने पर उत्तराध्ययन का दशवैकालिक के बाद पढ़े जाने का उल्लेख होने से' दशवैकालिक की रचना के पूर्व इसकी रचना होनी चाहिए। दशवैकालिक के कर्ता शय्यंभवसूरि का काल महावीर-निर्वाण के ७५ वर्ष बाद माना जाता है। उत्तराध्ययन की अन्तिम गाथा तथा अन्यत्र भी उल्लिखित इसी प्रकार के प्रमाणों से प्रतीत होता है कि इसके उपदेष्टा साक्षात् महावीर हैं जिन्होंने अपने निर्वाण-प्राप्ति के अन्तिम समय में बिना पूछे प्रश्नों के उत्तर के रूप में उपदेश दिया था और इसके बाद परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये थे। संभवतः इसीलिए शान्टियर उत्तराध्ययन की भूमिका में इसे महावीर के वचन स्वीकार करते हैं । · ईस तरह उत्तराध्ययन की प्राचीनता महावीर के निर्वाणकाल तक पहुँच जाती है। परन्तु इसके विपरीत भी उल्लेख मिलते हैं। जैसे-समवायांग-सूत्र के ५५वें समवाय में ५५ पुण्यफलविपाक और ५५ पापफलविपाक के अध्ययनों का कथन करने के उपरान्त १. देखिए-पृ० १४, पा० टि० १. २. देखिए-पृ०१२, पा० टि० १. ३. षट्त्रिंशत्तमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरूरभावयत् ॥ -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०. १३. २२४. तेणं कालेणं......पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाण फलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं छत्तीसं अपुढवागरणाइं वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयणं...परिनिव्वुडे सव्वदुक्खपहीणे -कल्पसूत्र, ११ वी वाचना। .... उत्तराध्ययनं वीरनिर्वाणगमनं तथा -हरिवंशपुराण, १०. १३४. For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन - महावीर का परिनिर्वाण बतलाया गया है। परन्तु ३६वें समवाय में, जहाँ पर उत्तराध्ययन के अध्ययनों के नाम गिनाये हैं, ऐसा कोई उल्लेख नहीं है ।२ इसके अतिरिक्त कल्पसूत्र में उल्लिखित पाठ से प्रतीत होता है कि भगवान् ने अपने परिनिर्वाण के समय ५५ पुण्यफल विपाक का और ५५ पापफल विपाक का कथन करने के उपरान्त बिना पूछे हुए ३६ अध्ययनों का भी कथन किया था। कल्पसूत्र के इस उल्लेख से ग्रन्थ में उल्लिखित कारिका (३६.२६९). और समवायांग से समन्वय हो जाता है। ग्रन्थ में एक स्थान पर और इसी प्रकार की गाथा है जहाँ पर क्षत्रिय-ऋषि संजय मुनि से कहते हैं कि विद्या और चारित्र से युक्त सत्यवादी-सत्यपराक्रमी ज्ञातपुत्र भगवान महावीर इस तत्त्व को प्रकट करके परिनिर्वाण को प्राप्त हो गए। इन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन में महावीर का अन्तिम उपदेश है। अब यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि ऐसा स्वीकार करने पर नियुक्ति और उसके आधार पर लिखी गई जिनदासगणि महत्तर की चूर्णि और वादिवेताल शान्तिसूरि की टीका का यह कथन कि उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन अंगग्रन्थों से (जैसे-दृष्टिवाद से परीषह) लिए गए हैं, कुछ जिन-भाषित (जैसे-द्रुमपत्रक) हैं, कुछ प्रत्येक-बुद्धों (जैसे-कापिलीय) द्वारा प्ररूपित हैं और कुछ १. समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरिता सिद्ध जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । २. छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता तं जहा......। -समवा०३६वां समवाय । ३. देखिए-पृ० २६, पा० टि० ३. ४. इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिणिन्वुए । विज्जाचरणसंपन्ने सच्चे सच्चपरक्कमे । -उ० १८. २४. For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [३१ -संवादरूप में (जैसे-केशिगौतमीय) कहे गये हैं,' कैसे संगत होगा ? संभवतः नियुक्तिकार का उपर्युक्त कथन 'उत्तराध्ययन एककर्तृक नहीं हैं', की अपेक्षा से ही है। अतः नियुक्तिकार ३६वें अध्ययन की अन्तिम गाथा की नियुक्ति में उत्तराध्ययन का महत्त्व बतलाते हुए स्पष्ट रूप से इसे जिन-प्रणीत लिखते हैं। इस तरह उत्तराध्ययन के रचनाकाल की अवधि महावीर-निर्वाण के काल तक पहुँच जाती है। - उत्तरकाल की ओर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि इसमें कुछ अंश बाद में जोड़े गये हैं जो लगभग तृतीय-वलभी-वाचना तक के अवश्य हैं। दिगम्बर ग्रन्थों में उत्तराध्ययन का जो विषय बतलाया गया है उससे दूसरे परीषह अध्ययन को छोड़कर शेष अधिकांश भाग संघभेद के बाद का प्रतीत होता है। इससे कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन अपने अपरिवर्तित रूप में नहीं १. अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेय बुद्धसंवाया। 'बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ -उ० नि०, गाथा ४; इसी नियुक्ति पर शान्तिसूरि की टीका, पृ० ५ ; उ० चूर्णि, पृ० ७... २. चउविहोवसग्गाणं बावीसपरिस्सहाणं च सहणविहाणं । सहणफलमेदम्हादो एदमुत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वणेदि । -कसायपाहुड-जयधवलाटीका, भाग-१, पृ० १२०. उत्तरज्झयणं उग्गमुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादिविसे सिदं परूवेदि। -षटखण्डागम, पुस्तक ६, पृ० १६०. उत्तराणि अहिज्जति उत्तरज्झयणं पदं जिणिदेहिं । बावीसपरीसहाणं उवसग्गाणं च सहणविहिं । वण्णेदि तप्फलमवि एवं पण्हे च उत्तरं एवं । कहदि गुरुसीसयाण पइण्णिय अट्ठमं तं खु । -अंगपण्णत्ति-चूलिका गाथा, २५-२६, उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ । -धवला (षट्खण्डागम-टीका), पृ० ६७ (सहारनपुर-प्रति, लिखित). . For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन रहा । भगवती आराधना पर लिखी गई अपराजितसूरि की संस्कृतटीका से उत्तराध्ययन के दो पद्य उद्धृत करते हुए पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अपने जैन साहित्य के इतिहास में लिखा है कि वर्तमान उत्तराध्ययन में ये पद्य' नहीं मिलते हैं । अतः उत्तराध्ययन में वलभी - वाचना के बाद भी परिवर्तन हुआ है । इतना होने पर भी मूलरूपता का अधिक अभाव नहीं हुआ है क्योंकि वर्तमान उत्तराध्ययन में वे दोनों पद्य सामान्य परिवर्तन के साथ अब भी मौजूद हैं। जब हम उत्तराध्ययन के अन्तःभाग का अवलोकन करते हैं तो देखते हैं कि इसमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनके आधार पर कुछ अंशों को महावीर - निर्वाण के बहुत बाद की रचना कहा जा सकता है | जैसे : १. अंग-ग्रन्थों में ग्यारह अंगों से पृथक् दृष्टिवाद का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि उस समय तक दृष्टिवाद का लोप हो चुका था । दृष्टिवाद के महत्त्व को प्रकट करने के लिए ऐसा कथन किया गया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि आचाराङ्ग का महत्त्व सर्वाधिक माना गया है । इसके अतिरिक्त ३१ वें अध्ययन में जहाँ पर कि साधु को कुछ ग्रन्थों के अध्ययन में यत्नवान् होने को कहा गया है उनमें दृष्टिवाद का समावेश क्यों नहीं किया गया है ? १. परचित्ते वत्थे ण पुणो चेलमादिए । अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सलग सुखी भवदि असुखी वावि अचेलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चितए । ( उद्धृत - भगवती आराधना - जै० सा० इ० पू० पृ० ५२५-५२७.) २. तुलना कीजिए परजुहि वत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए । अदुवा सचेले होक्खामि इ इ भिक्खू न चितए || गयाचे लए होइ सचेले आवि एगया । एयं धम्मं हियं नच्चा नाणी तो परिदेवए || - उ० २.१२-१३. ३. देखिए - पृ० ३, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ३३ २. सूत्ररुचि - सम्यग्दर्शन के लक्षण में अंग और अंगबाह्य ग्रन्थों IT तथा अभिगम - रुचि सम्यग्दर्शन के लक्षण में 'प्रकीर्णक' ग्रन्थों का उल्लेख आया है।' इससे स्पष्ट है कि उस समय तक अंग, अंगबाह्य और प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना अवश्य हो चुकी होगी । ३. चरणविधि नामक ३१ वें अध्ययन में साधु को सूत्रकृताङ्ग, ज्ञाता -सूत्र और प्रकल्प ( आचाराङ्ग - निशीथसहित ) इन अंग-ग्रन्थों तथा दशादि ( दशाश्रुत, कल्प और व्यवहार) अंगबाह्य ग्रन्थों के अध्ययन में यत्नवान् होने का विधान किया गया है। इससे स्पष्ट है तब तक ये ग्रन्थ अपने महत्त्व के कारण प्रसिद्ध हो चुके थे । अन्यथा इनके विषय में साधु को यत्नवान् होने का उल्लेख न किया जाता । ४ ग्रन्थ में बहुत्र 'ऐसा भगवान् ने कहा है', 'कपिल ऋषि ने ऐसा कहा है '' आदिरूप से ग्रन्थोक्त वचनों की प्रामाणिकता का प्रतिपादन करने से यह तो स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ साक्षात् महावीरप्रणीत नहीं है अपितु अर्थत: महावीर प्रणीत है और शब्द किसी अन्य व्यक्ति के हैं । इसका और अधिक स्पष्ट उल्लेख १०वें अध्ययन की अन्तिम गाथा ( बुद्धस्स निसम्म भासिय, सुकहियमट्टपओवसोहियं) में मिलता है । इसके अतिरिक्त अंगग्रन्थों का महावीर के प्रधान शिष्यों द्वारा और अंगबाह्य का तदुत्तरवर्ती शिष्यों द्वारा प्रणयन माना जाने से भी सिद्ध है कि उत्तराध्ययन शब्दतः महावीर - प्रणीत न होकर उनके शिष्यों द्वारा रचित रचना है । ५. केशिगौतम-संवाद के सचेलकत्व ( सान्तरोत्तर ) और अचेलकत्वविषयक संवाद से संघभेद का स्पष्ट संकेत मिलता है । १. वही । २. उ० ३१.१३-१४, १६-१८. विशेष के लिए देखिए - परिशिष्ट ३. ३. देखिए - पृ० १८, पा० टि० १; पृ० २३, पा० टि० १; उ० दूसरे एवं १६ वें अध्ययन का प्रारम्भिक गद्य । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ६. द्रव्य, गुण, पर्याय आदि सैद्धान्तिक विषयों की इतनी संक्षिप्त एवं परिमार्जित परिभाषाएँ' यह सिद्ध करती हैं कि इनका प्रणयन दार्शनिक क्रान्ति के काल में हुआ है क्योंकि आगमों में इस प्रकार की संक्षिप्त परिभाषाएँ उपलब्ध न होकर प्रायः विवरणात्मक अर्थ ही मिलते हैं। ७. उत्तराध्ययन का प्रायः बहुवचनात्मक प्रयोग मिलने से ज्ञात होता है कि यह एककर्तृक न होकर अनेक अध्ययनों का संकलन है। इन सभी तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान उत्तराध्ययन किसी एक काल की एवं किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है अपितु एक संकलन-ग्रन्थ है जिसका प्रणयन किसी निश्चितकाल में न होकर विभिन्न समयों में हुआ है। इसमें पाए जानेवाले परिवर्तन एवं संशोधन आदि महावीरनिर्वाण के काल से लेकर तृतीय-वलभी-वाचना के समय (महावीरनिर्वाण से लेकर करीब १००० वर्ष-ई० पू० ५ वीं शताब्दी से ई० सन् ५ वीं शताब्दी) तक के अथवा इसके भी कुछ समय बाद तक के प्रतीत होते हैं। क्योंकि तृतीय-वाचना के समय लिपिबद्ध किए गए समवायांग-सूत्र में उत्तराध्ययन के जिन ३६ १. गुणाणमासवो दव्वं एग दवस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।। -उ० २७. ६.. तथा देखिए-प्रकरण १, धर्मादि द्रव्यों की परिभाषा । २. ऐतेसि चेव छत्तीसाए उत्तरज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झ यणभावसुतक्खंधेति लब्भइ, ताणि पुण छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि इमेहि नामेहिं अणुगंतव्वाणि । -उ० चूणि, पृ० ८. तथा देखिए-पृ० १२, पा० टि० १; पृ० ३१, पा० टि० १; पृ० ३६, पा० टि० १; नंदी, सूत्र ४३; उ० बृहवृत्ति, पत्र ५; समवा०, समवाय ३६. For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ३५ अध्ययनों के नामों का उल्लेख मिलता है उनसे वर्तमान में उपलब्ध उत्तराध्ययन के नामों में कुछ वैषम्य है । यह वैषम्य यद्यपि नगण्य है फिर भी इससे उसके परिवर्तन व संशोधन की स्पष्ट प्रतीति होती है। नियुक्तिकार ( ६ ठी शताब्दी ) प्रकृत ग्रन्थ को एककर्तृक स्वीकार न करते हुए भी उत्तराध्ययन की अन्तिम गाथा के व्याख्यान में इसे भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के समय का उपदेश बतलाते हैं । वास्तव में नियुक्तिकार का उपर्युक्त कथन प्रकृत पद्य का व्याख्यान मात्र है। संभव है, यह पद्य उत्तराध्ययन के महत्त्व को प्रकट करने के लिए बाद में जोड़ दिया गया हो और नियुक्तिकार ने पूर्व - परम्परा का निर्वाह किया हो । छत्तीसवें अध्ययन की अन्त की कुछ गाथाओं को देखने से तथा अठारहवें अध्ययन की चौबीसवीं गाथा के साथ छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिमगाथा की तुलना करने से उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है । १ बृहद्वृत्तिकार शान्त्याचार्य भी उत्तराध्ययन को भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के समय का अन्तिम उपदेश मानने को पूर्णतः तैयार नहीं हैं । अतः उन्होंने 'परिनिव्वुए ' शब्द का अर्थ स्वस्थीभूत' किया है। १. इद्द पाउकरे बुद्धे नायए परिणिव्वए । विज्जाचरण संपत्रे सच्चे सच्चपरक्कमे || - उ० १८. २४. इस उद्धरण का पृ० १२, पा० टि० १ से मिलान कीजिए । २. अथवा पाउकरे, त्ति प्रादुरकार्षीत् प्रकाशितवान् शेषं पूर्ववत् नवरं 'परिनिर्वृतः क्रोधादिदहनोपशमतः समन्तात्स्वस्थीभूतः । बृहद्वृत्ति, पत्र ७१२. -उ०. , इत्येवं रूपं 'पाउकरे' त्ति प्रादुरकार्षीत् - प्रकटितवान् " 'परिनिवृतः ' कषायानल विध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतः । - उ० बृहद्वृत्ति, पत्र ४४४. For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नियुक्तिकार ने ग्रन्थ की प्रशंसा में उत्तराध्ययन को जो जिनप्रणीत कहा है। उसका तात्पर्य शब्दत: जिन-प्रणीतता से नहीं है अपितु अर्थतः जिन-प्रणीतता से है। अर्थ की अपेक्षा से सभी मान्य ग्रन्थ जिन-प्रणीत ही हैं अन्यथा उनमें प्रामाण्य ही न रहेगा। उत्तराध्ययन के अंगबाह्य-ग्रन्थ होने से भी स्पष्ट है कि इसकी रचना न तो भगवान् महावीर ने की और न उनके प्रधान शिष्यों ( गणधरों) ने; अपितु तदुत्तरवर्ती श्रुतज्ञों ने की है। इसीलिए बृहदवत्तिकार 'जिन' शब्द का अर्थ 'श्रुतजिन' या. 'श्रुतकेवली' करते हैं। इस विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन शब्दतः भगवान् महावीर-प्रणीत नहीं है । इसके अतिरिक्त इसका प्रारम्भिक रूप दशवैकालिक की रचना (वी० नि० १ ली शताब्दी, ई. पू. ४५२-४२६) के पूर्व निर्धारित हो चुका था क्योंकि दशवकालिक की रचना हो जाने के बाद उत्तराध्ययन की अध्ययनपरम्परा का क्रम दूसरे से तीसरा हो गया था ।3 चूणि के एक वैकल्पिक उद्धरण के आधार पर आचार्य तुलसी की यह संभावना कि उत्तराध्ययन का छठा अध्ययन भगवान् पार्श्व द्वारा कथित है,४ उचित प्रतीत नहीं होती है। १. जे किर भवसिद्धीया परित्तसंसारिया य जे भव्वा । ते किर पढंति एए छत्तीसं उत्तरज्झाए॥ . तम्हा जिणपण्णत्ते, अणंतगम-पज्जवेहि संजुत्ते । अज्झाए जहजोगं, गुरुप्पसाया अहिज्जिज्जा । -उ०, ने० ३०, पृ० ३६१. २. तस्माज्जिनः श्रुतजिनादिभिः प्ररूपिताः । -उ० बृहद्वृत्ति, पत्र ७१३. ३. देखिए-पृ० १४, पा० टि० १. ४. केचिदन्यथा पठन्ति एवं से उदाहु अरहा पासे पुरिसादाणीए । भगवंते वेसालीए बुद्धे परिणुव्वुडे । -उ० चूर्णि, पृ० १५७. तथा देखिए-द० उ०, भूमिका, पृ० २४, २६. For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ३७ इस तरह उत्तराध्ययन की रचना का आदिकाल वी० नि० की १ ली शताब्दी का प्रारम्भिक काल निश्चित होता है । उत्तराध्ययन में देवधिगणि की वाचना के समय ( वी० नि० ६८०-६६३) तक के तथा इससे भी कुछ समय बाद तक के परिवर्तन उपलब्ध होने से इसका अन्तिम रूप वी० नि० के १००० वर्ष बाद तक का है । इसके संवाद, कथा एवं उपदेश - प्रधान अध्ययनों का प्रणयन सैद्धान्तिक अध्ययनों की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होता है । " इन सभी बातों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उपलब्ध उत्तराध्ययन में भगवान् महावीर के निर्वाण से लेकर करीब १००० वर्ष तक की कुछ न कुछ विचारधारां मौजूद है | अतः उत्तराध्ययन किसी एक व्यक्ति की किसी एक कालविशेषं की रचना न होकर विभिन्न समयों में संकलित किया गया एक संकलन-ग्रन्थ है । शार्पेन्टियर, विन्टरनित्स आदि सभी विद्वान् प्रायः इसी मत से सहमत हैं । उत्तराध्ययन सूत्र : यह नाम क्यों : उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्द हैं - उत्तर + अध्ययन + सूत्र | उत्तर शब्द के तीन अर्थ संभव हैं - १. प्रधान, २. जबाब १. तथा, ऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनानि तेषु च नमि- कपिलादिमहर्षीणां सम्बन्धीनि प्रायो धर्माख्यानकान्येव कथ्यन्त इति धर्मकथानुयोग एव तत्र व्यवस्थापितः । - विशेषावश्यकभाष्य ( गाथा २२९४ ) - मलधारी - टीका, पृ० ३१. २. देखिए - पृ० ४४, पा० टि० १; पृ० ४५, पा० टि० १. ३. नियुक्तिकार भी उत्तर शब्द के संभाव्य अर्थों को सूचित करते हुए लिखते हैं जहणं सुत्तरं खलु उक्कोसं वा अणुत्तरं होई । सेसाई उत्तराई अणुत्तराई च नेयाणि || For Personal & Private Use Only - उ० नि०, गाथा २. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] __ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन और ३. पश्चाद्भावी। यद्यपि अध्ययन शब्द का अर्थ पढ़ना होता है परन्तु यहाँ पर अध्ययन शब्द परिच्छेद (प्रकरण या अध्याय) के अर्थ में प्रयुक्त है। नियुक्तिकार और चर्णिकार ने इसका कुछ विशेष अर्थ भी किया है। परन्तु तात्पर्य परिच्छेद से ही है क्योंकि ग्रन्थ में प्रत्येक परिच्छेद के लिए 'अध्ययन' शब्द का प्रयोग हुआ है । सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है-जिसमें शब्द तो कम हों और अर्थ विपुल हो । जैसे-तत्त्वार्थसूत्र, पातञ्जल-योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि। उत्तराध्ययन में इस प्रकार की सूत्ररूपता नहीं है अपितु इसके विपरीत शब्दों का विस्तार ही अधिक हआ है। यद्यपि चरणविधि आदि कुछ अध्ययनों के कुछ स्थल ऐसे भी हैं जहाँ पर शब्द कम और अर्थ अधिक है। प्रायः अन्यत्र विषय का विस्तार ही अधिक है। यद्यपि आत्मारामजी ने उत्तराध्ययन की भूमिका में कुछ नियुक्ति की गाथाएँ उद्धृत की हैं तथा सूत्र शब्द की कई प्रकार से व्युत्पत्ति करके उत्तराध्ययन को 'सूत्र-ग्रन्थ' सिद्ध किया है । परन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण यहाँ घटित नहीं होता है। इसका प्राकृत रूप 'सुत्त' है और यह वैदिक सूक्तों (मन्त्रों) की ही तरह 'गाथा' के अर्थ का सूचक है। 'उत्तराध्ययन-सूत्र' शब्द का सामान्य अर्थ यही है। 'उत्तर' शब्द के अर्थ में 'मूलसूत्र' की तरह विद्वानों में कुछ मतभेद है। इसका कारण है -उत्तराध्ययन की रचना के विषय में विभिन्न संकेत । अतः यहाँ 'उत्तर' शब्द का अर्थ विचारणीय है । १. अज्झप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उबचियाणं । अणु वचओ व णवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ।। अहिगम्मति व अत्था अणेण अहियं व णयणमिच्छति । अहियं व साहु गच्छइ तम्हा अज्झणमिच्छति ।। --उ० नि०, गाथा ६-७. तथा देखिए-उ० बृहद्वृत्ति, पृ० ६-७; उ० चूणि, पृ० ७. २. उ० आ० टी०, भूमिका, पृ० १३-२१. For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र नियुक्तिकार ने उत्तर शब्द का अर्थ किया है-जिसका आचाराङ्ग आदि के बाद अध्ययन किया जाय।' इसका अर्थ यह हुआ कि आचाराङ्गादि के बाद पढ़े जाने के कारण इसकी 'उत्तर' संज्ञा हुई है। चूर्णिकार, बृहद्वत्तिकार आदि इसी मत का समर्थन करते हैं। उत्तर शब्द के पूर्व-सापेक्ष होने से तथा उत्तरकाण्ड, उत्तररामचरित आदि में प्रयुक्त 'उत्तर' शब्द का अर्थ पश्चाद्भावी होने से उत्तराध्ययन में प्रयुक्त 'उत्तर' शब्द का अर्थ 'पश्चाभावी' समूचित प्रतीत होता है। इसके अध्ययन उत्तरोतर प्रधान (श्रेष्ठ) हैं इसलिए इसकी उत्तर संज्ञा हई है यह उपलब्ध उत्तराध्ययन के आधार पर नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार 'जबाब' (बिना पूछे प्रश्नों का उत्तर) अर्थ भी उपलब्ध उत्तराध्ययन की अपेक्षा समुचित नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि धवला-टीका आदि दिगम्बर-ग्रन्थों तथा कल्प-सूत्र, त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों में उल्लिखित उत्तराध्ययन के विषय से यह अर्थ कथञ्चित् संगत हो सकता है। परन्तु उपलब्ध उत्तराध्ययन के आधार पर ऐसा कहना संभव नहीं है। उपर्युक्त विवेचन से 'उत्तर' शब्द का अर्थ पश्चाद्भावी ही सिद्ध होता है। यहाँ एक प्रश्न और है कि पश्चाद्भावी से क्या तात्पर्य है ? बाद की रचना या बाद में जिसका अध्ययन किया जाय। मेरा विचार है कि उत्तराध्ययन-नियुक्ति आदि श्वेताम्बर-ग्रन्थों तथा गोम्मटसार-जीवकाण्ड आदि दिगम्बर-ग्रन्थों के आधार से १. कम उत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु । • तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुंति णायव्वा ।। -उ० नि०, गाथा ३. २. उ० नि०, गाथा ३ पर चूणि और बृहद्वृत्ति । तथा देखिए-पृ० १४, पा० टि० १. ३. उत्तर।णि अधीयते पठ्यंते आत्मन्निति उत्तराध्ययनम् । -गो० जी० ( गाथा ३६७ ) जीवप्रबोधिनी संस्कृत-टीका । तथा देखिए-पृ० २६, पा० टि० ३; पृ० ३१, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन बाद में जिसका अध्ययन किया जाय, यही अर्थ उचित प्रतीत होता है । उत्तराध्ययन में प्रयुक्त अध्ययन शब्द से भी यही अर्थं प्रतीत होता है क्योंकि अन्य किसी आगम ग्रन्थ के साथ अध्ययन शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । भाषा-शैली और महत्त्व : भाषा-शैली की दृष्टि से उत्तराध्ययन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भाषाशास्त्रियों की दृष्टि में उत्तराध्ययन की भाषा अत्यन्त प्राचीन है । आचार्य तुलसी ने उत्तराध्ययन की भाषा को महाराष्ट्री से प्रभावित अर्धमागधी कहा है । " भाषा और विषय की प्राचीनता की दृष्टि से समस्त अंग और अंगबाह्य आगम-साहित्य में आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग की भाषा के बाद तीसरे स्थान पर उत्तराध्ययन का नाम गिनाया जाता है । भाषा-शैली की १. द० उ०, भूमिका, पृ० ४२-४३; व्याकरण-विमर्श के लिए देखिए द० उ०, भूमिका, पृ० ३७-३६; उ० समी०, पृ० ४७१-४८८; छन्दो - विमर्श के लिए देखिए - उ० समी०, पृ० ४६३-४७०. 2. The language of this canon is a Prakrit which is known as Arşa ( i. e., “ the language of the Rsis" ) or Ardha - Magadhi (i. e., "half-Magadhi"). Mahāvīra himself is said to have preached in this language. There is however, a difference between the language of prose and that of verses. As was the case with the Pāli verses in the Buddhist Canon, here too, the verses present more archai forms. The most archai language is to be found in the Ayaraṁga--Sutta, and next to this, in the Suyagaḍamga-Sutta and the Uttarajjhayaņa. Ardha-Magadhi is quite different from Jaina Mahārāṣtrī, the dialect of the non-canonical Jaina texts. - हि० इ० लि०, भाग - २, पृ० ४३० ४३१. Four canonical texts, the first three of which are not unimportant even from the literary point of view, are described as Mula - Sutras. - वही, पृ० ४६५-६६. For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [४१ दृष्टि से इसमें साहित्यिक गुण भी मौजूद हैं । इसे केवल नीरस और शुष्क साहित्य नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि ग्रन्थ में बहुत्र पुनरु. क्तियाँ हैं और सैद्धान्तिक अध्ययनों में नीरसता भी है फिर भी अन्य आगम-ग्रन्थों की तुलना में इसकी भाषा-शैली साहित्यिक, सरल, नैसर्गिक, उपदेशात्मक, दृष्टान्त-अलंकारबहुल और सुभाषितात्मक है। इसमें कोई सन्देह नहीं है यदि उत्तराध्ययन में से सैद्धान्तिक (वर्णनात्मक) प्रकरणों को पृथक् कर दिया जाय तो यह विशुद्ध धार्मिक काव्य-ग्रन्थ हो सकता है। उपदेशात्मकता और पूनरुक्तियों के वर्तमान रहने पर भी इसका साहित्यिक महत्त्व घटता नहीं है क्योंकि उपमा, दृष्टान्त आदि अलंकारों के साथ आख्यानों और संवादों के हृदयस्पर्शी प्रयोग से इसमें प्रभावशालिता आ गई है। जैसे: १. उपमा और दृष्टान्त अलंकार'–विषय को सुबोध बनाने के लिए प्रचलित दष्टान्तों का प्रयोग बहत किया गया है। जैसे १. उत्तराध्ययन में प्रयुक्त उपमा और दृष्टान्त अलंकारों की सूची : अध्ययन • गाथा-संख्या अध्ययन गाथा-संख्या संख्या संख्या १. ४. ५, १२, ३७, ३६, ४५. २. ३, १०, १७, २४. - ३. ५.१२.१४. ४. ३, ५-६, ८. ५. ४.१०. १४-१६, २७. ६. १६. ७. १-६, ११, १४-१५, २३, २४. ८. ५-७, ६, १८. ६. ४८. ५३, ६२. १०. १-२, २८, ३३. ११. १५-३१. १२. १२, २६-२७. . १३. २२, ३०-३१. १४. १, १८, २६-३०, ३३-३६, ४१-४८, १७. २०-२१. १८. १३, १५, ३६, ४७-४८, ५२. १६. ३, १२, १४, १८-२४, ३४, ३६-४३, ४८-४६, ५१, ५४, ५६-५८, ६४-६८, ७०, ७८-८४, ८७.८८, ६३, ६७. For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन रात्रि और दिन का अतिक्रमण होने पर वृक्ष का पत्ता जिस प्रकार पीला पड़कर नीचे गिर जाता है उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी ( परिवर्तनशील - नश्वर ) है । अतः हे गौतम! क्षणभर का भी प्रमाद मत कर ।' यहाँ उपदेश भी है और सरल दृष्टान्त के द्वारा विषय को स्पष्ट भी किया गया है। इससे पाठक के हृदय पर अमिट छाप बन जाती है । इसी प्रकार के अन्य उपमा और दृष्टान्त अलंकारों का प्रयोग प्रकृत ग्रन्थ में बहुतायत से हुआ है। २. प्रतीकात्मक रूपक - धर्म की आध्यात्मिक व्याख्या में प्रतीकात्मक रूपकों का प्रयोग किया गया है । जैसे- इन्द्र-नमि संवाद में दीक्षाविषयक, केशि- गौतम संवाद में धर्मभेदविषयक. हरिकेशीय अध्ययन में यज्ञविषयक आदि । इसी प्रकार महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन में अनाथी मुनि अनाथ शब्द की व्याख्या में वक्रोक्ति का प्रयोग करते हैं । २०. ३, २०-२१, ४२, ४४, ४७-४८, ५०, ५८, ६०. २२. २५. २८. ३०. ३४. ७, १०, ३०, ४१, ४४-४७, ५१. १७-१६, २१, २७, ४२-४३. २२. ५-६. २१. ७, १४, १७, १६, २३-२४. १८. २३. २७. १२, ५६. ६, १०-१३, १८, २०, २४, ३४, ३७, ४७, ५०, ६०, ६३, ७३, ७६.८६, ८६, ६६. ४-१६. ३६. ६०-६१. नोट – इनमें से कुछ दृष्टान्त सामान्य हैं और कुछ प्रकारान्तर से भी आए हैं । ८, १३-१४, १६. २६. ३२. १. दुम पत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाणजीवियं समयं गोयम मा पमायए ।। For Personal & Private Use Only - उ० १०. १. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [४३ • ३. सुभाषित'-धर्म-प्रधान ग्रन्थ होने से इसमें स्वाभाविकरूप से सुभाषितों का प्रयोग हुआ है। उपमा और प्रतीकात्मक-रूपक अलंकारों के प्रयोग में सुभाषितों की झलक अधिक मिलती है। .. ४. पुनरुक्ति-लोगों की प्रवृत्ति विषय-भोगों के प्रति अधिक होने से तथा धर्म के प्रचार का प्रारम्भिक काल होने से प्रतिपाद्य विषय के स्पष्टीकरण में पुनरुक्ति का होना स्वाभाविक है। कहीं एक चरण में, कहीं दो चरणों में, कहीं तीन चरणों में तथा कहीं-कहीं सम्पूर्ण गाथा ज्यों की त्यों पुनरुक्त है।२ शब्द और अर्थ की यह पुनरुक्ति दोषजनक नहीं है क्योंकि विषय के स्पष्टीकरण के लिए इस प्रकार की शैली का प्रयोग वेदों और बौद्ध त्रिपिटक-ग्रन्थों में भी बहतायत से पाया जाता है। ५. कथा एवं संवाद-कथा-विभाग में गिनाए गए अध्ययनों में कथा एवं संवादों के द्वारा धार्मिक और दार्शनिक विषयों को १. उ० १. २-५, ७, २८-२६, ३७-३६, ४४-४५; २. १६-१७; ३. .१, ५, ७-१२; ४. ३-६, ६-१३; ५. ५, ६-१०, १४-१६, २१-२२, २४; ६. ३, ६.१६, ७. ४, ७, ६, ११-१२; ८ २, ५-६, ६; ६.६-१०, १२-१३, १५-१६, ३४.३६, ४८, ५३; १०.१-२, २८ २६, ३३; ११. १४-१६; १२. २६-२७; १३. २२,२५, ३०-३१; १४. १६, २३-२४, २६, ३४, ३६, ४१-४४; १५. १५; १७. २०, २१; १८ १३; १६. १८, २१-२४, ३४, ३७, २०. ४४, ४७; २१. २०; २५. ४१-४३, ३१. ३३; ३२. १६-१७ आदि । २. 'तं वयं बूम माहणं' यह चरण २५. १६-२६, ३४ में तथा 'समयं गोयम मा पमायए' यह चरण १०. १-३६ में ज्यों का त्यों पुनरुक्त है। 'जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले' ये दोनों चरण ३१. ७-२० में पुनरुक्त हैं । 'एयमझें निसामित्ता हेऊकारण चोइउ । तउ नमि रायरिसिं देविन्दो इण महबवी' (६. ११, १७ आदि) यह इन्द्र की उक्ति और 'एयमढ़ निसामित्ता०' (. ८, १३ आदि) यह नमि की उक्ति (चारों चरण सहित) नौ-नौ बार पुनरुक्त हैं। ऐसे __ अन्य कई स्थल हैं जिन्हें यहां दिखलाना सम्भव नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन समझाया गया है । जैसे-इन्द्र-नमि-संवाद में प्रव्रज्या के समय उत्पन्न होनेवाले अन्तर्द्वन्द्व का समाधान, हरिकेशी और ब्राह्मणों के संवाद में यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या, मृगापुत्र और उसके माता-पिता के साथ हुए संवाद में साधु के आचार का प्रतिपादन। इसी प्रकार के अन्य कई संवादस्थल हैं जो बहुत ही समयोपयोगी और प्रभावोत्पादक हैं। जैसे-अनाथी मुनि और राजा श्रेणिक के बीच हुआ अनाथ-विषयक संवाद, भ्रगुपुरोहित और उसके पुत्रद्वय के बीच हुआ आत्मा के अस्तित्व-विषयक संवाद, भ्रगुपुरोहित और उसकी पत्नी के बीच हुआ दीक्षा-विषयक संवाद, इषुकार राजा और उसकी पत्नी कमलावती के बीच हुआ राजा के कर्तव्यविषयक संवाद, केशि और गौतम के बीच हुआ . आध्यात्मिक संवाद । इन सभी तथ्यों के कारण विन्टरनित्स, · कानजी भाई पटेल आदि उत्तराध्ययन को श्रमण धार्मिक-काव्य स्वीकार करते हैं।' इसके अतिरिक्त याकोबी, शान्टियर, विन्टरनित्स आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने इसकी तुलना धम्मपद, सुत्तनिपात, जातक, 1. Above all, the first Mūla-sútra, the Uttarājjhayaņa or Uttaradhyayana-sūtra, as a religious poem, is one of the most valuable portions of the canon. The work, consisting of 36 sections, is a compilation of various texts, which belong to various periods. The oldest nucleus consists of valuable poems-series of gnomic aphorisms, parables and similes, dialogues and ballads —which belong to the ascetic poetry of ancient India, and also have their parallels in Buddhist literature in part. -हि० इ० लि०, पृ० ४६६. तथा देखिए-श्रमण, मई-जून १९६४, पृ० ४८. For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [४५ महाभारत आदि प्रसिद्ध जैनेतर ग्रन्थों से की है।' आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक आदि जैन आगम-ग्रन्थों से भी ६.४० चित्तसम्भूत १. तुलना कीजिएउत्तराध्ययन धम्मपद उत्तराध्ययन सुत्त-निपात १.१५ १२.४ महानिर्ग्रन्थीय पव्वज्जासुत्त ६.३४ ८.४ (३०वाँ अध्ययन) (महावग्ग-१) ८.७ उत्तराध्ययन महाभारत ६.४४ ५.११ १. इषुकारीय शान्तिपर्व २५.२७ २६.१६ (अ० १४) (अ० १७५, २७७) २५.२६ २६.२५ २. नमिप्रव्रज्या शान्तिपर्व २५.३४ २६.४० (अ०६) (अ० १७८.२७६) . उत्तराध्ययन जातक १. चित्तसम्भूतीय .(अ० १३) (स० ४६८) २. इषुकारीय हत्थिपालजातक (भ्रगुपुरोहित (सं० ५०६) अ० १४) ३. हरिकेशिबल मातंगजातक (अ० १२) (सं० ४६७) ४. नमिप्रव्रज्या महाजनक जातक (सं० ५३६) We find here many sayings which excel in aptitude of comparison or pithiness of language. As in the Sutta. Nipāta and the Dhammapada, some of these series of sayings are bound together by a common refrain. -हि० इ० लि०, पृ० ४६६. The Uttarādhyayana is not the work of one single author, but is a collection of materials in age and derived from different sources. It was perhaps in its For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन इसकी तुलना की जाती है ।" इस तरह उत्तराध्ययन सूत्र न केवल अंग बाह्य-ग्रन्थों से अपितु समवायांग आदि अंगग्रन्थों से भी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन के अन्तिम पद्य की नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने इसका महत्त्व प्रकट करते हुए इसे जिन-प्रणीत तथा अनन्त गूढ शब्दार्थों से युक्त बतलाया है । २ निर्मुक्तिकार के इस कथन से उत्तराध्ययन के महत्त्व और प्राचीनता दोनों का बोध होता है । original contents more like the old Buddhist works, the Dhammapada and the Sutta-Nipāta. - उ० शार, भूमिका, पृ० ४०. तथा देखिए - हि० इ० लि०, पृ० ४६७-४७०; उ० आ० टी०, भूमिका, पृ० २२ - २५; जै० सा० बृ० इ०, भाग-२, पृ० १४७, १५२, १५६, १५७, १५६, १६३, १६५, १६७; समी, कथानक संक्रमण, प्रत्येकबुद्ध तथा तुलनात्मक अध्ययन प्रकरण, पृ० २५५-३७०, ४३६-४५५. १. उत्तराध्ययन २२. ४२-४६ विनय ( पहला ) सभिक्षु (पन्द्रहवां) उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन १७. ३.६०० — देखिए- जै० सा० बृ० ३०, भाग-२, पृ. १८१. दशवैकालिक उत्तराध्ययन २. ७-१० ३२. १८ विनय-समाधि १. ४.१८ ( नौवां ) ८. १.८ उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन में तथा सूत्रकृताङ्ग, प्रथम भाग के नौवें और बारहवें अध्य भिक्षु अध्य (दसवां ) यन में ब्राह्मण और जैन साधु को समान बतलाया गया है । भगवती २. देखिए - पृ० ३६, पा० टि० १. उ० For Personal & Private Use Only सूत्रकृताङ्ग ३. ३. १६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र [ ४७ "दिगम्बर- परम्परा में इसका सविशेष उल्लेख होने से तथा इसके विपुल टीका - साहित्य से इसके महत्त्व और प्राचीनता के साथ इसकी लोकप्रियता का भी पता चलता है । यदि हम संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि उत्तराध्ययन अंगबाह्य-ग्रन्थ होने पर भी अंगग्रन्थों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । इसके अतिरिक्त इसके उपदेशात्मक, धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थ होने पर भी इसमें धार्मिक काव्य के सामान्य गुणों का अभाव नहीं हुआ है । जैसा कि कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, तदनुसार उत्तराध्ययन में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति आदि का भी पर्याप्त समावेश हुआ है । विविध प्रकार के संवादों, प्रतीकों, उपमाओं, सुभाषितों आदि के प्रयोग सें इसमें रोचकता आ गई है । इसीलिए उत्तराध्ययन को जैन समाज में हिन्दुओं की भगवद्गीता तथा बौद्धों के धम्मपद की तरह महत्त्वपूर्ण कृति माना जाता है । टीका - साहित्य : पालि-त्रिपिटक पर लिखी गई अट्ठकथाओं की भाँति जैन आगम - साहित्य पर भी कालान्तर में विपुल व्याख्या - साहित्य लिखा गया । उत्तराध्ययन के महत्त्व और लोकप्रियता के कारण इस पर अपेक्षाकृत अधिक व्याख्यात्मक साहित्य मिलता है । सरसकथानक, सरस-संवाद और सरस रचना - शैली के कारण अंग और अंगबाह्य-ग्रन्थों में इसकी लोकप्रियता सर्वाधिक रही है । इसके परिणामस्वरूप कालान्तर में उत्तराध्ययन पर सर्वाधिक टीकाग्रन्थ लिखे गए । कुछ प्रमुख टीका ग्रन्थ निम्नोक्त हैं : १. निर्मुक्ति - व्याख्यात्मक साहित्य में नियुक्ति का स्थान 'सर्वोपरि है। नियुक्ति का अर्थ है- सूत्र में निबद्ध अर्थ का सयुक्तिक प्रतिपादन । ' उत्तराध्ययन पर सबसे प्राचीन टीका भद्रबाहु १. निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः ? - परिवाट्या योजनं । - दशवेकालिकवृत्ति, पृ० ४ ( उद्धृत - प्रा० सा० इ०, पृ० १६४, फुटनोट ) । For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन द्वितीय (विकी ६ ठी शताब्दी) की नियुक्ति है। इसमें प्राकृतभाषा में निबद्ध ५५६ गाथाएँ हैं । ये मूल उत्तराध्ययन की गाथाओं (करीब १७४६ गाथाएँ तथा ८७ गद्यांश) से बहुत कम हैं। इसके बहुत ही संक्षिप्त और सांकेतिक होने से कालान्तर में उत्तराध्ययन के साथ नियुक्ति पर भी टीकाएँ लिखी गई। उत्तराध्ययन के गुरु-परम्परागत अर्थ को समझने के लिए भद्रबाह की निर्यक्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए यह उत्तरवर्ती सभी टीका-ग्रन्थों की आधारभित्ति रही है। इसमें विषय को स्पष्ट करने के लिए कहीं-कहीं दृष्टान्त और कथानकों का भी प्रयोग किया गया है।' २. चूणि-उत्तराध्ययन और उसकी नियुक्ति पर जिनदासगणि महत्तर (ई० सन् ६ ठी शताब्दी) ने सर्वप्रथम चूर्णि की रचना की है। इसमें मूलग्रन्थ के साथ निर्यक्ति के भी अर्थ को स्पष्ट किया गया है। यह प्राकृत-संस्कृत भाषा से मिश्रित गद्य रचना है। इसमें कई शब्दों की विचित्र व्युत्पत्तियाँ भी मिलती हैं । भाषाशास्त्र की दृष्टि से इसका बहुत महत्त्व है। तत्कालीन समाज और संस्कृति का चित्रण भी इसमें मिलता है। इसमें अन्तिम अठारह अध्ययनों का व्याख्यान बहुत ही संक्षिप्त है। ३. शिष्यहिता-टीका या बृहद्वत्ति (पाइय-टोका)-इसके रचयिता वादिवेताल शान्तिसूरि (मृत्यु, सन् १०४०) हैं। यह उत्तराध्ययन और उसकी नियुक्ति पर संस्कृत-गद्य में लिखी गई १. कडए ते कुंडले व ते अंजियक्खि ! तिलयते य ते । पवयणस्स उड्डाहकारिए । दुठा सेहि ! कतो सि आगया । राईसरिसवमित्ताणि परछिद्दाणि पाससि ।। अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतोऽवि न पाससि ।। -उ० नि० १३६-१४०. २. पूर्णत इति घोरा, परतः कामतीति पराक्रमः, पर वा कामति" दस्यते एभिरिति दन्ताः । -उ० चूणि, पृ० २०८. For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र टीका है। यह भी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।' संस्कृत टीकाओं में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। बीच-बीच में प्राकृत कथाएँ भी उद्धृत की गई हैं। ४. सुखबोधा-टीका या वृत्ति - शान्तिसूरि की शिष्यहिताटीका के आधार पर बृहद्गच्छीय श्री नेमिचन्द्राचार्य (वि०सं० ११२६) ने मूल-ग्रन्थ पर संस्कृत-गद्य में सुखबोधा-टीका की रचना की है। इसमें नियुक्ति की गाथाओं को भी यथास्थान उदधत किया गया है। दीक्षा के पूर्व आप देवेन्द्रगणि कहलाते थे। संस्कृत में मूल सूत्र-ग्रन्थ का अध्ययन करने के लिए यह बहुत उपयोगी टीका है। इनके अतिरिक्त कालान्तर में अन्य अनेक विद्वानों ने उत्तराध्ययन पर कई व्याख्यात्मक टीकाएँ लिखी हैं। जैसे-तपागच्छाचार्य देवसुन्दरसूरि के शिष्य ज्ञानसागरसूरि (वि०सं०१४४१) की अवचूरि, महिमरत्न के शिष्य विनयहंस (वि०सं० १५६७-८१) की वत्ति, सिद्धान्तसरि के शिष्य कीर्तिवल्लभगणि (वि०सं० १५५२) की टीका, खरतरगच्छीय जिनभद्रसूरि के शिष्य कमलसंयम उपाध्याय (वि०सं० १५५४) की वृत्ति, तपोरत्नवाचक (वि०सं० १५५०) की लघुवृत्ति, मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणिक्यशेखरसूरि की दीपिका-टीका, महेश्वरसूरि के शिष्य अजितदेवसूरि (वि० सं० १६२६) की टीका, गुणशेखर की चूर्णि, लक्ष्मीवल्लभः ( वि० १८ वीं शताब्दी ) की दीपिका, भावविजयगणि (वि० सं० १६८६) की वृत्ति, हर्षनन्दनगणि (वि० सं० १७११) की टीका, धर्ममन्दिर उपाध्याय (वि० सं० १७५०) की मकरन्दटीका, उदयसागर (वि० सं० १५४६) की दीपिका-टीका, हर्षकूल (वि० सं० १६०० ) की दीपिका, अमरदेवसरि की टीका, शान्तिभद्राचार्य की वृत्ति, मुनिचन्द्रसूरि की टीका, ज्ञानशीलगणि १. उ० शा०, भूमिका, पृ० ५२-५३. २. शान्टियर ने भी इस टीका को शिष्यहिता-टीका से अधिक उपयोगी .. माना है और इसीका उपयोग किया है । -देखिए-उ० शा०, प्रोफेस, पृ० ६ तथा भूमिका, पृ० ५८. For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन की अवचूरि आदि ।' इन टीकाओं में अधिकांश अप्रकाशित हैं । वर्तमान में अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती अनुवाद आदि के साथ कुछ टीकाएँ प्रकाशित हुई हैं। ग्रन्थ की लोकप्रियता और महत्ता के कारण वर्तमान में इसके विविध-संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और आगे भी प्रकाशित होते रहेंगे। जाल शान्टियर १. जिनरत्नकोश-ग्रन्थविभाग, पृ० ४२.४६ में इसकी विस्तृत सूची है। तथा देखिए-जैन भारती, वर्ष ७, अंक ३३, पृ० ५६५-६८. २. (क) अंग्रेजी प्रस्तावना और टिप्पणी के साथ जालं शान्टियर का संशोधित मूल संस्करण, सन् १९२२; (ख) याकोबी का अंग्रेजी अनुवाद-से० बु० ई०, भाग-४५, आक्सफोर्ड, १८६५; (ग) लक्ष्मीवल्लभ की अर्थदीपिका-टीका के साथ गुजराती भाषानुवाद, आगमसंग्रह, कलकत्ता, सन् १९३४-३७; (घ) जयकीति-टीका के साथ हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९०६; (ङ) भद्रबाहु की नियुक्ति और शान्तिसूरि की शिष्यहिता-टीका के साथ, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१६-१७; (च) भावविजयगणि की सूत्रवृत्ति (विवृति) सहित, विनयभक्ति सुन्दरचरण ग्रन्थमाला, वेणप, वि० सं० १९९७; (छ) कमलसंयम की टीका के साथ, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर, सन् १९२७; (ज) नेमिचन्द्र की सुखबोधा वृत्तिसहित, आत्मवल्लभग्रन्थावली, बलाद, अहमदाबाद, सन् १९३७; (झ) जिनदासगणि महत्तर की चूणि मात्र श्वेताम्बर संस्था, इन्दौर प्रकाशन, सन् १९३३; (अ) घासीलाल की प्रियदशिनी संस्कृत-टीका एवं हिन्दी-गुजराती अनुवाद के साथ, जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, सन् १९५६-६१; (ट) लक्ष्मीवल्लभटीका एवं गुजराती अनुवाद के साथ, मुद्रक-श्रीशचन्द्र भट्टाचार्य, कलकत्ता-७१; (ठ) भोगीलाल सांडेसरा (उ० १-१८) के गुजराती अनुवाद आदि के साथ, गुजरात विद्यासमा, अहमदाबाद, १६५२; (ड) रतनलाल डोशी के हिन्दी अनुवाद आदि के साथ, श्री अ० भा० साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (म० प्र०), वी० सं० २४८६; (ढ) आत्माराम के हिन्दी अनुवाद आदि के साथ, जैन शास्त्रमाला कार्यालय, लाहौर, सन् १९३६-४२; For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [ ५१ का अंग्रेजी प्रस्तावना और टिप्पणी के साथ संशोधित मूलपाठ, सेक्रेड बुक्स आफ द ईस्ट, भाग-४५ में याकोबी का अंग्रेजी अनुवाद, आर० डी० वाडेकर तथा एन. व्ही. वैद्य का संशोधित मूलपाठ, भोगीलाल सांडेसरा का मूल के साथ गुजराती अनुवाद, आत्मारामजी का मूल के साथ हिन्दी अनुवाद, आचार्य तुलसी का मूल के साथ हिन्दी अनुवाद आदि उत्तराध्ययन के महत्त्वपूर्ण संस्करण हैं। इस तरह उत्तराध्ययन के इस विपुल व्याख्यात्मक टीकासाहित्य से इसके महत्त्व और लोकप्रियता का पता चलता है। (ण) घेवरचन्द्र बांठिया के अनुवाद के साथ, सेठिया जैन ग्रन्थमाला, बीकानेर, सन् १९५३; (त) मुनि अमोलक के हिन्दी अनुवाद के साथ, हैदराबाद, जैन शास्त्रोद्धार मुद्रणालय, वी० सं० २४४६; (थ) मुनि त्रिलोक, आत्माराम शोध संस्थान, होशियारपुर, पंजाब, (पृथक-पृथक अध्ययन के रूप में प्रकाशित हो रहा है); (द) महावीर स्वामिनो अंतिम उपदेश के नाम से गुजराती छायानुवाद, गोपालदास ‘जीवाभाई पटेल, जनसाहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबाद, सन् १६३८; (ध) गुजराती अर्थ एवं कथाओं आदि के साथ (१-१५), जैन प्राच्य विद्या-भवन, अहमदाबाद, सन् १९५४; (न) मूल सुत्ताणि, संपादक-मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल', गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, व्यावर, वि० सं० २०१०; (प) मुनि सौभाग्यचन्द्र सन्तबाल ( हिन्दी मात्र ), श्वे० स्था० जैन कान्फरेंस, बम्बई, वि० सं० १९९२; (फ) आर० डी० वाडेकर तथा एन० व्ही. वैद्य (मूलमात्र), पूना १९५४; (ब) जीवराज घेलाभाई दोशी (मूलमात्र), अहमदाबाद, सन् १६११; (भ) गुजराती अनुवाद-संतबाल, अहमदाबाद; (म) जयन्तविजय-टीका, आगरा, सन् १९२३; (य) आचार्य तुलसी-हिन्दी अनुवाद आदि के साथ, आगम अनुसन्धान ग्रन्थमाला, सन् १९६७; आदि । इन विविध संस्करणों के अतिरिक्त और भी अनेक. संस्करण, लेख आदि उत्तराध्ययन के विविध-विविध अंशों पर समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ द्रव्य-विचार यह विश्व जो हमें दृष्टिगोचर हो रहा है, वह इतना ही है जितना हमें दिखलाई पड़ता है अथवा इससे भी परे कुछ है ? इसका प्रारम्भ कब से हुआ? इसका कभी अन्त होगा या नहीं ? इसके मूल में क्या है जिससे इसका इतना विकास हुआ ? इसके मूल में कुछ है या नहीं अथवा सिर्फ भ्रम है ? इसका कोई व्यवस्थापक है या नहीं ? आदि अनेकों प्रश्न आज भी मानव के हृदय में जिज्ञासा के विषय बने हैं। इन जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों का समाधान विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं ने विभिन्न प्रकार से किया है। आज का विज्ञान भी इसी तथ्य की खोज में अनवरत प्रयत्नशील है। जैनतत्त्वज्ञान, पर आधारित उत्तराध्ययन-सूत्र से इस विषय में जो जानकारी प्राप्त होती है उसे निम्न प्रकार से अभिव्यक्त किया जा सकता है : ... १. प्रत्यक्ष दिखलाई पड़नेवाले इस संसार के परे बहुत कुछ है। हमें जो दिखलाई पड़ रहा है वह समुद्र की एक बिन्दु के बराबर भी नहीं है। आज का विज्ञान जितनी खोज कर सका है वह भी बहुत ही अल्प है। यह प्रत्यक्ष-दृश्यमान संसार और इससे परे अनन्त-भाग को हम विश्व शब्द से कहते हैं। इससे इस विश्व के विस्तार का सिर्फ अनुमान किया जा सकता है। मुख्यत: इस विश्व के दो भाग हैं : १. जहां पर सृष्टि-तत्त्वों की मौजदगी है (लोक) और २. जहां शुद्ध आकाश को छोड़कर अन्य सभी सृष्टितत्त्वों का पूर्ण अभाव है ( अलोक ) । इसमें से जितने भाग में सृष्टि-तत्त्व वर्तमान हैं उसकी तो कुछ सीमा है परन्तु इसके परे जो सृष्टि-तत्त्वों से शून्य शुद्ध आकाश प्रदेश है उसकी कोई सीमा नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २. इस विश्व का प्रारम्भ कब से हआ और यह कब तक चलेगा ? इस विषय में कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। प्रायः सभी भारतीय दर्शन इस विषय में एकमत हैं कि इस सृष्टि का प्रारम्भ-काल और अन्त-काल नहीं है। अतः इसे अनादि और अनन्त कहा है। किसी वस्तु की वर्तमान अवस्था-विशेष की दृष्टि से प्रारम्भ और अन्त दोनों संभव हैं। ३. यह विश्व शून्यवादी बौद्धों की तरह अभावरूप (शून्यरूप) तथा वेदान्तियों की तरह कल्पनाप्रसूत (मायारूप) नहीं है। अपितु यह उतना ही सत्य और ठोस है जितना हमें प्रतीत होता है। यह बात अवश्य है कि इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है परन्तु परिवर्तन के होते रहने पर भी उसका सर्वथा विनाश नहीं होता है, क्योंकि यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि विद्यमान (सत्) का कभी विनाश नहीं होता और अविद्यमान् (असत्) का कभी आविर्भाव नहीं होता है। संसार की असारता, नश्वरता, भ्रमरूपता आदि का जो वर्णन ग्रन्थ में किया गया है वह आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है। ४. इस विश्व का व्यवस्थापक या रचयिता कोई ईश्वर आदि नहीं है। यह स्वचालित-यंत्र की तरह अनवरत एवं अबाधरूप से चल रहा है। ___ इन उपर्युक्त तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक होने से सर्वप्रथम लोक-रचना का निरूपण किया जाएगा। लोक-रचना पहले लिखा जा चुका है कि यह विश्व दो भागों में विभाजित है : एक वह भाग जहाँ पुरुष, स्त्री, गाय, बैल, कीड़े, पत्थर, जलाशय आदि की स्थिति है जिसे 'लोक' या 'लोकाकाश' के नाम से कहा गया है तथा दूसरा वह भाग जहाँ पुरुष, स्त्री, गाय, बैल, कीड़े, पत्थर, जलाशय आदि किसी की भी सत्ता त्रिकाल में संभव १. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । -गीता २. १६. For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ५५ नहीं है-सिर्फ आकाश प्रदेश है जिसे 'अलोक' या 'अलोकाकाश' के नाम से कहा गया है।' इस तरह के विभाजन का आधार है सृष्टि-तत्त्वों की मौजूदगी अथवा गैरमौजूदगी । यदि इस तरह का विभाजन न किया जाता तो इस विश्व को असीम मानना पड़ता। आकाश-प्रदेश की कोई सीमा न होने से इसकी लोक के बाहर (अलोक में) भी सत्ता मानी गई है। अलोक की कोई सीमा न होने से तथा वहाँ किसी भी जीव की गति संभव न होने से विवेचनीय विषय लोक ही है। क्षेत्र की दृष्टि से लोक को तीन भागों में विभाजित किया गया है२ : १. ऊपरी-भाग (ऊर्ध्वलोक ), २. मध्यभाग (तिर्यक्लोक या मध्यलोक) तथा ३. अधोभाग (अधोलोक)। लोक के जो ये तीन भागं किए गये हैं इनका यद्यपि ग्रन्थ में विस्तृत वर्णन नहीं है फिर भी इसे समझे बिना आगे का विवेचन समझना सरल नहीं है। अतः ग्रन्थ में प्राप्त संकेतों के आधार पर तीनों लोकों का वर्णन आवश्यक है। ऊर्ध्वलोक : - जहाँ हमारा निवास है उसके ऊपर के भाग को ऊर्ध्वलोक ___ कहते हैं। ऊर्ध्व लोक में मुख्यरूप से देवों का निवास होने के कारण इसे देवलोक, ब्रह्मलोक, यक्षलोक तथा स्वर्गलोक भी १. जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए ।। -उ० ३६. २. तथा देखिए-उ० २८. ७; ३६. ७.. २. उड्ढे अहे य तिरियं च । -उ. ३६. ५०. तथा देखिए-उ. ३६. ५४. ३. विशेष के लिए देखिए-तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ३; त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जीवाभिगमसूत्र, चन्द्रप्रज्ञप्ति, भगवतीसूत्र आदि । For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कहा गया है।' इस ऊर्ध्वलोक में ऊपर-ऊपर देवताओं के कई विमान हैं। सब प्रकार की अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाले 'सर्वार्थसिद्धि' नामक अन्तिम विमान से १२ योजन (करीब ४८००० क्रोश क्षेत्र-प्रमाण) ऊपर एक 'सिद्ध-शिला' है। यह सिद्ध-शिला ४५ लाख योजन लम्बी तथा इतनी ही चौड़ी है। इसकी परिधि (घिराव) कुछ अधिक तीन गुनी (१४२३०२४६ योजन से कुछ अधिक) है। मध्यभाग में इसकी मोटाई आठ योजन है जो क्रमशः चारों ओर से कृश होती हुई मक्खी के पर से भी अधिक कृश हो गई है। इसका आकार खोले हुए छत्र के समान है। शंख, अंक-रत्न (श्वेत कान्तिवाला रत्न-विशेष) और कुन्द-पुष्प के समान स्वभावतः सफेद, निर्मल, कल्याणकारिणी एवं सुवर्णमयी होने से इसे 'सीता' नाम से कहा गया है। ऊपरीभाग में अत्यन्त लघु होने के कारण इसे 'ईषत्प्राग्भारा' नाम से भी उल्लिखित किया गया है। इससे एक योजन-प्रमाण ऊपर वाले क्षेत्र को लोकान्तभाग कहा गया है क्योंकि इसके बाद लोक की सीमा समाप्त हो जाती है और अलोक का प्रारम्भ हो जाता है। इसी एक योजन-प्रमाण लोकान्त-भाग के ऊपरी क्रोश के छठे भाग में मुक्त-आत्माओं का निवास माना गया है । 3 ग्रन्थ में १. 'कम्मई दिवं' -उ० ५. २२; 'देवलोगचुओ संतो' -उ० १६. ८; 'से चुए बम्भलोगाओ' -उ० १८. २६; 'गच्छे जक्खसलोगयं' -उ० ५. २४; 'खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे' -उ. १४. १. २. अवचूरिकार ने आठ योजन प्रमाण में 'उत्सेधाङ गुल' से तथा अनुयोगद्वार में 'प्रमाणाङ गुल' से क्षेत्र-सीमा नापने की कल्पना की है। इससे क्षेत्र-सीमा में काफी अन्तर हो जाता है। -~-उ० आ० टी०, पृ० १६६८. ३. बारसहिं जोयणेहिं सव्वट्ठस्सुवरि भवे । ईसिपब्भारनामा उ पुढवी छत्तसंठिया ।। पणयालसयसहस्सा जोयणाणं तु आयया । ताव इयं चेव वित्थिण्णा तिगुणो तस्सेव परिरओ ।। अट्टजोयणबाहल्ला सा मज्झम्मि वियाहिया । परिहायन्ती चरिमन्ते मच्छियपत्ता तणुयरी ।। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ५७ • 'लोकान्त' को ही 'लोकान' भी कहा गया है क्योंकि यह प्रदेश लोक का सर्वश्रेष्ठ भाग होने से शीर्ष स्थानापन्न भी है।' मध्यलोक (तिर्यक्लोक) : ग्रन्थ में मध्यलोक को 'तिर्यक्लोक' कहा गया है। क्योंकि इस लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र परस्पर एक-दूसरे को घेरे हुए तिर्यकरूप (आजूबाज-तिरछे) से (स्वयम्भूरमण समुद्र तक) अवस्थित हैं तथा इसका आकार खड़े किए गए मृदंग के अर्धभाग सदृश है।3 इतने विशाल क्षेत्र में से केवल ढाई-द्वीपों में ही मानव का निवास माना गया है। ढाई-द्वीप को 'समयक्षेत्रिक'५ कहा गया अज्जुणसुवण्णगमई सा पुढवी निम्मला सहावेणं । . उत्तापगच्छत्तगसंठिया य भणिया जिणवरेहि ॥ संखंककुंदसंकासा पंडुरा निम्मला सुहा । सीयाए जोयणे तत्तो लोयंतो उ वियाहिओ ॥ जोयणस्स उ जो तत्य कोसो उवरम्मि भवे । तस्स कोसस्स छब्भाए सिद्धणोगाहणा भवे ॥ -उ. ३६. ५७-६२. तथा देखिए-डा० ज०, पृ० २४६ः १. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया । -उ. ३६. ५६. २. देखिए-पृ० ५५, पा० टि० २. ३. तत्त्वसमुच्चय, पृ० ६७. तथा वृत्त-चित्र १-२. ४, प्राङ मानुषोत्तरान्मनुष्याः । -त० सू० ३.३५. ५. समय-क्षेत्र वह क्षेत्र है जहाँ समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि का कालविभाग परिज्ञात होता है। समय-क्षेत्र का दूसरा नाम मनुष्य-क्षेत्र भी है क्योंकि जन्मतः मनुष्य केवल समय-क्षेत्र (ढाई द्वीप) में ही पाए जाते हैं। समय-क्षेत्र के बाहर काल-विभाग नहीं होता है क्योंकि मनुष्य-क्षेत्र में विद्यमान सूर्य-चन्द्रमा ही अपनी गति द्वारा समय, मास आदि का विभाजन करते हैं। मनुष्य-क्षेत्र के बाहर यद्यपि असंख्यात सूर्य और चन्द्रमा हैं परन्तु वे. गतिशील For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन है ।' उन ढाई - द्वीपों के नाम हैं- जम्बूद्वीप, धातकीखंडद्वीप और आधा पुष्करद्वीप ( पुष्करार्ध) । इन ढाई द्वीपों की रचना एक समान है; अन्तर केवल इतना है कि इनका क्षेत्र क्रमश: दुगुना- दुगुना होता गया है । पुष्कर-द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत आ जाने के कारण पुष्करद्वीप आधा लिया गया है । अतः इसका क्षेत्र - फल धातकीखण्ड द्वीप के ही बराबर है । २ जम्बू द्वीप में ७ प्रमुख क्षेत्र हैं- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत | 3 विदेह - क्षेत्र में दो अन्य प्रमुख क्षेत्र हैं जिनके नाम हैं - देवकुरु और उत्तरकुरु । धातकीखंड और पुष्करार्ध - द्वीप में इन सभी क्षेत्रों की दुगुनी - दुगुनी संख्या है। ये सभी क्षेत्र कर्मभूमि, कर्मभूमि और अन्तरद्वीप के भेद से तीन भागों में विभाजित हैं । नहीं हैं । अतः व्यवहार-काल का विभाग मनुष्यक्षेत्र तक ही सीमित होने से मनुष्य क्षेत्र को समय-क्षेत्र कहा जाता है । - देखिए - उत्तरज्झयणाणि (आ० तुलसी), भाग-२, पृ०३१६. १. समए समयखेत्तिए । —उ० ३६.७ २. इन क्षेत्रों में जम्बूद्वाप जो थाली के आकार का है सबके बीचोंबीच है। इसके चारों ओर लवणसमुद्र है । इसके बाद चूड़ी के आकार में धातकीखण्डद्वीप लवणसमुद्र के चारों ओर स्थित है । इसके बाद धातकीखण्डद्वीप के चारों ओर कालोदधिसमुद्र है । इसके बाद कालोदधिसमुद्र के चारों ओर पुष्करद्वीप है । इसीप्रकार आगे भी समुद्र और द्वीप के क्रम से स्वयम्भूरंमण समुद्र तक रचना है । - देखिए - वृत्त - चित्र २. ३. भरत हैमवत हरिविदेह रम्यक हैरण्यवतै रावतवर्षाः क्षेत्राणि । ४. कम्म कम्मभूमा य अंतरद्दीवया तहा । - त०सू० ३.१०. - उ० ३६. १६५. पन्नरसती सविहा भेया अट्ठवीसई । संखा उ कमसो तेसिइइ एसा वियाहिया || -उ० ३६.१६६. For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [५६ (क) कर्मभूमि-जहाँ पर मनुष्य कृषि, वाणिज्य, शिल्पकला आदि के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं अर्थात् जहाँ बिना कर्म किए जीवन-यापन संभव न हो उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं। यहाँ का जीव ही सबसे बड़ा पाप-कर्म और सबसे बड़ा पुण्य-कर्म कर सकता है। इसकी सीमा में भरत, ऐरावत तथा महाविदेह (विदेह का वह भाग जो देवु कुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र से रहित है) ये तीन क्षेत्र आते हैं। ये तीन क्षेत्र ही ढाई-द्वीपों में १५ क्षेत्रों की संख्या पूर्ण कर लेते हैं। जैसे-जम्बूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत और एक महाविदेह है। धातकीखंड द्वीप में दो भरत, दो ऐरावत और दो महाविदेह हैं। पुष्करार्धद्वीप में दो भरत, दो ऐरावत तथा दो। महाविदेह हैं। इस तरह ढाई-द्वीपों में कर्मभूमि के कुल मिलाकर १५ क्षेत्र हैं।२ आज का विज्ञान जितने भू-खण्ड की खोज कर सका है वह सब कर्मभमि के जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र का बहत छोटा-सा भाग है। इससे इस पूरे मध्यलोक तथा तीनों लोकों के विस्तार का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। (ख) अकर्मभूमि (भोगभूमि)-जहाँ कृषि आदि कर्म किए बिना ही भोगोपभोग की सामग्री उपलब्ध हो जाती है और जीवन-यापन करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है उसे 'अकर्मभूमि' कहते हैं। यहाँ पर भोगोपभोग की सामग्री इच्छा करने मात्र से उपलब्ध हो जाती है जिससे लोग भोगों में लीन रहते हैं। इसीलिए इसे भोगभूमि' भी कहते हैं। आदिकाल का जो प्राकृतिक-साम्यवाद इतिहास में मिलता है प्रायः उसी तरह का सुविकसित-रूप भोगभूमि के विषय में मिलता है। देवताओं के सुखसदृश यहाँ सुख की ही प्रधानता है। अवशिष्ट (कर्मभूमि के १५ क्षेत्र छोड़कर) ३० क्षेत्रों में भोगभूमियाँ मानी १. भरतरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । -त० सू० ३.३७. २. बही, तथा उ० ३६.१९६ (आत्माराम-टीका) ३. वही। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन गई हैं।' जैसे-जम्बूद्वीप में एक हैमवत, एक हरि, एक रम्यक, एक हैरण्यवत, एक देवकुरु और एक उत्तरकुरु-ये ६ क्षेत्र हैं। इसी तरह धातकीखण्डद्वीप और पुष्करार्धद्वीप में हैमवतादि प्रत्येक के २-२ क्षेत्र होने से दोनों द्वीपों के १२-१२ क्षेत्र हैं। इस तरह कुल मिलाकर अकर्मभूमि के ३० क्षेत्र माने गए हैं। (ग) अन्तरद्वीप-कर्मभूमि और अकर्मभूमि के प्रदेश के अतिरिक्त जो समुद्र के मध्यवर्ती द्वीप बच जाते हैं उन्हें 'अन्तरद्वीप' कहते हैं। इसके २८ क्षेत्रों में भी मनुष्यों का निवास माना गया है। इस तरह इस मध्यलोक के इतना विशाल होने पर भी तीनों लोकों के क्षेत्रफल में इसका क्षेत्रफल शून्य के बराबर है । अधोलोक : यह मध्यलोक से नीचे का प्रदेश है। इसमें क्रमशः नीचे-नीचे सात पृथिवियां हैं जो क्रमशः सात नरकों के नाम से प्रसिद्ध हैं। १. वही। २. जम्बूद्वीप के चारों ओर फैले हुए लवणसमुद्र में हिमवान् पर्वतसम्बन्धी २८ अन्तरद्वीप हैं। ये अन्तरद्वीप सात चतुष्कों में विद्यमान हैं। इनके क्रमश: नाम ये हैं : प्रथम चतुष्क–एकोरुक, आभाषिक, लाङ गूलिक और वैषाणिक । द्वितीय चतुष्क-हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलीकर्ण । तृतीय चतुष्क-आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख और गजमुख । चतुर्थ चतुष्क-अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघमुख । पंचम चतुष्क-अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, गजकर्ण और कर्णप्रावरण । षष्ठ चतुष्क-उल्कामुख, विद्युन्मुख, जिह्वामुख और मेघमुख । सप्तम चतुष्क-घनदन्त, गूढदन्त, श्रेष्ठदन्त और शुद्धदन्त । ___ इसी प्रकार से शिखरणीपर्वत सम्बन्धी भी २८ अन्तरद्वीप हैं । इस तरह कुल मिलाकर ५६ अन्तरद्वीप होते हैं। परन्तु दोनों को अभिन्न मानकर ग्रन्थ में अन्तरद्वीपों के २८ अवान्तरद्वीप गिनाए हैं । -देखिए-३६.१६६. ( आत्माराम-टीका, पृ० १७५६-१७६० ; घासीलाल-टीका, भाग-४ पृ० ६०५-६०७) For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ६१ इनमें मुख्यतया नारकी जीवों का निवास है। उनके क्रमशः नाम ये हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा तथा महातमःप्रभा।' इनके साथ जो 'प्रभा' (कान्ति) शब्द जुड़ा हुआ है वह उनके रंग को अभिव्यक्त करता है । इस तरह इस लोक-रचना के तीन प्रमुख भागों में से ऊर्ध्वलोक के सबसे ऊपरी-भाग में मुक्त आत्माओं का निवास है। उसके नीचे 'सिद्धशिला' नामकी पृथिवी है तथा उसके नीचे देवताओं के आकाशगामी विमान हैं । उसके नीचे मध्यलोक में मुख्य रूप से मानवजगत् है । इसके बाद सबसे नीचे अधोलोक में नरकसम्बन्धी सात पृथिवियां हैं जिनमें मुख्यरूप से नारकी जीव रहते हैं। इस लोक की सीमा के चारों ओर अनन्त-सीमारहित अलोकाकाश है। यह लोक-रचना इतनी विशाल एवं जटिल है कि आज का विज्ञान इसके बहुत ही सूक्ष्म-अंश को जान सका है। जट-द्रव्य सम्पूर्ण लोक में सामान्य तौर से दो ही तत्त्व पाए जाते हैं : चेतन और अचेतन । ग्रन्थ में इनके क्रमश: नाम हैं-जीव-द्रव्य .. और अजीव-द्रव्य ।२ इन दो द्रव्यों के संयोग और वियोग से ही इस नाना प्रकार की सृष्टि का आविर्भाव एवं तिरोभाव होता है। यहां एक बात ध्यान रखने योग्य है कि ये दोनों द्रव्य जिन्हें तत्त्व शब्द से भी कहा गया है, सांख्य-दर्शन के पुरुष (चेतन) और . १: नेरइया सत्तविहा पुढवीसू सत्तसू भवे । रयणाभसक्कराभा बालुयाभा य आहिया ॥ पंकामा धूमाभा तमा तमतमा तहा। -उ० ३६. १५६-१५७. विशेष-लोक में कुल आठ पृथिवियां हैं जिनमें से सात अधोलोक में हैं और एक सिद्धशिला नाम की ऊर्ध्वलोक में है । मध्यलोक में जो पृथिवी है वह अधोलोक की रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी की ऊपरी सतह है। २. देखिए-पृ० ५५, पा० दि० १. For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रकृति (अचेतन) की तरह एकरूप नहीं हैं। यद्यपि चेतन-तत्त्व सांख्य के पुरुष की तरह अनेक हैं परन्तु उनके स्वरूप में भिन्नता है। इसी तरह अचेतन-तत्त्व भी अनेक हैं। वे सांख्य की प्रकृति की तरह एकरूप नहीं हैं अपितु मुख्य रूप से पांच स्वतन्त्र तत्त्वों वाले हैं। उन पांच अचेतन तत्त्वों के नाम हैं-गतिद्रव्य (धर्मद्रव्य), स्थितिद्रव्य (अधर्मद्रव्य), समयद्रव्य (काल), प्रदेशद्रव्य (आकाश) और रूपीद्रव्य (पुद्गल)। ऐसा नहीं है कि किसी एक अचेतनतत्त्व से इन पांचों का आविर्भाव हुआ हो। अपितु ये पांचों ही द्रव्य अपने आप में पूर्ण स्वतन्त्र हैं। चेतन और अचेतन गुण के सदभाव और असद्भाव के आधार पर ही लोक के समस्त द्रव्यों को दो भागों में विभाजित किया गया है। अतः मुख्यरूप से चेतन और अचेतन ऐसे दो मूल-तत्त्व मानने के कारण सांख्य की तरह द्वैतवाद नहीं कहा जा सकता है। दो से अधिक मूल-तत्त्वों की सत्ता स्वीकार करने से बहुत्ववाद ही कहा जा सकता है। जिस तरह चेतन गुण के सद्भाव और असद्भाव के आधार से द्रव्यों के दो भेद संभव हैं उसी प्रकार रूपादिगुण के सद्भाव और असद्भाव से, बहुप्रदेशत्व (अस्तिकाय) और एक-प्रदेशत्व (एक-प्रदेशवर्तीअनस्तिकाय) के आधार से, लोक-प्रमाणत्व और लोकालोकप्रमाणत्व के आधार से, एकत्वसंख्या-विशिष्टत्व और बहुत्वसंख्या-विशिष्टत्व आदि के आधार से और भी अन्य अनेक द्वैतात्मक भेद संभव हैं। इनका आगे यथा-प्रसंग वर्णन किया जाएगा। परन्तु इस प्रकार का द्वैतात्मक-विभाजन ग्रन्थ में अभिप्रेत नहीं है क्योंकि इससे चेतन-तत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता में बहुत बड़ा आघात पहुंचता है और जबकि अचेतन-तत्त्व से चेतनतत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करना ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है। अतः इस प्रकार का द्वैतात्मक-विभाजन संभव होने पर भी लोकालोक में पाए जाने वाले सभी द्रव्यों को मुख्यरूप से छः स्वतन्त्र भागों में विभक्त किया गया है। इन छः द्रव्यों के स्वतन्त्र भेदों १. धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल-जन्तवो । एस लोगो ति पन्नत्तो जिणेहिं बरदंसिहि ॥ -उ० २८.७. For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [.६३ में चेतन जीव-द्रव्य के अतिरिक्त अचेतन-द्रव्य-सम्बन्धी पांच स्वतन्त्र द्रव्यों को भी मिला लिया गया है। इस तरह छः द्रव्यों के नाम ये हैं-१. चेतन-जीव, २. रूपी-अचेतन-पुद्गल, ३. गति-हेतु-धर्म, ४. स्थिति-हेतु-अधर्म, ५. समय-काल और ६. प्रदेश (अवकाश)-आकाश । यद्यपि इन छः द्रव्यों में से जीव, पुद्गल और काल द्रव्य के अन्य अवान्तर अनेक स्वतन्त्र भेद हैं परन्तु उन्हें सामान्यगुण की अपेक्षा से एक में अन्तर्भाव करके छः ही स्वतन्त्र द्रव्यों को गिनाया गया है। इन छः द्रव्यों के अतिरिक्त सम्पूर्ण लोक तथा अलोक में कोई अन्य स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। इन छः मूल द्रव्यों से ही इस सृष्टि का संचालन होता है। इनके अतिरिक्त ईश्वर आदि अन्य कोई संचालक तत्त्व नहीं है। अल्प-विषय होने से पहले अचेतन-द्रव्य का वर्णन किया जाएगा। अचेतन द्रव्य : __ अचेतन-द्रव्य से तात्पर्य है जिसमें जानने और देखने की शक्ति नहीं है । यह मुख्यरूप से दो प्रकार का है' : १ जिसमें रूपादि का सद्भाव पाया जाता है वह 'रूपी' तथा २ जिस में रूपादि का अभाव रहता है वह 'अरूपी' । जिसका कोई ठोस आकार-प्रकार आदि संभव है उसे रूपी या मूर्तिक कहते हैं तथा जिसका कोई ठोस आकारप्रकार आदि संभव नहीं है उसे अरूपी या अमूर्तिक कहते हैं। इन दोनों प्रकारों में रूपी-द्रव्य का मुख्यरूप से एक ही भेद है जिसका नाम है-पुद्गल । अरूपी-अचेतन-द्रव्य के प्रमुख चार भेद हैं जिनके नाम ये हैं-धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इस तरह कुल मिलाकर अचेतन-द्रव्य के प्रमुख पांच भेद हैं। इसके अति १. रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता रूविणौ य चउव्विहा ॥ -उ० ३६.४. तथा देखिए-उ०३६.२४६. For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन रिक्त जो अन्य अवान्तर-भेद किए गए हैं वे सब इनके ही अवान्तररूप हैं । अचेतन-द्रव्य के अवान्तर भेद निम्नोक्त हैं : १ अचेतन-अजीवद्रव्य रूपी ( पुद्गल) अरूपी स्कन्ध देश प्रदेश परमाणु । धर्म अधर्म आकाश . आकाश काल । । । । । । । स्कन्ध देश प्रदेश स्कन्ध देश प्रदेश स्कन्ध देश प्रदेश अब क्रमशः इन द्रव्यों का विचार किया जाएगा। (क) रूपी अचेतन-द्रव्य (पुद्गल) : __ रूपी अचेतन-द्रव्य से तात्पर्य है-जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और आकार पाया जावे। जो सूना जा सके, खाया जा सके, तोड़ा जा सके, देखा जा सके वह सब रूपी अचेतन-द्रव्य है। इसका एक विशेष नाम दिया गया है-'पुद्गल'। छः द्रव्यों में 'पुद्गल' ही एक मात्र ऐसा द्रव्य है जिसमें रूपादि गुण पाए जाते हैं। १. वही। धम्मत्थिकाए तद्देसे तप्पएसे य आहिए । अहम्मो तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए । आगासे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए । अवासमए चेव अरूवी दसहा भवे ॥ -उ० ३६.५-६. खंधा य खंधदेसा य तप्पएसा तहेव य। परमाणुओ य बोद्धव्वा रूविणो य चउविहा ॥ -उ० ३६.१०. For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ६५ रूपादि गुणों के भेद-प्रभेद और उनका परस्पर सम्बन्ध-पुद्गल द्रव्य में पाए जानेवाले रूपादि गुणों के प्रमुख पांच भेद हैं। इन पांचों भेदों के अन्य अवान्तर पच्चीस भेद निम्नोक्त हैं :१ १. रूप (वर्ण)-रूप या वर्ण से तात्पर्य है -द्रव्य में पाया जाने वाला 'रंग' जिसका बोध हमें अपनी आँखों से होता है। इसके मुख्य पाँच प्रकार इस प्रकार गिनाए हैं-काला (कृष्ण), नीला (नील), लाल (लोहित), पीला (पीत) और सफेद (शुक्ल) । इन प्रमुख ५ रंगों के अतिरिक्त जो अन्य रंग हमें दिखलाई पड़ते हैं वे इन्हीं के सम्मिश्रण से बनते हैं। अतः उनका पृथक् कथन न करके इन्हीं में अन्तर्भाव कर लिया गया है । २. रस-रस से तात्पर्य है-'स्वाद' जिसका बोध हमें अपनी जिह्वा इन्द्रिय से होता है। इसके भी प्रमुख पाँच प्रकार गिनाए हैं- चरपरा (तिक्त), कडुआ (कटुक), कसैला, खट्टा (अम्ल) और मीठा (मधुर)। ३: गन्ध-गन्ध से तात्पर्य है-नासिका इद्रिय द्वारा अनुभव की जानेवाली 'सुगन्ध या दुर्गन्ध'। इसके प्रमुख दो प्रकार हैंसुगन्ध ( जिससे आसक्ति बढे । जैसे-चन्दनादि से निकलनेवाली गन्ध ) और दुर्गन्ध (जिससे घृणा पैदा हो। जैसे-लशुन आदि से निकलनेवाली गन्ध)। अमुक वस्तुएँ सुगन्धवाली हैं और अमुक वस्तुएँ दुर्गन्धवाली हैं ऐसा विभाजन संभव नहीं है क्योंकि इस विषय में अलग-अलग जीव की अलग-अलग अनुभूति है। १. वण्णओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया । .. किण्हा नीला य लोहिया, हालिद्दा सुक्किला तहा। . संठाणओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया। परिमंडला य वट्टा य तंसा चउरंसमायया ।। -उ० ३६..१६-२१. . न्यायदर्शन में रूपादि के भेद-प्रभेद भिन्न प्रकार से गिनाए हैं। -देखिए-तकंसंग्रह, प्रत्यक्ष-परिच्छेद, पृ० ११-१२. For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन एक ही वस्तु किसी को सुगन्धित लग सकती है और किसी को दुर्गन्धित । ४. स्पर्श-स्पर्श से तात्पर्य है-हस्तादि के द्वारा छने से होने वाला अनुभव। यह मुख्यरूप से आठ प्रकार का बतलाया गया है-कठोर ( कर्कश ), मुलायम ( मृदु), वजनदार ( गुरु ), हल्का ( लघ ), ठंडा ( शीत ), गरम ( उष्ण ), चिकना (स्निग्ध) और रूखा ( रुक्ष )। ५. संस्थान--संस्थान से तात्पर्य है--आकृति या आकार ( रचना )। इसका बोध हमें चक्ष इन्द्रिय एवं स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा होता है। इसके प्रमुख पाँच प्रकार हैं-गोलाकार (परिमंडल-चूड़ी की तरह गोल ), वृत्ताकार ( गेंद की तरह वर्तुलाकार ), त्रिकोणाकार ( व्यस्र ), चतुष्कोण (चतुरस्र-चार कोनों वाला ) और लम्बाकार ( आयत )। ___ रूपादि के इन पांचों भेदों में परस्पर सम्बन्ध भी है। जिस द्रव्य में रूप के पांच भेदों में से कोई एक रूप होगा उसमें रसादि के अवान्तर भेदों में से भी प्रत्येक का कोई न कोई भेद अवश्य होगा। कोई भी रूपी-द्रव्य ऐसा नहीं है जिसमें कोई न कोई रस, स्पर्श, गन्ध और आकार न हो। अर्थात जिसमें रूपादि में से कोई गुण प्रकटरूप से होगा उसमें अन्य रसादि सभी गुण भी किसी न किसी मात्रा में अवश्य रहेंगे क्योंकि जिसमें रूप हो उसमें रसादि गुण न हों, यह संभव नहीं है। अतः इन रूपादि गुणों के परस्पर सम्मिश्रण की स्थिति-विशेषके भेद से ग्रन्थ में इनके ४८२ भेद ( भङ्ग ) गिनाए हैं। जैसे' -रूप के पाँचों भेदों का रसादि के बीस भेदों के साथ संयोग करने पर । ५४ २० ) १०० भेद रूप-सम्बन्धी होते हैं। पाँच रस के भेदों का अन्य रूपादि के बीस १. वण्णओ जे भवे किण्हे भइए से उ गंधओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओवि य ।। जे आययसंठाणे भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेव भइए फासओवि य ।। -उ० ३६. २२-४६. . . For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [६७ भेदों के साथ संयोग करने पर (५४२०) १०० भेद रस-सम्बन्धी बनते हैं। गन्ध के दो भेदों का तदितर रूपादि के तेईस भेदों के साथ संयोग करने पर (२४ २३ ) ४६ भेद गन्धसम्बन्धी बनते हैं। स्पर्श के आठ भेदों का तदितर रूपादि के सत्रह भेदों के साथ संयोग करने पर ( ८ x १७ ) १३६ भेद स्पर्श-सम्बन्धी बनते हैं।' संस्थान के पाँच भेदों का तदितर रूपादि के बीस भेदों के साथ संयोग करने पर ( ५४२० ) १०० भेद संस्थान-सम्बन्धी बनते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वजातीय का स्वजातीय के साथ संयोग नहीं होगा क्योंकि जो कृष्णवर्ण वाला होगा वह श्वेतवर्ण वाला नहीं होगा। ग्रन्थ में रूपादि के जो ये ४८२ भेद गिनाए हैं वे सामान्य अपेक्षा से गिनाए हैं अन्यथा रूपादि के तरतमभाव की अपेक्षा लेकर यदि उपर्युक्त प्रकार से भेदों की कल्पना की जाएगी तो रूपादि के अनेक भेद हो जाएंगे। वाय आदि में रूपादि की सिद्धि-रूपादि के आपस के सम्बन्ध को देखने से पता चलता है कि जिसमें कोई भी रूप होगा उसमें कोई न कोई रस, गन्ध, स्पर्श और आकार भी अवश्य होगा। इसी तरह जिसमें कोई रस या गन्ध या स्पर्श या आकार होगा उसमें तदितर अन्य गुण भी किसी न किसी मात्रा में अवश्य होंगे। ऐसा कोई भी रूपीद्रव्य नहीं होगा जिसमें रूप तो हो परन्तु रस-गन्ध आदि न हों, या गन्ध तो हो किन्तु रूप-रस आदि न हों। यह संभव है कि अन्य रसादि गुणों की स्पष्ट प्रतीति न हो। अतः किसी पुद्गल विशेष में किसी गुण विशेष का सर्वथा अभाव नहीं है। इस तरह इस सिद्धांत से वैशेषिकों द्वारा परिकल्पित वायु का यह लक्षण कि 'जो रूपरहित १. प्रज्ञापना-सूत्र की वृत्ति में स्पर्श के १८४ भेद (भङ्ग) गिनाए हैं। वह इस आधार पर कि कर्कश स्पर्शवाला तद्विरोधी मृदुस्पर्श को छोड़कर अन्य स्वजातीय स्पर्शवाला भी हो सकता है। इसी प्रकार अन्य स्पर्शवाला भी तद्विरोधी स्पर्श को छोड़कर अन्य स्पर्शवाला हो सकने से स्पर्श के (२३ ४ ८) १८४ भेद संभव है। -उ० आ० टी०, पृ० १६५५. For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन स्पर्शवाली वस्तु हो, वायु है' ठीक नहीं है क्योंकि वैशेषिकों ने वायु में स्पर्श को स्वीकार करके भी उसे रूप - रसादि से रहित माना है। अनुभव में आता है कि जब वायु किसी दीवाल आदि से अवरुद्ध हो जाती है तो उसका कोई न कोई ठोस आकार भी अवश्य होना चाहिए अन्यथा वायु को दीवाल आदि से रुकना नहीं चाहिए | वायु में जब कोई ठोस आकार है तो उसमें कोई न कोई रूप भी अवश्य होना चाहिए; भले ही वह हमें प्रत्यक्ष न हो । इस तर्क के द्वारा यह नहीं कहा जा सकता है कि चेतन आत्मा में भी रूपादि होना चाहिए क्योंकि वह भी कोई वस्तु है । ऐसी ठोस वस्तु नहीं है जो किसी दीवाल आदि से रुके । वायु की ही तरह जलादि में भी रूपादि पाँचों गुणों का सद्भाव है क्योंकि पृथिवी आदि सभी द्रव्य जब रूपी - पुद्गल के विकार ( पर्याय) हैं तो फिर उनमें रूपादि पाँचों गुण क्यों नहीं होंगे ? अतः जहाँ रूपादि में से कोई भी गुण प्रकट होगा वहां रसादि अन्य गुण भी किसी न किसी अंश में अवश्य होंगे। इस तरह जलादि में पाँचों गुणों का सद्भाव न मानने वाले वैशेषिकों की मान्यता का खण्डन हो जाता है । आत्मा पुद्गल का लक्षण - ग्रन्थ में पुद्गल का लक्षण करते हुए शब्द, अन्धकार, उद्योत (प्रकाश), प्रभा ( कान्ति), छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श इन १० नामों को गिनाया है । २ १. रूपरहित स्पर्शवान्वायुः । - तर्क संग्रह, पृ० ७. वैशेषिकदर्शन की मान्यता है कि पृथिवी में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाए जाते हैं परन्तु जल में गन्ध का, तेज में गन्ध और रस का, वायु में रूप - रस और गन्ध का अभाव है । वेदान्तदर्शन के अनुसार ये सब ब्रह्म के ही विकार हैं। इनका उत्पत्तिक्रम है- आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी । २. सद्दन्धयार - उज्जोओ पभा छाया तवो इ वा । वण्णरसगन्धफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। – उ० २८. १२. For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार इसका तात्पर्य है कि शब्दादि सभी पुद्गल हैं। शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप ये सभी पुद्गल ही हैं यह बात सिद्ध करने के लिए ही पुद्गल के लक्षण में इन्हें गिनाया गया है; अन्यथा वर्णादि के कहने मात्र से पुद्गल का लक्षण हो सकता था। जैसा कि तत्त्वार्थसत्रकार ने किया है। यहाँ एक बात विचारणीय है कि पुद्गल के लक्षण में वर्णादि के उल्लेख के साथ संस्थान (आकार) को क्यों छोड़ दिया गया है ? जबकि रूपादि के भेदों में संस्थान को भी गिनाया गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी पुदगल के लक्षण में संस्थान का सन्निवेश नहीं किया है, जबकि पुद्गल की विभिन्न अवस्थाओं ( पर्यायों ) का उल्लेख करते समय शब्दादि के साथ संस्थान का भी तत्त्वार्थसूत्रकार ने सन्निवेश किया है ।२ इससे प्रतीत होता है कि पुद्गल के लक्षण में संस्थान भी गतार्थ है। क्योंकि जब किसी पुदगल में रूपादि चार गुणों का सदभाव होगा तो उसका कोई न कोई आकार भी अवश्य होगा। अतः ग्रन्थ में पुदगल के स्वभाव (परिणाम) का वर्णन करते हुए उसे स्पष्ट रूप से रूपादि पाँच गुणों से युक्त बतलाया है। शब्दादि में पुद्गल त्व की सिद्धि-वैशेषिकदर्शन में 'शब्द' को आकाश का गुण माना है। जबकि यहाँ पर शब्द को पुद्गलद्रव्य की अवस्था विशेष (पर्याय) माना गया है । हम श्रवणेन्द्रिय से शब्द का ज्ञान करते हैं परन्तु उसमें न तो कोई रूप है, न रस १. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । -त० सू० ५. २३. . २. शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च । -त० सू० ५. २४. ३. वण्णओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा । संठाणओ य विन्नेओ परिणामो तेसि पंचहा ।।। -उ० ३६.१५. ४. शब्दगुणकमाकाशम् । -तर्कसंग्रह, पृ० ६. For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन और न गन्ध । शब्द का स्पर्श भी ऐसा नहीं होता जिसे हम छूकर बता सकें कि इसमें कठोर या मृदु स्पर्श है । परन्तु कर्ण - इन्द्रिय से शब्द का सम्पर्क होने पर उसका ज्ञान अवश्य होता है । हम शब्द को तालु आदि के प्रयत्न से उत्पन्न करते हैं और उसे रिकार्ड भी कर लेते हैं जिससे ज्ञात होता है कि उसका कोई आकार एवं स्पर्श भी अवश्य होना चाहिए । जब शब्द में आकार और स्पर्श है तो रूपादि अन्य गुण भी अवश्य होने चाहिए जिनका हमें प्रत्यक्ष-ज्ञान नहीं होता है । शब्द की तरह 'अन्धकार' भी प्रकाश का अभाव मात्र नहीं है अपितु वह भी रूपादि से युक्त होने के कारण पुद्गल की ही अवस्था विशेष ( पर्याय ) है | यदि 'अन्धकार' मात्र प्रकाश का अभाव होता तो उसका प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिए क्योंकि अभाव का कभी प्रत्यक्षात्मक अनुभव नहीं होता है । यद्यपि प्रकाश के आने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है और प्रकाश के चले जाने पर अन्धकार छा जाता है । परन्तु इससे उलटा भी कहा जा सकता है कि अन्धकार के आने पर प्रकाश चला जाता है और अन्धकार के चले जाने पर प्रकाश आ जाता है । अतः अन्धकार अभावमात्र न होकर प्रकाश की तरह सत्तात्मक पुद्गल द्रव्य है । इसी तरह 'छाया', 'आतप', 'प्रभा' और 'उद्योत' आदि 'को भी पुद्गल द्रव्य की पर्याय जानना चाहिए । विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है । " इस तरह शब्द, अन्धकार आदि में रूपादि गुणों का सद्भाव होने से ये सभी पुद्गल द्रव्यरूप ही हैं । इसके अतिरिक्त पृथिवी, जल, तेज (अग्नि) और वायु ये चारों भौतिक द्रव्य वैशेषिकों की तरह स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं अपितु ये सभी पुद्गल की ही विभिन्न अवस्था - विशेष ( पर्याय ) हैं । इसके अतिरिक्त राग-द्वेष के कारण मानव के द्वारा किए गए अच्छे और बुरे कर्म भी पुद्गलरूप ही हैं । इसका आगे वर्णन किया जाएगा। इस तरह आधुनिक विज्ञान के मेटर और एनर्जी सभी पुद्गलरूप ही हैं । १२ १. देखिए - मोक्षशास्त्र ( ५. २३ - २४ ) - पं० फूलचन्द्र, पृ० २२६-२३६. २. पंचास्तिकाय ( गाथा ८२ ) में पुद्गल के समस्त विषय का उल्लेख करते हुए स्पष्ट लिखा है For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [७१ पुद्गल के भेद और उनका स्वरूप-ग्रन्थ में रूपी पुद्गल-द्रव्य के जिन चार भेदों का कथन किया गया है उनके नाम ये हैं : १. स्कन्ध (समुदाय), २. देश (स्कन्ध का कल्पित-भाग), ३. प्रदेश (स्कन्ध से मिला हुआ समूहात्मक द्रव्य का सबसे छोटा अविभाज्यांश) तथा ४. परमाणु ( स्कन्ध से पृथक सबसे छोटा अविभाज्य अंश )। रूपीद्रव्य का वह भाग जो कम-से-कम दो भागों में विभक्त किया जा सके 'स्कन्ध' (समूह-समुदाय) कहलाता है । दृष्टिगोचर होने वाले सभी द्रव्य स्कन्ध-रूप ही हैं क्योंकि उन्हें दो या अधिक भागों में विभक्त किया जा सकता है। रूपी-द्रव्य का वह भाग जो दो भागों में विभक्त न किया जा सके ऐसा सबसे छोटा अंश (जो समूहात्मक द्रव्य से पृथक् हो) 'परमाणु' कहलाता है। जब परमाणु किसी समूहात्मक द्रव्य से सम्बद्ध हो जाता है तो उसे 'प्रदेश' कहते हैं। अर्थात स्कन्ध के सबसे छोटे अंश को प्रदेश कहते हैं और उस सबसे छोटे अविभाज्य अंश के स्कन्ध से पृथक् हो जाने पर उसे ही परमाणु कहते हैं। बड़े स्कन्ध के कल्पित भागविशेष को जो सबसे छोटा अंश न हो. 'देश' कहते हैं। इस तरह 'देश' और 'प्रदेश' इन दो भेदों के स्कन्धरूप होने से पुद्गलद्रव्य के दो ही मुख्य भेद हैं : स्कन्ध और परमाणु । तत्त्वार्थसूत्रकार ने पुद्गल-द्रव्य के अणु और स्कन्ध के भेद से दो ही भेद किए हैं । २ उवभोज्जमिदिएहिं य इंदिय काया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥ १. देखिए-उ० आ० टी०, पृ० १६३२. पंचास्तिकाय (गाया ७४-७५) में भी पुद्गल के इसी प्रकार चार भेद किए हैं । परन्तु वहाँ स्कन्ध के आधे भाग को 'देश' और स्कन्ध के चतुर्थांश को 'प्रदेश' कहा है" खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू । इदि ते चदुव्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ॥ खधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसोति । अद्धद्धं च पदेशो परमाणू चेव अविभागी॥ २. अणवः स्कन्धाश्च । -त० सू० ५.२५. For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन परमाणु का यद्यपि चक्षु से प्रत्यक्ष-ज्ञान नहीं होता है फिर भी उस में रूपादि का अभाव नहीं है। यदि उसमें रूपादि का अभाव मान लिया जाएगा तो उसमें पुद्गल का सामान्यलक्षण ही घटित नहीं होगा तथा अनेक परमाणुओं के संयोग होने पर भी स्कन्ध में कभी भी रूपादि की प्रतीति नहीं होगी क्योंकि सर्वथा असत् से सत् कभी भी उत्पन्न नहीं होता है । परमाण के अतिसूक्ष्म होने के कारण हमें उसके रूपादि की प्रतीति नहीं होती है। पुद्गल परमाणु आकाश के एक प्रदेश (अतिसूक्ष्म स्थान) में और पुद्गल स्कन्ध आकाश के बहुत प्रदेश (अधिक स्थान) में ठहरता है। इस तरह सामान्यतौर से पुद्गल-स्कन्ध अधिक-स्थान (बहुप्रदेश) को घेरता है परन्तु कुछ स्कन्ध ऐसे भी हैं जो अपने गुणविशेष के कारण एकप्रदेश में भी ठहर जाते हैं। इसी प्रकार व्यक्ति की अपेक्षा से परमाणु के एकप्रदेशी होने पर भी शक्ति की अपेक्षा से उसमें भी बहुप्रदेशीपना माना गया है। अत: पुदगल-द्रव्य की स्थिति एक से अधिक प्रदेश में होने के कारण इसे जैनदर्शन में 'अस्तिकाय' कहते हैं ।२ अस्तिकाय का अर्थ है-जो बहुत प्रदेश में ठहरे। धारा-प्रवाह की अपेक्षा से ये स्कन्ध और परमाणु १. एगत्तेण पुहुत्तेण खंधा य परमाणु य ।। लोएगदेसे लोए य भइयव्वा. ते उ खेत्तओ ।। -उ० ३६.११. अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्यामिति परमाणनामेकप्रदेशास्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः। -पंचास्तिकाय-तत्त्वदीपिका टीका, पृ० १३. २. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं । अत्थितम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ॥ -पंचास्तिकाय, गाथा ४. ते चेव अस्थिकाया""" -पंचास्तिकाय, गाथा ६. For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [७३ अनादि-काल से वर्तमान हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। इनका कभी अभाव न था, न है और न होगा। परन्तु अमूक स्थिति विशेष की अपेक्षा से स्कन्ध और परमाण का प्रारम्भकाल और अन्तकाल दोनों संभव हैं। अर्थात् स्थिति-विशेष की अपेक्षा से स्कन्ध और परमाण में उत्पत्ति और विनाश दोनों होते हैं। इस उत्पत्ति और विनाश की एक सीमा है। जैसे- यदि कोई परमाणु या स्कन्ध किसी एक निश्चित स्थान पर ठहरते हैं तो वे अधिक से अधिक (उत्कृष्ट) असंख्यातकाल (संख्यातीतवर्ष) तक और कम से कम (जघन्य) एक क्षण (समय) तक वहाँ रहेंगे। इस उत्कृष्ट अवधि के बाद वे किसी न किसी निमित्त को पाकर क्षेत्रान्तर में अवश्य चले जाएंगे। यदि कोई परमाण या स्कन्ध किसी विवक्षित स्थान से स्थानान्तर में चला जाता है तो उसे पुनः उसी स्थान पर आने में कम-सेकम एक क्षण और अधिक से अधिक अनन्तकाल लग सकता है। मध्यम-सीमा का काल कम से कम (जघन्य) और अधिक से अधिक ( उत्कृष्ट) सीमा के बीच कोई भी हो सकता है। इस तरह रूपादि गुण से युक्त जो भी वस्तु दृष्टिगोचर होती है वह सब पुदगल-द्रव्य है। बौद्धदर्शन में भी पुद्गल शब्द का प्रयोग मिलता है परन्तु वहाँ पर इसका प्रयोग शरीरधारी-प्राणियों के लिए किया गया है ।२ १. एत्तो कालविभागं तु तेसि वुच्छं चउन्विहं ।। संतई पप्प तेऽणाई अपज्जवसिया वि य । ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ।। असंखकालमुक्कोसं इक्कं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं ठिई एसा वियाहिया । अणंतकालमुक्कोसं इक्कं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं अंतरेयं वियाहियं ॥ -उ० ३६. ११-१४. २. पालि-अंग्रेजी शब्दकोष, पवर्ग, पृ० ८५. For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन (ख) अरूपी अचेतन-द्रव्य (धर्म-अधर्म-आकाश-काल) : . रूपादि से रहित अचेतन-द्रव्य मुख्यतः चार प्रकार का है और अवान्तर भेदों के साथ १० प्रकार का बतलाया गया है। इसके अवान्तर भेद काल्पनिक हैं । इसके प्रमुख चार भेदों के नाम ये हैंधर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य के बहुप्रदेशी होने के कारण इन्हें पुद्गल की तरह स्कन्ध, देश और प्रदेश के भेद से तीन-तीन प्रकार का बतंलाया गया है। इनके एक अखण्डरूप द्रव्य होने के कारण इनका परमाणुरूप चौथा भेद नहीं किया गया है। कालद्रव्य के परमाणुरूप ही होने के कारण उसका कोई अन्य अवान्तर भेद नहीं किया गया है क्योंकि बहप्रदेशी द्रव्य में ही स्कन्ध, देश और प्रदेश ये अवान्तर भेद बन सकते हैं । धर्मादि द्रव्यों के परमाणरूप न होने और बहुप्रदेशी (अस्तिकाय) होने से ग्रन्थ में धर्मादि द्रव्यों को संख्या की अपेक्षा एक-एक अखण्ड-द्रव्य बतलाया है। काल-द्रव्य के परमाणुरूप होने तथा एकप्रदेशी (अनस्तिकाय) होने से उसे अनेक संख्यावाला बतलाया है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी कालद्रव्य को छोड़कर शेष धर्मादि तीन अचेतन द्रव्यों को बहुप्रदेशी (अस्तिकाय) तथा निष्क्रिय कहा है। ये चारों ही द्रव्य अरूपी होने से भावात्मक तथा शक्तिरूप हैं। इन्हें हम अपनी आँखों से देख नहीं सकते हैं। इनके कार्यों से इनकी १. धम्मो अधम्मो आगासं दव्वं इक्किक्कमाहियं । अणंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलजंतवो ।।। - उ० २८. ८. २. अजीवकाया धर्माधर्माकाश पुद्गलाः । -त० सू० ५.१. आ आकाशादेक द्रव्याणि । निष्क्रियाणि च । -त० सू. ५. ६-७. For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [७५ सत्ता की केवल कल्पना कर सकते हैं। इन चारों द्रव्यों का न तो कभी विनाश होता है और न उत्पत्ति । अतः इन्हें सन्तति-प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त स्वीकार किया गया है। अपेक्षा-विशेष की दृष्टि से इनमें सादि-सान्तता (उत्पत्ति-विनाश . भी है।' यद्यपि ग्रन्थ में सिर्फ काल-द्रव्य के विषय में सादि-पान्तता का कथन है परन्तु उपाधि की अपेक्षा धर्मादि द्रव्यों में भी सादिसान्तता अभीष्ट है।२ धर्म और अधर्म द्रव्य का स्थिति-क्षेत्र लोक की सीमा-प्रमाण (असंख्यात-प्रदेशी) माना है। आकाशद्रव्य के लोक और अलोक में वर्तमान होने से उसे लोकालोकप्रमाण (अनन्त प्रदेशी) माना है। मनुष्य-लोक में ही घड़ी, घंटा आदि रूप से काल की गणना की जाने के कारण काल-द्रव्य को ढाई-द्वीपप्रमाण (समयक्षेत्रिक) कहा है। अन्यथा अन्य द्रव्यों की तरह यह भी लोक-प्रमाण ही है। क्योंकि ऐसा न मानने पर ढाई-द्वीप के बाहर कालद्र व्यकृत परिवर्तन कैसे संभव हो सकेगा? अतः अन्यत्र जैन-ग्रन्थों में काल-द्रव्य को भी लोक १. धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया । अपज्जवसिथा चेव सव्वद्धं तु वियाहिया ।। समए वि संतई पप्प एवमेव वियाहिए । आएसं पप्प सईए सपज्जवसिए वि य । -उ० ३६.८-६. २. वही। ३. धम्माधम्मे य दो चेव लोगमित्ता वियाहिए। लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए । -उ० ३६.७. समयावलिकापक्षमासवयनसञ्जिताः। नृलोक एव कालस्य वृत्तिन्यित्र कुत्रचित् ।। -उद्धृत उ० घा० टी०, भाग-५, पृ० ६६४. तथा देखिए-पृ० ५७, पा० टि० ५. ४. देखिए-पृ० ५५, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रमाण माना है।' इन धर्मादि अरूपी अचेतन द्रव्यों का स्वरूप इस प्रकार है : १. धर्मद्रव्य-यहाँ पर धर्मद्रव्य से तात्पर्य पूण्य से नहीं है अपितु गति में सहायता देने वाले द्रव्य-विशेष से है। अतः ग्रन्थ में गति को धर्म का लक्षण बतलाया है ।२ धर्मद्रव्य गतिमान् चेतन और पुद्गल का मात्र गति में सहायक कारण है, प्रेरक कारण नहीं है। वास्तव में गति चेतन और पुद्गल में ही है। इसे हम रेल की पटरी की तरह गति का माध्यम कह सकते हैं। यह लोकाकाश-प्रमाण एक अखण्ड-द्रव्य होने से स्वतः निष्क्रिय है। लोक की सीमा के बाहर चेतन और पुदगल का गमन न हो सके अतः इसे लोक की सीमा-प्रमाण माना गया है। अलोक में इस प्रकार के गति के माध्यम का अभाव होने से वहाँ जीवादि की गति का निरोध हो जाता है। २. अधर्मद्रव्य-धर्मद्रव्य की तरह यह भी पापरूप अधर्म अर्थ का वाचक नहीं है अपितु इसके द्वारा चेतन और,पुद्गल जो क्रियाशील द्रव्य हैं उनके ठहरने में सहायता मिलती है। अतः स्थिति को अधर्म का लक्षण बतलाया है। अर्थात ठहरनेवाले द्रव्यों (जीव-पुद्गल) के ठहरने में सहायता करना इसका कार्य है। इस तरह यह धर्मद्रव्य से ठीक विपरीत द्रव्य है। धर्मद्रव्य गमन में सहायक है तो अधर्मद्रव्य ठहरने में सहायक है। शेष सभी लक्षण धर्मद्रव्य की तरह हैं। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के मानने का मूल कारण है सृष्टि के नियन्ता ईश्वर को न मानना तथा वस्तु-व्यवस्था के साथ लोका १. भा० सं० जे०, पृ० २२२. २. गइ लक्खणो उ धम्मो। -उ० २८.६. ३. पंचास्तिकाय, गाथा ८३, ८५; के० ज०, पृ० ६३. ४. अहम्मो ठाणलक्खणो। -उ० २८.६. For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १: द्रव्य-विचार -[७७ लोक का विभाजन सुनियोजित बनाए रखना। प्रेरक कारण न मानकर सहायक कारण मात्र मानने का कारण है पूर्ण व्यक्तिस्वातन्त्रय को कायम रखना तथा द्रव्यों में परस्पर संघर्ष न होना। विश्व में जो हलनचलनरूप क्रिया देखते हैं उन सब में धर्मद्रव्य कार्य करता है और जो हलन-चलन की क्रिया से रहित हैं उन सबमें अधर्मद्रव्य कार्य करता है। दोनों के अचेतन एवं स्वतः निष्क्रिय होने के साथ गति-स्थिति में सहायक कारण मात्र होने से आपस में झगड़े का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। झगड़ा सक्रिय-द्रव्य में ही संभव है, निष्क्रिय में नहीं। यहाँ एक बात और विचारणीय है कि गति और स्थिति में सहायक इन दो द्रव्यों के क्रमशः नाम धर्म और अधर्म क्यों रखे गए जबकि धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग सर्वत्र क्रमशः पुण्यरूप और पापरूप कार्यों के अर्थ में प्रचलित था। इसके अतिरिक्त प्रकृत ग्रन्थ में भी धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग क्रमश: अच्छे और खराब कार्यों के अर्थ में किया गया है। अतः मालूम पड़ता है इसके मूल में धार्मिक भावना कार्य करती है। वह यह कि अधर्म (बुरे कार्य) करनेवाला संसार में पड़ा रहता है और धर्म (शुभ कार्य) करनेवाला स्वर्ग या मुक्ति के लिए ऊपर गमन करता है। इसीलिए धर्मको गति का और अधर्म को (संसार में स्थित रहने से) स्थिति का सहायक कारण मानकर उनके नाम क्रमश : गति और स्थिति न रखकर धर्म और अधर्म नाम रखे गए हैं। ३ आकाशद्रव्य - द्रव्यों के ठहरने के लिए स्थान (अवकाश) देना आकाश का कार्य है। यह सभी द्रव्यों का आधारभूत भाजन (पात्र-विशेष) है ।२ चेतन और अचेतन द्रव्यों के ठहरने के लिए किसी आधार विशेष की कल्पना आवश्यक थी क्योंकि विना आधार के ये द्रव्य कहाँ ठहरते ? इसके लिए जिस द्रव्य की कल्पना की गई उसका नाम है-आकाश । आकाश कोई ठोस द्रव्य नहीं है अपितु खाली स्थान ही आकाश है। जहाँ हम उठते ... १. उ० २०. ३८; ७.१४-२१. २. भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक खणं ।। -उ० २८.६. For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] उत्तराध्ययन-सूत्र: एक परिशीलन हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सोते हैं, सर्वत्र आकाश है । अलोक में भी ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ आकाश न हो। ऐसे द्रव्य की सत्ता स्वीकार कर लेने से द्रव्य अनाधार नहीं रहते हैं अन्यथा आधार के विना आधेय कहाँ रहेंगे ? सर्वशक्तिसम्पन्न ईश्वर-द्रव्य को स्वीकार कर लेने पर ऐसे द्रव्य की कल्पना निरर्थक थी। यद्यपि बौद्ध, वैशेषिक, सांख्य और वेदान्त दर्शनों में भी आकाश-द्रव्य माना गया है परन्तु प्रकृत ग्रन्थ में स्वीकृत आकाश-द्रव्य से वहां भिन्नता है। बौद्धदर्शन में आकाश का स्वरूप आवरणाभाव माना है. तथा उसे असंस्कृत-धर्मों (जिनमें उत्पाद-विनाश नहीं होता) में गिनाया है। परन्तु उत्तराध्ययन में आकाश को अभावात्मक स्वीकार नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त आकाश को असंस्कृतधर्म भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि उस में उत्पाद-विनाश और स्थिरतारूप द्रव्य का सामान्य लक्षण पाया जाता है। द्रव्य के इस स्वरूप का आगे विचार किया जाएगा। वैशेषिकदर्शन में आकाश को यद्यपि एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है परन्तु वहाँ शब्द-गुण के जनक को आकाश कहा गया है। इसके अतिरिक्त 'दिशा' को आकाश से पृथक माना गया है। उत्तराध्ययन में 'दिशा' को आकाश से पृथक् नहीं माना गया है क्योंकि आकाश के प्रदेशों में ही दिशा की कल्पना की जाती है। इसके अतिरिक्त आकाश शब्द-गुण का जनक नहीं हो सकता है क्योंकि शब्द मूर्तिक पुद्गल विशेष है और आकाश अमूर्तिक द्रव्य है। अमूर्तिक द्रव्य मूर्तिक का जनक कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार प्रकृति (अचेतन ) का विकार या ब्रह्म का विवर्त भी आकाश नहीं हो सकता है क्योंकि आकाश एक स्वतन्त्र द्रव्य है। १. बौ० द०, पृ० २३६. २. तत्र द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव ।...." शब्दगुणकमाकाशम् । तच्चैकं विभुनित्यं च । प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक् । . -तर्क सं०, पृ० २,६. २. आकाश को वेदान्तदर्शन में ब्रह्म का विवर्त तथा सांख्यदर्शन में प्रकृति का विकार माना गया है। -देखिए-वेदान्तसार, पृ० ३२; सां० का०, श्लोक ३. For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [७६ यद्यपि धर्मद्रव्य की तरह आकाश के भी स्कन्ध, देश और प्रदेश ये तीन भेद किए गए हैं परन्तु प्रकृत-ग्रन्थ में अन्य प्रकार से भी दो भेद मिलते हैं। उनके नाम हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश ।' लोकाकाश से तात्पर्य है-आकाश के जितने भाग में धर्मादि द्रव्यों की सत्ता है, वह प्रदेश । अलोकाकाश से तात्पर्य हैजहाँ धर्मादि द्रव्यों की सत्ता नहीं है (अलोक)-मात्र आकाश ही आकाश है, वह प्रदेश । इस तरह आकाश का यह द्विविध विभाजन लोक की सीमा के आधार पर किया गया है। आकाश के उपर्युक्त सभी भेद काल्पनिक या उपाधिजन्य हैं क्योंकि इस प्रकार से आकाश के घटाकाश, मठाकाश आदि अनेक भेद हो सकते हैं। वास्तव में आकाश भी धर्मादि-द्रव्य की तरह एक अखण्ड अस्तिकाय-द्रब्य है जिसे पुदगल की तरह तोड़कर दो भागों में विभक्त नहीं किया जा सकता है। अलोक में धर्मादि द्रव्यों का अभाव होने से अलोकाकाश में आश्रय प्रदानरूप आकाश के सामान्य लक्षण का अभाव है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आकाश अलोक में भी आश्रय देने को तैयार है। यदि कोई द्रव्य किसी कारणवश वहाँ आश्रय प्राप्त करने के लिए नहीं जाता है तो इसमें आकाश का क्या दोष है ? वास्तव में धर्म और अधर्म द्रव्य के प्रतिबन्धक होने से ही अलोकाकाश में अन्य द्रव्यों की सत्ता नहीं है। सीमारहित होने के कारण आकाश को अनंत माना गया है। आधुनिक दर्शनशास्त्र में धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों की शक्तियाँ आकाश में ही मानी जाती हैं। १. देखिए-पृ० ५५, पा० टि० १; पृ० ७५, पा० टि० ३. २. देखिए-पृ०७४, पा० टि० १; पृ० ५५ पा० टि. १. ३. इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया। -उ० ६.४८. तथा देखिए-पृ० ५५, पा० टि० १. 4. These three functions of subsistence, motion and rest are assigned to space in modern philosophy. -भा० द० रा०, पृ० ३१६. For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ___ ४. कालद्रव्य-द्रव्यों में होनेवाले परिवर्तन से जो समय की गणना की जाती है उसे 'वर्तना' कहते हैं और वर्तना (वस्तुमात्र के परिवर्तन में कारण होना) काल का लक्षण है।' सब द्रव्यों के परिवर्तन (परिणमन) में कारण कालद्रव्य ही है। जैन साहित्य में काल के दो भेद किए गए हैं-१. निश्चयकाल और २. व्यवहारकाल ।२ ग्रन्थ में काल को जो ढाई-द्वीपप्रमाण (समयक्षेत्रिक) कहा गया है वह व्यवहारकाल की दृष्टि से कहा गया है क्योंकि परिवर्तन तो सब क्षेत्रों में प्रतिसमय होता रहता है और उसकी (निश्चयकाल की) द्रव्यात्मक सत्ता समस्त लोक में व्याप्त है। ग्रन्थ में व्यवहारकाल की ही दृष्टि से काल को 'अद्धासमय'3 भी कहा गया है। काल के जितने भी भेद संभव हैं वे सब व्यवहार की दृष्टि से ही संभव हैं क्योंकि कालके परमाणुरूप होने से ग्रन्थ में अनंत संख्यावाले काल का एक ही भेद गिनाया है। बौद्ध और वैशेषिक-दर्शन में भी काल का व्यवहार होता है। बौद्धदर्शन में काल स्वभावसिद्ध द्रव्य नहीं है। वह मात्र व्यावहारिक काल है।५ वैशेषिकदर्शन में काल , व्यापक और एक १. वत्तणा लक्खणो कालो।। -उ० २८.१०. २. भा० सं० जे०, पृ० २२२; त० सू० ५.३६-४० (सर्वार्थसिद्धि टीका)। ३. यह देशज शब्द है । इसका अर्थ है-सूर्य आदि की क्रिया (परिभ्रमण) से अभिव्यक्त होनेवाला समय । -पाइअसद्दमहण्णवो, पृ० ५२. काल शब्दो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशिष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपोऽवसेयः । - स्थानाङ्ग-सूत्र (४.१.२६४) वृत्ति, पत्र १६० (उधृत-उत्तरज्झयणाणि भाग २, आ० तुलसी, पृ० ३१५, पा० टि० १. तथा देखिए-पृ० ७५ पा० टि० ३. ४. देखिए-पृ० ६४, पा० टि० १. ५. सो पनेस सभावतो अविज्जमानत्ता पत्तिमत्तको एवा ति वेदितव्यो । -अट्ठशालिनी १.३.१६. For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [८१ है। परन्तु उत्तराध्ययन में काल अणुरूप और अनेक संख्यावाला है। कुछ श्वेताम्बर जैन-आचार्य काल की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं। ___ इस तरह इन पाँचों प्रकार के रूपी और अरूपी अचेतन-द्रव्यों में पुद्गल-द्रव्य को छोड़कर शेष चार द्रव्य भावात्मक, निष्क्रिय और अरूपी हैं । पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जिसे हम देख सकते हैं, और स्पर्श आदि भी कर सकते हैं। इसका जीव के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और जीवों के विभाजन आदि का आधार भी यही है । चेतनद्रव्य-जीव : ___ अचेतन-द्रव्य के अतिरिक्त जिस द्रव्य की सत्ता है उसका नाम है-जीव । जीव से तात्पर्य है जिसमें देखने एवं जानने की शक्ति हो ऐसा चेतनात्मक द्रव्य । चैतन्य के होने पर ही होने वाले परिणाम को या चैतन्य को ही उपयोग कहते हैं। अतः ग्रन्थ में जीव का लक्षण उपयोग (चेतना) बतलाया है। जैनदर्शन में यह उपयोग मुख्य रूप से दो प्रकार का माना गया है : दर्शनोपयोग (निराकारज्ञान-स्वसंवेदनात्मक) और ज्ञानोपयोग (साकारज्ञान-परसंवेदनात्मक)।' दर्शन शब्द का अर्थ है-किसी वस्तु का सामान्य अवलोकन करना। ज्ञान शब्द का अर्थ है• किसी वस्तु के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करना। अतः ज्ञान के पहले दर्शन अवश्य होता है। यहाँ पर दर्शनोपयोग से तात्पर्य है स्व का निराकार संवेदन होना और ज्ञानोपयोग से तात्पर्य है स्व और पर का साकार बोध होना। जिसमें ज्ञान-दर्शनरूप चेतना १. अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः । स चैको विभुनित्यश्च । -तर्क सं०, पृ० ६. २. जनदर्शन-महेन्द्रकुमार, पृ. १६३. ३. जीवो उवओगलक्खणो। -उ० २८.१०. ४. उपयोगो लक्षणम् । स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । -त० सू० २.८-६. For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन (उपयोग) नहीं है वह अचेतन है और जिसमें चैतन्य का कुछ भी अंश मौजूद है वह चेतन या जीव है । जीव ही आत्मा है.। .. ऊपर जो जीव का लक्षण बतलाया गया है वह अचेतन से पृथक करने वाला स्वरूप-लक्षण है। जीव के इसी स्वरूप का समर्थन करते हुए ग्रन्थ में अन्य प्रकार से भी लिखा है कि ज्ञान, दर्शन, सुख, दुःख, चारित्र, तपस्या (तप), वीर्य और उपयोग-ये सब जीव के लक्षण हैं।' इस लक्षण में जीव के जिन असाधारण धर्मों का कथन किया गया है वे सिर्फ जीव में ही संभव हैं । यद्यपि वीर्य (सामथर्य) अचेतन में भी पाया जाता है परन्तु अचेतनसम्बन्धी वीर्य उपयोगशून्य होने से यहाँ अभीष्ट नहीं है। क्योंकि ज्ञान-दर्शन आदि असाधारण धर्मों का सम्बन्ध अन्ततः उपयोग से ही है। उपयोग के होने पर ही ज्ञान, दर्शन आदि देखे जाते हैं। अत: जीव के प्रथम लक्षण में सिर्फ उपयोग को ही जीव का लक्षण बतलाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी उपयोग को जीव का लक्षण बतलाकर उसे ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का बतलाया है । २ अतः उपयोग या चेतना ही जीव का प्रमुख लक्षण है। शरीर से पृथक जीव के अस्तित्व के विषय में एक सबसे जबर्दस्त शंका है कि यदि उसका अस्तित्व है तो दिखलाई क्यों नहीं पड़ता ? उत्तराध्ययन में जब भ्रगुपुरोहित अपने पुत्रों को धन, स्त्री आदि के प्रलोभन द्वारा आकृष्ट नहीं कर पाता है तो वह धर्म के आधारभूत आत्मा के अस्तित्व में इसी प्रकार की शंका करता हुआ कहता है कि जैसे अविद्यमान भी अग्नि अरणिमन्थन (दो लकड़ियों की रगड़ से) से, घृत दूध से, तिलों से तेल उत्पन्न हो जाते हैं वैसे ही चेतन जीव की चार भौतिकद्रव्यों (पृथिवी, अप, तेज और वायु) से उत्पत्ति हो जाती है और उनके अलग हो जाने १. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।" वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं ।। -उ० २८.११. २. देखिए-पृ० ८१, पा० टि० ४. For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [८३ पर चेतन (जीव) भी नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य चेतनात्मक स्वतन्त्र जीव-द्रव्य नहीं है।' इसके उत्तर में भ्रगुपुरोहित के दोनों पुत्र कहते हैं कि आत्मा (जीव) चंकि रूपरहित (अमृत) है अतः उसका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। जो अमूर्त है वह नित्य भी है। इस तरह यहाँ बतलाया गया है कि आत्मा के अमूर्त होने से उसका प्रत्यक्षज्ञान नहीं होता है। जब मूर्त होकर भी वायू हमें दिखलाई नहीं पड़ती तो फिर जो अमूर्त जीव है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कैसे हो सकता है ? जीव के अस्तित्व का ज्ञान उसके कार्यों द्वारा ही (अनुमानप्रमाण से) किया जा सकता है। ग्रन्थ में ऐसे चार मुख्य कार्य गिनाए हैं जिनसे जीव के अस्तित्व का ज्ञान होता है। वे ये हैं : 3 १. मैं ज्ञानवान् हूँ, २. मैं अपने आप को जानता हूँ, ३ मैं सुखी हूँ, ४. मैं दुःखी हैं। इस प्रकार से तथा इसी प्रकार के अन्य अनुभवों से प्रतीत होता है कि शरीर से अतिरिक्त कोई चेतन द्रव्य है । भ्रगुपुरोहित ने अरणिमन्थन आदि से जो अविद्यमान अग्नि आदि की उत्पत्ति बतलाई है वह भी अनुभव से विपरीत १. जहा य अग्गी अरणी असन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेषु । एमेव जाया सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिठे ।। .-उ० १४.१८. २ नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्त भावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो । -उ० १४.१६. ३. नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य । -उ० २८.१०. ४. हम अनुभव करते हैं 'मेरा शरीर', 'मेरा हाथ' आदि । इस प्रकार के भेदात्मक अनुभव से ज्ञात होता है कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। यदि शरीर और आत्मा अभिन्न होते तो 'मेरा शरीर' ऐसा अनुभव नहीं हो सकता। अगर कहा जाए कि 'मेरी आत्मा' ऐसा भी तो अनुभव होता है। तो हम कहेंगे कि इससे आत्मा स्वतः सिद्ध हो जाती है। क्योंकि यहाँ 'मेरी' शब्द का प्रयोग शरीर के लिए हुआ है। इस तरह आत्मा शरीर से भिन्न ही सिद्ध हुआ। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है। यदि अरणि में अग्नि, दूध में घी, और तिल में तैल पहले से विद्यमान न हो तो वे उनसे उत्पन्न ही नहीं हो सकते हैं। यदि इस तरह असत से भी सत पैदा होने लगे तो फिर तैल आदि के लिए तिलों को ही क्यों खोजा जाता है ? बालू आदि के द्वारा क्यों नहीं तेल आदि निकाला जाता है ? __इसके अतिरिक्त यदि शरीर से चेतन-द्रव्य पृथक नहीं है तो फिर क्या कारण है कि मृत-पुरुष को शरीर के वर्तमान रहने पर भी सुख-दु:ख आदि का अनुभव नहीं होता है ? विशेषावश्यके-भाष्य में बतलाया गया है कि मृत-शरीर में यदि वायु का अभाव हो जाता है तो पम्प आदि के द्वारा हवा भरने पर उसे जीवित हो जाना चाहिए। यदि उसमें तेज का अभाव हो जाता है तो वायु की तरह तेज का प्रवेश कराने पर उसे जीवित हो जाना चाहिए। यदि उसमें विशिष्ट-प्रकार के तेज का अभाव है तो वह विशिष्ट-तेज क्या है ? आत्मा से अतिरिक्त वह तेज कुछ भी नहीं है।' किञ्च, जिसका निषेध किया जाता है उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इसीलिए उत्तराध्ययन में भी शरीर को जीवत्व के अभाव में तुच्छ कहा है। इसी प्रकार के अन्य अनेक तर्कों द्वारा प्रायः सभी आत्मवादी भारतीय दर्शन जीव या आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि करते हैं। १. स्याद्-अज्ञातोपालम्भोऽयं, तस्या भूतसमुदायोपलब्धिसिद्धेः, न मृत शरीरे व्यभिचारात्, तत्र वाय्वाभावे न व्यभिचार इति चेत्, न, नलिकाप्रयोगप्रक्षेपेऽप्यनुपलब्धेः, तेजो नास्तीति चेत्, न, तस्यापि तथैव क्षेपेऽनुपलब्धः, विशिष्टं तेजो नास्तीति चेत् आत्मभाव इत्यारभ्यतां तहि भूम्यालिङ्गनम् । " -विशेषावश्यकभाष्यटीका-तृतीयगणधर, पृ० ५१७. २. यनिषिध्यते तत् सामान्येन विद्यते एव । -षड्दर्शनसमुच्चय-गुणरत्न, पृ० ४८-४६ पाश्चात्यदर्शन में आधनिक-युग के संस्थापक देकार्त भी इसी तरह आत्मा की सिद्धि करते हैं। -देखिए-पाश्चात्यदर्शन, पृ० ८६-८८. ३. तं एक्कगं तुच्छशरीरगं से। -उ० १३.२५. For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [८५ उत्तराध्ययन में जीव के सामान्य चेतन गुण के अतिरिक्त कुछ अन्य भी गुण बतलाए हैं जो अजीव से व्यावर्तक तो नहीं हैं परन्तु जीव के स्वरूपाधायक अवश्य हैं । जैसे : १. जीव अमूर्त है-संसारावस्था में जीव शरीर के सम्बन्ध से यद्यपि मूर्तिक की तरह है परन्तु वास्तव में रूप, रस, गन्ध आदि से रहित होने के कारण उसे अमूर्त स्वभाववाला माना है। अमूर्तस्वभाव होने के कारण ही वह हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता है। २. जीव अविनश्वर है २-जो अमूर्त है उसका शस्त्रादि के द्वारा विनाश संभव न होने से वह अजर-अमर भी है। गीता में भी इसे अजर-अमर कहा गया है।3 ग्रन्थ में इसीलिए नश्वर संसार में जोब को सारवान् वस्तु माना है। अनादि काल से शरीर के साथ सम्बन्ध होने के कारण जीव एक शरीर के नाश होने पर दूसरे शरीर को प्राप्त करता है। अतः शरीर-सम्बन्ध के कारण जीव अनित्य भी है। . ३. जीव स्वदेहपरिमाणवाला है५ -आत्मा स्वतः अमूर्त है परन्तु शरीर के सम्बन्ध से मूर्तिक-सा हो रहा है। अतः जीव में १. देखिए-पृ० ८३, पा० टि० २ तथा प्रवचनसार २.८०. २. वही। नत्थिजीवस्स नासु त्ति । -उ० २.२७. ३. नायं हन्ति न हन्यते ..." न हन्यते हन्यमाने शरीरे । -गीता २.१६-२०. ४. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पइ। ___सारभांडाणि नीणेइ असारं अव उज्झइ ।। एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि तुब्भेहिं अणमन्निओ। - उ० १६. २३-२४. ५. उस्से हो जस्स जो होई भवम्मि चरिमम्मि उ। तिभागहीणो तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे ।। -उ० ३६.६४. For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन स्वतः कोई आकार-प्रकार आदि के न होने से शरीर के सम्बन्ध के कारण उसे स्वदेह-परिमाणवाला माना है। जीव के स्वदेहपरिमाणवाला होने से वह न तो व्यापक है और न अणुरूप ही है। अपितु छोटे या बड़े शरीर में जितना स्थान पाता है उतने में ही विस्तार या संकोच को प्राप्त करके रह जाता है। यदि उसे स्वदेह-परिमाण न मानकर व्यापक माना जाता तो उसे शरीर के बाहर भी संवेदन होना चाहिए था। यदि अणुरूप माना जाता तो पूरे शरीर में संवेदन नहीं होना चाहिए था। हमें शरीर-प्रदेशमात्र में ही संवेदन होता है, न तो शरीर के एक-प्रदेश में और न शरीर के बाहर। इसीलिए आत्मा को शरीर-परिमाण वाला माना है। यहां एक प्रश्न है कि मुक्त-जीवों के शरीररूपी बन्धन न होने से उन्हें समस्त-लोक में व्याप्त हो जाना चाहिए। यहाँ मालूम पड़ता है कि मुक्त-जीवों के व्यापक मानने पर शरीर-प्रमाण वाले सिद्धान्त से विरोध होता है । अतः उन्हें भी व्यापक न मानकर पूर्वजन्म के शरीर-प्रमाण की अपेक्षा 3 भाग न्यून क्षेत्रप्रमाण माना है।' पूर्वजन्म के शरीर की अपेक्षा 3 भाग न्यून मानने का कारण है कि शरीर में कुछ छिद्र भाग रहते हैं और मुक्त-जीवों के शरीर न होने से उनके आत्म-प्रदेश सघन हो जाते हैं। अतः पूर्व जन्म के शरीर की अपेक्षा भाग न्यून क्षेत्र माना है। बन्धन का अभाव होने से तथा उसमें संकोच-विकास स्वभाव होने से मुक्त-जीव को या तो अणुरूप या व्यापक हो जाना चाहिए था। उसका अभाव माना नहीं जा सकता क्योंकि सत का कभी विनाश नहीं होता है। ४. जीव कर्ता-भोक्ता तथा पूर्ण स्वतन्त्र है-स्वयं के उत्थान और पतन में जीव को पूर्ण स्वतन्त्र, कर्ता एवं भोक्ता माना है। १. वही। २. अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नन्दणं वणं ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ।। -उ० २०. ३६-३७. For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [८७ अतः ग्रन्थ में कहा है-आत्मा अपना कर्ता, विकर्ता (उत्थान और पतन का), अच्छा मित्र, खराब शत्रु, वैतरणी नदी ( एक नारकी नदी जो दुःखकर है), कटशाल्मलि वृक्ष (दुःख देने वाला पेड़), कामदुधा धेनु तथा नन्दन वन (ये दोनों सुखकर हैं) है।' इसका तात्पर्य है कि आत्मा जैसा चाहे वैसा कर्म करके अपने को अच्छे या खोटे मार्ग पर ले जा सकता है। यदि अच्छा काम करता है तो अपना सबसे बड़ा मित्र है, कामधेनु है तथा नन्दनवन है। यदि बुरे कार्य करता है तो अपना सबसे बड़ा शत्रु है, वैतरणीनदी है तथा कूट शाल्मलि वृक्ष है। इसमें ईश्वर-कर्तक कोई हस्तक्षेप नहीं है। जीव जैसा करता है वैसा ही भोगता है। अच्छे कर्म करता है तो सुखी होता है और बुरे कर्म करता है तो दुःखी होता है। ____५. जीव ऊर्ध्वगमन-स्वभाववाला है २- मुक्त-जीवों का निवास लोक के ऊर्ध्वभाग में माना गया है। अतः जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन वाला होना चाहिए जोकि बन्धन के कारण नीचे (संसार में) पड़ा हुआ है। यदि ऐसा न माना जाता तो मुक्त-जीवों को वहीं रहना पड़ता जहां शरीर का त्याग करते हैं। __इस तरह ग्रन्थ में जीव को ज्ञान-दर्शन स्वभावरूप चेतनगुण के अतिरिक्त अमूर्त, नित्य, स्वदेह-परिमाण, कर्ता, भोक्ता, स्वतन्त्र, ऊर्ध्वगमनस्वभाव तथा नश्वर संसार में सारभूत द्रव्य माना है। जीव का ऐसा ही स्वरूप अन्य जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। १. वही। २. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया । __इहं बोदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ।। -उ० ३६. ५६. तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ।"तथागतिपरिणामाच्च । -त० सू० १०.५-६. ३. जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेह परिमाणो । भोत्ता संसारत्थो मुत्तो सो विस्ससोड्ढगई ।। -द्रव्यसंग्रह, गाथा २. तथा देखिए-भगवतीसूत्र २.१०; १३.४; स्थानाङ्ग ५.३.५३०; नवपदार्थ, पृ० २६. For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन जीवों के भेद-जीवों की संख्या ग्रन्थ में कालद्रव्य की तरह अनन्त बतलाई गई है।' हवा, पानी, पृथिवी, अग्नि, पौधा, कुत्ता, बिल्ली, पशु, स्त्री, पुरुष आदि में सर्वत्र जीवों की सत्ता मानी गई है। इन सभी जीवों को सर्वप्रथम मुक्त और बद्ध की दष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है। इन्हें ही क्रमशः 'सिद्ध' और 'संसारी' के नाम से कहा गया है। इन्हें क्रमशः 'अशरीरी' और 'सशरीरी' भी कह सकते हैं क्योंकि सभी मुक्त-जीव शरीररहित होते हैं और सभी संसारी-जीव शरीर-सहित । ऐसा कोई भी समय या स्थान नहीं है जब संसारी-जीव शरीर-रहित रहता हो। मृत्यु के उपरान्त (एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जाते समय) भी वह एक विशेष-प्रकार के शरीर ( कार्मण-शरीर ) से युक्त रहता है। इन सिद्ध और संसारी जीवों के स्वरूपादि अधोलिखित हैं : १. सिद्ध-जीव-जो बन्धन से रहित स्वस्वरूप में स्थित हैं उन्हें सिद्ध-जीव कहते हैं। ये बन्धन का अभाव होने से 'मुक्त', शरीर से रहित होने के कारण 'अशरीरी', और पूर्ण-ज्ञान से युक्त होने के कारण 'बुद्ध' कहलाते हैं। इनका निवास लोक के ऊर्ध्वभाग ( लोकान्त ) में बतलाया गया है। इनका आकार पूर्व-जन्म के शरीर की अपेक्षा भाग न्यून होता है। ये अनंत-दर्शन और अनन्त-ज्ञान के साथ अनन्त-सुख से भी युक्त होते हैं। इनके सुखों के समक्ष हमारे सुख तुच्छ ( नगण्य ) हैं। इनका संसार में पूनः आगमन नहीं होता है। आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप बतलाया गया है वे उसी स्वरूप में सर्वदा रहते हैं। यद्यपि सिद्ध जीवों के ज्ञान, दर्शन, सूख आदि में कोई भेद नहीं है क्योंकि सभी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त सुखों से युक्त तथा १. देखिए-पृ० ७४, पा० टि० १. २. संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया। उ० ३६.४८,२४६० संसारिणो मुक्ताश्च । -त० सू० २.१०. ३. उ० १०.३५; ३६.४८-६७; विशेष के लिए देखिए-प्रकरण ६. For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [८६ सकल बन्धनों से रहित हैं परन्तु पूर्वजन्म की उपाधि की अपेक्षा से उनके भी कई भेद हो सकते हैं । २. संसारी-जीव-जो किए हुए कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र हैं, तथा शरीर से युक्त हैं वे सब संसारी-जीव हैं। इन्हें 'बद्ध' या 'सशरीरी' जीव भी कह सकते हैं। ये यद्यपि कर्म करने में स्वतन्त्र हैं परन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र हैं। इन्हें कर्म-फल भोगने के लिए शरीर का आश्रय लेना पड़ता है । संसार का अर्थ है - आवागमन । अर्थात् जहाँ पर कर्म-फल भोगने के लिए एक शरीर से दूसरे शरीर को ग्रहण करना पड़े या जन्म-मरण के चक्र में चलना पड़े उसे संसार कहते हैं। अतः संसारी से तात्पर्य लोक में निवास करना नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सिद्ध जीव भी लोक के भीतर ही रहने के कारण संसारी कहलाएँगे। इस तरह संसारी से तात्पर्य है जो अपने शुद्ध-स्वरूप को प्राप्त न करके कर्म-फल भोगने के लिए परतन्त्र हैं तथा शरीर से युक्त हैं। संसारी-जीवों के मुख्यरूप से पाँच प्रकार के शरीर माने गए हैं : १. औदारिक-वह स्थूल-शरीर जिसका छेदन-भेदन किया जा सके, २. वैक्रियक-जिसका छेदन-भेदन न हो सके परन्तु स्वेच्छा से छोटा-बड़ा, पतला-मोटा आदि अनेकरूप किया जा सके, ३ आहारक-किसी विशेष अवसर पर मुनि के द्वारा बनाया गया शरीर, ४ तैजस-अन्नादि पाचन क्रिया में तेज उत्पन्न करनेवाला और ५. कार्मण-पुण्यपापरूप कर्मों का पिण्ड । इन पाँच प्रकार के शरीरों में से तैजस और कार्मण शरीर प्रत्येक संसारी जीव के साथ हमेशा रहते हैं। अतः इनका जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है। इन दो शरीरों के अतिरिक्त जीवित अवस्था में जीव के साथ औदारिक और वैक्रियक में से कोई एक शरीर और रहता है। इस तरह सामान्यतः जीवित अवस्था १. तो ओरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता"। -उ० २६.७३. औदारिकवैक्रियकाहारकत जसकार्मणानि शरीराणि।। -त० सू० २.३६. तथा देखिए-२.३७-४६. For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ €o ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन में एक जीव के एक साथ तीन शरीर होते हैं । औदारिक और वैक्रियक शरीर का अभाव सिर्फ मृत्यु के समय होता है । दूसरा जन्म लेने पर औदारिक और वैक्रियक में से कोई न कोई शरीर पुनः प्राप्त हो जाता है । साधारणतया मनुष्य और पशु-पक्षियों ( तिर्यञ्चों) में औदारिक- शरीर पाया जाता है । देव और नारकियों में वैक्रियक शरीर पाया जाता है । अतः संसारी जीवों को 'सशरीरी' या 'बद्ध' जीव कहने में कोई आपत्ति नहीं है । संसारी जीवों के विभाजन के स्रोत : ग्रन्थ में संसारी जीवों के विभाजन के कई स्रोत हैं उनमें से कुछ निम्नोक्त हैं : गमन करने की शक्ति' - जो जीव एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन कर सकते हैं उन्हें एक विभाग में रखा जा सकता है और जो ऐसे सामर्थ्य वाले नहीं है उन्हें दूसरे विभाग में रखा जा सकता है । ग्रन्थ में इनके क्रमश: नाम त्रस और स्थावर दिए गए हैं। इसी विभाजन को मूल आधार मानकर आगे विभाजन किया गया है । यहाँ एक बात स्मरणीय है कि यद्यपि सभी जीव सक्रिय हैं परन्तु गतिशीलता के आधार पर जो विभाजन किया गया है वह वर्तमान में चलने-फिरने की शक्ति की अपेक्षा से है । २ २. शरीर की स्थूलता और सूक्ष्मता - जिनका शरीर स्थूल है उन्हें एक विभाग में और जिनका शरीर सूक्ष्म (लघु) है उन्हें १. संसारत्था उ जे जीवा दुविहा ते वियाहिया । तसा यथावरा चेव थावरा तिविहा तहि ॥ - उ० ३६.६८. तथा देखिए - उ० ५.८; ८. १०; २५.२३; त० सू० २.१२. २. ताणं थावराणं च सुहुमाणं बादराण य । - उ० ३५.६. तथा देखिए - भा० सं० जै०, पृ० २१८ - २१६. For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [६१ दूसरे विभाग में रख सकते हैं। यहाँ स्थूलता से तात्पर्य लम्बेचौड़े शरीर से तथा सूक्ष्मता से तात्पर्य छोटे-शरीर से नहीं है अपितु जो दीवाल आदि से अग्नि की किरणों की तरह रुकें नहीं वे सूक्ष्म हैं और जो रुक जावें वे स्थूल हैं। इस विषय में ग्रन्थ में एक कर्म-विशेष (नामकर्म स्वीकार किया है जिसका आगे वर्णन किया जाएगा। ३. शरीर की उत्पत्ति (जन्म) -जो माता-पिता का संयोग होने पर माता के गर्भ से उत्पन्न होवें वे गर्भज' हैं। जो माता-पिता के संयोग के बिना यत्र-तत्र अपवित्र स्थानों में पैदा होवें वे 'सम्मूच्छिम' हैं। जो किसी स्थान-विशेष से ऐसे उठकर खड़े हो जावें मानो सोकर जाग रहे हों, वे 'उपपादजन्म' वाले जीव हैं। मनुष्य और पशु आदि में प्रथम दो प्रकार के जन्म संभव हैं। देव और नारकियों में तृतीय प्रकार का जन्म होता है। इस तरह शरीर की उत्पत्ति (जन्म) के आधार से संसारी जीवों के तीन भेद होते हैं । ४. शरीर की पूर्णता तथा अपूर्णता२-शरीर की पूर्णता से तात्पर्य है-जिस जीव को जिस प्रकार के शरीर को प्राप्त करना है उसका पूर्ण आकार-प्रकार बन जाना। जिन्हें शरीर की पूर्णता प्राप्त हो चुकी है वे 'पर्याप्तक' कहलाते हैं और जिन्हें शरीर की पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है वे 'अपर्याप्तक' कहलाते हैं । जैनदर्शन में छः पर्याप्तियाँ मानी गई हैं जिनकी मात्रा पृथक्-पृथक् जीवों में पृथक्-पृथक् निश्चित है। १. समुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कतिया तहा । -उ० ३६.१६४. तथा देखिए-भा० सं० ज०, पृ. २१८-२१६. २. पज्जन्तमपज्जत्ता एवमेव दुहा पुणो। -उ० ३६.७०. तथा देखिए-उ० ३६.८४, ६२,१०८,११७ आदि । ३ आहारसरीरिदियपज्जत्ती आणपाणभासमणो । चत्तारि पंच छप्पि य एइंदियवियलसण्णीणं ॥ -गो० जी०, गाथा ११८ (टीका सहित)। . For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ५. जन्मसम्बन्धी शरीर की अवस्था-विशेष ( गति ) -जन्मसम्बन्धी शरीर की मुख्य चार अवस्थाएँ (पर्याएँ) हैं जिन्हें 'गति' नाम से कहा गया है। यद्यपि गति शब्द का सामान्य अर्थ गमन है परन्तु यहाँ देवादि चार अवस्था-विशेषों में जीव के गमन करने के कारण उन्हें गति कहा गया है। इस विषय में एक प्रकार का कर्म-विशेष स्वीकार किया गया है जिसके आधार पर इसकी व्याख्या की जाती है। इस गति भेद के आधार से जो चार भेद जीव के हैं उनके नाम ये हैं-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च (पशु-पक्षी, वृक्ष आदि) और नारक। ६. धर्माचरण-जो अहिंसा आदि धर्म का पालन करते हैं वे 'सनाथी-जीव' हैं तथा जो ऐसा नहीं करते हैं वे 'अनाथी-जीव' हैं। इस तरह दो भेद हैं। इसे अन्य प्रकार से तीन भागों में भी विभक्त किया गया है। जैसेः मनुष्य जन्म को मूलधन मानकर-१. मूलधन-रक्षक- ऐसे कार्य करने वाला जिससे मनुष्यजन्म की पुनः प्राप्ति हो, २. मूलधन-विनाशक-जो खोटे-कर्म द्वारा मूलधनरूपी मनुष्य जन्म को नष्ट करके पशु एवं नरकादि योनियों में जन्म लेता है और ३. मूलधनवर्धक-जो अच्छे कार्यों को करके देवपने को प्राप्त करता है। १. पंचिदिया उ जे जीवा चउव्विहा ते वियाहिया । नेरइया तिरिक्खा य मणया देवा य आहिया ।। -७० ३६.१५५. २. इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा तामेगचित्तो निहुओ सुणेहि मे। नियण्ठधम्म लहियाण वी जहा सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥ -उ० २०.३८. तुझं सुल द्धं ख मणुस्सजम्मं लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी । तुब्भे सणाहा य सबन्धवा य जं मे ठिया मग्गि जिणत्तमाणं ।।। -उ०२०५५. ३. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ।। -उ० ७.१६. तथा देखिए-उ० ७.१४,२१. For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [९३ ____७. ज्ञानेन्द्रियाँ' -ज्ञान के स्रोत पाँच इन्द्रियाँ मानी जाती हैं। उनके क्रमशः नाम ये हैं-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, तथा कर्ण । इनमें से जो क्रमशः एक इन्द्रिय वाला है उसे एकेन्द्रिय, जो दो इन्द्रियों वाला है उसे द्वीन्द्रिय, जो तीन इन्द्रियों वाला है उसे श्रीन्द्रिय, जो चार इन्द्रियों वाला है उसे चतुरिन्द्रिय और जो पांचों इन्द्रियों वाला है उसे पञ्चेन्द्रिय जीव कहते हैं। इन इन्द्रियों की संख्या में वृद्धि क्रमशः ही होती है। इस तरह ये कुछ मुख्य प्रकार हैं जिनके आधार पर जीवों का विभाजन किया गया है। शरीर में पाए जानेवाले रूपादि के तरतमभाव तथा स्थान-विशेष आदि के आधार से जीव के अनन्त भेद हो सकते हैं जिनकी ग्रन्थ में सूचना मात्र दी गई है। वस्तुतः ये सभी भेद शुद्ध जीव के नहीं हैं अपितु शरीरादि की उपाधि से विशिष्ट जीव (आत्मा) के हैं। गमन करने की शक्ति की अपेक्षा जो त्रस और स्थावर के भेद से दो भेद किए गये थे उनमें से प्रथम स्थावर जीवों के भेदादि का विचार किया जाता है। स्थावर जीव : चलने-फिरने की शक्ति से रहित जीव स्थावर कहलाते हैं। इसके प्रमुख तीन भेद किए गए हैं : १. पृथिवी शरीर १. उराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया। . वेइंदिया तेइंदिया चउरो पंचिदिया चेव ।। -उ० ३६.१२६. • २. एएसि वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो । -उ० ३६.८३. तथा देखिए - उ० ३६.९१, १०५, ११६, १२५ आदि । ३. पुढवी आउजीवा य तहेव य वणस्सई । इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे ।। -उ० ३६.६६. तथा देखिए-उ० ३६.६८. For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन वाले ( पृथिवीकायिक), २ जल शरीर वाले (अपकायिक) और ३. वनस्पति शरीर वाले ( वनस्पतिकायिक ) । यह गमनकर्तृ क विभाजक रेखा ग्रन्थ में सर्वत्र दृष्टिगोचर नहीं होती है क्योंकि अन्यत्र अग्निशरीर वाले ( अग्निकायिक) तथा वायु शरीर वाले ( वायुकायिक) एकेन्द्रिय जीवों को भी इनके साथही गिनाया गया तथा शेष को त्रस कहा है।" इसी तरह जहाँ त्रस जीव के भेद गिनाए गए हैं वहाँ द्वीन्द्रियादि को प्रधान ( उराल) त्रस कहा गया है । इसका तात्पर्य है कि वायुकायिक और तेजस्कायिक को किसी अपेक्षा से त्रस कहा जा सकता है । अन्यथा वे स्थावर ही हैं । अत: उन्हें हम अप्रधान त्रस शब्द से भी कह सकते हैं । यहाँ एक बात और विचारणीय है कि जिस प्रकार अग्नि के ऊर्ध्वगमन करने से तथा वायु के तिर्यक्गमन करने से उनमें सरूपता मानी जाती है उसी प्रकार जल में भी अधोगमन तथा वनस्पतियों में ऊर्ध्व और अधोगमन दोनों होने से जलकायिक और वनस्पतिकायिक में त्रसरूपता क्यों नहीं है ? इसका तात्पर्य है कि यदि अग्नि को त्रस कहा जाता है तो वनस्पति को भी त्रस कहना चाहिए क्योंकि ये दोनों अपने मूल स्थान से सर्वथा न हटते हुए ही गमन करते हैं । यदि वायु को स्वस्थान से हटने के कारण त्रस कहा जाता है तो जल में भी यही बात होने से उसे भी त्रस कहना चाहिए | मालूम पड़ता है इस विषय को लेकर पहले भी स्थावर जीवों के विभाजन में मतान्तर रहे हैं । अतः उत्तराध्ययन में बहुत स्थलों पर छः काय के जीवों का उल्लेख किया गया है । छः काय के जीवों में पाँच स्थावर और एक त्रस का भेद लिया गया है । 3 . ९. पुढवी - आउक्काए तेऊ - वाऊ - वणस्सइ-तसाणं । तथा देखिए - उ० २६.३१. २. इत्तो उ तसे तिविहे वृच्छामि अणुपुब्वसो । ऊ वाऊ य बोधव्वा उराला य तसा तहा || तथा देखिए - उ० ३६.१०७, १२६. ३. देखिए - पृ० ४, पा० टि० १. - उ० २६.३०. - उ० ३६.१०६. For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य- विचार [ ६५ इस तरह अग्निकायिक और वायुकायिक के जीवों में स्थावरपने की ही प्रधानता होने से तथा विषय की समानता होने से यहाँ पर एकेन्द्रिय के पाँचों भेदों को दृष्टि में रखकर विचार किया जाएगा : १ पृथिवीकायिक जीव जिनका पृथिवी ही शरीर है उन्हें पृथिवीकायिक जीव कहते हैं। सूक्ष्म और स्थूल (बादर) के भेद से इनके प्रथमतः दो भेद किए गए हैं फिर इन दोनों के ही पर्याप्तक और अपर्याप्त के भेद से अवान्तर दो-दो भेद किए गए हैं । १ बादर पर्याप्तक को प्रथमतः मृदु ( श्लक्ष्ण) और कठिन ( खर) इन दो भागों में विभक्त किया गया है। इसके बाद मृदु पृथिवी के सात और खर- पृथिवी के छत्तीस प्रकारों को गिनाया गया है । (क) मृदु- पृथिवी के सात प्रकार -- काली, नीली, लाल, पीली, श्वेत, पाण्डु (कुछ श्वेत तथा कुछ अन्य रंग वाली भूरी) तथा पनकमृत्तिका ( आकाश में फैलने वाली अत्यन्त सूक्ष्म रज) । इस तरह रंग के आधार पर ये सात प्रकार मृदु- पृथिवी के गिनाए गए हैं । (ख) खर- पृथिवी के छत्तीस प्रकार - शुद्ध- पृथिवी ( समूहरूप ), शर्करा, बालुका, उपल, शिला, लवण, क्षार, लोहा, ताम्बा, तरुआ ( त्रपु ), सीसा, रूप्य (चांदी), सुवर्ण, वज्र ( हीरा), हरिताल (पीली और सफेद), हिंगुलुक (शिगरफ), मनःसिल, सासक ( रत्न विशेष ), अंजन ( सुरमा ), प्रवाल, अभ्रपटल (अभ्रक), अभ्रवालुक, गोमेदक, १. दुविहा पुढवीजीवा य सुहुमा बायरा तहा । पज्जन्तमपज्जत्ता एवमेव दुहा पुणो || - उ० ३६.७०. २ वायरा जे उ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया । सहा खरा य बोधव्वा सण्हा सत्तविहा तहि ॥ एए खर पुढवीए भैया छत्तीस माहिया गविहमनाणत्ता सुमा तत्थ वियाहिया || - उ० ३६.७१-७७. For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन रुचक, अंक, स्फटिक-लोहिताक्ष, मरकत-मसारगल्ल, भुजमोचक, इन्द्रनील, चन्दन गेरुक - हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त और सूर्यकान्त । खर- पृथिवी के इन ३६ प्रकारों में कठोर स्पर्शवाले धातु पाषाण, मणि आदि को गिनाया गया है । गोमेदक से लेकर अन्त तक के सभी भेद मणि-विशेष के नाम हैं । सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव एक ही प्रकार का है । " २. अपकायिक जीव - जल ही है शरीर जिनका उन्हें अपकायिक जीव कहते हैं। सूक्ष्म-पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादरपर्याप्तक और वादर - अपर्याप्तक के भेद से पृथिवीकायिक की तरह इसके भी चार भेद किए गए हैं। बादर - पर्याप्तक जीवों के पांच भेद गिनाए हैं - शुद्धोदक (मेघ या समुद्रादि का जल ), अवश्याय ( ओस ), हरतनु, महिका और हिम (बर्फ) । 3 ३. वनस्पतिकायिक जीव - वनस्पति ( वृक्ष-पौधे आदि) ही है शरीर जिनका उन्हें वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं । पृथिवी के भेदों की ही तरह इसके भी सूक्ष्म-पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर-पर्याप्त और बादर - अपर्याप्तक के भेद से चार भेद किए गए हैं । बादर-पर्याप्तक को पुनः दो भागों में विभक्त किया गया है : १. साधारणशरीर ( जिनके शरीर में एक से अधिक जीवों ५ ९. वही । २. दुविहा आउजीवा उ • ( शेष पृ० ६५, पा० टि० १ की तरह ) । - उ० ३६८४. ३. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदय उस्से हरतणू महिया हिमे || - उ० ३६.८५. ४. 'हरतनु:' स्निग्धपृथिवीसमुद्भवः तृणाग्र बिन्दु:, 'महिका' गर्ममासेषु सूक्ष्मवर्षम् । - उ० ० वृ०, पृ० ३८१. ५. दुविहा वणसईजीवा (शेष पृ० ६५, पा० टि० १ की तरह ) । - उ० ३६.९२. ६. बायरा जे उपज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया । साहारणसरीरा य पत्तेगा य तहेव य ॥ - उ० ३६.६३. For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण : द्रव्य- विचार [ ६७ का निवास रहता है और एक के आहार आदि से सबका पोषण होता है ) तथा २. प्रत्येक • शरीर ( जिनके शरीर में एक ही जीव का निवास रहता है या जिस शरीर का एक ही स्वामी होता है ) । इसके बाद इन दोनों के अनेक भेदों में से कुछ अवान्तर प्रकारों को गिनाया गया है । जैसे : १ (क) साधारण - शरीर बादर पर्याप्तक के कुछ प्रकार - आलू, मूली, श्रृङ्गवेर (अदरक), हरिली, सिरिली, सिस्सिरिली, यावतिक, कन्दली, पलांडु, लशुन, कुहुव्रत, लोहिनी, हुताक्षी, हूत, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द, सूरणकन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुण्डी, हरिद्राकन्द आदि अनेक कन्दमूल इस विभाग में आते हैं । इनके नामों का परिज्ञान वैद्यक निघण्टु तथा देश-देशान्तर की भाषाओं से हो सकता है । (ख) प्रत्येक - शरीर बादर पर्याप्तक के कुछ प्रकार - वृक्ष, गुच्छ, गुल्म ( नवमल्लिका आदि), लता (चम्पकादि), वल्ली ( करेला आदि), तृण (घास ), वलय ( नारियल आदि । इसमें त्वचा वलयाकार होती है; शाखाएँ नहीं होती), पर्वज (जो पर्व या सन्धि वाले हैं। जैसे- बांस, ईख आदि), कुहुण ( कु : = पृथिवी का भेदन करके उत्पन्न होने वाले, छत्राकार), जलरुह ( कमल आदि), औषधितृण ( शाल्यादि धान्य), हरितकाय (चुलाई आदि की शाक) आदि अनेक पेड़-पौधे इस विभाग में आते हैं । ४. अग्निकायिक जीव - अग्नि ही है शरीर जिनका उन्हें अग्निकायिक जीव कहते हैं । पृथिवी की तरह इसके भी चार भेद हैं । १. पत्तेयसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया । मुसु ढीय हलिद्दा य णेगहा एवमायओ ॥ -उ० ३६.६४-ε8. २. दुविहा तेऊजीवा उ ( शेष पृ० ६५, पा० टि० १ की तरह) । उ० ३६.१०८. For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन उनमें से वादर-पर्याप्तक के अनेक भेद हैं। जैसे : अंगार (धम रहित अग्नि), मुर्मर (भस्मयुक्त अग्निकण), अग्नि (सामान्यशूद्ध-अग्नि), अर्चि (समूल अग्निशिखा), ज्वाला (मूलरहित अग्निशिखा), उल्का, विद्युत् आदि । ५. वायुकायिक जीव-वायु ही है शरीर जिनका उन्हें वायुकायिक जीव कहते हैं। पृथ्वीकायिक की तरह इनके भी चार भेद हैं। उनमें से बादर-पर्याप्तक वायुकायिक के अनेक प्रकार हैं। जैसे : उत्कलिका ( रुक-रुक कर बहनेवाली ), मण्डलिका (चक्राकार), घन ( नरकों में बहनेवाली ), गुञ्जा ( शब्द करनेवाली), शुद्ध ( मन्द-मन्द पवन ), संवर्तक ( जो तृणादि को साथ में उड़ाकर बहती है ) आदि । इस तरह ग्रन्थ में संक्षेप से बादर ( स्थूल ) एकेन्द्रिय स्थावर जीवों का विभाजन किया गया है। रूपादि के तरतम-भाव के आधार से इनके अन्य अवान्तर अनेक भेद हो सकते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय सभी स्थावर जीवों का एक-एक ही भेद बतलाया गया है" क्योकि स्थूल में ही अवान्तर भेद संभव हैं। सभी सूक्ष्म १. बायरा जे उ पज्जत्ता णेगहा ते वियाहिया । इंगाले मुम्मुरे अगणी अच्चिजाला तहेव य ।। उक्का विज्जू य बोधव्वा णेगहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहुमा ते वियाहिया ।। - उ० ३६.१०६-११०. २ दुविहा वाउजीवा उ" (शेष पृ० ६५, पा० टि० १ की तरह)। -उ० ३६.११७. ३. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया। उक्कलिया मंडलिया घणगंजा सुद्धवाया य ।। संवट्टगवाया य णेगहा एवमायओ। -उ० ३६.११८-११६. ४. देखिए-पृ० ६३, पा० टि० २.. ५. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया । सुहुमा सव्वलोगम्मि एगदेसे य बायरा ॥ -उ० ३६.७७-७८, ८६, १००, ११०,११६-१२०. For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य- विचार [ ee जीव चूंकि किसी से रुकावट को प्राप्त नहीं होते हैं अतः सर्वलोक में व्याप्त हैं । इनका गमन सिद्धों के निवास स्थान तक संभव है । इसीलिए प्रारम्भ में जो लोक का विभाजन किया गया है वह जीवों के निवास के आधार पर नहीं किया गया है । बादर- कायिक जीव चूंकि अवरोध को प्राप्त होते हैं अतः उनका निवास लोक के एक देश में माना गया है । इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की सन्तान - परम्परा अनादि काल से वर्तमान है तथा अनन्त काल तक रहेगी । परन्तु जब हम किसी जीव विशेष की अवस्था विशेष की अपेक्षा से विचार करते हैं तो उसका प्रारम्भ भी है और अन्त भी है । इन सभी एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की आयु ( भवस्थिति ) कम से कम अन्तर्मुहूर्त ( एक अत्यन्त सूक्ष्म क्षण से लेकर ४८ मिनट तक ) तथा अधिक से अधिक पृथिवी - Safe की २२ हजार वर्ष, अप्कायिक की ७ हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक की १० हजार वर्ष, अग्निकायिक की तीन दिन-रात ( अहोरात्र ) और वायुकायिक की ३ हजार वर्ष है । इस आयु के पूर्ण होने के बाद ये जीव नियम से एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेते हैं । यदि एक पृथिवीकायिक जीव मरकर पुन: पुन: ( बारम्बार ) पृथिवीकायिक जीव ही बनता है तो उसे कायस्थिति कहेंगे । यह कायस्थिति सभी एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की कम से कम अन्तर्मुहूर्त तथा अधिक से अधिक वनस्पतिकायिक को छोड़कर शेष की असंख्यातकाल ( संख्यातीत वर्ष ) है । वनस्पतिकायिक की अधिकतम कार्यस्थिति अनंतकाल ९. वही । २. संतई पप्प णाईया अपज्जवसियावि य । ठि पहुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥ -उ० ३६.७९,८७,१०१,११२,१२१. ३. बावीससहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे । आठ पुढवणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ उ० ३६.८०. अकायिक आदि के लिए देखिए - उ० ३६.८८, १०२, ११३,१२२. For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन बतलाई गई है ।' यदि कोई पृथिवीकाय का जीव मरकर किसी अन्य काय वाला जीव बन जाता है और उसके बाद कालान्तर में पुनः पृथ्वी - कायिक जीव बनता है तो उस व्यवधान - काल को स्वकाय-अन्तर या अन्तर्मान कहेंगे । इस प्रकार का अन्तर्मान कम से कम अन्तर्मुहूर्त है तथा अधिक से अधिक अनंतकाल ( सीमातीत ) है परन्तु वनस्पतिकाय का अधिकतम काल असंख्यात - काल है । इस तरह इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों में जीवत्व स्वीकार करने के ही कारण जैन साधु को पृथिवी आदि पर मल-मूत्रादि का त्याग करते समय सावधानी वर्तने को कहा गया है। 3 पृथिवी आदि में जीवत्व स्वीकार कर लेने पर पुद्गल द्रव्य का अभाव नहीं होता है क्योंकि पृथिवी आदि की काया वाले जीवों का शरीर तो १. असंखकालमुक्कोंसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । काठ पुढवीणं तं कायं तु अमुचओ || -३० ३६.८१. अनंतकालमुक्कीसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई पणगाणं तं कार्यं तु अमंचओ || - उ० ३६.१०३. तथा देखिए - उ० १०.५, ६. अप, तेज और वायुकायिक के लिए देखिए उ० ३६.८९,११४,४२३; १०.६-८. २. अनंतकालमुक्कसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजमि सकाए पुढवीजीवाण अंतरं ।। - उ० ३६.८२. असंखकाक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्म सए का पणगजीवाण अंतरं || - उ० ३६ १०४. अप, तेज और वायुकायिक के लिए देखिए - उ० ३६.६०,११५,१२४. ३. देखिए - प्रकरण ४, उच्चारसमिति । For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [१.१ पुद्गल का ही है। पृथिवी आदि में जीवों की सत्ता होने के कारण ही महाभारत में भी संसार को नाना जीवों से भरा हुआ बतलाया गया है। त्रस जीव : __ दो इन्द्रियों से लेकर पाँच इन्द्रियों वाले जीव त्रस कहलाते हैं। इन्हें ही ग्रन्थ में प्रधान-त्रस कहा गया है। इनके प्रथमतः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय के भेद से चार भेद किये गए हैं। इनमें स्थावर जीवों की तरह सूक्ष्म नाम का भेद नहीं पाया जाता है। द्वीन्द्रियादि जीव आकार में सूक्ष्म (छोटे) हो सकते हैं परन्तु ऐसे सूक्ष्म नहीं हैं जो दीवाल आदि से भी रुकें नहीं । अतः ग्रन्थ में द्वीन्द्रियादि जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से प्रथमतः दो भेद किए गए हैं। परन्तु पञ्चेन्द्रिय जीवों के विषय में इस प्रकार के भेद को बतलाने वाली कोई गाथा नहीं है । द्वीन्द्रियादि त्रस जीवों के भेदादि निम्नोक्त हैं : १. द्वीन्द्रिय जीव-जो स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों से युक्त हैं वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जैसे: कृमि (विष्टा आदि अपवित्र स्थान में उत्पन्न होने वाले), सुमंगल, अलस (यह वर्षाऋतु में पैदा होता है), मातृवाहक (काष्ठ-भक्षक-घुण), वासीमुख, १. उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च । न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनात् । सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित् ॥ पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् एकन्धपर्ययः ॥ -महाभारत, शान्तिपर्व, १५.२५-२६. २. देखिए -पृ० ६३, पा०टि० १. ३. बेइंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसि भेए सुणेह मे ॥ -उ० ३६.१२७. इसी तरह त्रीन्द्रियादि के लिए देखिए -उ० ३६. १३६, १४५ तथा . आ० टी०, पृ० १७१७. ... ४. किमिणो सोमंगला चेवणेगहा एवमायओ। -उ० ३६.१२८-१३०. For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन शुक्ति, शंख, लघुशङ्ख (घोंघे आदि), पल्लक, अनुपल्लक, बराटक (कौड़ी), जलौका (जोंक आदि), जालका, चन्दना आदि । २. त्रीन्द्रिय जीव - जो स्पर्शन, रसना और घाण इन तीन इन्द्रियों से युक्त हैं वे त्रीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जैसे:१ कुन्थु, पिपीलिका, उदंसा, उत्कलिका, उपदेहिका, तृणहारक, काष्ठहारक, मालुका, पत्रहारक, कार्पासिक, अस्थिजात. तिन्दुक, त्रपुष, मिंगज (मिञ्जक), शतावरी, गुल्मी, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोपक आदि । ३. चतुरिन्द्रिय जीव- जो स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु इन चार इन्द्रियों से युक्त हैं वे चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जैसे:२ अन्धिका, पौक्तिका, मक्षिका, मशक, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिंकण, कुंकण, कुक्कुट, शृङ्गरीटी, नन्द्यावर्त, वृश्चिक, डोला, भृङ्गरीटक, विरली, अक्षिबेधक, अक्षिला, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र, चित्रपत्रक, उपधिजलका, जलकारी, नीचक, तामृक आदि । ___ उपर्युक्त तीनों प्रकार के द्वीन्द्रियादि जीव स्थूल होने से लोक के एक देश में रहते हैं। ये अनादिकाल से वर्तमान हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। ये किसी जीव विशेष की स्थिति विशेष की अपेक्षा से सादि और सान्त भी हैं। इनकी स्थिति (आयु) कम से कम अन्तर्महुर्त तथा अधिक से अधिक द्वीन्द्रिय की १२ वर्ष, त्रीन्द्रिय की ४६ दिन, चतुरिन्द्रिय की ६ मास है।५ कायस्थिति १. कुंथुपिवीलिउड्डंसाणेगविहा एवमायओ। -उ० ३६.१३७-१३६. २. अंधिया पोत्तिया चेव मच्छिया मसगा तहा। इय चउरिदिया एए णेगहा एवमायो । -उ० ३६.१४६-१४६. ३. लोगेगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया । -उ० ३६.१३०, १३६, १४६. ४. उ० ३६.१३१, १४०, १५० (पृ० ६६, पा० टि० २ की तरह) ५. वासाई वारसा चेव उक्कोसेण वियाहिया । बेइंदियआउठिई अंतोमुहत्तौं जहन्निया ।। -उ० ३६.१३२. For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [१०३ कम से कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक संख्यात-काल है।' अन्तर्मान कम से कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक से अधिक अनन्तकाल है।२ रूपादि के तारतम्य से इनके भी स्थावर जीवों की तरह हजारों भेद हो सकते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव तिर्यञ्च ही कहलाते हैं । ४. पञ्चेन्द्रिय जीव-जो स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों से युक्त हैं वे पञ्चेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। सभी जीवों में पञ्चेन्द्रिय जीवों की ही प्रधानता है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति के भेद से इन्हें चार भागों में विभक्त किया गया है। इनका विशेष परिचय निम्नोक्त है : नारकी-जो पाप कर्मों के कारण दुःखों को झेलते हैं तथा अधोलोक में निवास करते हैं उन्हें नारकी जीव कहते हैं। ये सभी एगूणपण्णहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया। तेइंदियआउठिई अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। -उ० ३६.१४१. छच्चेव य मासाऊ उक्कोसेण वियाहिया । चरिदियआउठिई अंतोमुहत्तं जहन्निया ।। -उ० ३६.१५१. १. संखिज्जकाल मुक्कोसा अंतोमुहुत्त जहन्निया । बेइंदियकायठिई तं कायं तु अमुचओ॥ -उ० ३६.१३३. ..... तथा देखिए-उ० ३६.१४२, १५२; १०.१०-१२. . २. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहत्तं जहन्नयं । बेइंदियजीवाणं अंतरं च वियाहियं ॥ -उ० ३६.१३४. इसी तरह त्रीन्द्रिय आदि के लिए देखिए-९० ३६.१४३, १५३. । ३. देखिए-पृ० ६२, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नपंसक और उपपाद-जन्म वाले होते हैं।' अधोलोक में नीचेनीचे सात पृथिवियाँ होने से उनके ही नाम से सात नरक माने गए हैं और तत्तत नरकों में निवास करने वाले जीवों के भेद से नारकियों के भी सात भेद किए गए हैं। २ इनकी अधिकतम आयु क्रमशः ( ऊपर से नीचे के नरकों में ) १ सागर, ३ सागर, ७ सागर, १० सागर, १७ सागर, २२ सागर और ३३ सागर है । प्रथम नरक की कमसे कम आयु १० हजार वर्ष तथा अन्य नरकों में पूर्व-पूर्व के नरकों की उत्कृष्ट आयु ही आगे-आगे के नरकों में निम्नतम आयु है।४ नारकी जीव मरकर पुनः नरकों में उत्पन्न नहीं होते। अतः इनकी आयु (भवस्थिति) और कायस्थिति में कोई भेद नहीं है। अर्थात् नारकी जीवों की जो सामान्य आयु ( भवस्थिति ) बतलाई गई है उतनी ही उनकी कायस्थिति भी १. देवनारकाणामुपपादः । औपपादिकं वैक्रियिकम् । लब्धिप्रत्यय च । नारक सम्मूच्छिनो नपु सकानि । न देवाः । -त० सू० २ ३४, ४६-४७, ५०-५१. २. देखिए-पृ० ६१, पा० टि० १. ३. सागर या सागरोपम का अर्थ-सद्योत्पन्न बकरे के अभेद्य सूक्ष्मतम रोम-अंशों से भरे हुए एक योजन प्रमाण लम्बे और इतने ही चौड़े गड्ढे से यदि प्रति १०० वर्ष के बाद एक रोम-खण्ड निकाला जाए तो जितने समय में वह गड्ढा खाली होगा उसे पत्य, पल्योपम या पालि कहेंगे। ऐसे दश कोटाकोटि (करोड़ x करोड़) पल्यों का एक सागर या सागरोपम होता है। ४. सागरोवममेगं तु उक्कोसेण वियाहिया। पढमाए जहन्नेण दसवाससहस्सिया । तिण्णेव सागराऊ उक्कोसेण वियाहिया । तेत्तीससागराऊ उक्कोसेण दियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा । -उ० ३६.१६०-१६६. For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [१०५ · है।' शेष क्षेत्र और कालसम्बन्धी सभी बातें चतुरिन्द्रिय की तरह हैं। इन नारकी जीवों के दुःख मनुष्यों के दुःखों की अपेक्षा बहुत अधिक हैं तथा नीचे-नीचे के नरकों के दुखः पूर्व-पूर्व के नरकों की अपेक्षा कई गुने अधिक हैं। इन नरकों में किस प्रकार के कष्ट मिलते हैं इसका विशेष वर्णन आगे किया जाएगा। तिर्यञ्च-एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रियों वाले जीव तथा पञ्चेन्द्रियों में पशु-पक्षी आदि तिर्यञ्च कहलाते हैं । उत्पत्ति को अपेक्षा से पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के दो भेद हैं.-१. सम्मूच्छिम और २. गर्भज। दोनों के पुन: जल, स्थल और आकाश में चलने की शक्ति की अपेक्षा से तीन-तीन भेद किए गए हैं। १. देवे नेरइए य अइगओ उक्कोस जीवो उ संवसे ।। इक्किक्कभवगहणे समयं गोयम मा पमायए। -उ० १०.१४. जा चेव उ आउठिई नेरइयाणं वियाहिया । - सा तेसि कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे ।। -उ० ३६.१६७. २. उ० ३६.१५८-१५६, १६८-१६६. ३. जहा इहं अगणी उण्हो इत्तोऽणंतगुणो तहिं । नरएसु वेयणा उण्हा अस्साया वेइया मए ।। -उ० १६.४८. तथा देखिए-उ० १६.४६; प्रकरण २, नारकीय कष्ट । ४. पंचिदियतिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया। समुच्छिमतिरिक्खाओ गब्भवक्कंतिया तहा ।। -उ० ३६.१७०. जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः । शेषाणां सम्मूर्द्धनम् । -त. सू० २.३३-३४. ५. दुविहा ते भवे तिविहा जलयरा थलयरा तहा। नहयरा य बोधव्वा तेसिं भेए सुणेह मे ॥ -उ० ३६.१७१. For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] - उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . क. जलचर तिर्यञ्च-जल में चलने-फिरने के कारण इन्हें जलचर तिर्यञ्च कहते हैं। इनके पाँच भेद गिनाए हैं। उनके नाम ये हैं-मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और संसुमार। ख. स्थलचर तिर्यञ्च-स्थल (भूमि) में चलने के कारण इन्हें स्थलचर तिर्यञ्च कहते हैं। इनमें कुछ चार पैरों वाले (चतुष्पाद) और कुछ रेंगने वाले (परिसर्प) हैं। चार पैरवालों में कुछ एक खुर (पैर के नीचे एक स्थल अस्थिविशेष, वाले हैं (जैसे-अश्व आदि), कुछ दो खुर वाले हैं (जैसे-गवादि), कुछ वर्तुलाकार (गंडीपद -गोल पैर वाले हैं (जैसे-हस्ती आदि) तथा कुछ नखों से युक्त पैर वाले (सनखपद) हैं (जैसे--सिंहादि पशू)। रेंगने वाले जीवों में कुछ भजाओं के सहारे रेंगते हैं (भजपरिसर्प, जैसे-गोधा-छिपकली आदि) और कुछ वक्षस्थल के सहारे रेंगते हैं (उरःपरिसर्प, जैसे - सर्प आदि)। ग. नभचर तिर्यञ्च-आकाश में स्वच्छन्द विचरण करने में समर्थ जीव नभचर तिर्यञ्च कहलाते हैं। ऐसे जीव मुख्यतः चार प्रकार के बतलाए गए हैं : १. चर्मपक्षी (चमड़े के पंखों वाले । जैसेचमगादड़, २. रोमपक्षी (हंस, चकवा आदि), ३. समुद्गपक्षी (जिनके पंख सदा अविकसित रहते हैं और डब्बे के आकार सदृश सदा ढके रहते हैं) और ४. विततपक्षी (जिनके पंख सदा खुले रहते हैं)। १. मच्छा य कच्छभा य गाहा य मगरा तहा । सुसुमारा य बोधव्वा पंचहा जलयराहिया ।। -उ० ३६ १७२. २. चउप्पया य परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउविहा ते मे कित्तयओ सुण ।। एगखुरा दुखरा चेव गंडीपय सणप्पया। हयमाई गोणमाई गयमाई सीहमाइणो ॥ भओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाई य एक्केक्का गहा भवे ॥ -उ० ३६.१७६-१८१. ३. चम्मे उ लोमपक्खी य तइया समुग्गपक्खिया। वियय पक्खी य बोधवा पक्खिणो य चउबिहा ॥ -उ० ३६.१८७. For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०७ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार इस तरह ये सभी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मुख्यतः तीन प्रकार के हैं। इनकी निम्नतम आयु अन्तर्मुहूर्त तथा अधिकतम आयु जलचर की १ करोड़ पूर्व,' स्थलचर की ३ पल्योपम और नभचर की पल्योपम के असंख्येयभाग प्रमाण बतलाई है। इनकी कायस्थिति निम्नतम अन्तर्मुहूर्त तथा अधिकतम क्रमशः पृथक्त्वपूर्वकरोड़, ३ पल्योपम सहित पृथक्कोटि तथा पल्योपम के असंख्येयभाग अधिक पृथक्त्वपूर्वकोटि बतलाई है। शेष क्षेत्र एवं कालसम्बन्धी सभी बातें द्वीन्द्रियादि की तरह हैं।' १. ७०५६००० करोड़ वर्षों का एक 'पूर्व' होता है । दो से लेकर नव तक की संख्या 'पृथक' कहलाती है। अत: 'पृथकपूर्व' का अर्थ हुआ २ से लेकर ६ पूर्व के मध्य की अवधि । २. एगा य पुनकोडीओ उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई जलयराण अंतोमुहुत्तं जहनिया ।। -उ० ३६.१७५. पलिओवमाइं तिनि उ उक्कोसेण वियाहिया। आउठिई थलयराणं अंतोमुहत्तं जहनिया ॥ -उ० ३६.१८४. पलिओवमस्स भागो असंखेज्जइमो भवे । . आउठिई खहयराणं अंतोमुहुत्त जहन्निया ।। -उ० ३६.१६०. ३. पुव्व कोडिपुहुत्त तु उक्कोसेण वियाहिया । कायठिई जलयराणं अंतोमहुत्त जहन्नयं ।। -उ० ३६.१७६. पलिओवमाइं तिनि उ उक्कोसेण वियाहिया । पुव्व कोडिपुहुत्तण अंतोमुहत्तं जहन्निया । कायठिई थलयराणं । -उ० ३६ १८५. . असंख भागो पलियस्स उक्कोसेण उ साहिया। पुवकोडिपुहुत्तण अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई खहयराणं । - उ० ३६.१६१. ४. उ० ३६.१७३-१७४, १७७-१७८, १५२-१८३, १८६, १८८-१८६, १९२-१९३. For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन .. मनुष्य-मध्यलोक के २३ द्वीपप्रमाण मनुष्य-क्षेत्र में निवास करने वाली मानवजाति इस कोटि में आती है । इसके सुखादि वैभव को यद्यपि देवों के वैभव की अपेक्षा अनन्तगुणा हीन बतलाया गया है। फिर भी सभी संसारी जीवों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा चार दुर्लभ अङ्गों की प्राप्ति में मनुष्यजन्म भी एक है ।२ मोक्ष, जोकि प्रत्येक जीव का चरम लक्ष्य है, को मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है। मनुष्य-पर्याय की प्राप्ति पुण्यकर्म विशेष से होती है। ग्रन्थ में उत्पत्ति-स्थान की अपेक्षा से मनुष्यों के तिर्यञ्चों, . की तरह सम्मूच्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) ये दो भेद किये गए हैं। इसके बाद दोनों प्रकार के जीवों के कर्मभूमि, अकर्मभूमि तथा अन्तरद्वीप के क्षेत्रों (१५+३०+२८ = ७३) में १. एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए । सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिग्विया ।। -उ० ७.१२. जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे । एवं माणस्सगा कामा देवकामाण अंतिए ।।। -उ० ७.२३. तथा देखिए - उ० ७.२४. चत्तरि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्त सुइ सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। -उ० ३.१. दुल्लहे खलु माणुसे भवे चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । -उ०१०.४. तथा देखिए-उ० १०.१६. ३. कम्माणं तु पहाणाए आणुपुत्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं ।। -उ० ३.७. तथा देखिए-उ० ३.६,२०; २०.११; २२.३८. ४. मणुया दुविहभेया उ ते मे कित्तयओ सुण । संमुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कं तिया तहा ।। -उ० ३६.१६४. For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [१०६ निवास करने की अपेक्षा से तत्तत् क्षेत्रों के भेदों के आधार पर मनुष्यों के भी ७३ भेद गिनाए गए हैं।' . इनकी निम्नतम आयु अन्तर्मुहूर्त तथा अधिकतम आयु ३ पल्योपम बतलाई गई है । एक जगह कुछ कम १०० वर्ष आयु बतलाई गई है जो वर्तमान की अपेक्षा से जनसामान्य की आयु मालूम पड़ती है। कायस्थिति ३ पल्यसहित पृथक-पूर्व-कोटि है। एक स्थल पर किसी भी व्यक्ति द्वारा सात या आठ बार लगातार मनुष्यपर्याय में जन्म लेने की सीमा बतलाई गई है।५ शेष क्षेत्र, अन्तमनि आदि का वर्णन चतुरिन्द्रिय जीवों की तरह ही बतलाया गया है। १. गब्भवतिया जे उ तिविहा ते वियाहिया । -उ० ३६.१६५. संमुच्छिमाण एसेव भेओ होई वियाहिओ। -उ० ३६.१६७. विशेष के लिए देखिए-पृ० ५७-६०, मध्यलोक का वर्णन । २. पालिओवमाइं तिन्नि य उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई मणुयाणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया । -उ० ३६ १६६. १. जाणि जीयन्ति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए । -उ० ७.१३. ४. पालिओवमाई तिनिउ उक्कोसेण वियाहिया। पुवकोडिपुहुत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहनिया ।। कायठिई मणुयाणं....................॥ -उ० ३६.२००-२०१. ५. पंचिदियकायमइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तट्ठभवगहणे समयं गोयम मा पमायए । -उ० १०.१३. यहाँ 'पचिदिय' से तात्पर्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों से है । क्योंकि देव और नारकी पुनः उसी काया में उत्पन्न नहीं होते हैं । ६. उ० ३६.१९७-१९८, २०१-२०२. For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन देव- सामान्यतः पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए जीव देवपर्याय को प्राप्त करते हैं ।' पुण्य कर्मों के प्रभाव से मनुष्यपर्याय की और खोटे तपादि के प्रभाव से देव- पर्याय की भी प्राप्ति होती है । जो खोटे तपादि के प्रभाव से देव - गति को प्राप्त करते हैं वे बहुत ही निम्न श्रेणी के देव कहलाते हैं । संभवतः उनकी स्थिति मनुष्यों से भी बदतर होती है । अत: सर्वसामान्य देवों की परिभाषा इन शब्दों में दी जा सकती है: 'जो उपपाद-जन्म वाले तथा जन्म से ही इच्छानुकूल शरीर धारण करने की सामर्थ्य ( वैक्रियकशरीरधारी) वाले स्त्री और पुरुष हैं वे देव कहलाते हैं ।' यद्यपि मनुष्य भी तपादि के प्रभाव से वैक्रियक- शरीर धारण कर सकते हैं परन्तु जन्म से नहीं । यद्यपि नारकी जीव उपपाद - जन्म वाले तथा जन्म से ही वैक्रियक शरीरधारी होते हैं परन्तु वे नपुंसक ही होते हैं । इस तरह ' उपपाद - जन्म वाले ( सोते से जागते हुए की तरह जो पलङ्ग पर से उठ खड़े होते हैं ) स्त्री-पुरुष' ऐसा लक्षण भी देवों का कर सकते हैं क्योंकि मनुष्यों और तिर्यञ्चों का उपपाद - जन्म नहीं होता है तथा नारकी उपपाद- जन्म वाले होकर भी स्त्री-पुरुष नहीं होते हैं । ऐश्वर्य, आयु, अजरता, निवास क्षेत्र आदि के आधार पर देवों का स्वरूप वर्णित नहीं किया जा सकता है क्योंकि मनुष्यों आदि में भी उत्कृष्ट ऐश्वर्य आदि पाया जाता है तथा कुछ निम्न जाति के देवों की स्थिति बहुत ही बदतर १. धीरस्स पस्स धीरत सव्वधम्माणुवत्तिणो । चिच्चा अधम्मं धम्मिट्ठे देवेसु उववज्जई || - उ० ७.२६ तथा देखिए - उ० ७.२१, २६; ५.२२, २६-२७. २. परमाहम्मिएसु ं य । - उ० ३१.१२. यहाँ पर परमधार्मिक देवों को गिनाने से स्पष्ट है कि कुछ देव निम्न श्रेणी के भी होते हैं । अत: कहा भी है : 'एता भावना भावयित्वा देवदुर्गति यान्ति ततश्च च्युताः सन्तः पर्यटन्ति भवसागरमनन्तम् ।' देखिए - उ० आ० टी०, पृ० १८०६-१८१२. ३. देखिए - पृ० १०४, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ १११ होती है। आयु की अपेक्षा से नारकी जीव भी देवों के समान आयु वाले होते हैं। इसके अतिरिक्त देवों को अमर नहीं माना गया है। देवों का निवास सिर्फ ऊर्ध्वलोक में ही नहीं है अपितु मध्य और अधोलोक में भी उनका निवास है। अतः ग्रन्थ में 'देव-गति' नामक एक कर्म विशेष स्वीकार किया गया है जिसके उदय से जीव को देव-पर्याय की प्राप्ति होती है। इन देवों को प्रमुखरूप से चार भागों में विभक्त किया गया है२-१. भवनवासी (भवनपति), २. व्यन्तर (स्वेच्छाचारी ), ३ ज्योतिषी (सूर्यादि) तथा ४. वैमानिक (विशेष पूजनीय )। इनके अवान्तर प्रमुख २५ भेद किए गए हैं। इकतीसवें अध्ययन में जिन २४ प्रकार के देवों ( रूपाधिक देवों )४ की संख्या का उल्लेख किया गया है वे मेरी समझ से प्रसिद्ध २४ जैन तीर्थङ्कर ही हैं। टीकाकारों ने वैमानिक देवों का एक भेद मानकर भवनवासी आदि २४ देवों को भी गिनाया है ।५।। भवनवासी देव-भवनों ( महलों ) में रहने एवं उनके स्वामी होने के कारण इन्हें भवनवासी' या 'भवनपति' कहते हैं। आहारविहार, वेषभूषा आदि राजकुमारों की तरह होने के कारण इन्हें 'कुमार' शब्द से अभिहित किया जाता है। इनकी प्रमुख १० जातियां हैं-१. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, १. देखिए-प्रकरण २, कर्म-विभाजन । २. देवा चउन्विहा वुत्ता ते मे कित्तयओ सुण । भोमिज्ज वाणमंतर जोइस वेमाणिया तहा ।। -उ० ३६. २०३. तथा देखिए-उ० ३४. ५१. . ३. दसहा उ भवणवासी अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया दुविह। वेमाणिया तहा ॥ -उ० ३६. २०४. ४. रूवाहिएसु सुरेसु य । -उ० ३१.१६. ५. उ० आ० टी०, पृ० १३९६; उ० ने० वृ०, पृ० ३४८. For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ८. दिक्कुमार, ६. वायुकुमार, और १०. स्तनितकुमार ।' इनका निवास अधोलोक की प्रथम पृथिवी का मध्यभाग माना गया है। . व्यन्तर देव-इन्हें 'वाण व्यन्तर' तथा 'वनचारी' देव भी कहा गया है। क्योंकि ये देव तीनों लोकों में स्वेच्छापूर्वक भ्रमण करते हुए पर्वत, वृक्ष, वन आदि के विवरस्थलों में निवास करते हैं। इनकी प्रमुख आठ जातियां बतलाई गई हैं-१. पिशाच, २. भूत, ३. यक्ष, ४. राक्षस, ५ किन्नर, ६ किंपुरुष, ७. महोरग . और ८. गन्धर्व । ३ ये देव जिनके ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं उनकी रक्षा, सेवा आदि भी करते हैं।४ ।। ___ ज्योतिषी देव-ज्योतिरूप होने से इन्हें ज्योतिषी देव कहते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह और तारागण के भेद से ये मुख्यतः पाँच प्रकार के बतलाए गए हैं। इन देवों में से कुछ स्थिर हैं और कुछ गतिमान । मनुष्य-क्षेत्र के ज्योतिषी देव गतिमान हैं। इनके गमन से ही घड़ी, घंटा आदि रूप से समय का ज्ञान होता है। मनुष्यक्षेत्र से बाहर के ज्योतिषी देव स्थिर है। इसीलिए कालद्रव्य को मनुष्य-क्षेत्रप्रमाण कहा गया है। सूर्य, चन्द्र आदि रूप जो ज्योतिषी देवों के भेद गिनाए गए हैं वे उनके निवास स्थान की अपेक्षा से हैं। १. असुरा नागसु वण्णा विज्ज अग्गी य आहिया । . दीवोदहिदिसा वाया थणिया भवणवासिणो ।। -उ० ३६. २०५. २. पिसायभूया जक्खा य रक्खसा किन्नराकिंपुरिसा। महोरगा य गंधव्वा अट्टविहा वाणमंतरा ।। -उ० ३६. २०६. तथा देखिए-पृ० १११, पा० टि० ३. ३. वही। ४. जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति । -उ० १२. ३२. ५. चंदासूरा य नक्खत्ता गहा तारागणा तहा । ठियावि चारिणो चेव पंचहा जोइसालया। -उ०३६.२०७. For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ११३ भवनवासी आदि तीनों प्रकार के देवों की अधिकतम आयु क्रमशः कुछ अधिक १ सागर, १ पल्योपम और लाख वर्ष अधिक पल्योपम है। निम्नतम आयु क्रमशः १० हजार वर्ष, १० हजार वर्ष और पल्योपम का आठवां भाग है। इनकी कायस्थिति आयू (भवस्थिति) के ही बराबर है क्योंकि नारकी जीवों की तरह देव भी मरकर पुन: देव नहीं होते हैं । देव मरकर या तो मनुष्य होते हैं या तिर्यञ्च। इसीलिए देवों की आयु से पृथक कायस्थिति नहीं बतलाई गई है। इनमें अन्तर्मान, क्षेत्रस्थिति आदि सभी बातें मनुष्यों की ही तरह हैं। वैमानिक देव-विशेषरूप से माननीय (सम्मानाई) होने के कारण तथा विमानों में निवास करने के कारण ये वैमानिक कहलाते हैं। इन्हीं देवों को लक्ष्य में रखकर प्रायः देवों के ऐश्वर्य आदि का वर्णन किया जाता है। ये कल्पोत्पन्न और कल्पातीत के भेद से दो प्रकार के हैं।४ क. कल्पोत्पन्न वैमानिक देव-कल्प शब्द का अर्थ है-मर्यादा या कल्पवृक्ष (जो इच्छा करने मात्र से अभीष्ट वस्तु को दे देते हैं । अतः जो अभीष्ट फल देने वाले इन कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कहलाते हैं। इन्द्र आदि की कल्पना कल्पोत्पन्न देवों में ही होती है क्योंकि इसके ऊपर के सभी देव 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं। अतः स्वामी-सेवक भाव यहाँ पर ही होता है, १. साहियं सागरं एक्कं उक्कोसेण ठिई भवे । पलिओवमट्ठभागो जोइसेसु जहन्निया ॥ -उ० ३६.२१८-२२०. २. जा चेव उ आउठिई देवाणं तु वियाहिया । सा तेसि कायठिई जहन्नुकोसिया भवे ॥ -उ० ३६.२४४. तथा देखिए-पृ० १०५, पा० टि० १. ३. उ० ३६.२१६-२१७, २४८. ४. वेमाणिया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया। कप्पोवगा य बोधव्वा कप्पाईया तहेव य ।। -उ० ३६.२०८. For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इसके ऊपर नहीं। कल्पों की संख्या १२ होने से इनके भी १२ भेद गिनाए गए हैं। इनके क्रमशः नाम ये हैं : सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक (लान्तव), महा शुक्र, सहस्रार आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । ये सभी क्रमशः ऊर्ध्वलोक में ऊपर-ऊपर हैं। ख. कल्पातीत वैमानिक देव-कल्प मर्यादा, स्वामी-सेवकभाव) से रहित होने के कारण इन्हें कल्पातीत कहते हैं। ये दो प्रकार के हैं - ग्रैवेयक और अनुत्तर । १. अवेयक - जिस प्रकार ग्रीवा गर्दन) में कीमती हार आदि आभूषण धारण किए जाते हैं उसी प्रकार जो पुण्यशाली जीव लोक के ग्रीवाभूत ऊपर के भाग में निवास करते हैं उन्हें ग्रैवेयक कहते हैं। इनकी संख्या नव बतलाई गई है और ये तीन त्रिकों (अधोभाग के तीन भाग, मध्यभाग के तीन भाग तथा ऊर्ध्वभाग के तीन भाग , में विभक्त किए गए हैं।४ २. अनुत्तर (न उत्तर-श्रेष्ठ-अनुत्तर)-जिनके समान ऐश्वर्य किसी अन्य संसारी जीव का न हो उन्हें अनुत्तरदेव कहते हैं। ये पाँच प्रकार के बतलाए गए हैं : विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ।५ अगले भव में नियम से मुक्त होने वाले १. इस विषय में दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद के लिए देखिए-त० सू० ४.१६ पर पं० फूलचन्द्र शास्त्री और पं० सुखलाल संघवी की टीकाएँ। २. कप्पोवगा बारसहा सोहम्मीसाणगा तहा। . सणंकुमारमाहिंदा बम्भलोगा य लंतगा।। महासुक्का सहस्सारा आणया पाणया तहा । आरणा अच्चुया चेव इइ कप्पोवगा सुरा ।। -उ० ३६.२०६-२१०, ३ कप्पाईया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया। गेविज्जाणुत्त रा चेव ........... -उ० ३६ २११ ४. गेविज्जा नवविहा तहि 'इय गेविज्जगा सुरा ।।। -~-उ० ३६.२११-२१४. तथा देखिए-उ० आ० टी०, पृ० १७७२. ५. विजया वेजयंता य जयंता अपराजिया । सव्वत्थसिद्धिगा चेव पंचहाणुत्तरा सुरा।। -उ० ३६.२१४:२१५. For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [११५ जीव ही अनुत्तर देवलोक को प्राप्त करते हैं। इनके ऊपर अन्य देवों का निवास नहीं है। इन २६ प्रकार के वैमानिक देवों में से आदि के सात देवों (सौधर्म से लेकर महाशूक्र तक) की अधिकतम आयु क्रमशः २ सागर, कुछ अधिक २ सागर, ७ सागर, कुछ अधिक ७ सागर, १० सागर, १४ सागर, १७ सागर बतलाई गई है। इसके बाद सहस्रार देव से लेकर नवग्रैवेयक तक क्रमशः १-१ सागर बढ़ते हुए ३१ सांगर तक है। पाँचों प्रकार के अनुत्तरवासी देवों की अधिकतम आयु ३३ सागर है। सौधर्मादि में आदि के पाँच देवों की निम्नतम आय क्रमशः १ पल्योपम, कुछ अधिक एक पल्य, २ सागर, कुछ अधिक २ सागर और ७ सागर है। इसके बाद चार अनुत्तर पर्यन्त पूर्व-पूर्व के देवों की उत्कृष्ट आयु ही आगे-आगे के देवों की निम्नतम आयु बतलाई गई है। सर्वार्थसिद्धि के देवों की अधिकतम और निम्नतम आयु ३३ सागर ही बतलाई गई है।' यद्यपि ग्रन्थ में कहीं-कहीं देवों की आयु अनेकवर्षनयुत'२ तथा १०० दिव्य वर्ष भी बतलाई गई है। परन्तु १. दो चेव सागराइं उक्कोसेण वियाहिया । सोहम्मम्मि जहन्नेण एगं च पलिओवमं ।। अजहन्नमणक्कोसा तेत्तीसं सागरोवमा। महाविमाणे सव्वट्ठे ठिई एसा वियाहिया ॥ -उ० ३६.२२१-२४३. २. अनेकवर्षनयुत-८४ लाख वर्षों का एक 'पूर्वाङ्ग' होता है। एक पूर्वाङ्ग में ८४ लाख का गुणा करने पर एक 'पूर्व' होता है। एक पूर्व में पुनः ८४ लाख का गुणा करने पर एक 'नयुताङ्ग' होता है । एक नयुताङ्ग में पुनः ८४ लाख का गुणा करने पर एक 'नयुत' होता है । ऐसे असंख्य वर्षों वाले नयुत को 'अनेकवर्षनयुत' कहते हैं। ___--उ० आ० टी०, पृ० २८०. ३. अणेगवासानउया जा सा पण्णावओ ठिई । जाणि जीयन्ति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए । - उ०७.१३. अहमासी महापाणे जुइमं वरिसस ओवमे । जा सा पालीमहापाली दिव्वा वरिससओवमा ॥ -उ० १८.२८. For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन वह सामान्य कथन की अपेक्षा से है । सौधर्म देव से लेकर सहस्रार देव पर्यन्त अधिकतम अन्तर्मान अनन्तकाल है तथा जघन्य अन्तर्मान अन्तर्महूर्त है। आनत से लेकर नवग्रैवेयक पर्यन्त जघन्य अन्तर्मान पृथकवर्ष है क्योंकि ये देव मरकर ऐश्वर्यसम्पन्न मनुष्य ही होते हैं। इनका उत्कृष्ट अन्तर्मान अनन्तकाल है।' प्रथम चार अनुत्तर देवों का जघन्य अन्तर्मान पृथककाल है तथा अधिकतम अन्तर्मान संख्येय सागर है । २ सर्वार्थसिद्धि के देव एकभवावतारी होते हैं। ये अपनी आयु पूर्ण करने के बाद मरकर मनुष्य गति में पैदा होते हैं और मनुष्य जन्म के बाद ये नियम से मुक्त हो जाते हैं। अतः इनके अन्तर्मान का प्रश्न ही नहीं उठता है। शेष क्षेत्रादि-सम्बन्धी सभी बातें भवनवासी आदि देवों की तरह हैं। 3 देवों के विषय में कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें-ये देव अजर होकर भी अमर नहीं होते हैं क्योंकि एक निश्चित आयु के बाद मनुष्य या तिर्यञ्चगति में जन्म लेकर अपने शेष कर्मों का फल अवश्य भोगते हैं। देवों की बहुत अधिक लम्बी आयु होने के कारण उन्हें अमर कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि के देव भी, जो देवों में सर्वोत्तम हैं, अपनी आयु के पूर्ण होने पर मनुष्य-लोक में जन्म लेते हैं। गीता में भी कहा है : 'पूण्य कर्म के क्षीण हो जाने पर देव विशाल स्वर्गलोक से मनुष्यलोक में प्रवेश करते हैं। ये देव अपने-अपने १. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए देवाणं हुज्ज अंतरं । अणंतकालमुक्कोसं वासपुहुत्तं जहन्नयं । आणयाईण देवाणं गेविज्जाणं तु अंतरं ॥ -उ०३६.२४५-२४६. २. संखेज्जसागरुक्कोस वासपुहत्तं जहन्नयं । अणुत्तराणं देवाणं अंतरेयं वियाहियं ॥ -उ० ३६.२४७. ३. उ० ३६.२१६-२१७, २४८. ४. उ० १४.१-२; ३.१४,१६; ६.१; १३.१; १६.८, ५. ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालम् । क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ॥ -गीता ६.२१... For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ ११७ अवशिष्ट पुण्य-कर्मों के अनुसार मनुष्य-लोक में सांसारिक मनुष्य सम्बन्धी १० प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्त करते हैं। इनका ऐश्वर्य और प्रभाव सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक होता है। इनके ऐश्वर्योपभोग सम्बन्धी १० साधनों के नाम ये हैं : १. क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, पशु आदि का समूह, २. मित्र, ३. सम्बन्धीजन, ४. उच्चगोत्र, ५. सून्दररूप, ६. निरोगशरीर, ७. महाप्राज्ञ, ८. विनय, ६. यश और १० बल ।' इस तरह ये जीव मनुष्य-लोक में आकर यदि विशुद्ध-आचार का पालन करते हैं तो मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं। यदि विशुद्ध-आचार का पालन नहीं करते हैं तो संसार-चक्र में भटकते रहते हैं। जिस प्रकार मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विषभक्षण आदि के द्वारा अकालमरण देखा जाता है उस प्रकार देवों का अकालमरण नहीं होता है। ये अपनी पूर्ण आयु का भोग करके ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इनके ऐश्वर्य और आयु के समक्ष मनुष्यों के ऐश्वर्य और आयु कुशा के अग्रभाग में स्थित जलबिन्दु की तरह नगण्य हैं। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा चक्रवर्ती राजाओं का ऐश्वर्य अनन्तगुणा अधिक होता है तथा उनसे भी अनन्तगुणा अधिक ऐश्वर्य देवों का होता है। इनका तेज अनेक सूर्यों से भी अधिक होता है तथा ये इच्छानुकल शरीर धारण करने की सामर्थ्य से युक्त होते हैं। सौधर्म देवलोक से लेकर अनुत्तर १. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चया । उवेन्ति माणुसं जोणि स दसंगेऽभिजायए ॥ -उ० ३ १६. ..... तथा देखिए-उ. ३. १७-१८; ७.२७. २. भोच्चा माणस्सए भोए अप्पडिरूवे अहाउयं । पुचि विसुद्ध सद्धम्मे केवलं बोहि बुज्झिया । -उ० ३.१६. ३. देखिए-पृ० १०८, पा० टि० १. ४. विसालिसेहिं सीले हिं जक्खा उत्तर उत्तरा । ... महासुक्का व दिप्पंता मन्नता अपुणच्चयं ।। For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ noi ११८] उत्तराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . देवलोक पर्यन्त देवों का यश, प्रकाश, ऐश्वर्य आदि उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है तथा मोह, जो संसार का हेतु है, क्रमशः कम होता जाता है।' असुर, यक्ष, राक्षस, पिशाच आदि निम्न श्रेणी के देव कहलाते हैं। अतः ग्रन्थ में जहाँ भी देवों के ऐश्वर्य आदि का वर्णन किया गया है वह श्रेष्ठ देवों की अपेक्षा से किया गया समझना चाहिए। __इस तरह चेतन और अचेतन-रूप षड्-द्रव्यों का वर्णन किया गया। द्रव्य-लक्षण छः द्रव्यों का पृथक-पृथक स्वरूप ज्ञात कर लेने के बाद प्रश्न उठता है कि आखिर द्रव्य का स्वरूप क्या है ?. जिसके आधार से इन छः द्रव्यों में ही द्रव्यता है, कम या अधिक में नहीं । जैनदर्शन में उत्पाद, विनाश और ध्रुवता इन तीन विशेषणों से विशिष्ट सत्तावान को द्रव्य कहा गया है।२ इसका तात्पर्य है कि द्रव्य सतरूप है, अभावात्मक नहीं है। वह वेदान्तियों की तरह . कूटस्थ-नित्य तथा बौद्धों की तरह एकान्ततः अनित्य नहीं है। वास्तव में द्रव्य नित्य होकर भी प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तनों से युक्त है। इन परिवर्तनों के होते रहने पर भी द्रव्य की नित्यता में व्याघात नहीं होता है ।। अप्पिया देवकामाणं कामरूव विउविणो।। उड्ढं कप्पेसु चिट्ठन्ति पुव्वा वाससया बहू ॥ -~-उ० ३.१४-१५. तथा देखिए-उ० ५.२७. १. उत्तराई विमोहाइं जुइमन्ताऽणु पुत्वसो।। समाइण्णाई जखेहिं आवासाइं जसंसिणो ॥ -उ• ५. २६. २. सत् द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् -त० सू० ५.२६-३० ३. जैसे सोने के पिण्ड से घट बनाने पर पिण्डरूप पर्याय का विनाश, घटरूप पर्याय की उत्पत्ति तथा सुवर्णरूपता की स्थिरता वर्तमान रहती है वैसे ही द्रव्य में अनेक परिवर्तनों के होते रहने पर भी ध्र वांश सर्वथा विनष्ट नहीं होता है। For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [११६ • इस तरह द्रव्य की इस परिभाषा के अनुसार द्रव्य में परस्पर विरोधी दो अंश हैं : १. नित्य (ध्रव) और २. अनित्य (उत्पाद और व्यय) । नित्यांश को गुण' कहा जाता है और अनित्यांश को 'पर्याय' ( अवस्था-विशेष )। ये दोनों अंश द्रव्य से सर्वथा पृथक्-पृथक् नहीं हैं क्योंकि ध्रुवांश परिवर्तन के अभाव में और परिवर्तनरूप अंश ध्रुवांश के अभाव में कुछ भी नहीं है। अतः गुण 'और पर्याय को सिर्फ समझाया जा सकता है, उनकी द्रव्य में पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं बतलाई जा सकती है कि अमुक द्रव्यांश गुणरूप है और अमुक पर्यायरूप है। जिस प्रकार गुण और पर्यायों को द्रव्य से पृथक-पृथक नहीं बतलाया जा सकता है उसी प्रकार गुण और पर्यायों से पृथक द्रव्य को भी नहीं बतलाया जा सकता है क्योंकि गुण और पर्यायों से पृथक द्रव्य कुछ भी नहीं है। अतः तत्त्वार्थसूत्र में गूण और पर्यायों से युक्त को द्रव्य कहा गया है।' द्रव्य में होने वाली अनुगताकार (अभेदाकार समानाकार) प्रतीति तो गूण है और भेदाकार प्रतीति पर्याय है । 'गुण' द्रव्य के नित्य-धर्म हैं तथा पर्याएँ आगन्तुक-धर्म हैं। 'गुण' द्रव्य-स्वरूप हैं और पर्याएँ उसकी उपाधि द्रव्य की तरह गुणों की भी पर्याएँ होती हैं और पर्यायों की भी अवान्तर पर्याएँ होती हैं। गुण और पर्याय दोनों द्रव्य के अङ्ग हैं एवं द्रव्य के आश्रय से रहते हैं। अत. गुण और पर्यायों के साथ द्रव्य का अङ्गाङ्गिभाव तथा आश्रयाश्रयिभाव सम्बन्ध है। इनके इस सम्बन्ध को संयोग-सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता है क्योंकि संयोग-सम्बन्ध उन्हीं वस्तुओं में होता है जिन्हें एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् किया जा सके। इस तरह गुण और पर्यायों की द्रव्य से सर्वथा पृथक स्थिति न होने के कारण हम उनमें तादात्म्य-सम्बन्ध स्वीकार कर सकते हैं। - गुणों का द्रव्य के साथ नित्य-सम्बन्ध होने के कारण ग्रन्थ में द्रव्य का लक्षण किया है 'जो गुणों का आश्रय हो'।२ गुण किसी १. गुणपर्यायवत्द्र व्यम् । -त० सू० ५. ३८. २. गुणाणमासवो दव्वं । -उ० २८.६. For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन न किसी के आश्रय से रहते हैं और वे जिसके आश्रय से रहते हैं वही द्रव्य है। इस परिभाषा के अनुसार ग्रन्थ का आशय यह नहीं है कि द्रव्य में सिर्फ गुण ही रहते हैं क्योंकि द्रव्य में पर्याएँ भी रहती हैं। अतः पर्याय का लक्षण करते हुए लिखा है 'जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रय से रहती हों।'' इसी प्रकार ग्रन्थ में विस्ताररुचि-सम्यग्दर्शन के प्रकरण में द्रव्य के सभी भावों को जानने का उल्लेख किया गया है जिसका तात्पर्य है-द्रव्य में रहने वाली समस्त पर्यायों का ज्ञान । तत्त्वार्थसूत्र में भी द्रव्य का लक्षणं गुण-पर्याय . वाला स्वीकार करने से स्पष्ट है कि गुण की तरह पर्याएँ भी द्रव्याश्रित हैं । गुणों की अपेक्षा पर्यायों के विषय में इतनी विशेषता है कि वे द्रव्याश्रित ही हों ऐसी बात नहीं है, अपितु गुणाश्रित भी हैं। गुण एकमात्र द्रव्य के ही आश्रय से रहते हैं। अतः ग्रन्थ में द्रव्य के लक्षण में सिर्फ गुण को ही ग्रहण किया गया है। इस तरह सिद्ध है कि द्रव्य न तो कटस्थ नित्य है और न एकान्ततः अनित्य अपितु गुणों की अपेक्षा से नित्य एवं अपरिवर्तनशील है तथा पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य एवं प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । गुण : ___ जो एकमात्र द्रव्य के आश्रय से रहते हैं उन्हें गुण कहा गया है। . जैसे-जीव में रहने वाले ज्ञानादि गुण । वैशेषिकदर्शन की तरह गुणों की संख्या न तो नियत है और न द्रव्य से पृथक उनकी सत्ता है। गुणों को केवल द्रव्याश्रित कहने से यह भी सिद्ध है कि गुण स्वतः निर्गुण हैं । अर्थात् गुणों में गुण नहीं रहते हैं। अतः परवर्ती काल में गुणों का लक्षण किया गया है १. लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे । -उ०२८.६. २. दव्वाण सव्वभावा। -उ० २८.२४. ३. एगदव्वस्सिया गुणा। -उ० २८.६. ४. रूपरसगन्ध'"""संस्काराश्चतुर्विंशतिर्गुणाः । -तर्क सं०, पृ० ३. For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य- विचार [ १२१ 'जो द्रव्याश्रित तो हों परन्तु स्वतः निर्गुण हों ।" ये गुण द्रव्य के सहभावी नित्य धर्म हैं तथा द्रव्य के स्वरूपाधायक भी हैं । अतः गुण और द्रव्य को सर्वथा भिन्न या अभिन्न न मानकर शक्ति और शक्तिमान की तरह भिन्नाभिन्न समझना चाहिए । पर्याय : द्रव्य और गुण इन दोनों के आश्रित रहने वाले धर्म को पर्याय कहा गया है । 3 पर्याएँ द्रव्य और गुण की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । गुण और पर्यायों में मुख्य अन्तर यह है कि गुण ( वस्तुत्व, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि) सम्पूर्ण द्रव्य और उसकी समस्त पर्यायों में व्याप्त होकर रहते हैं परन्तु पर्याएँ नहीं । अर्थात् गुणद्रव्य के साथ सदा रहते हैं और पर्याएँ द्रव्य में सदा एकरूप से नहीं रहती हैं अपितु क्रम-क्रम से बदलती रहती हैं। गुणों की तरह पर्यायों की भी कोई नियत सीमा नहीं है । ये प्रतिक्षण उत्पन्न और विनष्ट होती रहती हैं । कुछ पर्याएँ जो एक क्षण से अधिक समय तक ठहरती हैं उनकी अवान्तर पर्याएं भी होती हैं । इस तरह पर्याएँ द्रव्याश्रित और गुणाश्रित की तरह पर्यायाश्रित भी होती हैं । दीर्घकाल स्थायी पर्याय जो अन्य पर्यायों की आश्रय है किसी न किसी गुण या द्रव्य के आश्रित अवश्य रहती है । अत: पर्याय १. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः । - त० सू० ५४१. २. जदि हवदि दव्व मण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे । दव्वाणंतियमघवा दव्वाभावं पकुब्वंति ॥ अविभत्तमण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं । • णिच्छति णिच्चय विवरीदं हि वा तेसि || - पंचास्तिकाय, गाथा ४४-४५. २. देखिए - पृ० १२०, पा० टि० १. ४. यावद्द्रव्यभाविनः सकलपर्यायानुवर्तिनो गुणाः वस्तुत्व-रूप-रस- गन्धस्पर्शादयः । मृद्रव्यसम्बन्धिनो हि वस्तुत्वादयः पिण्डादिपर्यायाननुवर्त्तन्ते, न तु पिण्डादयः स्थासादीन् । तत एव पर्यायाणां गुणेभ्यो भेदः । यद्यपि सामान्यविशेषी पर्यायी तथापि सङ्केतग्रहण निबन्धनत्वाच्छब्दव्यवहारविषयत्वाच्चागमप्रस्तावे तयोः पृथग्निर्देशः । - या यदीपिका, पृ० १२१-१२२. For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन के लक्षण में पर्याय को गुण और द्रव्य के ही आश्रित बतलाया गया है । गुण और द्रव्य में जो नाना प्रकार के परिवर्तन दिखलाई पड़ते हैं वे सब पर्यायों के ही हैं। अतः ग्रन्थ में एकट्ठा होना (एकत्व), . अलग होना (पृथक्त्व), संख्या, आकार (संस्थान), संयोग और वियोग इन सबको पर्यायरूप माना गया है।' घटादिक में जो भेद-व्यवहार होता है वह पर्याय से ही होता है। पर्यायों की भी अवान्तर पर्याएँ स्वीकार करने से पर्याएँ सर्वथा अनित्य नहीं हैं। वास्तव में पर्याएँ द्रव्य की उपाधि हैं और द्रव्य उपाधिमान है। अतः दोनों में भेद होने पर भी कथञ्चित् अभेद भी है । __इस तरह द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप आपस में इतने मिलेजुले हैं कि उन्हें आसानी से समझना संभव नहीं है। इन्हें आपस में सम्मिलितरूप से बतलाने का तात्पर्य यह है कि एकान्त रूप से इन्हें भिन्न या अभिन्न न मान लिया जाय क्योंकि द्रव्य, गुण और पर्याएँ आपस में कथञ्चित् भिन्न एवं कथञ्चित् अभिन्न हैं ।' ऊपर जो जीवादि छः द्रव्य गिनाए गए हैं उन सबमें उत्पाद, विनाश और १. एगत्तं च पुहुत्तं च संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ।। .. उ० २८.१३. २. पज्जयविजुदं दव्वं दववि जुत्ता य पज्जया णत्थि । दोण्हं अणण्ण भूदं भावं समणा परूविति ।। -पंचास्तिकाय, गाथा १२. ३. द्रव्य, गुण और पर्यायों की कथंचित् भिन्नाभिन्नता हम एक दृष्टान्त से स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे - तन्तु को हम तन्तृत्व और वस्त्र से न तो सर्वथा भिन्न ही कह सकते हैं और न सर्वथा अभिन्न क्योंकि तन्तुरूपी द्रव्य अपने तन्तुत्वरूपी गुण से तथा वस्त्ररूपी पर्याय से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न है। यदि उसे सर्वथा भिन्न माना जाएगा तो तन्तु के न रहने पर भी तन्तुत्व और वस्त्र का व्यवहार होना चाहिए। यदि सर्वथा अभिन्न माना जाएगा तो वस्त्र के कार्य को तन्तु से ही हो जाना चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है क्योंकि वे परस्पर भिन्न होकर भी कथञ्चित् अभिन्न हैं। For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ १२३ ध्रुवतारूप द्रव्य का सामान्य-लक्षण अवश्य पाया जाता है क्योंकि द्रव्य के सामान्य लक्षण के अभाव में उनमें द्रव्यता ही नहीं रह सकती है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने सत को द्रव्य का लक्षण स्वीकार करके उसे उत्पाद, विनाश और ध्रुवतारूप माना है।' जिन द्रव्यों में उत्पाद और विनाशरूप परिणाम स्पष्ट दिखलाई नहीं पड़ते हैं उनमें भी समानाकाररूप परिणाम जैन-दर्शन में स्वीकार किया गया है। यदि द्रव्य को एकान्ततः नित्य या अनित्य माना जाएगा तो प्रत्यक्ष दृश्यमान वस्तुव्यवस्था संगत नहीं हो सकेगी क्योंकि हम देखते हैं कि प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहने पर भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता है अपितु एक अवस्था (पर्याय) से दूसरी अवस्था की प्राप्ति होती है और द्रव्य अपने मूलरूप में हमेशा बना रहता है। केवल उसकी पर्यायों में ही परिवर्तन होता है। आज का विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है। इस तरह द्रव्य के लक्षण में एकान्तवादियों (नित्यानित्यवादियों का समन्वय किया गया है । | গুনুন। इस प्रकरण में तीन मुख्य सिद्धान्तों की चर्चा की गई है : १. विश्व की भौगोलिक रचना किस प्रकार की है, २. विश्व की रचना में कितने मूल द्रव्य कार्य करते हैं तथा ३. द्रव्य का स्वरूप क्या है ? १. विश्व की रचना सम्बन्धी वर्णन देखने से प्रतीत होता है कि यह विश्व यद्यपि असीम है परन्तु जितने भाग में जीवादि छः द्रव्यों की सत्ता मौजूद है उसकी एक सीमा है जिस सीमा का आकाश के अतिरिक्त कोई भी द्रव्य उल्लङघन नहीं करता है। इसी अपेक्षा से इस विश्व को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है : लोक और अलोक । लोक वह भाग है जहाँ जीवादि द्रव्यों की सत्ता है और अलोक वह प्रदेश है जहाँ आकाश के १. देखिए-पृ० ११८, पा० टि० २. २. तद्भावः परिणामः । -त० सू० ५.४२. For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य नहीं है। अतः लोक को लोकाकाश और अलोक को अलोकाकाश भी कहा गया है। विचारणीय विषय लोक ही है क्योंकि लोक में ही सृष्टि पाई जाती है। लोक को ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक के भेद से तीन भागों में विभक्त किया गया है। ऊर्ध्वलोक में मुख्यरूप से उच्च श्रेणी के देवताओं का निवास है। अधोलोक में मुख्यरूप से नारकियों का तथा निम्न श्रेणी के देवताओं का निवास है। मध्यलोक में मुख्यरूप से मनुष्यों और तिर्यञ्चों का निवास माना गया है। इसके अतिरिक्त लोक के उपरितम भाग में मुक्तात्माओं का निवास माना गया है। इन तीनों लोकों की तुलना में मध्यलोक की सीमा बहत स्वल्प होने पर भी बहत विशाल है। इसके अतिरिक्त मध्यलोक के बहुत ही छोटे भाग में मनुष्य-क्षेत्र की रचना है जो एक ही प्रकार की ढाई-द्वीपों में बतलाई गई है। इस तरह यह लोक एक सुनियोजित शृंखला से बद्ध है जिसके सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है क्योंकि हमारी पहुँच मनुष्यक्षेत्र के बहुत ही स्वल्प-क्षेत्र तक ही है। इसीसे हम इस लोक एवं लोकालोक की सीमा की मात्र कल्पना कर सकते हैं। २. लोक की रचना के मूल में जिन छ: द्रव्यों को स्वीकार किया गया है उनकी संख्या छ : ही क्यों है ? सात या आठ, एक या दो क्यों नहीं है ? इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया गया है। यद्यपि ग्रन्थ में निहित तथ्यों के आधार से यह भी कहा जा सकता है कि द्रव्यों की संख्या दो है : चेतन और अचेतन । चेतन और अचेतन इन दो द्रव्यों की कल्पना से सृष्टि की व्याख्या स्पष्ट नहीं होती थी क्योंकि इसका कोई नियामक ईश्वर विशेष नहीं माना गया था। सामान्यतया अन्य दर्शनों में सृष्टि के नियामक एक ईश्वर द्रव्य की कल्पना की जाती है परन्तु उत्तराध्ययन में ईश्वर को नियन्ता मानना अभिप्रेत नहीं था क्योंकि ईश्वर जब सर्वशक्तिसम्पन्न और दयालु है तो फिर जीवों को कष्ट देने के लिए सष्टि क्यों की गई ? इसके अतिरिक्त ऐसा मानने पर ईश्वर का दर्जा बहुत नीचा हो जाता है और व्यक्ति का स्वातन्त्र्य भी समाप्त हो जाता है। अतः ईश्वर तत्त्व को स्वीकार न करके For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [ १२५ गति में सहायक धर्मद्रव्य, स्थिति में सहायक अधर्मद्रव्य और आधार में सहायक आकाश इन तीन द्रव्यों की कल्पना आवश्यक समझी गई। इस तरह ईश्वर तत्त्व को नियन्ता न मानने पर तीन द्रव्यों की कल्पना करने से द्रव्यों की संख्या पाँच हो गई। यह दश्यमान परिवर्तन भी सत्य है। अत: इस परिवर्तन के कारणभूत काल-द्रव्य की भी कल्पना करनी पड़ी और इस तरह द्रव्यों की संख्या कुल छः हो गई। चेतन जीव-द्रव्य को छोड़ कर शेष सभी के अचेतनरूप होने के कारण इन्हें दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। चूंकि ये पांचों प्रकार के अचेतन-द्रव्य किसी एक द्रव्य से नहीं निकले हैं। अतः इनकी संख्या दो मानकरके भी मुख्यतः छः मानी गई है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो अस्तिकाय-अनस्तिकाय, एकत्वविशिष्ट-बहत्वविशिष्ट, लोकप्रमाण-लोकालोकप्रमाण आदि द्वैतात्मक प्रकार संभव होने से चेतन-जीवद्रव्य धर्मादिद्रव्यों की कोटि में आ जाएगा। इसीलिए अचेतन से पृथक चेतन द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने के लिए अचेतन से पृथक् चेतन-द्रव्य माना गया है । यह दृश्यमान संसार भ्रमरूप नहीं है अपितु उतना ही सत्य है जितना दिखलाई पड़ता है। अतः चेतन के साथ अचेतनद्रव्य को भी स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त वैशेषिकों द्वारा माने गए वायु, दिशा आदि द्रव्यों को उपर्यक्त छः द्रव्यों में ही अन्तर्भूत माना गया है। ग्रन्थ में यद्यपि सिद्ध जीवों को ईश्वर स्थानापन्न माना गया है परन्तु वे सृष्टिकर्ता नहीं हैं क्योंकि वीतरागी होने से उन्हें संसार से कोई प्रयोजन नहीं है । वे मात्र अपने स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित आत्माएँ हैं। यदि सृष्टिकर्ता ईश्वर को मान लिया जाता तो चेतन, अचेतन और ईश्वर इन तीन द्रव्यों की ही स्थिति रहती या फिर ईश्वर के ही चेतन और अचेतन ये दो रूप मान लेने पर शंकराचार्य के ब्रह्माद्वैत की तरह एक ईश्वर-द्रव्य ही रह जाता। परन्तु ऐसा अभीष्ट न होने से और यथार्थवाद का चित्रण करने के कारण छः द्रव्यों की सत्ता मानी गई है। इनमें जीव द्रव्य प्रधान है क्योंकि उसके पूर्ण स्वातन्त्र्य को सिद्ध करने के लिए ही उसे अपने उत्थान एवं पतन का कर्ता तथा भोक्ता कहा गया है। इसीलिए जीव को अपने पुरुषार्थ द्वारा भगवान् बनने की For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सामर्थ्य भी है । एक भी मुक्त-जीव ऐसा स्वीकार नहीं किया गया है जो बिना पुरुषार्थ किए ही नित्य मुक्त हो। यद्यपि अनादिकाल से मुक्तजीवों की सत्ता है परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वे पुरुषार्थ के बिना ही मुक्त हो गए हों। इसीलिए प्रत्येक जीव में परमात्मा बनने की शक्ति को स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त जीवों की संख्या भी अनन्त स्वीकार की गई है। चैतन्य के विकास के आधार से किया गया जीवों का विभाजन बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह विभाजन. बहत कुछ अंशों में पाश्चात्यदर्शन के लीब्नीज के 'जीवाणवाद' और वर्गसां के रचनात्मक विकासवाद से मिलता-जुलता है।' उत्तराध्ययन में कुछ वनस्पतियाँ ऐसी भी स्वीकार की गई हैं जिनमें कई जीव एक साथ रहते हैं। ऐसे जीवों का शरीर एक ही होता है और सबकी क्रियाएँ एक साथ होती हैं। इनके अतिरिक्त जो सूक्ष्म जीव हैं वे किसी भी अवरोध से रुकते नहीं है और सर्वलोक में व्याप्त हैं। जीवों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के अजीव बतलाए गए हैं उनमें पुद्गल का वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण तथा वैज्ञानिक भी है। 'शब्द' को पुद्गल की पर्याय स्वीकार करने तथा 'वायू' आदि को रूपादि गुणों से युक्त मानने से पुदगल-विषयक बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है। . ३. यथार्थवाद का चित्रण होने से द्रव्य का स्वरूप भी एकान्ततः नित्य या अनित्य स्वीकार न करके अनित्यता से अनुस्यूत नित्य माना गया है। अनुभव में भी आता है कि द्रव्य में प्रतिक्षण कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य हो रहे हैं और इन परिवर्तनों के होते रहने पर भी उसमें कुछ ऐसे तथ्य मौजूद हैं जिनके कारण हम यह कहते हैं कि यह वही है जिसे हमने कल देखा था। अतः इस परिवर्तन के होने पर भी द्रव्य का कभी भी सर्वथा अभाव नहीं होता है क्योंकि वह किसी न किसी रूप में रहता अवश्य है । परिवर्तन द्रव्य की किसी पर्याय-विशेष का होता है, स्वतः द्रव्य का नहीं । अतः द्रव्य का स्वरूप भी ऐसा ही माना गया है जिससे दोनों (नित्यानित्य) दृष्टिकोणों का समन्वय हो सके । १. भा० द० रा०, पृ० ३३४. For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ : द्रव्य- विचार [ १२७ इसके लिए यह भी आवश्यक था कि द्रव्य को कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य स्वीकार किया जाए। इस तरह द्रव्य के विषय में वर्तमान नित्यानित्य सम्बन्धी विवादों का समन्वय किया गया । नित्यता द्रव्य का स्वभावसिद्ध धर्म है और अनित्यता उसकी उपाधि । शायद इसीलिए ग्रन्थ में द्रव्य के लक्षण में साक्षात् पर्यायांश को ग्रहण न करके गुणांश मात्र को ग्रहण किया गया है तथा परवर्ती काल में द्रव्य का स्वरूप निश्चयनय ( द्रव्यार्थिक नय) की अपेक्षा से नित्य और व्यवहारनय (पर्यायार्थिक नय ) की अपेक्षा से अनित्य माना गया है।' यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वेदान्तदर्शन में मानी गई परमार्थ -सत्ता और व्यवहार-सत्ता के दृष्टिकोण से द्रव्य के नित्यानित्यत्व का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है क्योंकि वेदान्तदर्शन में परमार्थसत्ता यथार्थ - भूत है और व्यवहारसत्ता अयथार्थभूत । जबकि यहाँ पर जितना द्रव्यांश सत्य है उतना ही पर्यायांश भी सत्य है । पर्याएं द्रव्य की उपाधि हैं जो प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती हैं । इनके परिवर्तित होते रहने पर भी द्रव्य सर्वथा अक्षुण्ण बना रहता हो सो भी बात नहीं है क्योंकि जब पर्याएँ द्रव्य से सर्वथा पृथक नहीं हैं तो फिर पर्यायों के परिवर्तित होने पर द्रव्य में कूटस्थ नित्यता बनी रहे यह कैसे सम्भव है ? फिर भी जो द्रव्य को नित्य कहा गया है वह अपने सत्तारूप गुण का अभाव न होना है। इस परिवर्तन के होते रहने पर भी सत्ता को अक्षुण्ण स्वीकार करने के कारण ही बौद्धों के क्षणिकवाद के दोषों का प्रसंग नहीं आता है । इस तरह उपर्युक्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन यथार्थवाद की नींव पर ग्रन्थ में किया गया है । यह संसार जो हमें दिखलाई पड़ रहा है वह उतना ही सत्य है जितना हमें अनुभव में आता है । इसके अतिरिक्त इस सृष्टि का स्रोत न तो उपनिषदों की १. उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो । . विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया || - पंचास्तिकाय, गाथा ११. For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तरह किसी एक ही केन्द्रबिन्दु से' और न सांख्यदर्शन की तरह चेतन-अचेतन इन (प्रकृति-पुरुषरूप) दो केन्द्रबिन्दुओं से प्रवहमान है अपितु चेतन-अचेतनरूप मुख्य छः केन्द्रबिन्दुओं से प्रवहमान है। द्रव्य वेदान्तियों की तरह न तो सर्वथा नित्य है और न बौद्धों की तरह सर्वथा अनित्य अपितु नित्यानित्यात्मक एवं एकानेकात्मक है। लोक की भौगोलिक रचना के सम्बन्ध में कितनी यथार्थता है, कुछ कहा नहीं जा सकता है। १. सर्व खल्विदं ब्रह्म। -छान्दोग्योपनिषद् ३.१४.१. एकमेवाद्वितीयम् । -छान्दोग्योपनिषद् ६.२.२. For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ સંસાર चेतन ( जीव ) के साथ रूपी-अचेतन ( पुद्गल ) का संयोगविशेष होना ही संसार है। अतः जबतक चेतन जीव के साथ रूपीअचेतन पुद्गल का सम्बन्ध रहता है तबतक जीव 'संसारी' कहलाता है। संसार शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-संसरण या परिभ्रमण । यह संसरण मुख्य रूप से चार अवस्थारूप बतलाया गया है जिन्हें गति कहते हैं। उनके नाम हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । इन चार गतियों में अपने शुभ और अशुभ कर्मों के कारण जीव का जन्म-मरण को प्राप्त होना ही संसार है।' इसीलिए ग्रन्थ में संसार या संसारचक्र को जन्म, जरा और मरण के भय से अभिभूत बतलाया है तथा उसे 'भव' या 'भवप्रपञ्च' भी कहा है। - संसार की दुःखरूपता .. नरकादि चारों गतियां जरा-मरणरूप संसार-कान्तार की चार भयंकर खाने हैं। ये दुस्सह एवं भयंकर शब्दों तथा दुःखों १. एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहि -उ० १०.१५. २. जाईजरामच्चु भयाभिभूया बहिं विहाराभिनिविट्ठचित्ता। . संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा दळूण ते कामगुणे विरत्ता ॥ -उ० १४.४. तथा देखिए-उ० २३.८४; ३६.६३. ३. जरामरणकंतारे चाउरते भयागरे । मए सोढाणि भीमाई जम्माई मरणाणि य । -उ०१६.४७. तथा देखिए-उ० २६.२२, ३२, ५६. For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] उत्तराध्य यन-सूत्र : एक परिशीलन से पूर्ण होने के कारण दुर्गतिरूप ( खोटी अवस्थाएँ ) कही गई. हैं।' यद्यपि भौतिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा मनुष्य और देवगति को सुगति भी कहा गया है। परन्तु इन गतियों की भी सुखसुविधाएँ कुछ समय बाद या मृत्यु के उपरान्त नष्ट हो जाने के कारण दुर्गतिरूप ही हैं। अतः केवल स्व-स्वरूप की प्राप्तिरूप सिद्ध-अवस्था (मुक्ति) ही सदा सुखों से पूर्ण होने के कारण सुगतिरूप कही गई है। इस तरह एकमात्र सिद्ध-अवस्था के सुगतिरूप होने से सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति में प्रमुख कारण त मनुष्यगति को भी कथञ्चित् सुगतिरूप कहा जा सकता है क्योंकि मनुष्यगति वाला जीव ही अपने संयम आदि के द्वारा सिद्ध-अवस्था को प्राप्त कर सकता है। अतः ग्रन्थ में मनुष्यगति को अपार वैभवसम्पन्न देवगति की भी अपेक्षा दुर्लभ बतलाया गया है। १. सहा विविहा भवन्ति लोए, दिव्वा माणुस्सगा तहा तिरिच्छा। भीमा भय-भेरवा उराला""""॥ -उ० १५.१४. विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइयतिरिक्ख जोणियमणस्सदेवदुग्गईओ निरुभइ । -उ० २६.४. तथा देखिए-उ० १४.२; १६.१६,४६-४७; २०.३१. २. मणुस्सदेव सुगईओ निबंधई। -उ० २६.४. तथा देखिए-उ० ३.१,७; प्रकरण १. ३. नाणं च दंसणं चेव"जीवा गच्छन्ति सोग्गई। -उ० २८.३. ४. एकया देवलोएसु नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं आहाकम्मेहिं गच्छई । कम्मसंगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणसासु जोणीसु विणि हम्मन्ति पाणिणो ॥ कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ । जीव सोहिमणुप्पत्ता आययन्ति मणुस्सयं ।। -उ० ३.३-७.. For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १३१ तिर्यञ्च व नरकगति के कष्ट : देवगति और मनुष्यगति के अतिरिक्त तिर्यञ्च और नरकगति भौतिक सुख-सुविधाओं की भी दृष्टि से दुर्गतिरूप ही हैं । अतः ग्रन्थ में इन्हें आपत्ति एवं वधमूलक बतलाया गया है और जहां से निकलना बड़ा कठिन है ।' इन दोनों में भी नरकगति अत्यधिक कष्टों से पूर्ण है। इस नरकगति में प्राप्त होने वाले कष्ट मनुष्यगति के कष्टों से अनन्तगुणे अधिक हैं। मृगापुत्र ने संसार के विषय-भोगों से विराग लेते समय अपने पिताजी से उन नारकीय कष्टों का वर्णन संक्षेप में निम्न प्रकार से किया है : २ 'हे पिताजी ! जिस प्रकार की वेदनाएँ (कष्ट) इस मनुष्यगति में देखी जाती हैं उससे अनन्तगुणी अधिक नरकों में हैं। ये अत्यन्त तीव्र, प्रचण्ड, प्रगाढ़, रौद्र, दुस्सह और भयंकर हैं। जैसे-प्रज्वलित अग्नि पर रखे हुए कुन्दकुम्भी नामक बर्तन में नीचे सिर और ऊपर पैर करके अनेक बार महिष की तरह पकाना; महादावाग्नि के समान उष्ण बालुकामय प्रदेशों में संतापित करना; अतितीक्ष्ण काँटों वाले उच्च शाल्मलिवृक्ष पर क्षेपण करके रस्सी आदि से कर्षापकर्षण करना; विभिन्न प्रकार के अतितीक्ष्ण शस्त्रों से छेदन-भेदन करके टुकड़ों के रूप में वृक्ष के टुकड़ों की तरह जमीन पर फेंकना; शकरों एवं कुत्तों के द्वारा घसीटा जाना; ईख की तरह महायन्त्रों में पेरा जाना; आग के समान तप्त लोहे के रथ में जोते जाकर चाबुकों (बेंत) से पीटा जाना; संडासी की तरह चोंच वाले नाना प्रकार के गीध .. १. दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया। . देवत्तं माणुसत्तं च ज जिए लोलयासढे ॥ तओ जिए सई होइ दुविहं दुग्गइं गए। ढुल्लहा तस्स उम्मग्गा अद्धाए सुचिरादवि ॥ -उ०७० १७.१८. तथा देखिए-उ० १६.११; ३४.५६; ३६.२५७ आदि । २. उ० १६.४८-७४; ५.१२-१३; ६.८. विशेष के लिए देखिए-सूत्रकृताङ्गसूत्र १.५; प्रश्नव्याकरण अध्ययन १. For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन आदि पक्षियों से नोचा जाना; छलपूर्वक कठोर पाशों से बांधकर मग की तरह मारा जाना; पिपासा से व्याकूल होकर वैतरणी नामक नदी में जल पीने के लिए जाने पर उस्तरे की तरह तीक्ष्ण धारा से व्यापादित किया जाना; किसी तरह पिपासा को सहन करने पर भी वहाँ पर स्थित अधर्मियों के द्वारा तांबा, लोहा, सीसा, लाख आदि पदार्थ खूब गरम करके चिल्लाते रहने पर भी पिलाया जाना; छाया की अभिलाषा से वृक्षादि की छाया का आश्रयण करने पर तीक्ष्ण असिपत्रों (तलवार की तरह तीक्ष्ण पत्ते) से छेदित किया जाना; यमदूतों की तरह स्वयं के शरीर को काटकर खिलाना; शरीर पर तीक्ष्ण औजारों से नक्कासी आदि करना; लुहार की तरह कटना-पीटना आदि।' इस प्रकार के विविध नारकीय कष्टों को सुनकर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नारकी जीवों की ही तरह तिर्यञ्चों को भी अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं जिनको हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं। नारकी और तिर्यञ्चों के कष्टों में अन्तर इतना है कि नारकी जीवों की असमय में मृत्यु न होने के कारण उनके शरीर बारम्बार छिन्न-भिन्न किए जाने पर भी फिर जुट जाते हैं जबकि तिर्यञ्चों के शरीर एकबार छिन्न-भिन्न होने पर फिर नहीं जुटते हैं। इसके अतिरिक्त तिर्यञ्चों को कुछ भौतिक सुख-सुविधाएँ भी प्राप्त हैं और उनके कष्ट नारकी जीवों की अपेक्षा बहुत ही अल्प हैं। इस तरह चारों गतियों के जीवों में सर्वाधिक कष्ट नारकियों को ही प्राप्त होते हैं । मनुष्य व देवगति के सुखों में दुःखरूपता : इस तरह यद्यपि नरक और तिर्यञ्च योनियों में ही कष्टों की अधिकता है परन्तु मनुष्य और देव योनियों में तो नाना प्रकार के विषयसूख उपलब्ध होते हैं फिर उन्हें क्यों कष्टों से पूर्ण कहा गया है? इस विषय में एकमात्र कारण है शरीर तथा विषयभोगों की अनित्यता। अतः ग्रन्थ में कहा है-यह जीवन वृक्ष के पीले पत्ते और ओस की बूंद की तरह अल्पस्थायी है। फेन के बुलबुले और विद्युत् की तरह चञ्चल है । इसके अतिरिक्त यह जीवन प्रतिपल For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १३३ मृत्यु के समीप चला जा रहा है।' सर्वार्थसिद्धि में रहनेवाले सर्वोच्च देव भी इस मृत्यु से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकते हैं । मृत्यु के उपरान्त सभी सांसारिक विषय-भोग यहीं छूट जाते हैं जिनका अन्य लोग उपभोग करते हैं। माता, पिता, भाई, बन्धु, पुत्र, पति, पत्नी, मित्र आदि सभी लोग तभी तक साथ देते हैं जबतक मृत्यु नहीं आ जाती है क्योंकि मृत्यु के उपरान्त ये सभी सम्बंधीजन जो प्राणों से भी अधिक प्रिय थे दो-चार दिन शोक करके अन्य दातार के पीछे चल पड़ते हैं। इसीलिए इन विषय-भोगों और सम्बन्धीजनों के प्रति की गई आसक्ति को महामोह और भय को उत्पन्न करने वाली कहा गया है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में अनाथी मुनि के मुख से यह कहलाया गया है कि सभी प्रकार के साधनों से सम्पन्न राजागण भी अनाथ हैं क्योंकि मृत्यु या भयंकर १. दुमपत्तये पंडयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए । कुसग्गे जह ओसविंदुए थोवंचिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए । -उ० १०.१-२. अणिच्चे जीवलोगम्मि। -उ० १८.१२. जीवियं चेव रूपं च विज्ज संपायचंचलं । -उ० १८.१३, तथा देखिए-उ० ४.१,९; ७.१०; १०.२१-२७; १३.२१,२६; १४.२७-३२; १६.१३-१४. २. जहेह सोहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । - 'न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि तम्मंसधरा भवन्ति ॥ -उ० १३.२२. तं एक्कगं तुच्छसरी रगं से चिईगयं दहिय उ पावगेण । भज्जा य पुत्तोवि य नायओ वा दायारमण्णं अणुसंकमन्ति ।। -उ० १३.२५. तथा देखिए-उ० ४.१-४; ६.३-६; १८.१४-१७; आदि । ३. जहित्तु संगं च महाकिलेसं महन्तमोहं कसिणं भयाणगं । । -उ० २१.११. For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन रोग आदि के उपस्थित हो जाने पर कोई बचा नहीं सकता है।' यह शरीर जिसका हम प्रतिदिन नाना प्रकार से शृंगार करते हैं वह भी विष्ठा, मूत्र, नासिकामल आदि अनेक घृणित पदार्थों से भरा हुआ है। इस प्रकार के अपवित्र शरीर में मन, वचन एवं काया से आसक्त होकर जीव इसके रक्षण, पोषण एवं संवर्धन आदि की चिन्ता किया करते हैं। रोगादि के हो जाने पर इस शरीर के कारण ही जीवों को अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं। अतः मृगापुत्र तथा भृगुपुरोहित के दोनों पुत्र इस शरीर को आधि, व्याधि, जरा, मरण आदि से पूर्ण जानकर इसमें क्षणभर के लिए भी प्रसन्न नहीं होते हैं। विषयभोग-जन्य सुखों में सुखाभासता : ___ संसार के विषयभोगों की साधनभूत पाँच इन्द्रियों को चोररूप बतलाया गया है।५ पाँचों इन्द्रियों को चोररूप इसलिए कहा १. उ० २०.६-३०. २. चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं । -उ० १.४८. तथा देखिए-उ० २४.१५; १६.१५. ३. जे केइ सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो । मणसा कायवक्केणं सव्वे ते दुक्खसम्भवा ।। -उ० ६.१२. ४. माणसत्ते असारम्मि वाही रोगाण आलए । जरामरणपत्थम्मि खणंपि न रमामहं ।। जम्मदुक्खं जरादुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जंतुणो। -उ० १६.१५-१६. तथा देखिए-उ० ५.११; १४.७. ५. आवज्जई इंदियचोरवस्से । -उ० ३२.१०४. तथा देखिए-उ० ६.३०, For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १३५ गया है कि इनसे जीव विषयभोगों को भोगता है जिससे शरीर की शक्ति नष्ट होती है और वह अकालमरण को प्राप्त करता है। इस तथ्य का वर्णन ग्रन्थ में बहत विस्तार से मिलता है। जैसे :१ चक्षु-इन्द्रिय के विषय रूप, श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द, घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध, रसनेन्द्रिय के विषय रस, स्पर्शनेन्द्रिय के विषय स्पर्श और मन के विषय भावरूप राग-द्वेष से प्रेरित होकर जीव उनके उत्पादन एवं रक्षण में नाना प्रकार की हिंसादि क्रियाओं में प्रवत्त होता है और उनके संभोगकाल में भी संतोष को प्राप्त न होता हआ असमय में मृत्यु को प्राप्त करता है। जैसे : रूप (प्रकाश) में अत्यन्त आसक्त पतङ्गा, शब्द में आसक्त हरिण, औषधि की गन्ध में आसक्त सर्प, रस में आसक्त मत्स्य, शीतल जल के स्पर्श में आसक्त महिष-ग्राह और कामभोगों में आसक्त हाथी। इसी प्रकार द्वेष करने वाला भी स्वयं के भावों को कलुषित करके दुःखी होता है। इस तरह ग्रन्थ में जब पृथक-पृथक इन्द्रिय के विषय की आसक्ति का फल अकालमरण बतलाया गया है तो फिर सभी इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का फल कितना भयावह नहीं हो सकता है ? इसीलिए इन्द्रियों को चोररूप कहा गया है अन्यथा ये इन्द्रियाँ ज्ञानादि की प्राप्ति में सहायक हैं। इसी प्रकार नत्य, गीत, आभूषण, नारीजनों का परिवार आदि संसार के सभी भोग्य विषय जिनकी प्राप्ति बड़ी मुश्किल से होती है और जो भोगने में सुखरूप प्रतीत होते हैं उनमें भी वास्तव में निमेषमात्र भी सुख नहीं है । ये श्लेष्मा में फसने वाली मक्षिका की तरह कर्म-जाल में बाँधने वाले हैं। ऐसी स्थिति में पिंजड़े में · स्थित पक्षी और बन्धन में स्थित मृग की तरह इन विषयभोगों में १. उ० ३२.२२-६६. २. सब्वभवेसु अस्साया वेयणा वेदिता मए । निमिसंतरमित्तंपि जे साया नत्थि वेयणा ।। -उ० १६.७५. तथा देखिए-उ० ७.८; १४.२१,४१ आदि । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सुख कहाँ ?' इसीलिए सभी गीतों को विलापरूप, नृत्य को एक प्रकार की विडम्बनारूप, आभूषणों को भाररूप तथा कामादि भोगों को दुःखरूप बतलाया गया है।२ भोगकाल में ये विषयभोग यद्यपि सुन्दर एवं सुखकर प्रतीत होते हैं परन्तु परिणाम में 'किंपाक' नामक विषफल की तरह प्राणघातक होते हैं। इसके अतिरिक्त ये विषय-भोग भोगने से इच्छा-ज्वाला को और अधिक तीव्रतर कर देते हैं क्योंकि जैसे-जैसे किसी वस्तु की प्राप्ति होती जाती है वैसे-वैसे लोभ (आकांक्षा) भी बढ़ता जाता है। इस तरह ये विषय-भोग यद्यपि क्षणभर के लिए कुछ सुख अवश्य देते हैं परन्तु कालान्तर में भयंकर कष्टों को ही अधिकमात्रा में देते हैं । १. नाहं रमे पक्खिणि पंजेरे वा । उ० १४.४१. भोगामिसदोसविसन्ने..... बज्झई मच्छिया व खेलम्मि । -उ० ८.५. २. सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नट्ट विडम्बियं । सव्वे आभरणा भारा सव्वे कामा दुहावहा । -उ० १३.१६. ३. जहा किम्पागफलाणं परिणामो न सुन्दरो। ' एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुन्दरो॥ -उ० १६.१८.; तथा देखिए-उ० ४.१३; १३.२०-२१; १४.१३; १६.१२; ३२.२०. ४. जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निद्वियं ।। -उ० ८.१७. पुढवी साली जवा चेव हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स".॥ -उ० ६.४६. तथा देखिए-उ० १४.३६. For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १३७ सुख वास्तव में इनके त्यागने में ही है। जैसे :' किसी पक्षी के पास मांस का टकड़ा देखकर अन्य पक्षीगण उस पर झपटते हैं और उससे वह मांस का टुकड़ा छीनने के लिए उसे नाना प्रकार से पीड़ित करते हैं। जब वह पक्षी उस मांस के टुकड़े को छोड़ देता है तो अन्य पक्षीगण उसे सताना भी छोड़ देते हैं। इसीलिए ग्रन्थ में सांसारिक विषयभोगों से प्राप्त होनेवाले सुखों की अपेक्षा विषयभोगों से विरक्त मुनि को प्राप्त होनेवाले आत्मानन्दरूपी सुख को श्रेष्ठ बतलाया गया है । विषय-भोगों में जो हमें सुख प्रतीत होता है वह हमारे रागद्वेषरूप मन का विकार है क्योंकि जीव जिससे राग करता है उसका संयोग होने पर और जिससे द्वेष करता है उसके विनष्ट होने पर प्रसन्न होता है। जैसे: जंगल में दावाग्नि से जलते हुए वन्य पशुओं को देखकर अन्य पशु राग-द्वेष के कारण आनन्दित होते हैं उसी तरह सम्पूर्ण संसार राग-द्वेषरूपी अग्नि से जल-भन रहा है। इसके अतिरिक्त इस जीव को मृत्युरूपी व्याध जरारूपी जाल से वेष्टित करके दिन-रातरूपी शस्त्रधाराओं से पीड़ित कर रहा है।४ अत: १. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं । आमिसं सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा । -उ०१४.४६. २. बालाभिरामेसु दुहावहेसु न तं सुहं कामगुणेसु रायं । विरत्तकामाण तवोधणाणं जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं । -उ० १३ १७. .. ३. दवग्गिणा जहारण्णे डज्झमाणेसु जन्तुसु । अन्ने सत्ता पमोयन्ति रागद्दोसवसं गया । एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया। इज्झमाणं न बुज्झामो रागद्दोसग्गिणा जगं । -उ० १४.४२-४३. तथा देखिए-उ० ६.१२; १४.१०; १६.१६,२४-२५, ४७. ४. मच्चुणाऽभाहओ लोगो जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता एवं ताय ! विजाणह ॥ -उ० १४.२३. For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन संसार में सुख कहाँ ? यदि किसी तरह सांसारिक सुख के साधनभूत कामभोगों को प्राप्त भी कर लिया जाए तो भी इनकी रक्षा करना बड़ा कठिन है क्योंकि ये चंचल स्वभाव के होने के कारण अच्छी तरह रोक रखने पर भी इच्छा के विपरीत छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। जैसे पत्र, फल आदि से रहित वृक्ष को पक्षीगण छोड़कर चले जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में संसार के विषयभोगों को सुख का साधन कैसे माना जा सकता है ? इन्हें तो दु:खों की खान ही कहना चाहिए ।२ विषय-भोगसम्बन्धी इच्छाएँ अनन्त एवं दुष्पूर हैं। अतः इनसे वास्तविक सुख की कल्पना करना मात्र मन को संतोष दिलाना है। जिन्हें. वास्तविकता का ज्ञान नहीं है वे ही इन सांसारिक सुखों को प्रिय समझते हैं। इसके अतिरिक्त वे नाना प्रकार की हिंसादि क्रियाओं में प्रवत्त होकर मिट्टी को एकत्रित करनेवाले शिशुनाग (केंचुआ-द्वीन्द्रिय जीव ) की तरह मन-वचन-काया से भोगों में मूच्छित होकर इहलोक और परलोकसम्बन्धी दु:खों के १. अच्चेइ कालो तरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण णिच्चा । उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ।। -उ० १३.३१. इमे य बद्धा फन्दन्ति मम हत्थज्जमागया। -उ० १४.४५. २. इमं सरीरं अणिच्चं असुई असुइ संभवं । . असासयावासमिणं दुक्ख केसाण भायणं ।। - उ० १६.१३. तथा देखिए-उ० १६६८; १०.३. खणमित्तसुक्खा वहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा। -उ० १४.१३ ३. हिंसे वाले मुसावाई माइल्ले पिसणे सढे । भुंजमाणो सुरं मंस सेयमेयं ति मन्नई ।। -उ० ५.६. तथा देखिए-3०५.५-८; ६.५१; १३.१७; १४.५. . For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३९ प्रकरण २ : संसार कारणभूत 'कर्ममलों का संचय करते हैं । ऐसी स्थिति में उनकी धन-धान्यादि से सम्पन्न क्षत्रियराजा की तरह भोगों से निवृत्ति नहीं होती है । बारम्बार प्रतिबोधित करने पर भी उनकी प्रवृत्ति उस ओर से उसी प्रकार नहीं मुड़ती है जिस प्रकार कीचड़ में फंसा हुआ हाथी तीर प्रदेश को देखकर भी नहीं निकल पाता है । 3 चित्त-मुनि के द्वारा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बारम्बार प्रतिबोधित किए जाने पर भी विषयों से विरक्त नहीं होता है और अन्त में सातवें नरक में जाता है । इसीलिए ग्रन्थ में संसार को पाशरूप तथा समुद्र की तरह विशाल एवं दुस्तर बतलाया गया है जहां से निकलना बड़ा कठिन है । चार दृष्टान्त - विषयासक्त पुरुषों को प्रतिबोधित करने के लिए ग्रन्थ में चार दृष्टान्त दिए गए हैं। वे इस प्रकार हैं : १. कायसा वयसा मत्ते वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहुओ मलं संचिणइ सिसुणा गोव्व मट्टियं ॥ २. न निविज्जन्ति संसारे सव्वट्ठे व खत्तिया । ३. नागो जहा पंक जलावसन्नो दठ्ठे थलं नाभिसमेइ तीरं । —उ० १३.३०. साहुस तस्स व अकाउं ॥ अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे । अत्तरे सोनर पविट्ठो ॥ तथा देखिए - उ० १३.१४, २७, ३३, १६.२६; ८.६. ४. पंचाल या विय बम्भदत्तो । ५. पास जाइप बहू | - उ० १३.३४. —उ० ५.१०. - उ० ६.२. तिण्णो हसि अण्णवं महं । - उ० ३.५. - उ० १०.३४. तथा देखिए - उ० ४.७; ५.१; ६.२; ८.१०; १६.११; २१.२४; २२.३९; २३.७३; २५.४०. ६. उ० ७.१-२४. For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. बकरा-जिस प्रकार बाहर से आने वाले प्रिय अतिथि के भोजन के निमित्त कोई बकरा अपने मालिक द्वारा विविध प्रकार के पक्वान्नों से पाला-पोसा जाता है और फिर उसके हृष्टपुष्ट हो जाने पर तथा अतिथि के आ जाने पर उसे मार डाला जाता है, उसी प्रकार विषयासक्त जीव भी मृत्युरूपी अतिथि के आजाने पर मृत्यू को प्राप्त करके दुःखों को झेलते हैं। २. काकिणी ( सबसे छोटा सिक्का )- जैसे एक काकिणी के लोभ से कोई जीव हजारों मुद्राएँ खो देते हैं वैसे ही थोडे से क्षणिक-सुख के पीछे मनुष्य सहस्रगुणे अधिक सुखों को खो देते हैं। ३. आम्रफल-भक्षण-जैसे कोई राजा चिकित्सक द्वारा बारम्बार मना किए जाने पर भी अल्पमात्र स्वाद के लोभ से आम्रफल खाकर मर जाता है वैसे ही थोड़े से स्वाद के लोभ से जीव अपने बहमूल्य जीवन को खो देते हैं। ४. तीन व्यापारीजैसे कोई तीन व्यापारी व्यापार के निमित्त विदेश में जाकर धन कमाते हैं। उनमें से एक मूलधन को सरक्षित लेकर, दूसरा मूलधन में वद्धि करके और तीसरा मूलधन को विनष्ट करके लौटता है। उसी प्रकार यह जीव भी मनुष्यजन्मरूपी मूलधन को लेकर चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करता है। यदि मूलधन में वृद्धि करता है तो स्वर्गगति में जाता है और यदि मूलधन का विनाश करता है तो तिर्यञ्च या नरकगति में जाता है। . उपर्युक्त चार दृष्टान्तों को समझने के बाद भी यदि कोई सम्यक आचरण न करके विषयों में ही आसक्त रहता है तो वह करुणायोग्य, लज्जालु, दीन और अप्रीति का पात्र होता है।' इस प्रकार अन्य भारतीय धार्मिक-ग्रन्थों की तरह प्रकृत-ग्रन्थ में भी संसार को दुःखों से पूर्ण चित्रित किया गया है। इसमें जो सुख की अनुभूति होती है वह काल्पनिक एवं क्षणिक है । भगवान् १. आवज्जई एवमणेगरूवे एवं विहे कामगुणेसु सत्तो। अन्ने य एयप्पभवे विसेसे कारुण्णदीणे हिरिये वइस्से ।। -उ० ३२.१०३. २. मनुस्मृति ४.१६०; भर्तृहरि-वैराग्यशतक । For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४१ प्रकरण २ : संसार बुद्धं ने भी अपने चार आर्यसत्यों में प्रथम सत्य 'संसार की दुःखरूपता' को ही स्वीकार किया है।' दुःखरूप संसार की कारण-कार्य-परम्परा : ___ उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि इस संसार में दुःख ही सत्य है। इसमें जो सूखानुभति होती है वह मानसिक, क्षणिक, कल्पनाप्रसूत या आभासमात्र है। चूंकि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है अतः इन दुःखों का भी कारण अवश्य होना चाहिए। इन दुःखों के कारणों पर विचार करते हए ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार से इसकी कारण-कार्यशृंखला का प्रतिपादन किया गया है जिसके प्रतिपादन में विभिन्नता होने पर भी एक इकाई और सामञ्जस्य है । वह कारण-कार्य-परम्परा इस प्रकार है : ___ जन्म-मरण-संसार में जो दुःख हैं उनका कारण है-जन्म-मरण को प्राप्त होना ।२ यदि जीव का जन्म न हो तो रोगादिजन्य पीड़ा भी न हो क्योंकि जन्म होने पर दुःख एवं मृत्यु आदि अवश्यंभावी हैं। अतः ग्रन्थ में रोगादिजन्य दुःख के समान जन्म को भी दुःखरूप कहा गया है। __शुभाशुभ-कर्मबन्धन-इस जन्म-मरणरूप संसार का भी कारण है-व्यक्ति के द्वारा किया गया शुभाशुभ-कर्म (अदृश्य-भाग्य) ।" जब जीव अहिंसा, दया, दान आदि अच्छे कार्य करता है तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्गादि में जन्म लेता है। जब हिंसा, झूठ, चोरी आदि १..देखिए-प्रकरण ३. २. रागो य दोसो वि य कम्मवीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । - कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयंति । -उ० ३२.७. ३. देखिए-पृ० १३४, पा० टि० ४. ४. देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २; -उ० ३.२, ५-६; ४.२; ७.८-६; १०.१५; १३. १६-२०; १४.२, १६; १८.२५; १६.१६-२०,२२,५६,५८, २०.४७; २१.२४; २५.४१; ३२.३३, ३३.१. For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन खोटे कार्य करता है तो पापकर्म के प्रभाव से नरकादि में जन्म लेता है। दुरात्मा के विषय में ग्रन्थ में कहा गया है कि वह कण्ठ का छेदन करने वाले शत्र की अपेक्षा भी अपना अधिक अनिष्ट करता है। इसका ज्ञान उसे तब होता है जब वह मृत्यु के समीप पहुँचकर पश्चात्ताप से दग्ध होता है।' यह अवश्य है कि पुण्यकर्म के प्रभाव से सांसारिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती हैं परन्तु जन्म-मरण के प्रति दोनों (पाप-पुण्य) की कारणता समान है। मनोज्ञामनोज्ञ विषयों में राग-द्वेष-बुद्धि-कर्मबन्धन क्यों होता है ? इसका कारण है- मनोज्ञ (प्रिय) वस्तु में राग (ममत्व-आसक्ति) और अमनोज्ञ (अप्रिय) वस्तु में द्वेष-बुद्धि का होना। जब जीव किसी वस्तु में राग या द्वेष करता है तो वह अपने राग-द्वेष के कारण दुःखों को प्राप्त करता है। इस तरह राग-द्वेष साक्षात् दुःख के कारण होकर भी कर्मबन्ध के कारण हैं क्योंकि रागद्वेष के कारण ही जीव हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप-क्रियाओं तथा दया, दान आदि १. न तं अरी कंठछेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मच्चु मुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो॥ -उ० २०.४८ तथा देखिए-उ० ७.६. २. देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २.; उ० ४.१२-१३; ८.२; २६.६२ ७१; ३०.१,४; ३१.३; ३२.६,१६,२५-३०, ३२-३३, ३८-३९, ४१,४६, ५.१, ५२,५६, ६४-६५,७२, ७७-७८, ८५, ६०-६१, ६८, १००-१०१. यहाँ पर कहीं राग-द्वेष को पृथक्-पृथक्, कहीं एक साथ, कहीं मोहादि के साथ कर्म का कारण बतलाया गया है। कहीं-कहीं राग-द्वेष को साक्षात् संसार या दुःख का भी हेतु बतलाया गया है। ३. रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे अलोयलोले समुवेइ मच्चं ।। जे यावि दोसं समुवेइ तिब्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्ख । दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू न किंचि रूवं अवरज्झई से। -उ० ३२.२४.२५. For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १४३ पुण्य-क्रियाओं को करता है । इन पाप और पुण्य रूप क्रियाओं के करने से क्रमशः पाप और पुण्य कर्मों का बन्ध होता है। यहाँ एक बात ध्यान रखने योग्य है कि द्वेष के भी मूल में राग ही कारणरूप से कार्य करता है क्योंकि अमनोज्ञ वस्तु में जो द्वेष होता है उसके मूल में भी किसी न किसी के प्रति राग की भावना अवश्य रहती है। जिस व्यक्ति ने कभी किसी से राग (प्रेम) किया ही नहीं सिर्फ द्वेष, क्रोध और घृणा ही करना जानता है उसे भी अपने क्रोधी-स्वभाव से राग अवश्य है अन्यथा अपनी इच्छा के प्रतिकल आचरण करने वाले से कभी द्वेष न करे। भगवान महावीर में भी किया गया राग पुण्य-कर्म के बन्ध में कारण है। इसीलिए ग्रन्थ में गौतम गणधर को लक्ष्य करके भगवान् ने कहा है कि हे गौतम ! मुझसे ममत्व मत करो।' अब प्रश्न उपस्थित होता है कि राग-द्वेष का कारण क्या है ? क्या मनोज्ञ वस्तु राग का और अमनोज्ञ वस्तु द्वेष का कारण है ? इस विषय में ग्रन्थ का स्पष्ट मत है कि यद्यपि मनोज्ञ और अमनोज्ञ वस्तु में क्रमश : राग और द्वेष की भावना उत्पन्न होती है परन्तु ये मनोज्ञामनोज्ञ विषय रागवान व्यक्ति के लिए ही क्रमशः राग और द्वेष को उत्पन्न करते हैं, वीतरागी के लिए ये न तो राग को उत्पन्न करते हैं और न द्वेष को उत्पन्न करते हैं। इस तरह रूपादि विषय न तो रागद्वेष को शान्त करते हैं और न उनकी उत्पत्ति के कारण हैं अपितु जो जीव उन विषयों में राग अथवा द्वेष करता है वह ही स्वयं के राग अथवा द्वेष के कारण विकृति को प्राप्त होता है। इसमें रूपादि १. वोच्छिदं सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम मा पमायए । -उ०१०.२८. २. चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जइ किंचि अप्पियं पि न विज्जई । एगंतरत्ते रुइरंसि रूवे अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ -उ० ३२.२६. For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन १ विषयों का कोई दोष नहीं है । इसीलिए प्रव्रज्या लेते समय नमिराजर्षि इन्द्र के द्वारा यह कहने पर कि 'आपका अन्तःपुर जल रहा है' अपने संकल्प से विचलित नहीं होते हैं । यदि उनके स्थान पर कोई रागवान् पुरुष होता तो अवश्य ही राग के कारण अन्तःपुर की रक्षा आदि का तथा द्वेष के कारण अन्तःपुर में आग लगाने वाले दण्डित करने आदि का प्रयत्न करता । इसके अतिरिक्त कौन-कौन से विषय मनोज्ञ हैं और कौन अमनोज्ञ हैं ? यह कह सकना संभव नहीं है क्योंकि कोई एक विषय किसी को मनोज्ञ लगता है और दूसरे को वही विषय अमनोज्ञ तथा तीसरे को उपेक्षणीय | 3 अतः मनोज्ञामनोज्ञ विषय क्रमशः राग और द्वेष के कारण नहीं माने जा सकते हैं । यदि ऐसा न माना जाएगा तो वीतरागी और मुक्त जीवों को भी रागादि की उत्पत्ति होने लगेगी क्योंकि मनोज्ञामनोज्ञ विषय उनके भी समक्ष रहते हैं । इसके अतिरिक्त व्यक्तिका कर्म करने के विषय में जो स्वातन्त्र्य है वह भी समाप्त हो जाएगा । अज्ञान - जब मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषय क्रमशः राग एवं द्वेष के कारण नहीं हैं तो फिर राग-द्वेष का कारण क्या है ? इस १. न कामभोगा समयं उवेंति न यावि भोगा विगई उवेंति । ओसीय परिग्गही य सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ - उ० ३२.१०१. यहाँ पर मनोज्ञामनोज्ञ विषयों को जो रागादि का अहेतु बतलाया गया है वह उपादानकारण की अपेक्षा से है क्योंकि निमित्तकारणता उनमें अवश्य वर्तमान है। यदि ऐसा न होता तो मनोज्ञामनोज्ञ विषयों के उपस्थित होने पर रागादि विकार उत्पन्न न होते । इसके अतिरिक्त ग्रन्थ का यह कथन कि विषयभोग विषफल की तरह हैं कैसे संगत होगा ? २. उ० ६.१२-१६. ३. जैसे मृत षोडशी सुन्दरी बाला को देखकर कोई कामुक युवक रागाभिभूत होकर कहता है 'अहो कितनी सुन्दरी थी !', शत्रु द्वेषवश कहता है 'अच्छा हुआ जो वह मर गई' परन्तु एक वीतरागी साधु संसार की असारता का विचार करता हुआ उपेक्षाभाव रखता है । इस तरह एक ही विषय कामुक व्यक्ति को मनोज्ञ, शत्रु को अमनोज्ञ और वीतरागी साधु को उपेक्षणीय होता है । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [१४५ विषय में ग्रन्थ का मत है कि राग की उत्कट-अवस्थारूप मोह (मूर्छाभाव) ही रागद्वेष का जनक है।' यह मोह भी अज्ञानमूलक राग की उत्कटावस्थारूप मूर्छाभाव से अतिरिक्त कुछ नहीं है। मोह के रागात्मक होने के कारण ग्रन्थ में कहीं-कहीं राग-द्वेष के साथ मोह को भी कर्मबन्ध एवं दुःख का कारण बतलाया गया है।' इस मोह के अज्ञानमूलक होने से मोह का भी मूल कारण अज्ञान (अविद्या) स्वीकार किया गया है । अतः ग्रन्थ में भी कहा है-'जो पुरुष ज्ञान से विहीन हैं वे सब दुःखोत्पत्ति के स्थानभूत हैं तथा वे मूढ़ होकर अनन्त संसार में बहुत बार ( जन्म-मरणादि से ) पीडित होते हैं। जो ज्ञानवान हैं वे बन्धन के कारणों को जानकर सत्य की खोज करते हैं और सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखते हैं।' तृष्णा व लोभ-अज्ञान और मोह के बीच में जिन दो अन्य कारणों को ग्रन्थ में बतलाया गया है उनके क्रमशः नाम हैं-तृष्णा और लोभ । १. अमोहणे होइ निरंतराए । -उ० ३२.१०६. तथा देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २; १४६, पा० टि० २; उ० ५.२६; ८.३; १४.२०; १६.७; २१.१६ आदि । २. रागं च दोसं च तहेव मोहं उद्धत्तु कामेण समूलजालं । -उ० ३२.६. तथा देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २, पृ० १४५, पा० टि० ४. ३. जावन्तविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा संसारम्मि अणन्तए । समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाइपहे बहू ।। अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेति भूए सु कप्पए । -उ० ६.१-२. जहा वयं धम्ममजाणमाणा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा । -उ० १४.२०. तथा देखिए-उ० २८.२०; २६.५-६,७१ आदि । ४. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हो जस्स न होइ तप्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हो जस्स न किंचणाई। -उ० ३२.८. For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तृष्णा और लोभ ये दोनों वास्तव में रागात्मक मोह की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। तृष्णा को भयंकर फल देने वाली लता कहा गया है।' इसके अतिरिक्त मोह और तृष्णा में बीजाङ्कुर का सम्बन्ध भी बतलाया गया है-'जिस प्रकार बलाका पक्षी की उत्पत्ति अंडे से और अंडे की उत्पत्ति बलाका से होती है उसी प्रकार मोह की उत्पत्ति तृष्णा से और तृष्णा की उत्पत्ति मोह से होती है।'२ इस तरह यद्यपि मोह और तृष्णा में बीजाकुर की तरह सम्बन्ध बतलाया गया है परन्तु इसके आगे ग्रन्थ में ही लिखा है-जिसे मोह नहीं उसने दुःख का अन्त कर दिया। जिसे तृष्णा नहीं उसने मोह का अन्त कर दिया। जिसे लोभ नहीं उसने तृष्णा को नष्ट कर दिया और जिसके पास कोई संपत्ति नहीं (अकिञ्चन) उसने लोभ का भी अन्त कर दिया। यहाँ मोह का कारण तृष्णा बतलाकर तृष्णा का भी कारण लोभ बतलाया गया है। इस लोभ के न रहने पर तृष्णादि की परम्परा टूट जाती है। इस लोभ का विनाश अकिञ्चनभाव ( त्याग, समता आदि गुणों ) से होता है। यहाँ अकिञ्चनभाव लोभ का कारण नहीं है अपितु लोभत्याग से अकिञ्चनभाव की प्राप्ति होती है। इस अकिञ्चन भाव की प्राप्ति ज्ञान से होती है और अज्ञान से लोभादि में प्रवृत्ति । इस तरह अज्ञान ही सब प्रकार के दु:खों का मूल कारण है। अज्ञान के दूर होते ही मोहादि की शृंखला टूट जाती है और तब जीव जन्ममरण के चक्र से छुटकारा पाकर जीवन्मुक्त हो जाता है। इस तरह दुःखों के कारणभूत संसार की जो कारणकार्यशृंखला बतलाई गई है वह निम्न प्रकार है : अज्ञान-लोभ→तृष्णा→मोह → राग-द्वेष →कर्मबन्धन →जन्ममरणरूप संसार→दुःख । १. भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया। -~-उ० २३.४८. २. जहा य अंडप्पभवा बलागा अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ -उ० ३२.६. ३. देखिए-पृ० १४५, पा० टि० ४. For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १४७ अज्ञान से लोभ, लोभ से तृष्णा, तृष्णा से मोह, मोह से रागद्वेष, रागद्वेष से शुभाशुभ कर्मबन्धन, शुभाशुभ कर्मबन्धन से जन्म-मरणरूप संसार, जन्म-मरणरूप संसार से दुःख । इस तरह इस कारणकार्यशृंखला के मूल में अज्ञान है जिससे जीव हिताहित का विवेक नहीं कर पाता है और रागादि के वशीभूत होकर संसार के विषयभोगों में लिप्त रहता है। इस अज्ञान के दूर हो जाने पर संसार के विषयों से आसक्ति हट जाती है और दु:खों का भी अन्त हो जाता है । यह ज्ञान पुस्तकीय-ज्ञान मात्र नहीं है अपितु इस कारणकार्यशृं. खलारूप सत्यज्ञान का आत्म-साक्षात्कार आवश्यक है। जब तक इस सत्य का वास्तविक ज्ञान नहीं होगा तब तक संसार के विषयों से रागबुद्धि हट नहीं सकती है। इसीलिए ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती संसार की असारतो को जानकर भी संसार के विषयों से विरक्त नहीं हो पाता है।' इस तरह अज्ञान ही वह मूल कारण है जिससे मोहादिरूप अन्य कारणों की उत्पत्ति होती है और तब अनन्त दु:खों से पूर्ण संसार में परिभ्रमण । कम-बन्ध ____ जन्म-मरणरूप संसार परिभ्रमण में कर्मबन्ध का विशेष महत्त्व है क्योंकि जब तक जीव के साथ कर्म का बन्धन रहता है तब तक वह संसार में परिभ्रमण करता है और जब वह कर्म के बन्धन से छटकारा प्राप्त कर लेता है तो चतुर्गतिरूप संसार-परिभ्रमण से भी मुक्त हो जाता है। अतः जीव के साथ होनेवाले कर्मबन्ध का विचार आवश्यक है। कर्मबन्ध शब्द का अर्थ : _ 'कर्मबन्ध' शब्द में दो शब्द हैं-कर्म और बन्धन । 'कर्म' शब्द से साधारणतया क्रिया, प्रवृत्ति या कार्य का बोध होता है तथा 'बन्धन' शब्द से दो विशिष्ट पदार्थों के सम्बन्ध-विशेष का बोध होता है। इस तरह कर्मबन्ध का सामान्य अर्थ हुआ जीव के द्वारा १. उ० १३.२७-३०. For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । की गई मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से कर्म-परमाणुओं (कार्मणवर्गणारूपी अचेतन पद्गल द्रव्यविशेष ) का दूध और पानी की तरह जीव के आत्म-प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाही (सम्बन्ध) होना। यद्यपि इस तरह जीव की प्रत्येक क्रिया का निमित्त पाकर कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध हो सकता है परन्तु प्रकृत. ग्रन्थ में प्रत्येक क्रिया के निमित्त से कर्मबन्ध स्वीकार नहीं किया गया है अपितु संसार-परिभ्रमण में कारणभूत रागद्वेष के निमित्त से होनेवाली मन-वचन-काय की क्रिया ही जीव के साथ कर्मपरमाणुओं का बन्ध कराती है। जिन क्रियाओं में रागद्वेष की निमित्तकारणता नहीं है वे भी यद्यपि कर्म हैं परन्तु वे जीव के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होते हैं। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थ में एक दृष्टान्त दिया गया है : जिस प्रकार किसी दीवाल पर एक साथ मिट्टी के दो ढेले (आर्द्र और शुष्क) फेंकने पर दोनों ढेले उस दीवाल तक पहुँचते तो अवश्य हैं परन्तु उनमें से जो आर्द्र ढेला होता है वह दीवाल से चिपक जाता है और जो शुष्क ढेला होता है वह दीवाल से चिपकता नहीं है। उसी प्रकार जो जीव काम-भोगों की लालसा ( रागद्वेष की भावना) से युक्त हैं उनके साथ कर्म-परमाणुओं का बन्ध हो जाता है और जो वीतरागी हैं उनके साथ कर्मपरमाणओं का बन्ध नहीं होता है। अतः जो भोगों की लालसा से युक्त होते हैं वे कर्मबन्ध के कारण संसार में परिभ्रमण करते हैं और जो भोगों की लालसा से रहित हैं वे कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं।' १. उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमई संसारे अभोगी विप्पमुच्चई ॥ उल्लो सुक्खो य दो छूटा गोलया मट्टियामया। दोवि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सो स्थ लग्गई ।। एवं लग्गन्ति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा से सुक्कगोलए । -उ० २५४१-४३. विशेष-यदि इस दृष्टान्त में आर्द्रता और शुष्कता मिट्टी के ढेलों की अपेक्षा दीवाल में बतलाई जाती तो अधिक उचित होता। For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १४६ अतः ग्रन्थ में कर्मबन्ध से उन्हीं कर्मों को लिया गया है जो जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर उससे सम्बद्ध हो जाते हैं और जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं।' इस तरह हमारी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया (जिसे जैनदर्शन में 'योग' शब्द से भी कहा जाता है) से कर्म-परमाणु जीव की ओर आकृष्ट होते हैं। यदि उस समय आत्मा में रागादिभाव होते हैं तो कर्म-परमाणु आत्मा से चिपक जाते हैं। यदि उस समय आत्मा में रागादिभाव नहीं होते हैं तो कर्म-परमाणु आत्मा के पास आकर के भी अलग हो जाते हैं। इस तरह जीव की प्रत्येक क्रिया से सञ्चलन को प्राप्त होने के बाद कर्म-परमाणुओं की निम्न तीन अवस्थाएँ होती हैं : १. जो कर्मपरमाणु जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर आत्मा से बद्ध हो जाते हैं और संसार में परिभ्रमण कराते हैं। इन्हें 'सक्रिय बद्ध-कर्म' कहा जा सकता है। • २. जो कर्म-परमाण जीव के रागादि भावों से रहित केवल मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप निमित्त से आत्मा के पास आकर उससे न तो बद्ध होते हैं और न अपना कोई प्रभाव आत्मा पर छोड़ते हैं । इन्हें 'निष्क्रिय अबद्ध-कर्म' कहा जा सकता है। ३. जो कर्मपरमाणु जीव के रागादि भावों से रहित मन-वचनकाय की सत्प्रवृत्ति (सदाचार) के निमित्त से आत्मा के पास आकर पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करते हैं। ग्रन्थ में इस प्रकार के कर्म को दुर्गति में न ले जाने वाला कहा है। इन्हें 'सक्रिय अबद्ध-कर्म' कहा जा सकता है। १. अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आणुपुव्विं जहाकम । जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवट्टई ॥ -उ० ३३.१. २. किं नाम होज्जतं कम्मयं जेणाहं दुग्गइं न गच्छेज्जा। -उ० ५.१. For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन इन तीन प्रकार की कर्म की अवस्थाओं में से तीसरी अवस्थावाले कर्मों का आगे विचार किया जाएगा। दूसरी अवस्थावा कर्मों का प्रकृत में कोई उपयोग नहीं है । अतः केवल प्रथम अवस्थावाले कर्मों का ही विचार यहाँ प्रस्तुत है । पहले जो कर्म की परिभाषा दी गई है वह भी प्रथम प्रकार के कर्मों की अवस्था को ही दृष्टि में रखकर दी गई है क्योंकि ग्रन्थ में जो भी कर्मबन्ध के सम्बन्ध में वर्णन मिलता है वह इसी अवस्थावाले कर्मों से सम्ब न्धित है । इसीलिए ग्रन्थ में कर्म को कर्मग्रन्थि ', कर्म कञ्चुक २, कर्म'रज', कर्मगुरु, कर्मवन " आदि शब्दों से कहा गया है । विषमता का कारण - कर्मबन्ध : इष्टका संयोग, अनिष्ट का वियोग, सुख या दुःख की अनुभूति, स्वर्ग या नरक की प्राप्ति, ज्ञान व अज्ञान का आधिपत्य आदि जीव के किए हुए कर्मों के प्रभाव से होते हैं । देखते ही देखते राजा भिखारी बन जाता है और भिखारी राजा बन जाता है । एक आदमी दिन - भर कठोर परिश्रम करने के वावजूद कुछ नहीं प्राप्त कर पाता है और दूसरा आदमी घर बैठे ही बैठे अपार सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है । इसमें क्या कारण है ? इसका कारण है हमारे द्वारा १. अट्ठविहकम्मठ निज्जरेइ । अहिस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमोयणाए । २. तवनारायजुत्तेण भेत्तूण कम्मकंचुयं । — उ० २६.३१. विहुहि रयं पुरे क ४. तओ कम्मगुरू जन्तू । ३. तवस्सी वीरियं लद्धं संबुडे निद्धणे रयं । - उ० २६.७१. - उ० ६.२२. """" - उ० ३.११. - उ० १०.३. - उ० ७. ६. ५. कामभोगे परिच्चज्ज पहाणे कम्ममहावणं । -उ० १८.४६. For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १५१ किए गए (पूर्वबद्ध) कर्म जो आत्मा के साथ बद्ध होकर सुख-दुःख आदि का अनुभव कराते हैं । ' ये कर्म एक सच्चे न्यायाधीश की तरह जीव की प्रत्येक कार्यवाही को लिखते से जाते हैं और तदनुसार इनका फल भी देते हैं क्योंकि ये कर्म सत्य हैं। अतः ये जिस रूप में किए जाते हैं उसी रूप में उसका फल भी अवश्य देते हैं। कर्मों का फल भोगे बिना किसी को छुटकारा नहीं मिल सकता है। यदि अच्छे कर्म करते हैं तो सुखरूप अच्छा फल मिलता है। यदि बुरे कर्म करते हैं तो दुःखरूप बुरा फल मिलता है। इन कर्मों के अनुसार ही अगले भव में श्रेष्ठ अथवा निम्न कुल-गोत्र-शरीररचना आदि की प्राप्ति होती है। मरने के बाद परलोक में भी साथ देने वाला यदि कोई है तो वह है जीव के द्वारा किया गया शुभाशुभ कर्म । अतः ग्रन्थ में लिखा है-भाई, बन्ध आदि न तो किसी के कर्म के भागीदार बन सकते हैं और न कर्म से उसको छुटकारा दिला सकते हैं क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है।५ पर के लिए भी किया गया कर्म कर्ता (कर्मकर्ता) के १. इहं तु कम्माई पुरेकडाई ।। -उ० १३.१६. कम्मा नियाणप्पगडा तुमे राय विचिन्तिया । तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया ॥ -उ० १३.८. २. कम्मसच्चा हु पाणिणो। -उ० ७.२०. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि । -~-उ० १३.१०. .. ३. शुभकर्मों के शुभफल के लिए देखिए-उ० १३ १०-११; १६.२१ २२; २०.३३; २६.२३ आदि । अशुभकर्मों के अशुभफल के लिए देखिए- उ० ३.५; ५.१३; १८. २५; १६.१६-२०, ५८; २१.६; २६ ३२; ३० ६ आदि । ४. उ० ३ ३; १४ १-२ आदि । ५. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा । - एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥ For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन द्वारा ही भोक्तव्य है । जिस प्रकार सेन्ध लगाते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया चोर नहीं बच सकता है उसी प्रकार इन कम से छूटना भी संभव नहीं है । सम्राट ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तथा देवता आदि जब इन कर्मों का फल भोगे बिना नहीं बच सकते हैं तो फिर अन्य सामान्य जीव इनका फल भोगे बिना कैसे बच सकते हैं ? हम जो ऐसा व्यवहार करते हैं कि हमारे माता-पिता, भाई-बन्धु वगैरह हमारी रक्षा करते हैं तथा हमारे लिए सुख-साधनों को जुटाते हैं, यह भी पूर्वभव के अपने-अपने कर्मों का ही फल है । अतः हमारे सुख-दुःख आदि में माता-पिता, भाई-बन्धु आदि सिर्फ निमित्तकारण हैं, उपादानकारण तो हमारे पूर्वबद्ध कर्म ही हैं । निमित्तकारण कर्मों के अनुसार अपने आप मिल जाते हैं । इस तरह जीव में जो भी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी क्रिया या सुखदुःख की अनुभूति दृष्टिगोचर होती है वह सब अपने-अपने पूर्वबद्ध कर्मों के प्रभाव से है । अतः ग्रन्थ में सभी संसारी जीवों को अपने-अपने कर्मो से पच्यमान कहा गया है । 3 चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । सम्मबीओ अवसो पयाइ परं भवं सुन्दरपावगं वा । - उ० १३.२३-२४. तथा देखिए - पृ० १३३, पा० टि० २. १. संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उवेंति । - उ० ४.४, २. तेणे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी | एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ॥ तथा देखिए - पृ० १५१, पा० टि० २. ३. थावरं जंगमं चेव धणं घण्णं उवक्खरं । पच्चमाणस्स कम्मेहिं नालं दुक्खाउ मोयणे || - उ० ६.६. For Personal & Private Use Only - उ० ४.३. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [१५३ कर्म-सिद्धान्त भाग्यवाद नहीं : इस कर्म-सिद्धान्त से यद्यपि भाग्यवाद या अनिवार्यतावाद की पुष्टि होती है परन्तु यहाँ पर यह इष्ट नहीं है क्योंकि जीव को अच्छा या बुरा कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र माना गया है। यह अवश्य है कि किए हुए कर्मों का फल भोगना जीव के स्वातन्त्र्य पर निर्भर नहीं है क्योंकि कर्म करने पर उनका फल भोगना आवश्यक माना गया है। ऐसी स्थिति होने पर भी यदि जीव पुरुषार्थ करे तो अपने पूर्वबद्ध कर्मों को पृथक् कर सकता है। अत: इस कर्म-सिद्धान्त को 'भाग्यवाद' कहने की अपेक्षा 'पुरुषार्थवाद' कहना अधिक उपयुक्त है। 'जैसी करनी वैसी भरनी', 'जो जस करहि सो तस फल चाखा', 'As you sow, so you reap' आदि प्रचलित मुहावरों से इस कर्म-सिद्धान्त को अच्छी तरह समझा जा सकता है। कर्मों के प्रमुख भेद-प्रभेद : कर्म जब आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं तो वे मुख्यरूप से आठ रूपों में परिवर्तित हो जाते हैं। ये कर्मों की आठ अवस्थाएँ ही कर्मों के प्रमुख आठ भेद कहे गए हैं। ग्रन्थ में इन्हें मूल कर्मप्रकृति तथा इनके अवान्तर भेदों को उत्तर कर्मप्रकृति कहा गया है। प्रकृति का अर्थ है-बस्तु का स्वभाव । अतः बन्ध को प्राप्त होने वाले कर्म-परमाणओं में अनेक प्रकार के परिणामों को उत्पन्न करने वाली स्वाभाविक शक्तियों का पड़ना प्रकृतिबन्ध है। उन मूल आठ कर्मों या कर्मप्रकृतियों के कार्य एवं नाम निम्नोक्त हैं :२ ... १. आत्मा के ज्ञान गुण का प्रतिबन्धक (ज्ञानावरणीय , २. सामान्यबोध या आत्मबोध का प्रतिबन्धक ( दर्शनावरणीय), ३. सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला (वेदनीय), ४. मोह या १. एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया । -उ० ३३.१६. २. नाणसावरणिज्ज"अद्वैव उ समासओ। -उ० ३३.२-३. For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन मूढ़ता को उत्पन्न करने वाला ( मोहनीय), ५. जीवन की स्थिति का मापक ( आयु ), ६. शरीर की रचना आदि में निमित्तकारण ( नाम ), ७. उच्च या नीच कुलादि की प्राप्ति में कारण (गोत्र) और ८. आत्मा की वीर्यादि शक्तियों का प्रतिबन्धक ( अन्तराय) | इन आठ प्रकार के कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म जीव के ज्ञानादि अनुजीवी गुणों को घातने ( प्रकट न होने देने) के कारण 'घातिया' कहे जाते हैं । इनके विष्ट होने पर जीव के शेष अन्य चार कर्म आयु के पूर्ण होते. पर स्वत: नष्ट हो जाते हैं क्योंकि अघातिया कर्मों के प्रभाव से जीव के स्वाभाविक ज्ञान आदि गुणों के प्रकट होने में कोई बाधा नहीं पड़ती है । अत: इन्हें - शेष आयु आदि चार कर्मों को 'अघातिया ' कहा गया है । ग्रन्थ में इसीलिए चार घातिया कर्मों के विनष्ट होने पर जीव को जीवन्मुक्त मान लिया गया है क्योंकि शेष चार अघातिया कर्म आयु के पूर्ण होने पर एक साथ बिना विशेष प्रयत्न के नष्ट हो जाते हैं । " अब क्रमश. आठों कर्मों के स्वरूपादि का वर्णन किया जाएगा । १. ज्ञानावरणीय कर्म - जो आत्मा में रहने वाले ज्ञानगुण को प्रकट न होने देवे उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । ज्ञान के मुख्य पाँच प्रकारों के आधार पर ज्ञानावरणीय कर्म के भी पाँच अवान्तर भेद बतलाए गए हैं । इन अवान्तर भेदों ( उत्तर- प्रकृतियों ) के क्रमशः नाम ये हैं १. श्रुतज्ञानावरण - शास्त्रज्ञान का आवरक २. आभिनिबोधिकज्ञानावरण' ( मतिज्ञानावरण ) - इन्द्रियजन्य ज्ञान का आव१. सत्यजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अनंतघाइपज्जवे खवेइ । - उ० २९.७. वेणिज्जं आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ । - उ० २६.७२. तथा देखिए - उ० २९.४१,५८,६१,३२.१०६ आदि । २. उ० ३३.४. ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, स्थानाङ्ग, तत्त्वार्थसूत्र आदि अन्य जैन ग्रन्थों में श्रुतज्ञानावरण के पहले आभिनिबोधिकज्ञानावरण ( मतिज्ञानावरण) का उल्लेख मिलता है । जैसे - मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानाम् । - त० सू० ८.६. For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १५५ रक, ३. अवधिज्ञानावरण-इन्द्रियादि की सहायता के बिना होने वाले रूपी अचेतन विषयक (सीमित पदार्थो के) यौगिक प्रत्यक्ष ज्ञान का आवरक, ४. मनःपर्यायज्ञानावरण-इन्द्रियादि की सहायता के बिना दूसरे के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान का आवरक' और ५. केवलज्ञानावरण- इन्द्रियादि की सहायता के विना त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों की समस्त अवस्थाओं (पर्यायों) के ज्ञान का आवरक । २. दर्शनावरणीय कर्म-जो पदार्थों के सामान्यज्ञान या आत्मबोधरूप दर्शन गुण को प्रकट न होने देवे उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। इसके नव अवान्तर भेद गिनाए गए हैं। इनमें प्रथम पाँच भेद निद्रा से सम्बन्धित हैं तथा शेष चार दर्शनसम्बन्धी हैं : 3 १. निद्रा-जिस कर्म के प्रभाव से जीव को सामान्य निद्रा आए, १. मनःपर्यायज्ञान के स्वरूप के सम्बन्ध में जैन श्वेताम्बरों में दो परम्प राएं देखी जाती हैं : क. मन.पर्यायज्ञान परकीय मन से चिन्त्यमान अर्थों को जानता है। ख. मनःपर्यायज्ञान चिन्तनव्यापृत मनोद्रव्य की पर्यायों को साक्षात् जानता है और चिन्त्यमान पदार्थ तो पीछे से अनुमान के द्वारा जाने जाते हैं क्योंकि चिन्त्यमान पदार्थ मूर्त की तरह अमूर्त भी हो सकते हैं जिन्हें मनःपर्यायज्ञान विषय नहीं कर सकता है। पहली परम्परा का दिग्दर्शन हमें आवश्यकनियुक्ति (गाथा ७६) तथा तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१.२६) में होता है। दूसरी परम्परा का उल्लेख विशेषावश्यक भाष्य (गाथा ८१४) में हुआ है । श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र द्वितीय परम्परा का तथा सभी दिगम्बर जैन आचार्य प्रथम परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। देखिए -प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पणानि, पृ० ३७-३८. २. याकोबी (से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १९२-१६३) ने शब्द-साम्य के भ्रम से इसका 'सत्य श्रद्धा का प्रतिबन्धक' अर्थ किया है। याकोबी का यह अर्थ वस्तुतः दर्शनमोहनीय का अर्थ है, न कि दर्शनावरणीय कर्म का। इसी प्रकार चक्षुर्दर्शन के अर्थ में भी उन्हें भ्रम हुआ है। ३. उ० ३३.५-६. For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन २. निद्रा - निद्रा १ - जिस कर्म के प्रभाव से जीव को गाढ़ निद्रा आए ( ऐसी निद्रा वाला व्यक्ति हलाने पर भी कठिनता से जागता है ), ३. प्रचला - जिस कर्म के प्रभाव से खड़े-खड़े या बैठे-बैठे भी कुछ-कुछ निद्रा आती रहे, ४. प्रचलाप्रचला - जिस कर्म के प्रभाव से चलते-फिरते भी नींद आ जाए, ५. स्त्यानगृद्धि - जिस कर्म के प्रभाव से दिन में अथवा रात्रि में सोते हुए ही स्वप्न में कार्यों को कर डाले, ६. चक्षुदर्शनावरण- चक्षु इन्द्रिय से होने वाले दर्शनगुण का प्रतिबन्धक, ७ अचक्षुर्दर्शनावरण - चक्षु से इतर इन्द्रियों के द्वारा होनेवाले दर्शनगुण में प्रतिबन्धक, ८. अवधिदर्शनावरण- इन्द्रि यादि के बिना रूपी अचेतन पदार्थों के विषय में होने वाले आत्मा के दर्शनगुण में प्रतिबन्धक और 8. केवलदर्शनावरण - इन्द्रियादि त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण पदार्थो के युगपत् दर्शन में प्रतिबन्धक । ज्ञान के पूर्व की अवस्था दर्शन कहलाती है । यद्यपि दर्शनावरणीय कर्म के चार ही प्रमुख अवान्तर भेद हैं परन्तु निद्रादि के पाँच भेदों को मिला देने से नव भेद हो जाते हैं । निद्रादि के प्रमादरूप होने से उन्हें भी दर्शन में प्रतिबन्धक माना गया है । पाँच प्रकार की निद्राओं में स्त्यानगृद्धि निद्रा सबसे खराब है । 1 ३. वेदनीय कर्म - जिस कर्म के प्रभाव से सुख या दुःख की अनुभूति होती है। सुख और दुःखरूप अनुभूति होने के कारण ९. यद्यपि उत्तराध्ययन में 'निद्रानिद्रा' का उल्लेख 'प्रचला' के बाद किया गया है परन्तु उत्तरोत्तर निद्रा की तीव्रता की दृष्टि से मैंने प्रचला के पूर्व कथन किया है । तत्त्वार्थ सूत्र आदि जैन ग्रन्थों में भी निद्राओं का यही क्रम मिलता है: चक्षुरचक्षुरधिकेवलानां निद्रा निद्रानिद्रा- प्रचलाप्रचलाप्रचला - स्त्यानगृद्धयश्च । - त० सू० ८.७. २. याकोबी (से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १९३ ) ने ' प्रचला' का व्युत्पत्तिपरक अर्थ ( क्रिया - Activity) किया है । श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परागत अर्थ के लिए देखिए - कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २३. For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १५७ वेदनीय के दो भेद किए गए हैं : १. प्राणिदया व परोपकारादि से बँधने वाले सुखरूप सातावेदनीय कर्म तथा २. हिंसादि से बँधने वाले दुःखरूप असातावेदनीय कर्म । इन दोनों के अन्य कई अवान्तर भेदों का ग्रन्थ में संकेत मात्र किया गया है। पुण्यरूप और पापरूप जितने भी कर्म संभव हैं वे सब इसके अवान्तर भेद हो सकते हैं।२ आत्मा की स्वानुभूति से उत्पन्न होने वाला सुख इस कर्म का परिणाम नहीं है क्योंकि उस प्रकार का सुख आत्मा का स्वाभाविक गुण है । अतः मुक्त जीवों में अनन्त सूख की सत्ता मानकर भी उनमें वेदनीय कर्म का अभाव माना गया है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो मुक्त जीवों को सुखानुभूति नहीं होगी। वेदनीय कर्म से जो सुखानुभूति होती है वह संसार के रूपादि विषयों से उत्पन्न होने वाली है। ४. मोहनीय कर्म-जो हेयोपादेयरूप (स्व-परविवेकात्मक) गुण को प्रकट न होने देवे । इस कर्म के प्रभाव से जीव विषयों में आसक्त (मूच्छित) रहता है और उसे अपनी मूर्खता (मूढ़ता) का पता नहीं रहता है । मोहनीय कर्म सब कर्मों में प्रधान है। इस कर्म के दूर होते ही अन्य कर्म जल्दी ही पृथक हो जाते हैं। इसी कर्म के प्रभाव से वस्तुस्थिति को जानते हुए भी जीव की सत्य मार्ग में प्रवत्ति नहीं होती है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती संसार की असारता जानकर भी इसी कर्म के प्रभाव से विषयों में आसक्त रहता है। इसीलिए दुःख के कारणों की परम्परा में रागद्वेष का भी मूल कारण मोह माना गया है। तत्त्वों में श्रद्धान और सदाचार में प्रवृत्ति न होने देने के कारण इसके प्रमुख दो भेद किए गए हैं : १. दर्शनमोहनीय और १. वेयणीयं पि य दुविहं सायमसायं च आहियं । सायस्स उ बहू भेया एमेव असायस्स वि ॥ -उ० ३३.७. २. देखिए-कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २५. ग्रन्थ में भी असातावेद नीयरूप से क्रोध, मान, माया और लोभवेदनीय का उल्लेख मिलता है। -उ० २६. ६७-७०. ३. उ० २६.५-६,२६,७१. For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . २. चारित्रमोहनीय। इसके बाद दर्शनमोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के दो भेद किए गए हैं।' दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के स्वरूपादि अधोलिखित हैं : क. दर्शनमोहनीय-यहाँ पर जो 'दर्शन' शब्द का प्रयोग है वह श्रद्धापरक है । अतः इस कर्म का उदय होने पर जीव को धर्मादि में सच्चा श्रद्धान नहीं होता है। इसके जिन तीन भेदों का उल्लेख किया गया है उनके नाम ये हैं : १. सम्यक्त्वमोहनीय-चञ्चलता आदि दोषों के संभव होने पर भी तत्त्वों में सच्चा श्रद्धान होना, २. मिथ्यात्वमोहनष-विपरीत श्रद्धान होना और ३. सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय-कुछ सम्यक व कुछ मिथ्या श्रद्धान होना। इसे मिश्र-मोहनीय भी कह सकते हैं। इस विभाजन में सम्यक्-श्रद्धान रूप सम्यक्त्वमोहनीय को भी दर्शनमोहनीय का भेद स्वीकार किया गया है जबकि दर्शनमोहनीय सच्ची श्रद्धा का प्रतिबन्धक है। इससे मालम पड़ता है कि यहां पर सच्ची श्रद्धा मोहात्मक, धुंधली तथा अस्थिर होती होगी। अतः कम-ग्रन्थों में इसका लक्षण करते हुए लिखा है : जिसके प्रभाव से 'तत्त्वश्रद्धा में चञ्चलता आदि दोषों की संभावना हो क्योंकि शुद्ध सच्ची श्रद्धा अर्थ करने पर उसमें मोहनीय-कर्मता नहीं रहेगी।२ मोह जड़ता, 'अविवेकता' का नाम है। अतः जो सच्ची श्रद्धा मोह, अविवेक आदि से युक्त हो वह सम्यक्त्व-दर्शनमोहनीय है। 3 . १. मोहणिज्ज पि दुविहं दंसणे चरणे तहा। दंसणे तिविहं दुत्तं चरणे दुविहं भवे ॥ -उ० ३३.८. तथा देखिए-उ० ३३.६-१०. २. कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २३. ३. जैसे किसी रूपलावण्यवती नायिका के रूपलावण्य का निखार उसके स्वच्छ और अति महीन वस्त्रों में से झलकता है परन्तु वह रूपलावण्य अति शुभ्र व महीन वस्त्र से आच्छादित रहने के कारण पूर्णरूप से प्रतिभासित नहीं होता है। उसी प्रकार सम्यक्त्त्वदर्शनमोहनीय में सच्ची श्रद्धा होने पर भी उसपर मोहनीय कर्म का बहुत ही सूक्ष्म पर्दा पड़ा रहता है जो सामान्यतया प्रतिभासित नहीं होता है। For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १५६ ख. चारित्रमोहनीय - इस कर्म के उदय से सदाचार में प्रवृत्ति नहीं होती है । सदाचार में मूढ़ता पैदा करने वाले चारित्रमोहनीय के जिन दो भेदों का उल्लेख किया गया है उनके नाम ये हैं: १. कषाय (क्रोधादि मनोविकार) और २. नोकषाय (ईषत् मनोविकार)। कषायमोहनीय वह है जिसके प्रभाव से आत्मा के शान्त-निर्विकार स्वरूप में मलिनता पैदा हो। कषाय के क्रोध, अभिमान, माया और लोभ ये चार प्रमुख भेद हैं। इनमें से क्रोध और अभिमान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं। क्रोधादि चार कषायों में सच्चारित्र को मलिन करने की शक्ति की तीव्रता एवं मन्दता के आधार से प्रत्येक के चार-चार भेद क्रने पर कषायमोहनीय के सोलह भेद हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त नोकषायमोहनीय भी किञ्चित् मानसिक विकाररूप होने के कारण कषायरूप ही है ।२ इनकी अपनी कुछ विशेषता होने के कारण इन्हें पृथक् गिनाया गया है। नोकषायमोहनीय के १. कषायमोहनीय के १६ भेद निम्नोक्त हैं: क. चार अनन्तानुबन्धी-क्रोध-मान-माया-लोभ ( दीर्घकाल-स्थायी तीव्र क्रोधादि करना )। ख. चार अप्रत्याख्यानावरणी-क्रोध-मान-माया लोम ( अनन्तानु बन्धी की अपेक्षा से कुछ कम काल स्थायी क्रोधादि करना)। ग.. चार प्रत्याख्यानावरणी-क्रोध-मान-माया-लोभ (अप्रत्याख्यानाव रणी की अपेक्षा कुछ कम काल स्थायी क्रोधादि करना) । घ. चार संज्वलन-क्रोध-मान-माया-लोभ (अत्यन्त स्वल्पकाल-स्यायी क्रोधादि करना) । विशेष-कषायमोहनीय' के इन १६ भेदों के चार प्रमुख विभागों में चारित्र को मलिन करने की शक्ति क्रमशः क्षीण होती गई है। -उ० ३३.११ (टीकाएँ). २. कषायसहवर्तित्वात् कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषायकषायता ।। - उद्धृत, उ० आ० टी०, पृ० १५३४. For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन सात या नव भेदों का ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है । इनके नाम ये हैं: हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ( घृणा ) और वेद ( स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिङ्ग) | स्त्रीविषयक मानसिक विकार, पुरुषविषयक मानसिक विकार तथा उभयविषयक मानसिक विकार के भेद से वेद के तीन भेद करने पर नोकषाय के ६ भेद हो जाते हैं ।' ५. आयु कर्म - जिस कर्म के प्रभाव से जीव के जीवन की (आयु की) अवधि निश्चित होती है उसे आयुकर्म कहते हैं । चार गतियों के आधार से इसके भी चार भेद किए गए हैं: २ १. नरकायु, २. तिर्यञ्चायु, ३. मनुष्यायु और ४. देवायु । ग्रन्थ में सूत्रार्थ - चिन्तन का फल बतलाते हुए लिखा है कि सूत्रार्थ - चिन्तन से जीव आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल कर देता है । इसके अतिरिक्त यदि आयुकर्म का बन्ध करता है तो विकल्प से करता है । 3 इससे स्पष्ट है कि आयुकर्म शेष सात कर्मों से कुछ भिन्नता रखता है । कर्म - सिद्धान्त प्रतिपादक ग्रन्थों तथा उत्तराध्ययन के टीका- ग्रन्थों आदि के देखने से पता चलता है कि आयुकर्म का जीवन में सिर्फ एक बार बन्ध होता है जबकि अन्य कर्मों का बन्ध हमेशा होता रहता है ।४ १. सोलसविहभेएणं कम्मं तु कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं ॥ कोहं च माणं च तव मायं लोहं दुगुछं अरई रहूं च । हासं भयं सोगपुमित्थवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। - उ० ३२. १०२. २. उ० ३३.१२. ३. अणुप्पेहाएणं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ सिढिबंधणबद्धाओ करेइ आउयं च णं कम्मं नो बंधइ । - उ० ३३.११. - उ० २६.२२. ४. आयु कर्म का बन्ध सम्पूर्ण आयु का तृतीय भाग शेष रहने पर होता है । जैसे किसी जीव की आयु ६६ वर्ष की है तो वह ३३ वर्ष की आयु के शेष रहने पर ही अगले भव के आयु-कर्म का बन्ध करेगा । यदि उस समय आयु- कर्म के बन्ध का निमित्त नहीं मिलेगा तो वह For Personal & Private Use Only घणियबंधणबद्धाओ सिया बंधइ, सिया Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १६१ ६. नाम कर्म-जो शरीर, इन्द्रिय आदि की सम्यक् या असम्यक रचना का हेतु है उसे नाम-कर्म कहते हैं। इसके शुभ और अशुभ के भेद से प्रथमतः दो भेद किए गए हैं। इसके बाद प्रत्येक के अनेक भेदों का संकेत किया गया है।' ७. गोत्र कम-जिस कर्म के प्रभाव से उच्च अथवा निम्न जाति, कुल आदि की प्राप्ति हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं। इसके उच्च और निम्न ये दो भेद किए गए हैं। इसके बाद प्रत्येक के आठ-आठ भेदों का संकेत किया गया है । २ ८. अन्तराय कर्म-जिस कर्म के प्रभाव से सभी कारणों के अनुकूल मौजूद रहने पर भी कार्य सिद्धि नहीं होती उसे अन्तरायकर्म कहते हैं । इसके ५ भेद बतलाए गए हैं3-दान, लाभ, भोग जीव अवशिष्ट आयु के विभाग में (अर्थात ११ वर्ष शेष रहने पर) आयु-कर्म का बन्ध करेगा। इस समय पुनः आयु-कर्म के बन्ध का निमित्त न मिलने पर वह जीव अवशिष्ट आयु के त्रिभाग (३३ वर्ष) शेष रहने पर आयु-कर्म का बन्ध करेगा। इस तरह आयु-कर्म के बन्ध का निमित्त न मिलने पर यह क्रम आयु के अन्तिम क्षण तक चलता रहेगा। विष भक्षण आदि से अकाल-मृत्यु होने पर जीव उपर्यक्त नियम का उल्लंघन करके तत्क्षण ही आयु कर्म का बन्ध कर लेता है । सामान्य अवस्था में उपर्युक्त क्रमानुसार ही आयुकर्म का बन्ध होता है। इतना अवश्य है कि आयु-कर्म का बन्ध जीवन में सिर्फ एक बार होता है। आयु-कर्म का बन्ध होने पर जीवन की आयु-सीमा घट-बढ़ सकती है परन्तु नरकादि चतुर्विधरूप से जो आयु-कर्म का बन्ध हो जाता है वह बहु-प्रयत्न करने पर भी नहीं टलता है। -देखिए-३० आ० टी०, पृ० १२८४.. १. उ० ३३.१३... ... ...... ... १. गोयं कम्मं दुविहं उच्चं नीयं च आहियं ।। ... ...... उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि. आहियं ।। - -उ० ३३. १४. गोत्र-कर्म के आठ भेद हैं-जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और रूप । ३. ७० ३३.१५. For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन (जो वस्तु एक बार भोगी जा सके। जैसे-फलादि), उपभोग (जो वस्तु कई बार उपयोग में लाई जा सके। जैसे-स्त्री, वस्त्र आदि) और शक्ति। अतः दानादि करने की अभिलाषा आदि के वर्तमान रहने पर भी दानादि न कर सकना अन्तराय कर्म का प्रभाव है। इस तरह आठ प्रकार के मूल कर्मों का तथा उनके अवान्तर भेदों का ग्रन्थानुसार वर्णन किया गया। दिगम्बर और श्वेताम्बर कर्म-ग्रन्थों में यद्यपि मूल-कर्म के आठ भेदों में कोई अन्तर नहीं है तथापि उनके अवान्तर भेदों के विभाजन और स्वरूप में कुछ अन्तर अवश्य है। इसके अतिरिक्त कर्म-सिद्धान्त प्रतिपादक ग्रन्थों में मूल आठ कर्मों के स्वरूप को समझाने के लिए दृष्टान्त तथा क्रमनिर्धारण के लिए तर्क दिए गए हैं। कर्मों की संख्या, क्षेत्र, स्थिति-काल आदि : इन बंधने वाले कर्मों के कर्म-परमाणुओं की संख्या संसारी और मुक्त सभी जीवों की संख्या की अपेक्षा अनन्त है । ग्रन्थ में जो कर्मों की संख्या सिद्ध जीवों की अपेक्षा हीन और कभी न मुक्त होने वाले अभव्य जीवों (ग्रन्थिकसत्त्वातीत) की अपेक्षा कई गुणी अधिक बतलाई है वह एक समय में बंधने वाले कर्मों की संख्या की अपेक्षा १. देखिए-कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० २३-२५.. २.क. इन कर्मों के स्वरूप के विषय में निम्न दृष्टान्त मिलते हैं-१. देवता के मुख पर पड़े हुए वस्त्र की तरह ज्ञान का आवरक ज्ञानावरणीय, २. राजद्वार पर स्थित प्रतिहारी की तरह दर्शन का प्रतिबन्धक दर्शनावरणीय, ३. मधुलिप्त असिधारा की तरह सुख-दुःख का वेदक वेदनीय, ४. मदिरापान की तरह हिताहित के विवेक का प्रतिबन्धक मोहनीय, ५. शृङ्खलाबन्धन की तरह जीवन का मापक आयु, ६. चित्रकार की तरह नाना प्रकार से शरीर आदि की रचना का हेतु नाम, ७. कुम्भकार के छोटे-बड़े बर्तनों की तरह उच्च-नीच कुल का प्रापक गोत्र और ८. भण्डारी या कोषाध्यक्ष की तरह दानादि का प्रतिबन्धक अन्तराय । देखिए-कर्मप्रकृति, संस्कृत -टीका (१. २१), पृ. १५. ख. आठों कर्मों के क्रम के लिए देखिए-कर्म प्रकृति १. १७-२१. For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार . [१६३ . से है ।' कर्मों की संख्या कभी भी सिद्ध जीवों की अपेक्षा कम नहीं हो सकती है क्योंकि वे कभी न कभी संसार में कर्मबद्ध अवश्य रहे । होंगे। जब संसार-स्थिति के बिना मुक्त जीवों की कल्पना नहीं की गई है तो फिर कर्मों की संख्या सिद्ध जीवों की अपेक्षा किसी भी तरह कम नहीं हो सकती है। इसके अतिरिक्त जब एक-एक जीव के साथ कई-कई कर्म-परमाणु बंधे हुए हैं तो फिर उनकी संख्या कम कैसे हो सकती है ? एक समय में बंधने वाले कर्मों की इस संख्या को ग्रन्थ में 'प्रदेशाग्र' कथन द्वारा बतलाया गया है। . ___ जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि कर्म-परमाणुओं का आत्मा. के साथ नीर-क्षीर की तरह सम्बन्ध है तथा ये कर्म-परमाण समस्त लोक में व्याप्त हैं । अतः सभी आत्माएँ सब प्रकार के कर्मपरमाणुओं का संचय छहों दिशाओं से कर सकती हैं।२ बंधने वाले कर्म आत्मा के साथ कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक रहते हैं, इस विषय में ग्रन्थ का अभिप्राय निम्न प्रकार है : कर्मों के नाम अधिक से अधिक कम से कम स्थिति-काल - स्थिति-काल ज्ञानावरणीय, दर्शना- ३० कोटाकोटिसागरोपम ) अन्तर्मुहूर्त वरणीय वेदनीय और (करोड़ x करोड़ = 7 (करीब ४८ अन्तराय ) कोटाकोटि) ...) मिनट) मोहनीय ७० कोटाकोटिसागरोपमा आयु ३३ सागरोपम . नाम और गोत्र २० कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त १. सव्वेसि चेव कम्माणं पएसग्गमणंतगं । गंठियसत्ताईयं अंतो सिद्धाण आहियं ॥ -उ० ३३. १७. तथा देखिए-पृ० १६५, पा० टि०.१. २. सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सम्वेसु वि पएसेसु सव्वं सवेण बद्धगं ।।। -उ० ३३.१८. ३. उ० ३३.१६-२३; त० सू० ८.१४-२०. ४. तत्त्वार्थ सूत्र (८.१८) में वेदनीय की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त के स्थान पर १२ मुहूर्त बतलाई है-'अपरा द्वादशमुहूती वेदनीयस्य' । यहाँ पर . ta For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन यह जो कर्मों की स्थिति बतलाई गई है वह मूल-प्रकृतियों की अपेक्षा से है। उत्तर-प्रकृतियों की अपेक्षा से इनकी आयु-स्थिति में हीनाधिकता भी हो सकती है।' यह कर्मों की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति बतलाई गई है । ये कर्म इस सीमा के अन्दर अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर राग-द्वेषरूप परिणामों के अनुसार नए-नए कर्म आते रहते हैं। यहां एक बात ध्यान रखने योग्य है कि ये कर्म अपनी आयुस्थिति में सदा एकरूप नहीं रहते हैं अपितु यथासंभव उनकी अवस्थाओं मे परिवर्तन आदि होते रहते हैं । जैनदर्शन में कर्म की ऐसी १० अवस्थाएँ बतलाई गई हैं। इस स्थिति-बन्ध के साथ ही साथ कर्मों में तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति भी उत्पन्न होती है। इस उत्पन्न होने वाली शक्ति को अनुभांग या अनुभाग-बन्ध कहते हैं। कर्मों की स्थिति और फल की तीव्रता एवं मन्दता जीव के रागादिरूप परिणामों की तीव्रता एवं मन्दता पर निर्भर है। ग्रन्थ में कर्मों के फल (अनुभाग) का आत्मारामजी अपनी उत्तराध्ययन-टीका (पृ० १५४७-१५४८) में प्रज्ञापनासूत्र के 'सातावेदणिज्जस्स" "जहन्नेणं बारसमुहुत्ता' (२३.२.२६४) पाठ को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में सातावेदनीय की अपेक्षा से जघन्य-स्थिति १२ मुहूर्त बतलाई गई है। १. विशेष के लिए देखिए-प्रज्ञापनासूत्र का प्रकृति-पद । २. कर्मों की १० अवस्थाएँ ये हैं-१. कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध (बन्ध), २. बन्ध के बाद उनकी सामान्य स्थिति (सत्ता या सत्त्व), ३. समय पर उनका फलोन्मुख होना (उदय), ४. तपस्या आदि के द्वारा उन्हें समय के पूर्व फलोन्मुख करना (उदीरणा), ५. कर्मों की स्थिति और फलदायिनी शक्ति में वृद्धि करना (उत्कर्षण), ६. ह्रास करना (अपकर्षण), ७. सजातीय कर्मों में परस्पर परिवर्तन होना (संक्रमण), ८. बद्धकर्मों को कुछ समय के लिए फलोन्मुख होने से रोक देना (उपशम), ६. बद्धकर्मों में फलोन्मुखता एवं संक्रमण न होने देना (निधत्ति) और १०. कर्म जिस रूप में बद्ध हुए हैं उनका उसी रूप में पड़े रहना (निकाचन)। -जैनदर्शन-डा० मोहनलाल मेहता, पृ० ३५५; जै० ध० के०, पृ० १४२. For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [१६५ वर्णन करते समय सिर्फ कर्म-परमाणुओं की संख्या का निर्देश किया गया है जैसाकि कर्मों के प्रदेशाग्र के वर्णन प्रसङ्ग में किया गया है।' यहां यह बात स्मरणीय है कि कर्मों को फलदायक बनाने के लिए कर्मों से पृथक् अन्य शक्ति की कल्पना नहीं की गई है। ये कर्म अचेतन होकर भी एक स्वचालित यंत्र की तरह अपना कार्य करते रहते हैं। कर्मबन्ध में सहायक लेश्याएँ : ___ कर्मों के रूपी होने पर भी उन्हें इन नग्न नेत्रों से देखना संभव नहीं है। फिर इन कर्मों के बन्ध को कैसे समझा जाय कि अमुक प्रकार के कर्म का बन्ध हआ है। इसके लिए ग्रन्थ में कर्म-लेश्याओं का वर्णन किया गया है। कर्म-लेश्या का अर्थ है आत्मा से बंधे हए कर्मों के प्रभाव से व्यक्ति में उत्पन्न होने वाला अध्यवसाय विशेष अथवा कषायादि से अनुरञ्जित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति । तारतम्यभाव की अपेक्षा से व्यक्तियों के अच्छे और बुरे आचरण को छः भागों में विभक्त करके तदनुसार ही छः लेश्याओं के स्वरूप का वर्णन किया गया है। किस प्रकार के आचरण का फल कितना मधुर. या कट होता है, स्पर्श कितना कर्कश यो कोमल होता है, गन्ध कितनी तीव्र या मन्द होती है, रंग किस प्रकार का होता है इत्यादि बातों को इन लेश्याओं के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है । इसके अतिरिक्त इन लेश्याओं का नामकरण रंगों के आधार पर किया गया है। उनके क्रमशः नाम ये हैं२ : कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शक्ल । अब क्रमशः इनके स्वरूपादि का वर्णन ग्रन्थानुसार किया जाएगा। १. सिद्धाणणंतभागो य अणभागा हवंति उ। सव्वेसु वि पए सग्गं सव्वजीवेसु इच्छियं ॥ -उ०३३.२४. तथा देखिए-पृ० १६३ पा० टि० १. २. किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा य नामाइं तु जहक्कम । उ० ३४. ३. For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. कृष्णलेश्या'-हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, धन-संग्रह आदि में प्रवृत्त क्षुद्रबुद्धि, निर्दयी, नशंस, अजितेन्द्रिय तथा बिना विचारे कार्य करने वाला पुरुष कृष्णलेश्यावाला कहलाता है । अथवा इस प्रकार के आचरण में प्रवृत्ति कराना कृष्णलेश्या का स्वरूप है। इस लेश्या का 'रंग' सजल मेघ, महिषशृंग, काजल और नेत्र-कनीनिका की तरह काला होता है। इसका 'रस' कड़वी तबी, नीम और कटु रोहिणी (औषधिविशेष) के कड़वे रस से भी कई गुणा अधिक कडुआ होता है। इसकी 'गन्ध' मृत गौ, कुत्ता और सर्प से भी कई गुनी अधिक दुर्गन्धित होती है। इसका स्पर्श करपत्र (आरा), गौजिह्वा और शाकपत्र की अपेक्षा कई गुणा अधिक कर्कश होता है। इसकी सामान्य-स्थिति समय) कम से कम अर्धमुहूर्त और अधिक से अधिक अन्तमुहर्त अधिक ३३ सागरोपम है। इस लेश्यावाला जीव मरकर नरक या तिर्यञ्चगति में जन्म लेता है। यह सबसे खराब लेश्या है। २. नीललेश्या२-इस लेश्यावाला जीव. ईर्ष्यालु, कदाग्रही, असहिष्णु, अतपस्वी, अविद्वान्, मायावी, निर्लज्ज, द्वेषी, रसलोलुपी, शठ, प्रमादी, स्वार्थी, आरम्भी, क्षुद्र और साहसी होता है। अर्थात १. पंचासवप्पवत्तो तीहिं अंगुत्तो छसु अविरओ य । तिव्वारंभपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो॥ . निद्धसपरिणामो निस्संसो अजिइंदिओ। एयजोगसमा उत्तो किण्हलेसं तु परिणमे ॥ -उ० ३४. २१-२२. तथा देखिए-उ० ३४.४,१०,१६,१८,२०,३३-३४,४३,४५,४८,५६, ५८-६०. २. इस्सा अमरिस अतवो अविज्जमाया अहीरिया । गेही पओसे य सढे पमत्ते रसलोलुए सायगवेसए य ॥ आरंभाओ अविरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणमे ।। -उ० ३४.२३-२४. तथा देखिए-उ० ३४. ५, ११, १६, १८, २०, ३३,३५,४२,४६,५६, ५८.६०. For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १६७ इन गुणों से नीललेश्यावाले की पहचान होती है । इस लेश्या का 'रंग' नीले अशोकवृक्ष, चाषपक्षी के पंख और स्निग्ध वैदूर्यमणि (नीलम) की तरह नीला होता है । इसका 'रस' मिर्च, सोंठ, और गजपीपल के रस से भी अनन्तगुणा तीक्ष्ण होता है। इसकी 'गंध' और 'स्पर्श' कृष्णलेश्या की ही तरह हैं परन्तु तीव्रता की मात्रा कुछ कम है। इसकी कम से कम सामान्य-स्थिति अर्धमुहूर्त और अधिक से अधिक पल्लोपम के असंख्यातवें भागसहित १० सागरोपम है। इस लेश्यावाला जीव नरक या तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होता है। ...३. कापोतलेश्या-इस लेश्यावाला जीव वक्र-वक्ता, वक्राचारी, छली. निज दोषों को छुपाने वाला, निःसरल, मिथ्यादृष्टि, अनार्य, पर-मर्मभेदक, चोर और असूया करने वाला होता है। इस लेश्या का 'रंग'-अलसी के पुष्प, कोयल के पैर और कबूतर की ग्रीवा की तरह कापोतवर्ण होता है। इसका 'रस' कच्चे आम, तुवर और कपित्थफल के रस से भी कई गुणा अधिक खट्टा होता हैं। इसकी 'गन्ध' नीललेश्या की अपेक्षा तीव्रता में कुछ कम होती है और इसका 'स्पर्श' भी नीललेश्या की अपेक्षा तीव्रता में कुछ कम होता है। सामान्य-स्थिति कम से कम अर्धमूहर्त और अधिक से अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित तीन सागरोपम है । इस लेश्यावाला जीव मरकर आचरण की तरतमता के अनुसार नरक' या तिर्यञ्च गति (दुर्गति) में जन्म लेता है। . ४. तेजोलेश्या२-- इस लेश्यावाला जीव नम्र, अचपल, अमायी, अकुतूहली, विनीत, जितेन्द्रिय, स्वाध्यायप्रेमी, तपस्वी, १. वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जए । पलिउंचगओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए । उप्फालगदुद्रुवाई य तेणे यावि या मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो काऊलेसं तु परिणमे ।। -उ० ३४. २५-२६. तथा देखिए-उ० ३४.६,१२,१६,१८,२०,३३,३६,४०-४१, ५०, ५६,५८-६०. २. नीयावित्ती अचवले अमाई अकुऊहले । विणीयविणए वंते जोगवं उवहाणवं । For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन धर्मप्रेमी, पापभीरु, सर्वहितैषी आदि गुणों से युक्त होता है। इसका 'रंग' हिंगलधातु (शिंगरफ), तरुण सूर्य (मध्याह्न का सूर्य), शुकनासिका और दीपक की शिखा की तरह दीप्तिमान होता है। इसका 'रस' पक्व आम्रफल और पक्व कपित्थफल के खटमीठे रस से भी कई गुना अधिक खट-मीठा होता है। इसकी 'गन्ध' केवड़ा आदि सुगन्धित पुष्पों और चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों से भी कई गुनी अधिक सुगन्धित होती है। इसका 'स्पर्श' वर (वनस्पति विशेष), नवनीत और सिरस के फूल से भी कई गुना अधिक कोमल होता है । इस लेश्या की सामान्य स्थिति कम से कर्म अर्ध मुहूर्त और अधिक से अधिक पल्योपम के असंख्येयभाग सहित दो सागरोपम है। इस लेश्यावाला जीव मरकर मनुष्य या देवगति (सुगति) को प्राप्त करता है। ५. पद्मलेश्या'- इस लेश्यावाला जीव अल्प कषायों वाला, प्रशान्तचित्त, तपस्वी, अत्यल्प-भाषी और जितेन्द्रिय होता है। इसका रंग हरताल, हरिद्रा के टुकड़े, सन और असन के पुष्पों की तरह पीला होता है। इसका रस श्रेष्ठ मदिरा, नाना प्रकार के आसव आदि से भी अनन्त गुना अधिक मधुर होता है। इसकी गंध तेजोलेश्या से भी अधिक सुगन्धित होती है और इसका 'स्पर्श' तेजोलेश्या से भी अधिक कोमल होता है। इस लेश्या की कम-से-कम स्थिति अन्त पियधम्मे दढधम्मेऽवज्जभीरू हिएसए। . एयजोगसमाउत्तो तेओलेसं तु परिणमे ।। - उ.० ३४.२७-२८. तथा देखिए-उ० ३४. ७, १३, १७, १६-२०, ३३, ३७, ४०, ५१-५३, ५७-६०. १. पयणुकोहमाणे य मायालोभे य पयणुए। पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ।। तहा पयणुवाई य उवसते जिइदिए। एयजोगसमाउत्तो पम्हलेसं तु परिणमे । -उ० ३४. २६-३०. तथा देखिए-उ० ३४. ८, १४, १७, १६-२०, ३३,३८,४०,४५,५४, ५७-६०. For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १६६ और अधिक से अधिक अर्धमुहूर्त अधिक १० सागरोपम है । इस लेश्यावाला जीव मरकर मनुष्य या देवगति ( सुगति ) में जन्मला है । ६. शुक्ललेश्या ' - इस लेश्यावाला जीव शुभ ध्यान करने वाला, प्रशान्तचित्त, जितेन्द्रिय, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति में चञ्चलता से रहित, अल्परागी और अहिंसाप्रेमी होता है । इसका 'रंग' शंख, अंक (मणि विशेष ), मुचकुन्द पुष्प, दुग्धधारा एवं रजतहार की तरह श्वेत ( उज्ज्वल ) वर्ण का होता है। इसका 'रस' खजूर, दाख, दूध, चीनी आदि के मधुर रस से भी कई गुना अधिक मधुर होता है । इसकी 'गन्ध' पद्मलेश्या से भी कई गुनी अधिक सुगन्धित होती है और 'स्पर्श' भी पद्मलेश्या से कई गुना अधिक कोमल होता है । इस लेश्या की कम से कम स्थिति अर्धमुहूर्त और अधिक से अधिक एक मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम होती । इस लेश्यावाला जीव मरकर मनुष्य या देवगति को प्राप्त करता है । यह सर्वश्रेष्ठ लेश्या है । इस तरह इन छहों लेश्याओं में उत्तरोत्तर चारित्र का विकास दिखलाया गया है । प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ, अधर्मरूप एवं अप्रशस्त हैं । अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ, धर्मरूप एवं प्रशस्त हैं । इन लेश्याओं के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट गुणरूप परि १. अट्टहाणि वज्जित्ता धम्मसुक्काणि साहए । पसंतचित्ते दंतप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ सरागे बीयरागे वा उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमा उत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे || - उ० ३४.३१-३२. तथा देखिए - उ०३४.६, १५, १७, १६ - २०, ३३, ३६-४०,४६, ५५, ५७-६०. २. किण्हा नीला काऊ तिम्नि वि एयाओ अहम्मले साओ । यहि तिहि वि जीवो दुग्गइं उववज्जई || तेऊ पहा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गई उववज्जई ॥ —उ० ३४.५६-५७. तथा देखिए - उ० ३४.६१. For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १७० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन णामों के तारतम्यभाव के आधार से ग्रन्थ में तीन, नव, सत्ताईस, इक्यासी और दो सौ तैतालीस अंशों की कल्पना की गई है। ग्रन्थ में इस अंश-कल्पना का कथन परिणामद्वार द्वारा किया गया है तथा इनके भेदों के प्रकार को 'स्थान' कहा गया है। इनके स्थान कितने हैं ? इस विषय में कहा है--असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय (क्षण) होते हैं तथा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश होते हैं उतने ही स्थान लेश्याओं के होते हैं। ____ मृत्यु के उपरान्त जब जीव परलोक में गमन करता है तो किसी न किसी लेश्या से युक्त होकर ही गमन करता है। यहाँ इतना विशेष है कि जब कोई नवीन लेश्या जीव से सम्बद्ध होती है तो उसके प्रथम समय में और यदि कोई लेश्या किसी जीव से पृथक् होती है तो उसके अन्तिम समय में जीव का परलोकगमन नहीं होता है अपितु आने वाली लेश्या के अन्तर्महतं बीत जाने पर और जाने वाली लेश्या के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर ही १. उ० ३४.२०. प्रज्ञापनासूत्र १७.४.२२६ में भी इसी प्रकार परिणामद्वार का वर्णन है। २. संसार में अनुक्रम से समय-सम्बन्धी दो प्रकार के चक्र चल रहे हैं अवसर्पिणी-काल और उत्सर्पिणी-काल । जिस काल में जीवों की आयु, स्थिति, आकार, सुख-समृद्धि आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता जाए उसे अवसर्पिणी-काल कहते हैं तथा जिस काल में जीवो की आयु आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाए उसे उत्सर्पिणी-काल कहते हैं। आयु आदि के ह्रास और विकास के आधार से प्रत्येक को ६.६ भागों (आरों) में विभक्त किया गया है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों काल-चकों का समय बराबर-बराबर (१०-१० कोटाकोटि सागरोपम) माना गया है। यह अवसर्पिणी और उत्सपिणी काल-सम्बन्धी क्रम निरन्तर चलता रहता है। -उ० आ० टी०, पृ० १५७७-१५७८. ३. उ० ३४.३३. For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १७१ जीव का परलोक-गमन होता है।' जीव के परलोक-गमन के एक अन्तर्मुहर्त पहले लेश्या की उपस्थिति होने के कारण ही कृष्ण और शुक्ल लेश्या की उत्कृष्ट-स्थिति जीव की सामान्य उत्कृष्ट आयु से एक मुहर्त अधिक (एक मुहर्त अधिक ३३ सागर) बतलाई गई है ।२ कौन लेश्या किस जीव में कितने समय तक रहती है यह जीव की आयू पर निर्भर करता है । अतः ग्रन्थ में चारों गतियों के जीवों की लेश्याओं की जो आयु बतलाई है वह जीवों की आयु के आधार से बतलाई गई है। मनुष्य और तिर्यञ्च गति के जीवों में छहों लेश्याएँ संभव हैं। उनमें प्रथम पाँच की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त का अर्ध-भाग है। इसके अतिरिक्त शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति अर्धमूहर्त है और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व है। नारकी जीवों में प्रथम तीन लेश्याएँ ही होती हैं। प्रथम तीन नरकों में कापोतलेश्या, तीसरे से पाँचवें में नीललेश्या और पांचवें से सातवें तक कृष्णलेश्या पाई जाती है। सामान्यतया देवों में १. लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववत्ति परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ लेसाहिं सव्वाहिं चरिमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न हु कस्सइ उववत्ति परे भवे अत्यि जीवस्स ।। अंतमुहुत्तम्मि गए अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव। ले साहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ।। -उ० ३४.५८-६०. २. उ० ३४.३४, ३९. ३. उ० ३४.४५, ४६. शुक्ल-लेश्या की उत्कृष्ट-स्थिति में जो ६ वर्ष कम कर दिया गया है उसका कारण है कि साधु दीक्षा अङ्गीकार करके जब कम से कम एक साल पूर्ण कर लेता है तब इस लेश्या की प्राप्ति संभव है। इसके अतिरिक्त साधु बनने के लिए कम से कम आठ वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। -उ० आ० टी०, पृ० १५६०. ४. उ० ३४.४०-४४. For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . शुभ-लेश्याएँ ही पाई जाती हैं परन्तु भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्णादि तीन अशुभ-लेश्याएँ भी पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवों में तेजो लेश्या पाई जाती है। सनत्कुमार से लेकर ब्रह्म देव पर्यन्त पदमलेश्या होती है । लान्तक देवों से लेकर सर्वार्थ सिद्धि के देवों पर्यन्त शुक्ल-लेश्या होती है।' ___ इस तरह इस लेश्या-विषयक वर्णन से ज्ञात होता है कि किस लेश्यावाले जीव कहाँ रहते हैं और कौन जीव किस प्रकार के कर्मों से बद्ध हैं ? इसके अतिरिक्त कर्म और लेश्याओं का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध भी है। पुण्यरूप कर्मों से शुभ लेश्याओं की प्राप्ति होती है और पापरूप कर्मों से अशुभ लेश्याओं की प्राप्ति होती है। पुण्य और पापरूप कर्मों से जिस प्रकार की शुभ या अशुभ लेश्या की प्राप्ति होती है जीव तदनुसार ही आचार में प्रवृत्त होता है। प्रवत्ति करने से कर्म-बन्ध होता है और कर्म-बन्ध से पुनः लेश्या की प्राप्ति होती है। इस तरह संसार का चक्र चलता रहता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जीव इस चक्र से कभी भी छटकारा नहीं पा सकता है अपितु प्रयत्न करने पर इस चक्र से मुक्त भी हो सकता है। वस्तुतः ये लेश्याएँ कर्म-सिद्धान्त की पूरक हैं। कर्मों के विनष्ट होने पर लेश्याओं का भी अभाव हो जाता है। आत्मा के साथ कर्म-बन्ध की प्रक्रिया को समझाने के लिए इन लेश्याओं का वर्णन किया गया है। अतः गोम्मटसार में लेश्या का स्वरूप बतलाते हुए कहा है-'जिसके द्वारा जीव पुण्य और पापरूप कर्मों से लिप्त होवे या कषायोदय से अनुरक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति लेश्या है ।'२ इस तरह लेश्याएं मनुष्यों के उस आचरण को समझाती हैं जिससे रंजित होने पर शुभाशुभ कर्म आत्मा से बन्ध को प्राप्त होते हैं। इस लेश्या-विषयक निरूपण से भारतीय रंग-विषयक दृष्टिकोण का भी पता चलता है। १. उ० ३४. ४७-५५. २. लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए णिय अपुण्णपुणं च । '-गो० जी० ४८८. तथा देखिए-गो० जी० ५३२. For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १७३ ৪ানুহীন इस प्रकरण में संसार से सम्बन्धित तीन प्रमुख सिद्धान्तों की चर्चा की गई है : १. संसार की दुःखरूपता, २. संसार या दु:ख के कारण और ३. कर्म-बन्धन । इन तीनों सिद्धान्तों का विश्लेषण आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है जो क्रमशः इस प्रकार है : १. भारतीय धार्मिक ग्रन्थों की तरह उत्तराध्ययन में भी इस संसार को जिसमें जीव जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं, दुःखों से पूर्ण बतलाया है। शरीर के नश्वर होने तथा इच्छाओं के अनन्त होने के कारण हमें जो सुख प्रतीति में आते हैं वे भी दु.खरूप ही हैं। देव और मनुष्य पर्याय जो सुगतिरूप एवं श्रेष्ठ मानी जाती हैं उन्हें भी दुर्गतिरूप बतलाने का उद्देश्य है जीवों को विषय-भोगों की तरफ से निरासक्त करके असीम व अनन्त सुख की ओर प्रेरित करना। क्योंकि जब तक सांसारिक विषय भोगों को दुख.रूप एवं नश्वर नहीं चित्रित किया जाएगा तब तक उनसे विरक्ति नहीं हो सकती है। देवपर्याय में जो दुःखों का वर्णन किया गया है उसका कारण है देवपर्याय और उन दैविक भोग्य-विषयों का चिरस्थायी न होना। कई स्थानों पर देवों के ऐश्वर्य को श्रेष्ठ बतलाया गया है तथा उसे श्रेष्ठ गति (सुगति) भी कहा गया है। यही स्थिति मनुष्य गति के जीवों की भी है। इस विवेचन का यह तात्पर्य नहीं है कि प्रकृत-ग्रन्थ अवास्तविकता का प्रतिपादन करता है। हम स्वयं अनुभव करते हैं कि विषयभोगों की सीमा अनन्त है और कितने ही सुख-साधन हमें क्यों न उपलब्ध हो जाएँ शान्ति नहीं मिलती है। शान्ति एव सुख अपने अन्दर है। यदि हमारी इच्छाएँ सीमित हैं तो हमें सुख मिलता है अन्यथा हम और अधिक प्राप्त करने के लिए व्यग्र रहते हैं। ये विषय-भोग न तो सुख के और न दुःख के ही कारण हैं परन्तु विषय-भोगों की आसक्ति और घणा दुःख के कारण बन जाते हैं। अतः ग्रन्थ में निरासक्त होकर विषयभोगों के उपभोग का उपदेश दिया गया है। For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन आज के विज्ञान ने जो इतनी उन्नति की है उसका कारण है। विषय-भोगों में आसक्ति । फिर कैसे कहा जा सकता है कि विषयभोगों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए ? इसके विषय में मेरा कहना है कि प्रकृत-ग्रन्थ असीम एवं अनन्त सुख की ओर ले जाना चाहता है । अतः इसमें जो आध्यात्मिक पथ का अनुसरण किया गया है, वह ठीक है । शरीर की नश्वरता को देखकर तथा संसार में फैले हुए भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ऐसा कथन सत्य है । आज के इस वैज्ञानिक युग में भी प्रकृत ग्रन्थ के इस उपदेश को ही नये वैज्ञानिक साँचे में ढालकर समाजशास्त्र व धर्मशास्त्र के रूप में दिया जाता है । यदि हम निष्पक्षदृष्टि से विचार करेंगे तो देखेंगे कि विज्ञान की इतनी उन्नति होने पर भी मानव सुखी, नहीं है अपितु पहले से भी अधिक परेशान और दुःखी नजर आ रहा हैं । फिर ग्रन्थ में कहे गये इस कटु सत्य का कि संसार के विषयभोगों में सुख नही मिलता है, कैसे अपलाप किया जा सकता है ? आज जो भी तर्क हम इसके विरोध में दे सकते हैं वे पहले भी दिए जाते थे । परन्तु जो सत्य है वह हमेशा सत्य ही रहेगा । इस कथन की वास्तविकता और अवास्तविकता पर विचार करते: समय हमें उस दृष्टि को सामने अवश्य रखना होगा जिसे माध्यम बनाकर इस ग्रन्थ को लिखा गया है । वौद्धदर्शन के प्रवर्तकः भगवान् गौतम बुद्ध ने भी जिन चार आर्यसत्यों को खोजा था उनमें प्रथम आर्यसत्य दुःख है । इसके अतिरिक्त दुःख के कारण मौजूद हैं (दुःख समुदय), दुःख से निवृति संभव है ( निरोध- सत्य ) और दुःखों से निवृत्ति का उपाय भी है ( निरोधगामिनी प्रतिपदा) - ये अन्य तीन आर्यसत्य ।' प्रकृत ग्रन्थ में जिस प्रकार प्रथम दुःखसत्य को स्वीकार किया गया है उसी प्रकार अन्य तीन सत्यों को भी स्वीकार किया गया है जिसका हम आगे के प्रकरणों में यथावसर विचार करेंगे । २. सांसारिक दुःखों के कारणों का विचार करते हुए ग्रन्थ में जन्म-मरणरूप संसार का साक्षात् कारण कर्मबन्ध स्वीकार १. देखिए - प्रकरण ३. For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १७५ किया गया है। इसके बाद कर्मबन्ध का भी कारण राग-द्वेष और रागद्वेष का भी मूल कारण अज्ञान माना गया है। यद्यपि राग-द्वेष और अज्ञान के बीच में क्रमश: मोह, तृष्णा और लोभ को भी कारणरूप से बतलाया गया है परन्तु मोह, तृष्णा और लोभ ये राग की ही उत्कट अवस्थारूप हैं। यदि इन्हें भी पृथक कारणरूप से गिनाया जाय तो संसार की कार्य-कारणपरम्परा इस प्रकार होती है : जन्ममरणरूप संसार → कर्मबन्ध→रागद्वेष→मोह →तृष्णा→लोभ → अज्ञान । . ग्रन्थ में यद्यपि इस कार्य-कारणशृङ्खला का सुव्यवस्थित रूप नहीं मिलता है क्योंकि कहीं पर अज्ञान को, कहीं राग को, कहीं द्वेष को, कहीं रागद्वेष को, कहीं पापकर्म को, कहीं कर्ममात्र को, कहीं मोह को, कहीं संसार को, कही मनोज्ञामनोज्ञ वस्तुओं को, कहीं इन सब को एक दूसरे के साथ जोड़कर कार्यकारण का विचार किया गया है। इससे कौन किसका साक्षात कारण है। और कौन परम्परया कारण है इसकी सामान्यतया स्पष्ट प्रतीति नहीं होती है। परन्तु ध्यानपूर्वक विचार करने पर इन सबके मूल में उपर्युक्त कार्यकारणशृङ्खला ही कार्य करती है। अतः ग्रन्थ में कहीं-कहीं जो इनका आगे-पीछे या एक-दूसरे के साथ सम्मिलितरूप से उल्लेख किया गया है उसका कारण है--अवसर-. विशेष पर-कारण-विशेष को महत्त्व देना। तत्त्वार्थसत्र में कर्मबन्ध. के कारणों का विचार करते समय जिन पाँच कारणों को गिनाया गया है उनको देखने से भी इसी कार्य कारणशृङ्खला का समर्थन होता है। तत्त्वार्थसूत्र में बतलाए गए उन पांच कारणों के क्रमशः नाम ये हैं: १. मिथ्यात्व ( अपने आत्मस्वरूप को भूलकर शरीरादि पर-द्रव्य में आत्मबुद्धि करना-स्वपरविवेकाभावरूप अज्ञान ), २. अविरति ( विषयों में राग-द्वेष करना), ३. प्रमाद (असावधानी), ४ कषाय (कलुषित भाव) और ५. योग (मनवचन-काय की प्रवृत्ति)। यहां मिथ्यात्व अज्ञानरूप ही है। १. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद कषाययोगा बन्ध हेतवः । -त० सू० ८.१. For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अविरति और प्रमाद राग व मोह स्थानापन्न हैं। कषाय रागद्वेषरूप हैं और योग प्रवृत्तिमात्र में कारण है। इसीलिए उत्तराध्ययन में भी कहीं-कहीं मिथ्यात्व और प्रमाद को संसार एवं कर्मबन्ध का हेतु बतलाया गया है।' बौद्धदर्शन में इस विषय की जो कारण-कार्यशृङ्खला बतलाई गई है उसके भी मूल में अविद्या ( अज्ञान ) है। अविद्या और दुःख के बीच जो अन्य कारण गिनाए गए हैं. उनमें तृष्णा, भव (अच्छे-बुरे कार्य), जाति और जरा-मरण भी हैं। इस तरह दुःखों के मूल कारण को खोजते-खोजते दोनों दर्शन एक ही स्थान पर पहुँचकर रुक जाते हैं । परन्तु अज्ञान क्या है ? इस विषय में दोनों दर्शनों के सिद्धान्त भिन्न-भिन्न हैं। ग्रन्थ में जहां अचेतन से चेतन के पार्थक्य-बोध को ज्ञान कहा गया है वहां बौद्ध दर्शन में उस पार्थक्य-बोध को अज्ञान माना गया है क्योंकि बौद्धदर्शन में आत्मा नामक कोई स्थायी चेतन-द्रव्य स्वीकृत नहीं है। दुःख का मूल कारण अज्ञान है इसमें शायद किसी को भी विवाद नहीं होगा। गीता में भी मोह का कारण अज्ञान ही स्वीकार किया गया है। ३. जिस कर्मबन्ध को संसार या दुःख के कारणों में साक्षात् कारण स्वीकार किया गया है वह एक शरीर-विशेष की रचना करता है जो वेदान्तदर्शन में स्वीकृत (स्थूल शरीर के भीतर वर्तमान) सूक्ष्मशरीर स्थानापन्न है क्योंकि ये कर्म आत्मा के साथ बद्ध १. उ० २६.५, ६०, ७१ १०.१५. २. बौद्धदर्शन में दु:ख के जो बारह कारण गिनाए गए हैं उन्हें भवचक्र, द्वादश-आयतन और प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है। उनके क्रमशः नाम ये हैं- अविद्या→ संस्कार →विज्ञान →नामरूप→ षडायतन (छः इन्द्रियाँ मनसहित)→स्पर्श → वेदना→तृष्णा→उपादान →भव (भलेबुरे कर्म) → जाति-जरा-मरण →दुःख । - भा० द० ब०, पृ० १५४. ३. अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः । -गीता ५.१५. ४. वेदान्तसार, पृ० ३४. For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण २ : संसार [ १७७ होकर स्थूलशरीर से पृथक् एक शरीर की रचना करते हैं जिसे जैनदर्शन में कार्मणशरीर कहा गया है । यह कार्मणशरीर स्थल शरीर के नष्ट हो जाने पर भी नष्ट नहीं होता है । इसके अतिरिक्त वह अग्रिम जन्म में स्थूल शरीर की प्राप्ति में कारण भी होता है । इस प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए कर्मबन्ध में सहायक छः श्याओं को स्वीकार किया गया है। इन कर्म और लेश्याओं में घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण ही ग्रन्थ में लेश्याओं को कर्मलेश्या कहा गया है । ये लेश्याएँ एक प्रकार के लेप्यद्रव्य का कार्य करती हैं जिससे कर्म-परमाणु आत्मा के साथ चिपक जाते हैं । शुभाशुभ कर्मों से जिस प्रकार की लेश्या प्राप्त होती है तदनुसार ही जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है । इसके बाद पुनः शुभाशुभरूप से प्रवृत्ति करने पर पुन: - कर्मबन्ध होता है । इस तरह अबाध - संसार का चक्र चलता रहता है । कर्मों का अभाव होने पर इसका भी अभाव हो जाता है । ग्रन्थ में इस कर्म और लेश्या-विषयक वर्णन के द्वारा सांसारिक सुख और दुःख के कारणों का स्पष्टीकरण किया गया है। इस सिद्धान्त के स्वीकार कर लेने से संसार के वैचित्रय की गुत्थी को सुलझाने के लिए ईश्वर - कल्पना की आवश्यकता नहीं पड़ती है और एक स्वचालित मशीन की तरह संसार की प्रक्रिया चलती रहती है । कर्मकाण्डी मीमांसादर्शन की तरह वैदिक यागादि क्रियाएँ यहाँ कर्म नहीं हैं क्योंकि मीमांसादर्शन में यागादि क्रियाओं से अदृष्टविशेष की उत्पत्ति होती है और तब उसके प्रभाव से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है । प्रकृतग्रन्थ में जीव में हर क्षण · होने वाली श्वासादि सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया, मन के विचार आदि सभी कर्म के कारण हैं । यह दूसरी बात है कि सभी क्रियाएँ बन्ध में कारण न हो परन्तु क्रियामात्र कर्म अवश्य है । उनमें से केवल सराग क्रियाएँ ( सकाम कर्म) ही कर्मबन्ध में कारण हैं । अतः संसार के आवागमन में कारण होने से वे ही यहाँ पर कर्म शब्द से कही गई हैं। इसके अतिरिक्त शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्ध में कारण होने से हेय बतलाए गए हैं । संसारी जीव में पाई जानेवाली प्रत्येक क्रिया, सुख-दुःखानुभूति, ज्ञानादि की प्राप्ति, जीवन की स्थिति, शुभाशुभ For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन शरीरादि की प्राप्ति, लाभालाभ की प्राप्ति आदि सभी पहलुओं की व्याख्या इस कर्म-सिद्धान्त द्वारा की गई है और आवश्यकतानुसार कर्मों के अवान्तर भेदों की कल्पना की गई है। कर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होने से इस कर्म-सिद्धान्त को जैन मनोविज्ञान कहा जा सकता है। इस तरह इस प्रकरण में ग्रन्थानुसार संसार को दुःखों से पूर्ण बतलाकर उसके कारणों पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार. प्रस्तुत किया गया है। पुनर्जन्म, परलोक आदि स्वीकार किए बिना यह वर्णन संगत नहीं हो सकता है। शरीरादि को नश्वरता और जन्म-मरण की प्राप्ति ही दुःख है। इसीलिए संसार के विषयभोग-जन्य सुखों को भी दुःखरूप माना गया है। संसार के कारणों में कर्मबन्ध को स्वीकार करके यह दिखलाया गया है कि जीव के द्वारा किया गया कोई भी अच्छा या बुरा कम किसी भी तरह छिप नहीं सकता है, उसका फल अवश्य भोगना पड़ेगा। संसार में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने तथा अत्याचार-अनाचार आदि को रोकने के लिए भी ऐसा वर्णन आवश्यक था और है। For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ रत्नत्रय दुःखों की अनुभूति प्रत्येक प्राणी को कटु मालूम होती है । अतः वे दुःखों से छुटकारा पाने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न करते देखे जाते हैं। सांसारिक जितने भी प्रयत्न हैं वे सब क्षणिक सुख को देने के कारण वास्तव में दुःखरूप ही हैं। अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिए चेतन और अचेतन के संयोग और वियोग की आध्यात्मिक प्रक्रिया को जिन नव तथ्यों ( तत्त्वों-सत्यों ) में विभाजित किया गया है उनमें पूर्ण विश्वास ( सम्यग्दर्शन ), उनका पूर्णज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) और तदनुसार आचरण ( सम्यक्चारित्र ) आवश्यक है। इस तरह अविनश्वर सुख की प्राप्ति में सहायक सम्यग्दर्शन ( सत्य-श्रद्धा ), सम्यग्ज्ञान (सत्यज्ञान ) और सम्यक्चारित्र ( सत-आचरण ) इन तीन साधनों को ही यहां पर 'रत्नत्रय' शब्द से कहा गया है। इन तीनों साधनों पर विचार करने के पूर्व चेतन और अचेतन के संयोग और वियोग की आध्यात्मिक-प्रक्रिया को जिन नौ तथ्यों में विभाजित किया गया है उनका विचार आवश्यक है। नव तथ्य (तत्त्व) : चेतन-अचेतन और इनके संयोग-वियोग की कारणकार्यशृङ्खला के त्रिकालवर्ती सत्य होने के कारण इन्हें तथ्य ( सत्य या तत्त्व ) शब्द से कहा गया है। इन नव तथ्यों के नाम क्रमशः ये हैं :१ १. जीव ( चेतन ), २. अजीव ( अचेतन ), ३. बन्ध ( चेतन और अचेतन की सम्बन्धावस्था ), ४. पुण्य ( अहिंसादि शुभ-कार्य ), १. जीवाजीवा य बन्धो य पुग्णं पावाऽऽसवो तहा। संवगे निज्जरा मोक्खो संति एए तहिया नव ।। -उ० २८.१४. For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ५. पाप ( हिंसादि अशुभ-कार्य ), ६. आस्रव ( चेतन के पास अचेतन कर्मों के आने का द्वार ), ७. संवर (चेतन के साथ अचेतन का सम्बन्ध कराने वाले कारण का निरोध ), ८. निर्जरा (चेतन से अचेतन का अंशतः पृथक्करण ) और ६. मोक्ष ( चेतन का अचेतन से पूर्ण स्वातन्त्र्य ) । इन्हें मुख्यतः पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है : । १. चेतन व अचेतन तत्त्व-जीव और अजीव । २. संसार या दुःख की अवस्था-बन्ध । ३. संसार या दु:ख के कारण-पुण्य, पाप और आस्रव । ४. संसार या दुःख से पूर्ण निवृत्ति-मोक्ष। ५. संसार या दुःख से निवृत्ति का उपाय - संवर और निर्जरा। . संसार या दुःख का कारण कम-बन्धन है और उससे छुटकारा पाना मोक्ष है। चेतन ही बन्धन और मोक्ष को प्राप्त करता है तथा अचेतन ( कर्म ) से बन्धन और मोक्ष होता है। पुण्य और पापरूप प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अचेतन कर्म चेतन के पास आकर ( आस्रवित होकर ) बन्ध को प्राप्त होते हैं। इन अचेतन कर्मों के आने को रोकना ( संवर ) तथा पहले से आए हए कर्मों को पृथक् करना (निर्जरा ) मोक्ष के लिए आवश्यक है। इस तरह बन्ध, मोक्ष, चेतन, अचेतन, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर और निर्जरा ये नौ सार्वभौम सत्य होने से तथ्य ( तत्त्व ) कहे गए हैं। इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं : १. जीव-चेतन द्रव्य । इसे ही बन्धन और मोक्ष होता है। २. अजीव-अचेतन द्रव्य । विशेषकर वह अचेतन द्रव्य (कर्मपुद्गल) जिसके सम्बन्ध से चेतन बन्धन को और वियोग से मुक्ति को प्राप्त होता है। ३. पुण्य-चेतन के द्वारा किए गए अहिंसा आदि शुभ-कार्य । ४. पाप-चेतन के द्वारा किए गए हिंसा आदि अशुभ-कार्य । ५. आस्रव-मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से पुण्य और पापरूप कर्मों का चेतन के पास आना ।' आस्रव से सामान्यतया १. कायवाङ मनःकर्म योगः । स आस्रवः । शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य । त० सू० ६.१-३. For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १८१ पापास्रव को समझा जाता है। ग्रन्थ में भी पापास्रव के पाँच भेदों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और धन-सञ्चय ) का संकेत किया गया है। परन्तु पापास्रव की तरह पुण्यास्रव भी मुक्ति के लिए त्याज्य है। ६. बन्ध-चेतन के साथ अचेतन कर्म-परमाणओं का सम्बन्ध होना। ७. संवर-पुण्य और पापरूप कर्मों को चेतन के पास आने (आस्रव) से रोकना । सामान्यतया पापास्रव को रोकना संवर का कार्य समझा जाता है । ग्रन्थ में इसके भी पापास्रव विरोधी पाँच भेदों का संकेत है। फल-प्राप्ति की अभिलाषा के बिना किए जाने वाले सत्कर्म संवररूप होते हैं। जब जीव अहिंसादि सत्कार्यों में प्रवृत्त होकर फलप्राप्ति की कामना करता है तो वे पुण्यास्रव होकर बन्ध के भी कारण हो जाते हैं। जैसे पूर्वभव में फलाभिलाषा से युक्त (निदानसहित) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और फलाभिलाषा से रहित चित्तमुनि के द्वारा किए गए एक समान अहिंसादि पुण्य-कर्म अगले भव में अलग-अलग फलवाले हुए।" इस तरह फलाभिलाषा (निदान) १. देखिए-पृ० १६६, पा० टि० १; उ० १६. ६४; २०.४५; २६.११. २. अज्झत्यहे निययस्स बंधो संसार हेउं च वयंति बन्छ । -उ० १४.१६. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः । सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः । -त० सू० ८. १-२. - आत्मकर्मणोरन्योऽन्य प्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः । -सर्वार्थसिद्धि, पृ० १४. ३. आस्रवनिरोधः संवरः । -त० सू० ६.१. ४. सुसंवुडा पंचर्हि संवरेहि। -उ० १२.४२. ५. कम्मा नियाणपगडा तुमे राय ! विचितिया। तेसि फलविवागेण विप्पओगमुवागया। -उ० १३.८. तथा देखिए-उ.१३.१,२८-३०. For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८२] उत्तराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पूर्वक किए गए सभी पुण्यकर्म आस्रवरूप हैं और फलाभिलाषा. के बिना किए गए निष्काम कर्म संवररूप हैं। अतः अनास्रवी का लक्षण बतलाते हुए ग्रन्थ में कहा है-'प्राणिवध, मृषावाद, चोरी, मैथुन, धनसंग्रह, रात्रिभोजन तथा चार कषायों से रहित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति में सावधान जितेन्द्रिय जीव अनास्रवी कहलाता है।'' अर्थात् अशुभ-कार्यों का सर्वथा त्याग करके शुभकार्यो में सावधानीपूर्वक फलाभिलाषा से रहित होकर प्रवृत्ति करना संवर का कारण है। ग्रन्थ में इस प्रकार के संवर का फल आस्रवनिरोध के बाद ऋद्धि-सम्पन्न देवपद या सिद्धपद (मुक्ति) की प्राप्ति बतलाया है । ८. निर्जरा-पूर्वबद्ध कर्मों को आत्मा से अंशतः · पृथक् करना। यह मोक्ष के प्रति साक्षात् कारण है । यद्यपि प्रतिक्षण कर्मों की कुछ न कुछ निर्जरा होती रहती है परन्तु कुछ निर्जरा तपस्या आदि के द्वारा बलात भी की जाती है। इसीलिए इस निर्जरा को दो भागों में बाँट सकते हैं : १. सामान्य-निर्जरा और २. विशेषनिर्जरा। अपने आप स्वाभाविक रीति से बिना प्रयत्न के प्रतिक्षण कर्मों का फल देकर चेतन से पृथक हो जाना सामान्य-निर्जरा है । इस प्रकार की निर्जरा में जीव को कोई प्रयत्नविशेष नहीं करना पड़ता है । अतः प्रकृत में इसका विचार आवश्यक नहीं है। दूसरे प्रकार की निर्जरा का अर्थ है-तपादि साधनों के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर चेतन से पृथक कर देना । इसीलिए जैन-ग्रन्थों में सामान्य निर्जरा को सविपाक-निर्जरा तथा अनौपक्रमिक-निर्जरा (अकृत्रिम-निजेरा) कहा गया है। इसके अतिरिक्त विशेष-निजेरा १. पाणिवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ । राई भोयणविरओ जीवो भवइ. अणासवो ॥ पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निस्सल्लो जीवो होइ अणासवो । -उ० ३०. २-३. २. उ० २६.५५; ५.२५, २८. ३. एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। -सर्वार्थसिद्धि १.४. . For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ . रत्नत्रय [१८३ को अविपाक-निर्जरा और औपक्रमिक-निर्जरा ( कृत्रिम-निर्जरा ) कहा गया है।' ___. मोक्ष-सभी प्रकार के कर्म-बन्धनों से पूर्ण छुटकारा पाना या चेतन के द्वारा स्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेना मोक्ष है। यही जीव का अन्तिम लक्ष्य है जिसे प्राप्त कर लेने पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और अनन्त-सुख व शक्तिसम्पन्न हो जाता है । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद चेतन पुन: कभी भी कर्मबन्धन में नहीं पड़ता है। इन नौ तथ्यों में से पुण्य और पाप के आस्रवरूप होने से तत्त्वार्थसूत्र में इनकी संख्या सात ही गिनाई गई है और इन्हें 'तत्त्व' शब्द से कहा है। जब पुण्य और पाप को आस्रव से पृथक् गिनाया जाता है तब इन्हें ही जैन-ग्रन्थों में 'पदार्थ' शब्द से कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जब केवल जीव और अजीव का कथन किया जाता है तब ये 'द्रव्य' शब्द से कहे जाते हैं। वास्तव में जिस प्रकार वैशेषिकदर्शन में 'द्रव्य' और 'पदार्थ' में भेद है उस प्रकार जैन-ग्रन्थों में द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ (तत्त्वार्थ, अर्थ या तथ्य) इन शब्दों में भेद नहीं किया गया है क्योंकि ये आपस में एक-दूसरे से मिले हुए हैं। इसके अतिरिक्त जैन-ग्रन्थों में जीवादि षडद्रव्यों को 'तत्त्वार्थ' शब्द से तया जीवादि नौ तथ्यों (पदार्थो) को 'अर्थ' शब्द से भी कहा गया है। ऐसा होने पर भी 'द्रव्य' शब्द से लोक १. सर्वार्थसिद्धि ८.२३. २. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः । __ - त० सू० १०.२. . ३. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।।। -त० सू० १.४. ४. जीवाजीवासवबंधसंवरो णिज्जरा तहा मोक्खो। __ तच्चाणि सत्त एदे सपुण्णपावा पयत्था य ॥ - लघु-द्रव्यसंग्रह, गाथा ३. ५. जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आया । तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥ -नियमसार, गाथा ६. जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥ -पंचास्तिकाय, गाथा १०८. For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन की रचना के मूल उपकरणों को लिया जाता है तथा 'तत्त्व' शब्द से आध्यात्मिक रहस्य का भावात्मक विश्लेषण किया जाता है।' 'तत्त्व' शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ का ही विशेष व्याख्यान 'पदार्थ शब्द के द्वारा किया जाता है। पदार्थ को ही 'तथ्य' शब्द से कहा गया है। ग्रन्थ में इन नौ तथ्यों के विषय में एक नाव का दृष्टान्त भी दिया गया है :२ . एक नौका संसाररूपी समुद्र में तैर रही है जिसमें दो छिद्र हैं,.. उनमें से एक से गन्दा और दूसरे से साफ पानी आ रहा है। पानी के आते रहने से नाव अब डूबने ही वाली है कि नाव का मालिक उन दोनों छिद्रों को बन्द कर देता है जिनसे पानी अन्दर प्रवेश कर रहा था और फिर दोनों हाथों से उस भरे हुए पानी को उलीचकर निकालने लगता है। धीरे-धीरे वह नौका पानी से खाली हो जाती है और पानी की सतह पर आकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त करा देती है। इस तरह इस दृष्टान्त में नौका शरीर स्थानापन्न (अजीव) है, नाविक जीव है, गन्दे और साफ पानी आने के दोनों छिद्र क्रमशः पाप और पुण्यरूप हैं, जल का नाव में प्रवेश करना आस्रव है, जल का नाव में एकत्रित होना बन्ध है, पानी आने के स्रोतों (छिद्रों) को बन्द करना संवर है, पानी को उलीचना निर्जरा है और १. तत्त्व शब्दो भावसामान्यवाची। कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । तस्य भावस्तत्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थों ययावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः। अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इत्यर्थः । तत्वेनार्थस्तत्त्वार्थः। अथवा भावेन भाववतोऽभिधानं, तदव्यतिरेकात् तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः।। -सर्वार्थसिद्धि १.२. २. जा उ अस्साविणी नावा न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा सा उ पारस्स गामिणी ॥ सरीरमाहु नावत्ति जीवो वच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरंति महेसिणो ॥ -उ० २३.७१-७३. For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [१८५ जल के पूर्णरूप से पृथक् कर देने पर नाव का पानी की सतह पर आ जाना मोक्ष है। भगवान बुद्ध ने भी इसी तथ्य का साक्षात्कार करके इसका ही चार आर्यसत्यों के रूप में उपदेश दिया है। चूंकि बौद्धदर्शन में कोई स्थायी चेतन व अचेतन पदार्थ स्वीकार नहीं किया गया है अतः उत्तराध्ययन में प्रतिपादित नौ तथ्यों को जिन पाँच भागों में विभक्त किया गया है उनमें से प्रथम भाग में गिनाए गए जीव और अजीव को छोड़कर शेष सात तथ्यों को ही उपर्युक्त क्रम से निम्नोक्त चार आर्य-सत्यों के रूप में विभक्त किया गया है : १ १. दु.ख सत्य-संसार में जन्म, जरा, मरण, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि दुःख देखे जाते हैं । अतः दुःख सत्य है। २. दुःख-कारण सत्य ( दु.ख-समृदय सत्य )-जब दुःख हैं तो दुःख के कारण भी अवश्य हैं। ३. दुःख-निरोध सत्य-यदि दुःख और दु:ख के कारण हैं तो कारण के नाश होने पर कार्यरूप दुःख का भी विनाश होना चाहिए। इस तरह दुःख-निरोध भी सत्य है । .. ४. दुःख-निरोधमार्ग सत्य-दुःखों को दूर करने का रास्ता भी है । अतः दुःख-निरोधमार्ग भी सत्य है । इस तरह चेतन-अचेतन द्रव्य हैं या नहीं, परमार्थ में सुख है या नहीं ? इसका कोई समुचित उत्तर न देकर भगवान् बुद्ध ने यह कहा कि उपर्युक्त चार बातें सत्य हैं । दुःख से छुटकारा चाहते हो तो इन चार आर्यसत्यों पर विश्वास करके दुःख-निरोध के मार्ग का अनुसरण करो। दुःख-निरोध के मार्ग में जिन उपायों को बौद्धदर्शन में बतलाया गया है वे ही उपाय प्रायः उत्तराध्ययन में भी हैं, परन्तु मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ बौद्धदर्शन मुक्ति के लिए १. सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदय स्तथा । निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमयं क्रमः ।। - अमिधर्मकोष ६.२. For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन आत्मा के अभाव (नैरात्म्य) की भावना पर जोर देता है। वहाँ । उत्तराध्ययन आत्मा के सद्भाव की भावना पर जोर देता है।२ । मुक्ति का साधन-रत्नत्रय : ___ उपयुक्त नौ तथ्यों में 'संवर' और 'निर्जरा' जो संसार . से निवृत्ति की व्याख्या करते हैं उनमें क्रमशः बतलाया गया है कि किस प्रकार आनेवाले नवीन कर्मों को रोका जा सकता है और किस प्रकार एकत्रित हुए पुराने कर्मों को नष्ट किया जा सकता है। इस तरह संवर और निर्जरा ये दोनों तत्त्व आचरणीय आचारशास्त्र या धर्मशास्त्र का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु आचार (धर्म) की पूर्णता और सम्यकरूपता के लिए इन नौ तथ्यों का सच्चाज्ञान और उन पर दृढ़-विश्वास की भी आवश्यकता है। क्योंकि आचार के सम्यकपने के लिए आवश्यक है कि उसका सच्चाज्ञान हो और ज्ञान की प्राप्ति के लिए उस ज्ञान को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा के साथ दढ़ विश्वास । ग्रन्थ में इसी कथन को पुष्ट करते हुए लिखा है-'सच्चे विश्वास (दर्शन) के बिना सच्चा ज्ञान नहीं होता, सच्चे ज्ञान के बिना सच्चा चारित्र नहीं होता, सच्चे १. तस्मादनादिसन्तानतुल्य जातीयबीजिकां । उत्खातमूलाङ कुरुत सत्वदृष्टिमुमुक्षवः । -प्रमाणवार्तिक २.२५७-२५८. यः पश्यत्यात्मानं तत्राहमिति शाश्वतः स्नेहः । आत्मनिसतिपरसंज्ञा स्वपरविभागात परिग्रहद्वेषो। . अनयो संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ।। -प्रमाणवार्तिक २.२१८-२२१. २. एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि तुब्भेहि अणुमन्निओ।। -उ० १६.२४. तथा देखिए-उ० १५.१,३,५,१५; १८.३०-३१,३३.४६ आदि । For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [१८७ चारित्र के बिना कर्म से मुक्ति नहीं मिलती और कर्म से मुक्ति के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। सच्चे विश्वास के अभाव में सम्यक चारित्र हो ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त जहाँ सच्चा विश्वास है वहाँ सच्चा चारित्र हो या न हो उभय कोटियाँ ( भजनीय) संभव हैं। किञ्च, सच्चे विश्वास (सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन) और सच्चे चारित्र के साथ-साथ उत्पन्न होने पर पहले विश्वास (सम्यक्त्व) की ही उत्पत्ति होगी।' इस तरह मुक्ति के लिए सर्वप्रथम तथ्यों में श्रद्धा फिर उनका सम्यकज्ञान और तदनुसार आचरण आवश्यक है। यद्यपि ग्रन्थ में ऐसे भी स्थल हैं जहाँ पर विश्वास (श्रद्धा या सम्यग्दर्शन), ज्ञान और सदाचार को पृथकपृथक् तथा उनके प्रत्येक अंश को लेकर (साक्षात या परम्परया) मोक्ष के प्रति स्वतन्त्र रूप से कारण बतलाया गया है; कहीं-कहीं इन तीन के अतिरिक्त तप, क्षमा निर्लोभता आदि कारणों को भी पृथकरूप से जोड़कर चार, पाँच, छः आदि कारणों को गिनाया गया है। परन्तु परीक्षण से ज्ञात होता है कि जहाँ-जहाँ पृथक्-पृथक् अंश को लेकर मुक्ति के प्रति कारणता बतलाई गई है वहाँ-वहाँ उन-उन अंशों में अन्य अंश गतार्थ हैं तथा उस अंशविशेष का महत्त्व बतलाने के लिए ऐसा किया गया है। इसी प्रकार जहाँ श्रद्धा, ज्ञान और सदाचार के साथ तप, क्षमा आदि का सन्निवेश किया गया है वहाँ भी तपादि अंशों के महत्त्व पर जोर देने के लिए उन्हें अलग से जोड़ा गया है अन्यथा तप, क्षमा आदि अन्य सभी कारण सदाचार, ज्ञान एवं विश्वासरूप कारणत्रय में ही गतार्थ हैं। इस कथन की पुष्टि में मैं यहाँ पर उत्तराध्ययन से कुछ प्रसङ्ग उद्धृत करता हूँ : १. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहणं दसणे उ भइयत्र । सम्मत्तचरित्ताई जुगवं पुत्वं व सम्मतं ।। नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुँति चरणगुण।। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। -उ० २८.२६-३०. २. विशेष के लिए देखिए-उ०, अध्ययन २८-२६, ३१. For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १८८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन - १. केशि-गौतम संवाद में बतलाया गया है कि निश्चय से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष के सद्भूत साधन हैं, अन्य बाह्य वेषभूषादि नहीं । ऐसी दोनों जैन उपदेशकों (भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर) की प्रतिज्ञा है।' २. मोक्षमार्गगति नामक २८वें अध्ययन के प्रारम्भ में कहा है'ज्ञान और दर्शन जिसके लक्षण हैं ऐसे चार कारणों से युक्त यथार्थ मोक्षमार्ग की गति को तुम मुझसे सुनो। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-यह मोक्ष-मार्ग है। जो इस मार्ग का अनुसरण करता है वह सुगति२ (मोक्ष) को प्राप्त करता है। ऐसा भगवान जिनेन्द्र ने कहा है।"3 आगे इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुए ग्रन्थ में लिखा है - 'ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से उन पर श्रद्धा करता है, चारित्र से कर्मास्रवों को रोकता है और तप से शुद्धता को प्राप्त करता है। इस तरह जो सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हैं वे संयम और तप से पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करते हैं। कर्मों के क्षय करने में विशेष उपयोगी होने के कारण यहाँ १. अह भवे पइन्ना उ मोक्खसम्भूयसाहणा। ___ नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छिए ।। -उ० २३.३३. २. चत्तारि सुग्गईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सिद्ध सुग्गई, देवसुग्गई, मणुय. सुग्गई, सुकुलपच्चायाई। - स्थानाङ्गसूत्र ४.१.२६. ३. मोक्खमग्गगई तच्चं सुणेह जिणभासियं । च उकारणसं जुत्तं नाणदंसणलक्खणं ।। नाणं च सणं चेव चरित्तं च तवो तहा । एयंमग्गमणुप्पत्ता जीवा गच्छंति सोग्गई ॥ -उ०२८.१-३. ४. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सरहे । चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई ॥ खवेत्ता पुवकम्माई संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ।। -उ० २८ ३५-३६. For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३.रत्नत्रय [१८९ तप को सदाचार से पृथक् गिनाया गया है। अन्यथा तप सदाचार से पृथक् अन्य कारण नहीं है। इसके अतिरिक्त यहाँ ज्ञान और दर्शन को मोक्षमार्ग का लक्षण बतलाया गया है जिससे स्पष्ट है कि ज्ञान और दर्शन के अभाव में किया गया सदाचार अभीष्ट साधक नहीं है। ३. रथनेमी अध्ययन में जब अरिष्टनेमी दीक्षा ले लेते हैं तो वासुदेव कहते हैं-'हे जितेन्द्रिय ! तू शीघ्र ही अभीष्ट मनोरथ को प्राप्त कर। ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, क्षमा और निर्लोभता से वद्धि को प्राप्त कर ।१ यहाँ तप, क्षमा और निर्लोभता ये भी चारित्र के ही अंश हैं। ४. जब मृगापुत्र सिद्धगति को प्राप्त करता है तो उस समय ग्रन्थ में कहा गया है-'इस तरह ज्ञान, सदाचार, विश्वास, तप और विशुद्ध भावनाओं के द्वारा अपनी आत्मा को परिशुद्ध करके, बहुत वर्षों तक साध-धर्म का पालन करके तथा एक मास का उपवास करके उसने अनुत्तर सिद्ध -गति को प्राप्त किया।२ यहाँ साध-धर्म का पालन, भावनाओं का चिन्तन, उपवास आदि रत्नत्रय की ही वृद्धि में सहायक अङ्ग हैं। ५. 'बोधिलाभ' को भगवान की स्तुति का फल बतलाते हए कहा गया है- 'ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधिलाभ से युक्त होकर जीव या तो संसार के आवागमन का अन्त करने वाले स्थान मोक्ष) को प्राप्त करता है या कल्पविमानवासी देव-पद को प्राप्त करता है। इसी तरह सर्वगुणसम्पन्नता (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) का फल अपुनरावृत्तिपद (मोक्ष) की प्राप्ति बतलाया गया है। १. वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइंदियं । इच्छियमणोरहे तुरियं पावेसू तं दमीसरा ।। नाणेणं दंसणणं च चरित्तेण तहेव य ।। . खंतीए मुत्तीए नड्ढमाणो भवाहि य ॥ - -उ० २२.२५-२६. २. उ० १६.६५-६६. ३. उ० २६.१४. ४. सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावित्ति जणयइ । अपुणरावित्ति पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणंदुक्खाणं नो भागी भवइ । -उ० २६.४४, For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ६ प्रमादस्थानीय अध्ययन के प्रारम्भ में सम्पूर्ण दुःखों से मुक्ति का एकान्त हितकारी उपाय बतलाते हुए कहा है- 'सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के त्याग से, राग और द्वेष के क्षय से एकान्त सुखरूप मोक्ष प्राप्त होता है।'' इसी तरह इसके आगे भी इसी तथ्य का समर्थन करते हुए लिखा है- 'श्रेष्ठ और वृद्ध लोगों (स्थविर-मुनियों) की सेवा (सदाचार), मूर्ख पुरुषों की संगति का त्याग (सम्यग्दर्शन), एकान्त में निवास, स्वाध्याय, सूत्रार्थ-चिन्तन (सम्यक्ज्ञान) और धैर्य यह मोक्ष का मार्ग है ।'२ ___ इस तरह विश्वास (सम्यग्दर्शन - सम्यक्त्व), ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और सदाचार (सम्यक्चारित्र) रूप रत्नत्रय ही मुक्ति का प्रधान साधन है। यहाँ इतना विशेष है कि ये तीनों मिलकरके हो मुक्ति के साधन हैं, पृथक-पृथक् तीन साधन नहीं हैं। अतः ये गीता के भक्तियोग ( विश्वास-सम्यक्त्व ), ज्ञानयोग ( सम्यग्ज्ञान ) और कर्मयोग ( सदाचार ) की तरह पृथक-पृथक तीन मार्ग नहीं हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने इसीलिए रत्नत्रय को मोक्ष का मार्ग बतलाते हुए 'मार्ग' शब्द में एकवचन का प्रयोग किया है। __ ज्ञानमात्र से मुक्ति संभव नहीं-'ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है'५ इस वैदिक-संस्कृति में विश्वास करने वाले और ज्ञानमात्र १. अच्चंतकालस्स समूलगस्स सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो । तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ॥ नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाणमोहस्स विवज्जपाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं एगन्तसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ -उ० ३२.१.२. २. उ० ३२.३. ३. भा० द० ब०, पृ० ८१. ४. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । - त० सू० १.१. ५. तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति । नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ - श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१५. तथा देखिए-वही ३.८. For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १९१ से मुक्ति को मानने वालों के प्रति ग्रन्थ में कहा है-'कुछ लोग यह मानते हैं कि पापाचार का त्याग किए बिना मात्र आर्यकर्मों का ज्ञान कर लेने से दु:खों से छुटकारा मिल जाता है। इस तरह ज्ञानमात्र से बन्धन और मोक्ष का कथन करने वाले ये आचारहीन व्यक्ति स्वयं को सिर्फ अपने वचनों से आश्वस्त करते हैं क्योंकि जब अनेक प्रकार की भाषाओं का ज्ञान रक्षक नहीं हो सकता है तब मंत्रादि विद्याओं का सीखनामात्र (विद्यानुशासन) कैसे रक्षक हो सकता है ? इस तरह पाप-कर्म में निमग्न और अपने आपको पण्डित मानने वाले ये लोग वास्तव में मूर्ख हैं।'' इससे स्पष्ट है कि ज्ञानमात्र से मुक्ति की कल्पना करना मूर्खता है। वास्तव में चारित्र के बिना ज्ञान पंगु एवं भाररूप है, ज्ञान के बिना चारित्र अन्धा है तथा दृढ़ विश्वास के बिना ज्ञान और चारित्र में प्राणरूपता ( दृढ़ता ) का अभाव है। यदि आचाररूप क्रिया के अभाव में मात्र ज्ञानसे कार्य-सिद्धि मान ली जाए तो एक डाक्टर जोकि सब रोगों की दवा जानता है, बिना दवा खाए ही स्वस्थ हो जाना चाहिए । परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि जब ग्रन्थ में संसार एवं दुःख का मूल कारण अज्ञान बतलाया गया है तो फिर उससे निवृत्ति का उपाय भी ज्ञान ही होना चाहिए; श्रद्धा एवं चारित्र को मानने की क्या आवश्यकता है ? यद्यपि यह कथन ठीक है परन्तु उस सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए दृढ़-श्रद्धा और आचार भी अपेक्षित है। जब तक दृढ़-श्रद्धा नहीं होगी. तब तक ज्ञान की प्राप्ति के लिए झुकाव भी नहीं हो सकता है तथा जब तक इन्द्रियों की चञ्चलता को रोककर ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं किया जाएगा तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। १. इहमेगे उ मन्नंति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ता णं सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ भणंता अकरेंता य बंधमोक्खपइण्णिणो। वायविरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ न चित्ता तायए भासा कुओ विज्जाणुसासणं । विसण्णा पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ।। -उ० ६.६-११. For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन इस तरह ज्ञान और चारित्र दोनों साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। जब साधक को सच्चा व पूर्ण ज्ञान हो जाता है तो वह संसार के बन्धन से छुटकारा पा जाता है क्योंकि जब सच्चा एवं पूर्ण ज्ञान हो जाता है तो वह कभी भी गलत आचरण नहीं कर सकता है। इसीलिए भृगुपुरोहित के दोनों पुत्र अपने पिता से कहते हैं'जिस प्रकार हम लोगों ने धर्म को न जानते हए अज्ञानवश ( मोहवश ) पहले पाप-कर्म किए थे उस प्रकार अब हम आपके द्वारा रोके जाने पर और रक्षा किए जाने पर पुनः उन कर्मों को नहीं करेंगे। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में पूर्णज्ञानी को जीवन्मुक्त ( केवली ) कहा गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि केवल ज्ञानमात्र से मुक्ति हो जाती है क्योंकि पूर्वबद्ध कर्मों का फल अवश्य भोक्तव्य होने के कारण पूर्ण-मूक्ति के लिए पूर्णज्ञान के बावजूद भी सदाचार की आवश्यकता है। यदि पूर्णज्ञान मात्र से ही मुक्ति मान ली जाती तो जिनेन्द्र देवों का उपदेश प्रामाणिक नहीं होता क्योंकि पूर्णज्ञान हो जाने पर वे संसार में न रहेंगे और पूर्णज्ञान के पूर्व दिया गया उनका उपदेश प्रामाणिक न होगा। इस तरह ज्ञान के बिना चारित्र और चारित्र के बिना ज्ञान दोनों पङ्ग हैं। ग्रन्थ में ज्ञान की अपेक्षा कहीं-कहीं आचार को प्रधानता देने का मुख्य प्रयोजन था कि उस समय लोग मात्र वेद-ज्ञान को मुक्ति का साधन मानकर अपने आचार से पतित हो रहे थे। शब्दज्ञान मात्र से चारित्र शुद्ध नहीं होता है । अतः उस ज्ञान में दृढ़ विश्वास भी आवश्यक है। इसीलिए ज्ञान और आचार के पूर्व श्रद्धापरक सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन आवश्यक माना गया है क्योंकि किसी भी जीव का ज्ञान कितना ही उच्च-कोटि का क्यों न हो वह तब तक सम्यक नहीं कहला सकता है जब तक उसे सम्यग्दर्शन न हो। १. जहा वयं धम्ममजाण माणा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा । ओरुब्भमाणा परिरक्खियंता तं नेव भुज्जो वि समायरामो॥ -उ०१४.२०. २. देखिए-प्रकरण ६. ३.. जीवादीसदहणं सम्मत्तं रूव मप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि ॥ --द्रव्यसंग्रह, गाथा ४१. For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १९३ ग्रन्थ में यद्यपि छन्दोबद्धता या प्रधानता प्रकट करने के कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र का व्युत्क्रम से भी उल्लेख किया गया है परन्तु जहां इनके क्रम का विचार किया गया है वहां स्पष्ट कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना सच्चारित्र नहीं होता तथा सच्चारित्र के बिना कर्मों से मुक्ति नहीं मिलती । " गीता में भी यही क्रम बतलाते हुए कहा है : 'श्रद्धावान् ही पहले ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान-प्राप्ति के बाद संयतेन्द्रिय ( सदाचार में प्रवृत्ति करने वाला ) बनता है । इसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी ज्ञान (प्रज्ञा), आचार ( शील) और तप (समाधि) को रत्नत्रय ( तीन रत्न ) कहा गया है तथा इन तीन रत्नों की प्राप्ति के पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना गया है। इस तरह दुःखों से छुटकारा पाने के लिए रत्नत्रय की साधना आवश्यक है । " जैनदर्शन में 'रत्नत्रय' के नाम से प्रसिद्ध मोक्ष के इन तीन raat का हो सम्मिलित नाम ग्रन्थ में 'धर्म' भी मिलता है | अतः १. देखिए - पृ० १८७, पा० टि० १. २. श्रद्धावल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्धा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ -- गीता ४. ३६. ३. सम्यक्ज्ञान, सम्यक्संकल्प ( दृढ़ निश्चय), सम्यक्वचन ( सत्यवचन ), सम्यक् कर्मान्त ( हिंसादि से रहित कर्म ), सम्यक्आजीव ( सदाचारपूर्ण जीविका ), सम्यक् व्यायाम ( भलाई के लिए प्रयत्न ), सम्यक् स्मृति ( अनित्य की भावना ) तथा सम्यक्समाधि ( चित्त की एकाग्रता ) | इस तरह सम्यक्त्व आठ प्रकार का है । ४. भा० द० ब०, पृ० १५५. ५. अज्ञान से विषाक्त भोजन कर लेने वाले रोगी के स्वास्थ्यलाभ के लिए आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम डाक्टर या औषधि आदि पर विश्वास करे, औषधिसेवन की विधि आदि का ज्ञान हो और तदनुसार उसका सेवन करे। इनमें से एक की भी कमी होने पर जैसे स्वास्थ्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है वैसे ही संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए रत्नत्रय की आराधना आवश्यक है । -- देखिए - सर्वार्थसिद्धि १.१. For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन चतुरङ्गीय नामक तीसरे अध्ययन में धर्म के साधनभूत उत्तरोत्तर सर्वश्रेष्ठ चार दुर्लभ-अङ्गों का प्रतिपादन करते हुए इन तीन रत्नों को ही गिनाया गया है । वे चार दुर्लभ-अङ्ग इस प्रकार हैं :' १. मनुष्यत्व-यहां मनुष्यत्व से तात्पर्य श्रेष्ठ-जाति व श्रेष्ठ-कुल आदि से सम्पन्न मनुष्यपर्याय की प्राप्ति से है । मनुष्यपर्याय में ही पूर्ण चारित्र का पालन कर सकना संभव होने से इस पर्याय की प्राप्ति देवादि अन्य पर्यायों की प्राप्ति की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाई गई है। अतः प्रथम तो मनुष्य-जन्म पाना ही कठिन है फिर उसमें भी श्रेष्ठ कूल आदि का प्राप्त होना और भी अधिक कठिन है। इस तरह इस दुर्लभ-अङ्ग में रत्नत्रयरूप धर्म को धारण करने वाले अधि. कारी की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है। २. श्रतिश्रवण-शास्त्रज्ञान । यदि किसी तरह मनुष्यता की प्राप्ति हो भी गई तो भी धर्मशास्त्र का ज्ञान मिलना सबको सुलभ नहीं होता है। इस तरह यहाँ सम्यग्ज्ञान की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है क्योंकि शास्त्र ज्ञान-प्राप्ति के साधन हैं। ३. श्रद्धा-शास्त्रज्ञान की सत्यता में दृढ़ विश्वास का होना। शास्त्रज्ञान हो जाने पर भी उसकी सत्यता में सबको विश्वास होना कठिन है क्योंकि बहुत से लोग शास्त्रज्ञ होकर भी दृढ़-श्रद्धा के अभाव में आचारहीन देखे जाते हैं। इसमें श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन की दुर्लभता का कथन किया गया है। ___ ४. संयम में पुरुषार्थ-सदाचार में प्रवृत्ति । शास्त्रज्ञान और उसकी सत्यता में विश्वास होने पर भी रागादिरूप प्रवृत्ति के कारण सदाचार का पालन करना अत्यधिक कठिन है। यहाँ सम्यकचारित्र की दुर्लभता का कथन किया गया है। इस तरह धर्म के साधनभूत इन चार दुर्लभ अंगों की प्राप्ति में ज्ञानरूप श्रतिश्रवण का जो श्रद्धा के पूर्व कथन किया गया है वह ज्ञान की प्राप्ति के साधनभूत श्रुति-श्रवण की दुर्लभता की अपेक्षा से है क्योंकि श्रुतिश्रवण और श्रद्धा के बाद ही ज्ञान की १. देखिए-पृ० १०८, पा० दि० २; उ० ३.८-११; आचाराङ्गसूत्र २.१. For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १९५ पूर्णता संभव है। बिना श्रद्धा के ज्ञान की प्राप्ति में प्रयत्न ही संभव नहीं है । इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है वैसे-वैसे श्रद्धा में भी दृढ़ता आती जाती है तथा सदाचार में भी प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। यद्यपि ज्ञान की प्राप्ति में सदाचार भी आवश्यक है परन्तु चारित्र की पूर्णता ज्ञान की पूर्णता होने पर ही सम्भव होने से उसे ज्ञान से अधिक दुर्लभ और श्रेष्ठ कहा गया है। धर्म के साधनभूत इन चारों दुर्लभ-अङ्गों की प्राप्ति का फल मुक्ति या ऋद्धिसम्पन्न देवता-पद की प्राप्ति बतलाया गया है।' ___ अन्यत्र भी मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को 'धर्म' शब्द से कहा गया है। यह 'धर्म' शब्द प्रथम प्रकरण में प्रयुक्त गति. में सहायक 'धर्मद्रव्य' से पृथक् है । इस रत्नत्रयरूप 'धर्म' को संसाररूपी समुद्र में शरणभूत-द्वीप,3 परलोक-यात्रा में सहायक पाथेय और मृत्यु-समय का रक्षक५ १. माणु सत्तम्मि आयाओ जो धम्म सोच्च सद्दहे । तवस्सी वीरियं लद्धं संवुडे निद्धणेर यं ॥ सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निव्वाणं परमं जाइ घयसित्तिव्व पावए । -उ० ३.११-१२. २. समीचीन धर्मशास्त्र १.२-३; मनुस्मृति २.१; यशस्तिलकचम्पू ६.२६८. ३. जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा गइ सरणमुत्तमं ।। -उ० २३.६८. ४. अद्धाणं जो महंतं तु सपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो सुही होइ छुहातहाविवज्जिओ ॥ एवं धम्म पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं ।। गच्छंतो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे । -उ० १६.२१-२२. ५. एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि । -उ० १४.४०. For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कहा गया है। जो धर्म से युक्त है उसका जीवन सफल है' और वह स्वयं का स्वामी होते हए दूसरों का भी स्वामी है। वही सबान्धव एवं नाथों का भी नाथ (स्वामी) है 3 जो धर्म से युक्त है। इसके अतिरिक्त जो धर्म से हीन है वह अनाथ है। 'धर्म' एक राजमार्ग है जिस पर चलकर प्रत्येक प्राणी सुख का अनुभव करता है तथा 'अधर्म' एक कण्टकाकीर्णमार्ग है जिस पर चलने से प्राणी परेशानियों का अनुभव करता है।५ धर्म सुन्दर है तथा इसका आश्रयण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह धर्म दैदीप्यमान अग्नि की तरह शुद्ध एवं सरल हृदय में ही ठहरता है। अत : इसके ग्रहण करने में विलम्ब न करने को कहा गया है। १. जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई । धम्म च कुणमाणस्स सफला जति राइओ ॥ -उ० १४.२५ तथा देखिए-उ० १४.२४; ४.१; ६.११. २. खंतो दंतो निरारम्भो पव्वईओऽणगारियं । , तो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य ॥ -उ० २०.३४-३५. ३. तुब्भे सणाहा य सबंधवा य जं भे ठिया मग्गि जिणुत्तमाणं । तंसि नाहो अणाहाणं सव्वभूयाण संजया ।। ' -उ० २०.५५-५६. ४. उ० २०.८-१६. ५. जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गम्मि सोयई । एवं धम्म विउक्कम्म अहम्म पडिवज्जिया। बाले मच्चमुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई ।। -उ० ५.१४-१५. तथा देखिए-उ०१३.२१. ६. देखिए-पृ० १६५, पा० टि० १. ७. धम्मं च पेसलं णच्चा तत्थ ठवेज्ज भिक्खु अप्पाणं । -उ० ८.१६. अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। उ० १४.२८. For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १९७ इस तरह इस 'धर्म' शब्द का प्रयोग यहां पर मुक्ति के साधक रत्नत्रय के अर्थ में ही किया गया है। सामान्य व्यवहार में भी अहिंसादि शुभ-कार्यों के करने को 'धर्म' कहा जाता है। मीमांसादर्शन में जिस वैदिक यागादि-क्रिया को 'धर्म' शब्द से कहा गया है। वह यहां पर एक प्रकार के 'कर्म' के रूप में स्वीकृत है। भारतीय धर्म-परम्परा में माने गए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों में 'धर्म' का ही प्रमुख स्थान है क्योंकि धर्म से ही अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्ति होती है। इस तरह 'धर्म' शब्द का अर्थ है-'मुक्ति का मार्ग' और मुक्ति का मार्ग है – 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ।' अब क्रमशः इन तीनों का ग्रन्थानुसार वर्णन किया जाएगा : सम्यग्दर्शन ( सत्य-श्रद्धा) सामान्यतौर से सम्यक्-दर्शन शब्द का सम्मिलित अर्थ हैसत्य का देखना या सत्य का साक्षात्कार करना। सत्य का पूर्ण साक्षात्कार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा संभव न होने से सत्यभूत जो नव तथ्य बतलाए गए हैं उनके सद्भाव में विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। इन तथ्यों में श्रद्धा करने पर चेतन-अचेतन का भेदज्ञान, संसार के विषयों से विरक्ति, मोक्ष के प्रति झकाव, परलोकादि के सदभाव में विश्वास, और चेतनमात्र के प्रति दयादिभाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के भावों के उत्पन्न होने पर जीव धीरे-धीरे सत्य का पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है। अतः जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन के गुणरूप पाँच चिह्न स्वीकार किए गए हैं जिनका १. अथ को धर्मः .....यागादिरेव धर्मः...... चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म' इति । -अर्थसंग्रह, लोगाक्षीभास्कर, पृ० ६-८. २. तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं । -उ० २८.१५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । -त० सू० १.२. तथा देखिए-पृ० १८८, पा० टि० ४. For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ग्रन्थ में शब्दतः स्पष्टरूप से कथन न होने पर भी उनतीसवें अध्ययन में सम्यक्त्व के प्रसङ्ग में उन चिह्नों से युक्त गुणों का फल अवश्य बतलाया गया है । सम्यग्दर्शन के चिह्न-सम्यग्दर्शन के गुणरूप चिह्नों के नाम इस प्रकार हैं: १. संवेग (मोक्ष के प्रति झुकाव ), २. निर्वेद ( सांसारिक विषय-भोगों से विरक्ति ), ३. अनुकम्पा ( प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव ), ४. आस्तिक्य (जीव, अजीव, परलोक आदि की सत्ता में विश्वास) और ५. प्रशम (राग-द्वेषात्मक वृत्तियों के उपस्थित होने पर भी शान्त-परिणामों से विचलित न होना)। सम्यग्दर्शन के इन पाँच चिह्नों में से ग्रन्थ में 'संवेग', 'निर्वेद' और 'आस्तिक्य' ( अनुत्तर-धर्मश्रद्धा) को परस्पर एक-दूसरे का पूरक बतलाते हुए तृतीय-जन्म का अतिक्रमण किए बिना कर्मों का क्षय करके (आत्मविशुद्ध होकर) मोक्षप्राप्तिका अधिकारी बतलाया है। कहीं-कहीं ग्रन्थ में संवेग व निर्वेद की प्राप्ति को सम्यक्त्व की प्राप्ति के रूप में बतलाया गया है। 'अनुकम्पा' अहिंसा का ही प्रतिफल है तथा प्रशमभाव के बिना संवेगादि भाव नहीं हो सकते हैं क्योंकि जब चित्त रागादि वृत्तियों के उपस्थित होने पर अपने शान्त१. भा० सं० ज०, पृ० २४२; यशस्तिलकचम्पू, पृ० ३२३. २. संवेगेणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हवमागच्छइ । अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोभे खवेइ । नवं च कम्म न बंधइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ। दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थे गइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झई । विसोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ। -उ० २६.१. तथा देखिए-उ० २६.२-३. ३. सोऊण तस्स सोधम्म अणगारस्स अंतिए । महया संवेगनिव्वेयं समावन्नो नराहिवो ।। -उ० १८.१८. तथा देखिए-उ० २१.१०; २६.६०. For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ १६६ परिणामों से युक्त न रहेगा तो विषयों से विरक्ति और संवेगादिभाव कैसे हो सकते हैं ? इस तरह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन पांच गुणों से युक्त होता है। जब तक पांचों गुणों की प्राप्ति नहीं होगी तब तक जीवादि तथ्यों में श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती है। अतः सम्यग्दर्शन का लक्षण आस्तिक्य गुण-विशेष को लेकर तथ्यों में श्रद्धा किया गया है। आगे चलकर जैनदर्शन में यही श्रद्धापरक सम्यग्दर्शन का लक्षण व्यावहारिक-सम्यग्दर्शन कहलाने लगा तथा स्व और पर ( चेतन और अचेतन ) का भेदज्ञान निश्चय-सम्यग्दर्शन ( परमार्थ-सम्यग्दर्शन )। इस तरह अपेक्षा-भेद से सम्यग्दर्शन के लक्षण में भेद होने पर भी ग्रन्थ में स्वीकृत लक्षण में कोई बाधा नहीं पड़ती है क्योंकि अचेतन से चेतन का पृथक प्रतीतिरूप स्व-परभेदज्ञान सम्यग्दर्शन के आस्तिक्यगुण का ही रूप-विशेष है तथा स्व-परभेदज्ञान हुए बिना तथ्यों में श्रद्धा नहीं हो सकती है। जीवादि तथ्यों में श्रद्धा होने पर स्व-परभेदज्ञान स्वतः हो जाता है। अतः जोवादि तथ्यों में श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है तथा इनमें श्रद्धा न होना मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है। इस तरह यदि हम दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाना चाहें तो कह सकते हैं कि धर्म की ओर प्रवृत्त होना, सत्य का बोध होना, विषयों से विरक्ति होना, शरीर से पृथक् जीव (चेतन) के अस्तित्व का बोध होना आदि सब सम्यग्दर्शन है। इसीलिए ग्रन्थ में संवेगादि की प्राप्ति को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अर्थ में प्रयोग किया गया है। सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग : सम्यग्दर्शन निम्नोक्त आठ विशेष बातोंपर निर्भर करता है जो सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग कहलाते हैं । उन आठ अङ्गों के नाम ये हैं : २ १. छहढाला ३.१-३. २. निस्संकिय-निक्कंखिय-निव्वितिगिच्छा अमूढदिठी य । उववूह-थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥ -उ० २८.३१. विशेष के लिए देखिए-पुरुषार्थसिद्ध युपाय, श्लोक २३-३०; समीचीन धर्मशास्त्र, श्लोक ११-१८,२१. For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] उतराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. निःशंकित (तत्त्वों में किसी प्रकार की शङ्का न होना), २. निःकांक्षित (सांसारिक विषय-भोगों की इच्छा न करना), ३. निविचिकित्सा (धर्म के फल में सन्देह न करना), ४. अमूढ़दृष्टि (नाना प्रकार के मत-मतान्तरों को देखकर भी तथ्यों में अविश्वास न करना अर्थात मूढता को प्राप्त न होकर धर्म में श्रद्धा को दृढ़ बनाए रखना), ५. उपवहा' (गुणी पुरुषों की प्रशंसा करना), ६. स्थिरीकरण २ (धर्म से पतित होने वाले को सन्मार्ग में दढ़ करना), ७. वात्सल्य (सहधर्मियों से प्रेमभाव रखना) और ८. प्रभावना (धर्म के प्रचार एवं उन्नति के लिए प्रयत्न करना)। इस तरह इन आठ अङ्गों में प्रथम चार निषेधात्मक हैं और अन्य चार विधानात्मक हैं। सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए ग्रन्थ में इनके अतिरिक्त तीन अन्य गुण भी आवश्यक बतलाए हैं. : १. जीवादि तथ्यों का पुन. पुनः अनुचिन्तन करना, २. परमार्थदर्शी महापुरुषों की सेवा करना और ३. सन्मार्ग से पतित एवं मिथ्या उपदेश देने वाले मिथ्यादृष्टियों के संपर्क का त्याग करना। - इन गुणों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के विघातक जितने भी दोष संभव हो सकते हैं उन सबका त्याग भी जरूरी है। ग्रन्थ में सम्यक्त्व के विघातक ऐसे कुछ दोषों का कथन भी किया गया है जिनका त्याग करना आवश्यक है। जैसे-मन से, वचन से एवं १. 'उपवृहा' को 'उपगूहन' भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-अपने गुणों और गुरु आदि के दुर्गुणों को प्रकट न करना । -समीचीन धर्मशास्त्र, श्लोक १५. २. जैसे राजीमती ने रथनेमी को धर्म में स्थिर किया था। देखिए-परिशिष्ट २. ३. परमत्थसंथवो वा सुदिठ्ठपरमत्थसेवणं वावि । बावन्नकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ --उ० २८.२८. ४. दंडाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियः ।। जे मिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ।। -उ० ३१.४. तथा देखिए-उ० १६.६०,६२; २७.६ ; ३०.३,३१.१०, For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २०१ काया से दूसरों को पीड़ित करने के कारण तीन प्रकार का दण्ड (Hurtful acts); माया (कुटिलता), निदान (पुण्यकर्म की फलाभिलाषा) और मिथ्यात्व ये तीन शल्य (Delusive acts); धन-सम्पत्ति या ऋद्धि आदि की प्राप्ति का घमण्ड, रसना इन्द्रिय की संतुष्टि का घमण्ड और सुख-प्राप्ति (साता) का घमण्ड ये तीन गौरव (Conceited acts) तथा जाति, कुल, सौन्दर्य, शक्ति, लाभ (धनादि की प्राप्ति), श्रुतज्ञान, ऐश्वर्य और तपस्या ये आठ प्रकार के मद (Pride)। इन १७ प्रकार के दोषों में से तीन प्रकार के गौरव तथा आठ प्रकार के मद अहंकाररूप हैं। तीन प्रकार के दण्ड क्रोध-कषायरूप और तीन प्रकार के शल्य माया तथा लोभ-कषायरूप हैं। अतः सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए इन दोषरूप कषायों का त्याग आवश्यक है। सम्यग्दर्शन के भेद : ___ सामान्यतया कर्म-सिद्धान्त के अनुसार सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति दर्शनमोहनीय कर्म के उदय (फलोन्मुख) में न होने से (क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से) एक ही प्रकार से होती - है। उत्पत्ति में निमित्तकारण की अपेक्षा से ग्रन्थ में सम्यक्त्व के जिन १० प्रकारों को गिनाया गया है वे अधोलिखित हैं: ... १. निसर्गरुचि-स्वतः उत्पन्न । गुरु आदि के उपदेश के बिना ही जाति-स्मरण आदि के होने पर स्वतः जीवादि तथ्यों में श्रद्धा होना कि ये वैसे ही हैं जैसे जिनेन्द्र भगवान् ने देखे हैं, अन्यथा नहीं हैं। १. निसग्गुवएसरुई आणाई सुत्त बीयरुइमेव । अभिगम वित्थाररुई किरिया-संखेव धम्मरुई ।। -उ० २८.१६. २. भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च । सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो । जो जिणदिळें भावे च उविहे सहहाइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति य स निसगाइ त्ति नायव्वो । -3० २८.१७-१८. For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २. उपदेशरुचि-गुरु आदि के उपदेश से जीवादि तथ्यों में श्रद्धा होना।' इसकी उत्पत्ति में परोपदेश निमित्तकारण है। ३. आज्ञारुचि-गुरु आदि के आदेश (आज्ञा) से तथ्यों में श्रद्धा करना अर्थात गुरु ने ऐसा कहा है अतः सत्य है, ऐसी श्रद्धा होना।२ उपदेशरुचि में गुरु के उपदेश की प्रधानता रहती है और आज्ञारुचि में गुरु के आदेश की प्रधानता रहती है। उपदेशरुचि में गुरु तथ्यों को सिर्फ समझाता है और आज्ञारुचि में आदेश देता है कि तुम ऐसी श्रद्धा करो । यही दोनों में भेद है। ... ४. सूत्ररुचि-'सूत्र' शब्द का अर्थ है-अंग या अंगबाह्य जैनआगम सूत्र-ग्रन्थ । अतः सूत्र-ग्रन्थों के अध्ययन से जीवादि तथ्यों में श्रद्धा होना सूत्ररुचि है। ५. बीजरुचि-जो सम्यग्दर्शन एक पद-ज्ञान से अनेक पदार्थ. ज्ञानों में फैल जाता है उसे बीजरुचि कहते हैं। इस प्रकार यो हि जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भतान् जीवादीन् पदार्थान् श्रद्दधाति स निसर्गरुचिरिति भावः । -स्थानाङ्गसूत्र (१०.७५१) वृत्ति, पृ० ४७७. १. एए चेव उ भावे उवइठे जो सद्दहई । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ ति नायव्यो ।। -उ० २८.१६. २. रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अव गयं होइ ।, आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम ।। -उ० २८.२० जो हे उमयाणतो आणाए रोयए पवयणं तु । एमेव नन्नहत्ति य एसो आणारुई नाम ।। --प्रज्ञापनासूत्र, १.७४.५ (पृ० १७६). ३. जो सुत्तमहिज्जतो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो ॥ -उ० २८.२१. ४. एगेण अणेगाई पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं । उदए व्व तेल्लबिंदु सो बीयरुइ त्ति नायव्यो । -उ०२८.२२. For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २०३ के सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए अंग और अंगबाह्य आगम ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ती है अपितु जल में डाली गई बीजरूप तेल की एक बूंद की तरह थोड़े से ही पदार्थ - ज्ञान से यह उत्पन्न होकर सर्वत्र फैल जाता है । ६. अभिगमरुचि - अंग और अंगबाह्य सूत्र-ग्रन्थों के अर्थज्ञान से उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दर्शन ।' सूत्ररुचि सम्यग्दर्शन में अर्थ - ज्ञान अपेक्षित नहीं है जबकि अभिगमरुचि में सूत्र - ग्रन्थों का अर्थज्ञान भी अपेक्षित है । यही इन दोनों में भेद है । ७. विस्ताररुचि - ज्ञान के सभी स्रोतों के द्वारा जीवादि द्रव्यों के समझने पर उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दर्शन | 3 इस तरह यह विस्तार के साथ जीवादि द्रव्यों के समझने के बाद उत्पन्न होता है । अत: अभिगमरुचि की अपेक्षा यह अधिक विलम्ब से होता है । यहीं इन दोनों में भेद है । ८. क्रियारुचि - रत्नत्रयसम्बन्धी धार्मिक क्रियाओं को करते रहने से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसे 'क्रियारुचि' कहते हैं । कभी-कभी ऐसा होता है कि व्यक्ति परम्परावश या किसी अन्य निमित्तवश धार्मिक क्रियाओं को करता रहता है परन्तु उसकी १. सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जेण अत्थओ दिट्ठ । एक्कारस अंगाई पइण्णगं दिठिवाओ य ।। - उ० २८.२३. २. ज्ञान के मुख्य दो स्रोत हैं- प्रमाण और नय । वस्तु के सकलदेश को विषय करने वाला 'प्रमाण' तथा एकदेश को विषय करने वाला 'नय' कहलाता है । देखिए - त० सू० १.६. ३. दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा । सव्वाहि नयविहीहि वित्थाररुइ त्ति नायव्वो । - उ० २८.२४. ४. दंसणनाणचरिते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु । ataforभाव सो खलु किरियारुई नाम || - उ० २८.२५. For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन श्रद्धा दृढ़ नहीं होती है। धीरे-धीरे उन क्रियाओं को करते रहने पर एक दिन उसे दृढ़-श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है। अतः धार्मिक-क्रियाएँ करते रहने से इसकी उत्पत्ति होने के कारण इसे क्रियारुचि कहा गया है। ____६. संक्षेपरुचि-नाना प्रकार के मतवादों में न पड़कर जैनप्रवचन में श्रद्धा करना संक्षेपरुचि है।' बीजरुचि में संक्षेप से विस्तार की ओर प्रवृत्ति होती है और संक्षेपरुचि में विस्तार नहीं होता है क्योंकि संक्षेपरु चिवाला न तो नाना प्रकार के मतवादों में पड़ता है और न जिन-प्रवचन में पाण्डित्य ही प्राप्त करता है जबकि बीजरुचिवाला शीघ्र ही पाण्डित्य को प्राप्त कर लेता है। यही दोनों में अन्तर है। १०. धर्मरुचि-जिन-प्रणीत धर्म में श्रद्धा करना धर्मरुचि है। इसकी उत्पत्ति धार्मिक विश्वास से होती है ।२ क्रियारुचि में धार्मिक क्रियाओं की प्रधानता है और धर्मरुचि में धार्मिक भावना की प्रधानता है । यही दोनों में भेद है। उपर्युक्त १० प्रकार के सम्यक्त्व के भेदों को देखने से ज्ञात होता है कि ये सभी भेद उत्पत्ति की निमित्तकारणता को लेकर किए गये हैं। इनके साथ जो 'रुचि' शब्द जोड़ा गया है वह श्रद्धापरक है क्योंकि सम्यग्दर्शन के जो ये १० भेद किए गए हैं वे यह बतलाते हैं कि निसर्गादि की विशेषता को लिए हए जीवादि तथ्यों में रुचिरूप सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। स्थानाङ्ग और प्रज्ञापना इन दो सूत्र-ग्रन्थों में भी सम्यग्दर्शन के इन १० भेदों का इसी प्रकार से उल्लेख मिलता है। परन्तु १. अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्यो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ।। -उ० २८.२६. २. जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । सहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ ति नायव्वो ॥ -उ० २८.२७. ३. देखिए-पृ० २० १, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३: रत्नत्रय [ २०५ वहाँ पर सामान्य सम्यग्दर्शन के ये भेद नहीं गिनाए हैं अपितु सम्यग्दर्शन के धारक सम्यग्दृष्टि के प्रथमतः 'सराग' और 'वीतराग' के भेद से दो भेद करके सराग-सम्यग्दृष्टि के ये भेद गिनाए गए हैं।' इसके अतिरिक्ति इन १० भेदों का व्याख्यान करते समय स्थानाङ्ग-सूत्र के वत्तिकार श्री अभयदेवसूरि तथा प्रज्ञापना-सूत्र के रचयिता श्री आर्यश्याम उत्तराध्ययन की गाथाओं को ज्यों की त्यों उद्धृत करते हैं । गुणभद्ररचित आत्मानुशासन में भी सम्यक्त्व के इन १० भेदों का उल्लेख मिलता है परन्तु वहाँ पर उनके साथ रुचि शब्द नहीं जोड़ा गया है तथा उनके नाम एवं क्रम में भी कुछ अन्तर है। आत्मानुशासन के हिन्दी टीकाकार पं० वंशीधर ने इन भेदों का आधार न केवल उत्पत्ति की निमित्तकारणता को स्वीकार किया है अपितु स्वरूप की हीनाधिकता को भी कारण बतलाया है। परन्तु याकोबी ने ग्रन्थोक्त सभी भेदों को उत्पत्तिमूलक ही माना है।५।। निमित्तकारण की विविधता के कारण यद्यपि सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हो सकते हैं तथापि उत्पत्ति के प्रति निमित्तकारण की अपेक्षा और अनपेक्षा की दृष्टि से संक्षेप में इन्हें दो भागों में बाँटा १. दसविध सरागसम्मइंसणे पन्नत्ते, तं जहानिसग्गुवतेसरुई आणरुती सुत्त बीजरुतिमेव । अभिगम वित्थाररुती किरिया सखेव धम्मरुती ॥ -स्थानाङ्गसूत्र १०.७५१ (पृ० ४७६). से किं तं सरागदंसणारिया ? सरागदंसणारिया दसविहा पन्नत्ता । तं जहा-निसग्गुव० । -प्रज्ञापना, पद १, सूत्र ७४, पृ. १७८. २. वही। ३. आज्ञामार्ग समुद्भवमुपदेशात् सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्ताराभ्यां भवमवपरमावादिगाढे च ॥ -आत्मानुशासन, श्लोक ११. तथा देखिए-वही, श्लोक १२-१४. ४. आत्मानुशासन, पृ० १८. ५. से बु० ई०, पृ० १५४. For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन जा सकता है, जैसा कि सम्यक्त्व के लक्षण से भी स्पष्ट है १. स्वत: उत्पन्न होने वाला और २. पर के निमित्त से उत्पन्न होने वाला । तत्त्वार्थ सूत्र में भी ऐसा ही कहा है । यदि उपर्युक्त १० भेदों को इन दो भागों में विभक्त किया जाए तो निसर्गरुचि को छोड़कर शेष सभी पर - सापेक्ष हैं । इसके अतिरिक्त आवरक कर्मों के क्षय, उपशम एवं क्षयोपशम (मिश्र) के भेद से सम्यग्दर्शन के अन्य तीन भेद भी सम्भव हैं । 3 महत्त्व - यह सम्यग्दर्शन धर्म का मूलाधार है । इसके अभाव में ज्ञान और चारित्र आधारहीन हैं । यद्यपि यह सत्य है कि ज्ञान और चारित्र में वृद्धि होने पर सम्यग्दर्शन में वृद्धि होती है परन्तु ज्ञान और चारित्र में सम्यक्पना तभी संभव है जब सम्यग्दर्शन हो । अतः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को ग्रन्थ में 'बोधिलाभ' शब्द से भी कहा गया है । इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर जीव मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो जाता है और धीरे-धीरे ज्ञान और चारित्र की पूर्णता को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । " सम्यग्दर्शन का इतना महत्त्व होने के ही कारण ग्रन्थ के २६ वें अध्ययन का नाम 'सम्यक्त्व - पराक्रम' रखा गया है जबकि उसमें सम्यक्त्व १. देखिए - पृ० १७, पा० टि०२. २. तन्निसर्गादधिगमाद्वा । - त० सू० १ ३. ३. कर्मणां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमतस्तथा । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं I - यशस्तिलक चम्पू, पृ० ३२३. ४. सम्मद्दंसणरत्ता''''''तेसि सुलहा भवे बोही । - उ० ३६.२५६. तथा देखिए - उ० ३६. २५८-२६२. सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ -ugyfa 4.08. ५. वही; तथा पृ० १६८, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २०७ के साथ ज्ञान और चारित्र का भी वर्णन किया गया है। परवर्ती जैन-साहित्य में इसके महत्त्व की काफी चर्चा मिलती है।' सम्मज्ञान (सन्मज्ञान) सम्यग्ज्ञान का अर्थ है-सत्यज्ञान । यहाँ सत्यज्ञान से तात्पर्य घट-पटादि सांसारिक वस्तुओं को जानना मात्र नहीं है अपितु मोक्षप्राप्ति में सहायक है तथ्यों का ज्ञान अभिप्रेत है अर्थात् सम्यग्दर्शन से जिन ह तथ्यों पर विश्वास किया गया था उनको विधिवत जानना। इसके अतिरिक्त जितना भी सांसारिक फलाभिलाषा वाला ज्ञान है वह सब मिथ्या है क्योंकि वह दुःख-निवृत्तिरूप मुक्ति के प्रति अनुपयोगी है। अतः 'स्त्री, पुत्र, धन आदि सुख के साधन हैं' ऐसा ज्ञान भी मिथ्या है। सत्यज्ञान वही है जो हमेशा रहे। ग्रन्थ में उल्लिखित सांसारिक विषयभोगों से सम्बन्धित २६ प्रकार के मिथ्याशास्त्रों (पापश्रुत-मिथ्याज्ञान को उत्पन्न करने १. देखिए- समीचीन धर्मशास्त्र, पृ० ३१-४१. २. देखिए-पृ० १८८, पा० टि० ४; उ० २८.५. ३. उनतीस प्रकार के मिथ्याशास्त्र (पापश्रुत) ये हैं : १. दिव्य-अट्टहासादि को बतलाने वाले, २. उल्कापात आदि का इष्टानिष्ट फल बतलाने वाले, ३. अन्तरिक्ष में होने वाले चन्द्रग्रहण आदि का फल बतलाने वाले, ४. अङ्गस्फुरण का शुभाशुभ फल बतलाने वाले, ५. स्वरों का फल बतलाने वाले, ६. स्त्री-पुरुषों के लक्षणों का शुभाशुभ फल बतलाने वाले, ७. तिल, माषा आदि का फल बतलाने वाले, ८. भूकम्प-विषयक शुभाशुभ फल बतलाने वाले । ये ८ प्रकार के शास्त्र ही मूल, टीका और भाष्य (सूत्र-वृत्ति-वार्तिक) के भेद से २४ प्रकार के हैं। २५. अर्थ और काम-भोग के उपायों को बतलाने वाले अर्थशास्त्र, कामसूत्र आदि, २६. रोहिणी आदि विद्याओं की सिद्धि बतलाने वाले, २७. मन्त्रादि से कार्यसिद्धि बतलाने वाले, २८. वशीकरण आदि योगविद्या को बतलाने वाले और २६. जैनेतर उपदेशकों द्वारा उपदिष्ट हिंसादिप्रधान शास्त्र । -उ० ने० वृ०, पृ० ३४६; आ० टी०, पृ० १४०२; श्रमणसूत्र, पृ० १९२; समवायाङ्ग, समवाय २६. For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन वाले) से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। इस तरह जो ज्ञान संसार के विषयसुखों की ओर ले जाता है वह मिथ्या है तथा जो मुक्ति की ओर अभिमुख करता है वह सत्य है। इसका कारण है कि सांसारिक विषयभोग व तज्जन्य सुख अनित्य व आभासमात्र (मिथ्या) हैं जबकि मुक्ति व जीवादि नवतथ्य त्रिकालसत्य हैं। ज्ञान के प्रमुख पाँच प्रकार : __ ज्ञान के आवरक पाँच प्रकार के कर्मों के स्वीकार करने से तत्तत् आवरक कर्मों के उदय में न रहने रूप पाँच प्रकार के ज्ञान स्वीकार किए गए हैं । जैसे : १. शास्त्रज्ञान (श्रुतज्ञान), २. इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान (आभिनिबोधिकज्ञान-मतिज्ञान), ३. कुछ सीमा को लिए हुए रूपी पदार्थ विषयक प्रत्यक्षात्मक दिव्यज्ञान (अवधिज्ञान), ४. दूसरे व्यक्ति के मन के विकल्पों में चिन्तनीय रूपीपदार्थ को जानने वाला रूपी-पदार्थविषयक प्रत्यक्षात्मक दिव्यज्ञान (मनःपर्यायज्ञान। और ५. त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों का पूर्ण व असीम प्रत्यक्षात्मक दिव्यज्ञान (केवलज्ञान)। ' इनमें अन्त के तीन ज्ञान क्रमशः उच्च, उच्चतर और उच्चतम दिव्यज्ञान की अवस्थाएँ हैं तथा इन तीनों ज्ञानों में इन्द्रियादि की सहायता आवश्यक नहीं होती है। यद्यपि ग्रन्थ में इनके स्वरूपादि का विशेष विचार नहीं किया गया है तथापि इनके विषय में कुछ संकेत अवश्य मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं : १. श्रुतज्ञान-इसका सामान्य अर्थ है- शब्दजन्य शास्त्रज्ञान । परन्तु सम्यक श्रुतज्ञान वही है जो जिनोपदिष्ट प्रामाणिक शास्त्रों से होता है। जिनोपदिष्ट प्रामाणिक ग्रन्थ अङ्ग (प्रधान) और अङ्गबाह्य (अप्रधान) के भेद से दो प्रकार के हैं। अतः श्रुतज्ञान भी जैनदर्शन में प्रथमतः दो प्रकार का माना गया है। अङ्ग १. पापसुयपसंगेसु -उ० ३१.१९. २. तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभि निबोहियं । ओहिनाणं तु तइयं मणनाणं च केवलं ।। -उ० २८. ४. . For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २०६ ' अङ्ग :-विषयक श्रुतज्ञान ग्रन्थों की संख्या १२ होने से भी १२ प्रकार का है तथा अङ्गबाह्य-ग्रन्थों की कोई सीमा नियत न होने से अङ्गबाह्य विषयक श्रुतज्ञान भी अनेक प्रकार का है ।' अङ्गग्रन्थों की प्रधानता होने से ग्रन्थ में समस्त श्रुतज्ञान को द्वादशाङ्ग का विस्तार बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त द्वादशाङ्ग के वेत्ता को 'बहुश्रुत' कहा गया है तथा 'बहुश्रुत' के महत्त्व को प्रकट करने के लिए ग्रन्थ में निम्नोक्त १६ दृष्टान्तों से उसकी प्रशंसा की गई है : 3 २ १. शंख में रखे हुए दूध की तरह अनिर्वचनीय शोभा-सम्पन्न, २. कम्बोजदेशोत्पन्न श्रेष्ठ अश्व की तरह कीर्ति - सम्पन्न, ३. श्रेष्ठ अश्व पर सवार सुभट की तरह अपराजेय, ४. हथिनियों से घिरे हुए साठ वर्ष के बलवान् हाथी की तरह अपने शिष्य परिवार से परिवृत्त, ५. तीक्ष्ण शृङ्ग ( सींग ) और उन्नत स्कन्धवाले बैल की तरह शोभा सम्पन्न, ६ तीक्ष्ण दंष्ट्रावाले प्रबल सिंह की तरह प्रधान, ७. शंख-चक्र-गदाधारी अप्रतिहत बलवान् योद्धा वासुदेव की तरह विजेता, ८. चौदह रत्नधारी व ऋद्धिधारी चक्रवर्ती राजा की तरह श्रेष्ठ, ६ हजार नेत्रों वाले वज्रपाणि देवाधिपति इन्द्र की तरह श्रेष्ठ, १०. अन्धकारविनाशक उदीयमान तेजस्वी सूर्य की तरह दीप्ति-सम्पन्न, ११. नक्षत्रों से घिरे हुए पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह शोभा सम्पन्न १२. अनेक प्रकार के धन-धान्य से भरे हुए सुरक्षित कोष्ठागार की तरह परिपूर्ण, १३. वृक्षों में श्रेष्ठ सुदर्शन नामधारी जम्बूवृक्ष की तरह श्रेष्ठ, १४. नीलवंत १. श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् । - त० सू० १.२०. तथा देखिए - पृ० २०२, पा० टि० ३; पृ० २०३, पा०टि० १० २. देखिए - पृ० ३, पा० टि० २. ३. जहा संखम्मि पयं निहियं दुहओ वि विराय | एवं बहुस्सु भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुयं ॥ समुद्द गंभीरसमा दुरासया अचक्किया केणइ दुप्पहंसया । सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया || - उ० ११. १५-३१. For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पर्वत से निकली हुई व समुद्र की ओर जानेवाली नदियों में श्रेष्ठ 'शीता' नदी की तरह शोभा-सम्पन्न, १५ नाना औषधियों से देदीप्यमान पर्वतों में श्रेष्ठ अतिविस्तृत 'सुमेरु' (मन्दार) पर्वत की तरह प्रधान और १६. अक्षय जल व नाना रत्नों से भरे हुए 'स्वयम्भू रमण' समुद्र की तरह गम्भीर । ये सभी दृष्टान्त साभिप्राय विशेषणों से युक्त हैं जिनसे श्रुतज्ञानी के स्वाभाविक गुणों पर प्रकाश पड़ता है। जैसे' श्रुतज्ञानी समुद्र की तरह गम्भीर, प्रतिवादियों से अपराजेय, अतिरस्कृत, विस्तृत श्रतज्ञान से पूर्ण, जीवों का रक्षक, कर्म-क्षयकर्ता, उत्तम अर्थ की गवेषणा करने वाला और स्व-पर को मूक्ति प्राप्त कराने वाला होता है। इसी तरह श्रुतज्ञानी के अन्य अनेक गुण स्वतः समझे जा सकते हैं। सत्यज्ञान की प्राप्ति में शास्त्रों का स्थान प्रमुख होने से श्रुतज्ञानी की बहुत्र प्रशंसा करके उसका फल मूक्ति बतलाया गया है । २. आभिनिबोधिकज्ञान-चक्ष आदि इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान 'आभिनिबोधिक' कहलाता है । जैनदर्शन में इसका प्रचलित नाम 'मतिज्ञान' है क्योंकि यह इन्द्रियादि की सहायता से होता है। तत्त्वार्थसूत्र में मति (वर्तमान को विषय करने वाली), स्मृति (अतीत-विषयक अर्थात पूर्व में अनुभव की गई वस्तु को स्मरण कराने वाली), संज्ञा (अतीत और वर्तमान को विषय करनेवाली अर्थात 'यह वही है' इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञानरूप), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (सामान्यज्ञानरूप अनुमान) को एकार्थवाचक बतलाया है क्योंकि इन सब ज्ञानों की उत्पत्ति में इन्द्रियादि की सहायता रहती है। इसी प्रकार आवश्यक. नियुक्ति में भी अभिनिबोध के ईहा (प्रथम क्षण देखे गए पदार्थ के विषय में विशेष जानने की चेष्टारूप ज्ञान) आदि कई पर्याय १. वही; तथा उ० ११. ३२; २६.२४,५६; १०.१८; ३. १, २०, २. वही (उ० ११.३१; २६.५.६) । ३. मतिः स्मृति संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । -त० सू० १.१३. For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [२११ वाची नाम मिलते हैं।' इससे प्रतीत होता है कि इन्द्रिय और मन की सहायता से होनेवाला समस्त ज्ञान आभिनिबोधिक ही है। दिगम्बर२ और श्वेताम्बर प्राचीन ग्रन्थों में मतिज्ञान' के अर्थ में 'आभिनिबोधिक' नाम मिलने से प्रतीत होता है कि इसका प्राचीन प्रचलित नाम आभिनिबोधिक ही था। इस ज्ञान के विषय में एक अन्य अन्तर दृष्टिगोचर होता है, वह यह कि सामान्यरूप से जैनदर्शन में सर्वत्र शब्दज्ञान के पूर्व इन्द्रियज्ञान (आभिनिबोधिकमतिज्ञान) को स्वीकार किया गया है जबकि प्रकृत ग्रन्थ में इन्द्रियज्ञान के पूर्व शब्दज्ञान को गिनाया गया है। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि 'शास्त्रज्ञान' का महत्त्व प्रकट करने के लिए प्रकृत ग्रन्थ में शास्त्रज्ञान को पहले गिनाया गया हो और बाद में ज्ञान की उत्तरोत्तर श्रेष्ठता के आधार से क्रम निर्धारित किया गया हो। इसी प्रकार इनके आवरक कर्मों के नाम व क्रम में भी अन्तर है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जैनदर्शन में श्रुतज्ञान और आभिनिबोधिकज्ञान की उत्पत्ति पर-सापेक्ष (शास्त्र व इन्द्रियादि सापेक्ष) होने से इन दोनों को 'परोक्षज्ञान' (अप्रत्यक्ष माना गया है तथा बाद के तीन ज्ञानों को साक्षात् आत्मा से ही प्रकट होने के कारण (पर-सापेक्ष न होने से) प्रत्यक्ष स्वीकार किया गया है। वर्तमान में व्यवहार को चलाने के १. ईहा अपोह वीमंसा मग्गणा य गवेसणा। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिणिबोहियं ।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२. २. भावपमाणं पंचविहं, आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि। धवलाटीका-पट् खण्डागम, पुस्तक १ (१.१.१), पृ० ८०. आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि य तिष्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ॥ -पञ्चास्तिकाय, गाथा ४१. ३. श्रुतं मतिपूर्वम् । -त० सू० १.२०. ४. आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । -त० सू० १.११-१२. For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन लिए इन्द्रियज्ञान को सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष कहा जाने लगा है और बाद के तीन ज्ञानों को परमार्थ (मुख्य) प्रत्यक्ष । इतना विशेष है कि स्मृति आदि सभी आभिनिबोधिकज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं माना जाता है अपितु इन्द्रिय-मनोनिमित्तक वर्तमान-विषयक ज्ञान (मतिज्ञान) को ही सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष माना जाता है और शेष अतीतादिविषयक स्मृति आदि सभी ज्ञानों को परोक्ष ही माना जाता है। ३. अवधिज्ञान-अवधि का अर्थ है-सीमा। अतः इन्द्रियादि की सहायता के बिना कुछ सीमा को लिए हुए जो रूपी-पदार्थ के विषय में अन्त:साक्ष्यरूप ज्ञान होता है वह 'अवधिज्ञान' कहलाता है।' इस ज्ञान में अरूपी द्रव्यों का साक्षात्कार नहीं होता है। यह दिव्यज्ञान की प्रथम अवस्था है। ४. मनःपर्यायज्ञान-दूसरों के मनोगत विचारों को जानने की शक्ति के कारण इसे 'मनःपर्यायज्ञान' कहा जाता है। यह दिव्यज्ञान १. तत्प्रत्यक्ष द्विविधम्-सांव्यवहारिकं पारमाथिकं चेति । तत्र देशतो विशदं सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् ।। -न्यायदीपिका, पृ० ३१. विशदः प्रत्यक्षम् । प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् । तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं केवलम् । तत्तारतम्येऽवधिमनःपर्यायो च। ..."इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम् । -प्रमाणमीमांसा १.१.१३-२०. २. अविशदः परोक्षम् । स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानागमास्तद्विधयः । -प्रमाणमीमांसा १.२.१-२. ३. रूपिष्ववधेः । -त० सू० १.२७. भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् । क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् । -त० सू० १. २१-२२. For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २१३ की दूसरी अवस्था है और अवधिज्ञान से श्रेष्ठ है । इस ज्ञान की उत्पत्ति भावों की विशेष निर्मलता और तपस्या आदि के प्रभाव से होती है । ' सरल और जटिल इन दो प्रकार के विचारों को जानने के कारण तत्त्वार्थसूत्र में इस ज्ञान के दो भेद किये गए हैं। 3 इतना विशेष है कि इस ज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्तनीय रूपी द्रव्यों का ही बोध होता है, अरूपी का नहीं | 3 ५. केवलज्ञान - त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होना । ४ यह दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है । इस ज्ञान के उत्पन्न होने पर त्रिकालवर्ती ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं बचता है जो इस ज्ञान का विषय न होता हो । यह पूर्ण एवं असीम ज्ञान है। इससे श्रेष्ठ कोई अन्य ज्ञान न होने के कारण ग्रन्थ में इसे अनुत्तर, अनन्त, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, आवरण-रहित, अन्धकार - रहित, विशुद्ध तथा लोकालोक-प्रकाशक बतलाया गया है ।" इसके अतिरिक्त इस ज्ञान के धारणकरनेवाले को केवली, केवलज्ञानी तथा सर्वज्ञ कहा गया है । इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर जीव उसी प्रकार सुशोभित होता है जिस प्रकार आकाश में सूर्य । १. विशुद्धिक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽधिमनः पर्यययोः । - त० सू० १.२५. २. ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । - त० सू० १.२३-२४. ३. देखिए - पृ० १५५, पाटि० १. ४. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । - त० सू० १.२६. ५. तओ पच्छा अणुत्तरं, अनंतं, कसिणं, पडिवुण्णं, निरावरणं, वितिमिरं, विसुद्धं लोगालोगप्पभावं केवलवरनाणदंसणं समुप्पादेइ | - उ० २६.७१. ६. उग्गं तवं चरित्ताणं जाया दोणि वि केवली । - उ० २२. ५०. तथा देखिए - उ० २३.१ आदि । ७. स णाण नाणो गए महेसी अगुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । • अणुत्तरे नाणघरे जसंसी ओभासई सूरि एवं लिक्खे ॥ — उ० २१.२३. For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इस ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर जीव शेष कर्मों को शीघ्र नष्ट करके नियम से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।' इस तरह इन पाँच प्रकार के ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान इन्द्रियादि की सहायता से उत्पन्न होते हैं और ये किसी न किसी रूप में प्रायः सभी जीवों में पाए जाते हैं । २ यदि ऐसा न माना जाएगा तो जीव में जीवत्व ही न रहेगा क्योंकि चेतना को जीव का लक्षण स्वीकार किया गया है और चेतना दर्शन व ज्ञानरूप स्वीकार की गई है। शेष तीन ज्ञान दिव्यज्ञान की उच्च , उच्चतर और उच्चतम अवस्थाएँ हैं। इनकी प्राप्ति तपस्या आदि के प्रभाव से किन्हीं-किन्हीं को होती है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जैनदर्शन में इन पाँचों ज्ञानों में ही प्रमाणता स्वीकार की गई है, नैयायिकों की तरह इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष में नहीं। गुरु-शिष्यसम्बन्ध : ज्ञानप्राप्ति के प्रमुख साधन शास्त्र थे और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु के समीप जाना पड़ता था। गुरु प्रायः अरण्य में रहते थे और वे सांसारिक विषय-भोगों से विरक्त साध हुआ करते थे। विद्यार्थी उनके समीप में रहकर उनकी आज्ञानुसार अध्ययन किया करते थे। उन विद्यार्थियों में कुछ विनम्र (विनीत) और कुछ अविनम्र (अविनीत) होते थे। . १. जाव सजोगी भवइ, ताव इरियावहियं कम्मं निबंधइ, सुहफरिसं दुसमय ठिइयं । तं जहा-पढमसमये बद्धं, विइयसमए वेइयं, तइयसमये निज्जिण्णं, तं बद्धं पुठं उदीरियं वेइयं निज्जिण्णं सेयाले य अकम्म चावि भवइ । -उ० २६.७१. तथा देखिए-उ० २६.७२. २. एकादीनी भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्यः । -त. सू० १.३१. तथा देखिए-सर्वार्थसिद्धि १.३१, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ४७४-४७६. ३. तत्प्रमाणे। -त० सू० १.१०. तथा देखिए-सर्वार्थसिद्धि १.१०. For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २१५ विनीत (उत्तम) विद्यार्थी के गुण-ग्रन्थ में उत्तम विद्यार्थी को विनीत कहा गया है और विनीत विद्यार्थी के निम्नोक्त १५ गुण आवश्यक बतलाए हैं : १. हर प्रकार से नम्र, २. चपलता से रहित, ३. छल-कपट से रहित, ४. कौतूहल से रहित, ५. अल्पभाषी, ६. अतिक्रोध को अधिक समय तक न रखना, ७. मित्रता का व्यवहार करना, ८. ज्ञान प्राप्त करके घमण्ड न करना, ६. दूसरों के दोषों को प्रकट न करना, १०. मित्रों पर क्रोध न करना, ११. शत्र के प्रति परोक्ष में भी कल्याण की भावना रखना, १२. कलह व हिंसा न करना, १३. ज्ञान के विषय में जागरूक रहना, १४. लज्जाशील होना और १५. सहनशील होना। ___ इन १५ गुणों के समान ही ग्रन्थ में गुरु के प्रति शिष्य के कुछ अन्य कर्तव्यों का भी उल्लेख मिलता है जिनसे उत्तम व विनीत विद्यार्थी के गुणों पर प्रकाश पड़ता है। वे कर्तव्य इस प्रकार हैं : १ बिना पूछे व्यर्थ न बोलना (अल्पभाषी)२, २. सत्य बोलना (क्रोधादि के वशीभूत होकर कुछ छिपाना नहीं)3, ३. गुरु के प्रिय एवं अप्रिय वचनों को कल्याणकारी समझते हुए उन्हें चुपचाप सुनना तथा किसी प्रकार भी उन्हें क्रोधित न करते हुए क्षमा-याचना करना, ४. गुरु के दोषों का अन्वेषण न करना", ५. गुरु की १. अह पन्नरसहि ठाणेहिं सुविणीए त्ति वच्चई । नीयावत्ती अचवले अमाइ अकुऊहले ।। -उ०११.१०. तथा देखिए-उ०११. ११-१३. २. नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियं वए ॥ कोहं असच्चं कुम्वेज्जा धारेज्जा पियमप्पियं । -उ० १.१४. तथा देखिए-उ० १.६,११,३६-४१. ३. वही। ४. वही। ५. बुद्धोवघाई न सिया न सिया तोत्तगवेसए । -उ०१.४०. For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन १ ८. आज्ञा का गुप्त या प्रकटरूप से कभी भी उल्लंघन न करके उनके कथनानुसार उसी प्रकार प्रवृत्ति करना जिस प्रकार एक सुशिक्षित घोड़ा चाबुक के इशारे से प्रवृत्ति करता है, ' ६. गुरु के द्वारा प्रेरित किए बिना ही प्रेरित किए हुए की तरह गुरु के भावों को जानकर सदा सुन्दर कार्य करनार, ७. गुरु की आज्ञा के बिना कुछ भी कार्य न करना, गुरु के वचनों को अनसुना न करके बुलाए जाने पर उत्तर देना (मौन न रहना ), ६. गुरु. उपदेश को एकाग्रचित्त से सुनकर अर्थयुक्त बातों को ग्रहण करते हुए निरर्थक बातों को छोड़ देना ५, १०. किसी प्रकार का सन्देह होने पर विनम्रतापूर्वक गुरु से स्पष्ट कहना ६, ११. गुरु की सेवा करते हुए गुरु पर आए हुए विघ्नों का निवारण करना ७, १२. पाँच प्रकार के विनय, पाँच प्रकार के स्वाध्याय और दस प्रकार की ४ के १. पडिणीयं च बुद्धाणं वाया अदुव कम्मुणा । आवी वा जइ वा रहस्से नेव कुज्जा कयाइवि || मा गलियसेव कसं वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दट्ठमाइण्णे पावगं परिवज्जए || तथा देखिए - उ० २६.१०. २. वित्ते अचोइए निच्चं खिप्पं हवइ सुचोइए । जहोवइट्ठ सुकयं किच्चाई कुब्वई सया || - उ०.१.१७. - उ० १.१२. ३. पुच्छिज्ज पंजलिउडो कि कायव्वं मए इह । -उ० १.४४. ६. उ० २३.१३-१४; २५.१३. ७. उ० १२.१६,२४. ४. आपरिएहि वाहितो तुसिणीओ न कयाइवि । - उ० २६.६. तथा देखिए - उ० १.२१. ५. अट्टजुत्ताणि सिक्खिज्जा निरद्वाणि उ वज्जए । उ० १.२०. तथा देखिए - उ० २०.१७,३८; ३०.१,४. - उ० १.८. For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रये [ २१७ वैयावत्य में यत्नवान रहना', १३. दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनकर अभिमान न करते हुए और अधिक नम्रीभूत हो जानाजैसे नमिराजर्षि इन्द्र के द्वारा स्तुति किए जाने पर और अधिक नम्रीभूत हो गये २, “१४. क्षुद्र -जनों का संसर्ग व उनके साथ हास्यादि क्रीड़ा न करना, १५. गुरु की अपेक्षा निम्न आसन ग्रहण करना-गुरु की बराबरी से, आगे, दृष्टि से ओझल होकर, अंग स्पर्श करते हुए, अधिक समीप, पैर फैलाकर, दोनों भुजाओं को जांघों पर रखकर, जांघों पर वस्त्र लपेटकर, अति समीप, अति दूर एवं अन्य इसी प्रकार के अविनय-सूचक आसनों से गुरु के पास न बैठना, इसके अतिरिक्त जिस आसन पर वह बैठे वह चूं-चूं करने वाला, चलायमान एवं अस्थिर न हो", १६. आसन पर बैठे हुए निष्प्रयोजन न उठना, हाथ-पैर न चलाना तथा उत्तरप्रत्युत्तर न करना अपितु आवश्यकता होने पर उठकर के गुरु से वार्तालाप करना६, १७. शिक्षा-प्राप्ति के बाद उनके उपकार की कृतज्ञता को स्वीकार करते हुए विनयभाव से स्तुति करना आदि । १. उ० ३०.३२-३४. २. नमी नमेई अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ। -उ० ६.६१. ३. खडडेहिं सह सेसग्गिं हासं कीडं च वज्जए । -उ० १.६.. ४. न पक्खओ न पुरओ नैव किच्चाण पिट्रिओ । न जुंजे ऊरुणा ऊरु सयणे नो पडिस्सुणे ।। नेव पल्हत्थियं कुज्जा पक्खपिण्डं च संजए । पाए पसारिए वावि न चिठे गुरुणंतिए ॥ -उ० १.१८-१९. तथा देखिए-उ० २०.७. ५. आसणे उचिट्ठज्जा अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जप्पकुक्कुए ॥ -उ० १.३०. ६. वही। ७. उ० २०.५४-५६. For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन उपर्युक्त सभी गुणों का एकत्र समावेश करते हुए संक्षेप में ग्रन्थ में विनीत शिष्य का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-'गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला, उनके समीप रहनेवाला तथा उनके मनोगतभाव व कायचेष्टा (इङ्गिताकार) को जाननेवाला विनयी कहलाता है। अर्थात् गुरु के मनोगतभावों को जानकर नम्रभाव से सदाचार में प्रवृत्ति करते हुए अध्ययन करने वाला शिष्य विनयी कहलाता है। ___ अविनीत विद्यार्थी के दोष-जो विनीत शिष्य के गुणों से रहित है वह 'अविनयो' कहलाता है। अतः ग्रन्थ में अविनयी शिष्य का स्वरूप बतलाते हुए कहा है-- 'गुरु की आज्ञानुसार न चलनेवाला, उनके समीप न रहनेवाला, विपरीत आचरण करनेवाला तथा विवेकहीन (जागरूक न रहनेवाला) अविनयी कहलाता है।२ अर्थात् गुरु के हादिक-भावों को न जानकर उनके विपरीत आचरण करते हुए स्वच्छन्द विचरण करनेवाला अविनीत शिष्य कहलाता है। बहुश्रुत अध्ययन में अविनीत शिष्य के १४ दुगुण गिनाए हैं : १. बार-बार क्रोध करना, २. क्रोध को चिरस्थायी रखना, ३ मित्रता को त्यागना, ४. अपने ज्ञान का घमण्ड करना, ५. दूसरे के दोषों को खोजना और अपने दोषों को छिपाना, ६. मित्रों पर क्रोध करना, ७. प्रिय मित्र की परोक्ष में निन्दा १. आणानिद्दे सकरे गुरूगमुवबायक! रए । इंगियागारसंपन्ने से विणीए त्ति वुच्चई ।। -उ० १.२. २. आणाऽनिद्दे सकरे गुरूणमणववायकारए । अडिणीए असंबुद्धे सेविणीए ति वुच्चई ।। -उ० १.३. ३. अह चउद्दसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छइ ॥ पइन्नवाई दुहिले थद्धे लुद्धे अनिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते अविणीए त्ति वच्चई ।। '-उ० ११.६-६.. For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २१६ करना, ८. असम्बद्ध व अधिक बोलना, ६. द्रोह करना, १०. अभिमान करना, ११. लोभ करना, १२. इन्द्रियों को अनुशासन में न रखकर स्वच्छन्द आचरण करना, १३. सहपाठियों के साथ सहयोग न करना, १४. दूसरों का अप्रिय करना । इसी तरह अविनीत के और भी अनेक दुर्गुण हो सकते हैं । ग्रन्थ में अविनीत शिष्यों के इसी प्रकार के कुछ अन्य कार्यों का भी उल्लेख मिलता है जिनसे अविनीत शिष्य के स्वरूप पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । जैसे : १. गुरु के द्वारा धर्मोपदेश दिए जाने पर बीच में बोलना, उनके वचनों में दोष निकालना व प्रतिकुल आचरण करना,' २. विषय भोगों में निमग्न रहना, ३. चिरस्थायी क्रोध व अभिमान करना, ४. भिक्षा लाने में आलस्य करना, ५. भिक्षा माँगना अपमान-द्योतकं समझकर भिक्षा लेने नहीं जाना,२ ६. दुष्टवृषभ की तरह संयम में प्रवृत्ति न करना-जैसे कोई दुष्ट-वृषभ बैलगाड़ी में जोते जाने पर तथा गाड़ीवान द्वारा प्रेरित किए जाने पर भी आगे नहीं बढ़ता है तथा कभी समिला ( जुए के छोर पर लगी लकड़ी या बाँस की छोटी कील ) को तोड़ . देता है, कभी क्रोधित होकर गाड़ी को लेकर उत्पथ में भाग जाता है, कभी समीप में बैठ जाता है, कभी गिर पड़ता है, कभी सो जाता है, कभी मंडूक ( मेढ़क ) की तरह उछलताकदता है, कभी तरुण गाय के पीछे भाग जाता है, कभी मृत की तरह स्थिर हो जाता है, कभी पीछे को भागता है, कभी लगाम . १. सो वि अंतरमासिल्लो दोसमेव पकुव्वई । आयरियाणं तु वयणं पडिकूले इऽभिक्खण ।। -उ० २७.११. २. इड्ढीगारविए एगे एगेऽत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे एगे सुचिरकोहणे ॥ भिक्खालसिए एगे एगे ओमाणभीरुए । थड्वे एगे अणुसासम्मी हेऊहिं कारणहि य । -उ० २७.६-१०. For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन - तोड़ देता है और अपने मालिक ( गाड़ीवान ) को भी पीड़ित करता है वैसे ही अविनीत शिष्य गुरु के द्वारा संयम में प्रवत्ति के लिए प्रेरित किए जाने पर नाना प्रकार की कुचेष्टाएँ करते हुए गुरु को पीड़ित करता है,' ७. किसी कार्य के लिए आज्ञा देने पर नाना प्रकार के बहाने बनाना, जैसे-अमुक गहस्थ या गृहिणी मुझे पहचानती नहीं, वह मुझे अन्नादि नहीं देगी, वह घर पर नहीं होगी, वहां जाना बेकार है, यदि भेजना ही है तो किसी दूसरे को भेज दो, यदि किसी तरह जाना भी तो इधर-उधर घमकर वापिस आ जाना और पूछने पर बहाने बनाना अथवा राजाज्ञा की तरह अनिच्छापूर्वक म्रकूटि चढ़ाकर कार्य करना,२ ८. स्वादिष्ट अन्न को छोड़कर विष्टा को खाने वाले शूकर की तरह सदाचार को छोड़कर स्वच्छन्द विचरण में आनन्द मनाना' और ६. तैतीस प्रकार की अविनयभूत अनुशासनहीनताओं (आशातनाओं ) का आचरण करना । १. उ० २७.४.८; १.१२. २. न सा ममं वियाणाइ न वि सा मज्झ दाहिई। निगाया होहिई मन्ने साह अन्नोत्थ वज्ज उ ।। पेसिया पलिउंचंति ते परियंति समंतओ। रायवेटिं च मन्नंता करेंति भिउडि मुहे ॥ . -उ० २७.१२-१३. तथा देखिए-उ० २७.१४. ३. कणकुण्डगं चइत्ताणं विट्ठ भुंजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ताण दुस्सीले रमई मिए । -उ० १.५. ४. तैतीस प्रकार की आशातनाएँ (अयं सम्यक्त्व लाभं शातयति विनाश यति इत्याशातना) इस प्रकार हैं : १. गुरु के आगे-आगे चलना, २. गुरु की बराबरी से चलना, ३. गुरु के पीछे अविनयपूर्वक चलना, ४-६. चलने की तरह बैठने व खड़े होने से सम्बन्धित तीनतीन आशातनाएं, १०. यदि गुरु व शिष्य एक ही पात्र में जल लेकर कहीं बाहर गए हुए हों तो गुरु से पहले उस पात्र में से जल लेकर For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [२२१ विनीत और अविनीत विद्यार्थी का गुरु पर प्रभाव-जहां अविनीत शिष्य अपनी कुप्रवृत्तियों के कारण विनम्र और सरल स्वभावी गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं वहाँ विनीत शिष्य गुरु की इच्छा के अनुकल कार्य को शीघ्र व चतुरतापूर्वक करके आचमन करना, ११. बाहर से आकर गुरु से पहले ही ध्यान करने बैठ जाना, १२. गुरु से बात करने के लिए किसी के आने पर पहले स्वयं ही उससे बातचीत करना, १३. रात्रि को गुरु के बुलाने पर भी न बोलना, १४. अन्न-पानी लाकर पहले छोटों के सामने आलोचना करना, १५. अन्न-पानी लाकर पहले छोटों को दिखलाना, १६. अन्न-पानी की निमन्त्रणा पहले छोटों को करना व बाद में गुरु को करना, १७. गुरु से पूछे बिना किसी को सरस भोजन देना, १८. गुरु के साथ भोजन करने पर स्वयं जल्दी जल्दी व अच्छा-अच्छा आहार करना, १६. गुरु के बुलाने पर न बोलना, २०. बुलाने पर आसन पर बैठे हुए ही उत्तर देना, २१. आसन पर बैठे हुए ही यह कहना कि क्या कहते हो, २२. गुरु को 'त' शब्द से पुकारना, २३. गुरु के द्वारा किसी काम के करने को कहने पर उनसे कहना कि तुम ही कर लो, २४. गुरु के उपदेश को प्रसन्नचित्त से न सुनना, २५. गुरु के उपदेश में भेद पैदा करना, २६. कथा में छेद उत्पन्न करना, २७. गुरु को बुद्धि से न्यून दिखलाने के लिए सभा में उनके द्वारा प्रतिपादित विषय का विस्तृत कथन करना, २८. गुरु के आसन (शय्या-संस्तारक) आदि से पैर का स्पर्श हो जाने पर भी बिना क्षमा-याचना के चले जाना, - २६. गुरु के आसन पर बिना आज्ञा के बैठना, ३०. बिना आज्ञा के गुरु के आसन पर शयन करना, ३१. गुरु से ऊँचे आसन पर बैठना, ३२. बड़ों की शय्या पर खड़े रहना व बैठना और ३३. गुरु के बराबर आसन करना। इन आशातनाओं के नाम व क्रम में कुछ अन्तर भी पाया जाता है परन्तु सबका तात्पर्य एकसा है-गुरु के प्रति आदरभाव न रखना। -देखिए, उ० आ० टी० ३१.२०; २६.४,१६; श्रमणसूत्र, पृ० १९७२०३,४२६-४३१; समवायाङ्गसूत्र, समवाय ३३. For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन क्रोधी स्वभाव वाले गुरु को भी सरल और प्रसन्न बना देते हैं।' गुरु भी ऐसे विनीत शिष्य को पाकर उसे शिक्षा देने में उसी प्रकार आनन्द का अनुभव करता है जिस प्रकार उत्तम घोड़े को शिक्षा देने वाला सारथी। परन्तु इसके विपरीत अविनीत शिष्य को पाकर गुरु उसे शिक्षा देने में उसी प्रकार दु:खी होता है जिस प्रकार अभद्र (अड़ियल) घोड़े को शिक्षा देनेवाला सारथी । इसके अतिरिक्त अविनीत शिष्यों को पाकर गरु चिन्तित होते हए सोचते. हैं कि इन्हें पढ़ाया, पाला-पोसा और यहां तक कि इनके साथ सब कुछ किया फिर भी अब ये उसी प्रकार स्वेच्छाचारी हो गये हैं जिस प्रकार पंख निकल आने पर हंस पक्षी। अतः इन्हें छोड़ देने में ही कल्याण है। इस तरह अविनीत शिष्य गुरु को हमेशा चिन्तित ही किया करते हैं। गुरु के द्वारा दिए गए उपालम्भ, भर्त्सना, दण्ड आदि को विनीत शिष्य ऐसा मानता है कि ये ( गुरु ) मुझे अपना छोटा भाई, पुत्र या स्वजन समझकर कल्याण के लिए ही कहते हैं परन्तु इसके विपरीत अविनीत शिष्य ये मेरे शत्र' हैं, 'ये मुझे गालियां १. अणासवा थूलवया कुसीला मिउंपि चण्डं पकरंति सीसा । चित्ताणुया लहुदक्खोववेया पसायए ते हु दुरासयंपि । -उ० १.१३. २. रमए पंडिए सासं हयं भद्द व वाहए। .. बालं सम्मइ सासंतो गलियस्सं व वाहए ।। -उ० १.३७. ३. वाइया संगहिया चेव भत्तपाणेण पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा पक्कमति दिसो दिसि ।। अह सारही विचिन्नेइ खलुंकेहि समागओ। कि मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई । -उ० २७.१४-१५. तथा देखिए-उ० २७.१६. For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकर ३ : रत्नत्रय [ २२३ देते हैं', 'ये मुझे गुलाम समझते हैं। ऐसा विचार करके स्वयं को पीड़ित करता हुआ गुरु को भी हतोत्साहित करता है।' शिक्षाशील के कुछ अन्य गुण-इस तरह शिक्षा वही प्राप्त कर सकता है जो विनीत हो और जिसमें वे सभी गुण मौजूद हों जो एक विनीत शिष्य में होने चाहिए। ग्रन्थ में फिर शिक्षाशील के निम्न आठ विशेष-गुण बतलाए गए हैं :२ . १. अहसनशील, २. जितेन्द्रिय, ३. अमर्मभाषी, ४. अनुशासनशील, ५. खंडित-आचार से रहित, ६. अतिलोलुपता से रहित, ७. क्रोध से रहित और ८. सत्यवक्ता। इन आठ गुणों के अतिरिक्त ग्रन्थ में अन्य पाँच गुण भी बतलाए हैं3 : १. गुरुकुलवासी, २. सदाचारी, ३. अध्ययन में उत्साही ( उपधानवान् ), ४. प्रिय करने वाला और ५. प्रिय बोलने वाला। इसी प्रकार समाधि के इच्छुक साधु के जो गुण ग्रन्थ में आवश्यक बतलाए गए हैं वे सब ज्ञानार्थी को भी आवश्यक हैं। जैसे : गुरु और वद्ध जनों की सेवा, बाल (मूर्ख) जीवों की संगति का त्याग, स्वाध्याय, एकान्तसेवन, सूत्रार्थ-चिन्तन, धैर्य, परिमित-भोजन और निपुण १. पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साहू कल्लाण मन्नई। पावदिट्ठी उ अप्पाणं सासं दासि त्ति मन्नई ॥ -उ० १.३६. तथा देखिए-उ० १.२७-२६,३७-३८. २. अह अहिं ठाणेहि सिक्खासीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दंते न य मममुदाहरे । नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले ति वुच्चई ।। -उ० ११.४-५ ३. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं । पियंकरे पियंवाई से सिक्खं लद्ध मरिहई ।। -उ०११.१४. For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन साथी का सहवास ।' इसके अतिरिक्त विद्याग्रहण में पांच प्रतिबन्धक कारण भी गिनाए गए हैं जिन कारणों के मौजद रहने पर विद्या प्राप्त नहीं की जा सकती है। उनके नाम इस प्रकार हैं : अहंकार, क्रोध, असावधानता (प्रमाद), रोग और आलस्य । इस तरह जो उपर्युक्त गुणों से युक्त है वही शिक्षा (ज्ञान) प्राप्त कर सकता है। जो इन गुणों से रहित (अविनीत) है वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता है। इसीलिए ग्रन्थ में अविनीत और अबहुश्रुत को ज्ञानहीन, अहंकारी, लोभी, इन्द्रियवशवर्ती, असम्बद्धप्रलापी व बहुप्रलापी कहा है। इस सम्पूर्ण वर्णन से स्पष्ट है कि जो विनीत है वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा जो अविनीत है वह ज्ञानप्राप्ति के सर्वथा अयोग्य है। अतः ग्रन्थ में विनीत शिष्य को प्राज्ञ, मेधावी, पण्डित, धीर, बुद्धपुत्र (महावीर का शिष्य), मोक्षाभिलाषी, प्रसादप्रेक्षी (मोक्ष की ओर दृष्टि रखनेवाला), साधु, विगतभयबुद्ध (भय से रहित बुद्धिमान्) आदि शब्दों से तथा अविनीत शिष्य को असाधु, अज्ञ, मन्द, मूढ़, बाल, पापदृष्टि, अबहुश्रुत आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है। . १. तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगंतनिसेवणा य सुत्तत्थ संचितणया धिई य ॥ आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धि । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ -उ० ३२.३-४. २. अह पंचहि ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य ।। -उ० ११.३. ३. जे यावि होइ निविज्जे "अविणीए अवहुस्सुए। -उ० ११.२. ४. उ० १.७,९,२०-२१,२७,२६,३७,३६,४१,४५. ५. उ० १.२८,३७-३६८.५११.२; १२.३१. For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २२५ - विनय के पांच प्रकार-ग्रन्थ में गुरु के प्रति सम्मान प्रकट करने के पांच प्रकार बतलाए गए हैं: १. गुरु के आने पर खड़े होना (अभ्युत्थान), २. दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना (अंजलिकरण), ३. बैठने के लिए आसन देना (आसनदान), ४. स्तुति (सम्मान) करना (गुरुभक्ति) और ५. भावपूर्वक सेवा करना (भावशुश्रूषा)। - अविनय व विनय का फल-ग्रन्थानुसार विनीत और अविनीत शिष्य के कर्त्तव्यों आदि का वर्णन करने के बाद अब अविनीत और विनीत शिष्यों को प्राप्त होने वाला फल बतलाते हैं। सर्वप्रथम अविनीत शिष्य को प्राप्त होनेवाला फल बतलाते हैं। जैसे : १. जिस प्रकार सड़े कानों वाली कुतिया प्रत्येक घर से निकाल दी जाती है उसी प्रकार अविनीत शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके छात्रावास से निकाल दिया जाता है।२ २. जिस प्रकार कोई अडियल बैल गाडी में जोते जाने पर भी यदि नहीं चलता है तो उसे चाबुक आदि से मारा जाता है उसी प्रकार अविनीत शिष्य गुरु से प्रताड़ित होकर दुःखी होता है।३ ३. ज्ञानादि को प्राप्त नहीं करता है । ४. 'ज्ञानादि की प्राप्ति न होने से मुक्ति का भी अधिकारी नहीं होता है। इसके विपरीत विनीत शिष्य निम्न फल को प्राप्त करता है : १. देखिए-प्रकरण ५, विनय-तप । २. जहा सुणी पूइकन्नी निक्कसिज्जई सव्वसो । • एवं दुस्सीलपडिणीए मुहरी निक्कसिज्जई॥ -उ० १.४. ३. खलुंके जो उ जोएइ विहम्माणो किलिस्सई । - असमाहिं च वेएइ तोत्तओ से य भज्जई॥ -उ० २७.३. ४. देखिए-पृ० २२४, पा० टि० ३. ५. देखिए -पृ० २१८, पा० टि० ३. For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. देव, मनुष्य आदि से सर्वत्र आदर प्राप्त करता है', २. कीर्ति का विस्तार करके सबका आश्रयदाता बन जाता है,२ ३. गुरु प्रसन्न होकर उसे समस्त ज्ञान दे देते हैं,3 ४. सन्देह-रहित होकर तथा तपादि करके दिव्यज्योति प्राप्त कर लेता है,४ ५ जिस प्रकार सुशील बैल गाड़ी में जोते जानेपर स्वयं को और मालिक को जंगल से निकालकर अच्छे स्थान पर ले जाता है उसी प्रकार विनीत शिष्य भी स्व और पर का कल्याण करता है ५ ६. मृत्यु के उपरान्त या तो मोक्ष प्राप्त करता है या शक्तिशाली (ऋद्धिधारी) देव बनता है। गुरु के कर्तव्य : ___ ग्रन्थ में गुरु के लिए आचार्य, बुद्ध, गुरु, पूज्य, धर्माचार्य, उपाध्याय, भन्ते, भदन्त आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे १. स देवगंधवमणुस्सपूइए चइत्तु देह मलपंकपुव्वयं । सिद्ध वा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिडिढए ॥ . -3० १.४८. तथा देखिए-उ० १.७. २. नग्चा नमइ मेहावी लोए कित्ती से जायए । हवई किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा । -उ० १.४५. ३. पुज्जा जस्स पसीयंति संबुद्धा पुव्वसंथया। पसन्ना लाभइस्संति विउसं अट्ठियं सुयं ॥ -उ० १.४६. ४. स पुज्जसत्थे सुविणीयसंसए महज्जुई पंचवयाई पालिया। -उ०१.४७. ५. वहणे वहमाणस्स ""संसारो अइवत्तई। .. -3० २७.२. ६: देखिए-पा० टि. १ और ४ ७. आचार्य-उ० ८.१३; १.४०-४१, ४३; १७.४; २७.११. बुद्ध-१.८, १७, २७,४०,४२,४६. गुरु-१.२-३,१६-२०; २६.८. पूज्य-१.४६. धर्माचार्य-३६.२६६. उपाध्याय-१४.४. भन्ते-भदन्त-९.५८,१२. ३०; २०.११; २३.२२; २६.६; २६ वा अध्ययन । For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३: रत्नत्रय [ २२७ गुरु के गुणों आदि का पता चलता है। इस प्रकार के गुरु को यदि विनीत या अविनीत शिष्य मिलता है तो उसे क्या करना चाहिए ? इस विषय में ग्रन्थ में गुरु के निम्नोक्त कर्त्तव्य बतलाए गए हैं : १. विनीत शिष्य पाकर गुरु को चाहिए कि वह स्पष्ट और सरल शब्दों में अपनी कमजोरी को छिपाए बिना शिष्य को सही. सही ज्ञान करा देवे ।। ____२. सारगर्भित प्रश्नों का ही उत्तर देवे । असम्बद्ध, असार-गर्भित और निश्चयात्मक वाणी न बोले। - ३. निपुण एवं विनीत शिष्य की ही अभिलाषा करे। यदि ऐसा योग्य शिष्य न मिले तो व्यर्थ का शिष्य परिवार न बढ़ाकर एकाकी विचरण करे। ४. गरु का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक, शांति और आत्मशूद्धि करनेवाला होता है। अत: उपदेश देते समय शिष्य को पुत्र-तुल्य मानकर उसके लाभ को दृष्टि में रखे । १. एवं विणयजुत्तस्स सुत्तं अत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स वागरिज्ज जहासुयं ॥ -उ० १.२३. २. मुसं परिहरे भिक्खू न य ओहारिणीं वए । भासादोसं परिहरे मायं च वज्जए सया । न लवेज्ज पुट्ठो सावज्ज न निरठें न मम्मयं । अप्पणट्ठा परदा वा उभयस्सन्तरेण वा ॥ -उ० १.२४-२५. तथा देखिए-उ० अध्ययन ६,१२,२३,२५ आदि । ३.. न वा लभेज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एगो वि पावाई विवज्जयंतो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ -उ० ३२.५. तथा देखिए-उ० २७.१४-१७. ४, जं मे बुद्धाणुसासन्ति सीएण फरुसेण वा। मम लाभो ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे ।। -उ० १.२७. तथा देखिए-पृ. २२३, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ५. ऐसे शिष्य को उपदेश न देवे जो उस उपदेश का पालन न करे अपितु विनीत शिष्य को ही उपदेश देवे। जैसे चित्त का जीव संभत के जीव ब्रह्मदल चक्रवर्ती को उपदेश देकर सोचता है कि मैंने इसे व्यर्थ उपदेश दिया क्योंकि इस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।' ___ इस तरह ग्रन्थ में शास्त्रज्ञान की प्राप्ति के लिए शिष्य के जिन गुणों का उल्लेख किया गया है उन सबका अन्तर्भाव विनम्रता, जितेन्द्रियता एवं ज्ञानप्राप्ति के लिए उत्कट-प्रयत्नशीलता इन तीन गुणों में किया जा सकता है। इन तीन गुणों में से विनय गुण शिष्य के लिए सर्वाधिक आवश्यक है क्योंकि विनम्रता ज्ञानप्राप्ति के लिए आधार-स्तम्भ है। किञ्च, अविनीत को ज्ञानी होने पर भी 'अपण्डित' कहा गया है तथा विनीत को 'पण्डित'। ग्रन्थ में विनीत शिष्य के जिन गुणों का उल्लेख किया गया है वे सब गुरु के पूर्ण अनुशासन में रहने, गुरु की सम्मानादि से सेवा करने, हित-मित-प्रिय बोलने तथा संकेतमात्र से तदनुकल आचरण करने रूप हैं। इन गुणों से रहित जो स्वच्छन्द विचरण करनेवाले उद्दण्ड छात्र हैं वे सब अविनीत हैं और ज्ञानप्राप्ति के सर्वथा अयोग्य हैं। इसके अतिरिक्त विनीत विद्यार्थी को ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी विनय को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि विनय ही सब प्रकार की सफलता का मूलाधार है । ग्रन्थ का प्रारम्भ भी विनय अध्ययन से किया गया है। इसके अतिरिक्त विनय और गुरुसेवा को पृथक-पृथक् तप के रूप में भी स्वीकार किया गया है जिसका आगे विचार किया जाएगा। इस तरह के विनीत व योग्य शिष्य को पाकर गुरु का भी कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उसके साथ पुत्रवत् व्यवहार करे तथा अपना समस्त ज्ञान उसे दे देवे । ज्ञान का महत्त्व प्रकट करने के लिए ही ग्रन्थ में गुरु की महत्ता पर बहुत जोर दिया गया है। सम्प्रचारित्र (सदाचार) आचार व्यक्ति का वह मूल्य है जिसके द्वारा वह महान् से महान और निम्न से भी निम्न बन सकता है। सदाचार व्यक्ति १. मोहं कओ एत्तिउ विपलावो गच्छामि रायं आमंतिओ सि । -उ० १३.३३. For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २२६ को नीचे से ऊपर उठाकर उच्च सिंहासन पर बैठा देता है और दुराचार उच्च सिंहासन से उठाकर नीचे गर्त में ढकेल देता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होने पर भी यदि किसी में सदाचार नहीं है तो उसके सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कार्यसाधक नहीं हो सकते हैं क्योंकि उनका प्रयोजन सदाचार में प्रवत्ति कराना है। अतः ग्रन्थ में कहा गया है कि पढ़े हुए वेद व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते हैं।' अब प्रश्न है कि सदाचार क्या है ? यदि सदाचार को सामान्यरूप से एक वाक्य में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि दूसरे के साथ हमें वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से स्वयं के प्रति चाहते हैं। इसी सिद्धान्त को दष्टि में रखकर ही सदाचार को ग्रन्थ में अहिंसा के रूप में उपस्थित किया गया है तथा इस अहिंसा के साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (धन-सम्पत्ति का त्याग) इन चार अन्य आचारपरक नियमों को जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त जितने भी नियम और उपनियम बतलाए गए हैं जिनका आगे वर्णन किया जाएगा, वे सब इन पाँच व्रतों की ही पूर्णता एवं निर्दोषता के लिए हैं। जैसे-जैसे इन व्रतों के पालन से सदाचार में वृद्धि होती जाती है तैसे-तैसे व्यक्ति वीतरागता की ओर बढ़ता जाता है, जैसे-जैसे वीतरागता की ओर अग्रसर होता जाता है तैसे-तैसे पूर्वबद्ध-कर्म भी आत्मा से पृथक् होते जाते हैं और जैसे-जैसे पूर्वबद्ध-कर्म आत्मा से पृथक होते जाते हैं तैसे-तैसे आत्मा निर्मल से निर्मलतर अवस्था को प्राप्त करती हुई मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। १. वेया अहीया न हवंति ताणं । -उ० १४.१२. पसुबन्धा सव्वेया जठं च पावकम्मुणा । न तं तायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंति हि। --उ० २५.३०. २. चारित्तमायार गुणन्निए तओ अणुत्तरं संजम पालियाणं । निरासवे संखवियाण कम्म उवेइ ठाणं विउ लुत्तमं धृवं ॥ -उ० २०.५२. तथा देखिए-उ० २८.३३; २६.५८,६१. For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सम्यक्चारित्र के प्रमुख पाँच प्रकार : चारित्र के विकासक्रम को दृष्टि में रखकर सदाचार को पाँच भागों में विभक्त किया गया है:१ १. अशुभात्मक-प्रवृत्ति को रोककर समताभाव में स्थिर होना (सामायिकचारित्र), २. पहले लिए गए व्रतों को पुनः ग्रहण करना (छेदोपस्थापनाचारित्र), ३. आत्मा की विशेष शुद्धि के लिए तपश्चरण करना (परिहारविशुद्धिचारित्र), ४. संसार के विषयों में अत्यल्प राग रहना (सूक्ष्मसम्परायचारित्र) और ५. पूर्ण वीतरागी होना (यथाख्यातचारित्र) । इनके स्वरूप वगैरह इस प्रकार हैं : १. सामायिकचारित्र-समताभाव में स्थित होने के लिए पापात्मक (हिंसामूलक) प्रवृत्तियों को रोककर अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों का पालन करना । यह सदाचार की प्रथम अवस्था है। सद्गृहस्थ का सदाचार भी इसी कोटि में आता है। सामाजिक सदाचार-परक जितने भी नियम-उपनियम हैं वे सभी इसी चारित्र के अन्तर्गत आते हैं। वास्तव में सामायिकचारित्र का प्रारम्भ साधु-धर्म में दीक्षा लेने के बाद से प्रारम्भ होता है क्योंकि सामायिकचारित्र आदि जो चारित्र के ५ भेद किए गए हैं वे सब साधु के आचार की अपेक्षा से किए गए हैं। अतः साधु बनने के पूर्व का जो भी अहिंसात्मक सदाचार है वह भी सामायिक-चारित्र की पूर्व-पीठिकारूप होने से इसी के अन्तर्गत आता है। २. छेदोपस्थापनाचारित्र-छेद का अर्थ है-भेदन करना या छोड़ना। उपस्थापना का अर्थ है-पुनः ग्रहण करना। अर्थात् सामायिकचारित्र का पालन करते समय लिए गए अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों को पुनः जीवनपर्यन्त के लिए विशेषरूप से ग्रहण करना। जब अहिंसादि नैतिक-व्रतों को जीवन-पर्यन्त के लिए पुनः १. सामाइयत्थ पढम छेदोवठ्ठावणं भवे वीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ।। अकसायमहक्खायं छउ मत्थस्स जिणस्स वा। एयं चयरितकरं चारित्तं होइ आहियं ।। -उ० २८.३२-३३.. For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २३१ ग्रहण किया जाता है तो उनका विशेष सावधानीपूर्वक पालन करना पड़ता है। इसमें साधक पहले ग्रहण किए गए व्रतों का छेदन करके पुनः उपस्थापना करता है। अतः इसे छेदोपस्थापनाचारित्र कहते हैं । यह सदाचार की दूसरी अवस्था है । ३. परिहारविशुद्धिचारित्र-एक विशिष्ट प्रकार के तपश्चरण' द्वारा आत्मा की विशेष शुद्धि करने को परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। चारित्र के तपप्रधान होने के कारण ही इस परिहारविशुद्धि चारित्र को स्वीकार किया गया है। यह चारित्र की तृतीय अवस्था है। ४ सूक्ष्मसम्परायचारित्र-यह चारित्र की चौथी अवस्था है। इस अवस्था तक पहुँचने पर साधक को सांसारिक विषयों के प्रति बहत ही स्वल्प राग-बुद्धि रह जाती है और सभी कषाय शान्त हो जाते हैं। सूक्ष्म-सम्पराय का अर्थ है-स्वल्पेच्छा की धारा बहती रहना। अर्थात् इस अवस्था में स्वल्प राग की धारा मौजूद रहने से कर्मों का थोड़ा-थोड़ा आना बना रहता है। ५ यथाख्यातचारित्र-यह चारित्र की अन्तिम अवस्था है। जब स्वल्पराग का भी अभाव हो जाता है तब इस प्रकार के चारित्र की प्राप्ति होती है। यहाँ राग के अभाव से तात्पर्य सर्वथा उसके क्षय से नहीं है अपितु उसकी उपशान्त अवस्था भी अभिप्रेत है। इसीलिए इस चारित्र का धारी सर्वज्ञ ( जिन ) की .. १. तप की विधि - जब कोई नौ साधु किसी एक तप को १८ मास तक मिलकर करते हैं तो उनमें से कोई चार साधु ६ मास तक तप करते हैं, अन्य चार उनकी सेवा करते हैं तथा अवशिष्ट एक साधु निरीक्षक (वामनाचार्य) होता है। छः मास के बाद सेवा करनेवाले चारों साधु तप करते हैं और तप करनेवाले चारों साधू उनकी सेवा करते हैं। इस तरह पुनः छः मास बीत जाने पर वामनाचार्य छः मास तक तप करता हैं तथा अन्य आठ साधुओं में से कोई एक वामनाचार्य बन जाता है और शेष सभी उसकी सेवा करते हैं। इस तरह यह १८ मास के तप की एक विधि है। देखिए-उ० आ० टी०, पृ० १२४२. For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२१] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तरह असर्वज्ञ (छदमस्थ-जो पूर्ण ज्ञानी नहीं है) भी स्वीकार किया गया है।' इस चारित्र का धारी जिनोपदिष्ट चारित्र का उसी रूप में पालन करता है जैसा उन्होंने कहा है। अतः इसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं। यह पूर्ण वीतरागता की अवस्था है। इस यथाख्यातचारित्र की पूर्णता होने पर (चरमावस्था में) सब कर्म नष्ट हो जाते हैं और तब साधक सब प्रकार के दुःखों का अन्त करके सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता है । ___ इस तरह सदाचार के इन भेदों को देखने से प्रतीत होता है कि ये क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। यह सदाचार अहिंसा की भावना से प्रारम्भ होकर पूर्ण वीतरागता की अवस्था में पूर्ण हो जाता है। इन सदाचार के भेदों में संसार के विषयों के प्रति राग की भावना उत्त रोत्तर कम होती गई है। वीतरागता को सदाचार की पराकाष्ठा स्वीकार करने के कारण 'राग' की हीनाधिकता को लेकर यह चारित्र का विभाजन किया गया है। जैनदर्शन में राग की होनाधिकता को लेकर अन्य प्रकार से भी जीव की १४ अवस्थाएँ (गुणस्थान) बतलाई गई हैं जिनमें जीव के निम्नतम आचार से लेकर उच्चतम आचार तक के विकास-क्रम को आध्यात्मिक-प्रक्रिया के द्वारा समझाया गया है। जिसे संसार के विषयों में सबसे अधिक राग है वह सबसे निम्नदर्जेवाला व्यक्ति है और जिसे संसार के विषयों में सबसे कम राग (या राग का अभाव) है वह सबसे उच्चदर्जेवाला व्यक्ति है। सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्र से ये अवस्थाएँ सर्वथा भिन्न नहीं हैं अपितु उनका ही यहाँ १४ अवस्थाओं में विस्तार किया गया है। इनमें यही बतलाया गया है कि जीव किस प्रकार धीरे१. देखिए-पृ० २३०, पा० टि० १. २. चारित्तपज्जवे विसोहिता अहक्खाय चरित्तं विसोहेइ। अहक्खायरित्तं विसोहित्ता चत्तारि कम्मसे खवेइ । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वयाइ, सम्वदुक्खाणमंतं करेइ । -उ० २६. ५८. तथा देखिए-उ० ३१. १; पृ० २२६, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २३३ धीरे चारित्र का विकास करते हुए नीचे से ऊपर की ओर मुक्ति के लिए बढ़ता है।' १. जीवों के आध्यात्मिक विकासक्रम की १४ अवस्थाएँ (गुणस्थान-जीव स्थान) ये हैं : १. मिथ्यादृष्टि-संसारासक्त होकर अधार्मिक-जीवन यापन करनेवाला, २. सासादन-धार्मिक-जीवन से अधामिक-जीवन की ओर पतन करने वाला अर्थात् जो अभी मिथ्यादृष्टि तो नहीं है परन्तु मिथ्यादृष्टि होने वाला है, ३. सम्यक्त्वमिथ्यादृष्टि (मिश्र)कुछ धार्मिक और कुछ अधार्मिक-जीवन यापन करने वाला, ४. अविरतसम्यग्दृष्टि-सामान्य गृहस्थ का जीवन जो अभी संसार के विषयों से विरक्त नहीं है, ५. विरताविरत (देशविरत)सांसारिक विषयों से अंशतः विरत और अंशतः अविरत गहस्थ, ६. प्रमत्तसंयत-नवदीक्षित साधु जो संसार के विषयों से सर्वविरत तो है परन्तु कभी-कभी प्रमाद करता रहता है, ७. अप्रमत्तसंयतप्रमादरहित होकर सदाचार का पालन करने वाला। इसके बाद आगे बढ़ने की दो श्रेणियां हैं: क. उपशमश्रेणी (जिसमें मोहनीय कर्म भस्माच्छन्न अग्नि की तरह दवा पड़ा रहता है और बाद में समय आने पर उदय में आता है जिससे उस जीव का नीचे की ओर पतन होता है) और ख. क्षपकश्रेणी (जिसमें सदा के लिए कर्मों को नष्ट कर दिया जाता है और जीव आगे की ओर ही बढ़ता जाता है)। उपशमश्रेणी आठ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक ही है तथा क्षयरुश्रेगी अन्त तक है। इनके नामों में कोई भेद नहीं है, सिर्फ मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय की अपेक्षा से ही भेद है । क्षप कश्रेणी वाला दसवें गुणस्थान के बाद सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। 5. निवृतिवार (अपूर्वकरण)-स्यूल कषायों के उपशम या क्षय से प्राप्त जीव की स्थिति । इस अवस्था की प्राप्ति पहले कभी न होने के कारण इसे 'अपूर्वकरण' भी कहते हैं । ९. अनिवृत्तिबादर (अनिवृत्तिकरण )-अप्रत्याख्यानावरणी (स्थूल की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म) कषायों एवं नोकषायों के उपशम या विनाश से प्राप्त जीव की स्थिति, १०. सूक्ष्मसम्पराय-जिसके अत्यन्त सूक्ष्म कषाय मात्र रह गया है ऐसे जीव की स्थिति, ११. उपशान्त-मोह For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन चारित्र के विभाजन का दूसरा प्रकार : सदाचार का पालन करने वाले गहस्थ और साध की अपेक्षा से ग्रन्थ में अन्य प्रकार से भी चारित्र का विभाजन किया गया है जिसे गृहस्थाचार और साध्वाचार के नाम से कहा जा सकता है। इस प्रकार के विभाजन का यह तात्पर्य नहीं है कि गृहस्थाचार और साध्वाचार परस्पर पृथक्-पृथक हैं अपित गृहस्थाचार साध्वाचार की प्रारम्भिक अभ्यास की अवस्था है। गहस्थ सामाजिक एवं कुटम्ब-सम्बन्धी कार्यों को करता हआ अहिंसादि पाँच व्रतों का स्थूलरूप से पालन करता है जबकि साधु उन्हीं अहिंसादि व्रतों का सूक्ष्मातिसूक्ष्मरूप से पालन करता है । गृहत्यागी साधु का समाज जिसने सब मोहनीय कर्मों का उपशम कर दिया है ऐसे जीव की स्थिति (यह गुणस्थान सिर्फ उपशमश्रेणी वाले जीव को ही होता है), १२. क्षीण-मोह-जिसने सम्पूर्ण मोहनीय कर्मों को हमेशा के लिए नष्ट कर दिया है, १३. सयोगकेवली- जो मन-वचन-काय की क्रिया (योग) से युक्त है ऐसे केवलज्ञानी (जीवन्मुक्त) जीव की स्थिति और १४. अयोग-केवली-सब प्रकार की क्रियाओं से रहित केवलज्ञानी (जीवन्मुक्त) की चरमावस्था । जीव की इन १४ अवस्थाओं में से मिथ्यादृष्टि सबसे निम्नकोटि के आचारवाला व्यक्ति है तथा अयोग केवली सर्वोच्च सदाचारसम्पन्न जीव है। इनमें उत्तरोत्तर संसार के विषयों से ममत्व (मोह) घटता गया है। वस्तुतः सदाचार का विकास चौथी अवस्था से प्रारम्भ होता है और क्षीणमोह की अवस्था में पूर्ण हो जाता है। अन्तिम दो अवस्थाएँ मन-वचन-काय की क्रिया (योग) से सहित व रहित ऐसे दो प्रकार के जीवन्मुक्तों की हैं। इस तरह सामायिकचारित्र कथंचित् चौथे और पांचवें गुणस्थान में, छेदोपस्थापनाचारित्र ६ठे और ७ वें में, परिहारविशुद्धिचारित्र ८ वें और 8वें में, सूक्ष्मसम्परायचारित्र १० वें में और यथाख्यातचारित्र ११ वें से अन्त तक पाया जाता है। अन्तिम दो अवस्थाओं का विशेष वर्णन मुक्ति के प्रकरण में किया जाएगा। देखिए-समवा०, समवाय १४; गोम्मटसार-जीवकाण्ड, परिच्छेद १. For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३५ प्रकरण ३ : रत्नत्रय एवं कुटुम्ब से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रहता है। गृहस्थ का भी उद्देश्य इसी अवस्था ( साध्वाचार) की ओर बढ़ना है परन्तु गृहस्थ पर गृहस्थी का भार होने के कारण वह उस अवस्था तक पहुँचने में असमर्थ होता हुआ अहिंसादि व्रतों का स्थूलरूप से पालन करता है । गृहस्थाचार - गृहस्थ-धर्म का उपदेश उन्हें ही दिया गया है जो साध्वाचार का पालन करने में असमर्थ हैं । अतः चित्त का जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से कहता है - 'हे राजन् ! यदि तुम भोगों को त्यागने (सर्वविरतिरूप साधु-धर्म स्वीकार करने) में असमर्थ हो तो गृहस्थोचित आर्य-कर्म (सदाचार करो तथा धर्म में स्थित होकर सम्पूर्ण प्रजा पर अनुकम्पा करने वाले बनो ।" यहाँ पर गृहस्थ का आचार 'आर्य-कर्म' तथा 'दया' बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में गृहस्थ के ११ नियमों (प्रतिमाएँ ) तथा माह में कम से कम एक बार उपवास ( प्रोषध) करते हुए सम्यक्त्व का पालन करने का उल्लेख मिलता है । २ नमि प्रव्रज्या नामक अध्ययन में इन्द्र गृहस्थधर्म में स्थित व्यक्ति को 'घोराश्रमी' कहता है ? क्योंकि गृहस्थ के ऊपर अन्य सभी आश्रमवासियों का तथा कुटुम्ब आदि का भार रहता है और उसे उन सब का पालन-पोषण १. जइ तं सि भोगे चइउं असत्तो अज्जाई कम्माई करेहि रायं । धम्मेठि सव्वपाणुकंपी तो होहिसि देवो इओ विउव्वी ॥ - उ० १३.३२. तथा देखिए - उ० १४.२६-२७; २२.३८; उपासकदशाङ्ग १.१२; र्मामृत २.१. २. अगार सामाइयंगाई सड्ढी काएण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं एगरायं न हवाए ॥ - उ० ५.२३. उवास गाणं पडिमासु ...." से न अच्छइ मंडले | - उ० ३१. ११. ३. घोरासमं चइत्ताणं अन्नं पत्थेसि आसमं । इव पोसहरओ भवाहि मणुयाहिवा || - उ० ६. ४२. For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन करना पड़ता है। इसीलिए अन्य आश्रमों की अपेक्षा गृहस्थाश्रम को अत्यन्त कठिन कहा गया है। गहस्थ माता-पितादि परिवार के साथ अपने गृह में निवास करता है, साधुओं की भोजन-पान आदि से सेवा करता है और स्थूलरूप से अहिंसादि धार्मिक नियमों का पालन करता है। अतः उसे ग्रन्थ में गृहस्थ, सागार, उपासक, श्रावक, असंयत आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है।' गहस्थ की जिन ग्यारह प्रतिमाओं का ग्रन्थ में उल्लेख किया गया है उनमें गृहस्थ के आचार-सम्बन्धी उपवास, दया, दान आदि सभी व्रत आ जाते हैं। टीका-ग्रन्थों तथा गृहस्थाचार के प्रतिपादक ग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि गृहस्थ इन ग्यारह प्रतिमाओं (नियमों) का क्रमशः धारण करता हुआ आगे की ओर बढ़ता है। आगे-आगे की प्रतिमा को धारण करने वाला गृहस्थ पीछे की प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करता हुआ साध्वाचार की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयत्न करता रहता है। दिगम्बर-परम्परा में भी इसी प्रकार की गृहस्थ की ११ १. देखिए-पृ०२३५, पा० टि० २-३; उ० २१. १-२, ५; २६. ४५. २. गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमाएं ये हैं : १. दर्शन-जिनोपदिष्ट तत्त्वों में विश्वास, २. व्रत-अहिंसा आदि बारह व्रतों के पालन करने में यत्नवान् होना । वे अहिंसादि बारह व्रत इस प्रकार हैं : स्थूलरूप से अहिंसा का पालन करना, सत्यबोलना, चोरी न करना, परस्त्रीसेवन न करना, धनादि का अधिक संग्रह न करना, चारों दिशाओं में गमनागमनसम्बन्धी सीमा निर्धारित करना, भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं के सेवन की मर्यादा करना, सर्वदा अनुपयोगी वस्तुओं और क्रियाओं का त्याग करना, प्रातः-सायं तथा मध्याह्न में आत्मगुणों का चिन्तन करते हुए समताभाव में स्थिर होना (सामायिक), देश व नगर में परिभ्रमण की सीमा को नियत करना, मास में दो बार या कम से कम एक बार उपवास करना (प्रोषध), और आगन्तुक दीन-दुःखी व साधु आदि की अपनी शक्त्यनुसार दानादि ) सेवा करना। इनमें से प्रथम पांच व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं क्योंकि इनमें अहिंसादि पाँच महाव्रतों का स्थूल रूप से पालन किया जाता है । आत्मविकास के लिए मूलभूत व गुणरूप होने के कारण श्वेताम्बर-परम्परा में इन्हें 'मूलगुण' कहते हैं । इनके अति For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [२३७ प्रतिमाएँ गिनाई गई हैं । यद्यपि उनके क्रम, नाम एवं अर्थ में थोड़ा अन्तर पाया जाता है। परन्तु दोनों का उद्देश्य एक है -आत्मविकास करते हुए सर्वविरतिरूप साध्वाचार की अवस्था को प्राप्त करना। __गृहस्थाचार पालन करने का फल-इस प्रकार के गृहस्थधर्म का पालन करने वाला व्यक्ति जिस फल को प्राप्त करता है वह उसके आत्मविकास की हीनाधिकता पर निर्भर करता है। अतः ग्रन्थ में कहा है कि जो गृहस्थधर्म का पालन करता है वह मनुष्य रिक्त शेष सात व्रत अहिंसादिव्रतों की रक्षा के लिए हैं जो ‘गुणवत' एवं 'शिक्षावत' के नाम से कहे जाते हैं। ये बारह व्रत आगे की प्रतिमाओं की दढ़ता में सहायक-कारण होते हैं, . ३. सामायिकसामायिकव्रत का दृढ़ता से पालन करना, ४. प्रोषध-प्रोषधव्रत का दृढ़ता से पालन करना, ५. नियम-रात्रिभोजन-त्याग आदि नियम-विशेष लेना, ६. ब्रह्मचर्य-पूर्ण-ब्रह्मचर्य का पालन करना, ७. सचितविरत-कन्दमूल, आदि हरी वनस्पतियों का त्याग करना, ८. आरम्भविरत-जिसमें जीवों की हिंसा हो ऐसी सावध (पापात्मक) क्रियाओं को स्वयं न करना, ६. प्रेष्यारम्भविरतदूसरों को भी गृहस्थीसम्बन्धी सावधक्रियाएँ करने के लिए प्रेरित न करना, १०. उद्दिष्ट भक्तविरत-स्वयं के उद्देश्य से बनाए गए भोजनादि को न खाना अथवा गृहस्थी के कार्यों की अनुमोदना न करना और ११. श्रमणभूत-जैन साधु की तरह आचरण करना। इस प्रतिमाधारी गृहस्थ और साधु में यह अन्तर है कि इस प्रतिमा का धारी स्व-कुटुम्बी जनों के यहाँ से ही आहारादि लेता है जबकि साधु स्व-कुटुम्ब से पूर्ण ममत्व छोड़कर सर्वत्र विचरण करता हुआ सब जगह से आहार लेता है। देखिए-दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ६-७; समवा०, समवाय ११; उपासकदशाङ्ग, पृ० ११५-१२२; जैन-योग (आर० विलियम्स), पृ० ५०-५१,५६. १. दिगम्बर-परम्परा में गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमाएं क्रमशः इस प्रकार हैं: दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभोजन-विरत, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रह-विरत, अनुमतिविरत तथा उद्दिष्ट-विरत । देखिए-जैनआचार, डा. मोहनलाल मेहता, पृ० १३०. For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन जन्म से लेकर देव और मुक्त अवस्था को भी प्राप्त कर सकता है।' गृहस्थ और साधु के आवार में भेद का कारण वीतरागतागृहस्थधर्म पालन करने का फल जो मुक्ति बतलाया गया है वह साक्षात-फल संभव नहीं है क्योंकि ऐसा सिद्धान्त है कि जबतक पूर्ण वीतरागता नहीं होगी तबतक मुक्ति नहीं मिल सकती है। यह संभव है कि गृहस्थ मृत्यु के समय संसार के विषयों से पूर्ण वीतरागी होकर मुक्ति प्राप्त कर लेवे परन्तु जब गृहस्थ पूर्ण वीतरागी हो जाएगा तो वह वस्तुतः गृहस्थ नहीं रहेगा।२ अतः ग्रन्थ में साधु का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि जो बालभाव को छोड़कर अबालभाव को धारण करते हैं वे साध हैं। जो संसारासक्त हैं वे बाल (मख) हैं और जो निरासक्त हैं वे अबाल (पण्डित) हैं। केवल शिर मुड़ाने से श्रमण, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मुनि और कुशा आदि धारण करने से तपस्वी नहीं कहलाते हैं अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप करने से तपस्वी कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त १. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया। उति माणसं जोणि कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ -उ० ७. २०० तथा देखिए-उ० ५. २४; पृ० २३५, पा० टि० १-२. २. विशेष के लिए देखिए-प्रकरण ७. ३. तुलिया ण बालभावं अबालं चेव पंडिए । चइऊण बालभाव अबालं सेवए मुणि । -उ० ७. ३०. न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होई तवेण होइ तावसो । -उ० २५.३१-३२. जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं न तं सुइठं कुसला वयंति । -उ०.१२ ३८. For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २३६ अन्तरङ्ग-शुद्धि के अभाव में बाह्य-शुद्धि (बाह्यलिङ्ग) पोली-मुट्ठी, खोटी-मुहर और काँच की मणि की तरह सारहीन है।' जिसप्रकार पान किया गया अतितीव्र विष, उलटा पकड़ा हुआ अस्त्र और अवशीकृत मन्त्रादि का प्रयोग स्वयं का विघातक होता है उसी प्रकार दिखावटी साध कंठ का छेदन करने वाले शत्रु से भी अधिक स्वयं का अनर्थ करके पश्चात्ताप को प्राप्त होता हुआ नर• कादि योनियों में जन्म-मरण प्राप्त करता है ।२ अतः ग्रन्थ में कहा है कि संयमहीन साधु की अपेक्षा संयमी गृहस्थ श्रेष्ठ है ।' - इस तरह गृहस्थ का सम्पूर्ण आचार साध्वाचार की प्रारम्भिकअवस्था के रूप में है। गृहस्थ गृहस्थी में रहकर सामाजिक कार्यों को करता हआ अहिंसादि उन सभी नियमों का स्थलरूप से पालन करता है जिनका साधु विशेषरूप (सूक्ष्मता) से पालन करता है। 9ানুহীন इस प्रकरण में संसार के दुःखों से निवृत्ति पाने का एवं अविनश्वर सुख की प्राप्ति के आध्यात्मिक-मार्ग का वर्णन किया गया है। जिस १. पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे अयंतिए कूडकहावणे वा । . राढामणी वेरुलियप्पगासे अमहग्घए होइ हु जाणएसु ।। -उ० २०.४२. २. विसं तु पीयं जह कालकूडं हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो वि धम्मो विसोववन्नो हणाइ वेयाल इवाविवन्नो। -उ०२०. ४४. न तं अरि कंठछित्ता करेइ ज से करे अप्पणिया दुरप्पा। . से नाहिई मच्चु मुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥ -उ० २०.४८. ३. नाणासीला अगारत्था विसमसीला य भिक्खुणो । -उ० ५.१६ संति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजमुत्तरा। -उ०५.२०. For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रकार किसी कार्य की सफलता के लिए इच्छा, ज्ञान और प्रयत्न इन तीन बातों का संयोग आवश्यक होता है उसी प्रकार संसार के दु:खों से निवृत्ति पाने के लिए भी विश्वास, ज्ञान और सदाचार के संयोग की आवश्यकता है। इसे ही ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से कहा गया है। यहाँ इतना विशेष है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों गीता के भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की तरह पृथक-पृथक मुक्ति के तीन मार्ग नहीं हैं अपितु तीनों मिलकर एक ही मार्ग का निर्माण करते हैं। इन तीनों का सम्मिलित नाम 'रत्नत्रय' है । ग्रन्थ में यद्यपि कहीं-कहीं ज्ञान के पूर्व चारित्र का तथा दर्शन के पूर्व ज्ञान व चारित्र का भी प्रयोग मिलता है परन्तु इनकी उत्पत्ति क्रमशः होती है। यह अवश्य है कि विश्वास में ज्ञान व चारित्र से, ज्ञान में विश्वास व चारित्र से तथा चारित्र में ज्ञान व विश्वास से दृढता आती है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में कहीं दर्शन के एक अंग से, कहीं ज्ञान के एक अंग से और कहीं चारित्र के एक अंग से मुक्ति का प्रतिपादन किया गया है परन्तु ऐसा सिर्फ उस अंग-विशेष का महत्त्व प्रकट करने के लिए ही किया गया है। ज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी जीव की संसार में कुछ समय के लिए स्थिति स्वीकार करने के कारण एवं फैले हुए दुराचार को रोकने के लिए चारित्र को सर्वोपरि स्थान दिया गया है, अन्यथा जब संसार का मूलकारण अज्ञान है तो सच्चा-ज्ञान ही मुक्ति का प्रधान कारण हो सकता है। यह अवश्य है कि विश्वास एवं चारित्र से उसमें दढ़ता आती है परन्तु जब किसी को सम्यक व पूर्णज्ञान हो जाएगा तो वह दुराचार में क्यों प्रवृत्त होगा ? दुराचार में प्रवृत्ति तभी तक संभव है जब-तक सच्चा-ज्ञान न हो। यदि सच्चा-ज्ञान होने पर भी कोई दुराचार में प्रवृत्त होता है तो वह वास्तव में सच्चा-ज्ञानी नहीं है । इसीलिए ज्ञान की पूर्णता हो जाने पर केवलज्ञानी को 'जीवन्मुक्त' माना गया है तथा वह शेष कर्मों को शीघ्र नष्ट करके नियम से पूर्ण-मुक्त हो जाता है । अत: ज्ञान हो जाने के बाद भी जीव की स्थिति कुछ काल तक रहने के कारण चारित्र को बाद में गिनाया गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ज्ञान मात्र से मुक्ति मिलती For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [- २४१ है अपितु उसमें विश्वास व चारित्र भी अपेक्षित है । अतः रत्नत्रय त्रिपुटी को जो मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है वह उचित ही है । इन तीनों का सम्मिलित नाम 'धर्म' भी है और यह धर्म शब्द पहले प्रकरण में वर्णित 'धर्मद्रव्य' से पृथक् है । यह पुण्यकर्म का भी वाचक नहीं है क्योंकि पुण्यकर्म बन्धन का कारण है । यह धर्म शब्द निष्काम एवं शुद्ध सदाचार के अर्थ का वाचक है । चूँकि पूर्ण एवं शुद्ध सदाचार बिना विश्वास एवं सत्यज्ञान के संभव नहीं है अतः यहाँ पर धर्म शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रपरक माना गया है। जो इस प्रकार के धर्म से युक्त हैं वे ही 'सनाथ' एवं 'धार्मिक' हैं और जो इस प्रकार के धर्म से रहित हैं वे 'अनाथ' एवं 'अधार्मिक' हैं । इस तरह यह धर्म शब्द मीमांसादर्शन के यज्ञ-यागादिक्रियारूप धर्म शब्द से भी भिन्न है । गीता का यह उपदेश कि 'श्रद्धावान् ही पहले ज्ञान प्राप्त करता है और फिर संयतेन्द्रिय बनता है" यहाँ पूर्णरूप से लागू होता है । रत्नत्रय में पहला स्थान सम्यग्दर्शन का है जो भक्ति (श्रद्धा) स्थानापन्न है । बिना श्रद्धा के कोई भी व्यक्ति किसी भी क्रिया में प्रवृत्त नहीं हो सकता है । यदि प्रवृत्त होता भी है तो उसमें दृढ़ता का अभाव होने से पतित होने की सम्भावना रहती है । अतः • आवश्यक था कि ज्ञान और चारित्र के पूर्व श्रद्धा को उत्पन्न करने वाले सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया जाए । यह मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी है तथा ज्ञान और चारित्र की आधार - शिला भी है। सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्वीकार न करने के कारण तथा अपने ही कर्म से जीव में उत्थान और पतन की शक्ति को मानने के कारण यद्यपि श्रद्धा व भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं थी परन्तु ज्ञान और चारित्र में प्रवृत्ति बिना श्रद्धा के सम्भव न होने से सम्यग्दर्शन का अर्थ 'ईश्वर भक्ति' न करके जिनप्रणीत & परमार्थ सत्यों में विश्वास किया गया है। जैनदर्शन में 'जिनेन्द्रभक्ति' को जो सम्यग्दर्शन का अंग माना जाता है उसका कारण है कि उससे जिनप्रणीत तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न होती है । यहाँ परमार्थसत्य से १. गीता ४.३६. For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन तात्पर्य किसी ठोस द्रव्य से नहीं है अपितु चेतन और अचेतन में होने वाले परस्पर सम्बन्धों की कारणकार्यशृंखला से है जो बौद्ध दर्शन में बतलाए गए चार आर्यसत्यों के ही समान हैं । बौद्धदर्शन में आत्म-अनात्मविषयक कोई भेद नहीं है और न उनकी परमार्थ सत्ता है | अतः उन आर्यसत्यों में चेतन और अचेतन का सन्निवेश नहीं किया गया है । परन्तु यहाँ पर आत्म-अनात्मविषयक भेद उतना ही परमार्थसत्य है जितने अन्य सत्य क्योंकि आत्म-अनात्म को परमार्थसत्य स्वीकार किए बिना किसे बन्धन, किसे मुक्ति, किससे बन्धन और किससे मुक्ति मानी जाएगी ? अतः ग्रन्थ में जीवादि परमार्थसत्यों में विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहा गया है । इस सम्यग्दर्शन शब्द एक और अर्थ निहित है । वह हैसत् - दृष्टि को प्राप्त करना । सत्-दृष्टि प्राप्त करने का अर्थ हैपरमार्थ में स्थित होना । अतः सम्यग्दर्शन को रत्नत्रय का उपलक्षण मानकर रत्नत्रयधारी को सम्यग्दष्टि कहा गया है । बौद्धदर्शन में भी मुक्ति के साधनभूत प्रज्ञा, शील और समाधि के पूर्व इस सत्-दृष्टि को स्वीकार किया गया है जो बौद्धदर्शन में 'आर्य अष्टाङ्गमार्ग' के नाम से प्रसिद्ध है । ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के जो १० भेद गिनाए गए हैं वे उसकी उत्पत्ति की निमित्तकारणतारूप उपाधि की अपेक्षा से हैं क्योंकि सत्दृष्टि का प्राप्त करना या परमार्थसत्यों में विश्वास करना सर्वत्र अपेक्षित है । यहाँ मैं एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला 'दर्शन' गुण - विशेष श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन नहीं है क्योंकि श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय का प्रतिफल है, न कि दर्शनावरणीय कर्म के क्षय का परिणाम | दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला 'दर्शन' गुण - विशेष ज्ञान की पूर्वावस्था है अर्थात् विषय और विषयी के सन्निपात होने पर जो सर्वप्रथम निराकार सामान्यबोध होता है उसे 'दर्शन' कहते हैं और दर्शन के बाद (विषय-विषयी के सन्निपात के उत्तरकाल में ) होने वाले साकार ( विशेष ) बोध को 'ज्ञान' कहते हैं । इस तरह 'दर्शन' गुण का अर्थ है 'निराकारात्मक सामान्य ज्ञान' और सम्यग्दर्शन शब्द का अर्थ है 'परमार्थभूत सत्यों For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २४३ में विश्वास ।' इसके अतिरिक्त सम्यग्ज्ञान का अर्थ है - सम्यग्दर्शन के द्वारा श्रद्धान किए गए पदार्थों का यथावस्थित साकारात्मक विशेष ज्ञान । रत्नत्रय में द्वितीय स्थान सम्यग्ज्ञान का है जिसके अभाव में सम्यक्चारित्र स्थिर नहीं रह सकता है क्योंकि जबतक सत्यज्ञान नहीं होगा तबतक सदाचार में सम्यक् प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? ज्ञान के अभाव में श्रद्धा भी चिरस्थायी नहीं हो सकती है । जब सत्यज्ञान हो जाता है तो फिर दुराचार में प्रवृत्ति का कोई कारण नहीं रह जाता है क्योंकि दुराचार में प्रवृत्ति का कारण अज्ञान है । यहां पर चेतन से अचेतन का पार्थक्य - बोध ही सत्यज्ञान है, जबकि बौद्धदर्शन में चेतन की पृथक् प्रतीति होना मिथ्याज्ञान है । बौद्धदर्शन में चेतन द्रव्य स्वीकार न करने के कारण 'आत्मज्ञान' को मिथ्या कहा गया है और प्रकृत ग्रन्थ में अचेतनरूप भौतिक शरीरादि से चेतन की पृथक् प्रतीति कराने के लिए 'आत्मज्ञान' को सम्यग्ज्ञान माना गया है । जबतक भेदात्मक आत्मज्ञान नहीं होगा तबतक संसार के विषयों से विरक्ति नहीं हो सकती है । अतः आत्मज्ञान को सत्यज्ञान के रूप में प्रदर्शित करके ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण माना गया है जो कर्मरूपी आवरण (ज्ञानावरणीयकर्म) के हटने पर प्रकट होता है । उत्तराध्ययन में ज्ञान का विभाजन उसकी विभिन्न पाँच अवस्थाओं के आधार से किया गया है। ज्ञान के इस विभाजन में इतना विशेष है कि शास्त्रज्ञान का महत्त्व प्रकट करने के लिए प्रकृत ग्रन्थ में श्रुतज्ञान को प्रथम गिनाया गया है। जबकि जैनदर्शन में श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान ( आभिनिबोधिकज्ञान ) को निमित्त मानकर मतिज्ञान को श्रुतज्ञान के पूर्व बतलाया गया है ।' इन्द्रियजन्य मतिज्ञान सभी संसारी जीवों में हीनाधिकरूप में अवश्य पाया जाता है क्योंकि सभी संसारी जीवों के कम से कम स्पर्शन इन्द्रिय अवश्य होने के कारण तज्जन्य ज्ञान अवश्यम्भावी है । इसीलिए ज्ञान को जीव का स्वरूप १. देखिए - पृ० २०८, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन माना गया है। इसके अतिरिक्त श्रुतज्ञान भी सभी जीवों में किसी न किसी रूप में अवश्य पाया जाता है । इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि यदि किसी को एक ज्ञान होता है तो वह 'केवलज्ञान' होगा। अन्यथा संसारी जीवों को कम से कम दो ज्ञान (मति व श्रुतज्ञान) अवश्य होते हैं।' यह श्रुतज्ञान शास्त्रजन्यज्ञान या आगमज्ञान है न कि समस्त श्रवणेन्द्रियजन्य ज्ञान क्योंकि श्रवणेन्द्रियजन्य सामान्यज्ञान तो मतिज्ञान का एक भेद है। यह अवश्य है कि श्रुतज्ञान में सामान्यतया श्रवणेन्द्रिय की अपेक्षा रहती है। परन्तु समस्त श्रवणेन्द्रियज्ञान श्रुतज्ञान नहीं है। यहाँ इतना विशेष है कि शब्द और श्रवणेन्द्रिय का प्रथम स्पर्श होने पर जो ज्ञान होता है वह श्रवणेन्द्रियजन्य मतिज्ञान है तथा इसके बाद मन की सहायता से जो अर्थादि का विचार होता है वह श्रुतज्ञान है। अतः श्रुतज्ञान को जैनदर्शन में अनिन्द्रिय (मन) निमित्तक मानकर मतिपूर्वक स्वीकार किया गया है। यह श्रुतज्ञान केवल अक्षरात्मक ही होता है, ऐसी बात नहीं है। यह श्रतज्ञान अनक्षरात्मक भी होता है। अतः ऐसी स्थिति में ही यह श्रतज्ञान एकेन्द्रियादि जीवों के स्वीकार किया गया है। जहाँ तक सम्यक-श्रुतज्ञान का प्रश्न है वह संज्ञी (मनसहित) पंचेन्द्रिय जीवों के ही संभव है और वह भी किन्हीं-किन्हीं को होता है, सबको नहीं होता है। ग्रन्थ में शास्त्रज्ञान का महत्त्व बतलाने का कारण यह है कि ये शास्त्र सत-दष्टिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में प्रमुख बाह्य निमित्तकारण हैं। जिस प्रकार शास्त्र सत-दष्टिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण हैं उसी प्रकार शास्त्रज्ञानी गुरु भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण हैं क्योंकि गुरूपदेश ही शास्त्रज्ञान व सत्दृष्टिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में सहायक होते हैं। अतः ग्रन्थ में गुरु के भी महत्त्व को बतलाया गया है। शास्त्रज्ञान प्राप्त करने के लिए शिष्य को गुरु के समीप जाना पड़ता है और गुरु भी विनीत व योग्य शिष्य को पाकर समस्तज्ञान उसे दे देता है। जो शिष्य गुरु की अविनय करते हैं वे उस ज्ञान की प्राप्ति से वञ्चित रह जाते हैं। अतः ज्ञानप्राप्ति के लिए शिष्य को जिन १. देखिए-पृ० २१४, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ३: रत्नत्रय [ २४५ गुणों से युक्त होना चाहिए उनमें कुछ इस प्रकार हैं : विनय, सदाचार, कर्त्तव्यपरायणता, जितेन्द्रियता आदि । रत्नत्रय में तृतीय स्थान सम्यक्चारित्र का है जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और धनादि-संग्रहत्याग (अपरिग्रह) रूप पाँच नियमों के पालन करने में पूर्ण होता है। इन सभी नियमों के मूल में अहिंसा की भावना है और अहिंसा की पूर्णता पूर्ण वीतरागता (अपरिग्रहता) की अवस्था में होती है। अतः वीतरागतारूप चारित्र के उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से साधु के सम्यक्चारित्र को पाँच भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें साधक क्रमशः प्राप्त करता है। सदाचार का पालन करने वाले गृहस्थ या साधु स्त्री-पुरुष होते हैं। अतः इस सदाचार को दो भागों में भी विभक्त किया गया है : १. गृहस्थाचार और २. साध्वाचार । __ गहस्थाचार साध्वाचार की प्रारम्भिक अभ्यासावस्था है क्योंकि गहस्थ धीरे-धीरे अपने चारित्र का विकास करता हुआ साधु के आचार की ओर अग्रसर होता है। गृहस्थाचार पालन करने का उपदेश उन्हें ही दिया गया है जो साध्वाचार का पालन नहीं कर सकते हैं । अतः चारित्र के सामायिक आदि जो पाँच भेद किए गये हैं वे साधु के आचार की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। सामायिकचारित्र के अन्तर्गत जिन अहिंसादि व्रतों का साधु सूक्ष्मरूप से पालन करता है गृहस्थ उन्हीं व्रतों को अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता हुआ स्थूलरूप से पालन करता है। अतः गृहस्थ के अहिंसादि व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं और साधु के 'महाव्रत' । यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ग्रन्थ में गृहस्थ को जो मुक्ति का अधिकारी बतलाया गया है उसका कारण है बाह्य लिङ्ग की अपेक्षा आभ्यन्तर-शुद्धि का महत्त्व । अन्यथा ग हस्थ ग हस्थावस्था से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी नहीं होता है। जबतक कोई गहस्थ या साधु पूर्ण वीतरागी नहीं होगा तबतक वह मुक्ति का भी अधिकारी नहीं हो सकता है। यह सत्य है कि वीतरागता व सदाचार की पूर्णता बाह्यलिङ्ग से नहीं होती है अपितु वह आत्मा की शुद्धि पर निर्भर है। चूंकि गृहस्थ कौटुम्बिक For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रपञ्चों में उलझा रहता है जिससे उसे आत्मशुद्धि का अवसर कम मिलता है, जबकि साधु सांसारिक सभी प्रपञ्चों से दूर रहता है जिससे उसे आत्मविशुद्धि के लिये अधिक अवसर मिलता है। अतः जब गृहस्थ गार्हस्थ्य-जीवन में रहते हुए भी उससे उसी प्रकार अलग सा रहता है जिस प्रकार जल में रहकर भी कमल जल से भिन्न रहता है तब वह गृहस्थ वास्तव में गृहस्थ नहीं है अपितु वीतरागी ही है। गृहस्थी में रहने के कारण उसका जो गार्हस्थ्य-जीवन के साथ सूक्ष्म रागात्मक सम्बन्ध बना रहता है वह भी जब अन्तिम समय (मृत्युसमय) छूट जाता है तब वह पूर्ण वीतरागी होकर मुक्ति का अधिकारी हो जाता है। इसका विशेष विचार मुक्ति के प्रकरण में किया जाएगा। इस तरह इस प्रकरण में संसार के दुःखों से निवृत्ति पाने के लिए तथा अविनश्वर सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय का संक्षेप में वर्णन किया गया है। प्रसंगवश सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में ज्ञान की प्राप्ति में निमित्तभत गुरु-शिष्य के सम्बन्धों तथा उनके कर्त्तव्यों आदि का भी वर्णन किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ सामान्य साधनाचार जिन अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों को गृहस्थ अंशतः (स्थूलरूप से) पालन करता है उनको ही साधु सर्वात्मना ( सूक्ष्मरूप से ) पालन करता है । साधु के बाह्यवेष आदि में परिस्थितियों के अनुसार नियमों व उपनियमों के रूप में परिवर्तन होते रहे हैं । इसका स्पष्ट संकेत हमें केशिगौतम संवाद में मिलता है । वहाँ बतलाया गया है कि भगवान् महावीर ने किस प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ के ं धर्म में देश- कालानुरूप परिवर्तन किए। इस प्रकार के परिवर्तनों के होने पर भी साधु के मूल आचार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ क्योंकि जो भी परिवर्तन किए गए वे देश-काल की परिस्थिति को ध्यान में रखकर सिर्फ बाह्य- उपाधिभूत नियमों व उपनियमों में किए गए ताकि साधु अन्तरङ्ग आत्मविशुद्धि में दृढ़ बना रहे । इसीलिए ग्रन्थ में सर्वत्र बाह्य-उपाधि की अपेक्षा अन्तरङ्ग आत्म-विशुद्धि को श्रेष्ठ बतलाया गया है । साधु के आचार को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है : १. सामान्य साध्वाचार और २. विशेष साध्वाचार | सामान्य साध्वाचार : साधु के द्वारा प्रतिदिन जिस प्रकार के सदाचार का सामान्यरूप से पालन किया जाता है उसे सामान्य साध्वाचार कहा गया है । इसमें मुख्यरूप से निम्नोक्त विषयों पर विचार किया जाएगा : १. दीक्षा की उत्थानिका - दीक्षा के पूर्व की स्थिति । २. बाह्य उपकरण (उपधि ) - वस्त्र, पात्र आदि बाह्य साधन । ३. महाव्रत - अहिंसादि पाँच नैतिक नियम | ४. प्रवचनमाताएँ ( गुप्ति व समिति ) - महाव्रतों की रक्षार्थ प्रवृत्ति और निवृत्ति में सावधानी । For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ५. आवश्यक छः नित्य-कर्म । ६. सामाचारी-सम्यक् दिनचर्या और रात्रिचर्या । ७. वसति या उपाश्रय-ठहरने का स्थान । ८. आहार-खान-पान । विशेष साध्वाचार : _जिस आचार का साधु विशेष अवसरों पर आत्मा की विशेष शुद्धि के लिए विशेषरूप से पालन करता है उसे विशेष साध्वाचार कहा गया है। इसमें मुख्यरूप से निम्नोक्त विषयों पर विचार किया जाएगा: १. तपश्चर्या-तप। २. परीषहजय-क्षुधादि बाईस प्रकार के कष्टों को सहना । ३. साधु की प्रतिमाएँ-तप-विशेष। ४. समाधिमरण-मृत्यु-समय विधिपूर्वक अनशनव्रत के साथ शरीर-त्याग। विषय की अधिकता होने के कारण इस प्रकरण में साधु के केवल सामान्य आचार का ही वर्णन किया जाएगा और विशेष आचार का वर्णन अगले प्रकरण में किया जाएगा। दीक्षा की उत्थानिका इसमें दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व की स्थितियों का प्रस्तुतीकरण किया गया है। जैसे : दीक्षा लेने का अधिकारी, दीक्षा के पूर्व माता-पितादि की अनुमति आदि। दीक्षा लेने का अधिकारी : संसार के विषयों से निरासक्त एवं मुक्ति का अभिलाषी प्रत्येक व्यक्ति इस दीक्षा को ग्रहण कर सकता है । इसमें जाति, कुल, आयु, लिङ्ग आदि का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। संसार के विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति श्रेष्ठ जाति व कुल में उत्पन्न होकर भी इसके अयोग्य है। इसीलिए चाण्डाल जैसी नीच जाति में उत्पन्न हरिकेशिवल संसार के विषय-भोगों से निरासक्त होने के कारण For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २४६ साधु होकर देवादि के द्वारा भी पूजनीय हो जाता है। इसी प्रकार मृगापुत्र, अनाथी और भृगु-पुरोहित के दोनों पुत्र युवावस्था में तथा भृगु-पुरोहित, उसकी पत्नी, इषुकार राजा और उसकी पत्नी आदि युवावस्था के बाद दीक्षा लेते हैं । अरिष्टनेमी और राजीमती विवाह की मङ्गलबेला में ही संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो जाते हैं ।" इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में एक समय में मुक्त होनेवाले rai की संख्या गणना के प्रसङ्ग में विभिन्न स्थानों, विभिन्न धर्मावलम्बियों एवं विभिन्न-लिङ्गवालों की पृथक्-पृथक् संख्या गिनाई है । इससे स्पष्ट है कि दीक्षा में स्थान, जाति, लिङ्ग आदि कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं है क्योंकि जो मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है वह दीक्षा लेने का अधिकारी क्यों नहीं हो सकता है ? अतः ग्रन्थ में जन्मना जातिवाद का खण्डन करके कर्मणा जातिवाद की स्थापना करते हुए लिखा है - 'कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र होता है । " " यदि ब्राह्मण नीच कार्य करता है तो वह सच्चा-ब्राह्मण नहीं है और साधु सच्चा साधु नहीं है क्योंकि बाह्यशुद्धि की अपेक्षा अन्तरङ्ग की शुद्धि एवं सत्कार्यों से ही व्यक्ति उच्च होता है । अतः सिद्ध है कि सदाचार पालन करने की सामर्थ्य वाला प्रत्येक व्यक्ति जो संसार के विषयों से विरक्त होकर मुक्ति की अभिलाषा रखता है, दीक्षा लेने का अधिकारी है । यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि युवावस्था में भोगों को भोगना चाहिए और फिर वृद्धावस्था में दीक्षा लेना चाहिए । ५ यद्यपि यह सत्य है कि युवावस्था में युवकों की चित्तवृत्ति सांसारिक विषय-भोगों की ओर अधिक आकर्षित रहती है जिससे उस अवस्था दीक्षा लेना कठिन होता है परन्तु यह भी सत्य है कि वृद्धावस्था १. देखिए - परिशिष्ट २. २. देखिए - प्रकरण ६. ३. कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ । सो कम्णा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा || - उ० २५. ३३. ४. देखिए - पृ० २३८, पा० टि० ३; पृ० २३६, पा० टि० १-३. ५. उ० १४.६, २६; १९.४४; २२.३८. For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन में शरीर के शिथिल हो जाने पर धर्म का पालन कर सकना और भी अधिक कठिन है, जबकि युवावस्था में शक्य है। युवावस्था से ही यदि धर्म के पालन करने का प्रयत्न किया जाए तो वृद्धावस्था में भी उसके धारण करने की सामर्थ्य बनी रहती है। अतः ग्रन्थ में कहा है कि कल की प्रतीक्षा वही व्यक्ति करे जिसकी मृत्यु से मित्रता है या जो मृत्यु से बच सकता है।' दीक्षार्थ माता-पिता की अनुमति : दीक्षा लेने के पूर्व माता-पिता व सम्बन्धीजनों से अनुमति लेना चाहिए। यदि वह घर का ज्येष्ठ व्यक्ति हो तो पुत्रादि को सम्पत्ति वगैरह सौंपकर दीक्षा ले लेना चाहिए। यदि माता-पिता पूत्र को दीक्षा के लिए अनुमति न देकर भोगों के प्रति प्रलोभित करें तो दीक्षा लेनेवाले का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है कि वह माता-पिता को समझाने का प्रयत्न करे। पश्चात् आत्म-कल्याणार्थ दीक्षा ले लेवे । अरिष्टनेमी और राजीमती ने दीक्षा के पूर्व माता-पिता से अनुमति ली थी या नहीं इसका यद्यपि ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है परन्तु दीक्षा ले लेने पर वासूदेव आदि उनके कूटम्बीजन उन्हें अभिलषित मनोरथप्राप्ति का आशीर्वाद अवश्य देते हैं। इससे उनकी अनुमति की पुष्टि हो जाती है। दीक्षा के पूर्व माता-पिता से आज्ञा लेना उनके प्रति विनय एवं कर्त्तव्यपरायणता का सूचक है । परिवार एवं सांसारिक विषय-भोगों का त्याग : माता-पिता की आज्ञा लेने के बाद साधक को माता-पिता, भाई, पत्नी, पुत्र आदि सभी कूटम्बीजनों तथा संसार के सभी १. जस्सत्थि मच्चु णा सक्खं जस्स वऽत्थि पलायगं । जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया । -उ० १४.२७. २. उ० १४.६-७; १६.१०-११, २४, ८६, ८७; २०.१०, ३४. ३. पुत्तं ठवेत्तु रज्जे अभिणिक्खमई नमी राया। -उ०६.२. ४. उ० अध्ययन १४, १६. ५. उ० २२.२५-२६, ३१. For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वा चार [ २५१ पदार्थों को महामोह एवं महाभय को पैदा करनेवाले जानकर उसी प्रकार त्याग देना चाहिए जिस प्रकार हाथी बन्धन को तोड़कर वन में चला जाता है, ' मनुष्य वमन की हुई वस्तु को छोड़ देते हैं, सर्प केचुली को त्याग देता है, 3 रोहित मत्स्य जाल का भेदन करके चला जाता है, धूलि कपड़े से निकालकर फेंक दी जाती है, ५ क्रौञ्च पक्षी आकाश में अव्याहत गति से चला जाता है, हंस विस्तृत जाल का भेदन करके चला जाता है । इसके अतिरिक्त ६ १. नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणो वसहि वए । जहित्तु संगं च महाकिलेसं० । -उ० १४.४८. — उ० २१.११. तथा देखिए - उ० १.१; ६.१५, ६१; १५.६ - १०,१६; १८.३१; १६. ६०; ३५.२-३ आदि । २. चिच्चा ण धणं च भारियं पव्वइओ हि सि अणगारियं । मातं पुणो विविए तथा देखिए - उ० १२.२१-२२. - उ० १०.२६. ३. जहा य भोई तणुयं भुयंगो निम्मोर्याण हिच्च पलेइ भुत्तो । एमए जाया पहंति भोए " - उ० १४.३४. तथा देखिए - उ० १६.८७. ४. छिदित्तु जालं अवलं व रोहिया मच्छा जहा कामगुणे पहाया । ५. इड्ढी वित्तं च मित्ते च पुत्तदारं च नायओ । रेणु व पडे लग्गं निद्धणित्ता ण निग्गओ ॥ - उ० १६.८८. ६. नहेव कुचा समइक्कमंता तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा । पति पुत्ताय पई यमज्झं ते हूं कहं नानुगमिस्समेका । - उ० १४.३६. ७. बही । - उ० १४.३५. For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन यदि देव आदि की प्रेरणा से किसी अलभ्य वस्तु की भी प्राप्ति हो तो उसे प्राप्त करने की मन में कल्पना भी न करे ।' यदि वह राजा है तो उसे यह भी नहीं सोचना चाहिए कि मेरे बाद इस गृह, देश, नगर आदि की रक्षा कैसे होगी ? क्योंकि विगतमोहवाले को कुछ भी कार्य करना शेष नहीं रह जाता है । दीक्षा लेते समय यदि उसके आश्रित प्राणी निराश्रित होकर रोने-चिल्लाने भी लगें तो यह सोचकर कि यह तो मैंने इन लोगों के साथ अच्छा नहीं किया, दीक्षा का विचार नहीं छोड़ना चाहिए, अपितु यह सोचना चाहिए कि जिस प्रकार फलवाले वृक्ष के गिर जाने पर उसके आश्रित जीवों के निराश्रित हो जाने से वृक्ष को दोषी नहीं ठहराया जाता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति के दीक्षा ले लेने पर उसके आश्रित जीवों के निराश्रित होकर चिल्लाने से दीक्षा लेनेवाले पर कोई दोष नहीं आता है । आश्रित व्यक्तियों के रोनेचिल्लाने का कारण है उनका अपना स्वार्थ । अतः ग्रन्थ के नमिप्रव्रज्या अध्ययन में राजा नमि के हृदय में दीक्षा के समय उत्पन्न होनेवाले इसी प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व को इन्द्रनमिसंवाद के द्वारा समाधान के रूप में उपस्थित किया गया है । दीक्षा पलायनवाद नहीं : साधु धर्म में दीक्षा लेना गृहस्थाश्रम की कठिनाइयों से घबड़ाकर पलायन नहीं है । इसीलिए राजा नमि की दीक्षा के समय जब इन्द्र उनसे यह कहता है कि गृहस्थाश्रम को त्यागकर अन्य आश्रम ( संन्यासाश्रम) की प्रार्थना करने की अपेक्षा उत्तम है कि आप गृहस्थोचित कर्त्तव्यों को करें तो राजा नमि का यह उत्तर कि जो अज्ञानी मास में केवल एक बार कुशाग्रप्रमाण आहार करता है वह भी इस सर्वविरतिरूप सुविख्यात धर्म ( संन्यासाश्रम) की सोलहवी १. देवाभिओगेण निओइ एणं दिन्नासु रन्ना मणसा न झाया । नरददेविदभिवं दिए जेणामि वंता इसिणा स एसो || - उ० १२.२१. तथा देखिए - ३० १२.२२. For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २५३ कला को भी प्राप्त नहीं कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि दीक्षा लेना गृहस्थाश्रम से पलायन नहीं है । यदि संन्यास लेने पर भी राग-द्वेष की भावना बनी रहती है तो उसे पलायन कहा जा सकता है । अत: जैन साधु के लिए सब प्रकार के ममत्व के साथ अपने शरीर से भी ममत्व न करने को कहा गया है । दीक्षागुरु : दीक्षा लेते समय सामान्यतया दीक्षा देने वाले गुरु की आवश्यकता पड़ती है । साधक जिसके सान्निध्य में दीक्षित होता है वह उसका 'दीक्षागुरु' कहलाता है । 3 यदि ऐसा कोई दीक्षागुरु न मिले तो. समर्थ होने पर वह स्वयं दीक्षा ले सकता है और दीक्षित होकर अन्य लोगों का भी दीक्षागुरु बनकर उन्हें साधुधर्म में दीक्षित कर सकता है । जैसे राजीमती पहले स्वयं दीक्षा लेती है और बाद में अन्य जीवों की दीक्षागुरु बनती है । यहां इतना विशेष है कि ज़ो उम्र में बड़ा होता है वह गुरु नहीं होता है अपितु जो पहले दीक्षा लेता है वही गुरु होता है। जिसकी दीक्षा जितने अधिक समय की होती है वह उतना ही अधिक पूज्य भी होता है । १. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि ।। - उ० ६.४४. २. जे कहिवि न मुच्छिए स भिक्खू वोकाया सुइचत्तदेहा | - उ० १२.४२. - उ० १५.२. ३. संजओ चइउं रज्जं निक्खंतो जिणसासणे । गद्दभास्सि भगवओ अणगारस्स अंतिए || - उ० १८.१६. ४. सापव्वइया संती पव्वावेसी तहि बहु । - उ० १२.३२. For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अतः दीक्षा ले लेने पर वह अपने माता-पिता आदि सभी . कुटुम्बीजनों के द्वारा भी पूज्य हो जाता है।' वस्त्राभूषण का त्याग एवं केशलौंच : दीक्षित होने वाले साधक को सर्वप्रथम अपने सभी वस्त्राभूषणों का त्याग करना पड़ता है। तदनन्तर अपने सिर एवं दाढ़ी के बालों को दोनों मुठियों से स्वयं या दूसरे की सहायता से उखाड़ना पड़ता है जिसे केशलौंच कहा जाता है । इस तरह साधक को दीक्षा लेने के पूर्व सर्वप्रथम अपने कुटुम्बीजनों की आज्ञा लेनी पड़ती है। इसके बाद वह कुटम्ब एवं परिवार के स्नेहीजनों का मोह छोड़कर तथा संसार के विषय-भोगों का परित्याग करके दीक्षागुरु के समीप जाता है। वहाँ पहुँचकर वह अपने सभी वस्त्र एवं आभूषण आदि को त्यागकर दोनों हाथों से अपने बालों को भी उखाडकर अलग कर देता है। इसके बाद वह साध के नियमों आदि को ग्रहण करता है। यह दीक्षा संसार के कष्टमय जीवन से पलायन नहीं है तथा इसे कोई भी ग्रहण कर सकता है। बाह्य उपकरण प्राध __ग्रन्थ में साध के बाह्यवेष व उपकरण आदि के विषय में जो संकेत मिलते हैं उनसे पता चलता है कि साधु गृहस्थ के द्वारा प्राप्त साधारण वस्त्रों को पहिनते थे तथा पात्र आदि कुछ अन्य १. एवं ते रामकेसवा दसारा य बहुजणा। अरिट्टनेमि वंदित्ता अइगया बारगाउरि ।। -उ० २२. २७. २. आभरणाणि य सव्वाणि सारहिस्स पणामई । -उ० २२. २०. सयमेव लुचई केसे पंचमुट्ठीहिं समाहिओ। -उ० २२. २४. तथा देखिए-उ० २२. ३०-३१. For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २५५ उपकरण भी अपने पास में रखते थे। कुछ साधु वस्त्र से रहित भी होते थे । केशिगौतम-संवाद में भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्यों और भगवान् महावीर की परम्परा के शिष्यों में 'सान्तरोत्तर' ( वस्त्रसहित ) और 'अचेल' ( वस्त्ररहित ) के १. सान्तरोत्तर-केशि ने भगवान पार्श्वनाथ के धर्म को जो संतरुत्तर (सान्तरोत्तर) बतलाया है वह विचारणीय है क्योंकि इस शब्द के . अर्थ में विद्वानों में विचार-भेद पाया जाता है। जैसे : क. सान्तराणि-वर्धमानस्वामियत्यपेक्षया मानवर्णविशेषतः सविशेषाणि, उत्तराणि-महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमात् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पार्श्वेन देशितः । -उ० (२३. १३) ने० टी०, पृ० २६५. ख. अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि अथवा... शीतपरीक्षार्थ च सान्त रोत्तरो भवेत् । सान्तरमुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित् प्रावृणोति क्वचित् पार्श्ववति विभर्ति शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति, अथवाऽवमचेल एक-कल्प-परित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थः, अथवा शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयकल्पमपि परित्यजेत् तत एक. शाटकः संवृत्तः, अथवाऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति असौ मुखवस्त्रिकारजोहरणमात्रोपधिः । -आचाराङ्गसूत्र २०६ (शीलांकत्ति, पृ० २५१). 7. The Law taught by Vardhamāna forbids clothes, but that of the great sage Pārsva allows an under and upper garment. -से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १२३. भगवान महावीर के धर्म को 'अचेल' (वस्त्ररहित) कहने से प्रतीत होता है कि 'सान्तरोत्तर' का अर्थ 'सचेल' (वस्त्र-सहित) होना चाहिए परन्तु उपर्युक्त उद्धरणों से तथा 'सचेल' के अर्थ में 'अचेल' की तरह 'सचेल' शब्द का प्रयोग न करके 'सान्तरोत्तर' शब्द का प्रयोग करने से प्रतीत होता है कि 'सान्तरोत्तर' का अर्थ उत्तरीय-वस्त्र और अधोवस्त्र इन दो वस्त्रों के धारण करने से है। आचाराङ्गसूत्र-वृत्ति (अथवाऽवमचेल एक-कल्प-परित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थः) से भी इसी For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन भेद को लेकर एक संवाद होता है। इसमें पार्श्वनाथ की परम्परा के प्रधान शिष्य केशि-श्रमण महावीर के प्रधान शिष्य गौतम से पूछते हैं कि एक ही धर्म के मानने वालों में यह वस्त्रसम्बन्धी भेद कैसा ? इसके उत्तर में गौतम कहते हैं कि विज्ञान से जानकर धर्म के साधनभूत उपकरणों की आज्ञा दी जाती है। बाह्यलिङ्ग तो लोक में मात्र प्रतीति कराते हैं कि अमूक साध है परन्तु मोक्ष के प्रति सद्भुत-साधन तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। इसका आशय यह है कि यह वस्त्रसम्बन्धी भेद भगवान् महावीर मत की पुष्टि होती है । अथवा आचाराङ्गसूत्रवृत्ति के अनुसार ही 'सान्तरोत्तर' शब्द का यह अर्थ भी उचित है कि सान्तरोत्तर वह साधु है जो वस्त्र रखता तो अवश्य है परन्तु उसका उपयोग कभी-कभी समय पड़ने पर ही करता है। उत्तराध्ययन-नेमिचन्द्रवृत्ति के अनुसार सान्तरोत्तर शब्द का अर्थ जो (महावीर के वस्त्रों की अपेक्षा से) बहुमूल्य व श्रेष्ठ-वस्त्र किया गया है वह उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि अचेल के साथ उसकी कोई संगति नहीं बैठती है। यद्यपि 'अचेल' शब्द का अर्थ टीकाओं में 'निम्नकोटि के वस्त्र' भी किया गया है परन्तु यहाँ पर 'अचेल' शब्द का सीधा-सा अर्थ है-वस्त्ररहित । यदि ऐसा अर्थ न होता तो यहाँ पर 'सान्तरोत्तर' की तरह ही 'अचेल' शब्द का प्रयोग न करके 'अवमचेल' (देखिए-पृ० २५६, पा० टि० २) शब्द का प्रयोग किया जाता जैसा कि हरिकेशिबल मुनि के लिए किया गया है। १. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ।। -उ० २३.२६. २. विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं । -उ० २३.३१. पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगपओयणं ।।। -उ० २३.३२० तथा देखिए-उ० २३.२५. For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२५७ ने लोगों की बदलती हुई सामान्यप्रवृत्ति को ध्यान में रखकर किया है। लोगों की बदलती हुई प्रवृत्ति को बतलाते हुए लिखा है कि प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् आदिनाथ के समय में मनुष्य सरलप्रकृति के साथ मूर्ख थे (ऋजुजड़ ), चौबीसवें ( अन्तिम ) तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के समय में मनुष्य कुटिलप्रकृति के साथ मूर्ख थे (वक्रजड़ ) तथा दोनों तीर्थङ्करों के मध्यकाल ( दूसरे से लेकर तेईसवें तीर्थङ्कर के काल ) में मनुष्य सरलप्रकृति के साथ व्युत्पन्न ( ऋजुप्राज्ञ ) थे।' इसका यह तात्पर्य है कि मध्यकाल के व्यक्ति सरल व व्युत्पन्न होने के कारण धर्म को आसानी से ठीक-ठीक समझ लेते थे तथा उसमें कुतर्क आदि न करके यथावत उसका पालन करते थे। अतः मध्यकाल में वस्त्रादि के नियमों में शिथिलता दे दी गई थी परन्तु आदिनाथ तथा महावीर के काल में व्यक्तियों के मूर्ख ( अल्पज्ञ ) होने के कारण यह सोचकर कि कहीं वस्त्रादिक में रागबुद्धि न करने लगें वस्त्रादि के विषय में प्रतिबन्ध लगा दिए गए। महावीर के काल में ऐसा करना और भी अधिक आवश्यक हो गया क्योंकि इस काल के व्यक्ति वक्र होने के कारण कुतर्क द्वारा धर्म में भेद करने लगे थे। अतः महावीर के काल में स्थविरकल्प (अपवादमार्ग) की अपेक्षा से साधारणकोटि के वस्त्र धारण करने की तथा जिनकल्प (उत्सर्गमार्ग) की अपेक्षा से नग्न रहने की अनुमति दी गई। इससे प्रतीत होता है कि साध या तो साधारणकोटि के वस्त्रधारी होते थे या नग्न। साधु के लिए सहनीय प्रमुख २२ कष्टों ( परीषहों) में अचेल होना भी एक कष्ट है जिसका वर्णन करते हुए लिखा है कि साधु वस्त्र फट जाने पर या नग्न हो जाने पर भी नूतन वस्त्र की अभिलाषा न करे। . १. पुरिमा उज्जुजड्डा वक्कजडा य पच्छिमा। ' मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेण धम्मे दुहा कए। पुरिमाणं दुन्विसोझो उ चरिमाणं दुरणपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोज्झो सुपालओ ॥ -उ० २३. २६-२७. २. देखिए-पृ० २५५, पा० टि० १. ३. देखिए-पृ० ३२, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन यद्यपि साधु सब प्रकार के परिग्रह से रहित होता है तथापि जीविका-निर्वाह, धर्मपालन तथा लोक में प्रतीति कराने के लिए वह जिन आवश्यक बाह्य उपकरणों को ग्रहण करता है उन्हें उपधि या उपकरण कहते हैं। इन्हें मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है :१. १. सामान्य-उपकरण ( ओघोपधि ) और २. विशेष-उपकरण ( औपग्रहिकोपधि )। सामान्य उपकरण : जो वस्त्रादि साधु के उपयोग में हमेशा आते रहते हैं वे सामान्यउपकरण ( ओघोपधि ) कहलाते हैं। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में स्थविरकल्पी साध के लिए वतमान में ऐसे १४ उपकरणों के रखने की छट है।२ परन्तु ग्रन्थ में इस प्रकार के जिन उपकरणों का उल्लेख मिलता है, वे इस प्रकार हैं : १. मुखवस्त्रिका-श्वेत कपड़े की पट्टी जिसे जैन श्वेताम्बर (स्थानकवासी और तेरापन्थी) साधु हमेशा मुख पर बांधे रहते हैं । दिगम्बर-परम्परा के साधु इस उपकरण को नहीं धारण करते हैं । १. ओहोवहोवग्गहियं भण्डगं दुविहं मुणी । -उ० २४.१३. २. वे चौदह उपकरण इस प्रकार हैं : १. पात्र, २. पात्रबन्ध, ३. पात्र स्थापन, ४. पात्रप्रमार्जनिका, ५. पटल, ६. रजस्त्राण, ७. गुच्छक, ८-६. दो चादरें, १०. ऊनीवस्त्र (कम्बल), ११. रजोहरण, १२. मुखवस्त्रिका, १३. मात्रक (पात्र-विशेष) और १४ चोलपट्टक, (लंगोटी)। -जै० सा० इ० पू०, पृ० ४२४. ३. पुविल्लम्मि चउभाए पडिले हित्ताण भण्डयं । ......... मुहपोत्ति पडिलेहित्ता पडिले हिज्ज गोच्छगं । गोच्छगल इयंगुलिओ वत्थाइं पडिलेहए ॥ - उ० २६.२१-२३. For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २५ २. रजोहरण (गोच्छक) - जीवों की रक्षा करने तथा धूलि आदि साफ करने की मार्जनीविशेष | यह भी साधु के पास हमेशा रहती है क्योंकि प्रत्येक कायिक-क्रिया के प्रारम्भ में इसकी आवश्यकता पड़ती है । दिगम्बर - परम्परा के साधुओं का भी यह आवश्यक उपकरण है | ३. पात्र ( भाण्डक ) - लकड़ी, तू बी या मिट्टी आदि के बर्तन | इनका उपयोग आहार, जल आदि के लाने एवं रखने में होता है । आचाराङ्गसूत्र में आवश्यकतानुसार दो-चार पात्र रखने का उल्लेख मिलता है । " यह भी एक आवश्यक उपकरण है । दिगम्बरपरम्परा के साधु सिर्फ एक पात्र रखते हैं जिसे 'कमण्डलु' कहते हैं । ४. वस्त्र - पहिनने के कपड़े । ये वस्त्र साधारणकोटि के होते थे जिससे उनके प्रति ममत्व नहीं होता था । यद्यपि महावीर ने अचेल धर्म (नग्न रहने) का उपदेश दिया था परन्तु हरिकेशिबल को ‘अवमचेलए’ ( साधारणकोटि के वस्त्रवाला ) कहा है । इसके अतिरिक्त वस्त्रों को प्रतिदिन खोलकर उन्हें ठीक से देखने एवं जोहरण से उनका प्रमार्जन ( सफाई ) करने का विधान किया गया है । इससे स्पष्ट है कि साधु को वस्त्र रखने की छूट अवश्य थी परन्तु उनकी सीमा निश्चित थी । ५. पादकम्बल - इसका ग्रन्थ में दो जगह उल्लेख मिलता है । आत्मारामजी ने दोनों स्थानों पर भिन्न-भिन्न दो अर्थ किए १. आचाराङ्गसूत्र २.१.६. २. ओमचेलए पंसुपिसायभूए संकरसं परिहरिय कण्ठे । ३. देखिए - पृ० २५८, पा० टि० ३. ४. संथारं फलगं पीढं निसिज्जं पायकंबलं । अपमज्जियमारुहई पावसमणि त्ति वुच्चई || पडिले पत्ते अवउज्झइ पायकंबलं । पडिलेहाअणा उत्ते पावसमणि त्ति वच्चई || - उ० १२.६. —-उ० १७.७. -उ० १७.६. For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन हैं : १. पादपोंछन' ( पैर साफ करने का वस्त्रखण्ड ) और २. पात्र व कम्बल। इन दोनों अर्थों में प्रथम अर्थ (पादपोंछन) अधिक उपयुक्त मालूम पड़ता है क्योंकि ग्रन्थ में कहा है कि जो साध पादकम्बल को ठीक से साफ किए बिना उस पर बैठ जाता है वह पापश्रमण है। विशेष उपकरण : जो उपकरण उपयोग करने के बाद गृहस्थ को वापिस लौटा दिए जाते हैं या जो अवसरविशेष होने पर कुछ समय के लिए ग्रहण किए जाते हैं वे विशेष उपकरण (औपग्रहिकोपधि) कहलाते हैं। जैसे :: १ पीठ-बैठने के लिए लकड़ी की चौकी। २. फलक-सोने के लिए लकड़ी का पाटा। ३. शय्या-ठहरने का स्थान ( उपाश्रय )। ४. संस्तारक- घास, तृण आदिका बनाया गया आसन (विस्तर)। इस तरह साघु के इन सभी उपकरणों में मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदि आवश्यक उपकरण हैं और पीठ, फलक आदि विशेष । आगम-ग्रन्थों में स्त्रियों के लिए कुछ अधिक उपकरण रखने की अनुमति है।' ये उपकरण संयम में सहायक होने के कारण ही आवश्यक हैं। इनसे साधु की पहचान भी होती है। पाँच महाव्रत साध दीक्षा लेने के बाद सर्वप्रथम पाँच नैतिक महाव्रतों को धारण करता है। ये महाव्रत साधु के सम्पूर्ण आचार के आधारस्तम्भ हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं :६ १. डा० मोहनलाल मेहता ने पादपोंछन का अर्थ रजोहरण किया है। -देखिए, जैन आचार, पृ० १६५ २. देखिए-पृ० २५६, पा० टि० ४. ३. वही; उ० २५.३. ४. जै० सा० बृ० इ०, भाग-२, पृ. २०६. ५. देखिए-पृ० २५६, पा० टि० २. ६. अहिंस सच्चं च अतेणगं च तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च । पडिवज्जिया पंचमहन्वयाणि चरिज्ज धम्म जिणदेसियं विऊ ।। -उ० २१.१२. तथा देखिए-उ० १.४७; १२.४१ ; १६.११,८६; २०.३६; ३१.७. For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२६१ १. अहिंसा-महाव्रत-सब प्रकार के प्राणातिपात से विरमण । २. सत्य-महाव्रत-सब प्रकार के मृषावाद से विरमण । ३. अचौर्य-महाव्रत-सब प्रकार के अदत्तादान से विरमण । ४. ब्रह्मचर्य-महाव्रत-सब प्रकार के यौन सम्बन्धों से विरमण । ५. अपरिग्रह-महाव्रत-सब प्रकार के धनादि-संग्रह से विरमण । इन पाँच नैतिक व्रतों का अतिसूक्ष्मरूप से पालन करना ही महाव्रत कहलाता है । इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं : अहिंसा महाव्रत : ___ मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से किसी भी परिस्थिति में त्रस एवं स्थावर जीवों को दुःखित न करना अहिंसामहोवत है।' मन में किसी दूसरे को पीड़ित करने की सोचना तथा किसी दूसरे के द्वारा किसी अन्य को पीड़ित करने पर उसका समर्थन करना भी हिंसा है। अतः ग्रन्थ में कहा है कि जो हिंसा की अनुमोदना करते हैं वे भी उसके फल को भोगे बिना नहीं रह सकते हैं । २ भगवान् अरिष्टनेमी जब अपने विवाह के अवसर पर देखते हैं कि बहुत से पशुओं को मेरे निमित्त से (विवाह की खशी में खाने के लिए ) मारा जाएगा तो वे कहते हैं कि मेरे लिए यह परलोक में कल्याणप्रद नहीं है। जो हिंसा में सुख मानते हैं उनके विषय में ग्रन्थ में बहुत ही सुन्दर कहा है कि सुख-दु:ख अपनी आत्मा में ही रहते हैं तथा सब जीवों को अपने प्राण अति प्रिय लगते हैं। अतः हिंसावत्ति को छोड़कर १. जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं च । ___नो तेसिमारभे दंडं मणसा वयसा कायसा चेव ।। -उ० ८.१०. तथा देखिए-उ० १२.३६,४१; २५.२३ आदि । २. न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । -उ०८,८. ३. जइ मज्झ कारणा एए हम्मति सुबहुजिया। न मे एयं तु निस्सेस परलोगे भविस्सई ।। -उ० २२.१६. - For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन उनकी रक्षा करनी चाहिए।' अहिंसाव्रती साधु के लिए इतना ही नहीं अपितु अपना भी अहित करने वाले के प्रति क्षमाभाव रखना, उसे अभयदान देना, सदा विश्वमैत्री व विश्वकल्याण की भावना रखना तथा बध करने के लिए तत्पर होने पर भी उसके प्रति जरा भी क्रोध न करना, यह भी आवश्यक है। इसके अतिरिक्त गह-निर्माण, अन्नपाचन, शिल्पकला, क्रय-विक्रय, अग्नि जलाना आदि क्रियाएँ भी अहिंसाव्रती साधु को न तो स्वयं करना चाहिए और न दूसरे से करवाना चाहिए क्योंकि इन क्रियाओं के करने से सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है। इसीलिए साधु को भिक्षा आदि लेते समय इन सब दोषों का बचाना १. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए । -उ० ६.७. तथा देखिए-उ० ६.२; १३.२६ आदि । २. पुब्बि च इण्डिं च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ । -उ० १२.३२. महप्पसाया इसिणो हवंति न हु मुणी कोवपरा हवंति । -उ० १२.३१. हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसएं।। -उ०२.२६. मेति भूएसु कप्पए। -उ० ६.२. हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं । -उ० ८.३. तथा देखिए-उ० २.२३-२७; १३.१५; १५.१६; १८ ११; १६.६०, ६३, २०.५७; २१.१३ आदि । ३. न सय गिहाई कुग्विज्जा व अन्नेहि कारए । गिहकम्मसमारंभे भूयाणं दिस्सए वहो ।। -उ० ३५.८, तथा देखिए-उ० ३५.६-१५, ६.१५; १५.१६; २१.१३ आदि । For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२६३ आवश्यक बतलाया गया है।' मल-मूत्र आदि का त्याग करते समय भी सूक्ष्म जीवों की हिंसा न हो एतदर्थ बहत नीचे तक अचित्तभमि में मल-मूत्र विसर्जन का निर्देश किया गया है। इसके साथ ही वैदिक यागादि क्रियाओं के हिंसारूप होने से ग्रन्थ में अहिंसा-यज्ञ के करने का उपदेश दिया गया है। इस अहिंसा व्रत का ठीक से पालन करने के लिए आवश्यक है कि अहिंसावती प्रमाद ( असावधानी ) से रहित होकर आचरण करे क्योंकि प्रमादपूर्वक किया गया आचरण अहिंसा से युक्त होने पर भी हिंसारूप है तथा अप्रमादपूर्वक किया गया आचरण हिंसा से युक्त होने पर भी अहिंसारूप है। अतः प्रमादरहित होकर आचरण करने का उपदेश दिया गया है तथा अहिंसा व्रत के पालन करने को दुष्कर बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में अहिंसा व्रत का पालन करनेवाले को ब्राह्मण कहा गया है तथा इसके पालन न करने का फल जन्मान्तर में नरक की १. देखिए-एषणा एवं उच्चारसमिति । २. देखिए -प्रकरण ७ तथा मेरा निबन्ध 'यज्ञ : एक अनुचिन्तन' श्रमण, - सित ०-अक्टू०, १९६६. . ३. खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समृट्ठाय पहाय कामे । समिक्ख लोयं समया महेसी अप्पाणरक्खी चरेप्पमतो॥ -उ० ४.१०. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ -उद्धृत, सर्वार्थसिद्धि १.१३. तथा देखिए-उ० २.२२; ४.६-८; ६.१३; १०.१-३६ ; २१.१४-१५; २६.२२ आदि । ४. समया सव्व भूएसु सत्तमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायाविरहे जावज्जीवाए दुक्कर । -उ० १६.२६. ५. तस पाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे । .जो न हिसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं ।। -उ० २५.२३. For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन प्राप्ति बतलाया गया है ।" वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा को समस्त धार्मिक-कार्यों का श्रेष्ठ अनुशासन माना गया है । इस तरह ती साधु को ऐसी कोई भी क्रिया या मानसिक संकल्प आदि न करना चाहिए जो दूसरों के लिए दुःख का हेतु यह बन सके। इसका कारण यह है कि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों के मूल में तथा अन्य आचारपरक साधु के जितने भी नियमोपनियम हैं उन सब के मूल में अहिंसा ही है । सत्य महाव्रत : क्रोध, लोभ, हास्य, भय एवं प्रमाद आदि इन झूठ बोलने के कारणों के मौजूद रहने पर भी मन-वचन-काय तथा कृत-कारितअनुमोदना से कभी भी झूठ न बोलकर हमेशा सावधानीपूर्वक हितकारी, सार्थक और प्रिय वचनों को ही बोलना सत्य- महाव्रत है । 3 अतः निरर्थक और अहितकर बोला गया वचन सत्य होने पर भी त्याज्य है । इसी प्रकार सत्य महाव्रती को असभ्यवचन भी नहीं बोलना चाहिए । ४ इसके अतिरिक्त 'अच्छा' भोजन बना है', 'अच्छी तरह पकाया गया है' इस प्रकार की सावद्य वाणी ( दोषयुक्त वचन ) तथा 'आज मैं यह कार्य अवश्य कर लूंगा', 'अवश्य ही ऐसा होगा' इस प्रकार की निश्चयात्मक १. पाणवह मिया अयाणंता मंदा नरयं गच्छति । २. अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोऽनुशासनम् । - मनुस्मृति २.१५६. ३. कोहा व जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ तं वयं बूम माहणं ॥ उ० २५.२४. निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं । भासिव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं || - उ० १६.२७. ४. वयजोग सुच्चा न असम्भमा । - उ० ८.७, -उ० २१.१४. For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२६५ वाणी भी साधु को नहीं बोलना चाहिए' क्योंकि सावध वाणी बोलने से हिंसा की और निश्चयात्मक वाणी बोलने से मिथ्या होने की आशंका रहती है। इस तरह सत्यमहाव्रती के लिए मन-वचन-काय से एवं कृत-कारित अनुमोदना से किसी भी अवस्था में उपयोगहीन (निरर्थक), सावध, निश्चयात्मक, असभ्य (अशोभन) एवं अहितकर वचन नहीं बोलना चाहिए अपितु उपर्युक्त दोषों को बचाते हुए हमेशा सावधानीपूर्वक हितकारी, अल्प और प्रियवचन ही बोलना चाहिए। त्रिविधसत्य और उसका फल-ग्रन्थ में वचन बोलने की क्रमिक तीन अवस्थाएँ बतलाई गई हैं :२ १. मन में बोलने का संकल्प (संरम्भ), २ बोलने का प्रयत्न (समारम्भ) और ३. बोलने में प्रवृत्ति (आरम्भ)। वचन बोलने की इन तीन क्रमिक अवस्थाओं में सत्य बोलनेरूप से प्रवत्ति करने पर इनके ही क्रमश: नाम भावसत्य, करणसत्य और योगसत्य हैं । अर्थात मन में सत्य बोलने का संकल्प करना 'भावसत्य', सत्य बोलने का प्रयत्न करना 'करणसत्य' और सत्य बोलना 'योगसत्य' है। इस त्रिविधसत्य से जिस फल की प्राप्ति होती है वह इस प्रकार है : १. भावसत्य का फल-भावसत्य से साधक का अन्तःकरण विशुद्ध होता है और वह धर्म का सेवन करके इस जन्म को तथा आगामी जन्म को भी सफल कर लेता है । १. मुसं परिहरे भिक्खू ण य ओहारिणीं वए । भासा दोसं परिहरे मायं य वज्जए सया ॥ -उ० १.२४. . सुकडित्ति सुपक्कित्ति सुच्छिण्णे सुहडे मडे । सुणिट्ठिए सुलट्ठित्ति सावज्जं वज्जए मुणी ।। -उ० १.३६. . २. संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई ।। ___-उ० २४.२३. ३. ....."भावसच्चेणं भावविसोहि जणयइ । भावविसोहीए वद्रमाणे जीवे अरहतपन्नतस्य धम्मस्स आराहणयाए अन्भुठेइ । अरहतपन्नतस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भु ठित्ता परलोगधम्मस्स आराहए भवइ । -उ० २६.५०. For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २. करण सत्य का फल-इससे जीव सत्यरूप क्रिया के करने की शक्ति को प्राप्त करता है और वह जैसा कहता है वैसा ही करके प्रामाणिक पुरुष बन जाता है ।' ३. योगसत्य का फल- मन, वचन और काय की प्रवृत्ति (क्रिया) का नाम योग है। अतः जो क्रियारूप में भी सत्य का ही पालन करता है वह अपने योगों को विशुद्ध कर लेता है ।२ इस तरह इस सत्यमहाव्रत के मूल में भी अहिंसा की भावना निहित है। इसीलिए सत्य होने पर भी अहितकारी वचन बोलने का निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त झूठ बोलनेवाला व्यक्ति एक झूठ को छिपाने के लिए अन्य अनेक झूठ बोलता है और हिंसा, चोरी आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होता हुआ सुखी नहीं होता है।' इसके विपरीत सत्य बोलनेवाला साधु जैसा बोलता है वैसा ही करता है और प्रामाणिक पुरुष होकर सुखी होता है। वैदिकसंस्कृति में भी सत्यव्रत को हजारों अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाया गया है तथा इस सत्यव्रत के पालन करनेवाले को ब्रह्मा की प्राप्ति बतलाई गई है।४ ग्रन्थ में इस व्रत से युक्त जीव को ब्राह्मण कहा गया है तथा इस व्रत का पालन करना दुष्कर बतलाया गया है । अचौर्य महाव्रत : तुच्छ से तुच्छ वस्तु को भी स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण न करना अचौर्य महाव्रत है। मन-वचन-काय एवं कृत. १. ....."करणसच्चेणं करणसत्ति जणयइ। करण सच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ । -उ० २६.५१. २. ....जोगसच्चेणं जोगं विसोहे।।। -उ० २६.५२. ३. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरते। ___ एवं अदत्ताणि समाययंतो रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो । -उ० ३२.३१. ४. उ० आ० टी०, पृ० ११२२. ५. देखिए-पृ० २६४, पा० टि० ३. For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २६७ कारित-अनुमोदना से इस व्रत का भी पालन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जो वस्तु ग्रहण करे वह निर्दोष भी हो' क्योंकि सदोष वस्तु के ग्रहण करने पर हिंसा का दोष लगता है। साधु के लिए सभी सचित्त वस्तुओं के ग्रहण करने का निषेध है। अतः किसी के द्वारा सचित्त वस्तु के दिए जाने पर भी उसका ग्रहण करना चोरी है। स्वीकृत व्रतों का ठीक से पालन न करना भी चोरी है। इस अचौर्यव्रत की दढ़ता के लिए ग्रन्थ में बहत ही सुन्दर कहा है-'धनादि ग्रहण करना नरक का हेतु है (हिसादि में प्रवत्ति कराने के कारण) ऐसा समझकर साधु एक तृण को भी ग्रहण न करे। आहार के बिना शरीर का निर्वाह नहीं हो सकता है। अत अपनी निन्दा करता हआ पात्र में दिए गए निर्दोष आहार को ही ग्रहण करे।'२ वैदिक-संस्कृति में इसका पालन करनेवाले को ब्रह्मत्व की प्राप्ति बतलाई गई है। ग्रन्थ में इस व्रत का पालन करने वाले को ब्राह्मण कहा गया है तथा इस व्रत का पालन करना दुष्कर बतलाया गया है।" ब्रह्मचर्य महाव्रत : मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से मनुष्य, तिर्यञ्च एवं देव शरीरसम्बन्धी सब प्रकार के मैथुनसेवन का त्याग करना १. दंतसोहण माइस्स अदत्तस्स विवज्जणं । अणवज्जेसणिज्जस्स गिण्हणा अवि दुक्करं ।। -उ० १६.२८. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिण्हाइ अदत्तं जे तं वयं बूम माहणं ॥ -उ० २५.२५. २. आयाणं णरयं दिस्स णाय इज्ज तणामवि । दोगुछी अप्पणो पाए दिण्णं भुजिज्ज भोयणं ।। -उ० ६.७. ३. उ० आ० टी०, पृ० ११२३. ४. देखिए-पृ० २१६, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ब्रह्मचर्य महाव्रत है।' ग्रन्थ में इसके १८ भेदों का संकेत मिलता है।२ औदारिकशरीर (मनुष्य व तिर्यञ्च-सम्बन्धी शरीर) और वैक्रियकशरीर ( देवसम्बन्धी शरीर ) से मैथन सेवन संभव होने से टीकाकारों ने इन दोनों प्रकार के शरीरों के साथ मैथुन सेवन का कृत-कारित-अनुमोदना तथा मन-वचन-काय से त्याग करनेरूप ब्रह्मचर्य के १८ भेद गिनाए हैं। ये जो ब्रह्मचर्य के १८ भेद गिनाए गए हैं वे सामान्य अपेक्षा से हैं अन्यथा प्रति व्यक्ति के शरीर-भेद से इसके अनेक भेद संभव हैं। इस ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए निम्नोक्त दस प्रकार के समाधिस्थानों का अनुपालन आवश्यक है : समाधिस्थान-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जिन दस विशेष बातों का त्याग आवश्यक बतलाया गया है उन्हें ग्रन्थ में 'समाधिस्थान' के नाम से कहा गया है। चित्त को एकाग्र करने में इनका विशेष महत्त्व होने के कारण इन्हें समाधिस्थान कहा गया है। समाधिस्थान के दस प्रकार निम्नोक्त हैं : १. स्त्री आदि से संकीर्ण स्थान के सेवन का त्याग-स्त्री, पशु आदि का जहां पर आवागमन संभव है ऐसे मन्दिर, सार्वजनिक स्थान, दो घरों की सन्धियाँ, राजमार्ग आदि स्थानों में साधु अकेला १. दिव्वमाणुस्सतेरिच्छं जो न सेवइ मेहुणं । ' मणसा कायवक्केणं तं वयं बूम माहणं ।। -उ० २५.२६. विरई अबंभचेरस्स कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बंभ धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ - उ० १६.२६. २. उ० ३१. १४. ३. वही, आ० टी०, पृ० १३६६. ४. इमे खलु ते थेरेहिं भगवतेहिं दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा।। -उ० १६. १ (गद्य). For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२६९ खड़ा न होवे' क्योंकि स्त्री आदि से आकीर्ण स्थानों पर ठहरने से उनकी कामक्रीडाएँ देखकर ब्रह्मचारी को कामेच्छा जाग्रत हो सकती है। पूर्ण संयमी को स्त्री के संपर्क से बचना चाहिए अन्यथा रथनेमी की तरह कामजन्य चञ्चलता का होना संभव है ।२ जैसे बिल्लियों के पास चूहों का रहना उचित नहीं है उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष का स्त्री के पास (स्त्री का पुरुष के पास) रहना ठीक नहीं है। अतः ब्रह्मचारी साधु के लिए एकान्तस्थान ही उपयुक्त है। २. कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का त्याग-मन में आह्लाद को पैदा करने वाली तथा कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री. कथा कहने व सुनने से ब्रह्मचर्य टिक नहीं सकता है। अतः ब्रह्मचारी को स्त्री-कथा से दूर रहना चाहिए। जिस स्त्री-कथा १. जं विवित्तमणाइन्नं रहियं इत्थिजणेण य । बम्भचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए । -उ० १६.१. समरेसु अगारेसु संधीसु य महापहे । एगो एगित्थिए सद्धि णेव चिठे ण संलवे ॥ -उ० १.२६. ... तथा देखिए-उ० ८.१६; १६.१ (गद्य),११; २२.४५,३२.१३. २. देखिए-परिशिष्ट २. ३. जहा विरालावसहस्स मूले न मूसगाणं वसही पसत्था। ___ एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे न बंभयारिस्स खमो निवासो॥ -उ० ३२.१३. ४. कामं तु देवीहिं विभूसियाहिं न चाइया खोभइउं तिगुत्ता। . तहा वि एगंतहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो । -उ० ३२.१६. ५. मण पल्हायजणणी कामरागविवड्ढणी। बम्भचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए ॥ -उ० १६.२. तथा देखिए-उ० १६. २ (गद्य), ११. For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन से धर्म में रुचि बढ़े ऐसी पतिव्रता या ब्रह्मचारिणी स्त्री की कथा कही जा सकती है परन्तु ऐसी कथा भी एकान्त में नहीं कहना चाहिए क्योंकि कभी-कभी उसका विपरीत प्रभाव भी संभव होता है । ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठने का त्याग - स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठकर कथा, वार्तालाप, परिचय आदि करने से कामपीड़ा उत्पन्न हो सकती है । अतः ब्रह्मचारी को स्त्रियों के साथ परिचयादि न बढ़ाकर उनके साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए ।' वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने पूर्व - परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा है कि जिस स्थान पर कोई स्त्री बैठ चुकी हो उस स्थान पर उसके उठने के समय से लेकर एक मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए क्योंकि तत्काल वहां पर बैठने से शंका आदि दोष होने की संभावना रहती है । ४. रागपूर्वक स्त्रियों के रूपादि दर्शन का त्याग - स्त्रियों के अङ्गों ( मस्तकादि), प्रत्यङ्गों (कुच, कुक्षि आदि), संस्थानों (कटिप्रदेश आदि ) तथा नाना प्रकार की मनोहर मुद्राओं को देखने से चक्षुराग उत्पन्न होता है | अतः ब्रह्मचारी को चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत स्त्रियों के रूपादि का दर्शन नहीं करना चाहिए । चक्षु का स्वभाव है - देखना । अतः इस प्रकार के प्रसङ्ग उपस्थित होने पर वीतरागतापूर्वक शुभ-ध्यान करना चाहिए । स्त्रियों के रूप - लावण्य में पुरुष को १. हा खलु नो निग्गंथे इत्थीहि सद्धि सन्नि सेज्जागए विहरेज्जा | - उ० १६.३. तथा देखिए - उ० १६.३ (गद्य), ११. २. उत्थितास्वपि तासु मुहूर्त्त तत्र नोपवेष्टव्यमिति सम्प्रदायः । ३. अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहियं । - वही, ने० वृ०, पृ० २२०. भररओ थीणं चक्खु गिज्झं विवज्जए || - उ० १६.४. तथा देखिए - उ० १६.४ ( गद्य), ११३२.१४-१५; ३५.१५. ४, इत्थोजणस्सारियज्ञाणजुग्गं । —उ० ३२.१५, For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २७१ आसक्ति न हो इसीलिए ग्रन्थ में स्त्रियों को 'राक्षसी' एवं 'पङ्कभूत' (कीचड़) तक कहा है-'राक्षसी स्त्रियों में साधु को प्रलोभित नहीं होना चाहिए क्योंकि ये नाना प्रकार के चित्तवाली हैं तथा वक्षस्थल में मांस-पिण्ड ( कुच ) को धारण करती हैं। ये पहले पुरुष को प्रलोभित करती हैं, पश्चात उनसे दास की तरह व्यवहार करती हैं। अतः इनको कीचड़रूप जानकर साधु अपने आपका हनन न करे तथा आत्मगवेषी बनकर संयम का पालन करे। ५. स्त्रियों के विविध प्रकार के शब्दों के श्रवण का त्यागब्रह्मचारी साध को श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य स्त्रियों के कजित (सुरतकाल में होनेवाले कपोतादि पक्षियों की तरह अव्यक्त शब्द), रुदित (रतिकलह), गीत (गानयुक्त शब्द), हसित (हास्ययुक्त शब्द), स्तनित (गम्भीर शब्द या सुरतकाल में होनेवाला सीत्कार), क्रन्दित (करुण रोदन), विलाप (पतिवियोगजन्य पीड़ा) आदि कामरागवर्धक वचनों को नहीं सुनना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के कामवर्धक वचनों का श्रवण करने से मन चलायमान हो जाता है। ६. पूर्वानुभूत कामक्रीड़ा के स्मरण का त्याग-ब्रह्मचारी साधु को ब्रह्मचर्यव्रत लेने के पूर्व अनुभव की गई कामक्रीड़ा का स्मरण नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से मन विचलित हो सकता है। .. १. पंकभूयाओ इथिओ। -उ० २.१७. नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा गंडबच्छासु णेगचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता खेल्लंति जहा व दासेहिं ।। -उ० ८.१८. २. कुइयं रुइवं गीयं हसियं थणियकं दियं । बंभचेररओ थीणं सोयगिज्झं विवज्जए॥ -उ० १६.५. तथा देखिए-उ० १६.५ (गद्य), १२. ३. हासं किड्डं रई दप्पं सहसाऽवत्तासियाणि य । बंभचेररओ थीणं नाणुचिते कयाइवि । . तथा देखिए-उ० १६.६ (गद्य), १२; ३२.१४. -उ० १६.६. For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ७. सरस आहार का त्याग - जिस प्रकार स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष को पक्षीगण पीड़ित करते हैं उसी प्रकार घी, दूध आदि रसवान् द्रव्यों के सेवन से कामवासना उद्दीपित होकर पीड़ित करती है | अतः ब्रह्मचारी के लिए सरस आहार का त्याग आवश्यक है । ' ८. अतिभोजन का त्याग - जिस प्रकार प्रचुर ईंधनवाले वन में उत्पन्न हुई दावाग्नि वायु के वेग के कारण शान्त नहीं होती है उसी प्रकार प्रमाण से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि ( कामाग्नि) शान्त नहीं होती है । अतः ब्रह्मचारी साधु को ब्रह्मचर्य की रक्षा एवं चित्त की स्थिरता के लिए थोड़ा आहार करना चाहिए । यदि अल्पाहार से भी ब्रह्मचर्य में बाधा आए तो ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए कभी-कभी आहार का त्याग भी करना चाहिए । अतः ग्रन्थ में साधु के आहारग्रहण न करने के कारणों में ब्रह्मचर्य की रक्षा को भी एक कारण माना गया है । 3 १. पणीयं भत्तपाणं च खिप्पं मयविवड्ढणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए || रसा पगामं न निसेवियन्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति दुमे जहा साउफलं व पक्खी ॥ - उ० १६.७. तथा देखिए - उ० १६.७ (गद्य), १२. २. धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं । नातं तु भुजिज्जा बंभचेररओ सया || - उ० १६.८. तथा देखिए - उ० १६.८ (गद्य), १३. देखिए - आहार, प्रकरण ४. जहा दवग्गी परिघणे वणे समारुओ नोवसमं उवेइ । विदिग्गी विपगामभोइणो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई || - उ० ३२.१०. For Personal & Private Use Only - उ० ३२.११. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४: सामान्य साध्वाचार [२७३ ६. शरीर की विभूषा का त्याग-शरीर का शृङ्गार करने से कामेच्छाएँ जाग्रत होती हैं । अतः ब्रह्मचारी साधु को मण्डन, स्नान आदि से शरीर को अलंकृत नहीं करना चाहिए।' १०. शब्दादि पाँचों इन्द्रियसम्बन्धी विषयों के भोगोपभोग का त्याग-मधुर शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पाँचों विषय कामवासना को जाग्रत करने के कारण 'कामगुण' कहे जाते हैं । अतः इन सभी प्रकार के कामगुणों का ब्रह्मचारी के लिए त्याग आवश्यक है। इस तरह ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जितने भी ब्रह्मचर्य से . डिगानेवाले शंकास्थल हैं उन सबका त्याग आवश्यक है क्योंकि ये बहुत ही स्वल्पकाल में तालपुट विष (अति उग्र विष) की तरह ब्रह्मचारी के लिए घातक होते हैं। 3 ग्रन्थ में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जो 'स्त्री' शब्द का सन्निवेश किया गया है वह कामसंतुष्टि का उपलक्षण है। अतः जिसे जिस किसी से भी कामसंतुष्टि हो उसे. उसीका त्याग करना चाहिए। इन समाधिस्थानों का ब्रह्मचर्य की रक्षा में विशेष महत्त्व होने के कारण इन्हें ही ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ कहा गया है। दसवां समाधिस्थान अन्य : समाधिस्थानों का संग्रह १. विभूसं परिवज्जेज्जा सरीरपरिमंडणं । बंभचेररओ भिक्ख सिंगारत्थं न धारए । -उ० १६.६. तथा देखिए-उ० १६.६ (गद्य), १३. २. सद्दे रूवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य । - पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए॥ तथा देखिए-उ० १६.१० (गद्य), १३. ३. नरस्सऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा । -उ० १६.१३. संकट्ठाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाणवं । -उ० १६.१४. ४. उ० ३१.१०. For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] रूप होने से उसे पृथक् न मानकर बतलाई गई हैं । ' उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ब्रह्मचर्य की करता - ब्रह्मचर्य को ग्रन्थ में अन्य सभी व्रतों की अपेक्षा अधिक दुष्कर बतलाया गया है । यह वह अमोघ कवच है जिसके धारण कर लेने पर अन्य सभी व्रत आसानी से धारण किए जा सकते हैं । अतः इसकी दुष्करता का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थ में लिखा है - 'संसारभीरु, धर्म में स्थित, मोक्षाभिलाषी मनुष्य के लिए इतना दुस्तर इस लोक में अन्य कुछ भी नहीं है जितना कि मूर्खों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ | जो इनको पार कर लेता है उसके लिए शेष पदार्थ सुखोत्तर हो जाते हैं । जैसे महासमुद्र के पार कर लेने पर गंगा जैसी विशाल नदियाँ आसानी से पार करने योग्य हो जाती हैं । यह दुस्तरता अधीर पुरुषों के लिए ही बतलाई गई है क्योंकि वे श्लेष्मा में फँसने वाली मक्षिका की तरह उनमें उलझ जाते हैं और तब जिस प्रकार कीचड़वाले तालाब में फँसा हुआ हाथी कीचड़ से रहित तीर प्रदेश को देखकर भी वहाँ से नहीं निकल पाता है उसी प्रकार कामादि में आसक्त वे लोग कामादि विषयों को नहीं छोड़ पाते हैं । इसके विपरीत ये विषय भोग स्वयं पुरुष को छोड़कर उसी प्रकार अन्यत्र चले जाते हैं जिस प्रकार फलों से रहित वृक्ष को छोड़कर पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं । परन्तु जो सुव्रती साधु हैं वे ही ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ १. वही, आ० टी०, पृ० १३६१. २. मोक्खाभिकंखिस्स उ माणवस्त संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ बालमणोहराओ ॥ एए य संगे समइक्कमित्ता सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा || - उ० ३२.१७-१८. तुलना कीजिए जहा नई वेयरणी दुत्तरा इह संमया । एवं लोगंसि नारीओ दुत्तरा अमईमया ॥ —सूत्रकृताङ्ग ३.३.१६. तथा देखिए - पृ० २६८, पा० टि०१; उ० १३.२७,२६; १६. १३-१४,१६; १६.२६, ३४ आदि । For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२७५ कामभोगरूपी समुद्र को उसी प्रकार पार कर लेते हैं जिस प्रकार कोई कुशल वणिक समुद्र को पार कर लेता है।' इस तरह जो इस व्रत के धारण करने में समर्थ हो जाता है वह अन्य व्रतों को सरलतापूर्वक धारण कर लेता है क्योंकि कामवासना पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन से उद्दीपित होती रहती है। अतः समाधिस्थानों की प्राप्ति के लिए पाँचों इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति का त्याग आवश्यक बतलाया गया है। इस तरह जब पाँचों इन्द्रियां वश में हो जाती हैं तो वह जितेन्द्रिय हो जाता है और तब जितेन्द्रिय के लिए कोई भी व्रत धारण करना कठिन नहीं रह जाता है। इसीलिए ग्रन्थ में बहुत्र पाँचों इन्द्रियों के विषयों से प्रलोभित न होकर जितेन्द्रिय, संयत और सुसमाहित होने का उपदेश दिया गया है ।२ रथनेमी जैसे संयमी के द्वारा प्रार्थित होने पर भी राजीमती का संयम में दढ़ रहना एवं उसे भी संयम में दढ़ करना ब्रह्मचर्य व्रत में दढ़ रहना है । इसके बाद ब्रह्मचर्य में दढ़ होकर दोनों अन्य व्रतों का भी सरलतापूर्वक पालन करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं । यद्यपि इस व्रत का भी उद्देश्य अहिंसा की भावना को दढ करना है तथापि जो इसे सबसे अधिक कठिन बतलाया गया है वह इसलिए कि कामसुख से प्रेरित १. भोगामिसदोसविसन्ने हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मंदिए मूढे बज्झई मच्छिया व खेलम्मि ॥ दुप्परिच्चया इमे कामा नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह संति सुव्वया साहू जे तरंति अतरं वणिया व ॥ -उ० ८.५-६. नागो जहा पंकजलावसन्नो दठं थलं नाभिसमेइ तीरं। एवं वयं कामगुणे सु गिद्धा न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥ अच्चेइ कालो तरंति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयंति दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥ -उ० १३.३०-३१. २. उ० १२.१.३,१७; १३.१२; १४.४७; १५.२-४,१५-१६; १६.१५; १६.३०-५१ आदि । ३. देखिए-परिशिष्ट २. For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन होकर जीव प्रायः हिंसा, झूठ, चोरी, धनादि-संग्रह आदि में प्रवृत्त होता हुआ चक्षु-दृष्ट रति को ही सत्य मानता है।' महत्त्व-ग्रन्थ में इसके महत्त्व को प्रकट करने के लिए ही सोलहवें अध्ययन को गद्य तथा पद्य में पूनरावत किया है। इस व्रत का पालन करने वाले को श्रमण एवं ब्राह्मण कहा गया है। साधु के लिए जिन बाईस प्रकार के परीषहों (कष्टों) पर विजय पाने का विधान किया गया है उनमें स्त्री-परीषह भी एक है जो कामजन्य पीड़ा पर विजय पाने के लिए है। इस व्रत के पालन करने से अन्य व्रत सुखोत्तर तो हो ही जाते हैं, इसके अतिरिक्त जिन गुणों की प्राप्ति होती है उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : १. आत्मशुद्धि में प्रधान कारण होने से आत्म-प्रयोजन की प्राप्ति।' २. साधु-धर्म (श्रामण्य) की सफलता ।" ३. देवों के द्वारा भी पूज्य हो जाना। ४. संवर की आधारशिला होने से संयमबहुल, संवरबहुल, समाधिबहुल, मन-वचन-काय से गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी तथा अप्रमत्तता की प्राप्ति । १. न मे दिट्टे परे लोए चक्खुदिट्ठा इमा रई। -उ० ५.५. तथा देखिए-उ० ५.६-१०. २. देखिए-पृ० २६८, पा० टि० १. ३. देखिए-परीषहजय, प्रकरण ५. ४. इह कामणियट्टस्स अत्तठे नावरज्झई । -उ० ७.२६. ५. सुकडं तस्स सामण्णं । -उ० २.१६. ६. देवदाणवगंधव्वा जक्ख रक्खसकिन्नरा। बंभयारि नमसंति दुक्करं जे करंति तं ।। -उ० १६. १६. ७. देखिए-पृ० २६८, पा० टि० ४. For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २७७ ५. संसार-भ्रमणाभावरूप मुक्ति की प्राप्ति ।' जो इस व्रत का ठीक से पालन नहीं करता है वह इन गुणों के विपरीत जिन दोषों को प्राप्त करता है वे इस प्रकार हैं : १. आत्मप्रयोजन (आत्मज्ञान या सुख) की प्राप्ति न होना ।२ २. अस्थिरचित्त (अस्थिरात्मा) होना। ३. धर्माराधना में शंका आदि दोष उत्पन्न होना। ४. संयमविराधना, उन्माद, दीर्घकालिक रोगादि की प्राप्ति । ५. परलोकभय, कर्मसंचय, दुःख एवं नरक की प्राप्ति ।६ . इस तरह ग्रन्थ में अन्य व्रतों की अपेक्षा ब्रह्मचर्य पर अधिक जोर दिया गया है। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि भगवान पार्श्वनाथ ने जिन चार व्रतों का पालन करने का उपदेश दिया था उनमें ब्रह्मचर्य व्रत नहीं था फिर क्या कारण था कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य पर इतना जोर दिया और उसे सब व्रतों में दुस्तर कहा । इस विषय में ग्रन्थ में वही तर्क दिया गया है जो साधु को सान्तरोत्तर वस्त्र के स्थान पर पुराने वस्त्र ( या अचेल ) पहिनने के विषय में दिया गया है। ७ इसका तात्पर्य यह है १. एस धम्मे धुवे निच्चे सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिझंति चाणेण सिज्झिस्संति तहा वरे ॥ -उ० १६. १७. तथा देखिए-उ० ३१. १४. २. इह कामाणियट्टस्स अत्तठे अवरज्झई । -उ० ७. २५ ३. जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो अट्टिअप्पा भविस्ससि ।। -उ० २२. ४५. ४. आयरियाह-निग्गंथस्स खलु इत्थीपसुपंडगसं सताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा ल भेज्जा, उम्मायं वा पउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ वा भंसेज्जा......। -उ० १६. १ ( गद्य ) । ५. वही। . ६. उ० ५. ५-११. ___७. देखिए-पृ० २५६, पा० टि० २; पृ० २५७, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन कि महावीर के काल में लोगों की प्रवत्ति कामवासना की ओर बहत अधिक बढ़ रही थी और यहाँ तक कि पशुओं के साथ भी काम-संतुष्टि करने में प्रयत्नशील देखे जाते थे । इसीलिये ब्रह्मचर्य के लक्षण में एवं समाधिस्थानों के वर्णन में तिर्यञ्च शब्द को जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त इस समय के लोग वक्रजड़ स्वभाव के होने के कारण कुतर्क द्वारा यह सिद्ध करने लगे थे कि स्त्री-सेवन का त्याग आवश्यक नहीं है, जबकि अपरिग्रह व्रत के अन्दर ही स्त्री के एक प्रकार की सम्पत्ति होने के कारण स्त्री-संपर्कजन्य मैथुनसेवन का त्याग भी सन्निविष्ट था । मनुष्यों की इस प्रकार कामवासना की ओर बढ़ती हई प्रवत्ति को देखकर ही इसे अहिंसादि व्रतों से पृथक व्रत के रूप में स्वीकार किया गया तथा इस पर विशेष जोर भी दिया गया। कामवासनाएँ बढ़ जाने से लोग अहिंसादि व्रतों की ओर उन्मुख नहीं होते थे । अतः अहिंसा और अपरिग्रह व्रत की सर्वाधिक प्रधानता रहने पर भी इनका पालन करने में कामवासनाएँ प्रमुख बाधक होने के कारण ब्रह्मचर्य को दुस्तर कहा गया और अन्य व्रतों को सुखोत्तर । इसी तरह रात्रिभोजन की ओर बढ़ती हुई प्रवृत्ति को देखकर रात्रिभोजन-त्याग को भी महावतों के ही साथ में कहा जाने लगा था। अपरिग्रह महाव्रत : धन-धान्य, दासवर्ग आदि जितने भी निर्जीव एवं सजीव द्रव्य हैं उन सबका कृत-कारित-अनुमोदना एवं मन-वचन-काय से निर्मोही होकर त्याग करना अपरिग्रह (अकिञ्चन) महाव्रत है। अतः सर्वविरत साधु के लिये आवश्यक है कि वह क्षुधाशान्ति के लिये भी १. चउविहेऽवि आहारे राई भोयणवज्जणा । सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करं ।।। -उ० १६.३१. धणधन्नपेसवग्गेस परिग्गहविवज्जणं । सव्वारंभपरिच्चागो निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥ -उ० १६.३०. तथा देखिए-उ० ८.४; १२.६; १४.४१, ४६; २१.२१; २५.२७२८%; ३५.३, १६ आदि । For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२७९ अन्नादि का लेशमात्र भी संचय न करे और न रात्रि के लिये कुछ बचाकर रखे। इसके अतिरिक्त हिरण्य आदि की मन से भी कामना न करे तथा हिरण्य और पत्थर में समदृष्टि रखता हुआ पक्षी की तरह आशारहित होकर अप्रमत्तभाव (सावधानीपूर्वक ) से विचरण करे ।' इस तरह सभी प्रकार के धन-धान्यादि का परित्याग करके तणमात्र का भी संग्रह न करना तथा पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ व अमनोज्ञ विषयों के उपस्थित होने पर भी जल से भिन्न कमल की तरह उनमें लिप्त ( राग-द्वेषयुक्त) न होना ही अपरिग्रह महाव्रत है । अपरिग्रही ही वीतरागी हैं क्योंकि जब तक विषयों से विराग नहीं होगा तब तक जीव अपरिग्रही नहीं हो सकता है । विषयों के प्रति रागबुद्धि (लोभबुद्धि) का होना ही परिग्रह है। ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है और लोभ के बढ़ने पर परिग्रह भी बढ़ता जाता है । जब शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन विषयों से सम्बन्धित सचित्त एवं अचित्त सभी द्रव्यों से विराग हो जाता है तो उसके लिए संसार में कुछ भी दुष्कर नहीं रह जाता है। यह निष्परिग्रहता या वीतरागता अतिविस्तृत एवं सुस्पष्ट राजमार्ग १. सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए । पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिवए । -उ० ६.१६. तथा देखिए-उ० ३५. १३. २. जहा पोमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहि तं वयं बूम माहणं । -उ० २५.२७. तथा देखिए-उ० १०.२८; ३२.२२, ३५. ३. जहा लाहा तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई । दोमासकयं कज्ज कोडीए वि न निट्ठियं । -उ० ८.१७. ४. इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचिवि दुक्करं । -उ० १६.४५. तथा देखिए-उ० २६.४५. For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है।' इस अपरिग्रह व्रत के समक्ष अज्ञानमूलक जप-तपादि षोडशीकला को भी प्राप्त नहीं करते हैं । जो इन विषयों के प्रति ममत्व नहीं रखता है वह इस लोक में दुःखों से अलिप्त होकर आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है तथा परलोक में भी देव या मुक्ति पद को प्राप्त करता है। इस तरह इस व्रत को दढ़ रखने के लिये आवश्यक है कि पाँचों इन्द्रियों के तत्तत् विषयों में रागबुद्धि न की जाए क्योंकि किसी भी विषय के प्रति राग होने पर उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना पड़ता है और उस विषय की प्राप्ति के प्रयत्न में हिंसा, झूठ, चोरी आदि नाना प्रकार के पापों को करना पड़ता है। अतः अहिंसादि व्रतों का पालन करने के लिये भी आवश्यक है कि धन-धान्यादि से ममत्व न किया जाए। इस तरह इस अपरिग्रह व्रत के भी मूल में अहिंसा की भावना निहित है । रजोहरण आदि जो भी उपकरण साधु के पास रहते हैं उनसे उसे ममत्व नहीं होता है क्योंकि वे उपकरण · संयम की आराधना में सहायक होने से आवश्यक हैं । इसीलिए सर्वविरत साधु को उनकी प्राप्ति होने पर हर्ष एवं नष्ट होने पर खेद नहीं होता है । अतः साधु रजोहरण आदि उपकरणों से युक्त होने पर भी सर्वविरत कहलाता है । यदि साधु को रजोहरण आदि उपकरणों में भी ममत्व होता है तो वह सर्वविरत नहीं है क्योंकि वह पूर्ण अपरिग्रह व्रत का ठीक से पालन नहीं करता है। अपरिग्रह या वीतरागता की पूर्णता होने पर जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । अतः ग्रन्थ में कहा है कि वीतरागी साधु ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में प्रवत्त होकर आठों प्रकार के कर्मों के बन्धन ( ग्रन्थि ) को खोलने का प्रयत्न करता है। सर्वप्रथम वह मोहनीय कर्म को पृथक करके पूर्ण वीतरागता की १. अवसोहिय कंटगापहं ओइण्णेऽसि पहं महालयं । -उ० १०.३२. २. देखिए-पृ० २५३, पा० टि० १. ३. उ० ४.१२; ६.५; ७.२६-२७; ८.४; १४.४४; २६.३०,३६; ३२.१६, २६, ३९. For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २८१ अवस्था को प्राप्त करता है । जब मोहनीय कर्म को पूर्णतः नष्ट करके पूर्ण वीतरागी हो जाता है तो फिर वह अन्तर्मुहूर्त के बाद ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का युगपत् क्षय करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वतः सुखी एवं सर्वशक्तिसम्पन्न हो जाता है । इस अवस्था में मनवचन - काय की प्रवृत्ति ( योग ) होते रहने से वह 'सयोगकेवली' कहलाता है । इसके बाद आयु ( आयुकर्म ) के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर वह मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के साथ ही साथ श्वासोच्छ्वासरूप क्रिया का भी निरोध करके अतिस्वल्प क्षण में ही अवशिष्ट चार अघातिया कर्मों का युगपत् क्षय कर देता है । इस तरह वह सब कर्मों का क्षय हो जाने पर सिद्ध, एवं मुक्त अवस्था को प्राप्त करके तथा सब प्रकार के दुःखों का हमेशा के लिए अन्त करके कृतकृत्य होता हुआ अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है ।" ग्रन्थ में ऐसे कई राजाओं एवं महापुरुषों के नाम गिनाए गए हैं जिन्होंने सम्पत्तिरूप विपुल साम्राज्य को छोड़कर ( सर्वविरत होकर ) मुक्ति को प्राप्त किया है । इस तरह अपरिग्रह से तात्पर्य यद्यपि पूर्ण वीतरागता से है परन्तु ब्रह्मचर्य व्रत को इससे पृथक् कर देने के कारण यह धन-धान्यादि अचेतन द्रव्य और दास आदि सचेतन द्रव्यों के त्यागरूप रह गया है । ग्रन्थ में इस अपरिग्रह व्रत से युक्त जीव को ब्राह्मण कहा गया है । 3 महाव्रतों के मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना : अहिंसा आदि जिन पाँच नैतिक नियमों को महाव्रत शब्द से कहा गया है उन सबके मूल में अहिंसा की भावना निहित है तथा इस अहिंसा व्रत की पूर्णता बिना अपरिग्रह के संभव १. उ० २६.७१-७३. २. देखिए - परिशिष्ट २. ३. देखिए - पृ० २७६, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नहीं है क्योंकि सांसारिक विषयों के प्रति मोह होने पर ही उनकी प्राप्ति के लिये जीवों की हिंसादि क्रियाओं में प्रवत्ति देखी जाती है। इसीलिये पाँच महाव्रतों में सबसे पहले अहिंसा को और अन्त में अपरिग्रह को गिनाया गया है। मलतः ये दो ही महाव्रत हैं जो एक-दूसरे के पूरक हैं। इन्हीं का विस्तार करके भगवान पार्श्वनाथ ने चार महाव्रतों के रूप में और भगवान महावीर ने पाँच महाव्रतों के रूप में उपदेश दिया। केशि-गौतम संवाद में ब्रह्मचर्य महावत को पृथक मानने के लिए जो तर्क दिया गया है यह तर्क अन्य व्रतों के लिए भी लागू होता है क्योंकि जो पूर्ण अहिंसक और अपरिग्रही होगा वह झूठ, चोरी, मैथुनसेवन आदि अनैतिक आचरणों में कभी भी प्रवृत्त नहीं होगा। यदि पूर्ण अहिंसक और अपरिग्रही होकर भी वह झठ, चोरी आदि में प्रवृत्ति करता है तो वह वास्तव में पूर्ण अहिंसक व अपरिग्र ही नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह इन दो व्रतों का सम्यक्रूप से पूर्णतः पालन करने के लिए सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य इन तीन व्रतों का भी पालन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त न केवल इन पाँच व्रतों का ही पालन करना आवश्यक है अपितु ऐसे अन्य कई नैतिक व्रतों का भी पालन करना आवश्यक है। अतः ग्रन्थ में वीतरागी साधु को हजारों गुणों को धारण करनेवाला कहा गया है।' ग्रन्थ के इकतीसवें अध्ययन में साध के जो १० धर्म और २७ गुण बतालाए गए हैं वे सब इन पाँच महाव्रतों के विस्ताररूप ही हैं । २ १. गुणाणं तु सहस्साई धारेयवाई भिक्खुणा । -उ० १६.२५, २. साधु के दस धर्म और सत्ताईस गुण टीका-ग्रन्थों के अनुसार निम्नोक्त क. साध के दस धर्म-१. क्षमा, २. मृदुता, ३. ऋजुता (सरलता), ४. मुक्ति (लोभ न करना), ५. तप, ६. संयम, ७. सत्य, ८. शौच ( पवित्रता ), ६. अकिञ्चन ( अपरिग्रह ) और १० ब्रह्मचर्य । ख. साध के सत्ताईस गुण-१-५. पांच महाव्रत, ६. रात्रिभोजनत्याग, ७-११. पञ्चेन्द्रियनिग्रह, १२. भाव सत्य, १३. करण सत्य, १४. क्षमा, For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २८३ अब यहाँ इस बात का विचार करना है कि अहिंसा और अपरिग्रह इन दो महाव्रतों का पाँच महाव्रतों के रूप में क्यों और कैसे विस्तार हुआ ? अहिंसा से द्वेषात्मक क्रोध और मान कषाय का तथा अपरिग्रह से रागात्मक माया और लोभ कषाय का त्याग हो जाता है। राग-द्वेषरूप ये चार कषाय ही संसार के कारण हैं । अतः अहिंसा और अपरिग्रह से ही संसार के कारणों का निरोध हो जाने पर अन्य व्रतों की आवश्यकता नहीं रह जाती है परन्तु जनसामान्य की बदलती हुई कुटिल मनोवृत्ति को देखकर नियमों और उपनियमों के रूप में अनेक व्रतों का विस्तार किया गया। जैसाकि केशि-गौतम संवाद और यज्ञविषयक संवादों से पता चलता है कि महावीर के काल में मनुष्यों की मनोवृत्ति विषय-भोगों और हिंसाप्रधान यज्ञादि क्रियाओं की ओर अधिक थी जिससे वे अपने स्वार्थ से अन्धे होकर विश्वबन्धुत्व की भावना भूल चुके थे और विषय-भोगों तथा हिंसा-प्रधान यज्ञों को करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानते थे । अतः अहिंसा और अपरिग्रह का उपदेश आवश्यक हुआ। अपनी कुटिल मनोवृत्ति के कारण कहीं झूठ बोलकर अपने दोषों को छिपा न लेवें तथा लुके-छिपे ( अप्रकटरूप से) स्वच्छन्द आचरण न करें अतः सत्य और अचौर्य इन दो व्रतों को भी मल महाव्रतों में जोड़ दिया गया। इसके बाद कामवत्ति की ओर बढ़ती हई मनोवृत्ति को देखकर ब्रह्मचर्य को भी पृथक् महाव्रत के रूप में जोड़ दिया गया। इस तरह महाव्रतों की संख्या पाँच हो गई। इसी प्रकार रात्रिभोजन की १५. विरागता ( लोभत्याग ), १६-१८, मन-वचन-काय निरोध, १६-२४. षट्काय (पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और द्वीन्द्रियादि त्रस ) के जीवों की रक्षा, २५. संयम, २६. वेदना सहिष्णुता और २७. मारणान्तिक सहिष्णुता। इननामों में कुछ अन्तर भी पाया जाता है। देखिए-उ० ३१.१०, १८; ने० टी०, पृ० ३४४, ३४६; आ० टी०, पृ० १३६२, १४०१; श्रमणसूत्र, पृ० १७१-१७३; समवायाङ्ग, समवाय २७. For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ओर बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के लिए रात्रिभोजनत्याग को भी महाव्रतों के साथ कहा जाने लगा । परन्तु महाव्रतों की पाँच संख्या में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। वैदिक और बौद्ध संस्कृति में भी इन पाँच महाव्रतों के प्रति समान आदरभाव दिखलाई पड़ता है।' ___इन पाँच नैतिक व्रतों का जितना आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्व है उतना ही व्यावहारिक दृष्टि से भी महत्त्व है । अहिंसा, सत्य और अचौर्य ये तीन नैतिक महाव्रत तो स्पष्टरूप से व्यवहार में आवश्यक हैं। ब्रह्मचर्य और लोभत्यागरूप अपरिग्रह व्रत भी व्यभिचार रोकने एवं विश्वबन्धुत्व की भावना को प्रसारित करने के लिये आवश्यक हैं। लोक में व्यसनी तथा कंजस को हीन दृष्टि से देखा भी जाता है । यद्यपि जितनी सूक्ष्मता से प्रकृत ग्रन्थ में नैतिक व्रतों का पालन करने का विधान किया गया है उतनी सूक्ष्मता से सामान्य व्यवहार में अपेक्षित नहीं है और न संभव ही है तथापि इनके व्यावहारिक महत्त्व का अपलाप नहीं किया जा सकता है । ग्रन्थ में इन महाव्रतों का जो उपदेश दिया गया है वह साधुओं के लिए है। गृहस्थ के लिए तो इन व्रतों का अंशतः पालन करना ही आवश्यक है जैसा कि पिछले प्रकरण में बतलाया जा चुका है। ___ इस तरह अहिंसादि इन पाँच महाव्रतों में साधु के सभी नैतिक गुणों का समावेश किया गया है। गृहस्थ एवं साधु का सम्पूर्ण आचार इन्हीं की परिधि में घूमता है। प्रवचनमाताएँ-गुप्ति और समिति अशुभात्मक प्रवृत्ति को रोकना और सदाचाररूप शुभात्मक प्रवृत्ति में सावधानीपूर्वक प्रवृत्त होना महाव्रतों की रक्षा एवं १. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा :। -पा० यो० २. ३०. बौद्धों के पंचशील के लिए देखिए-भा० द० ब०, पृ० १५६. For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२८५ विशुद्धता के लिए आवश्यक है। मन, वचन और काय-सम्बन्धी सभी अशुभात्मक प्रवृत्तियों को रोकना 'गुप्ति' है।' शुभात्मक प्रवृत्ति में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना 'समिति' है ।२ ग्रन्थ में इन दोनों का सम्मिलित नाम 'प्रवचनमाता' मिलता है। इन्हें 'प्रवचनमाता' क्यों कहा जाता है, यह विचारणीय है। प्रवचन शब्द का अर्थ है -जिनदेव-प्रणीत सिद्धान्त । 'माता' शब्द का अर्थ है-माता की तरह संरक्षक एवं उत्पादक । जिनदेवप्रणीत सिद्धान्त (प्रवचन ) १२ अंग ग्रन्थों में समाविष्ट है। गुप्ति और समिति का सम्यकरूप से पालन करने वाला साधु ही गुरु-परम्परा से प्राप्त द्वादशाङ्गरूप समस्त शास्त्रज्ञान (प्रवचन) को सुरक्षित रख सकता है। अतः ग्रन्थ में गुप्ति और समिति के समुच्चय को 'प्रवचनमाता' कहा गया है अथवा समस्त द्वादशाङ्ग गुप्ति और समितियों में समाविष्ट होने से 'प्रवचनमाता' शब्द सार्थक है। 3 निवृत्ति की अपेक्षा प्रवृत्ति की प्रधानता है क्योंकि सावधानीपूर्वक शुभाचार में प्रवृत्ति करने पर अशुभाचार से १. गुत्ती नियत्तणे. कुत्ता असुभत्त्थेसु सव्वसो। -उ० २४.२६. सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः। -त० सू० ६.४. २. एयाओ पंच समिईओ चरणस्स य पवत्तणो । -उ० २४.२६. समिति-सम-एकीभावेन, इति-प्रवृत्तिः समितिः = शोभन काग्रपरिणामचेष्टेत्यर्थः । -श्रमणसूत्र, पृ० १५०. ३. अठ्ठ पवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईओ तओगुत्तीउ आहिया ।। इरियाभासेसणादाणे उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अट्ठमा ।। एयाओ अट्ठ समिईओ समासेण वियाहिया । दुवालसंगं जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं ॥ -उ० २४.१-३, तथा देखिए-उ० २६.११. For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन निवृत्ति स्वतः हो जाती है । अतः ग्रन्थ में प्रवचनमाता को 'समिति' शब्द से भी कहा गया है।' गप्ति और समिति के प्रमुख आठ भेद होने से प्रवचनमाताओं की भी संख्या आठ मानी गई है। ग्रन्थ में इनके विषय में सावधान रहने का उपदेश दिया गया है तथा इनके सम्यक् प्रकार से पालन करने का फल संसार से शीघ्र मुक्ति बतलाया गया है । अब क्रमशः गुप्तियों और समितियों का पृथक-पृथक् विचार किया जाएगा। गुप्तियाँ-प्रवृत्ति-निरोध : __ मन, वचन और काय-सम्बन्धी अशुभ-प्रवृत्तिनिरोधरूप जो गुप्ति का लक्षण बतलाया गया है उसमें अशुभ-प्रवृत्ति से तात्पर्य सांसारिक विषय-भोगों की ओर उन्मुख होनेवाली प्रवृत्ति से है। कषायरूपी शत्रु के आक्रमण से रक्षा करने के लिए इन गुप्तियों को अमोघशस्त्र (अजेयशस्त्र) कहा गया है। प्रवृत्ति मन, वचन एवं काय से संभव होने से गुप्ति के भी तीन भेद किए गए १. वही। यत्तु भेदेनोपादानं तत् समितीनां प्रविचाररूपत्वेन गुप्तीनां तु प्रवीचाराऽप्रवीचारात्मकत्वेन कथञ्चित् भेदख्यापनार्थम् ।......सर्वा अप्यमूश्चारित्ररूपाः, ज्ञानदर्शनाऽविनाभावि च चारित्रम्, न चैतत्व्यातिरिक्तमन्यदर्थतो द्वादशाङ्गमित्येतासु प्रवचनं मातमुच्यते । -उ० ने० वृ०, पृ० ३०२. २. वही। ३. अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते। -उ० २६. ११. एयाओ पवयणमाया जे सम्म आयरे मुणी। सो खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए । --उ० २४.२७. ४. सद्धं नगरं किच्चा तवसंवरमगलं । खंति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ -उ०६.२०. For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २८७ हैं – मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ।' इन्हें ही योगदर्शन के शब्दों में क्रमशः मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग कहा जा सकता है क्योंकि योगदर्शन में चित्तवृत्ति के निरोध को 'योग' शब्द से कहा जाता है । इस तरह योगदर्शन का यह 'योग' शब्द जैनदर्शन के 'योग' शब्द से भिन्न है क्योंकि जैनदर्शन में प्रवृत्ति मात्र को योग कहा जाता है तथा उसके निरोध को 'गुप्ति' । १. मनोगुप्ति - संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ में प्रवृत्त हुए मन के व्यापार को रोकना मनोगुप्ति है । 3 किसी को मारने की इच्छा करना 'संरम्भ', मारने के साधनों पर विचार करना 'समारम्भ' एवं मारने के लिए क्रिया प्रारम्भ करने का विचार 'आरम्भ' है । मन के ये क्रमिक तीन विकल्प हैं । अत: इन तीनों को रोकना आवश्यक है । मन के विचारों की प्रवृत्ति सत्य, असत्य, मिश्र ( सत्य और असत्य से युक्त ) और अनुभय ( सत्यासत्य से रहित ) इन चार विषयों में सम्भव होने से मनोगुप्ति के चार प्रकार बतलाए हैं : १. सत्यमनोगुप्ति ( सद्भूत पदार्थों में प्रवर्तमान मन की वृत्ति को रोकना), २. असत्यमनोगुप्ति ( मिथ्या पदार्थों में प्रवर्तमान मन की वृत्ति को रोकना ), ३. सत्यमृषामनोगुप्ति ( मिश्र - सत्य एवं असत्य से मिश्रित मन के विचारों को रोकना) और ४. असत्य मृषा मनोगुप्ति ( अनुभय - सत्य, असत्य १. देखिए - पृ० २८५, पा० टि० ३; उ० ६.२०; १२.३,१७; १६.८8; २४.१,१६; २६.३५;३०; ३; ३२.१६ आदि । २. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः - पा० यो० १.२. ३. संरंभसमारंभ आरंभ य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई || —उ० २४.२१. ४. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चामोसा य मणगुत्तीओ चउब्विहा || -उ० २४.२०. For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २८८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन एवं सत्यासत्य से रहित मन के विचारों को रोकना )।' मन को एकाग्र करना ( एकाग्रमनःसन्निवेश) और मन को समाधिस्थ करना ( मनःसमाधारण ) ये दोनों मनोगप्ति के ही प्रतिफल हैं। एकाग्रमनःसन्निवेश आदि से ध्यान तप में सहायता मिलती है। २. वचनगुप्ति-संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ में प्रवृत्त हुए वचन के व्यापार को रोकना वचनगुप्ति है।३ वचन के सत्यादि चार प्रकार संभव होने से मनोगप्ति की तरह इसके भी चार भेद बतलाए गए हैं। इनके क्रमशः नाम ये हैं :४ १. सत्यवाग्गुप्ति, २. मृषावाग्गुप्ति, ३. सत्यमृषावाग्गप्ति (मिथ) और ४. असत्यमृषावाग्गुप्ति। यह वचनगुप्ति विशेषकर सत्य महाव्रत की रक्षा करती है। वाक्समाधारण (वाणी को समाधिस्थ करना) वचनगुप्ति का ही प्रतिफल है । ३. कायगुप्ति-खड़े होने में, बैठने में, शयन करने में, त्वक्परिवर्तन में, लांघने में, प्रलंघन करने में, इन्द्रियों का विषय के साथ संयोग करने आदि में जो शरीर की प्रवृत्ति संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भरूप होती है उसे रोकना कायगुप्ति है अर्थात् शरीरसम्बन्धी व्यापार को रोकना कायमूप्ति है। कायसमाधारण कायगुप्ति का प्रतिफल है । इससे कायोत्सर्ग (शरीर का ममत्व छोड़कर 1. First three refer to assertions and fourth to injunctions. -से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १५०. २. उ० २६.२५-२६,५६,६२-६६. ३. देखिए - पृ० २६५, पा० टि० २. ४. सच्चा तहेव मोसा य""वइगुत्ती चउव्विहा । -उ० २४.२२. ५. उ०२६.५७. ६. ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टणे । कायं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जइ ।। --उ० २४.२४-२५, For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २८६ निश्चल होना) तप में सहायता मिलती है ।' मनोगुप्ति एवं वचनगुप्ति की तरह कायगुप्ति के सत्यादि के भेद से चार प्रकार नहीं गिनाए गए हैं। __इस तरह गुप्ति में न केवल अशुभ-प्रवृत्ति का निरोध बतलाया गया है अपितु यावन्मात्र प्रवृत्ति का निरोध बतलाया गया है। अतः पूर्वोल्लिखित गुप्ति के लक्षण में अव्याप्तिदोष (लक्षण का लक्ष्य के सभी अंशों में न पाया जाना) आता है। मालम पड़ता है कि व्यवहार की दृष्टि से प्रधानता अशुभार्थों के निरोध में ही होने से गुप्ति का लक्षण सिर्फ अशुभ-अर्थों में प्रवृत्त मन, वचन और काय के व्यापार का निरोध बतलाया गया है। यदि यावन्मात्र शुभाशुभ प्रवृत्ति का निरोध कर दिया जाएगा तो किसी भी क्रिया में प्रवत्ति न होने से सदाचाररूप महाव्रतों का पालन करना संभव न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त श्वासादि क्रिया का भी निरोध कर देने पर जीवनधारण करना भी संभव न हो सकेगा । अतः गुप्ति का कार्य प्रवृत्ति-निरोधरूप होने पर भी प्रधानरूप से अशुभ प्रवृत्ति को रोकना है। यदि शुभकार्यों में प्रवृत्ति की आवश्यकता पड़े तो आगे कही जानेवाली 'समिति' का आश्रय लेना चाहिए। इसीलिए नेमिचन्द्राचार्य अपनी वत्ति में लिखते हैं कि जो समिति और गुप्ति का भेदपूर्वक कथन किया गया है वह समितियों के केवल प्रवृत्तिरूप (प्रविचार) होने एवं गप्तियों के प्रवृत्ति एवं निवृत्ति उभयरूप होने से कथञ्चित् भेद बतलाने के लिए किया गया है। ये गुप्तियाँ और समितियाँ सब चारित्ररूप हैं और वह चारित्र ज्ञान और दर्शन के होने पर ही होनेवाला (अविनाभावी) है। इस तरह नेमिचन्द्राचार्य के अनुसार गुप्तियाँ न केवल अशुभ-अर्थों से निवृत्तिरूप हैं अपितु शुभ-अर्थों में प्रवृत्तिरूप भी हैं । २ गुप्ति शब्द रक्षार्थक ‘गुप्' धातु (गुपुरक्षणे) १. उ० २६.५८. २. 'गुत्ति' त्ति गुप्तयो निवर्त्तनेऽप्युक्ताः, 'असुभत्थेसु' त्ति 'अशु भार्थेभ्यः' अशोभनमनोयोगादिभ्यः 'सव्वसो' त्ति सर्वेभ्यः, अपि शब्दात् चरणप्रवर्त्तनेऽपीति सूत्रार्थः । -उ० ने० वृ०, पृ० ३०४. तथा देखिए- पृ० २८६, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन से बना है। इससे सिद्ध होता है कि जो रत्नत्रय की रक्षा करता है वह गुप्तिवाला है। रत्नत्रय की रक्षा के लिए आवश्यक है कि अशूभाचार को रोककर शुभाचार में प्रवत्ति की जाए। इस तरह गुप्तियाँ अशुभ अर्थों से निवर्तक तथा शुभ-अर्थों में प्रवर्तक भी हैं। शुभ मन, वचन एवं काय के व्यापाररूप बत्तीस प्रकार के योगसंग्रहों के विषय में ग्रन्थ में यत्नवान् होने का विधान किया गया है। इससे भी प्रतीत होता है कि ये गुप्तियाँ मुख्यरूप से अशुभअर्थों से निवृत्ति करानेवाली हैं। इसी दृष्टि से ग्रन्थ में गुप्तियों को अशुभ-अर्थों से निवर्तक बतलाया गया है। ___ ग्रन्थ में मनोगुप्ति आदि का पृथक्-पृथक् फल बतलाते हुए लिखा है-मनोगुप्ति से जीव चित्त को एकाग्र करके संयम का आराधक हो जाता है । वचनगुप्ति से निर्विकारता को प्राप्त करके चित्त की एकाग्रता (अध्यात्मयोग) को प्राप्त कर लेता है और कायगुप्ति से सब प्रकार के पापास्रवों को रोककर संवरवाला हो जाता है।'3 इससे प्रतीत होता है कि गुप्तियों का प्रधान कार्य अशुभ-अर्थों में प्रवृत्त मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को रोकना है। इस तरह जब अशुभात्मक प्रवत्तियों का निरोध हो जाता है तो फिर रत्नत्रयरूप शुभ-अर्थों में प्रवृत्ति को करता हुआ साधक धीरेधीरे आयू के अन्तिम समय में शुभ-अर्थों में प्रयुक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों का भी निरोध करके मुक्त हो जाता है। अतः ग्रन्थ में गुप्ति का फल कर्मक्षय के बाद संसार से मुक्ति बतलाया गया है। यदि परमार्थरूप से विचार किया जाए तो सब १. 'योगे' त्ति सूचकत्वात् सूत्रस्य योगसङ ग्रहा यैः योगाः शुभमनोवाक्कायव्यापारः सङ गृह्यन्ते--स्वीक्रियन्ते, ते च द्वात्रिंशद् । -उ० ने० वृ०, पृ० ३५०. तथा देखिए-समवायाङ्ग, समवाय ३२; श्रमणसूत्र, पृ० १६६. २. उ० ३१.२०. ३. उ० २६.५३-५५. ४. चारित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अट्ठविहकम्मगंठि निज्जरेइ । -उ० २६.३१. For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २६१ प्रकार के शुभाशुभ अर्थों में होनेवाली शुभाशुभ प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है। समितियाँ-प्रवृत्ति में सावधानी : गमन आदि क्रियाओं के करते समय सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है । अर्थात् साधु जो भी क्रियाएँ करे उनमें प्रमाद न करते हुए सावधानी रखे ताकि जीवादि की हिंसा न हो । साधु को प्रतिदिन सामान्यरूप से जिन गमनादि क्रियाओं को करना पड़ता है उन्हें पांच भागों में विभक्त करके समिति के भी पाँच भेद गिनाए गए हैं। इनके नामादि इस प्रकार हैं : ' १. गमन क्रिया में सावधानी (ईर्यासमिति), २. वचन बोलने में सावधानी (भाषासमिति), ३. आहारादि साधन-सामग्री के अन्वेषण, ग्रहण एवं उपभोग में सावधानी (एषणासमिति ), ४. वस्त्रादि के उठाने व रखने आदि में सावधानी (आदाननिक्षेपसमिति) और ५. मलमूत्रादि का त्याग करते समय सावधानी (उच्चारसमिति)। ... १. ईर्यासमिति-वर्षाकाल को छोड़कर शेष काल में साधु के लिए अपने शिष्य-परिवार के साथ या एकाकी ( पक्षी की तरह निरपेक्षी होकर ) ग्रामानुग्राम विचरण करने का विधान है। अतः मार्ग में गमन करते समय जिस प्रकार की सावधानी आवश्यक होती है उसे ईर्यासमिति कहते हैं। इस समिति की परिशुद्धि के लिए चार बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है: १. आलम्बन, २. समय, ३. मार्ग और ४. उपयोग ( सावधानी ) । अतः ग्रन्थ १. देखिए-पृ० २०५, पा० टि० ३; उ० १२. २; १९. ८६; २०.४०; २४.१,२६ ; ३०.३. २. विगिच कम्मुणो हेउं कालकंखी परिव्वए । --उ० ६.१५. चिच्चा गिह एगचरे स भिक्खू । -उ० १५.१६. मग्गगामी महामुणी। -उ० २५.२. तथा देखिए-उ० १०.३६; २२.३३; २३.३,७ आदि । For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . में कहा है कि साधु को ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का आलम्बन करके, दिन में उत्पथ ( ऊँचा-नीचा ) से रहित मार्ग में चार हाथ प्रमाण भूमि को चक्षु के द्वारा एकाग्रचित्त से सावधानीपूर्वक देखते हुए गमन करना चाहिए जिससे जीवों की हिंसा न हो। गमन करते समय सावधानी बनाए रखने के लिये आवश्यक है कि रूपादि विषयों तथा अध्ययन (स्वाध्याय) में लगी हुई,चित्तवत्ति को वहाँ से हटाकर गमन के प्रति ही चित्तवृत्ति को सावधानी से लगाए रखें ।' ऐसा करने से अहिंसा महाव्रत का पालन होता है। इन्द्र-नमि संवाद में ईर्यासमिति को धनूष की प्रत्यञ्चा कहा है। इससे इसकी उपयोगिता और महत्त्व का पता चलता है। २. भाषासमिति-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता (वाचालता) और विकथा (धर्मविरुद्ध कथा) इन आठ दोषों से रहित समयानुकूल अदुष्ट एवं परिमित वचन बोलना भाषासमिति है। अर्थात सावधानीपूर्वक समयानुकूल, हित-मित-प्रिय १. आलंबणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए । तत्थ आलंबणं नाणं दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वुत्ते मग्गे उप्पह वज्जिए । दव्वओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ। . कालओ जाव रीइज्जा उवउत्ते य भावओ ॥ इंदियत्थे विवज्जित्ता सज्झायं चेव पञ्चहा । तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्ते रियं रिए ।। -उ० २४.४-८. तथा देखिए-उ० २०.४० ; २५.२; २६.३३ आदि । २. धण परक्कम किच्चा जीवं च ईरियं सया। घिई च केयणं किच्चा सच्चेण परिमंथए ।। -उ० ६.२१. ३. कोहे माणे य मायाए लोभे य उव उत्तया। हासे भये मोहरिए विकहापु तहेव य ।। एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवज्जित्तु संजए। असावज मियं काले भासं भासिज्ज पन्नवं ।। -उ० २४.६.१०. For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४: सामान्य साध्वाचार [२६३ एवं सत्य वचन बोलना सत्य महाव्रत का पालन करने में सहायक है। ३. एषणासमिति-यद्यपि साधु सब प्रकार की धन-सम्पत्ति का परित्याग कर देता है परन्तु जीवन-निर्वाह के लिए आहारादि की आवश्यकता पड़ती ही है। अतः वह गृहस्थ के घर से नियमानुकूल आहारादि को मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करता है। इस आहार आदि की प्राप्ति में एवं उसके उपभोग आदि में जिस प्रकार की सावधानी आवश्यक होती है उसे एषणासमिति कहते हैं। इस विषय में ग्रन्थ में सामान्यरूप से बतलाया गया है कि साधु आहार, उपकरण (वस्त्र, पात्र आदि) और शय्या (उपाश्रय-निवासस्थान) आदि की गवेषणा करते समय गवेषणा के उद्गम एवं उत्पादनसम्बन्धी, ग्रहण करने के ग्रहणैषणा-सम्बन्धी एवं उपभोग करने के परिभोगैषणा-सम्बन्धी दोषों को बचाए' अर्थात् आहारादि के खोजने सम्बन्धी, ग्रहण करने सम्बन्धी एवं उपभोग करने सम्बन्धी शास्त्रोक्त छियालीस दोषों को जिनसे साध हिंसादि दोषों का भागी हो सकता है, बचाने का प्रयत्न करे। १. गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा। आहारोवहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए ।। उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयम्मि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई ।। -उ० २४.१२-१३. २. एषणासमिति में ध्यान रखने योग्य छियालीस दोष इस प्रकार हैं : क. गवेषणा-सम्बन्धी ३२ दोष - इनमें १६ दोष उद्गम-सम्बन्धी हैं जिनका निमित्त गृहस्थ होता है तथा १६ दोष उत्पादन-सम्बन्धी हैं जिनका निमित्त साधु होता है। जैसेः उद्गम-सम्बन्धी १६ दोष-१. आधाकर्म ( साधु को उद्देश्य करके बनाया गया आहारादि ), २. औद्देशिक ( सामान्य याचकों के उद्देश्य से बनाया गया ), ३. पूतिकर्म ( शुद्ध आहार को आधाकर्मादि से मिश्रित करके बनाया गया ), ४. मिश्रजात ( स्वयं को एवं साधु को एकसाथ मिलाकर बनाया गया ), ५. स्थापना ( साधु के लिए अलग सुरक्षित रखा गया ), For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ४ आदान- निक्षेपसमिति - आदान का अर्थ है - किसी वस्तु को उठाना या लेना तथा निक्षेप का अर्थ है - किसी वस्तु को ६. प्राभृतिका ( किसी जीमनवार आदि के लिए बनाया गया ), ७. प्रादुष्करण ( अन्धकारयुक्त स्थान से दीपक आदि का प्रकाश करके लाया गया ), ८. क्रीत ( खरीदकर लाया गया ), ६. प्रामित्य ( उधार माँगकर लाया गया ), १० परिवर्तित ( परिवर्तन करके लाया गया ), ११. अभिहृत ( दूर स्थान से लाया गया ), १२. उद्भिन्न ( बंद पात्र का मुंह खोलकर लाया गया ), १३. मालापहृत ( ऊपर से उतारकर लाया गया ) १४. आच्छेद्य ( दुर्बल ( साझे का पदार्थ अध्यवपूरक (सांधु से छीनकर लाया गया ), १५. अनिसृष्ट साझेदार से पूछे बिना लाया गया ) और १६. को गाँव में आया जानकर अपने लिए बनाए जाने वाले भोजन की मात्रा बढ़ा देना ) । उत्पादन सम्बन्धी १६ दोष - १. धात्रीकर्म ( धाय की तरह गृहस्थ के बच्चे को खिलाकर आहारादि प्राप्त करना ), २. दूतीकर्म ( दूत की तरह सन्देशवाहक बनकर ), ३. निमित्त ( शुभाशुभ निमित्त बताकर ), ४. आजीव ( अपनी जाति, कुल आदि बताकर ), ५० वनीपक ( गृहस्थ की प्रशंसा करके ), ६. चिकित्सा ( बीमारी की दवा बताकर ), ७ क्रोधपिण्ड ( क्रोध बताकर ), ८ मान-पिण्ड ( अपना प्रभुत्व जमाकर ), 8. माया-पिण्ड ( छल-कपटपूर्वक ), १०. लोभ-पिण्ड ( सरस एवं अच्छे भोजन की अभिलाषा से अधिक दूर से माँगकर लाया गया ), ११. संस्तव-पिण्ड ( संस्तुति करके ), पिण्ड ( विद्या के बल से ), १३० मन्त्र - दोष ( मन्त्र प्रयोग से ), १४. चूर्ण - योग ( वशीकरण-चूर्ण आदि का प्रयोग करके ), १५. योग - पिण्ड ( योग-विद्या आदि का प्रयोग करके ), १६. मूल कर्म ( गर्भ-स्तम्भन आदि का प्रयोग बताकर ) । १२. विद्या - ख. ग्रहणषणा-सम्बन्धी १० दोष- इनके निमित्तकारण गृहस्थ और साधु दोनों होते हैं । जैसे : १. शंकित ( आधाकर्मादि दोष की शंका होने पर आहारादि लेना ), २. म्रक्षित ( सचित्त से युक्त ), ३. निक्षिप्त ( सचित वस्तु पर रखा हुआ ), ४. पिहित ( सचित्त वस्तु से ढका हुआ), ५. संहृत ( किसी पात्र में पहले से रखे हुए अकल्पनीय For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २६५ रखना । अतः साधु के पास जो भी रजोहरण आदि उपकरण होते हैं उन्हें आखों से अच्छी तरह देखकर ( प्रतिलेखना करके ) तथा प्रमार्जन ( सफाई ) करके उठाना एवं रखना 'आदान - निक्षेप' समिति है ।' अर्थात् पात्रादि उपकरणों को उठाते एवं रखते समय अच्छी प्रकार देख-भाल ( प्रतिलेखना ) कर प्रमार्जन कर लेना चाहिए जिससे जीवों की हिंसा न हो। इस तरह इस समिति का सम्यक् - रूप से पालन करने के लिये प्रतिलेखना ( निरीक्षण) एवं प्रमार्जना ( धूलि आदि साफ करना ) को समझ लेना आवश्यक है । प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना - प्रतिलेखना का अर्थ है-चक्षु से देखना और प्रमार्जना का अर्थ है - साफ करना । ये दोनों क्रियाएँ साधु को प्रातः एवं सायं रोज करनी पड़ती हैं । इसके अतिरिक्त पात्र आदि उपकरणों के उठाते एवं रखते समय भी इन्हें करना पड़ता है । इनके करने से षट्काय के जीवों की रक्षा होती पदार्थ को निकालकर उसी पात्र से देने पर ), ६. दायक ( शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी के द्वारा देने पर ), ७. उन्मिश्र ( शुद्ध और अशुद्ध से मिश्रित ), ८. अपरिणत ( शाकादि के पूर्णरूप से पके हुए न होने पर ), ६. लिप्त (दूध, दही आदि से लिप्त पात्र या हाथ से देने पर ) और १० छदित ( जिसके अन्नकण नीचे गिर रहे हों ) । ग. परिभोषणा (ग्रासंषणा ) - सम्बन्धी ४ दोष – इनका निमित्त साधु ही होता है । जैसे : १. संयोजना ( सरसता की लोलुपता से दूध, शक्कर आदि को परस्पर मिलाकर खाना ), २. अप्रमाण ( प्रमाण से अधिक खाना ), ३. अंगार ( सरस आहार होने पर दाता की प्रशंसा करते हुए तथा नीरस होने पर निन्दा करते हुए खाना ) और ४. अकारण ( बलवृद्धि आदि की भावना से खाना ) । - देखिए - वही, टीकाएँ; श्रमणसूत्र, पृ० ४३१-४३५. १. चक्खुसा पडिले हित्ता पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा दुहओवि समिए सया || —उ० २४.१४. तथा देखिए - उ० २४.१३; २०.४०; १२.२. For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] उत्तराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है और न करने से उन जीवों की हिंसा संभव है। अतः अहिंसाव्रत पालन करने वाले साधु को इन्हें करना आवश्यक है । जो साधु प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना को उचित रूप से नहीं करता हुआ अपने उपकरणों को जहाँ-तहाँ रख देता है तथा शय्या आदि पर धूलि-धूसरित पैर होने पर भी सो जाता है वह साधु सच्चा साधु नहीं है ।२ जो समय पर प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करता है उसके ज्ञानावरणीयादि कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना की विधि-साध को समय का अतिक्रमण किये बिना अपने सभी उपकरणों की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करनी चाहिए । प्रतिलेखना करते समय सर्वप्रथम मुखवस्त्रिका की, फिर रजोहरण ( गोच्छक ) की प्रतिलेखना करनी चाहिए । इसके बाद अंगुलियों से रजोहरण को ग्रहण करके वस्त्रों की प्रतिलेखना करनी चाहिए।वस्त्रों की प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को भूमि से ऊँचा रखते हुए दृढ़ता से स्थिर पकड़कर शीघ्रता न करते हुए सावधानीपूर्वक पहले वस्त्र का निरीक्षण करना चाहिए । इसके बाद यत्नपूर्वक वस्त्र को झटकारना चाहिए जिससे जीव-जन्तु निकल जाएँ। यदि न निकले तो यत्नपूर्वक हाथ में लेकर एकान्तस्थान में छोड़ देना चाहिए। इस क्रिया को करते समय शरीर एवं वस्त्र आदि को इधर-उधर नचाना नहीं चाहिए। वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए। असावधानीपूर्वक जल्दी-जल्दी नहीं करना चाहिए । दीवाल आदि से संपर्क नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिस वस्त्र की प्रतिलेखना की १. पुढवी आउक्काए तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणा आउत्तो छण्हं संरक्खओ होइ । -उ० २६,३०-३१. २. देखिए -पृ० २५६, पा० टि० ४; उ० १७.१०,१४. ३. उ० २६.१५. ४. देखिए --पृ० २५८, पा० टि• ३. For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२९७ जा रही हो उसके तीन भाग करके प्रत्येक भाग को दोनों तरफ से देखना चाहिए या फिर प्रत्येक भाग को तीन-तीन बार (षटपुरिम व नवखोटक ) दखना चाहिए। यदि फिर भी जीव उसमें रह जाए तो हाथ से निकालकर जीव की रक्षा करनी चाहिए। इस तरह सावधानीपूर्वक की गई प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना प्रशस्त कहलाती है और असावधानीपूर्वक की गई प्रतिलेखना व प्रमार्जना अप्रशस्त कहलाती है। ग्रन्थ में अप्रशस्त प्रतिलेखना के कुछ प्रकार बतलाए गए हैं जिनका त्याग आवश्यक है । अप्रशस्त प्रतिलेखना के कुछ प्रकार ये हैं :२ १. आरभटा ( प्रतिलेख्यमान वस्त्र की पूर्ण प्रतिलेखना किए बिना ही बीच में दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना करने लगना ), २. सम्मर्दा ( वस्त्र के कोने को पकड़कर या उसके ऊपर बैठकर प्रतिलेखना करना ), ३. मोसली ( वस्त्र को दीवाल आदि के सहारे से ऊपर, नीचे व तिरछे करके प्रतिलेखना करना ), ४. प्रस्फोटना ( वस्त्र को जोर से फटकारना ), ५. विक्षिप्ता ( प्रतिलेखनां किए हए और प्रतिलेखना बिना किए हुए वस्त्रों को मिला देना), ६. वेदिका ( जानु के ऊपर, नीचे, तिरछे एवं १. उड्ढे थिरं अतुरियं पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे। तो बिइयं पप्फोडे तइयं च पुणो पमज्जिज्ज ।। अणच्चावियं अवलियं अणाणुबंधिममोसलि चेव । छप्पुरिमा नव खोडा पाणीपाणिविसोहणं ।। -उ० २६.२४-२५. तथा देखिए-श्रमणसूत्र, पृ० ४०६-४१०. २. आरभडा सम्मदा वज्जेयव्वा य मोसली तइया । पप्फोडणा च उत्थी विक्खिता वेइया छट्ठी ।। पसिढिलपलंबलोला एगामोसा अणे गरूवधुणा। कुणइ पमाणे पमायं संकियगणणोवगं कुज्जा ।। -उ० २६.२६-२७. पडिलेहण कुणं तो मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ।। -उ० २६.२६. For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन मध्य भाग में वस्त्र को रखकर प्रतिलेखना करना ), ७. प्रशिथिल ( वस्त्र को शिथिलता से पकड़ ना ), ८. प्रलम्ब (वस्त्र के एक कोने को पकड़कर शेष भाग को प्रलम्बमान रखना ), ६. लोल ( वस्त्र का जमीन पर लटकते रहना ), १०. एकामर्षा ( वस्त्र को घसीटना ), ११. अनेकरूपधूना ( अनेक प्रकार से वस्त्र को हिलाना ), १२. प्रमाण-प्रमाद ( प्रतिलेखना के प्रमाण में प्रमाद करना ), १३. शङ्किते गणनोपयोगः ( कितनी बार प्रतिलेखना, हो चकी है इस प्रकार के प्रमाण में शङ्का हो जाने पर पुन: अंगुलियों पर गिनने लगना ), १४. अदत्तचित्त ( प्रतिलेखना करते समय वार्तालाप, कथा, नित्यकर्म, पठन-पाठन आदि में ध्यान को लगाना ) और १५. न्यूनाधिक ( किसी अंश में कम व अधिक बार प्रतिलेखना करना )। इस तरह कम, अधिक एवं विपरीत प्रतिलेखना न करते हुए शास्त्रोक्त विधि से ही प्रतिलेखना करना प्रशस्त है और अन्य सब अप्रशस्त हैं। अतः प्रशस्त प्रतिलेखना के लिए सब प्रकार की सावधानी जरूरी है जिससे न तो जीवों की हिंसा हो और न शास्त्रोक्त विधि में प्रमाद हो ।' ५. उच्चारसमिति-मल ( उच्चार ), मूत्र ( प्रस्रवण ) आदि ( मुख का मैल, नाक का मैल, शरीर की गन्दगी, फेंकने योग्य आहार, उपयोगहीन उपकरण, मृत शरीर आदि ) फेंकने योग्य पदार्थों को विधिपूर्वक फेंकने योग्य ( व्युत्सर्जन योग्य ) एकान्त भूमि में त्यागना उच्चारसमिति है ।२ अर्थात् मल-भूत्रादि त्यागने योग्य घणित पदार्थों को ऐसे स्थान पर छोड़ ना जिससे न तो जीवों की हिंसा हो और न किसी को उससे घृणा हो । १. अणूणाइरित्तपडिलेहा अविवच्चासा तहेव य । पढमं पयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाई॥ --- उ० २६.२८. २. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवहिं देहं अन्नं वावि तहाविहं ।। --उ० २४.१५. For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २६६ व्युत्सर्जन के योग्य ( स्थण्डिल ) भूमि-त्याज्य पदार्थों के फेंकने योग्य स्थान इस प्रकार का होना चाहिये : १. आवागमन से सर्वथा शन्य (जहाँ पर न तो कोई आ रहा हो और न कोई दूर से देख रहा हो-अनापातअसंलोक । इसके अतिरिक्त ऐसा भी न हो कि कोई आता तो न हो परन्तु दूर से देख रहा हो-अनापात संलोक; या आ तो रहा हो परन्तु देखता न हो--आपात असंलोक; या आता भी हो और देख भी रहा हो-आपात संलोक । इस तरह आवागमन से सर्वथा शून्य स्थान होना चाहिए), २. जहाँ क्षद्र जीवादि की भी हिंसा संभव न हो, ३. सम हो ( ऊँचीनीची न हो ), ४. तृणादि से आच्छादित न हो, ५. अधिक समय पहले अचित्त किए गए स्थान में जीवादि की उत्पत्ति संभव होने से जिस स्थान को कुछ समय पूर्व ही अचित्त किया गया हो, ६. विस्तृत हो, ७. बहुत नीचे तक अचित्त हो, ८ ग्रामादि के समीप न हो, ६. छिद्ररहित हो और १०. त्रस जीव एवं अङ्करोत्पादक शाल्यादि के बीज से रहित हो।। ___ इस तरह ये पाँचों प्रकार की समितियां साधु को सावधानीपूर्वक सदाचार में प्रवृत्ति करने की शिक्षा देती हैं। जीवों की हिंसा न हो और अहिंसादि व्रतों का ठीक से पालन किया जा सके इसके लिये ही इन समितियों का और इसके साथ ही गुप्तियों का प्रतिपादन किया गया है । ग्रन्थ में समितिवाले साधु का लक्षण बतलाते हए कहा है कि जो किसी के प्राणों का विघात नहीं करता है तथा उनकी रक्षा करने में तत्पर रहता है वह समितिवाला कहलाता है। उसके पास पाप कर्म उसी प्रकार नहीं ठहरते हैं जिस प्रकार उच्चस्थान में जल नहीं ठहरता १. अणावायमसंलोए अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेव संलोए । अणावायमसंलोए परस्सणुवघाइए । समे अज्झसिरे यावि अचिरकालकयम्मि य ॥ विच्छिण्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए। तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥ -उ० २४.१६-१८. For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है । समितिवाले साधु का संसार-भ्रमण रुक जाता है और समिति से रहित साधु संसार में भटकता रहता है।' इस तरह गुप्ति और समितिरूप आठ प्रवचनमाताएँ महाव्रतों के रक्षण में तथा मुक्ति- . . मार्ग के प्राप्त कराने में प्रमुख हेतु हैं । जट-आवश्यक वैदिक संस्कृति में जिस प्रकार ब्राह्मण को प्रातःकाल एवं ... संध्याकाल में सन्ध्यावन्दना आदि नित्यकर्म करने पड़ते हैं उसी प्रकार जैन साधु को भी सामायिक आदि छः नित्यकर्म करने पड़ते हैं । अवश्य करणीय नित्यकर्म होने से इन्हें 'आवश्यक' कहा जाता है। इन छः आवश्यकों के नामादि इस प्रकार हैं । १. समताभाव रखना ( सामायिक ), २. चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति करना (चतुर्विशतिस्तव), ३. गुरु की वन्दना (वन्दन), ४. सदाचार में लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त करना (प्रतिक्रमण), ५. चित्त को एकाग्र करके शरीर से ममत्व हटाना (कायोत्सर्ग) और ६. आहार आदि का त्याग करना (प्रत्याख्यान)। १. सामायिक आवश्यक-सम् +आय+इक = सामायिक अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर समताभाव में स्थिर होना। इससे जीव सब प्रकार की पापात्मक प्रवृत्तियों (सावद्य-योग) से विरक्त हो १. आउत्तया जस्स न अत्यि कावि इरियाइ भासाइ तहेसणाए । आयाणनिक्खेवदुगंछणाए न वीरजायं अणुजाई मग्गं ।। -उ० २०.४०. पाणे य नाइवाएज्जा से समीय त्ति वुच्चई ताई । तओ से पावयं कम्म निज्जाइ उदगं व थलाओ ।। -उ० ८.६. तथा देखिए-उ० १२. १७; ३१.७; ३४.३१. २. अवश्यं कर्तव्यं आवश्यकं, श्रमणादिभिरवश्यं उभयकालं क्रियते । -~आवश्यक सूत्र, मलयगिरि-टीका, पृ० ८६, तथा देखिए----मूलाचार, अधिकार ७; श्रमणसूत्र, पृ० ८३-८५. ३. उ० २६.८-१३. For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार जाता है ।' जिनभद्र ने सामायिक को चौदह पूर्वो (जिनवाणी) का सार बतलाया है।२ । २. चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक-जैनधर्म के प्रवर्तक चौबीस तीर्थङ्करों एवं सिद्धों की स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। इससे जीव दर्शन की विशुद्धि करता है। इस आवश्यक में जो जैन तीर्थङ्करों की स्तुति का विधान किया गया है उसका कारण यह है कि उनके गुणों का चिन्तन करके अपनी अन्तश्चेतना को जाग्रत करना चाहिए क्योंकि जैन तीर्थङ्कर वीतराग होने के कारण उपासक का किसी प्रकार का उपकार नहीं करते हैं। . ३. वन्दन आवश्यक-गुरु का अभिवादन करना वन्दन आवश्यक है। यदि गुरु उपस्थित न हो तो उनका मन में संकल्प करके अभिवादन कर लेना चाहिए। ग्रन्थ में प्रत्येक 'आवश्यक' के पहले और बाद में गुरु की वन्दना अवश्यकरणीय बतलाई गई है।४ इस वन्दन आवश्यक का फल बतलाते हुए लिखा है-'गुरु-वन्दना से जीव नीचगोत्र कर्म का क्षय करके उच्चगोत्र कर्म का बन्ध करता है और अप्रतिहत सौभाग्यवाला तथा सफल आज्ञावाला होता हुआ सर्वत्र आदर प्राप्त करता है । १. सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयइ । -उ० २६.८. २. सामाइयं संखेवो चोदसपुत्वपिंडोत्ति । -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २७६६. ३. चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयइ । -उ० २६.६. .. तथा देखिए-आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०७६. थयथुइमंगलेण नाणदसणचरित्त बोहिलाभं जणयह ।" "यणं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहणं आराहेइ। -उ० २६.१४. ४. देखिए-सामाचारी। ५. वंदणएणं नीयागोयं कम्म खवेइ । उच्चागोयं कम्म निबंधइ । सोहग्गं च णं अपडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ । दाहिणभावं च णं जणयइ । -उ० २६.१०. For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ४. प्रतिक्रमण आवश्यक - प्रति' उपसर्गपूर्वक गमनार्थक 'क्रम' धातु से प्रतिक्रमण शब्द बना है । इसका अर्थ है - प्रतिकूल पादनिक्षेप अर्थात् सदोष आचरण में जितने आगे बढ़ गए थे उतने ही पीछे हटकर स्वस्थान पर जाना । अतः प्रतिक्रमण का अर्थ हुआ - दोषों का प्रायश्चित्त ( पश्चात्ताप) करना । यह प्रतिक्रमण प्रात:काल तथा सायंकाल तो किया ही जाता है, इसके अतिरिक्त दैनिक छोटी से छोटी क्रिया करने पर तथा विशेष अवसरों पर भी किया जाता है । इसके फल का वर्णन करते हुए ग्रन्थ में लिखा है'प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रों (दोषों) को दूर करता है, फिर शुद्धव्रतधारी होकर कर्मास्रवों को रोकता हुआ तथा आठ प्रवचनमाताओं में सावधान होता हुआ विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करके संयम में विचरण करता है ।' यह प्रतिक्रमण आवश्यक प्रायश्चित्त तप का एक भेदविशेष है जिसका आगे तप के प्रकरण में वर्णन किया जाएगा। प्रतिक्रमण एक छोटा प्रायश्चित्त है और यह 'मेरा पाप मिथ्या हो' (मिच्छामि दुक्कडं ) इतना कहने मात्र से पूरा हो जाता है । अर्थात् स्वयं के दोष को स्वयं से कहकर आत्मनिन्दा करना । इस आत्मनिन्दारूप पश्चात्ताप से जीव क्षपकश्रेणी ( करणगुणश्रेणी ) ४ को प्राप्त करता हुआ मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है । " प्रतिक्रमण का जैनशास्त्रों में बहुत महत्त्व है । इसीलिये समस्त आवश्यक क्रिया को 'प्रतिक्रमण' शब्द से भी कहा जाता है । १. प्रतीयं क्रमणं प्रतिक्रमणं, अयमर्थ: शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीयं क्रमणम् । - हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र- स्वोपज्ञवृत्ति, तृतीय प्रकाश । २. देखिए - सामाचारी; आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा १२४४. ३. पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि विहे । पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्टसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । - उ० २६.११. ४. देखिए - पृ० २३३, पा० टि० १. ५. उ० २६.६. ६. देखिए - श्रमणसूत्र, पृ० २०९ - २१०. For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३०३ ५. कायोत्सर्ग आवश्यक-इसमें दो शब्द हैं -काय और उत्सर्ग। इनका अर्थ है-शरीर का त्याग करना अर्थात शरीर से ममत्व को छोड़कर तथा स्व-स्वरूप में लीन होकर निश्चल होना कायोत्सर्ग है। यह भी एक प्रकार का तप है जिसका आगे वर्णन किया जाएगा। कायोत्सर्ग से साधक प्रतिक्रमण की तरह अतीत एवं वर्तमान के दोषों का शोधन करता है, फिर प्रायश्चित्त से विशुद्ध होकर कर्मभार को हल्का कर देता है। तदनन्तर वह चिन्तारहित होकर शुभ ( प्रशस्त ) ध्यान में लगा हुआ सुखपूर्वक विचरण करता है। अतः इस कायोत्सर्ग को सब प्रकार के दुःखों से छुड़ानेवाला भी कहा गया है। सामायिक और कायोत्सर्ग में यह अन्तर है कि सामायिक में साधु हलन-चलनादि क्रिया कर सकता है परन्तु कायोत्सर्ग में हलन-चलन नहीं कर सकता है। ६. प्रत्याख्यान आवश्यक-प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ है-परित्याग करना। यद्यपि साधु सर्वविरत होता है फिर भी आहारादि का अमुक समयविशेष के लिए त्याग करना प्रत्याख्यान आवश्यक है । इसके करने से मन, वचन और काय की दूषित प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं और फिर कर्मों का आस्रवद्वार भी बन्द हो जाता है। ग्रन्थ के 'सम्यक्त्व-पराक्रम' अध्ययन में कुछ प्रत्याख्यानों के पालन करने का फल बतलाया गया है। जैसे : क. संभोग प्रत्याख्यान - साधुओं के द्वारा एकत्रित किये गए भोजन को एकसाथ मण्डलीबद्ध बैठकर खाने का त्याग करना। १. काउस्सग्गेणं तीयपड़प्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ। विसुद्धपायच्छित्ते य .. जीवे मिव्वुयहियए ओहरियभरुव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं - सुहेणं विहरइ । -उ० २६.१२. २. काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं । -उ० २६.३६. तथा देखिए-उ० २६.४२. ३. पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरु भइ। -उ० २६.१३. For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३०४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इससे जीव स्वावलम्बी हो जाता है और फिर अपने लाभ से ही संतुष्ट रहता है।' ख. उपधि प्रत्याख्यान-वस्त्रादि उपकरणों का त्याग करना। इससे स्वाध्याय आदि के करने में निर्विघ्नता की प्राप्ति होती है तथा आकांक्षारहित होने से वस्त्रादि के मांगने, उनकी रक्षा करने आदि का कष्ट नहीं होता है । ___ ग. आहार प्रत्याख्यान-आहार का त्याग करने से जीवन के प्रति ममत्व नहीं रहता है और निर्ममत्व हो जाने पर आहार के बिना भी उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। घ. योग प्रत्याख्यान -मन, वचन और कायसम्बन्धी प्रवृत्ति (योग) को रोकना योग प्रत्याख्यान है। इससे जीव जीवन्मुक्त (अयोगी) की अवस्था को प्राप्त करता है तथा नवीन कर्मों का बन्ध न करता हुआ पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करता है । ङ. सदभाव प्रत्याख्यान-इसका अर्थ है-सभी प्रकार की प्रवृत्ति को त्यागकर पूर्ण वीतरागता की अवस्था को प्राप्त करना। इससे जीव सब प्रकार के कर्मों को नष्ट करके मुक्त हो जाता है। १. संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ । 'सएणं लाभेणं संतुस्सइ परलाभं नो आसादेइ । . -उ० २६.३३. २. निरुवहिए णं जीवे निक्कंखी उवहि मंतरेण य न संकिलिस्सई। -उ० २६.३४. ३. आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिंदइ। -उ० २६.३५. ४. जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न ___ बंधइ, पुव्वबद्धं निज्जरेइ । -उ० २६.३७. ५. सब्भावपच्चक्खाणेणं अणियट्टि जणयइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ । -उ० २६.४१. तथा देखिए-उ० २६.४२,४५ आदि । For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३०५ च. शरीर प्रत्याख्यान-इसका अर्थ है-शरीर से ममत्व हटाना। संसारी अवस्था में जीव हर समय किसी न किसी प्रकार के शरीर से युक्त रहता है और जब वह शरीर का प्रत्याख्यान कर देता है तो अशरीरी सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है।' ___ छ. सहाय प्रत्याख्यान-अपने कार्य में किसी की सहायता न लेना सहाय प्रत्याख्यान है। इससे जीव एकत्वभाव को प्राप्त करता है। एकत्वभाव प्राप्त कर लेने पर वह अल्प शब्दवाला, अल्प कलहवाला और अल्प कषायवाला होता हुआ संयमबहुल, संवरबहुल और समाधिबहुल हो जाता है । २ । ज. कषाय प्रत्याख्यान- यद्यपि साधु सामान्यतया रागद्वेषरूप कषाय से रहित होता है फिर भी रागद्वेष का प्रसङ्ग आने पर संयम से च्युत न होना अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को जीतना कषाय प्रत्याख्यान है। इससे साधक तत्तत् कर्मों का बन्ध नहीं करता हुआ पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करके क्रमशः क्षमा, मृदुता, ऋजुता एवं निर्लोभता को प्राप्त कर लेता है । क्षमा से सब प्रकार के कष्टों को सहन करता है। मार्दव ( मृदुता ) से अभिमानरहित होकर मद के आठ स्थानों का क्षय कर देता है। आर्जव ( ऋजुता.) से सरल प्रकृति का होकर धर्म का पालन करता है। निर्लोभता से अकिञ्चनभाव ( अपरिग्रहपना ) को प्राप्त करके विषयों से अप्रार्थनीय ( लुभाया न जाने वाला ) हो जाता है। इस तरह इन कषायों पर विजय पाने से वीतरागता की प्राप्ति होती है। वीतराग पुरुष सुख और दुःख में समान स्थितिवाला होता है। उसे मनोज्ञामनोज्ञ विषयों के प्रति ममत्व या द्वेष नहीं रहता है।४ . १. सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइ सयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । -उ० २६.३८. २. सहायपच्चक्खाणेणं एगीभाव जणयइ"संवरबहुले समाहिए यावि भवइ । -उ० २६.३६. ३. उ० २६.६७-७०. ४. कसायपच्चक्खाणेणं वीयरायभावं जणयइ"""समसुहदुक्खे भवइ। -उ० २६.३६. - तथा देखिए-उ० २६.४५-४६;६.५७-५८,३१.३,७. For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ___ इस तरह ग्रन्थ में कुछ प्रत्याख्यानों के प्रकार और उनके फल बतलाए गए हैं। इसी तरह प्रत्याख्यान आवश्यक के अन्य प्रकार समझ लेने चाहिए।' उपर्यक्त सामायिक आदि छः आवश्यकों के ही नाम अनुयोगद्वार में प्रकारान्तर से मिलते हैं जिनसे इनके स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। उनके क्रमशः नाम ये हैं :२. १. सावद्ययोगविरति (सामायिक), २. उत्कीर्तन ( चतुर्विंशतिस्तव ), ३. गुणवत्प्रतिपत्ति ( वन्दन ), ४. स्खलितनिन्दना ( प्रतिक्रमण ), ५. व्रणचिकित्सा (कायोत्सर्ग) और ६ गुणधारण (प्रत्याख्यान )। 'आवश्यक' नामक एक सूत्रग्रन्थ भी है जिसमें इन छ: आवश्यकों का ही विशेष वर्णन किया गया है। इन छः आवश्यकों के अतिरिक्त एक आवश्यक क्रिया और है जिसका नाम है वस्त्रादिक की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना। यह प्रतिक्रमण आवश्यक में ही गतार्थ है। इन छ: नित्यकर्मों की आवश्यक संज्ञा रूढ़ है, अन्यथा ग्रन्थ में साधु के अन्य भी नित्यकर्म बतलाए गए हैं जिनका स्पष्टीकरण आगे बतलाई जानेवाली साधु की दिन एवं रात्रिचर्या से हो जाएगा। वस्तुतः ये छः आवश्यक या नित्यकर्म साधु के सामान्य नित्यकर्म हैं और अध्ययन, मनन आदि विशेष कार्य हैं। सामाचारी प्रतिदिन साधु को जिस प्रकार का आचरण करना पड़ता है उसे 'सामाचारी' कहा गया है। सामाचारी शब्द का सामान्य अर्थ है-सम्यक्चर्या या आचरण । ग्रन्थ में सामाचारी के दस १. विशेष के लिए देखिए-भगवतीसूत्र ७.२. २. सावज्जजोगविरई उक्कित्तण गुणवओय पडिवत्ती । खलिचस्स निंदणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव ॥ -अनुयोगद्वार, पृ० ३०. For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार अङ्ग बतलाए गए हैं जिनका पालन करने से साधु संसाररूपी समुद्र से पार उतर जाता है।' सामाचारी के दस अङ्ग : संसाररूपी समुद्र से पार उतारनेवाली सामाचारी के दस अङ्ग इस प्रकार हैं :२ १. आवश्यकी- निवास-स्थान ( उपाश्रय ) से बाहर जाते समय आवश्यक कार्य से बाहर जा रहा हूँ एतदर्थ 'आवस्सही' ऐसा कहना। २. नषेधिकी- बाहर से उपाश्रय के अन्दर आते समय 'निसिही' ऐसा कहना। ___३. आपृच्छना - गुरु आदि से अपना कार्य करने के लिए पूछना या आज्ञा लेना। ४. प्रतिपृच्छना-दूसरे के कार्य के लिए गुरु से पूछना। ५. छन्दना - भिक्षा के द्वारा प्राप्त द्रव्य सर्मियों को देने के लिए आमन्त्रित करना। ६. इच्छाकार-गुरु आदि की इच्छा को जानकर तदनुकूल कार्य करना। ७. मिथ्याकार-कोई अपराध हो जाने पर अपनी निन्दा करना । ८. तथाकार - गुरु के वचनों को सुनकर तहत्ति' (जैसी आपकी आज्ञा ) ऐसा कहकर आदेश को स्वीकार करना। ६. अभ्युत्थान-सेवायोग्य गुरु आदि की सेवा-शुश्रूषा करना । १०. उपसम्पदा-ज्ञानादि की प्राप्ति के लिये किसी अन्य गुरु की शरण में जाना। १. सामायारि पवक्खामि सव्वदुक्खविमोक्खणि । जे चरित्ताण निग्गंथा तिण्णा संसारसागरं ॥ -उ० २६.१. तथा देखिए-उ० २६.५३. २. पढमा आवस्सिया नाम बिइया य निसीहिया । एवं दुपंचसंजुत्ता सामायारी पवेइया ॥ -उ० २६.२.७. For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । वट्टकेरकृत दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार में तथा श्वेताम्बर ग्रन्थ भगवतीसूत्र में भी इन्हीं दस अवयवोंवाली सामाचारी का वर्णन मिलता है ।' प्रकृत ग्रन्थ में सामान्य रूप से सामाचारी के १० अवयवों के वर्णन के साथ साधु के दिन एवं रात्रि के सामान्य कार्यों का भी समयविभाग के अनुसार वर्णन मिलता है । दिनचर्या एवं रात्रिचर्या : साध को सर्वप्रथम दिन एवं रात्रि को समानरूप से चार-चार' भागों में बाँट लेना चाहिए। इसके बाद प्रत्येक भाग में अपनेअपने कर्तव्यों ( उत्तरगुणों ) का पालन करना चाहिये ।२ ग्रन्थ में प्रत्येक भाग को पौरुषी ( प्रहर ) शब्द से कहा गया है। प्रत्येक प्रहर में किए जाने वाले साधु के सामान्य कर्त्तव्य इस प्रकार हैं :४ दिन का प्रथम प्रहर-यह सामान्यतः स्वाध्याय ( अध्ययन ) का समय है। इस प्रहर के आदि के चतुर्थ भाग में वस्त्र, पात्र १. इच्छामिच्छाकारो तथाकारोयआसिआणिसिही। , आपुच्छापडिपुच्छाछंदणसणिमंतणाय उ वसंपा ।। - मूलाचार, अधिकार ४.१२५, दसविहा सामायारी पन्नता तं जहा"'"। . -भगवती, २५.७.१०१. २. दिवसस्स चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु च उसु वि ।। -उ०२६.११. तथा देखिए-उ० २६.१७. ३. उ० २६.१३-१६,१६-२०. ४. पढम पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं पुणो च उत्थीइ सज्झायं ॥ -उ० २६.१२. पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए निद्दमोक्खं तु चउ त्यी भुज्जो वि सज्झायं ॥ -3० २६.१८. तथा देखिए-उ० २६.३६-५२. For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३०४ (भाण्ड )आदि की प्रतिलेखना करे, फिर गुरु को नमस्कार करके पूछे कि 'हे भदन्त ! मैं स्वाध्याय करूं या वैयावृत्य ( सेवाशुश्रूषा )', फिर गुरु जिसकी आज्ञा देवें उसी का ग्लानिरहित होकर पालन करे। दिन का द्वितीय प्रहर-इसमें साधु चित्त को एकाग्र करके ध्यान करे । इस ध्यान का वर्णन आगे तपश्चर्या में किया जाएगा। दिन का तृतीय प्रहर-इसमें साधु भोजन-पान ( आहार ) की गवेषणार्थ गृहस्थों के घर जाए और गृहस्थ से प्राप्त आहार का उपभोग करे। भिक्षार्थ जाते समय अपने पात्रों की पुनः प्रतिलेखना कर लेना चाहिये तथा भिक्षा के लिये परमार्द्ध-योजनप्रमाण ( दो क्रोश-आधा योजन ) क्षेत्र तक ही जाना चाहिए। दिन का चतुर्थ प्रहर-इस प्रहर में साधु पुनः स्वाध्याय करे । जब इस प्रहर का चतुर्थांश शेष रह जाए ( करीब ४५ मिनट ) तो गुरु की वन्दना करे, फिर शय्या एवं 'उच्चारभूमि' ( मल-मूत्रादि के त्यागने का स्थान) की प्रतिलेखना करके ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे हुए दिनसम्बन्धी अतिचारों ( दोषों) का चिन्तन करता हुआ गुरुवन्दना, कायोत्सर्ग, स्तुतिमङ्गल ( चतुर्विशतिस्तव ), प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों को करे। गुरु-वन्दना प्रायः प्रत्येक आवश्यक-क्रिया के बाद करनी पड़ती है। रात्रि का प्रथम प्रहर-इस प्रहर में साधु पुनः स्वाध्याय करे। रात्रि का द्वितीय प्रहर-इसमें दिन के द्वितीय प्रहर की तरह ही ध्यान करे। रात्रि का ततीय प्रहर-इसमें निद्रा का त्याग करे अर्थात इस प्रहर में निद्रा लेने के बाद प्रहर के अन्त में जाग जाए। यद्यपि ग्रन्थ में साक्षात् निद्रा लेने का कथन नहीं किया गया है परन्तु निद्रा का त्याग बिना निद्रा के सम्भव नहीं है। निद्रा के प्रमादरूप होने १. वेयावच्चे निउत्तेण कायव्वं अगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खवियोक्खणे ।। -उ० २६. १०. तथा देखिए-उ० २६.८-६,१२,२१-२२. For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन से साक्षात् निद्रा का कथन न करके निद्रात्याग का कथन किया गया है । शरीर की स्वस्थता तथा स्वाध्याय आदि करने के लिये भी निद्रा आवश्यक है । रात्रि का चतुर्थ प्रहर - इसमें रात्रिसम्बन्धी प्रतिलेखना करके मुख्यरूप से पुनः स्वाध्याय करे । स्वाध्याय करते समय गृहस्थों को न जगाए । जब इस प्रहर का चतुर्थांश शेष रह जाए तो गुरु की वन्दना करके प्रातःकालसम्बन्धी प्रतिलेखना करे, फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में लगे हुए रात्रिसम्बन्धी दोषों का चिन्तन करता हुआ गुरु-वन्दना, कायोत्सर्ग, जिनेन्द्रस्तुति, प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों को करे । इसके बाद पुनः अगले दिन की क्रियाओं में पूर्ववत् प्रवृत्ति करे । इस तरह यहाँ साधु की दिन एवं रात्रिचर्या के साथ दस अवयवोंवाली सामाचारी का जो वर्णन किया गया है वह सामान्य अपेक्षा से है क्योकि इसमें समयानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है । ' वसति या उपाश्रय साधु के ठहरने के स्थान को वसति या उपाश्रय कहा जाता है। ये उपाश्रय प्रायः नगर के बाहर उद्यान आदि के रूप में होते थे । साधु को किसी एक निश्चित उपाश्रय में हमेशा ठहरे रहने का आदेश नहीं है अपितु उनके लिए हमेशा ( वर्षाकाल को छोड़कर) एक ग्राम से दूसरे ग्राम में इन्द्रियनिग्रहपूर्वक विचरण करने का उल्लेख मिलता है । साधु के ठहरने के स्थान के अर्थ में उपाश्रय के १ : विशेष के लिए देखिए - दशाश्रुतस्कन्ध ( आचारदशा), पर्युषणा कल्प; कल्पसूत्र, सामाचारी प्रकरण । २. इंदियग्गा मनिग्गाही मग्गगामी महामुनी । गामा गामं यंते पत्तो वाणासि पुरि ॥ Narrate बहिया उज्जाणम्मि मणोरमे । फासुए सेज्जसंथारे तत्थ वासनुवागए || तथा देखिए - उ० २३.३-४,७-८. - उ० २५.२-३. For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३११ अतिरिक्त शयया शब्द का भी प्रयोग मिलता है।' शयया शब्द का अर्थ है-जहाँ पर विस्तर बिछाया जा सके ऐसा स्थान । आचाराङ्ग सूत्र में भी इसी अर्थ में 'शय्यैषणा' नामक अध्ययन मिलता है। निवासयोग्य भूमि कैसी हो? __ प्रकृत ग्रन्थ में साधु के निवासयोग्य भूमि (उपाश्रय) के विषय में जो संकेत मिलते हैं वे इस प्रकार हैं : १. जो रमणीय एवं सुसज्जित न हो- मन को लुभानेवाला, चित्रों से सुशोभित, पुष्पमालाओं एवं अगरचन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित, सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं सुन्दर दरवाजों से युक्त उपाश्रय साधु के निवास के योग्य नहीं है क्योंकि ऐसे उपाश्रय में रहने से भोगों में आसक्ति बढ़ती है और फिर इन्द्रियों को वश में रखना कठिन हो जाता है । __२. जो स्त्री, पशु आदि से संकीर्ण न हो-स्त्री, पशु आदि के आवागमन से संकीर्ण स्थान में निवास करने पर उनकी कामचेष्टाएँ आदि देखने व सुनने से ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने में बाधा आती है। अतः साधु को स्त्री, पशु आदि के आवागमन से रहित स्थान में ही ठहरना चाहिए। १. वही। २. आचाराङ्ग, २.१.२. ३. मणोहरं चित्तघरं मल्लधूवेण वासियं । सकवाडं पंडुरुल्लोयं मणसावि न पत्थए ।। इंदियाणि उ भिक्खुस्स तारिसम्मि उ वस्सए । दुक्कराई निवारेउं कामराग विवड्ढणे ।। -उ० ३५.४-५. ४. फासुयम्मि अणाबाहे इत्थीहि अणभिद दुए। तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए । -उ०३५.७. तथा देखिए-उ० ३०.२८. For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ३. जहाँ जीवादि के उत्पन्न होने की संभावना न हो-यदि वहाँ क्षद्र जीवों के उत्पन्न होने की संभावना होगी तो अहिंसा महाव्रत का पालन करने में बाधा पड़ेगी। अतः जहाँ क्षद्र जीवों के उत्पन्न होने की संभावना न हो वही स्थान साधु के ठहरने के उपयुक्त है।' ४. जो गोबर आदि से उपलिप्त न हो तथा बीजादि से रहित हो-साध के निमित्त से उस स्थान को लीप-पोतकर साफ न किया गया हो तथा अंकुरोत्पादक बीजों से आकीर्ण भी न हो । इससे भिन्न उपाश्रय में ठहरने से साधु हिंसा के दोषों का भागी होता है । अतः जिस उपाश्रय को साधु के निमित्त से लीप-पोतकर साफ न किया गया हो ऐसे ही उपाश्रय में साधु ठहरे ।२ इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह स्थान गन्दा हो अपितु वह साफ-सुथरा तो हो परन्तु साधु के निमित्त से उसे साफ न किया गया हो। ५. जो एकान्त हो-जो नगर एवं गृहस्थादि के घनिष्ठ सम्पर्क से रहित श्मशान, उद्यान, शून्यगृह, वृक्ष, लतामण्डप का तलभाग आदि एकान्तस्थल हो । साध्वियों के विषय में बृहत्कल्प के द्वितीय उद्देश में लिखा है कि साध्वियां धर्मशाला ( आगमनगृह ), टूटा-फूटा मकान ( विकृति-गृह ), वृक्षमूल और खुले आकाश ( अभ्रावकाश ) में न रहें। इसका कारण यह है कि ऐसे एकान्त स्थानों पर साध्वियों के साथ पुरुषों के द्वारा बलात्कार की संभावना रहती है। ६. जो परकृत हो-जो उपाश्रय साधु के निमित्त से बनाया गया न हो । अर्थात् जिसे गृहस्थ ने स्वयं के उपयोग के लिये १. वही तथा पृ० ३१०, पा० टि० २. २. विवित्तलयणाई भइज्जताई निरोवलेवाइं असंथडाइं । -उ० २१.२२. ३. सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व इक्कओ। पइरिक्के परकडे वा वासं तत्थाभिरोयए । -उ० ३५.६. तथा देखिए-उ० २.२०,१८.४-५; २०.४; २३.४,२५.३. ४. वही। For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३१३ बनाया हो क्योंकि साधु के निमित्त से उपाश्रय के बनाने पर साधु को हिंसादि दोष का भागी बनना पड़ेगा। इस तरह साधु सुसज्जित, रमणीय, स्त्री आदि से संकीर्ण तथा जीवादि की उत्पत्ति की सम्भावना से युक्त स्थान पर न रहकर नगर से बाहर एकान्त अरण्य आदि में रहे। ऐसा एकान्त स्थान ही साध के ठहरने के लिये उपयुक्त है। इससे अहिंसा आदि व्रतों का पालन करने में सुविधा रहती है। अतः जैसे स्थान में रहने से व्रतों का पालन करने में बाधा न आए वही स्थान साधु के ठहरने के लिये उचित है। ग्रन्थ में शय्या-परीषह के प्रसङ्ग में कहा है कि साधु स्थान के सम होने या विषम होने पर घबड़ाए नहीं अपितु सभी प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ अपने कर्त्तव्यपथ पर दढ़ रहे.।' इस प्रकार के एकान्त स्थान में रहना विविक्तशयनासन ( संलीनता ) नामक एक प्रकार का तप भी है। आहार भोजन के बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं है क्योंकि भोजन से ही इन्द्रियाँ पुष्ट होकर देखने, सुनने एवं विचार करने के सामर्थ्य को प्राप्त करती हैं। अतः साधु के लिए दिन का ततीय प्रहर भोजन-पान के लिए नियत किया गया है। भोजन किन परिस्थितियों में करना चाहिए ? किन परिस्थितियों में नहीं करना चाहिए ? किस प्रकार का आहार करना चाहिए ? आदि बातों का यहां विचार किया जायगा। किन परिस्थितियों में आहार ग्रहण करे : ___ मोक्षाभिलाषी साधु निम्नोक्त छः कारणों के उपस्थित होने पर ही भोजन ग्रहण करे : १. देखिए-प्रकरण ५, शय्या परीषह । २. देखिए-प्रकरण ५, तपश्चर्या ।। ३. वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिंताए । ___ -उ० २६.३३. तथा देखिए-उ० २.२६; ६.१४; ८.१०.१२; १२.३५; १५.१२; २५.३९-४०; २६.३२; ३१.८. For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. क्षुधा-वेदना को शान्ति के लिए यद्यपि साधु के लिए क्षुधापरी-षहजय का विधान किया गया है परन्तु ऐसा विधान तप करते समय तथा निदुष्ट आहार न मिलने की अवस्था के लिए है, अन्यथा क्षधा की वेदना से न तो मन स्थिर हो सकता है और न देखने, सुनने व ध्यान आदि के करने की सामर्थ्य ही प्राप्त हो सकती है। अतः क्षुधा-वेदना की शान्ति के लिए आहार करना चाहिए। २. गुरु आदि की सेवा करने के लिए-गुरु की सेवा करना एक प्रकार का तप है। यदि शरीर में सामर्थ्य नहीं होगा तो. गरु की सेवा आदि कार्य नहीं हो सकते हैं। अतः गुरु की सेवा करने के लिए आहार ग्रहण करना चाहिए। ३. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए- भोजन न करने पर आँखों की ज्योति क्षीण हो जाती है। ऐसी स्थिति में गमनागमन करते समय सावधानी कैसे वर्ती जा सकती है ? अतः गमनादि क्रिया करते समय ईर्यासमिति का पालन करने के लिए भी भोजन करना आवश्यक है। ४. संयम की रक्षा के लिए-संयम के होने पर ही सब प्रकार के व्रतों को धारण किया जा सकता है और सब प्रकार के उपसर्गों ( कष्टों) को सहन किया जा सकता है। अतः साधु को संयम में दृढ़ होकर ही भिक्षा में प्रवृत्त होने का आदेश है। वस्तुतः साधु को भोजन संयमपालन करने के लिए ही करना चाहिए। ___५. जीवनरक्षा के लिए - जीवन के वर्तमान रहने पर ही संयम आदि का पालन करना संभव है तथा जीवन (प्राण) आहार के बिना ठहर नहीं सकता है। अत: साधु को जीवनरक्षा के लिए नीरस भोजन ही करने का विधान है। ६. धर्मचिन्तन के लिए-शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन आदि धार्मिक-क्रियाओं को करने के लिए आवश्यक है कि शरीर सुस्थिर रहे तथा क्षुधा आदि की वेदना न हो क्योंकि शरीर के शिथिल रहने पर या क्षुधा से व्याकुल होने पर कोई भी चिन्तन आदि धार्मिक-क्रिया नहीं की जा सकती है। अतः धार्मिकक्रियाओं के करने के लिए भी आहार आवश्यक है। For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३१५ इस तरह साधु इन ६ परिस्थितियों के मौजूद रहने पर ही आहार ग्रहण करे। इन सबके मूल में संयम का पालन करना प्रधान कारण है क्योंकि संयम का पालन न करने पर वैयावत्य, ईर्यासमिति एवं धर्मचिन्तन भी नहीं हो सकता है। प्राणरक्षा एवं क्षधा-वेदना की शान्ति भी संयम की रक्षा के लिए ही है। इसका स्पष्टीकरण आहार न करने के निम्नोक्त कारणों से हो जाता है । किन परिस्थितियों में आहार ग्रहण न करे : उपयुक्त छहों कारणों के वर्तमान रहने पर भी यदि निम्नोक्त छ : कारणों में से कोई भी एक कारण उपस्थित हो तो साधु को आहार त्याग देना चाहिए और जब तक आहार न करने का कारण दूर न हो जाए तब तक किसी भी हालत में आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, भले ही प्राणों का त्याग क्यों न करना पड़े । आहार न करने के वे छः कारण निम्नोक्त हैं : १ १. भयङ्कर रोग हो जाने पर- असाध्य रोग के हो जाने पर आहार यांग देना चाहिए। जब साधु को रोगादि की शान्ति के लिए औषधिसेवन का भी निषेध है तो फिर ऐसी परिस्थिति में आहार ग्रहण करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है ? । २. आकस्मिक संकट (उपसर्ग) आ जाने पर-किसी आकस्मिक विकट संकट के उपस्थित हो जाने पर साधु को सब प्रकार के आहार का त्याग कर देना चाहिए । ३. ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए-यदि भोजन से इन्द्रियाँ प्रदीप्त होकर कामवासना की ओर झुकती हैं तो भोजन का त्याग कर देना चाहिए। यहां ब्रह्मचर्य की रक्षा से संयम की रक्षा अभिप्रेत है क्योंकि आत्मसंयम के अभाव में ही ब्रह्मचर्य से पतन सम्भव है। १. आयंके उव सग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहे उं सरीरवोच्छेय गट्ठाए । -उ० २६.३५. २. उ० १६.७६-७७; १५.८. For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ४. जीवों की रक्षा के लिए-यदि भोजन ग्रहण करने से अहिंसा महाव्रत के पालन करने में बाधा आती है तो भोजन का त्याग कर . देना चाहिए। यह कथन विशेषकर वर्षाकाल की अपेक्षा से है क्योंकि वर्षाकाल में बहुत से क्षुद्र जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और साधु के भिक्षार्थ जाते समय उनकी हिंसा हो जाती है। ५. तप करने के लिए-अनशन आदि तप करने के लिए भोजन का त्याग आवश्यक है। तप करना भी आवश्यक है क्योंकि ये... कर्मों की निर्जरा में प्रधान कारण हैं । ६. समतापूर्वक जीवन का त्याग करने ( सल्लेखना ) के लिएमत्यु के सन्निकट आ जाने पर निर्ममत्व-अवस्था की प्राप्ति के लिए सब प्रकार के आहार का त्याग आवश्यक है। किस प्रकार का आहार ग्रहण करे ? भोजन ग्रहण करने के प्रतिकूल कारणों के मौजूद न रहने पर और अनुकल कारणों के मौजूद रहने पर साधु को किस प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए ? इस विषय में ग्रन्थ में निम्नोक्त संकेत मिलते हैं : १. जो अनेक घरों से भिक्षा द्वारा माँगकर लाया गया हो-साध भिक्षा के द्वारा प्राप्त अन्न का ही सेवन करता है। वह भिक्षान्न केवल किसी एक घर से या अपने सम्बन्धीजनों के यहां से ही लाया हआ न हो अपितु अनिन्दित कूल वाले अज्ञात घरों से थोडा-थोडा माँगकर लाया हुआ होना चाहिए। परिस्थितिविशेष में वह आहार यज्ञ-मण्डप तथा छोटे कुल वाले ( प्रान्तकूल ) घरों से भी लाया जा सकता है । परन्तु किसी एक घर से पूरा आहार नहीं लाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर गृहस्थ को पुनः भोजन बनाना पड़ेगा जिससे साध के अहिंसावत में दोष होगा।। १. समुयाणं उद्दमेसिज्जा जहामुत्तमणि दियं । लाभालाभम्मि संतुटठे पिंडवावं चरे मुणी ।। -उ० ३५१६. तथा देखिए--उ० १४.२६; १५.१ ; १७.१६ ; २५.२८. २. उ० १५.१३, २५.५. For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३१७ २. जो गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार किया हो (पर-कृत)- यदि भोजन साधु के निमित्त से बनाया गया होगा तो साधु को हिंसादि की अनुमति का दोष लगेगा। यदि अतिथि के निमित्त से बनाया गया होगा तो अतिथि का हिस्सा कम हो जाएगा। अतः जिस भोजन को गृहस्थ ने स्वयं के लिए तैयार किया हो उसी में से थोड़ा सा लेवे ताकि गृहस्थ भूखा भी न रहे और उसे पुनः भोजन तैयार करने का प्रयत्न भी न करना पड़े। इस प्रकार के भोजन को ग्रन्थ में 'परकृत' कहा गया है। इसका अर्थ है-पर ( साध से इतर गृहस्थ ) के निमित्त से बनाया गया अर्थात् जिसे गहस्थ ने स्वयं के लिए बनाया हो।' - ३. गृहस्थ के भोजन कर चुकने के बाद जो शेष बचा होगृहस्थ के भोजन कर चुकने के बाद सामान्यतया प्रत्येक घर में एक-दो रोटियां बच जाती हैं। अतः साध उस शेषावशेष अन्न को ही लेवे जिससे गृहस्थ न तो भूखा रहे और न उसे पुनः भोजन बनाने का प्रयत्न ही करना पड़े। इस विषय के स्पष्टीकरण के लिए भिक्षार्थ यज्ञ मण्डप में उपस्थित हरिके शिवल मुनि के शरीर में प्रविष्ट यक्ष के वचनों को उद्धृत कर रहा हूँ- 'मैं संयत, ब्रह्मचारी, धनसंग्रह एवं अन्नादि पकाने की क्रिया से विरक्त साध ( श्रमण ) हूँ। पर के लिए बनाए गए आहार की प्राप्ति के लिए भिक्षा लेने के समय में यहाँ पर आया है। आपके पास यह बहतसा भोज्यान्न है जिसे आप बाँट रहे हैं, खा रहे हैं तथा उपभोग कर रहे हैं। मुझे भिक्षा द्वारा जीवन-यापन करनेवाला तपस्वी समझें तथा ऐसा जानकर मुझे शेषावशेष अन्न देवें । २ यद्यपि जैन साधु इस .. १. फासुयं परकडं पिंडं। --उ० १.३४. तथा देखिए-उ० १२.६; २०.४७. २. समणो अहं संजओ बंभयारी विरओ धणपयणपरिग्गहओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि ।। वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति सेसावसेसं लभऊ तवस्सी ॥ -उ० १२.६-१०. तथा देखिए-उ० ६.१५. For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तरह से भिक्षान्न की याचना नहीं करते हैं फिर भी यक्ष के मुख से जो ऐसा कहलाया गया है उसका कारण है-साधु के आहार ग्रहण करने सम्बन्धी विषय का स्पष्टीकरण ।। ४. जो निमन्त्रण आदि से प्राप्त न हो-साध गहस्थ के द्वारा आमन्त्रण करने पर प्राप्त भिक्षा न लेवे' क्योंकि ऐसा आहार लेने पर गृहस्थ साध के निमित्त पाचन क्रिया करेगा जिससे साधु को हिंसा की अनुमति का दोष लगेगा। इसके अतिरिक्त जहां पर पंक्तिबद्ध होकर प्रीतिभोज दिया जा रहा हो वहाँ भी भिक्षार्थ खड़ा न होवे । हरिके शिबल मुनि ब्राह्मणों के द्वारा प्रार्थना करने पर जो यज्ञान को ग्रहण करते हैं वह आमन्त्रणपूर्वक लिया गया आहार नहीं है क्योंकि हरिकेशिबल भिक्षा लेने के समय यज्ञमण्डप में भिक्षार्थ जाते हैं और वहां पर पहले से तैयार किए गए भोजन को ब्राह्मणों पर अनुग्रह करने के लिए ही ग्रहण करते हैं। अतः वहां आमन्त्रणजन्य दोष नहीं है। ५. जो सरस एवं प्रमाण से अधिक न हो-साधु के लिए संयम निर्वाहार्थ ही भोजन ग्रहण करने का विधान है, रसना-इन्द्रिय की सन्तुष्टि के लिए नहीं। अतः साधु को चाहिए कि वह सरस आहार की अभिलाषा से ज्यादा न घुमे । उसे जो नीरस आहार मिले उसका तिरस्कार न करते हुए उसे ग्रहणं करे। इसके अतिरिक्त सरस आहार ग्रहण करने से इन्द्रियाँ कामादि भोगों के सेवन के लिए उद्दीप्त हो जाती हैं जिससे साध पक्षीगणों से १. उद्देसियं कीयगडं नियागं न मुच्चई किंचि अणेसणिज्ज । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ' कटु पावं ॥ -उ० २०.४७, २. परिवाडीए न चिट्ठज्जा। -30 2.३२ ३. उ० १२.४-७,१६,१८-२०,३५. इसी तरह जयघोष मुनि के लिए देखिए-उ० २५.६,३९-४०. ४. देखिए-पृ० ३१६, पा० टि० १; उ० २.३६, ८.११; १५.२,१२; १८.३०; २१.१५; २३.५८; २५.२. For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३१६ पीडित सुस्वादु फलवाले वृक्ष की तरह पीड़ित होकर संयम की आराधना नहीं कर पाता है।' प्रमाण से अधिक भोजन करने से प्रचर इन्धनवाले वन में उत्पन्न हई दावाग्नि की तरह इन्द्रियाँ शान्त नहीं होती हैं ।२ अतः साधु का आहार नीरस एवं स्वल्प होना चाहिए। ___ साध के जीवन-यापन के लिए नीरस आहार के विषय में ग्रन्थ में कुछ संकेत मिलते हैं। जैसे : १. स्वादहीन (प्रान्त ), २ ठण्डा ( शीत-पिण्ड ), ३. पुराने उड़द, मूग आदि ( पुराणकुम्मास ), ४. मंग के ऊपर का छिलका ( वुक्कस ), ५. शुष्क चना आदि ( पुलाग ), ६. बेर का चूर्ण ( मंथु ), ७. शाक या चावल आदि का उबला हुआ पानी ( आयामग ), ८. जव का भात ( यवोदन ), ६. शीतल काजी ( सौवीर ), १०. जव का पानी आदि । इस तरह साध के जीवन-निर्वाह के लिए नीरस आहार लेने का विधान होने का यह तात्पर्य नहीं है कि साधु घत, दूध आदि सरस आहार नहीं ले सकता है अपितु सरस आहार की प्राप्ति में आसक्ति न करके इस प्रकार के नीरस आहार के मिलने पर उपेक्षा न करे। यदि सरस आहार ग्रहण करने से संयम के पालन करने में बाधा पड़े तो उसे सरस आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसीलिए ग्रन्थ में साधु को लाभालाभ में हमेशा सन्तुष्ट रहने को कहा गया है। ६. जो अचित्त, प्रासुक एवं शुद्ध हो-साधु जिस प्रकार के आहार को ग्रहण करे वह अचित्त, प्रासुक एवं शुद्ध हो" क्योंकि ऐसा १. उ० ३२.१०. २. उ० ३२ ११. ३. पंताणि चेव सेवेज्जा सीयपिडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा जवणट्ठाए निसेवए मंथं ॥ . -उ० ८.१२. आयामगं चेव जवोदणं च सीयं सोवीरजवोदगं च । न हीलए पिण्डं नीरसं तु पंतकुलाइं परिव्वए स भिक्खू ॥ -उ० १५.१३. ४. देखिए-पृ० ३१६, पा० टि० १; उ० १५.११. ५. उ० १ ३२,३४;६.१५;८.११; ३२.४. आदि । For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । न होने पर हिंसादि दोष होते हैं । इसीलिए ग्रन्थ में कहा है कि जो अनेषणीय (सचित्त) आहार ग्रहण करता है वह अग्नि की तरह . सर्वभक्षी होने से साधु नहीं कहलाता है।' आहार के विषय में कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें: साधु जब गहस्थ से भोजन ग्रहण करे तथा जब उसका उपभोग करे तो निम्नोक्त बातों को ध्यान में रखे : १. भोजन देते समय दाता गृहस्थ साधु से न तो उच्च स्थान पर हो, न निम्न स्थान पर हो, न अति समीप हो और न अत्यन्त दूर हो । २. यदि कोई दूसरा भिक्षु पहले से किसी गृहस्थ से आहार ले रहा हो तो न गृहस्य के एकदम आँखों के सामने और न अत्यन्त दूर खड़ा होवे । भिक्षु का उल्लङ्घन करके घर में भी प्रवेश न करे अपितु तब तक चुपचाप बाहर खड़ा रहे जब तक पहलेवाला भिक्षु आहार लेकर वापिस न आ जाए। ऐसा इसलिए करना आवश्यक है कि पहले आया हुआ भिक्षु अपनी पूरी भिक्षा प्राप्त कर ले, कहीं ऐसा न हो कि गृहस्थ दसरे भिक्षु को देखकर पहलेवाले भिक्षु को कम भिक्षा देवे या बिलकुल ही न देवे ।। ३. यदि साधु को भिक्षा प्राप्त न भी हो तो वह क्रोधादि न करे अपितु हरिके शिबल मुनि की तरह लाभालाभ में सन्तुष्ट रहे । ___४. आहार आदि की प्राप्ति एवं जीविका-निर्वाह के लिये किसी भी प्रकार की विद्या व मन्त्रादि शक्तियों का प्रयोग न करे। १. देखिए-पृ० ३१८, पा० टि० १. २. नाइ उच्चे व नीए वा नासन्ने नाइदूरओ। -उ० १.३४. ३. नाइदूरमणासन्ने नन्नेसि चक्खु फासओ। एगो चिट्ठज्ज भत्तट्ठा लंघित्ता तं नइक्कमे ।। -उ० १.३३. ४. देखिए-पृ० ३१६, पा० टि० १; पृ० ३१८, पा० टि० ३. ५. उ० ८.१३; १५.७. For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३२१ विद्या व मन्त्रादि शक्तियों के प्रयोग से प्राप्त हुए आहारादि में वे सभी हिंसादि दोष साधु को लगते हैं जो वस्तु के क्रय-विक्रय करने आदि में गहस्थ को लगते हैं । ऐसा करने से साध क्रय-विक्रय के द्वारा जीविका-निर्वाह करनेवाला गृहस्थ हो जाता है। अतः इनके प्रयोग का निषेध किया गया है। __५. जहाँ बैठकर साधु भोजन करे वह स्थान चारों तरफ से ढका हुआ, त्रस जीवों के निवास से रहित तथा स्वच्छ हो। इसके अतिरिक्त भोजन करते समय भोजन को जमीन पर न गिराए । साधु 'यह भोजन अच्छी तरह पकाया गया है', 'अच्छी तरह छीला गया है', 'मधुर है', 'खराब है' आदि सावद्य-वचनों का भी प्रयोग न करे ।' इसके अतिरिक्त दिन में एक बार ही भोजन करे । ६. साधु भिक्षार्थ जाते समय अपने पात्रों को अच्छी तरह देख-भाल लेवे तथा भिक्षा लेने के लिए आधा योजन (परमार्द्धयोजन ) की दरी तक ही जाए। इसके अतिरिक्त भोजन के लिए जो समय ( तृतीय पौरुषी ) नियत है उसी में भोजन करे । रात्रि में कदापि भोजन न करे। ___ इस तरह साधु को आहार के ग्रहण करने में बहुत से कठिन नियमों का पालन करना पड़ता है। भिक्षाचर्या नामक तप के प्रसङ्ग में कुछ अन्य विशेष नियमों का वर्णन किया जाएगा। इस आहारसम्बन्धी वर्णन से स्पष्ट है कि साध हिंसादि दोषों को जहाँ तक संभव हो बचाने की कोशिश करे। इसके अतिरिक्त सरस भोजन की लालसा न करता हुआ अल्प, नीरस तथा गृहस्थ के भोजन का शेषान्न (जो कई घरों से भिक्षा के द्वारा लाया गया हो) १. अप्पपाणेऽप्पबीयम्मि पडिच्छन्नम्मि संबडे । समयं संजए भंजे जयं अपरिसाडियं ।। सुक्कडित्ति सुपक्कित्ति सुच्छिन्ने सुहडं मडे । सुणिट्ठिए सुलट्ठिसत्त सावज्जं वज्जए मुणी ।। -उ० १.३५.३६. २. अवसे सं भंडगं गिज्झ चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोयणाओ विहारं विहरए मुणी ॥ -उ० २६ ३६. For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन संयम की रक्षा के निमित्त समतापूर्वक उपभोग करे । जब देखे कि संयम का पालन करना संभव नहीं है या भयानक रोग हो गया. है या कोई अन्य आपत्ति आ गई है जिससे बचना संभव नहीं हैं तो सब प्रकार के आहार का त्याग करके अनशन तप करे । अনুशलन जब मुक्ति का साधक धीरे-धीरे अपने चारित्र का विकास करता गृहस्थधर्म की अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर लेता है या संसार के विषय-भोगों से विरक्त हो जाता है तो वह ज्ञान की प्राप्ति तथा चारित्र के विकास के लिए माता-पिता से आज्ञा लेकर सभी प्रकार के पारिवारिक स्नेहबन्धन को तोड़कर जंगल में चला जाता है और किसी गुरु से दीक्षा लेकर या गुरु के न मिलने पर स्वयं साधु-धर्म को अङ्गीकार कर लेता है । यद्यपि गृहस्थावस्था में भी ज्ञान और चारित्र की साधना की जा सकती है परन्तु गृह में नाना प्रकार के सांसारिक कार्यों के होने से धर्म की साधना में बहुत बाधाएँ आती हैं । अतः प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में धर्म की साधना के लिये संन्यासाश्रम की व्यवस्था मिलती है । यहाँ आकर साधक सभी प्रकार के सांसारिक बन्धनों से दूर हटकर गृहस्थ के द्वारा दिए गए भिक्षान्न पर जीवन-यापन करता हुआ एकान्त में आत्मचिन्तन करता है । इसी प्रकार उत्तराध्ययन में भी चारित्र और ज्ञान के विकास की पूर्णता के लिए संन्यासाश्रम को आवश्यक बतलाया गया है । इस आश्रम में रहनेवाले साधक को 'साधु' या ' श्रमण' कहा जाता है । भिक्षान्न द्वारा जीवन-यापन करने के कारण इन्हें 'भिक्षु' भी कहा गया है। इस भिक्षा की प्राप्ति के सम्बन्ध में बहुत ही कठोर नियम हैं जिनके मूल में अहिंसा और अपरिग्रह की भावना निहित है । साधु के आचार से सम्बन्धित जितने भी नियम हैं उन सबके मूल में अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना निहित है । इन सभी नियमों के पालन करने का परम्परया या साक्षात् फल कर्मनिर्जरा के बाद मुक्ति बतलाया गया है । For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३२३ पाँच महाव्रत जिन्हें साधु दीक्षा के समय ग्रहण करता है उनके मूल में अहिंसा और अपरिग्रह की भावना विद्यमान है। अहिंसा और अपरिग्रह के भी मूल में अहिंसा है तथा इस अहिंसा की पूर्णता बिना अपरिग्रह के संभव नहीं है। यहाँ पर अपरिग्रह से न केवल धन के संग्रह का त्याग अभिप्रेत है अपितु यावन्मात्र सांसारिक विषयों का त्याग अभिप्रेत है जिसे कि सर्वविरति और वीतरागता इन शब्दों से कहा जा सकता है। जैसा कि केशिगौतम-संवाद से स्पष्ट है कि जनसामान्य की बदलती हुई प्रवृत्ति के कारण महाव्रतों की संख्या में वृद्धि की गई है तथा अपरिग्रह शब्द का अर्थ धन-संग्रहत्यागरूप अर्थ में रूढ़ हो गया है। संसार के विषयों में आसक्ति होने के कारण जीव धनादि के संग्रह में प्रवृत्त होता है और धनादि की प्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि अनैतिक क्रियाओं में प्रवत्ति करता है। धनादि की प्राप्ति हो जाने पर उसके भोगोपभोग में प्रवृत्ति करता हुआ और अधिक धनादि के संग्रह में प्रवृत्त होता है। इस तरह संसारासक्ति, लोभ, धनादि के संग्रह में प्रवृत्ति ये सब सभी प्रकार के अनैतिक कार्यों में प्रवृत्ति करानेवाले हैं। इस तरह ये मुक्ति के मार्ग में भी प्रतिबन्धक हैं। इसीलिए ग्रन्थ में लाभ को लोभ का जनक बतलाते हुए संसारासक्ति से विरक्त होने का उपदेश दिया गया है। ___ धर्म के नाम पर यज्ञ में होनेवाली हिंसा को देखकर तथा विश्वबन्धुत्व की भावना से प्रेरित होकर अहिंसा को सब व्रतों का मूलाधार माना गया तथा साधु की प्रत्येक क्रिया में अहिंसापूर्वक प्रवृत्ति करने पर जोर दिया गया। ब्रह्मचर्य जोकि स्त्री-संपर्क त्यागरूप है पहले अपरिग्रह के ही अन्तर्गत था परन्तु बाद में लोगों की बढ़ती हुई कामासक्ति को देखकर भगवान् महावीर ने इसे पृथक महाव्रत के रूप में बदल दिया तथा अन्य व्रतों की अपेक्षा इसे सर्वाधिक दुस्तर बतलाया। इस तरह ग्रन्थ में अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन तीन महाव्रतों पर विशेष जोर दिया गया है। इनके अतिरिक्त सत्य और अचौर्य इन दो नैतिक व्रतों को मिलाकर महाव्रतों की संख्या पाँच नियत की गई है। सत्य और अचौर्य व्रत के भी मूल में अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन निहित है । इन दोनों व्रतों को महाव्रतों में गिनाने का कारण यह है कि साधु अपनी झूठी प्रतिष्ठा के लिए झूठ न बोले तथा लिए गए व्रतों का गुप्तरूप से अतिक्रमण न करे । इसीलिए ग्रन्थ में साधु को निश्चयात्मक और उपयोगहीन वाणी बोलने तथा तृणादिसदृश तुच्छ वस्तु को भी बिना आज्ञा के ग्रहण करने का स्पष्ट निषेध किया गया है । इस तरह इन पांच नैतिक व्रतों के पालन करने से ही साधु का आचार पूर्ण हो जाता है परन्तु इन पाँचों व्रतों का अति सूक्ष्मरूप से पालन करने पर जीव किसी भी कार्य में प्रवृत्ति नहीं कर सकता है क्योंकि मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति होने पर सूक्ष्म हिंसा का होना स्वाभाविक ही है। अतः इस विषय में कुछ विशेष नियम बतलाए गए हैं जिनके अनुसार प्रवृति करने पर हिंसादि दोषों की सम्भावना नहीं रहती है। इन सभी नियमों के मूल में है - सावधानीपूर्वक ( प्रमादरहित ) सम्यक् प्रवृत्ति करना क्योंकि प्रमाद या असावधानीपूर्वक की गई निर्दोष भी प्रवृत्ति दोषजनक बतलाई गयी है । अतः ग्रन्थ में गौतम को लक्ष्य करके बारम्बार अप्रमत्त होने का उपदेश दिया गया है । अप्रमादपूर्वक प्रवृत्ति किस प्रकार संभव है इसी बात को समझाने के लिए समितियों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें बतलाया गया है कि साधु गमनागमन में, वचन बोलने में, भिक्षादि की प्राप्ति में, वस्तुओं के उठाने व रखने में तथा त्याज्य वस्तुओं के त्याग करने में किस प्रकार प्रवृत्ति करे जिससे कि हिंसादि दोषों का भागी न बने । जब प्रवृत्ति करने की आवश्यकता न हो तो उस समय मन, वचन एवं काय को गुप्त रखे, निरर्थक प्रवृत्ति न करे। मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति को गुप्त रखने के ही लिए तीन गुप्तियाँ बतलाई गई हैं । ये तीन गुप्तियाँ और पांच समितियाँ ही ग्रन्थ में 'प्रवचनमाता' शब्द से कही गई हैं । समस्त जैन ग्रन्थों का प्रवचन ( उपदेश ) कुछ में प्रवृत्ति और कुछ से निवृत्ति को बलानेवाला है । इस तरह समस्त जैन प्रवचन गुप्ति और समिति में समाविष्ट होने से इन्हें 'प्रवचनमाता' कहा जाता है। इसके अतिरिक्त गुप्ति और समिति में सावधान व्यक्ति ही जैन ग्रन्थों के प्रवचन को For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३२५ सुरक्षित रख सकता है । अतः इस दृष्टि से भी इन्हें 'प्रवचनमाता' कहना उचित है । संयम में प्रवृत्ति और असंयम से निवृत्ति इनका ( समिति और गुप्ति का ) मूल-मन्त्र है। रागद्वेष से होनेवाली मन, वचन और काय-सम्बन्धी स्वच्छन्द-प्रवृत्ति को सम्यक्रूप से रोकना संयम है तथा संसार के विषयों में होनेवाली स्वच्छन्द प्रवत्ति को होने देना असंयम है। संयम में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करने से तथा सब प्रकार की असंयमित प्रवत्तियों को रोकने से पाँचों महाव्रतों की रक्षा होती है । अतः महाव्रतों की रक्षा के लिए समिति और गुप्तिरूप प्रवचनमाताओं का पालन करना आवश्यक है । ___ अब यहां यह विचार करना है कि साधु के आचार के प्रसङ्ग में जिन अन्य नियमों का वर्णन किया गया है उनमें किस प्रकार एवं कहां तक उपयुक्त पाँच नैतिक महाव्रतों की भावना निहित है ? ___ साधु के पास न तो कोई निजी वस्तु होती है और न उसे किसी भी वस्तु से ममत्व होता है, फिर भी जीवन-निर्वाह एवं संयम का पालन करने के लिये वह कुछ उपकरणों को अपने पास में रखता है तथा भिक्षान्न का भक्षण करता है। साध के पास जो भी वस्त्र, पात्र आदि उपकरण होते हैं वे सब गृहस्थ के द्वारा दिए गए होते हैं और बहुत ही सस्ते होते हैं ताकि उनके गुम जाने से दुःखादि न हो। इससे साधु की अपरिग्रह-भावना सुरक्षित रहती है। साध इन उपकरणों की प्राप्ति के लिये किसी प्रकार का क्रय-विक्रय या उत्पादन आदि नहीं करता है जिससे हिंसादि दोषों की भी संभावना नहीं रहती है । इसके अतिरिक्त साधु गहस्थ को इन उपकरणों को देने के लिए न तो बाध्य करता है और न अपने निमित्त से तैयार किए गए उपकरणों को ही ग्रहण करता है, अपितु आवश्यकता पड़ने पर गृहस्थ के द्वारा स्वेच्छा से देने पर ही उन्हें ग्रहण करता है। अतः हिंसादि दोषों की संभावना नहीं रहती है। आहारप्राप्ति के विषय में जिन दोषों को बचाने तथा जिन नियमों का पालन करने का उल्लेख किया गया है वे सब वस्त्रादि उपकरणों की प्राप्ति के विषय में भी लागू होते हैं। आहार के विषय में स्पष्ट रूप से बतलाया है कि साधु संयम एवं जीवन-निर्वाह के लिए ही आहार ग्रहण करे। जिस आहार में हिंसादि दोषों को जरा भी संभावना For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । हो उसे ग्रहण न करे। यद्यपि आहारादि की उत्पत्ति में गृहस्थ के द्वारा कुछ सूक्ष्म हिंसा होती है परन्तु उस हिंसा का भागी साघ नहीं होता है क्योंकि उस सूक्ष्म हिंसा को गहस्थ अपने निमित्त से करता है, साधु के निमित्त से नहीं । अतः ग्रन्थ में स्पष्ट कहा गया है कि साधु उस आहार।दि को ग्रहण न करे जिसे उसके निमित्त से बनाया गया हो या चोरी आदि अन्य अनैतिक उपायों से उत्पन्न किया गया हो। इसके अतिरिक्त उसे जो भी रूखा-सूखा आहारादि मिले उसमें उपेक्षाभाव ( समभाव ) रखते हुए ग्रहण करे। साधु को जो मन्त्रादि शक्तियों के प्रयोग का निषेध किया गया है उसके भी मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना निहित है क्योंकि मन्त्रादि शक्तियों का जीवन-निर्वाह के लिये प्रयोग करने पर साध क्रय-विक्रय करने वाला गृहस्थ हो जाएगा और तब वह साधु क्रय. विक्रय से होने वाले सभी हिंसादि दोषों का भागी भी हो जाएगा। अतः आवश्यक है कि साधु आहारादि को ग्रहण करते समय अहिंसादि व्रतों को ध्यान में रखते हुए ही प्रवृत्ति करे। इस तरह वस्त्रादि उपकरण एवं आहारादि के विषय में जो भी नियम और उपनियम हैं उन सब के मूल में अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों की ही भावना निहित है। अरण्य आदि एकान्त स्थान में निवास इसलिए आवश्यक है कि नगर में निवास करने से धर्म-साधना निविघ्न नहीं होती है क्योंकि नगर में नाना प्रकार के हिंसादि कार्य होते रहते हैं तथा स्त्रियों के नाना प्रकार के हाव-भाव दृष्टिगोचर होते रहते हैं जिससे संयम में स्थिर रहना कठिन हो जाता है। गृहस्थ के घर में चोरी आदि के होने पर साधु को भी संशय में पकड़ा जा सकता है । अतः महाव्रतों की रक्षा के लिए साधु को स्त्री आदि के आवागमन से रहित अरण्य आदि एकान्त स्थान में निवास करने का विधान किया गया है । चित्त की एकाग्रतारूप तपादि भी एकान्त स्थान में ही संभव हैं। साधु को एक स्थान पर निवास न करके देश-देशान्तर में बिहार करना इसलिए आवश्यक बतलाया गया है कि जिससे साध किसी एक स्थान-विशेष स मोहवश चिपका न रहे। वकाल में चुंकि क्षुद्र-जीवों की काफी मात्रा में उत्पत्ति हो जाती है अतः For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [३२७ उस समय एक स्थान पर रहने को कहा गया है। इससे वह गमन करने में होनेवाली हिंसा के दोष का भागी नहीं होता है। ___ सामाचारी के प्रकरण में जो सामाचारी के १० अवयव बतलाए गए हैं उनके द्वारा साधु अपने आपको संयमित करता है तथा गुरु के अनुशासन में रहकर विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करता है। इससे उसके महाव्रतों में कोई अतिचार नहीं होने पाता है। इसी प्रकरण में साधु की सामान्यरूप से जो दिनचर्या एवं रात्रिचर्या वणित की गई है उसमें 'आहार' और 'निद्रा' के लिए बहुत ही स्वल्प तथा ध्यान और स्वाध्याय के लिए सर्वाधिक समय नियत किया गया है। दिन और रात्रि के २४ घंटों में से १२ घंटे स्वाध्याय के लिए, ६ घंटे ध्यान के लिए, ३ घंटे भिक्षान्न-प्राप्ति के लिए तथा ३ घंटे शयन करने के लिए नियत हैं। इससे स्पष्ट है कि साधु अपना अधिक से अधिक समय अध्ययन और आत्मचिन्तनरूप ध्यान में लगाए। स्वाध्याय और ध्यान करने से मन, वचन एवं काय एकाग्र होकर तप की ओर अग्रसर होंगे और तब हिंसादि सावद्य प्रवृत्तियाँ रुक जाएँगी। . साधु के जो छः नित्यकर्म (आवश्यक ) बतलाए गए हैं उनके द्वारा भी साध अपने आपको संयमित करता है। गुरु आदि की स्तुति करने तथा आत्मगत दोषों की आलोचना करने से अज्ञान में हुए क्षुद्र हिंसादि दोषों की विशुद्धि हो जाती है। वस्त्र, पात्र आदि का उपयोग करते समय उन्हें अच्छी तरह देखने (प्रतिलेखना व प्रमार्जना ) से उनमें वर्तमान क्षद्र जन्तुओं की हिंसा नहीं होती है। इसके अतिरिक्त साधु नित्यकर्मों से हमेशा सतर्क रहने की प्रेरणा प्राप्त करता है। ... इसी प्रकार के शों को हाथों से उखाड़ने, श्रेष्ठ वस्त्रादि को न पहिनने आदि नियमोपनियमों से भी अहिंसादि व्रतों की रक्षा का ध्यान रखा गया है। इस तरह साधु का सम्पूर्ण आचार अहिंसा और अपरिग्रहादिरूप पाँच नैतिक महाव्रतों के रूप में चित्रित किया गया है। पातञ्जल योगदर्शन में भी अहिंसादि इन पाँच नैतिक व्रतों का महाव्रत के रूप For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन में उल्लेख मिलता है । " योगदर्शन में अहिंसा - विरोधी हिंसा क कृत, कारित और अनुमोदना के भेद से तीन भेद किए गए हैं। इसके बाद मृदु, मध्य और अधिमात्र के भेद से प्रत्येक के पुनः तीन-तीन भेद करने से हिंसा के नव भेद हो जाते हैं । इस नव प्रकार की हिंसा के भी क्रोध, लोभ और मोहपूर्वक होने से हिंसा के कई भेदों का उल्लेख किया गया है । इस सब प्रकार के हिंसा निरोध से अहिंसा भी कई भेदों वाली हो जाती है । २ योगदर्शन में अहिंसा का इतना अधिक विस्तार होने पर भी वहाँ अहिंसा का इतनी सूक्ष्मता से पालन नहीं किया जाता है जितना कि प्रकृत ग्रन्थ में बतलाया गया है । यहाँ एक बात और इस प्रसङ्ग में स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार उत्तराध्ययन में सभी व्रतों के मूल में अहिंसा को स्वीकार किया गया है उसी प्रकार योगदर्शन में व्यासभाष्यकार ने भी लिखा है कि सत्यादि अन्य सभी व्रत और नियमोपनियम इसी अहिंसा की पुष्टि करने वाले हैं । 3 इस तरह इन महाव्रतों की सार्वभौमिकता सुतरां सिद्ध हो जाती है। इनकी सुरक्षा जैसे सम्भव हो उसी प्रकार का आचरण करना ही साधु का सदाचार है। इन पाँच नैतिक व्रतों का व्यवहार में भी महत्त्व है जैसा कि महाव्रतों के प्रसङ्ग में लिखा चुका है। १. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । जातिदेशकाल समयानवच्छिन्नाः सर्वभौमा महाव्रतम् ।। - पा० यो० २३०-३१. २. वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्ष भावनम् ॥ - पा० यो० २.३४. ३. तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामभिद्रोह उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तसिद्धिपतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते । - पा०यो० ( २.३० ) - व्यासभाष्य, पृ० ६१. For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ विशेष साध्वाचार जैसा कि पिछले प्रकरण में बतलाया जा चुका है कि विशेष अवसरों पर कर्मों की विशेष निर्जरा करने के लिए साधु जिस प्रकार के सदाचार का विशेषरूप से पालन करता है उसे यहां पर विशेष साध्वाचार के नाम से कहा गया है । यह विशेष साध्वाचार साधु के सामान्य आचार से सर्वथा पृथक् नहीं है अपितु जब साधक अपने सामान्य साध्वाचार का ही विशेषरूप से दृढ़तापूर्वक सब प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ पालन करता है तो उसे ही तपश्चर्या आदिरूप विशेष साध्वाचार के नाम से कहा गया । विषय की दृष्टि से इसे निम्नोक्त चार भागों में विभक्त किया गया है : १. तप - तपश्चर्या । २. परीषहजय - तपश्चर्या आदि में प्राप्त कष्टों पर विजय । ३. साधु की प्रतिमाएँ - तपविशेष | ४. सल्लेखना - मृत्यु- समय की विशेष तपश्चर्या । अब क्रमशः इन पर ग्रन्थानुसार विचार किया जाएगा । तपश्चर्या-त्रप ग्रन्थ में कहीं-कहीं चारित्र से पृथक् जो तप का उल्लेख किया गया है वह उसके महत्त्व को प्रकट करने के लिए किया गया है । तप एक प्रकार की अग्नि है जिसके द्वारा सैकड़ों पूर्व-जन्मों में संचित ( पूर्वबद्ध ) कर्मों को शीघ्र ही जलाया जा सकता है । कर्म जोकि आत्मा के साथ सम्बद्ध हैं उनकी संख्या इतनी अधिक है कि उन्हें आयु के अल्पकाल में भोगकर नष्ट नहीं किया जा सकता है । अतः जिस प्रकार विशाल तालाब के जल को सुखाने के लिए जल के For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । आने के द्वार को बन्द करने के अतिरिक्त जल को उलीचने एवं सूर्य आदि के ताप से सुखाने की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार साधु को भी पूर्वसंचित कर्मों को निर्जीर्ण करने के लिए अहिंसादि व्रतों के अतिरिक्त तप की भी आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त कषायरूपी शत्रुओं के आक्रमण करने पर उन पर विजय प्राप्त करने के लिए तप को बाण एवं अर्गलारूप भी बतलाया गया है। इस तरह तप पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने में अग्निरूप हैं तथा आगे बंधनेवाले कर्मों को रोकने के लिए बाण एवं अर्गलारूप भी हैं। तप के इसी महत्त्व के कारण ग्रन्थ में तप को कहीं-कहीं चारित्र से पृथक बतलाया गया है। वस्तुतः तप चारित्र से सर्वथा पृथक नहीं है क्योंकि जो तप का वर्णन किया गया है वह साधु के सामान्य आचार का ही अभिन्न अङ्ग है। साधु के सामान्य आचार से सम्बन्धित कुछ विशेष क्रियाओं को ही यहां तप के रूप में बतलाया गया है। आत्मसंयम जोकि चारित्र की आधारशिला है तप उससे पृथक नहीं है अपितु तद्रूप ही है। वस्तुतः तप को कठोर या दृढ़ आत्मसंयम कहा जा सकता है। तप के भेद : तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से सर्वप्रथम दो भागों में विभाजित किया गया है, फिर बाह्य तप और आभ्यन्तर तप को पुनः ६-६ भागों में विभक्त किया गया है । इस तरह १. जहा महातालयस्स सन्निरुद्धे जलागमे । उस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे । भवकोडिसंचियं कम्म तवसा निज्जरिज्जइ ।। -उ० ३०.५-६. तथा देखिए-उ०६.२०; २५.४५ ; २८.३६ ; २६.२७ ; ३०.१,४ आदि । २. देखिए-पृ० २८६, पा. टि. ४. For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३१ ग्रन्थ में कुल मिलाकर १२ प्रकार के तपों का वर्णन मिलता है। उन १२ प्रकार के तपों के नाम क्रमशः ये हैं : १. अनशन ( सब प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग ), २. ऊनोदरी ( अवमोदर्य-भूख से कम खाना ), ३. भिक्षाचर्या ( भिक्षाटन के निश्चित नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न द्वारा जीवन-यापन करना ), ४. रस-परित्याग ( घतादि सरस द्रव्यों का त्याग), ५. कायक्लेश (शरीर को कष्टदायक योगासनादि लगाना), ६. सलीनता या विविक्तशयनासन ( एकान्त व निर्जन स्थान में निवासादि करना ), ७. प्रायश्चित्त (पापाचार का शोधन ), ८. विनय ( गुरुजनों आदि के प्रति विनम्रता के भाव ), ह. वैयावृत्य ( गुरुजनों आदि की सेवा-शुश्रुषा करना ), १०. स्वाध्याय ( ज्ञानार्जन करना ), ११. ध्यान ( चित्त को एकाग्र करना ) और १२. व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग ( शरीर से ममत्व हटाना )। उपर्युक्त १२ प्रकार के तप के भेदों में अनशन आदि प्रथम छः तप शरीर की वाह्य-क्रिया से अधिक सम्बन्धित होने के कारण बाह्य तप कहलाते हैं तथा प्रायश्चित्त आदि अन्तिम छः तप शरीर की बाह्य-क्रिया की अपेक्षा आत्मा से अधिक सम्बन्धित होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। बाह्य तपों का प्रयोजन आभ्यन्तर तपों को पुष्ट करना है । अत : प्रधानता आभ्यन्तर तपों की है। बाह्य तप आभ्यन्तर तपों की ओर ले जाने में मात्र सहायक हैं। वैयावृत्य और कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग , यद्यपि ऊपर से देखने में बाह्य तप प्रतीत होते हैं परन्तु वैयावृत्य के सेवाभावरूप होने से और कायोत्सर्ग के शरीर के ममत्व-त्यागरूप होने से इनमें बाह्यता नहीं है । बाह्य तपों १. अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिले सो संलोणया य बज्झो तवो होइ ।। -उ० ३०.८. पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सगो एसो अभिंतरो तवो ।। -उ० ३०.३०. तथा देखिए-उ० ३०.७,२६; २८.३४; १६.८६. For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन को जितनी आसानी से तप कहा जा सकता है उतनी आसानी से वैयावृत्य आदि को नहीं। अतः इनके भाव-प्रधान होने से ये आभ्यन्तर तप हैं। अब क्रमशः इन सभी प्रकार के तपों का ग्रन्थानुसार वर्णन किया जाएगा। बाह्य तप : पहले लिखा जा चुका है कि शारीरिक बाह्य-क्रिया से विशेष सम्बन्ध रखने के कारण अनशन आदि छः बाह्य तप कहे जाते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इनका आभ्यन्तर-शुद्धि से कोई प्रयोजन नहीं है । इन्हें बाह्य तप कहने का मूल प्रयोजन यह है कि ये आभ्यन्तर-शूद्धि की अपेक्षा बाद्य -शुद्धि के प्रति अधिक जागरूक हैं। इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं : १. अनशन तप: सब प्रकार के भोजन-पान का त्याग करना अनशन तप है। यह कुछ समय के लिये एवं जीवन-पर्यन्त के लिए भी किया जा सकता है। अतः इसके दो भेद किए गए हैं :१ १. इत्वरिक अनशन तप (कुछ समय के लिए किया गया-सावधिक ) तथा २. मरणकाल अनशन तप ( जीवन-पर्यन्त के लिए किया गया-निरवधिक )। क. इत्वरिक अनशन तप ( सावकांक्ष-अस्थायी )-इस तप को करनेवाला साधक एक निश्चित अवधि के बाद भोजन ग्रहण कर लेता है । अतः ग्रन्थ में इस तप को 'सावकांक्ष' ( जिसमें भोजन की आकांक्षा बनी रहती है) कहा गया है । संक्षेप में इसके अवान्तर छ: प्रकार बतलाए गए हैं, विस्तार से मनोनकल कई प्रकार सम्भव हैं। वे छ: प्रकार ये हैं : १. श्रेणीतप-इस प्रकार से अनशन (उपवास) करना कि एक पंक्ति । श्रेणी ) वन जाए। जैसे : दो दिन का, तीन १. इत्तरिय मरणकाला य अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिय सावकंखा निरवकखा उ विइज्जिया ।। -उ० ३०.६. तथा देखिए -- उ० ३०.१०-१३; २६.३५. For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३३ दिन का, चार दिन का, पाँच दिन का आदि क्रम से करना, २. प्रतर तप (सम-चतुर्भुजाकार )-समानाकार चार भुजाओं की तरह जब श्रेणी तप चार बार पुनरावृत्त होता है तो उसे १६ उपवास प्रमाण प्रतर तप कहते हैं, ३. घन तप-प्रतर तप ही जब श्रेणी तप से गुणित किया जाता है तो उसे (१६ x ४= ६४ उपवास प्रमाण) घन तप कहते हैं, ४. वर्ग तप-घन तप को जब घन तप से गणित किया जाता है तो उसे ( ६४४ ६४=४०६६ उपवास प्रमाण ) वर्ग तप कहते हैं, ५. वर्ग-वर्ग तप-वगं तप को जब वर्ग तप से गणित किया जाता है तो उसे (४०६६ x ४०६६=१६७७७२१६ उपवास प्रमाण ) वर्ग-वर्ग तप कहते हैं, ६. प्रकोण तप- श्रेणी आदि की नियत रचना से रहित जो अपनी शक्ति के अनुसार यथाकथञ्चित् अनशन तप किया जाता है उसे प्रकीर्ण तप कहते हैं । इस तरह इत्वं रिक अनशन तप के इन ६ भेदों में प्रथम पाँच भेद नियत क्रमरूपता की अपेक्षा से हैं और अन्तिम छठा भेद क्रमरूपता से रहित है। ऊपर जो श्रेणी तप को चार उपवासप्रमाण मानकर प्रतर तप आदि का स्वरूप बतलाया गया है वह नेमिचन्द्र की वृत्ति के आधार से दृष्टान्त रूप में उपस्थित किया गया है। अतः इसी प्रकार ५-६ उपवास-प्रमाण श्रेणी तप मानकर आगे के तपों का उपवास-प्रमाण समझ लेना चाहिए। ख. मरणकाल अनशन तप (निरवकांक्ष-स्थायी) -यह आयुपर्यन्त के लिए किया जाता है। इसमें भोजन पान की आकांक्षा न रहने से यह निरवकांक्ष व स्थायी कहलाता है। यह तप मृत्यु के अत्यन्त सन्निकट ( अवश्यम्भावी ) होने पर शरीरत्याग ( सल्लेखना ) के लिए किया जाता है। ग्रन्थ में निम्नोक्त तीन अपेक्षाओं से इसके भेदों का विचार किया गया है : १. शरीर की चेष्टा एवं निश्चेष्टता की अपेक्षा से 'सविचार' ( जिसमें शरीर की हलन-चलनरूप क्रिया होती रहती है ) और 'अविचार' ( शरीर की चेष्टा से रहित ) ये दो भेद हैं। १. उ० ने० वृ०, पृ० ३३७; से० बु० ई०, भाग-४५, पृ० १७५. For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन २. सेवा कराने एवं न कराने की अपेक्षा से ' सपरिकर्म' ( जिसमें दूसरों के द्वारा सेवा होती रहती है) और 'अपरिकर्म' ( सेवादि से रहित ) ये दो भेद हैं । ३. तप करने के स्थान की अपेक्षा से 'नीहारी' ( पर्वत, गुफा आदि में लिया गया मरणकालिक अनशन तप ) और 'अनोहारी ' ( ग्राम, नगर आदि में लिया गया। ये दो भेद हैं । आहार-त्याग दोनों तपों में आवश्यक है । २. ऊनोदरी ( अवमोदयं ) तप: भूख से कम खाना ऊनोदरी तप है । ग्रन्थ में इसका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यवचरक की दृष्टि से विचार किया गया है। अतः इसके द्रव्य ऊनोदरी आदि पाँच भेद होते हैं । इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं : १ क. द्रव्य ऊनोदरी - जिसका जो स्वाभाविक आहार है उसमें कम से कम एक ग्रास कम करना द्रव्य ऊनोदरी है । ख. क्षेत्र ऊनोदरी - इसका दो प्रकार से वर्णन किया गया है : १. ग्राम, नगर, राजधानी, गृह आदि के क्षेत्र की सीमा निश्चित कर लेना कि अमुक-अमुक क्षेत्र से प्राप्त भिक्षान्न द्वारा ही पेट भरूँगा, २. अमुक प्रकार के क्षेत्र - विशेष से प्राप्त भिक्षान्न द्वारा ही जीवन-यापन करूँगा । इसमें द्वितीय प्रकार के क्षेत्र ऊनोदरी तप के ग्रन्थ में दृष्टान्तरूप से ६ प्रकार गिनाए गए हैं । जैसे : १. पेटा ( पेटिका की तरह आकारवाले घरों से आहार लेना ), २. अर्धपेटा ( अर्धपेटिका की तरह आकारवाले घरों से आहार लेना ), ३. गोमूत्रिका ( गोमूत्र की तरह वक्राकार भिक्षार्थ जाकर आहार लेना ), ४. पतंगवीथिका ( बीच-बीच में कुछ घर छोड़कर भिक्षा लेना ), ५. शम्बूकावर्त ( शंख की तरह चक्राकार जाकर आहार लेना ) और ६. आयतं गत्वा प्रत्यागता ( पहले १. ओमोयरणं पंचहा समासेण वियाहियं । दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य ।। - उ० ३०.१४. तथा देखिए - उ० ३०.१५-२४. For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३५ बिना आहार लिए सीधे लम्बी दूर तक चले जाना फिर लौटते समय भिक्षा लेना )। ये सब भेद क्षेत्र-सम्बन्धी नियमों के आधार से बतलाए गए हैं। क्षेत्र-भेद की अपेक्षा से इनके कई अन्य भेद हो सकते हैं। इन सबका तात्पर्य इतना ही है कि आहार-प्राप्ति के क्षेत्र को सीमित (न्यून) कर लेना ताकि कम आहार मिले। क्षेत्र की न्यूनता होने पर भी कभी-कभी संभव है कि भरपेट भोजन मिल जाए अतः क्षेत्र की न्यूनता इतनी अवश्य रहनी चाहिए ताकि भरपेट भोजन न मिले । ग. काल ऊनोदरी-सामान्यरूप से दिन में १२ से ३ बजे के बीच ( ततीय पौरुषी ) भिक्षार्थ जाने का विधान है। भिक्षा ग्रहण करने के इस निश्चित समय के प्रमाण को कुछ कम करना काल ऊनोदरी है अर्थात ऐसा नियम लेना कि तृतीय पौरुषी के चतुर्थांश बीत जाने पर भिक्षा लूंगा या अन्य प्रकार से समय निश्चित करना जो सामान्यतया निश्चित समय के प्रमाण से कुछ कम अवश्य हो। भिक्षा ग्रहण करने के समय की न्यूनता होने पर भोजन की प्राप्ति में कमी होना संभव है। अतः इसे काल ऊनोदरी कहा जाता है। घ. भाव ऊनोदरी-भावप्रधान होने से इसे भाव ऊनोदरी कहा जाता है। इसमें भिक्षार्थ जाते समय ऐसा नियम किया जाता है कि स्त्री के या पुरुष के, अलंकृत के या अनलंकृत के, युवा के या बालक के, सौम्याकृतिवाले के या अन्य किसी विशेष प्रकार की भाव-भङ्गिमावाले दाता के मिलने पर ही भिक्षा लँगा, अन्यथा नहीं लूंगा। इस प्रकार का नियम ले लेनेवाले साध को सब जगह से भिक्षा उपलब्ध न होने से सम्भव है उसे भरपेट भोजन न मिले । अतः इसे भाव ऊनोदरी कहा जाता है। ङ. पर्यवचरक ऊनोदरी- उपर्यक्त चारों प्रकार से न्यून वत्ति का होना पर्यवचरक ऊनोदरी है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों प्रकार से ऊनोदरी व्रत का पालन करना पर्यवचरक ऊनोदरी है। For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ३, भिक्षाचर्या तप: भिक्षा द्वारा प्राप्त भोजन-पान से जीवन-यापन करना। ग्रन्थ में भिक्षाचर्या को विभिन्न स्थानों पर गोचरी ( गाय की तरह आचरण ), मृगचर्या ( मृग की तरह आचरण ) और कपोतवृत्ति (कबूतर की तरह आचरण ) भी कहा गया है। इससे भिक्षाचर्या के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है । जैसे : १. गोचरी-जिस प्रकार गाय तृणादि का थोड़ा-थोड़ा भक्षण करती हुई उसे जड़ से नहीं उखाड़ती है उसी प्रकार भिक्षाचर्यावाला साधु आहार की गवेषणा करते समय गृहस्थ को पुन: आहार बनाने के लिए मजबूर न करते हुए थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है.' २. मृगचर्या-जिस प्रकार मृग नाना स्थानों में भ्रमण करके अपने उदर का पोषण करता है तथा रोगादि के हो जाने पर भी औषधि आदि का सेवन न करते हए अकेला ही सर्वत्र विचरण करता रहता है उसी प्रकार भिक्षाचर्यावाला साध किसी एक गहविशेष से सम्बद्ध न होकर अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लाकर उदरपोषण करता है तथा रोगादि के हो जाने पर भी औषधोपचार की इच्छा न करते हुए एकाकी विचरण करता है और ३. कपोतवत्ति-जैसे कबूतर काँटों को छोड़कर परिमित अन्न-कणों को चुग लेता है उसी प्रकार एषणा समिति-सम्बन्धी दोषों को बचाकर साधु परिमित एवं शुद्ध ( एषणीय ) आहार ग्रहण करता है । ___इस तरह भिक्षा के द्वारा ही जीवन-यापन करने के कारण साध को 'भिक्ष' शब्द से भी कहा जाता है। इस भिक्षाचर्या तप के १. जहा मिए एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोअरे य । एवं मुणी गोयरियं पविढे नो हीलए नोवि य खिसएज्जा ।। -उ० १६.८४, २. वही; उ० १६.७७-८६. ३. कावोया जा इमा वित्ती । -उ० १६.३४. For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३७ प्रसङ्ग में ग्रन्थ में आठ प्रकार की गोचरी,१ सात प्रकार की एषणा२ तथा अन्य नियमविशेषों ( अभिग्रह ) के पालन १. आठ प्रकार की गोचरी-क्षेत्र ऊनोदरी के प्रसङ्ग में कहे गए पेटा, अर्धपेटा आदि ६ प्रकार ही यहां पर आठ प्रकार की गोचरी के रूप में वणित हैं। जैसे : पेटा, अर्घपेटा, गोमूत्रिका और पतंगवीथिका ये चार प्रकार ज्यों के त्यों हैं। इसके अतिरिक्त 'शम्बूकावर्त' के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो भेद हैं तथा 'आयतं गत्वा प्रत्यागता' के भी ऋजुगति (सीधे जाकर सीधे लौटना) और वक्रगति (वक्रगति से जाकर वक्राकार लौटना) के भेद से दो भेद हैं । इस तरह भिक्षा के लिए जाते समय क्षेत्रसम्बन्धी नियमविशेष लेना ही आठ प्रकार की गोचरी है। २. सात प्रकार की एषणाएँ ( अन्नादि ग्रहण करने के नियम ) १. संसृष्टा (भोजन की सामग्री से भरे हुए पात्र के होने पर भिक्षा लेना), २. असंसृष्टा (भोजन की सामग्री से भरे हुए पात्र के न होने पर भिक्षा लेना), ३. उद्धृता ( जो भोजन रसोईघर से बाहरं लाकर गृहस्थ ने थाली आदि में अपने निमित्त रखा हो, उसे लेना), ४. अल्पलेपिका (निर्लेप भुंजे हुए चना आदि लेना), ५. उदग्रहीता (भोजन के समय भोजन करनेवाले व्यक्ति को परोसने के लिए जो भोजन चम्मच आदि से निकालकर बाहर रख दिया हो, उसे लेना), ६. प्रगृहीता ( भोजनार्थी को देने के लिए उद्यत दाता के हाथ में स्थित सामग्री को लेना) और ७. उज्झितधर्मा (निस्सार रूखा आहार लेना)। ३. अन्य अभिग्रह ( नियमविशेष )-अपनी इच्छानुसार कोई नियम ले लेना कि अमुक-अमुक स्थिति के होने पर ही आहार लूंगा। जैसे : १. द्रव्याभिग्रह ( किसी विशेष पात्र में रखे हुए किसी विशेष प्रकार के आहार के लेने की प्रतिज्ञा), २. क्षेत्राभिग्रह (यदि दाता देहली को अपनी जंघाओं के बीच में करके आहार देगा तो लूंगा, ऐसी क्षेत्र-सम्बन्धी प्रतिज्ञा), ३. कालाभिग्रह ( जब सब साधु भिक्षा ले आएँगे तब भिक्षार्थ जाने पर जो मिलेगा उसे लूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा) और ४. भावाभिग्रह ( यदि कोई हंसते हुए या रोते हुए देगा तो लूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा)। इसी तरह अन्य विविध नियमों को लिया जा सकता है । For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन करने को भिक्षाचर्या कहा गया है।' टीकाग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि ये गोचरी और एषणाएँ आदि कुछ नियमविशेष हैं जिन का संकल्प करके साध भिक्षा के लिए जाता है। यदि उन लिए गए संकल्पों के अनुकूल भिक्षा मिलती है तो साधु उसे ग्रहण कर लेता है और यदि उन संकल्पों के अनुकूल भिक्षा नहीं मिलती है तो वह अनशन तप करता है । इस तरह भिक्षाचर्या और ऊनोदरी तप में बहुत स्थलों पर समानता दिखलाई पड़ती है क्योंकि नियमविशेष लेने से भोजन का कम मिलना स्वाभाविक है। ऐसा होने पर भी भिक्षाचर्या सामान्य तप है और ऊनोदरी विशेष । ऊनोदरी में भख से कम खाने की प्रधानता है जबकि भिक्षाचर्या में भिक्षा लेने सम्बन्धी नियमविशेष की। अतः भिक्षाचर्या में साधु भरपेट भोजन कर सकता है। इस में जो नियमविशेष हैं वे अपनी इन्द्रियों की स्वच्छन्द प्रवत्ति को रोकने के लिए हैं। भिक्षाचर्या साधु का सामान्य तप है जिसका वह प्रतिदिन पालन करता है और ऊनोदरी विशेष तप है, जिसका वह कभी-कभी पालन करता है। अतः ग्रन्थ में साधु के जीवन को भिक्षाचर्या के रूप में प्रदर्शित किया गया है। भृगु पुरोहित की पत्नी भिक्षाचर्या की कठोरता का वर्णन करते हुए कहती है कि धैर्यशील एवं तपस्वी ही इस ( भिक्षाचर्या ) को धारण कर सकते हैं। इसी प्रकार भद्रा ( सोमदेव की स्त्री) राजकुमारी भिक्षार्थ आए हुए हरिके शिबल मुनि के ऊपर क्रोधित होनेवाले ब्राह्मणों से कहती है कि भोजनार्थ उपस्थित हुए साधु का तिरस्कार करना या मारना उसी प्रकार उपहासास्पद है जिस प्रकार नखों से पर्वत को खोदना, दांतों से लोहे को चबाना, आग को पैरों से १. अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ॥ -उ० ३०.२५. २. वही, टीकाएँ। ३. धीरा हु भिक्खारियं चरति । -उ० १४.३५. For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३३९ कुचलना तथा पतंगसेना द्वारा आग में कूदकर आग को बुझाना । ' ४. रस- परित्याग तप : दूध, दही, घी आदि सरस पदार्थों के सेवन का त्याग करना रसपरित्याग तप है | सामान्यतया साधु के लिए नीरस आहार करने का ही विधान है और यदि उसे सरस आहार मिल जाता है तो वह उसे भी ले सकता है । परन्तु रस- परित्याग तप को करने - वाला साधु रसना इन्द्रिय को मधुर लगनेवाले दूध, दही, घी आदि तथा उनसे बने सरस भोजनादि को मिलने पर भी नहीं खा सकता है । इस तरह इस तप के करने से साधु की इन्द्रियाग्नि उद्दीपित नहीं होती है और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने में सहायता मिलती है | साधु के लिए आहार संयम का पालन करने के लिए है, शरीर की पुष्टि एवं रसास्वाद के लिए नहीं । अतः इस तप को करना भी आवश्यक हो जाता है । ५. कायक्लेश तप : सुखावह वीरासन आदि ( पद्मासन, उत्कटासन आदि ) में शरीर को स्थित करना कायक्लेश तप है । 3 कायक्लेश तप के इस लक्षण में 'जीव को सुख की ओर ले जानेवाला ' ( सुखावह) ऐसा विशेषण देने से उन सभी कुत्सित तपों का १. गिरि नहिं खणह अयं दंतेहि खायह । जायतेयं पाएहि हणह जे भिक्खु अवमन्नह || - उ० १२.२६. तथा देखिए - उ० १२.२७. २. खीर दहिसप्पमाई पाणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ॥ -उ० ३०.२६. ३. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा । उगा जहा धरिति कायकिलेसं तमाहियं ॥ - उ० ३०.२७. For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन खण्डन हो जाता है जो ऐहिक विषयाभिलाषा या क्रोधादि के कारण किए जाते हैं। साध को जो केशलौंच करना पड़ता है वह भी . एक प्रकार का कायक्लेश तप ही है।' केशलौंन साधु के लिए आवश्यक भी बतलाया गया है क्योंकि केशों के रखने से उनमें जं आदि जीवों की उत्पत्ति संभव है। अतः एक निश्चित समय के भीतर इन्हें उखाड़ना पड़ता है। दिगम्बर-परम्परा में साधु के २८ मूलगुणों (प्रधान गुणों) में केशलौंच भी एक मूलगुण (प्रधान गुण) .. माना जाता है।२ केशों को उखाड़ना बड़ा कठिन भी है। इस तरह वीरासन आदि में स्थिर होने से शरीर को बड़ा कष्ट होता है। अतः इसे कायक्लेश तप कहा गया है। सामान्य भाषा में इसे ही तप कहा जाता है। इससे शरीर में निश्चलता एवं अप्रमत्तता आती है। ६. प्रतिसंलीनता (संलीनता या विविक्तशयनासन) तप : : . स्त्री-पशु आदि की संकीर्णता से रहित एकान्तस्थान (गुफा, शून्यागार आदि) में निवास (शयन और आसन) करना विविक्तशयनासन तप है अर्थात् अरण्यादि एकान्तस्थान (विविक्तस्थान) में निवास करना। साधु को सामान्यतौर से एकान्तस्थान में ही रहने का विधान है। यहां पर उसे ही तप के रूप में वर्णित किया गया है। इस विविक्तशयनासन को ही संलीनता या प्रतिसंलीनता तप के नाम से कहा गया है। यद्यपि ग्रन्थ में १. स्थानानि वीरासनादीनी, लोचाधुपलक्षणं चैतत् । - वही, ने० वृ०, पृ० ३४१. २. वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेल मण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च । एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता ।। -प्रवचनसार, ३.८-६. ३. केसलोओ अंदारुणो। -उ० १६.३४. ४ एगंतमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए । सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं ।।। -उ०३०.२८. For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३४१ बाह्य तप के भेदों को गिनाते समय इस तप का नाम संलीनता दिया गया है परन्तु इसका लक्षण करते समय इसे विविक्तशयनासन शब्द से कहा गया है। वास्तव में विविक्तशयनासन संलीनता का एक भेदविशेष है।' इसका फल बतलाते हुए ग्रन्थ में लिखा है कि विविक्तशयनासन से जीव चारित्र की गुप्ति को करता है और फिर एषणीय आहारवान्, दढ़चारित्रवान्, एकान्तप्रिय और मोक्षाभिमुख होकर आठों प्रकार के कर्मबन्धनों को तोड़ देता है। उपर्युक्त बाह्य तप के भेदों में प्रथम चार तप आहार से सम्बन्धित हैं तथा अन्तिम दो तप क्रमशः कठोर शारीरिक आसन विशेष एवं एकान्तवास से सम्बन्धित हैं। यदि साध की अपेक्षा से इन बाह्य तपों के क्रमिक विकास पर विचार किया जाए तो इनका क्रम इस प्रकार उचित होगा: १ भिक्षाचर्या, २. ऊनोदरी, ३. रसपरित्याग, ४. अनशन, ५. संलीनता एवं ६ कायक्लेश । प्रत्येक साध भिक्षाचर्या का सामान्यरूप से पालन करता ही है। अतः क्रमिक-विकास की दृष्टि से इसका प्रथम स्थान होना चाहिए । इसके बाद कम खानेरूप ऊनोदरी, फिर सरस पदार्थों के त्यागरूप रस-परित्याग और फिर सब प्रकार के आहार-पान के त्यागरूप अनशन तप करने का अभ्यास संभव है। कायक्लेश तप में एकान्तस्थान का सेवन आ ही जाता है तथा साधु के लिए हमेशा एकान्तसेवन आवश्यक भी है, जबकि कायक्लेश तप उतना आवश्यक नहीं है । अत: प्रतिसंलीनता के बाद कायक्लेश तप का अभ्यास संभव है। अपेक्षा-भेद होने पर इस क्रम में अंतर भी आ सकता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी यद्यपि उपर्युक्त क्रम नहीं है फिर भी वहां पर कायक्लेश के पूर्व संलीनता ( विविक्तशयनासन ) को गिनाया गया है । १. वही, टीकाएँ। २. उ० २६.३१. ३. अनशनावौदर्यवृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा ___ बाह्य तपः। - त० सू० ६.१६. For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-४२ ] आभ्यन्तर तप : अन्तः शुद्धि से विशेष सम्बन्ध रखने के कारण प्रायश्चित्त आदि तप आभ्यन्तर तप कहलाते हैं । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इनका बाह्य शारीरिक क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है अपितु बाह्य और आभ्यन्तररूप तयों का विभाजन प्रधानता और अप्रधानता की दृष्टि से किया गया है | आभ्यन्तर छः तपों के स्वरूपादि इस प्रकार १. प्रायश्चित्त तप : आचार में दोष लग जाने पर उस दोष की शुद्धि के लिए किया गया दण्डरूप पश्चात्ताप प्रायश्चित्त तप है । यह ग्रन्थ में १० प्रकार का बतलाया गया है परन्तु वहां पर उनके नाम नहीं गिनाए हैं ।" टीकाओं में उनके नामादि इस प्रकार गिनाए गए हैं : उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन क. आलोचना - दोष को गुरु के समक्ष स्पष्ट कह देने मात्र से जिस दोष की शुद्धि हो जाती है उसे 'आलोचनार्ह' दोष कहते हैं तथा उस दोष को बिना छुपाए गुरु के समक्ष स्पष्ट शब्दों में कहना आलोचना प्रायश्चित्त है । आलोचना से जीव अनन्त-संसार को बढ़ानेवाले तथा मुक्ति में विघ्नरूप माया, निदान ( पुण्यकर्म की फलाभिलाषा) और मिथ्यादर्शनरूप शल्यों को दूर करके सरलता को प्राप्त करता है, फिर स्त्री वेद और नपुंसक वेद (मोहनीय नोकषाय कर्म ) का बन्ध न करके पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है । गर्हा (आत्मगर्हा) भी आलोचनारूप ही है । इससे जीव आत्मानम्रता ( अपुरस्कार) को प्राप्त करता है, फिर अप्रशस्तयोग (मन, वचन व काय की अशुभ प्रवृत्ति) से विरक्त होकर १. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं । भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं ॥ २. उ० २६.५. - उ० ३०.३१. For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३४३ प्रशस्त-योग को प्राप्त करता है। इसके बाद प्रशस्त-योगवाला साध अनन्तघाती कर्म-पर्यायों को नष्ट कर देता है।' ख. प्रतिक्रमण – 'प्रमाद से जो दोष हुआ हो वह मिथ्या हो' (मिच्छा मि दुक्कडं) इस तरह की मानसिक प्रतिक्रिया प्रकट करना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त तप है। साधु इस प्रायश्चित्त को प्रतिदिन करता है। अतः इसे छः आवश्यकों में गिनाया गया है। ___ ग. तदुभय- आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों प्रकार के प्रायश्चित्तों के करने से जिस दोष की शुद्धि हो उसे 'तदुभयाह' दोष कहते हैं तथा इस दोष की शूद्धि करना तदुभय प्रायश्चित्त है। घ. विवेक-यदि अज्ञान से सदोष आहारादि लिया हो तो बाद में ज्ञान हो जाने पर उसका त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित्त है। ___ ङ. व्युत्सर्ग-शरीर के सभी प्रकार के हलन-चलनरूप व्यापारों को त्यागकर एकाग्रतापूर्वक स्थिर होना अर्थात् 'कायोत्सर्ग' करना व्यूत्सर्ग प्रायश्चित्त है। यह कायोत्सर्गरूप व्यूत्सर्ग छः आवश्यकों में भी गिनाया गया है तथा आभ्यन्तर तप के छः भेदों में एक स्वतन्त्र तप भी है। च. तप - जिस दोष की शुद्धि अनशन आदि तप के करने से हो उसे 'तपार्ह' दोष कहते हैं तथा उसकी शुद्धि के लिए अनशन आदि तप करना तप प्रायश्चित्त है। छ. छेद साधु की दीक्षा के समय को घटा (छेद) देना छेद प्रायश्चित्त है। इससे उस साधु को जिसको दीक्षा का समय घटा दिया जाता है उन साधुओं को भी नमस्कार आदि करना पड़ता है जिनकी दीक्षा की अवधि उससे ज्यादा होती है, भले ही वे उसे छेद प्रायश्चित्त के पूर्व नमस्कार आदि क्यों न करते रहे हों। १. उ० २६ ७. २. मानलो किसी साधु को दीक्षा लिए चार वर्ष पूरे हो गए हैं। किसी अपराध के कारण एक दिन गुरु उसकी दीक्षा के समय को एक वर्ष छेद देते हैं। इसके परिणामस्वरूप अब उसे उन सभी साधुओं की वैयावृत्य आदि करनी पड़ती है जिनकी दीक्षा का समय तीन वर्ष से कुछ अधिक है। For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ___ज. मूल-जिस दोष के प्रायश्चित्त में सम्पूर्ण (मूलसहित) दीक्षा के समय को छेद दिया जाए उसे मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके फलस्वरूप उसे पुनः दीक्षा लेनी पड़ती है। तत्त्वार्थसूत्र में इसे उपस्थापना प्रायश्चित्त तप कहा है।' ___ झ. अनवस्थापना-जिस दोष के प्रायश्चित्तस्वरूप साधु सम्पूर्ण दीक्षा के छेद दिए जाने से पन: दीक्षा लेने के योग्य तब तक न हो जब तक कि उस दोष के प्रायश्चित्तस्वरूप गुरु के द्वारा बतलाया गया अनशन आदि तप न कर लिया जाए। अ. पाराञ्चिक -- सबसे बड़े अपराध के लिए किया जानेवाला सर्वाधिक कठोर प्रायश्चित्त विशेष । ___ उपर्युक्त १० प्रकार के प्रायश्चित्तों में यदि प्रतिक्रमण के बाद आलोचना प्रायश्चित्त को रखा जाए तो ये प्रायश्चित्त क्रमशः उत्तरोत्तर गुरुतर अपराध (दोष) की शुद्धि में निमित्त बनेंगे। प्रतिक्रमण सामान्य दोष के लिए किया जाता है तथा आलोचना उससे गुरुतर अपराध के लिए की जाती है। इसीलिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त में गुरु के समीप दोषों को कहे बिना ही स्वतः पश्चात्तापरूप मानसिक-प्रतिक्रिया प्रकट की जाती है, जबकि आलोचना में गुरु के समक्ष दोषों को कहना पड़ता है। जीतकल्प सूत्र में इनका विस्तृत वर्णन मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में इस तप के ह भेद गिनाए हैं जिनमें अनवस्थापन और पाराञ्चिक ये दो भेद नहीं हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ 'परिहार' (कुछ समय के लिए संघ से निकाल देना) नामक एक अन्य प्रायश्चित्त गिनाया गया है। २. विनय तप : गुरु के प्रति नम्रता का व्यवहार करना विनय तप है। यह विनम्रता पाँच प्रकार से प्रशित की जा सकती हैः १. अभ्युत्थान १. आलोचनाप्रतिक्रमगतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः । -त० सू० ६.२२. २. वही For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३४५ (गुरु के आने पर खड़े होना ), २. अञ्जलिकरण ( हाथ जोड़कर नमस्कार करना), ३. आसनदान (उच्चासन देना), ४. गुरुभक्ति (गुरु के प्रति अनुराग ) और ५. भावशुश्रूषा (गुरु की अन्तःकरण से सेवा करना )। ये ही विनय तप के पाँच प्रकार हैं।' धर्मवृद्धि एवं ज्ञानप्राप्ति के लिए गुरु के प्रति की गई विनय ही यहां पर विनय तप है। धनप्राप्ति आदि के लिए की गई विनय यहां पर अभिप्रेत नहीं है । साध के लिए यह तप आवश्यक है। अतः छः आवश्यकों में 'वन्दन' नाम का एक आवश्यक भी माना गया है। इसका विशेष विचार विनीत शिष्य के प्रसंग में किया जा चुका है। ३. वैयावृत्य तप : आहार-पान आदि के द्वारा (ग्लानि के बिना) गुरुजनों की यथाशक्ति सेवा-शुश्रूषा करना वैयावत्य तप है। गुरुजनों की सेवा करना साधु का प्रतिदिन का सामान्य कार्य है जैसाकि साध की दिनचर्या में बतलाया गया है। यद्यपि विनय तप के भाव-शुश्रूषा नामक पाँचवें भेद के अन्तर्गत ही यह तप आ जाता है परन्तु यहां पर जो इसका स्वतन्त्र तप के रूप में कथन किया गया है वह इस पर विशेष जोर देने के लिए है। दीक्षागुरु आदि सेवायोग्य पात्रों ( व्यक्तियों ) २ की अपेक्षा से इस तप के १० भेद गिनाए १. अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ ॥ __ -उ० ३०.३२. २. सेवायोग्य १० पात्र इस प्रकार हैं : १. दीक्षागूरु ( आचार्य ), २. ज्ञान देनेवाला अध्यापक ( उपाध्याय ), ३. ज्ञानवयोवृद्ध साधु ( स्थविर ), ४. उग्र तप करनेवाला ( तपस्वी ), ५. रोगादि से पीड़ित साधु ( ग्लान ), ६, नवदीक्षित साधु (शैक्ष), ७. सहधर्मी ( साधार्मिक ), ८. एक ही दीक्षागुरु का शिष्य-समुदाय (कुल), ६. अनेक दीक्षा गुरुओं के शिष्यों का समुदाय ( गण ) और १०. साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका का समुदाय ( संघ ) । For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन गए हैं।' ग्रन्थ में इस तप का फल बतलाते हए लिखा है कि इससे आशातना रहित ( उच्छृखलता से रहित ) विनय की प्राप्ति होती है। इसके बाद वह चारों गतियों के कर्मबन्ध को रोककर तीर्थङ्कर (जिसके प्रभाव से जीव धर्मप्रवर्तन करके सिद्ध हो जाता है) नामक गोत्र कर्म का बन्ध करता है। इसके अतिरिक्त सब प्रकार के विनयमूलक प्रशस्त-कार्यों को करता हआ अन्य जीवों को भी विनयधर्म में प्रवृत्त कराता है। इस तरह इस. तप का प्रयोजन विनय तप को समृद्ध करना है। ४. स्वाध्याय तप: ज्ञानप्राप्ति के लिए शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। साध के लिए दिन एवं रात्रि के कुल आठ प्रहरों में से चार प्रहरों में ( अर्थात् १२ घंटे) स्वाध्याय करने का विधान है। इस स्वाध्याय तप के पाँच प्रकार हैं जिनसे युक्त अध्ययन स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय के वे पाँच प्रकार ये हैं : 3 क. वाचना-शास्त्रों (सद्ग्रन्थों) का पढ़ना या पढ़ाना 'वाचना' तप है। वाचना से कर्मों की निर्जरा होती है तथा शास्त्रों की सुरक्षा बनी रहती है। किञ्च, साधक वाचना का अभ्यास करके महापर्यवसान ( मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है। १. आयरियमाईए व्यावच्चम्मि दसविहे । आसेवणं जहाथाम वेयावच्चं तमाहियं ।। -उ० ३०.३३. तथा देखिए-उ० १२.२४; २६.६-१०, ३३. २ वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोतं कम्मं निबंधइ । -उ० २६ ४. तथा देखिए-उ० २६.४ ३. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे ।। -उ० ३०.३४. तथा देखिए-उ० २४.८. ४. उ० २६.१६. For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकर ५ : विशेष साध्वाचार [ ३४७ ख. पृच्छना या प्रतिपृच्छना-विशेष ज्ञानप्राप्ति के लिए तथा सूत्रार्थ में सन्देह उत्पन्न होने पर गुरु से प्रश्न पूछना 'पृच्छना' है। इससे जीव सूत्र और अर्थ ( शब्दार्थ ) का स्पष्ट व सम्यक ज्ञान प्राप्त कर लेता है तथा सन्देह एवं मोह को उत्पन्न करनेवाले कर्म (कांक्षा मोहनीय) को नष्ट कर देता है।' __ग परिवर्तना-ज्ञान को स्थिर बनाए रखने के लिए पढ़े हुए विषय को पूनः-पुनः दुहराना ( पुनरावर्त करना ) परिवर्तना है। इससे जीव को एक अक्षर की स्मृति से तदनुकूल अन्य सैकड़ों अक्षरों की स्मृति ( व्यञ्जनलब्धि ) हो जाती है तथा वे स्मृतिपटल पर स्थिर हो जाते हैं। घ अनुप्रेक्षा-सूत्रार्थ का चिन्तन एवं मनन करना अनुप्रेक्षा है। इससे जीव आयू.कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मो के गाढ-बन्धनों को शिथिल कर देता है, दीर्घकाल की स्थितिवाले कर्मों को ह्रस्वकाल की स्थितिवाला कर देता है, तीव्र फलदायिनी शक्ति को अल्प फलदायिनी शक्तिवाला कर देता है, बहुप्रदेशी को अल्पप्रदेशी कर देता है । आयु कर्म का पुनः बन्ध हो या न हो परन्तु दुःख को देनेवाले ( असाता वेदनीय ) कर्मों का वह बार-बार बन्ध नहीं करता है तथा अनादि-अनन्त, दीर्घमार्गी व चतुर्गतिरूप संसारकान्तार को शीघ्र ही पार कर जाता है।' ङ. धर्मकथा-प्राप्त किए हुए ज्ञान को धर्मोपदेश द्वारा व्यक्त करना ( धर्मोपदेश देना ) धर्मकथा है । इससे जीव कर्मों की निर्जरा करके धर्मसिद्धान्त की उन्नति (प्रवचन-प्रभावना ) करता है। तदनन्तर भविष्यतकाल में सुखकर शुभ-कर्मों का ही बन्ध . . करता है। .. इस तरह इन पाँचों अंगों के साथ स्वाध्याय तप करने से जीव ज्ञान को आवृत्त करनेवाले ज्ञानावरणीय कर्म को नष्ट कर १. उ० २६.२०. २. उ० २६.२१. ३. उ० २६.२२. ४. उ० २६.२३. For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૬ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन देता है, फिर सब प्रकार के पदार्थों का ज्ञाता होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है | अतः ग्रन्थ में इसे सब प्रकार के पदार्थों ( भावों ) को प्रकाशित करनेवाला तथा सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा दिलानेवाला कहा है । " ५. ध्यान तप : चित्त को एकाग्र करना ध्यान है । आलम्बन - विषय की दृष्टि से इसके चार भेद किए गए हैं। इसमें आदि के दो ध्यानों में. अशुभालम्बन होता है तथा अन्त के दो ध्यानों में शुभालम्बन होता है | अतः आदि के दो ध्यान अप्रशस्त एवं अनुपादेय हैं तथा अन्त के दो ध्यान प्रशस्त तथा उपादेय हैं । शुभालम्बनवाले प्रशस्त ध्यान ही यहाँ पर ध्यान तप के रूप में गृहीत हैं । 3 ध्यान के ये चार प्रकार निम्नोक्त हैं : क. आर्तध्यान - इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग आदि सांसारिक दु:खों ( आर्त ) से उत्पन्न विकलतारूप सतत चिन्तन आर्तध्यान है । ख. रौद्रध्यान - हिंसादि में प्रवृत्ति करानेवाले क्रूर ( रौद्र ) विचारों का सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है । ग. धर्मध्यान- किसी एक धार्मिक विषय पर चित्त को एकाग्र करना धर्मध्यान है । तत्त्वार्थ सूत्र में विषय की दृष्टि से इसके चार १. सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्म खंवेइ || - उ० २६.१८.. सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खविमोक्खणे । - उ० २६.१०. तथा देखिए - उ० २६.२१; २६.२४. २. जीवस्स एगग्ग - जोगाभिणिवेसो झाणं । - उद्धृत, श्रमणसूत्र, पृ० १३६. ३. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काई झाणाई झाणं तं तु बुहा वए || - उ० ३०.३५.. तथा देखिए - उ० ३१.६; २६.१२; ३४.३१. For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३४६ भेद गिनाए हैं ।' एकाग्रचित्त से स्वाध्याय करना भी धर्मध्यान है | अतः ग्रन्थ में स्वाध्याय से संयुक्त गर्दभालि मुनि को धर्मध्यान करनेवाला कहा गया है । घ. शुक्लध्यान - शुद्ध आत्म-तत्त्व में चित्त को स्थिर करना शुक्लध्यान है । शोक ( शुच) को दूर (क्लामना) करनेवाला ध्यान शुक्लध्यान है । 3 तत्त्वार्थ सूत्र में इसके उत्तरोत्तर विकासक्रम के आधार पर चार भेद किए गए हैं । वे चार भेद इस प्रकार हैं : १. पृथक्त्ववितर्क सवीचार - श्रुतज्ञान (वितर्क) का आलम्बन लेकर भेदप्रधान ( पृथक्त्व) चिन्तन करना 'पृथक्त्ववितर्क' कहलाता है | इसमें भेदप्रधान चिन्तन की अविच्छिन्न धारा के रहने पर भी विचारों का संक्रमण ( परिवर्तन ) होता रहता है । अत: इसे पृथक्त्ववितर्क सवीचार ध्यान कहते हैं । २. एकत्ववितर्क निर्वोचारश्रुतज्ञान ( वितर्क) का आलम्बन लेकर अभेद ( एकत्व या अपृथक्त्व ) प्रधान चिन्तन 'एकत्ववितर्क' कहलाता है । इसमें विचारों का संक्रमण नहीं होता है । अत: इसे एकत्ववितर्क निर्वीचार ध्यान कहते हैं । ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - श्वासोच्छ्वास जैसी अत्यन्त सूक्ष्म क्रिया के वर्तमान रहने से तथा अपतनशील ( अप्रतिपाती ) होने से इसे सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ध्यान कहते हैं । इसमें मनोयोग, वचनयोग एवं काययोग का क्रमशः निरोध होता है । इस ध्यान की प्राप्ति केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद आयु के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहने पर होती है । इस ध्यान में श्वासोच्छ्वास को छोड़कर पूर्ण निश्चेष्टावस्था रहती है । ४. समुच्छिन्न क्रियाऽनिवृत्ति - श्वासोच्छ्वास 1 १. आज्ञा पायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । - त० सू० ६.३७. २. सज्झायज्झाणसंजुत्तो धम्मज्झाणं झियाय । ३. शुचं शोकं क्लामयतीति शुक्लं । ( ३०.३५ ) भावविजयटीका । ४. पृथक्त्व करव-वितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत क्रियानिवर्तीनि । ५. उ० २६.७२ - उ० १८.४. - उ० For Personal & Private Use Only - - त० सू० १.३६. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन क्रिया के भी शान्त हो जाने पर जो पूर्ण निश्चल अवस्था की प्राप्ति होती है उसे समुच्छिन्न कियाऽनिवृत्ति ध्यान कहते हैं । इस अवस्था की प्राप्ति के बाद पुन: संसार में आवागमन नहीं होता है । इस अवस्था की स्थिति अ, इ, उ, ऋ एवं लृ इन पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारणप्रमाण मानी है । इसके बाद अवशिष्ट सभी अघातिया कर्मों को नष्ट करके जीव मुक्त हो जाता है ।" यह ध्यान की सर्वोच्च एवं अन्तिम अवस्था है । इन चार प्रकार के शुक्लध्यानों में प्रथम दो ध्यान आलम्बनसहित होने से श्रुतज्ञानधारी ( पूर्वधर ) के होते हैं तथा बाद के दो ध्यान आलम्बनरहित होने से केवलज्ञानी जीवन्मुक्तों के होते हैं । इस तरह इन प्रमुख चार प्रकार के ध्यानों में आर्त और रौद्र ध्यान मुक्ति में साधक न होने से त्याज्य हैं तथा धर्म और शुक्ल ध्यान उपादेय हैं । धर्मध्यान का प्रयोजन शुक्लध्यान की अवस्था को प्राप्त कराना है । ग्रन्थ में साधु की दिन एवं रात्रिचर्या के आठ प्रहरों में से दो प्रहर धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों को दृष्टि में रखकर ही निश्चित किए गए हैं। एकाग्रमनः सन्निवेश ( मन को एकाग्र करना ), मनः समाधारण, मनोगुप्ति आदि सभी इसी ध्यान की प्राप्ति के प्रति कारण हैं । " ६. कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग तप : शयन करने, बैठने और खड़े रहने के समय शरीर को इधर-उधर न हिलाकर स्थिर रखना कायोत्सर्ग तप है | 3 साधु सामान्यतौर से व्युत्सृष्टकाय ( शरीर से ममत्वरहित ) होकर ही विहार करते हैं । छः आवश्यकों में कायोत्सर्ग एक आवश्यक ( नित्यकर्म ) भी है । प्रायश्चित्त तप के भेदों में भी कायोत्सर्ग १. उ० २६.७१, ४१. २. देखिए -- प्रकरण ४, मनोगुप्ति । ३. सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे | atra विग्गो छट्टो सो परिवित्तिओ ॥ ४. उ० ३५.१५, - उ० ३०.३६. For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५१ को गिनाया गया है। यहां पर इसका पृथक् कथन विशेष जोर देने के लिए किया गया है। इस तरह इन सभी आभ्यन्तर तप के भेदों में ऐसा कोई भी तप नहीं है जिसे साधु किसी न किसी रूप में प्रतिदिन न करता हो । इन आभ्यन्तर तपों की क्रमरूपता का यदि विचार किया जाए तो विनय तप के पहले वैयावत्य तप तथा ध्यान के पहले व्युत्सर्ग तप आना चाहिए। वैयावत्य तप से विनय की प्राप्ति होती है तथा विनय तप में वैयावत्य तप आ ही जाता है। इसी प्रकार ध्यान तप में कायोत्सर्ग हो ही जाता है क्योंकि बिना कायोत्सर्ग के ध्यान संभव ही नहीं है। इसके अतिरिक्त कायोत्सर्ग निषेधात्मक है जबकि ध्यान विधानात्मक है। विनय, वैयावृत्य और स्वाध्यायं विशेषकर ज्ञान की प्राप्ति से सम्बन्धित हैं। प्रायश्चित्त आचारगत दोषों की शुद्धि से तथा कायोत्सर्ग और ध्यान तप मन, वचन व काय की प्रवृत्ति की स्थिरता से सम्बन्धित हैं। ___ इस तरह इन बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तपों का वर्णन किया गया। योगदर्शन तथा बौद्धदर्शन में भी इन तपों ( विशेषकर ध्यान ) का समाधि के रूप में वर्णन मिलता है।' प्रकृत ग्रन्थ में तप का मुख्य प्रयोजन ( फल ) पूर्वसंचित सैकड़ों भवों में भोगे जानेवाले कर्मों को आत्मा से पृथक (निर्जीणं) करना है। इसके अतिरिक्त तप साधु जीवन की एक सम्पत्ति है।२ तप से ऋद्धि आदि की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त तपस्वी की सेवा करने में देवता भी अपना अहोभाग्य समझते १. विशेष के लिए देखिए-विसुद्धिमग्ग, परिच्छेद ३, ४, ११; पातञ्जल योगदर्शन तथा इसी प्रकरण का अनुशीलन । २. विरत्तकामाण तवोधणाणं । -उ० १३.१७. ३. इड्ढी वावि तवस्सिणो। -उ० २. ४४. तथा देखिए-उ० १२.३७. For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन हैं । ये तप आत्मशक्तियों के विकास एवं विशुद्धि की परख के लिए कसौटीरूप भी हैं । इनसे स्वर्ग या संसार से पूर्ण निवृत्तिरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस तरह इन तपों का कर्मों को बलात् उदय में लाकर निर्जीर्ण करने में तथा संसार से मुक्ति दिलाने में प्रमुख हाथ होने से इनका चारित्र से पृथक् कथन किया गया है । तप की सफलता के लिए आवश्यक है कि शरीर के सूख जाने पर भी तपश्चरण से विचलित न होवे तथा तप के फल की इच्छा भी न करे | 3 परीषह जय साधु को अपनी साधना के पथ में नाना प्रकार के कष्टों को सहन करना पड़ता है क्योंकि उसका सम्पूर्ण जीवन तपोमय है तथा तप की सफलता कष्टों को सहन किए बिना संभव नहीं है । सांसारिक विषयों में आसक्ति होना ही इन कष्टों का कारण है तथा सांसारिक विषयभोगों से निरासक्ति कष्टों पर विजय है । ये कष्ट मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत या देवकृत हो सकते हैं । इन कष्टों से न घबड़ाना ही साधु का कर्त्तव्य है । साधु मुख्यरूप से जिन क्षुधादि कष्टों को सहन करता है उन्हें ग्रन्थ में 'परीषह' शब्द से कहा गया है । परीषह के ही अर्थ में ' उपसर्ग' शब्द का भी प्रयोग मिलता है । इन कष्टों ( उपसर्ग एवं परीषह ) को जीतने १. उ० १२.३६-३७. २. एवं तवं तु दुविह जे सम्मं आयरे मुणी । सोप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चड़ पंडिओ | ३. कालीपव्वंग संका से किसे धमणिसंतए । मायने असणपाणस्स अदीणमणसो चरे ॥ - उ० ३०.३७. - उ० २.३० ४. जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिञ्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा | तथा देखिए - उ० २१.१८,२० - उ० २.१-३ (गद्य). For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५३ को 'हज' कहते हैं और जो इन पर विजय प्राप्त कर लेता है वह संसार में भ्रमण नहीं करता है । " परीषहजय के भेद व स्वरूप : यद्यपि इन परीषहों की संख्या अनन्त हो सकती है परन्तु ग्रन्थ में इन्हें बाईस भागों में विभक्त किया गया है । इनसे पीड़ित होकर धर्मच्युत न होना परीषहजय है । वे बाईस परीषहजय इस प्रकार हैं : २ १. क्षुधा परीषहजय - भूख से व्याकुल होने पर तथा शरीर के अत्यन्त कृश हो जाने पर भी क्षुधा की शान्ति के लिए न तो फलादि को स्वयं तोड़ना, न दूसरे से तुड़वाना, न पकाना और न दूसरे से पकवाना अपितु क्षुधाजन्य कष्ट को सब प्रकार से सहन करना क्षुधा परीषहजय है । 3 २. तृषा परीषहजय - प्यास से मुख के सूख जाने पर तथा निर्जनस्थान के होने पर भी शीतल ( सचित्त ) जल का सेवन न करके अचित्त जल की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना तृषा परीषहजय है।४ ३. शीत परीषहजय - ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यदि शीतजन्य कष्ट होने लगे तो शीतनिवारक स्थान एवं वस्त्रादि के १ दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू सहइ निच्च से न अच्छइ मंडले || Paatar सबले बाबीसाए परीसहे । भिक्खू जयई निच्च से न अच्छइ मंडले || २. इमे खलु ते बावीसं परीसहा सापरीस हे " —उ० ३१.५. -उ० ३१.१५. "तं जहा - दिगिछापरीस हे पिवा - "अन्नाणपरीस हे दंसणपरीसहे । - उ० २.३-४ (गद्य). ३. देखिए - पृ० ३५२, पा० टि० ३; उ० २.२; १६.३२. ४. सीओदगं न सेवेज्जा वियडस्सेसणं चरे । - उ० २.४. तथा देखिए - उ० २.५. For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . न रहने पर भी अग्नि आदि के सेवन का चिन्तन न करते हुए तज्जन्य कष्ट को सहन करना शीत परीषहजय है।' ४. उष्ण परीषहजय-इसे आतप ( धूप ) परीषहजय भी कहा गया है। गर्मी अथवा अग्नि से अत्यन्त परिताप को प्राप्त होने पर भी स्नान करना, मुख को पानी से सींचना, पंखा झलना आदि परिताप-निवारक उपायों के द्वारा शान्ति की अभिलाषा न करना उष्ण परीषहजय है। ५. दंशमशक परीषहजय-दंशमशक आदि ( सांप, बिच्छ, मच्छड़ आदि ) जन्तुओं के द्वारा काटे जाने पर भी संग्राम में आगे रहनेवाले हस्ती की तरह अडिग रहकर उन रुधिर और मांस खानेवालों कों द्वेष-बुद्धि के कारण न तो हटाना और न पीड़ित करना दंशमशक परीषहजय है। ६. अचेल परीषहजय-वस्त्ररहित या अल्प वस्त्रसहित हो जाने पर किसी प्रकार की चिन्ता न करना अचेल परीषहजय है। यहां पर वस्त्रसहित और वस्त्ररहित दोनों अवस्थाओं में अचेल परीषह बतलाया गया है। इससे प्रतीत होता है कि साधु दो प्रकार के होते थे-एक वह जो वस्त्र धारण करते थे (स्थविरकल्पी या श्वेताम्बर) और दूसरे वह जो वस्त्र से रहित होते थे ( जिनकल्पी या १. चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खू न चिंतए । -उ०२.६-७. तथा देखिए-उ० १६.३२. २. घिसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए । -उ०२८. तथा देखिए-उ० २.६; १६.३२, ३. पुट्ठो य दंसमसएहिं समरे व महामुणी । -उ० २.१०. तथा देखिए-उ० २.११; १६.३२. ४. देखिए -पृ० ३२, पा० टि० २. For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५५ दिगम्बर )।' ऐसी स्थिति में ही वस्त्ररहित या वस्त्रसहित उभय अवस्थाओं में यह परीषह सम्भव है। ७. अरति परीषहजय-ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु साधुवृत्ति से उदास हो सकता है। अतः इस उदासी को न होने देना तथा धर्म का पालन करते रहना अरति परीषहजय है ।२ इस तरह अरति से तात्पर्य है-साधुवृत्ति में अरुचि उत्पन्न होना और उस अरुचि को उत्पन्न न होने देना अरति परीषहजय है। ८. स्त्री परीषहजय-स्त्री आदि को देखकर कामविह्वल न होना स्त्री परीषहजय है। यहां 'स्त्री' शब्द कामवासना का उपलक्षण है। अतः पुरुष को देखकर साध्वी का कामविह्वल न होना भी स्त्री परीषहजय है। रथनेमी राजीमती को एकान्त में नग्न देखकर तथा स्त्री परीषह से पराजित होकर जब कामविह्वल हो जाते हैं तब राजीमती उन्हें सदुपदेश द्वारा सन्मार्ग में स्थित करती है। इसके बाद दोनों संयम में स्थित होकर स्त्री परीषहजय करते हैं। ६. चर्या परीषहजय-यहां चर्या शब्द का अर्थ है-गमन । अतः किसी गृहस्थ या ग्रहादि में आसक्ति न करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण करते समय उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों को सहन करना चर्या परीषहजय है।" १०. नैधिकी परीषहजय-श्मशान, शून्यगृह, वृक्षमूल आदि स्थानों में ध्यानस्थ बैठे रहने पर यदि कोई कष्ट या भयादि हो १. इत्थं स्थविरकल्पिकमाश्रित्याचेलकपरीषह उक्तः........। -वही, नेमिचन्द्रवृत्ति, पृ० २२. २. उ० २.१४-१५. ३. संगो एस मणस्साणं जाओ लोगम्मि इथिओ । जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामण्णं ॥ -उ० २.१६. तथा देखिए-उ० २.१७. ४. उ० २१.२१. ५. उ० २.१८-१६. For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तो उसी स्थान पर बैठे हुए उस उपसर्ग (आपत्ति) को सहन करना नषेधिकी परीषहजय है।' ११. शय्या परीषहजय-ऊंची-नीची शय्या ( शयन करने का स्थान ) के मिलने पर यह विचारते हुए कि एक रात्रि मेरा क्या कर लेगी, कर्त्तव्य का पालन करते रहना शय्या परीषहजय है ।२ १२. आक्रोश परीषहजय-दारुण कण्टक के समान मर्म-भेदक कठोर वचनों को सुनकर भी चुप रहना तथा उसके प्रति थोड़ा भी . क्रोध न करना आक्रोश परीषहजय है। १३. वध परीषहजय-किसी के मारने (प्राणघात) को तत्पर होने पर भी यह सोचकर कि इस जीव का कभी विनाश नहीं होता है तथा क्षमा सबसे बड़ा धर्म है, मारनेवाले पर मन से भी द्वेष न करते हुए धर्म का ही चिन्तन करना वध परीषहजय है।' १४. याचना परीषहजय-साध के पास जो भी वस्तुएँ होती हैं वे सब गृहस्थ से मांगी हुई होती हैं। उसके पास बिना मांगी हुई अपनी कोई भी वस्तु नहीं होती है। अतः 'गृहस्थों से प्रतिदिन १. अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ।। -उ० २.२०.. तथा देखिए-उ० २.२१; २१.२२. २. उच्चावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खु थामवं । -उ० २.२२. किमेगराई करिस्सइ एवं तत्थऽहियासए । -उ० २.२३. तथा देखिए-उ० १६.३२. ३. अक्कोसेज्जा परे भिक्खु न तेसि पडिसंजले । -उ० २.२४. तथा देखिए-उ० २.२५; १२.३१-३३,१६.३२,८४; २१.२० आदि । ४. हओ न संजले भिक्खू । -उ०२.२६. तथा देखिए-उ० २.२७;१६.३३. For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३५७ आहारादि मांगने की अपेक्षा घर में रहना अच्छा है' इस प्रकार याचनाजन्य दीनता के भाव न आने देना याचना परीषहजय है।' १५. अलाभ परीषहजय-आहारादि की याचना करने पर कभीकभी उनकी प्राप्ति नहीं होती है। अतः आहारादि की प्राप्ति न होने पर दुःखी न होते हुए यह सोचना-'आज भिक्षा नहीं मिली, कल मिल जाएगी' अलाभ परीषहजय है । २ १६. रोग परीषहजय-शरीर में किसी प्रकार के रोगादि के हो जाने पर औषधिसेवन (चिकित्सा) न करते हुए समतापूर्वक रोगजन्य कष्ट को सहन करना रोग परीषह जय है । मृगापुत्र साध के इस परीषहजय के विषय में मृग का दृष्टान्त देता है'जिस प्रकार मृग को रोगादि हो जाने पर उसकी कोई दवा आदि से सेवा नहीं करता है और कुछ समय बाद वह रोग के दूर हो जाने पर अन्यत्र विचरण कर जाता है उसी प्रकार साध को रोगादि के होने पर औषधि की कामना नहीं करनी चाहिए।४ । १७. तृणस्पर्श परीषहजय-तृणों पर शयन करते समय अचेल साध का शरीर विकृत हो सकता है। अत: ऐसी अवस्था में भी वस्त्रादि की अभिलाषा न करना तृणस्पर्श परीषहजय है।५ १. गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए । सेओ अगारवासुत्ति इइ भिक्खू न चिंतए ।। -उ० २.२६. तथा देखिए-उ० २.२८; १६ ३३. २. अज्जेवाहं न लब्भामि अवि लाभो सुए सिया । जो एवं पडिसंचिक्खे अलाभो तं न तज्जए । -उ०२.३१. तथा देखिए-उ० २.३०; १६.३३. ३. तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा संचिक्खऽत्तगवेसए । -उ० २.३३. तथा देखिए-उ० २ ३२; १५.८. ४. उ० १६.७६-७७. ५. एवं नच्चा न सेवंति तंतुजं तणतज्जिया। -उ० २.३५. तथा देखिए-उ० २.३४; १६.३२. For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन १८. जल्ल परीषहजय - पसीना, कीचड़, धूलि आदि के शरीर पर इकट्ठे हो जाने पर भी शरीर भेद पर्यन्त उसे दूर करने का प्रयत्न न करना जल्ल परीषहजय है ।' अर्थात् घृणित वस्तुओं का सम्पर्क होने पर उनसे घृणादि न करना तथा शरीर के संस्कार (स्नान) आदि की अभिलाषा न करना जल्ल परीषहजय है । १६. सत्कार पुरस्कार परीषहजय- अभिवादन, नमस्कार, निमन्त्रण आदि से किसी अन्य साधु का सम्मान होते देखकर तथा स्वयं का सम्मानादि न होने पर ईर्ष्याभाव न करते हुए वीतरागी रहना सत्कार-पुरस्कार परीषहजय है । २ २० प्रज्ञा परीषहजय - ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी यदि किसी के पूछने पर उत्तर न दे सके तो 'कर्मों का यह फल है' ऐसा विचार करना प्रज्ञा परीषहजय है । 3 २१. अज्ञान परीषहजय - सब प्रकार से साधु-धर्म का पालन करने पर भी अज्ञानता के दूर न होने पर यह न सोचना - 'मैं व्यर्थ भोगों से निवृत्त हुआ और ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं हुई' अज्ञान परीषहजय है । अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति न होने पर भी धर्म में दृढ़ रहना अज्ञान परीषहजय है । १. जाव सरीरभेओत्ति जल्लं कारण धारए । .- उ० २.३७. तथा देखिए - उ० २.३६; १९.३२. २. अभिवायणमब्भुट्ठागं सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पडिसेवंति न तेसि पीहए मुणी ॥ - उ० २.३८. तथा देखिए - उ० २.३६; २१.२०. ३. से नूणं मए पुव्वं कम्माऽणाणफलाकडा | जेणाहं नाभिजानामि पुट्ठो केणइ कण्हुई || - उ० २.४०. तथा देखिए - उ० २.४१. ४. निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्खं नाभिजानामि धम्मं कल्लाणपावगं ॥ तथा देखिए - उ० २.४३. - उ० २.४२. For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५६ २२. दर्शन परीषहजय-परलोक नहीं है, तप से ऋद्धि की प्राप्ति नहीं होती है, मैं भिक्षाधर्म लेकर ठगा गया हूँ, तीर्थङ्कर (जिन) न थे, न हैं और न होंगे' इस तरह धर्म में अविश्वास न होने देना दर्शन परीषहजय है।' अर्थात हर परिस्थिति में धर्म में दृढ़ विश्वास रखना । जब तक ऐसी दृढ़ श्रद्धा नहीं होगी तब तक साधु अन्य परीषहों को नहीं जीत सकता है क्योंकि श्रद्धा की नींव पर ही तो धर्म की इमारत खड़ी है। परीषहजय की कठोरता : ___ इस तरह ग्रन्थ में साधु के लिए उपयुक्त २२ प्रकार के परीषहों के सहन करने का विधान है। इन पर किस तरह विजय प्राप्त करना चाहिए इस विषय में लिखा है कि साधु पूर्वबद्ध कर्मों का फल जानकर धैर्यपूर्वक युद्धस्थल में स्थित हस्ती की तरह, वायु के प्रचण्ड वेग से कम्पित न होनेवाले मेरु पर्वत की तरह और भय को प्राप्त न होनेवाले सिंह की तरह अडिग एवं आत्मगुप्त होकर इन परीषहों को सहन करे। इस तरह इन परीषहों के आने पर अडिग रहना बड़ा कठिन है ।२ इस परीषहजय के वर्णन से साधु के कर्तव्यों का बोध होता है । अचेल और तणस्पर्श परीषहजय विशेषकर जिनकल्पी या दिगम्बर साधु की अपेक्षा से हैं क्योंकि वस्त्ररहित होने पर इन परीषहों की सम्भावना अधिक है। कुछ परीषह एक साथ आते हैं । साधु प्रतिदिन कुछ न कुछ परीषह अवश्य ही सहन करता है। जैसे : क्षधा, तृषा, तृणस्पर्श, याचना, जल्ल, शीत, उष्ण आदि । मालूम पड़ता है कि इनकी संख्या देश-काल की परिस्थिति के अनुसार ही निश्चित की गई है। जैसे: अरति, दर्शन, प्रज्ञा, अज्ञान आदि १. नत्थि नणं परे लोए इड्ढी वावि तवस्सिणो । अदुवा वंचिओमि त्ति इइ भिक्खू न चिंतए । -उ०२.४४, तथा देखिए-उ० २.४५. २. उ० २१.१७,१६; १६.३२-३३,६२ आदि । For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन परिस्थिति के अनुसार बढ़ाए गए परीषह हैं। वस्तुतः परीषहजय से तात्पर्य है-निन्दा-प्रशंसा, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि अनुकल और प्रतिकूल परिस्थितियों के आने पर भी समभाव रखते हुए अपने कर्तव्य-पथ में दृढ़ रहना। 'स्त्री' परीषह से उस समय के पुरुषों की प्रभुसत्ता का ज्ञान होता है, अन्यथा 'काम' ऐसा परीषह का नाम हो सकता था। साधु की प्रतिमाएँ यहाँ 'प्रतिमा' शब्द का अर्थ है-एक विशेष प्रकार के तप का नियम लेना । ग्रन्थ में साधु की प्रतिमाओं का सिर्फ दो जगह उल्लेख हुआ है जिनका पालन करने से संसार में भ्रमण नहीं होता है।' बारह की संख्या के प्रसंग में इनका उल्लेख होने से इनकी संख्या बारह है । यद्यपि ग्रन्थ में इनके नामादि का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है तथापि टीका-ग्रन्थों से निम्न जानकारी प्राप्त होती है : प्रतिमा-अनशन तपविशेष का अभ्यास : टीका-ग्रन्थों में दशाश्रुतस्कन्ध के सप्तम अध्याय ( उद्देश ) के अनुसार जिन १२ प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है उन्हें देखने से पता चलता है कि इन प्रतिमाओं के नाम समय की सीमा के आधार पर किए गए हैं तथा इनमें एक निश्चित क्रम के अनुसार अनशन और ऊनोदरी तप का अभ्यास किया जाता है। ये १. पडिमं पडिवज्जो । -उ० २.४३. भिक्खूणं पडिमासु य । -उ० ३१.११. २. साधु की बारह प्रतिमाएँ ये हैं : १. एकमासिकी-एक मास तक एक दत्ति अन्न की एवं एक दत्ति जल की ग्रहण करना और आनेवाले सभी प्रकार के कष्टों को सहन करना, २. द्विमासिकी-दो मास तक दो दत्तियाँ जल की और दो दत्तियां अन्न की लेना, ३. त्रिमासिकी-तीन मास तक तीन दत्तियाँ लेना, ४. चतुर्मासिकी-चार मास तक चार दत्तियाँ लेना, ५. पञ्चमासिकी-पाँच मास तक For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३६१ प्रतिमाएँ वस्तुतः अनशन तप के अभ्यास के लिए प्रकार-विशेष हैं। व्यवहारसूत्र में अन्य प्रकार से भी साधु की प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। परन्तु सबका तात्पर्य एक ही है-अनशन तप का अभ्यास । दिगम्बर-परम्परा में साधु की प्रतिमाओं का वर्णन नहीं मिलता है। इस तरह ये साधु की प्रतिमाएँ गृहस्थ की ११ प्रतिमाओं से भिन्न हैं। इन प्रतिमाओं का पालन करते समय क्षुधादि परीषहों को भी सहन करना पड़ता है। समाधिमरण-सल्लेखना समाधिमरण ( सल्लेखना ) का अर्थ है-मृत्यु के सन्निकट आ जाने पर चारों प्रकार के आहार का त्याग करके आत्मध्यान करते हए प्रसन्नतापूर्वक प्राणों का त्याग करना। इसे ग्रन्थ में 'पण्डितमरण' एवं 'सकाममरण' शब्द से भी कहा गया है। क्योंकि पांच दत्तियाँ लेना, ६. षट्मासिकी-छः मास तक छः दत्तियां लेना, ७. सप्तमासिकी-सात मास तक सात दत्तियां लेना, ८. प्रथम सप्त अहोरात्रिकी-सात दिनरातपर्यन्त निर्जल-उपवास (चतुर्थभक्त) करते हुए ध्यान करना, ६. द्वितीय सप्त अहोरात्रिकी-सात दिनरात तक किसी अन्य आसन-विशेष से ध्यान करना, १०. तृतीय सप्त अहोरात्रिकी-सात दिन-रात तक अन्य किसी आसन-विशेष से ध्यान करना, ११. अहोरात्रिकी-निर्जल दो उपवास (षष्ठभक्त) करना, और १२. रात्रिकी-एक रात्रिपर्यन्त निर्जल उपवास (अष्टभक्त) करना। यहाँ दत्ति शब्द का अर्थ है-एक ही समय में लगातार बिना धारा टूटे जितना आहार अथवा पानी साधु के पात्र में डाल दिया जाता है उसे एक दत्ति कहते हैं। -उ० ३१.११ (टीकाएँ); दशाश्रुतस्कन्ध, उद्देश ७. १. व्यवहारसूत्र, उद्देश १०. २. इत्तो सकाममरणं पंडियाणं सुणेह मे। -उ० ५.१७. तथा देखिए-उ० ५.२; ३५.२० ; ३६.२५१-२५२,२६३ आदि । For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इसकी प्राप्ति विषयादि से विरक्त समाधिस्थ विद्वानों को इच्छापूर्वक ( सकाम ) होती है तथा ये मृत्युसमय भी अन्य समयों की तरह प्रसन्न ही रहते हैं।' रोगादि या अन्य कोई उपसर्ग ( आपत्ति ) आ जाने पर ये न तो अपने कर्त्तव्यपथ से विचलित होते हैं और न किसी प्रकार के कष्ट से दुःखी होते हैं। इस तरह पण्डितमरण (सल्लेखना ) का अर्थ है- मृत्यु को सन्निकट आया हुआ जानकर प्रसन्नतापूर्वक सब प्रकार के आहार का त्याग करके आत्मा का ध्यान करते हुए मृत्यु का स्वागत करना । यह पण्डितमरण यावत्कालिक अनशन तपपूर्वक होता है । समाधिमरण आत्महनन नहीं : इस प्रकार के मरण को आत्म-हनन नहीं कह सकते हैं क्योंकि यह मृत्यु या अन्य कोई दुःसाध्य आपत्ति आ जाने पर प्रसन्नतापूर्वक शरीरत्याग करने की प्रक्रिया है। यह एक प्रकार का शुभ-ध्यान (धर्म या शुक्लध्यान) है। यदि प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का स्वागत नहीं किया जाएगा तो मृत्यु से भय बना रहेगा जिससे अशुभ-ध्यान (आर्त एवं रौद्र ध्यान) की प्राप्ति होगी जो दुर्गति का कारण है। अतः साधु के आहार न करने के कारणों में एक कारण सल्लेखना भी गिनाया गया है। साधु एवं गृहस्थ दोनों को इस प्रकार का मरण स्वीकार करने के लिए कहा गया है। यदि भय व दुःख आदि से प्रेरित होकर आहारत्याग किया जाएगा तो वह समाधिमरण (सल्लेखना) न होकर आत्म-हनन होगा। १. मरणंपि सपुण्णाणं...."विप्पसण्णमणाधायं । -उ० ५.१८. न संतसंति मरणंते सीलवंता बहुस्सुया । -उ० ५.२६. तथा देखिए-उ० ५.३१. २. न इमं सव्वेसु भिक्खूसु न इमं सव्वेसु गारिसु । -उ० ५.१६. . For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३६३ समाधिमरण के भेद : ग्रन्थ में इस समाधिमरण के तीन भेदों का संकेत मिलता है।' इनमें से किसी एक का आश्रयण करके शरीर का त्याग करना आवश्यक है। क्रिया को माध्यम बनाकर किए गए इन तीनों भेदों में चारों प्रकार के आहार का त्याग (अनशन तप) आवश्यक है। इनके नामादि इस प्रकार हैं :२ १. भक्तप्रत्याख्यान-गमनागमन के विषय में कोई नियम लिए बिना चारों प्रकार के आहार का त्याग करके शरीर का त्याग करना भक्तप्रत्याख्यान नामक समाधिमरण है। इससे जीव सैकड़ों भवों के कर्मों को निरुद्ध कर देता है। २. इंगिनीमरण – इंगित का अर्थ है-संकेत । अतः गमनागमन के विषय में भूमि की सीमा का संकेत करके चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हुए शरीर का त्याग करना इंगिनीमरण है। ३. पादोपगमन-पाद का अर्थ है-वृक्ष । अत. पादोपगमन नामक समाधिमरण में चारों प्रकार के आहार का त्याग करके वृक्ष से कटी हुई शाखा की तरह एक ही स्थान पर निश्चल होकर शरीर का त्याग किया जाता है। ___ इन तीनों भेदों में से भक्तप्रत्याख्यान में गमनागमन-सम्बन्धी कोई नियम नहीं रहता है, इंगिनीमरण में क्षेत्र की सीमा नियत रहती है तथा पादोपगमन में गमनागमन क्रिया नहीं होती है। अतः . . भक्तप्रत्याख्यान और इंगिनीमरण में 'सविचार' व 'सपरिकर्म' नामक मरणकालिक अनशन तप किया जाता है क्योंकि इनमें क्रिया वर्तमान १. अह कालम्मि संपत्ते आघायाय समुस्सयं । ___ सकाममरणं मरई तिहमन्नयरं मुणी ॥ -उ० ५.३२. २. वही, आ० टी०, पृ० २३८. ३. भत्तपच्चक्खाणेणं अणे गाई भवसयाई निरंभइ । -उ० २६.४०. For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन रहती है। पादोपगमन में क्रिया सम्भव न होने से इसमें 'अविचार' व 'अपरिकर्म' नामक मरणकालिक अनशन तप किया जाता है। यही इन सल्लेखना के भेदों में अन्तर है। समाधिमरण की अवधि : यद्यपि सामान्यतौर से समाधिमरण की अधिकतम सीमा १२ वर्ष, न्यूनतम सीमा ६ मास तथा मध्यम सीमा १. वर्ष बतलाई गई है' परन्तु यह कथन उनकी अपेक्षा से कहा गया मालूम पड़ता है जो यह जानते हैं कि उनकी मृत्यु कब होगी ? अन्यथा इसकी न्यूनतम सीमा अन्तर्मुहूर्त तथा मध्यम सीमा उच्चतम एवं न्यूनतम सीमा के बीच कभी भी हो सकती है। समाधिमरण का इतना ही तात्पर्य है कि मृत्यु को निकट आया जानकर प्रसन्नतापूर्वक बिना किसी अभिलाषा के सब प्रकार के आहार का त्याग करके शरीर को चेतनाशून्य कर देना। समाधिमरण की विधि : समाधिमरण की बारह वर्ष प्रमाण उच्चतम सीमा को दृष्टि में रखकर उसकी विधि इस प्रकार बतलाई गई है :२ सर्वप्रथम साधक गुरु के समीप जाकर प्रथम चार वर्षों में घी, दूध आदि विकृत पदार्थों का त्याग करे। अगले चार वर्षों में नाना प्रकार की तपश्चर्या करे। इसके बाद दो वर्ष १. बारसेव उ वासाई संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया ।। -उ० ३६.२५२. २. पढमे वासचउक्कम्मि विगई निज्जहणं करे । बिइए वासचउक्कम्मि विचित्तं तु तवं चरे ।। कोडीसहियमायाम कट संबच्छर मुणी । मासद्धमासिएणं तु आहारेणं तवं चरे ।। -उ० ३६.२५३-२५६. तथा देखिए-उ० ५.३०-३१. For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३६५ पर्यन्त क्रमशः एक दिन उपवास (अनशन ) और दूसरे दिन नीरस अल्पाहार ( आय विल-आचाम्ल ) करे । तत्पश्चात् ६ मास पर्यन्त कोई कठिन तपश्चर्या न करके साधारण तप करे, फिर ६ मास पर्यन्त कठोर तपश्चर्या करके अन्त में नीरस अल्पाहार लेकर अनशन व्रत को तोड़ दे (पारणा करे)। इसके पश्चात अवशिष्ट १ वर्ष में कोटिसहित तप ( जिस अनशन तप का आदि और अन्त एकसा मिलता हो ) करता हुआ एक मास या १५ दिन मृत्यु के शेष रह जाने पर सब प्रकार के आहार का त्याग कर दे । इस विधि में आवश्यकतानुसार समय-सम्बन्धी परिवर्तन किया जा सकता है। यह सामान्य अपेक्षा से उत्कृष्ट सल्लेखना की पूर्ण विधि बतलाई गई है। समाधिमरण की सफलता : सल्लेखना की सफलता के लिए आवश्यक है कि सब प्रकार की अशुभ भावनाओं तथा निदान (फलाभिलाषा) आदि का त्याग करके जिनवचन में श्रद्धा की जाए। ग्रन्थ में पाँच प्रकार की अशुभ भावनाएँ बतलाई गई हैं जिनसे जीव सल्लेखना के फल को प्राप्त न करके दुर्गति को प्राप्त करता है।' इनके नामादि इस प्रकार हैं :२ १. कन्दर्प भावना ( कामचेष्टा-पुनःपुनः हंसना, मुख आदि को विकृत करके दूसरे को हंसाना आदि ), २. अभियोग भावना ( वशीकरण मन्त्रादि का प्रयोग-विषयसुख की अभिलाषा से वशीकरण मन्त्रादि का प्रयोग करना ), ३. किल्विषिकी भावना ( निन्दा करना-केवलज्ञानी, धर्माचार्य, संघ, साधु आदि की निन्दा करना ), ४. मोह भावना ( मूढ़ता-शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, निषिद्ध वस्तुओं का सेवन आदि करना ) १. कंदप्पमाभिओगं च किदिवसियं मोहमासुरत्तं च । एयाउ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होति ।। -उ० ३६.२५७. तथा देखिए-उ० ३६.२५८-२६८. २. वही। For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन और ५. आसुरी भावना ( क्रोध करना-निरन्तर क्रोध करना तथा शुभाशुभ फलों का कथन करना )। ___ समाधिमरण में मृत्यु के समय इन भावनाओं के त्याग से स्पष्ट है कि इस प्रकार का मरण आत्महनन नहीं है। इस प्रकार के मरण को प्राप्त करनेवाला जीव बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त नहीं होता है अपितु दो-चार जन्मों के भीतर सब प्रकार के दुःखों से अवश्य ही मुक्त हो जाता है। यदि कारणवश सब प्रकार के. कर्म नष्ट नहीं होते हैं तो महासमृद्धिशाली देवपर्याय की प्राप्ति होती है।' इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि सिर्फ मत्यु के समय सल्लेखना धारण कर लेना चाहिए तथा शेष जीवन में विषयों का भोग करना चाहिए। इसका कारण है कि प्रारम्भ से ही जब सदाचार का अभ्यास किया जाता है तभी जीव इस समाधिमरण को प्राप्त करता है। अतः कहा है कि जो कार्य प्रारम्भ में ( जवानी में ) शक्ति के वर्तमान रहने पर किया जा सकता है वह वृद्धावस्था में शरीर के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर नहीं किया जा सकता है। जो मिथ्यादर्शन ( मिथ्यात्व ) में अनुरक्त हैं, निदानपूर्वक कर्मानुष्ठान करते हैं, हिंसा तथा कृष्णले श्या में अनुरक्त हैं ऐसे जीव जिनवचन में श्रद्धा न करके 'अकाम-मरण' (सभयमरण) या बालमरण (मों की मृत्यु ) को बारम्बार प्राप्त करते हैं । इसके विपरीत जो सम्यग्दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान-सहित कर्मानुष्ठान नहीं करते हैं, शुक्ललेश्या से युक्त हैं तथा जिनवचन में श्रद्धा रखते हैं वे अल्पसंसारी होते हैं। १. बालाणं अकामं तु मरणं असइं भवे । पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सई भवे ॥ -उ० ५.३. सम्वदुक्खपहोणे वा देवे वावि महिडिटए । -उ० ५.२५. २. स पुज्वमेवं न ल भेज्ज पच्छा एसोवमा सासय वाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयम्मि कालोवणीए सरीरस्स भेए । -उ० ४६. ३. देखिए-पृ० ३६५, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३६७ इस प्रकार के समाधिमरण से विपरीत जो मरण धन एवं स्त्रियों में मच्छित होकर हिंसादि पाप-क्रियाओं को करते हए होता है उसे 'बालमरण' या 'अकाममरण' (अनिच्छापूर्वक मरण) कहा गया है । यह मरण जीवों को कई बार प्राप्त होता है क्योंकि इस प्रकार के मरण को प्राप्त करनेवाले जीव गड्डलिकाप्रवाह (जिधर अधिक लोग जाएं उसी तरफ बिना सोचे-समझे चल पड़ना ) से प्रभावित होकर मिट्टी को एकत्रित करनेवाले शिशुनाग की तरह कर्म-मलों का संग्रह करते हैं।' पश्चात् मृत्यु के समय अपने बुरे-कर्मों के फल को स्मरण करके दुःखी होते हैं । अतः इस प्रकार का अकाम-मरण त्याज्य है। ___ इन तरह यह समाधिमरण या सल्लेखना साधनापथ का चरम केन्द्र -बिन्दु है । यदि साधक इसमें सफल हो जाता है तो वह अपनी सम्पूर्ण साधना का अभीष्टफल प्राप्त कर लेता है अन्यथा वह संसार में भटकता रहता है। समाधिमरण में मृत्यु के समय संसार के सभी विषयों से पूर्ण-विरक्ति आवश्यक है। अतः उस समय आहार आदि सभी क्रियाओं को त्याग दिया जाता है । इस समय साधक को न तो जीवन की आकांक्षा रहती है और न मृत्यु की कामना ही रहती है। इस प्रकार के मरण में शरीर एवं कषायों के कृश किए जाने से इसे 'सल्लेखना', विद्वानों से प्रशंसित होने से 'पण्डितमरण' तथा प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करने से 'सकाम-मरण' कहा गया है। अन्यत्र इसे - - संथारा (संस्तारक) शब्द से भी कहा गया है क्योंकि इसमें एकान्त स्थान में तण-शय्या ( संस्तारक ) विछाकर तथा आहारादि का त्याग करके आत्मध्यान किया जाता है। इसके विपरीत अज्ञानियों की अनिच्छापूर्वक होनेवाली मृत्यु 'बालमरण' तथा 'अकाम-मरण' कहलाती है। १. उ० ५.५-७, ६-१०; पृ० ३६६, पा० टि० १. २. जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गम्मि सोयई ॥ -उ० ५.१४. तथा देखिए-उ० ५.१५-१६. ३. जैन आचार-डा० मोहनलाल मेहता, पृ० १२०. For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन अनुशीलन इस प्रकरण में साधु के विशेष प्रकार के आचार का वर्णन किया. गया है जिसके द्वारा जीव पूर्व - बद्ध कर्मों को शीघ्र ही नष्ट करने का प्रयत्न करता है । वह विशेष प्रकार का आचार है - तपश्चर्या । इस तपश्चर्या की पूर्णता के लिए साधक को अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करना पड़ता है जिसे परीषहजय कहा गया है । साध्वाचार का पालन करने की दुष्करता का जो प्रतिपादन किया गया है वह भी इसी तप की अपेक्षा से किया गया है । तपसाधु के सामान्य सदाचार से सर्वथा पृथक् नहीं है अपितु सामान्य सदाचार में ही विशेष दृढ़ता का होना तप है | अतः ग्रन्थ में तप के जो भेद गिनाए गए हैं वे सब साधु के सामान्य आचार से सम्बन्धित हैं । तपसाधु के आचार की कसौटी है जिससे उसके आचार की शुद्धता ( चोखापन एवं खोटापन ) की परख होती है । यद्यपि साधु प्रत्येक क्रिया तप से अनुस्यूत रहती है परन्तु वे सब क्रियाएँ तप नहीं हैं अपितु कुछ विशेष क्रियाएँ ही विशेष नियमों के कारण तप की कोटि में आती हैं । तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भागों में विभक्त किया गया है । जो तप केवल बाह्य क्रिया से सम्बन्ध रखता है तथा आभ्यन्तर आत्मा के परिणामों की विशुद्धि में कारण नहीं है वह अभीष्टसाधक तप नहीं है परन्तु इसके विपरीत जो आत्मा के परिणामों की विशुद्धि में कारण है और आभ्यन्तर क्रिया से संबन्ध रखता है वह अभीष्टसाधक है तथा वही वास्तविक तप भी है । इसलिए ग्रन्थ में कई स्थलों पर बाह्यलिंगादि की अपेक्षा भावलिगादि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है । ऐसा प्रतिपादन करने का कारण यह था कि साधक मात्र क्रियाओं तक ही इतिश्री समझते थे और जो जितना अधिक शरीर को कष्ट देने वाला तप करता था वह उतना ही अधिक बड़ा तपस्वी समझा जाता था । अतः यह शरीर को पीड़ित करने वाला तप ही वास्तविक तप नहीं है अपितु ज्ञानादि की प्राप्ति में सायक तप ही वास्तविक तप है । यह सिद्ध करने के लिए तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो भागों में विभक्त करके आभ्यन्तर तप को श्रेष्ठ बतलाया गया है । For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३६६ भिक्षाचर्या जो कि साधु का सामान्य आचार है यदि उसी में कुछ विशेष नियम ले लिए जाते हैं तो वह तप की कोटि में आ जाता है। इसी प्रकार भूख से कम खाना, सरस पदार्थों का सेवन न करना तथा सब प्रकार के आहार का त्याग करना ये साध के आहार से सम्बन्धित तप हैं। इनसे रसना इन्द्रिय पर संयम किया जाता है। ये तप इसलिए भी आवश्यक हैं कि इनसे आहार आदि से सम्बन्धित सूक्ष्म हिंसा आदि दोषों का परिहार किया जा सके । साधु के सामान्य आचार के प्रसंग में उसके लिए एकान्त में निवास करने का विधान किया गया है। अतः साधु यदि विशेषरूप से आत्मध्यानादि के लिए एकान्त-निवास का आश्रय लेता है तो वह भी एक प्रकार का तप (संलीनता) है। पद्मासन, खड़गासन आदि आसनविशेष में स्थिर होना स्पष्ट ही कायक्लेशरूप तप है। इस तरह ये छहों प्रकार के तप बाह्य शारीरिक क्रिया से सम्बन्धित हैं। __दोषों की प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि, गुरु के प्रति विनय, सेवाभक्ति, अध्ययन, ध्यान और कायोत्सर्ग ये छः तप अन्तरंग-क्रिया से सम्बन्धित होने के कारण आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। इनका आध्यात्मिक महत्त्व तो है ही साथ ही व्यावहारिक महत्त्व भी है। इन आभ्यन्तर तपों में प्रायश्चित्त तप एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयं स्वीकृत दण्ड है। इससे आचार में लगे हुए दोषों की विशुद्धि होती है। साधु प्रतिदिन 'प्रतिक्रमण आवश्यक' करते समय इस तप को करता ही है। गुरु के प्रति विनय, उनकी सेवा तथा स्वाध्याय ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ध्यान तप से साधक अशुभ-व्यापारों की ओर झुकनेवाली चित्तवृत्ति को रोककर आत्मा के चिन्तन की ओर लगाता है। अतः यह ध्यान तप योगदर्शन में प्रतिपादित चित्तवत्ति-निरोधरूप समाधिस्थानापन्न है। कायोत्सर्ग तप ध्यानावस्था की प्राप्ति के लिए प्रारम्भिक कर्तव्य है क्योंकि जब तक शरीर से ममत्व को छोड़कर उसे एकाग्र नहीं किया जाएगा तब तक ध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इस तरह हम देखते हैं कि साधक इन छहों आभ्यन्तर तपों को किसी न किसी रूप में प्रतिदिन अवश्य करता है। इन्हें सामान्य सदाचार से पृथक For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन बतलाने का कारण यह है कि साधक अपने सदाचार में प्रमाद न करते हुए शीघ्रातिशीघ्र अपने अभीष्ट फल को प्राप्त कर ले । इस तपश्चर्या के प्रसंग में योगदर्शन में बतलाई गई समाधि का वर्णन करना अनावश्यक नहीं समझता हूँ क्योंकि यहां पर तपश्चर्या के प्रसंग में जो ध्यान का स्वरूप बतलाया गया है वह उससे बहुत मिलता-जुलता है। योगदर्शन में समाधि ( योग ) के दो भेद हैं : १. सम्प्रज्ञात समाधि और २. असम्प्रज्ञात समाधि ।' सम्प्रज्ञात समाधि ' सालम्ब' और 'सबीज' होती है? क्योंकि इसमें किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर किया जाता है । इसके विपरीत असम्प्रज्ञात समाधि 'निरालम्ब' और 'निर्बीज' होती है ' क्योंकि इसमें चित्त की समस्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाती हैं । सम्प्रज्ञात समाधि में ध्येय, ध्यान और ध्याता का भेद बना रहता है परन्तु असम्प्रज्ञात में ध्येय, ध्यान और ध्याता एकाकार हो जाते हैं, उनमें भेद परिलक्षित नहीं होता है । अत: इसे असम्प्रज्ञातसमाधि कहा गया है । यह ध्यान की चरमावस्था है । इस समाधि की अवस्था में पहुंचने पर आत्मा अपनी विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेती है । अतः इसे 'कैवल्य' की अवस्था कहा गया है । ४ ठीक यही स्थिति प्रकृत ग्रन्थ में शुक्लध्यान की है। शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद आलम्बनसहित होने से सम्प्रज्ञात समाधिरूप हैं तथा बाद के दो भेद निरालम्ब एवं निर्बीज होने से असम्प्रज्ञातसमाधिरूप हैं । कैवल्य की अवस्था दोनों में समान है । इसके १. देखिए - भा० द० ब०, पृ० ३५८. २. क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः । - पा० यो० १.४१. ता एव सबीज: समाधिः । - पा० यो० १.४६. ३. तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः समाधिः । - पा० यो० १.५१. ४. तस्मिन्निवृत्ते पुरुष: स्वरूपमात्र प्रतिष्ठोऽतः शुद्ध केवली मुक्त इत्युच्यत इति । - वही, भाष्य, पृ० ५०. For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [३७१ अतिरिक्त ध्यान और समाधि के अन्य अवान्तर भेदों में किञ्चित् भिन्नता होने पर भी काफी समानता है तथा नामों में भी एकरूपता है जो स्वतंत्र चिन्तन का विषय है। इस तपश्चरण में मुख्य रूप से जिन बाधाओं का सामना करना पड़ता है उन्हें ग्रन्थ में परीषह शब्द से कहा गया है। यद्यपि इनकी संख्या २२ बतलाई गई है परन्तु इनकी इयत्ता सीमित नहीं है क्योंकि परिस्थिति के अनुसार इनकी संख्या में अन्तर हो सकता है। इन सभी परीषहों के आने पर भी अपने कर्त्तव्य से च्यूत न होना परीषहजय है। साधना के पथ में प्रायः एक साथ कई परीषह आया करते हैं । इन पर विजय पाने पर ही तप की सफलता निर्भर करती है। यदि साधक इन पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता है तो वह अपने तपं से च्युत हो जाता है और अभीष्ट फल को प्राप्त नहीं करता है । अतः ये तप की सत्यता की जांच के लिए कसौटीरूप हैं । ___ इस तरह जीवनपर्यन्त तपोमय जीवन-यापन करते रहने पर भी यदि साधु मृत्यु के समय एक निश्चित अनशनरूप तपविशेष ( समाधिमरण या सल्लेखना ) का अनुष्ठान नहीं करता है तो उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती है । मृत्युसमय जोकि तपश्चर्या को फलप्राप्ति का चरमबिन्दु है, यदि साधु पूर्ववत् अडिग रहकर अनशन तपपूर्वक ( सल्लेखनापूर्वक ) शरीर का त्याग करता है तो अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। इसके द्वारा ग्रन्थ में 'अन्त भला सो सब भला' वाली कहावत को चरितार्थ किया गया है। मृत्यु के समय अनशन तप इसलिए आवश्यक है कि साधु पूर्ण विरति की अवस्था को प्राप्त कर ले । यह अनशन द्वारा शरीरत्याग आत्महनन नहीं है अपितु मृत्यु जैसे भयानक उपसर्ग के आने पर भी हंसते हुए वीरों की तरह प्राणों का त्याग कर देना है। साधु को इस समय अपने प्राणों से भी मोह नहीं रहता है और वह हंसते हुए मृत्यु का स्वागत करता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह मृत्यु की प्रार्थना करता है अपितु जीवन और मृत्यु की कामना न करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक शरीर का उत्सर्ग कर देता है। इससे एक प्रकार के आत्मबल की प्राप्ति होती है । मृत्यु के समय भी अपने कर्त्तव्यपथ पर पूर्ण दृढ़ रहना और समस्त प्रकार के आहार-पान आदि का For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन त्याग करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना इस समाधिमरण का लक्ष्य है। इस तरह साधु का सम्पूर्ण जीवन वीरों की तरह वीरतापूर्वक व्यतीत होता है। इसीलिए ग्रन्थ में साध-धर्म की संग्रामस्थ वीर राजा के कर्त्तव्यों से तुलना की गई है। अतः जिसमें आत्मबल है वही इसका पालन कर सकता है, शेष इसके पालन करने में असमर्थ हैं । इससे सिद्ध है कि यह साधु-धर्म संसार के दु:खों को सहन न कर । सकने के कारण पलायन नहीं है, अपितु एक प्रकार का कषायरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध है। कषायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कर्मबन्धन को तोड़ना इस तपश्चर्या का प्रयोजन है । जिस प्रकार युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये कठोर परिश्रम करना पड़ता है उसी प्रकार साधु को भी कषायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक तपश्चर्या का आश्रय लेना पड़ता है। प्रायः सभी भारतीय धर्मों में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है और तपश्चर्या पर महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार ऊपर जो साधु का आचार आदि से अन्त तक बतलाया गया है वह कितना दुष्कर है, प्रत्येक जिज्ञासू समझ सकता है। ग्रन्थ में इसकी कठिनता का प्रतिपादन संवादों के रूप में बहुत्र किया गया है। इसकी दुष्करता का कथन विशेषकर उनके लिए है जो सुकुमार तथा विषयासक्त हैं परन्तु जो सुव्रती, तपस्वी, कर्मठ तथा विषयाभिलाषा से रहित हैं उनके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है ।२ ग्रन्थ में इसकी दुष्करता के कुछ दष्टान्त भी दिए गए हैं। जैसे : १. लौहभार-वहन, २. गंगा का स्रोत अथवा प्रतिस्रोत-निरोध, ३. भुजाओं से समुद्र-सन्तरण, ४. बालू के ग्रास का भक्षण, ५. तलवार की धार पर गमन, ६. लोहे के चनों का चर्वण, १. देखिए- क्षत्रिय का परिचय, प्रकरण ७. २. इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचिवि दुक्करं। -उ० १६.४५. ३. गुरुओ लोहमारुत्व..."होइ दुव्वहो । -उ० १६.३६. तथा देखिए-उ० १६.३७-४३. For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३७३ ७. सर्प की एकाग्र दृष्टि, ८. प्रज्वलित अग्निशिखा का पान, ६. वायु से थैला भरना तथा १०. तराजू से मेरुपर्वत का तौलना। इस तरह जैसे उपर्यक्त बातें दुष्कर एवं असंभव-सी हैं उसी प्रकार साध्वाचार का पालन करना भी कठिन है। __इस दुष्कर साध्वाचार का पालन करने वाला सच्चा साध भाई-बन्ध, माता-पिता, राजा तथा देवेन्द्र आदि से भी स्तुत्य हो जाता है।' यहाँ तक कि उसका प्रत्येक अंग पूजनीय हो जाता हैं।२ वह सबका नाथ हो जाता है। कठिनता से प्राप्त होने वाली मुक्ति सुलभ हो जाती है क्योंकि दीक्षा का प्रयोजन सांसारिक विषयों की प्राप्ति न होकर मुक्तिरूप परमसूख की प्राप्ति है। इसके अतिरिक्त मुक्ति का साधक साधु पुण्य-क्षेत्रवाला कहलाता है और उसे दिया गया दान भी पुण्य-फलवाला होता है । तपादि के प्रभाव से उन्हें अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति हो जाती है। इन अलौकिक शक्तियों के प्रभाव से वे कूपित होने पर सम्पूर्ण लोक को भस्म करने तथा अनुग्रह से इच्छित फल को देने की सामर्थ्यवाले होते हैं। उनके संयम की प्रशंसा में लिखा है कि इनका संयम प्रतिदिन १. देखिए-पृ० २५४, पा० टि० १; उ० २२ २७; ६.५५-६०; १२. २१; २०.५५-५६; २५.३७, ३५.१८. २. अच्चेमु ते महाभाग न ते किचि न अच्चिमो। -उ० १२.३४. ३. देखिए-पृ० १९६, पा० टि० २-३. ४. आराहए पुण्णमिणं खु खित्तं । -उ० १२.१२. - तहियं गंधोदय पुप्फवासं दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा । पहयाओ दुदुहीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणं च घुटं ।। -उ० १२.३६. ५. महाजसो एस महाणुभावो घोरव्वओ घोरपरक्कमो य । मा एयं हीलेइ अहीलणिज्जं मा सव्वे तेएण मे निदहेज्जा ।। -उ०१२.२३. जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा लोगपि एसो कुविओ डहेज्जा। -उ० १२.२८. For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . दस लाख गौदान से भी कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है।' इस तरह यह साध्वाचार का मार्ग विशुद्ध एवं कण्टकादि से रहित राजमार्ग है। तथा दुष्कर हो करके भी सुखावह है। यही साधु का सदाचार है और यही तप। १. जो सहस्स सहस्साणं मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ अदितस्स वि किंचण ॥ -उ० ६.४०. २. अवसोहिय कंटगापहं ओइण्णोऽसि पहं महालयं ।। -उ० १०.३२. ३. भिक्खवत्ती सुहावहा। -उ० ३५.१५. तथा देखिए-उ० ६.१६. For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ मुक्ति सब प्रकार के कर्मबन्धन से छुटकारा पाना मुक्ति है। अन्य भारतीय धार्मिक ग्रन्थों की तरह उत्तराध्ययन का भी चरम लक्ष्य जीवों को मुक्ति की ओर अग्रसर करना है। पहले बतलाए गए नौ प्रकार के तथ्यों में यह अन्तिम तथ्य है । मुक्ति के अर्थ में प्रयुक्त कुछ शब्द : प्रकृत ग्रन्थ में मुक्ति के अर्थ को अभिव्यक्त करनेवाले कुछ शब्दों का प्रयोग मिलता है जिनसे उसके स्वरूप के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। १. मोक्ष' - 'मुच' धातु से मोक्ष बनता है। मोक्ष शब्द का अर्थ है-किसी से छुटकारा प्राप्त करना। अध्यात्मविषय होने से यहाँ पर संसार के बन्धनभत कर्मों से छुटकारा अभिप्रेत है। जीव का कर्मों के बन्धन से छुटकारा होता है तथा कर्मबन्धन से रहित स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित जीव को 'मुक्त जीव' कहा गया है। अतः मोक्ष का अर्थ हुआ-'सब प्रकार के बन्धन से रहित जीव द्वारा स्वस्वरूप की प्राप्ति ।' ... २ निर्वाण २ - इसका अर्थ है-समाप्ति। यहां पर समाप्ति से तात्पर्य चेतन के अभाव से नहीं है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति होने पर चेतन का विनाश नहीं होता है अपितु उसे स्व-स्वरूप की प्राप्ति होती है। अत: यहां पर निर्वाण का अर्थ है-'कर्मजन्य सांसारिक १. बंधमोक्खपइण्णिणो। -उ० ६.१०. २. नायए परिनिव्वुए। -उ० ३६.२६६. नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । -उ० २८.३०. For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अवस्थाओं का सदैव के लिये समाप्त हो जाना'। बौद्ध दर्शन में यह । मुक्ति-वाचक प्रचलित शब्द है । परन्तु वहां अर्थ भिन्न है। ३. बहिःविहार'-यहाँ पर विहार शब्द का अर्थ है-जन्मजरा-मरण से व्याप्त संसार । अतः बहिःविहार का अर्थ हुआसंसार के आवागमन से रहित स्थान या जन्म-मरणरूप संसार से बाहर । मोक्ष की प्राप्ति हो जाने के बाद जीव का संसार में आवागमन नहीं होता है। अतः उसे बहिःविहार कहना उपयुक्त ही है। ४. सिद्धलोक २- मोक्ष को प्राप्त होनेवाला जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होकर अपने अभीष्ट को प्राप्त ( सिद्ध ) कर लेता है। अतः मुक्त होनेवाले जीवों को 'सिद्ध' तथा जहाँ उनका निवास है उसे 'सिद्धलोक' ( सिद्धशिला ) कहा गया है। ५. आत्मवसति'- मुक्त होने का अर्थ है- अत्मस्वरूप की प्राप्ति । अतः आत्मवसति या आत्मप्रयोजन की प्राप्ति का अर्थ है-मोक्ष की प्राप्ति । ६. अनुत्तरगति, प्रधानगति', वरगति व सुगति - सामान्यरूप से चार गतियाँ मानी गई हैं जो संसारभ्रमण में कारण हैं परन्तु १. बहिं विहाराभिनिविट्ठचित्ता। -उ०१४.४. संसारपारनित्थिण्णा। ___-उ० ३६.६७. २. देखिए-पृ० ५७, पा० टि० १; उ० २३.८३; १०.३५. ३. अप्पणो वसहिं वए। -उ० १४.४८. . तथा देखिए-उ० ७.२५. ४. पत्तो गई मणुत्तरं । -उ० १८.३८. ___तथा देखिए-उ० १८.३९-४०,४२-४३,४८ आदि । ५. गइप्पहाणं च तिलोयअविस्सुतं । -उ० १६.६८. ६. सिद्धि वरगई गया। -उ० ३६.६७. ७. जीवा गच्छंति सोग्गई। -उ० २८.३. For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [ ३७७ मोक्ष ऐसी गति है जिसे प्राप्त कर लेने पर पूनः संसार में आवागमन नहीं होता है। इससे श्रेष्ठ कोई गति नहीं है। अतः इसे 'अनुत्तरगति' कहा गया है। देव और मनुष्यगति को जो ग्रन्थ में कहींकहीं 'सुगति' कहा गया है वह संसारापेक्षा से है। वस्तुतः सुगति मोक्ष ही है और यह संसार की चार गतियों से भिन्न होने के कारण 'पंचमगति' है। ७. ऊर्ध्वदिशा'-मुक्तजीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमन वाले हैं और वे जहाँ निवास करते हैं वह स्थान लोक के ऊपरी भाग में है। अतः ऊर्ध्व दिशा में गमन का अर्थ है-मोक्ष की प्राप्ति । तत्त्वार्थसूत्र में मुक्तात्माओं के ऊर्ध्वगमन स्वभाव के विषय में कुछ दष्टान्त दिए गए हैं ।२ यह ऊर्ध्वगमन लोक के अग्रभाग तक ही होता है क्योंकि अलोक में किसी भी तत्त्व की सत्ता नहीं मानी गई है। ८. दुरारोह-मुक्ति प्राप्त करना अत्यन्त कठिन होने से इसे 'दुरारोह' कहा गया है। ___६. अपुनरावृत्त और शाश्वत – यहाँ आने के बाद जीव पुनः कभी भी संसार में नहीं आता है । अतः मुक्ति 'अपुनरावृत्त' है तथा नित्य होने से 'शाश्वत' (ध्रुव) भी है। १. उड्ढं पक्कमई दिसं। ___-उ० १६.८३. २. पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च। आविद्धकूलाल- चक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च । -त० सू० १०.६-७. ३. अस्थि एगं धवं ठाणं लोगग्गम्मि दुरारुहं । जत्थ नत्थि ज(मच्चू वाहिणो वेयणा तहा ।। -उ० २३.८१. निव्वाणंति अबाहंति सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं जं चरति महेसिणो ॥ -उ० २३.८३. ४. वही; उ० २६.४४; २१.२४ आदि । For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन १०. अव्याबाध' – सब प्रकार की बाधाओं से रहित होने से तथा अत्यन्त सुखरूप होने से इसे 'अव्याबाध' कहा गया है । ११. लोकोत्तमोत्तम २ - तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ होने से इसे लोकोत्तमोत्तम कहा गया है । मोक्ष में जीव की अवस्था : मुक्ति की अवस्था जरा - मरण से रहित, व्याधि से रहित, शरीर से रहित, अत्यन्त दुःखाभावरूप, निरतिशय सुखरूप, 'शांन्त, क्षेमकर, शिवरूप, घनरूप, वृद्धि - ह्रास से रहित, अविनश्वर, ज्ञानरूप, दर्शनरूप ( सामान्यबोध ), पुनर्जन्मरहित तथा एकान्त अधिष्ठानरूप है | 3 इस मुक्तावस्था को प्राप्त आत्मा स्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेने के कारण परमात्मा बन जाती है । आत्मा और परमात्मा में भेद मिट जाता है । दोनों समान स्थितिवाले होकरके पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं, अद्वैत वेदान्त की तरह एकरूप नहीं हो जाते हैं । ज्ञान और दर्शनरूप चेतना जो कि जीव का स्वरूप है उसका अभाव नहीं होता है क्योंकि ऐसा होने पर जीवपने का ही अभाव हो जाएगा और सत् द्रव्य का भी विनाश होने लगेगा | अतः इस ९. वही ; उ० २६.३. २. लोगुत्तमुत्तमं ठाणं । - उ० ६.५८. तथा देखिए- उ० २०.५२. ३. अरुविण जीवघणा नाणदंसणसन्निया । अउलं सुहंसंवत्ता उवमा जस्स नत्थि उ ॥ तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंत करे । - उ० २६.२८. एत अहिडिओ भवं । — • ३६.६६ - उ० ६.४. तथा देखिए - उ० २६.४१, ५८, पृ० ३७७, पा० टि० ३. For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [३७६ अवस्था को शुद्ध ज्ञान एवं दर्शनरूप कहा गया है। यहाँ 'दर्शन' का अर्थ 'श्रद्धा' नहीं है जैसाकि याकोबी ने अपने अनुवाद में लिखा है।' अपितु दर्शनावरणीय कर्म के अभाव से प्रकट होनेवाला सामान्यबोधरूप आत्मा का स्वाभाविक गुण है। 'श्रद्धा' दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाला गुण है जो मोहाभावरूप है। कर्मों का पूर्ण अभाव हो जाने से तज्जन्य शरीर, जरा-व्याधि, रूप, दु:ख, वृद्धि-ह्रास आदि कुछ भी नहीं रहता है क्योंकि ये सब कर्मों के सम्पर्क से होते हैं। भौतिकशरीर एवं रूपादि के न होने पर भी जीव का अभाव नहीं हो जाता है । अतः उसे घनरूप कहा गया है। घनरूप कहने का तात्पर्य यह है कि मोक्ष अभावरूप नहीं है अपितु भावात्मक है। मुक्त होने के पूर्व जीव जिस शरीर से युक्त होता है उस शरीर का जितना आकार (ऊंचाई एवं चौड़ाई) होता है उससे तृतीयभाग न्यून (ऊँचाई आदि का) विस्तार (अवगाहना) सभी मुक्त जीवों का होता है क्योंकि शरीर न होने से मुक्तावस्था में नासिका आदि के छिद्रभाग घनरूप हो जाते हैं। शरीर-प्रमाण-जीव के स्वरूप के प्रसंग में बतलाया गया था कि जीव जैसा शरीर का आकार प्राप्त करता है उसी के अनुसार संकोच एवं विस्तार को प्राप्त कर लेता है। अत: यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि तब तो मुक्त जीवों के कोई शरीर न होने से आत्मप्रदेशों को या तो सघन होकर अणुरूप हो जाना चाहिए या सर्वत्र फैल जाना चाहिए, फिर क्या कारण है कि मुक्तात्माओं . का विस्तार पूर्वजन्म के शरीर की अपेक्षा तृतीयभाग न्यून बतलाया गया है ? इसका कारण यह है कि संसारावस्था में जीव को शरीर-प्रमाण माना गया है, न अणुरूप और न व्यापक । अतः आवश्यक हो जाता है कि मुक्तावस्था में भी जीव को सर्वथा अणरूप या व्यापक न मानकर कुछ विस्तारवाला माना जाए। १. उ० ३६.६६-६७ (से० बु० ई०, भाग-४५). २. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ । तिभागहीणो तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ -उ० ३६.६४. For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन आत्मा में जो संकोच विकास माना गया है वह कर्मजन्य शरीर के फलस्वरूप माना गया है । मुक्तात्माओं के शरीर न होने से तज्जन्य संकोच - विकास का होना भी संभव नहीं है । अतः मुक्तात्माओं की आकृति ( अवगाहना ) आदि की कल्पना अन्तिम जन्म के शरीर के आधार पर की गई है । यद्यपि ये मुक्त जीव रूपादि से रहित होते हैं तथापि जो यह आत्मप्रदेशों के विस्तार की कल्पना की गई है वह आकाशप्रदेश में ठहरे हुए आत्मा के अदृश्य प्रदेशों की अपेक्षा से है । अमूर्त होने से एक आत्मा के प्रदेशों में अन्य आत्मा के प्रदेश भी रह सकते हैं । सुख - 'कर्म' के प्रकरण में बतलाया गया था कि सुख एवं दुःख का अनुभव अपने संचित वेदनीय कर्मों के अनुसार होता है । अतः शंका होती है कि जब ये मुक्तात्माएं कर्मरहित हैं तो फिर उन्हें सुख का अनुभव कैसे होता है ? सुख और दुःख के कर्मजन्य होने से कर्मरहित मुक्तात्माओं में दुःखाभाव की तरह सुख का भी अभाव मानना चाहिए । इसके उत्तर में यह कहना पर्याप्त है कि मुक्तात्माओं में जो सुख की कल्पना की गई है वह अलौकिक सुख है, न कि वेदनीय कर्मजन्य सांसारिक सुख । अतः ग्रन्थ में इस सुख को अनुपमेय सुख कहा गया है ।" मुक्तात्माओं के शरीर एवं इन्द्रियादि न होने से उनका सुख कर्मजन्य नहीं हो सकता है। आत्मा का स्वभाव सुखरूप मानने से तथा मानव की प्रवृत्ति सुखप्राप्ति की ओर होने से मोक्षावस्था में अविनश्वर एवं अनुपमेय सुख की कल्पना की गई है । यहाँ पर वस्तुतः सब प्रकार का दुःखाभाव ही अलौकिक सुखानुभव है क्योंकि जीव अपनी-अपनी अनुभूति के अनुसार ही सुख एवं दुःख की कल्पना करता है । जहाँ कोई इच्छा ही नहीं वहाँ दु:ख कहाँ ? जहाँ किसी विषय की इच्छा है वहीं दुःख है और जहाँ पूर्णता है वहाँ मानो तो अलौकिक सुख है और न मानो तो सुख एवं दुःख कुछ भी नहीं है । यह मुक्ति पूर्ण निष्काम की अवस्था है । दुःखाभाव होने से तथा जीव का स्वरूप सुखस्वभाव मानने से यहाँ अलौकिक सुख की कल्पना की गई है । १. देखिए - पृ० ३७७, पा० टि० ३-४. For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [ ३८१ मुक्तात्माओं में चेतना के वर्तमान रहने से उनकी दुःखाभाव एवं सुखाभावरूप पाषाणवत् स्थिति नहीं कही जा सकती है। अतः इन्हें शान्त, शिवरूप एवं सुख की अवस्थावाला कहा गया है। इस अवस्था का कभी भी न तो विनाश होता है और न परिवर्तन । अतः इस अवस्था को अविनश्वर कहा गया है। अविन श्वर होने पर भी स्वाभाविकरूप से द्रव्य में होनेवाला उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यरूप परिणमन तो होता ही रहता है क्योंकि यह तो द्रव्य का स्वभाव है जो प्रत्येक द्रव्य में होता है, परन्तु वृद्धि-ह्रासरूप असमानाकार परिणमन नहीं होता है। मुक्तों के ३१ गुण : ग्रन्थ के चरणविधि नामक इकतीसवें अध्ययन में सिद्ध जीवों के ३१ अतिशय गुण बतलाए गए हैं। परन्तु वहाँ उनके नामों को नहीं गिनाया गया है। टीका-ग्रन्थों में दो प्रकार से इनकी संख्या गिनाई गई है जिन्हें देखने से प्रतीत होता है कि ये सभी गुण अभावात्मक हैं। मुक्त जीव सब प्रकार के कर्मों तथा रूपादि से रहित होते हैं। अतः प्रथम प्रकार में अमूर्तत्व की अपेक्षा से तथा द्वितीय प्रकार में कर्माभाव की अपेक्षा से मुक्त जीवों के गुणों की गणना की गई है। इन दोनों प्रकारों में कोई खास अन्तर नहीं है क्योंकि मुक्त जीव सब प्रकार के कर्मों से तथा रूपादि से रहित होते हैं। कर्मादि से रहित होने के कारण उनके पुनर्जन्म आदि का भी प्रश्न नहीं उठता है। १. सिद्धाइगुणजोगेसु ........ । - उ० ३१.२०. २. सिद्धों के ३१ गुणों के दो प्रकार ये हैं : प्रथम प्रकार-पांच संस्थानाभाव, पांच वर्णाभाव, दो गन्धाभाव, पांच रसाभाव, आठ स्पर्शाभाव, तीन वेदाभाव (पुरुष, स्त्री और नपुंसकलिंग से रहित), अकायत्व, असंगत्व तथा अजन्मत्वरूप । द्वितीय प्रकार -पाँच ज्ञानावरणीय, नव दर्शनावरणीय, दो वेदनीय, दो मोहनीय, चार आयु, दो गोत्र, दो नाम तथा पांच अन्तराय कर्माभावरूप। -वही, टीकाएँ। For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] सादिमुक्तता : ऐसा कोई भी काल न था, न है और न होगा जब जीव मोक्ष प्राप्त न करते हों । इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित है कि कोई भी जीव अनादिमुक्त नहीं है क्योंकि मुक्तावस्था के पूर्व संसारावस्था अवश्य स्वीकार की गई है । ग्रन्थ में इसीलिए मुक्त tai को उत्पत्ति की अपेक्षा से 'सादि' तथा इस अवस्था का कभी भी विनाश न होने से 'अनन्त' कहा है।' समुदाय की अपेक्षा से मुक्त जीवों की उत्पत्ति जो अनादि कही गई है उसका यह तात्पर्य नहीं है कि कुछ ऐसे भी जीव हैं जो कभी भी संसारी न रहे हों। इसका सिर्फ इतना ही तात्पर्य है कि बहुत से मुक्त जीव ऐसे भी हैं जिनकी उत्पत्ति का प्रारम्भिक काल नहीं बतलाया जा सकता है । इस अनादि काल में मुक्त जीव कब नहीं थे यह बतलाना मानव की कल्पना के परे होने से उन्हें अनादि कहा गया है, परन्तु वे सब किसी समय विशेष में ही मुक्त हुए हैं क्योंकि अनादि मुक्त मानने पर सृष्टिकर्ता ईश्वर की भी कल्पना करनी पड़ती जो अभीष्ट नहीं है । इसके अतिरिक्त मुक्त जीवों को सर्वथा अनादि मानने पर स्वयं के उत्थान एवं पतन में व्यक्ति के स्वातन्त्र्य का सिद्धान्त पुष्ट नहीं होगा । मुक्तात्माओं का निवास : उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन मुक्तात्माओं का निवास लोक के उपरितमभाग में माना गया है । यह लोकाग्रवर्ती 'सिद्ध शिला' के नाम से प्रसिद्ध है | 3 जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला है और यह ऊर्ध्वगमन लोकान्त तक ही सम्भव हो सकता है क्योंकि अलोक में गति आदि में सहायक धर्मादि द्रव्यों का सद्भाव स्वीकार नहीं किया गया है । यद्यपि मुक्तात्माएँ सर्वशक्तिसम्पन्न होने से गति में सहायक धर्मादि द्रव्यों का अभाव होने पर भी अलोक में जा सकती हैं परन्तु उन्हें कोई १. एगतेण साइया पुहुत्ते अणाइया । -उ० ३६.६६. २ . वही । ३. देखिए - पृ० ५६, पा० टि० ३; पृ० ५७, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [ ३८३ अभिलाषा न होने से वे लोक की सीमा का उल्लंघन नहीं करती हैं। ये मुक्तात्माएँ वहीं पर स्थित होकर लोकालोक को जानती हैं। ऐसी व्यवस्था न मानने पर मुक्तात्माएँ ऊर्ध्वगमनस्वभाव होने के कारण अविराम आगे बढ़ती चली जातीं और एक क्षण पश्चात् मुक्त हुई आत्मा पूर्ववर्ती मुक्तात्माओं से हमेशा पीछे रहती। अतः लोकाग्रभाग में ही मुक्तात्माओं का निवास माना गया है। मुक्ति किसे, कब और कहाँ से ? ___ ग्रन्थ में मुक्ति का द्वार के लिए जीवों सभी क्षेत्रों में तथा सभी कालों में खुला हुआ है। एक समय में अधिक से अधिक जीव कितनी संख्या में एक साथ मुक्त हो सकते हैं, इस विषय में ग्रन्थ में निम्नोक्त प्रकार के संकेत मिलते हैं : १ मुक्त होनेवाले जीव अधिकतम मुक्त होनेवाले जीव अधिकतम संख्या संख्या १०८ शरीर की सबसे कम अवस्त्री २० गाहना वाले नपुंसक १० मध्यम अवगाहना वाले १०८ जैन साधु (स्व-लिंगी) १०८ ऊर्ध्वलोक से ४ जनेतर साधु (अन्य-लिंगी) १० मध्यलोक (तिर्यक्लोक) से १०८ गृहस्थ ४ अधोलोक से शरीर की सर्वाधिक अवगा- नदी आदि जलाशयों से ३ हना (ऊँचाई) वाले २ समुद्र से - इन आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि मुक्त होने की सर्वाधिक योग्यता मध्यलोकवर्ती मध्यम शरीर की अवगाहना वाले पुरुष-लिङ्गी जैन साधु में है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि वीतरागता की पूर्णता जिस जीव को जिस स्थान में जिस प्रकार के छोटे-बड़े शरीर के वर्तमान रहने पर हो जाए वह उसी स्थान से और उसी शरीर से मुक्त हो सकता है। यहाँ पर १. उ०३६.४६-५४. २० For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन देव, नरक एवं तिर्यञ्च गति से मक्त होने वाले जीवों की संख्या का विशेषरूप से उल्लेख न करके सामान्य रूप से पुरुष, स्त्री व नपुंसक लिङ्गी का उल्लेख किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि मनुष्यगति का जीव ही सीधा मुक्त हो सकता है, अन्य देवादि गतिवाले जीव मनुष्यपर्याय-प्राप्ति के बाद ही मुक्त हो सकते हैं। इसीलिए सर्वार्थसिद्धि वाले देव को भी मनुष्यपर्याय की प्राप्ति के बाद ही मुक्ति का अधिकारी बतलाया है । ऊर्ध्व लोक एवं अधोलोक . से मुक्त की संख्या का जो कथन किया गया है वह वहाँ पर वर्तमान मनुष्यगति के जीवों की स्थिति की अपेक्षा से ही है जो किसी कारणवश वहाँ पहुँच गए हैं । इस तरह मनुष्य को ही साक्षात् मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी बतलाया गया है। यद्यपि अन्य गति के जीव भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं परन्तु इसके लिए उन्हें पहले मनुष्यगति में आना पड़ेगा। दिगम्बर-परम्परा में सिर्फ मनुष्यगति की पुरुषजाति को ही इसका साक्षात् अधिकारी बतलाया गया है, स्त्री एवं नपुंसकलिङ्गी को नहीं।' ___ गृहस्थ एवं जैनेतर साधु को जो मुक्ति का अधिकारी बतलाया गया है वह बाह्य उपाधि की अपेक्षा से है क्योंकि भावात्मना तो सभी को पूर्ण वीतरागी होना आवश्यक है। गृहस्थ और जैनेतर साधुओं में विरले ही कोई जीव होते हैं जो मुक्ति को प्राप्त करते हैं। अतः एक समय में अधिक से अधिक मुक्त होने वाले ऐसे जीवों की संख्या जैन साधुओं की अपेक्षा कम बतलाई गई है। यहाँ पर एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वाले जीवों की जो संख्या बतलाई गई है वह इस अर्थ में है कि यदि एक ही काल में जीव अधिक से अधिक संख्या में सिद्ध हों तो १०८ ही हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। कम से कम कितने सिद्ध होंगे इस विषय में कोई संख्या नियत नहीं है। अतः सम्भव है कि किसी समय एक भी जीव सिद्ध न हो, जैसा कि जैन-ग्रन्थों में माना गया है। १. भुङ क्ते न केवली न स्त्रीमोक्षमेति दिगम्बरः । प्राहुरेषामयं भेदो महान श्वेताम्बरैः सह ॥ -जिनदत्तसूरि, उद्धत, भा० द० ब०, पृ० ११६. २. त० सू०, पं० कैलाशचन्द्रकृत टीका, पृ० २३८. For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८५ प्रकरण ६ : मुक्ति इनकी संख्या इतनी ही निश्चित क्यों की गई है इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता है परन्तु जैनधर्म में १०८ की संख्या धार्मिक क्रियाओं में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । मुक्त जीवों की एकरूपता : मुक्त जीवों में किसी प्रकार का भेद नहीं है क्योंकि सभी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सकलकर्मों के बन्धन से रहित, अशरीरी तथा अनुपमेय सुखादि से युक्त हैं, फिर भी ग्रन्थ में मुक्त जीवों के जो अनेक भेदों का उल्लेख किया गया है वह अन्तिम जन्म की उपाधि की अपेक्षा से है । जैसे: पुरुष, स्त्री आदि की पर्याय से मुक्त होने वाले जीव । ' तत्त्वार्थ सूत्र में इस विषय में एक सूत्र है जिसमें बतलाया है कि सिद्धों में किंकृत भेद सम्भव है। वास्तव में सिद्ध जीवों के अशरीरी होने से पुरुष, स्त्री, नपुंसक आदि का भेद नहीं है । जीवन्मुक्ति : ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति की सत्ता को स्वीकार किया गया है । जीवन्मुक्ति का अर्थ है - जो अभी पूर्ण मुक्त तो नहीं हुए हैं परन्तु शीघ्र ही नियम से मुक्त होने वाले हैं अर्थात् संसार में रहते हुए भी जिनका संसार भ्रमण रुक गया है और जो सशरीरी अवस्था में ही पूर्ण मुक्ति के द्वार पर खड़े हुए हैं । ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति को संसाररूपी समुद्र के तीर ( किनारा) की प्राप्ति तथा पूर्ण मुक्ति (विदेह - मुक्ति को 'पार' ( संसार - समुद्र के उस पार ) की प्राप्ति बतलाया गया है । " विदेहमुक्ति का वर्णन ऊपर किया जा चुका है । अब यहाँ ग्रन्थानुसार जीवन्मुक्ति का वर्णन किया जाएगा । - ग्रन्थ में जीवन्मुक्ति के तथ्य – जब केशिकुमार मुनि गौतम मुनि से पूछते हैं- 'संसार में बहुत से जीव पाशबद्ध दिखलाई देते हैं परन्तु तुम मुक्त पाश एवं लघुभूत होकर कैसे विचरण (विहार) करते हो ? तब गौतम मुनि केशिमुनि से कहते हैं- हे मुने! मैं उन सभी १. देखिए - पृ० ३८३. २. क्षेत्रकाल गतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येक बुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्यात्पबहुत्वतः साध्यः । - त० सू० १०.६. ३. उ० १०.३४; पृ० ३७६, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पाशों को छेद करके और उपायपूर्वक विनष्ट करके मुक्तपाश एवं लघुभूत होकर विहार करता हूँ।' केशिमुनि के द्वारा पुनः उन पाशों के विषय में पूछने पर गौतम मुनि कहते हैं-'अत्यन्त भयंकर राग द्वेषादिरूप स्नेहपाशों का विधिपूर्वक छेदन करके यथाक्रम से विहार करता हूँ।'' यहाँ पर संसार के सभी जीवों को पाशबद्ध न कहकर बहुत से जीवों को पाशबद्ध कहना तथा गौतम मुनि को 'मुक्तपाश' एवं 'लघभूत' कहना यह सिद्ध करता है कि संसार में कुछ ऐसे भी जीव हैं जो बन्धन से रहित ( पाशमुक्त ) हैं जिनमें एक गौतम मुनि भी हैं। अतः जो पाशमुक्त एवं कर्मरज के हट जाने से लघभत हैं वे सभी 'जीवन्मक्त' हैं। रागद्वेषवश विषयभोगों के प्रति की गई आसक्ति ( स्नेह या मोह ) ही पाश है और जो रागद्वेष से रहित होकर वीतरागी हैं वे सभी मक्तपाश हैं । ब्राह्मण का लक्षण बतलाते हुए ग्रन्थ में ब्राह्मण को 'प्राप्तनिर्वाण' ( जिसने निर्वाण को प्राप्त कर लिया है ) कहा गया है। इससे भी ‘जीवन्मुक्त' का ग्रहण होता है। ___ इस तरह सिद्ध है कि ग्रन्थ में जीवन्मुक्तों की सत्ता में विश्वास है। ये जीवन्मक्त जल से भिन्न कमल की तरह संसार में रहकरके भी उससे अलिप्त रहते हैं। ये जीवन्मक्त जीव ही प्राणिमात्र के लिए हितोपदेष्टा हैं क्योंकि विदेहम क्त ( सिद्ध ) जीवों की संसार में स्थिति न होने से तथा सभी प्रकार की इच्छाओं से रहित होने से वे हितोपदेष्टा नहीं होते हैं अपितु वे अपने पहले किए गए शुभ-कार्यों से ही जीवों के पथ-प्रदर्शक होते हैं । इस तरह प्राणिमात्र के कल्याण के लिए हितोपदेश देने के कारण जीवन्मक्तों को जैनग्रन्थों में सिद्धों की अपेक्षा पहले नमस्कार किया जाता है । १. दीसंति बहवे लोए पासबद्धा सरीरिणो..... " मुक्कपासो लहब्भूओ॥ -उ० २३.४०, तथा देखिए-उ० २३.४१-४३. २. सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं । -उ० २५.२२. ३. णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व-साहूणं ॥ १।। -षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृ० ६. For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८७ प्रकरण ६ : मुक्ति जीवन्मुक्तों के प्रकार-ग्रन्थ में उन सभी जीवों को जीवन्मुक्त कहा गया है जो मुक्ति के पथ की ओर अग्रसर हो चुके हैं। ये जीवन्मुक्त दो प्रकार के हो सकते हैं : १. जो जीवन्मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं और २. जो पूर्ण जीवन्मुक्त हो चुके हैं। __ पहले प्रकार के जीवन्मुक्त वे हैं जो अभी पूर्ण जीवन्मुक्त तो नहीं हुए हैं परन्तु मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं। इन्हें ग्रन्थ में अल्पसंसारी (परीतसंसारी-अल्प-पाशबद्ध) कहा गया है।' ये या तो इसी भव में या कुछ जन्मों के बाद अवश्य ही मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार ये वास्तव में पूर्ण जीवन्मुक्त तो नहीं हैं फिर भी जीवनमुक्ति के निकट होने से इन्हें उपचार से जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। इस श्रेणी में वे सभी जीव आते हैं जो पहले बतलायी गई 'क्षपकश्रेणी' का आश्रयण करके मक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं। इस क्षपकश्रेणी का अर्थ है-जो कर्मों को सदा के लिये नष्ट करता हुआ आगे बढता है। अतः इस श्रेणी को ग्रन्थ में 'अकलेवरश्रेणी' ( शरीररहित श्रेणी ), 'ऋजुश्रेणी' ( सीधी श्रेणी ) और 'करणगुणश्रेणी' (ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति की श्रेणी) कहा गया है। २ इसका आश्रय लेनेवाला जीव शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । अतः द्रुमपत्रक अध्ययन में गौतम को लक्ष्य करके कहा गया है कि 'हे गौतम ! अकलेवरश्रेणी को उच्च करता हुआ क्षेमकर, शिवरूप अनुत्तर सिद्धलोक को प्राप्त कर । इसमें क्षणमात्र का भी विलम्ब मत कर।'3 दूसरे प्रकार के जीवन्मुक्त वे हैं जिन्होंने चारों प्रकार के घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षया वादावर्हन्नमस्कारः क्रियते। -षट् खण्डागम, धवलाटीका, पृ० ५३-५४. १. ते होंति परित्तसंसारी। -उ०३६.२६१. २. अकलेवरसेणि भूसिया। -उ० १०.३५. तथा देखिए-पृ० २३३, पा० टि० १. ३. वही; उ० १०.३५ For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन लिया है तथा इसी भव में पूर्ण मुक्त होने वाले हैं। ये 'केवली' या 'जिन' कहलाते हैं । यह उपाधि (डिग्री ) प्राप्त करने वाले स्नातक छात्र की तरह मुक्ति को प्राप्त करनेवाले स्नातक केवली की अवस्था है। ग्रन्थ में जीवन्मुक्तों के लिए 'स्नातक' शब्द का प्रयोग भी किया गया है।' ये जीवन्मक्त जीव संसार में रहकरके अवशिष्ट आयुकर्म का उपभोग करते हुए आकाश में स्थित सूर्य की तरह केवलज्ञान से सुशोभित होते हैं। इसके बाद आयु के पूर्ण होने पर अवशिष्ट सभी अघातिया कर्मों को एक साथ नष्ट करके नियम से उसी भव में पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। इन जीवन्मक्तों की ग्रन्थ में दो अवस्थाएँ मिलती हैं : १. सयोगकेवली-मन, वचन एवं काय की क्रिया से युक्त तथा २. अयोगकेवली-मन, वचन एवं काय की क्रिया से रहित । इन दोनों प्रकार के जीवन्मुक्तों में 'सयोगकेवली' ही हितोपदेशादि से प्राणिमात्र का कल्याण करते हैं क्योंकि वे मन, वचन एवं काय की क्रिया से युक्त होते हैं। मन-वचन-काय की क्रिया से रहित 'अयोगकेवली' की अवस्था विदेहमक्त (सिद्ध) की तरह ही होती है। ये कुछ ही क्षणों में शरीर को छोड़कर अनुत्तर सिद्ध लोक ( मोक्ष ) को प्राप्त करके पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। ___इस तरह ग्रन्थ में मुक्ति के दो रूप देखने को मिलते हैं : १. जीवन्मुक्ति तथा २. विदेहमुक्ति । जीवन्मुक्ति विदेहमुक्ति की पूर्वावस्था है तथा विदेहमुक्ति पूर्ण निश्चल चरमावस्था है। ग्रन्थ का प्रधान लक्ष्य जीवों को मुक्ति की ओर अभिमुख करना है। ঋন্তহীন इस प्रकरण में उत्तराध्ययन के प्रधान लक्ष्य 'मुक्ति' का वर्णन किया गया है। इसकी प्राप्ति के लिए श्रद्धा, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय की साधना की आवश्यकता पड़ती है। चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शनों का भी प्रधान लक्ष्य जीवों को १. जेहिं होइ सिणायओ। -उ०२५.३४. २. अणु त्तरे नाणधरे जसंसी ओभासइ सूरि एवं तलिक्खे ॥ -उ० २१.२३. ३. उ० २६.७१-७३. For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ६ : मुक्ति [३८६ मुक्ति की ओर ले जाना है। परन्तु मुक्त जीवों की क्या अवस्था होती है ? मक्ति की प्राप्ति कैसे होती है ? आदि विषयों में मतभेद होते हुए भी मूल उद्देश्य में समानता है। वह मूल उद्देश्य है-जीवों को दुःख से छुटकारा दिलाना। प्रकृत ग्रन्थ में इस मुक्ति की दो अवस्थाएँ मिलती हैं : १. जीवन्मुक्ति तथा २. विदेहमुक्ति। जीवन्मुक्ति विदेहमुक्ति की पूर्वावस्था है। जीवन्मुक्ति संसार में वर्तमान रहने पर ही होती है और विदेहमुक्ति संसार से परे मृत्यु के उपरान्त होती है। जीवन्मक्ति के बाद विदेहम क्ति अवश्यम्भावी है। जीवन्मुक्त तथा विदेहमुक्त दोनों ही संसार में पुनः कभी भी जन्म नहीं लेते हैं। जीवन्मुक्तों को निष्क्रिय कुछ अघातिया कर्मों का फल भोगने के लिए कुछ समय तक संसार में रुकना पड़ता है परन्तु विदेहमक्त सब प्रकार के बन्धन से रहित होने के कारण लोकान्त में स्थिर रहते हैं। विदेहमक्त जीवों से मानव का साक्षात कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। उनकी स्थिति स्वान्तःसुखाय होती है जो ‘मानव की अल्पबुद्धि के परे है। विदेहमुक्त जीवों में सुख की कल्पना करीब-करीब उसी प्रकार की गई है जिस प्रकार गहरी निद्रा में सोए हुए व्यक्ति को जागने पर होने वाली सखानुभति । यहाँ मख्य अन्तर इतना है कि मक्तों की सखानुभति . जाग्रतावस्था की है तथा अविनश्वर है जबकि सोए हुए व्यक्ति की सुखानुभूति सुषुप्ति अवस्था की है तथा क्षणिक है। - शरीर को कर्मजन्य स्वीकार करने के कारण विदेहमुक्त जीवों को 'अशरीरी' माना गया है। जीव ( आत्मा ) का स्वभाव ज्ञान और दर्शनरूप होने से मुक्त जीवों को ज्ञान एवं दर्शनरूप चेतना गुणवाला स्वीकार किया गया है। इन मुक्त जीवों के ज्ञान, दर्शन, सुख आदि सभी अलौकिक ही हैं क्योंकि उनके ज्ञानादि शरीर और इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही होते हैं। इस तरह विदेहमुक्तों की यह अवस्था ज्ञान, दर्शन एवं सुखादि से युक्त होकरके भी भावात्मक ही है । बौद्धों की तरह अभावात्मक, नैयायिकों की तरह . मात्र दुःखाभावरूप तथा वेदान्तियों की तरह ब्रह्मैक्यरूप नहीं For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है। यह अवस्था करीब-करीब सांख्यदर्शन के मुक्तपुरुष की तरह है जो अचेतन ( प्रकृति ) के प्रभाव से सर्वथा रहित है।' ___ जीवन्मुक्तों को व्यवहार की दृष्टि से मुक्त कहा गया है क्योंकि वे अभी पूर्ण मुक्त नहीं है परन्तु शीघ्र ही नियम से मुक्ति प्राप्त करने वाले हैं। मानव का कल्याण तथा विश्वबन्धुत्व की भावना का प्रसार इन्हीं के द्वारा सम्भव है। ये संसार में रहने वाले आप्तपुरुष ( महापुरुष ) हैं। जीव के स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों के प्रतिबन्धक सभी घातिया कर्मों को नष्ट कर देने के कारण इनकी मुक्ति अवश्यंभावी है । अतः अघातिया ( निष्क्रिय ) कर्मों का सद्भाव रहने पर भी इन्हें जीवन्मुक्त कहा गया है। केवलज्ञान से युक्त ( सर्वज्ञ ) होने के कारण इन्हें 'केवली' कहा गया है। ये जीवन्मुक्त सयोगी और अयोगी के भेद से दो प्रकार के हैं। जब तक ये मन, वचन एवं काय की क्रिया से युक्त रहते हैं तब तक 'सयोगी' तथा मन, वचन एवं काय की क्रिया से रहित हो जाने पर 'अयोगी' कहलाते हैं। अयोगकेवली की स्थिति विदेहमुक्तों की तरह ही है क्योंकि वे भी विदेहमुक्तों की तरह मन-वचन-काय की क्रिया से रहित हैं । यद्यपि ग्रन्थ में सामान्य साधुओं के लिए भी जीवन्मुक्त का व्यवहार हुआ है परन्तु यह कथन मुक्ति के मार्ग में प्रवेश करलेने के कारण व्यवहार की अपेक्षा से है। अत: सभी साधु जीवन्मुक्त नहीं हैं अपितु जिन्होंने समस्त मोहनीय कर्म का समूल विनाश कर दिया है और जो सर्वज्ञ हो चुके हैं वे ही वास्तव में जीवन्मुक्त हैं। इस तरह ग्रन्थ में मुक्ति की जो अवस्था चित्रित की गई है वह एक अलौकिक अवस्था है। वहां न तो स्वामी-सेवकभाव है और न कोई इच्छा। इसे प्राप्त कर लेने पर जीव कभी भी संसार में वापिस नहीं आता है । वह कर्मबन्धन से पूर्ण मुक्त हो जाता है । यह आत्मा के निर्लिप्त स्व-स्वरूप की स्थिति है । यहाँ सब प्रकार के सांसारिक बन्धनों का हमेशा के लिए अभाव हो जाने के कारण इसे मुक्ति कहा गया है । १. देखिए-सांख्यकारिका, ६५. For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ समाज और संस्कृति कोई भी साहित्य तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक आदि विविध परिस्थितियों से प्रभावित हए बिना नहीं रह सकता। अतः साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। उत्तराध्ययन, जिसमें प्रधानरूप से धर्म और दर्शन का ही प्रतिपादन किया गया है उसमें भी जैन श्रमण ( साधु )संस्कृति के क्रमिक-विकास के साथ सामाजिक जीवन का भी प्रभाव परिलक्षित होता है जो भारतीय इतिहास की दष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अतः उत्तराध्ययन को केवल शुष्क धर्म और दर्शन का ही प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इसमें निहित संकेतों के आधार से तत्कालीन सामाजिक चित्रण संक्षेप में निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है । वर्णाश्रम-व्यवस्था सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन में वर्ण और आश्रम-व्यवस्था का विशेष महत्त्व था। जो जिस जाति या वर्ण में पैदा होता था . वह उसी जाति व वर्णवाला कहलाता था। वर्ण और जाति पर आधारित समाज सांस्कृतिक दृष्टि से जीवन के चार आश्रमों में विभक्त था। इस तरह सम्पूर्ण समाज और संस्कृति वर्ण और आश्रम व्यवस्था पर निर्भर थी। जाति व वर्ण-व्यवस्था : उस समय आर्य और अनार्य के भेद से दो प्रमुख जातियां और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के भेद से चार वर्ण थे। वैदिक साहित्य के अनुसार आर्य विजेता तथा गौरवर्ण के थे परन्तु अनार्य For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । उनके अधीन तथा कृष्णवर्ण के थे। इस तरह इनमें शारीरिक रूप का भेद था। उत्तराध्ययन में भी ब्राह्मणों की कुछ इसी प्रकार की धारणा का संकेत मिलता है । अतः हरिकेशिबल मुनि को कुरूप देखकर वे उनका निरादर करते हैं। इस प्रकार की धारणा के विरोध में ग्रन्थ में सदाचारी को आर्य और सदाचार से हीन को अनार्य मानकर जैनधर्म को आर्यधर्म तथा हिंसादि में प्रवृत्त ब्राह्मणों को भी अनार्य कहा गया है। इसी प्रकार ब्राह्मणों के . जातिमद के विरोध में कर्मणा जातिवाद की स्थापना करते हुए कहा गया ' है-'कर्म से ब्राह्मण, कम से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही जीव शूद्र होता है। केवल सिर मुड़ाने से श्रमण, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मनि और कुश-चीवर धारण करने से तपस्वी नहीं होता है अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि तथा तप करने से तपस्वी होता है।४ इस तरह जन्मना जातिवाद व वर्णवाद के आधार पर हुए सामाजिक संगठन के विरोध में तथा कर्मणा जातिवाद व वर्णवाद के प्रचार में जैन तथा बौद्ध धर्मानुयायियों का मुख्य उद्देश्य रहा है। १. जै० भा० स०, पृ० २२१. २. कयरे आगच्छइ दित्तरूवे काले विकराले फोक्कनासे ।। -उ० १२.६. ओमचेलया पंसुपिसायभूया गच्छाक्खलाहि किमिहं ठिओ सि । -उ० १२.७. ३. उवहसंति अणारिया। -उ० १२.४. रमइ अज्जवयणम्मि तं वयं बूम माहणं । -उ० २५ २०. चारित्ता धम्ममारियं । -उ० १८.२५. ४. न दीसई जाइविसेस कोई । --उ० १२.३७. तथा देखिए-पृ० २४६, पा० टि० ३; पृ० २३८, पा० टि० ३. ५. सुत्तनिपात १.७.३.६; मजूमदार-कोरपोरेट लाइफ इन ऐंशियेन्ट इण्डिया, पृ० ३५४-३६३. For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [३६३ उत्तराध्ययन में ब्राह्मण आदि चारों वर्णों व कुछ प्रमुख जातियों की स्थिति का चित्रण इस प्रकार मिलता है : ब्राह्मण-सामान्य रूप से जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में ब्राह्मण को क्षत्रिय की अपेक्षा हीन बतलाया गया है। संभवतः इसीलिए सभी जैन तीर्थङ्करों को क्षत्रिय कुल में उत्पन्न बतलाया गया है । भगवान् महावीर जो कि पहले ब्राह्मणी के गर्भ में अवतरित हुए थे बाद में इन्द्र ने उन्हें क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में परिवर्तित कर दिया।' परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में ब्राह्मण को कहीं भी क्षत्रिय से निम्न श्रेणी का नहीं बतलाया गया है अपितु सर्वत्र ब्राह्मणों के प्रभुत्व को ही स्वीकार किया गया है। इसीलिए ग्रन्थ में ब्राह्मण को सदाचार-परायण, वेदविद् ज्योतिषाङ्गविद्, स्व-पर का कल्याणकर्ता तथा पुण्यक्षेत्री कहा गया है। यहाँ इतना विशेष है कि ग्रन्थ में सच्चे ब्राह्मण का लक्षण बतलाते हुए जैन साधु के सामान्य सदाचार को ही प्रकट किया गया है। जैसे :3 'जो पापरहित होने से संसार में अग्नि की तरह पूजनीय, श्रेष्ठ पुरुषों ( कुशलों ) द्वारा प्रशंसित, स्वजनों में आसक्ति से रहित, ... प्रव्रज्या लेकर शोक न करने वाला, आर्यवचनों में रमण करने १. जै० भा० स०, पृ० २२४, २. जे य वेयविऊ विप्पा जन्नट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य जे य धम्माण पारगा॥ जे समत्था समुद्धत्तं परमप्पाणमेव य ।। तेसि अन्नमिणं देयं भो भिक्खू सव्वकामियं ॥ -उ० २५.७-८. जे माहणा जाइ विज्जोववेया ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई। -उ० १२.१३. तथा देखिए-उ० १२.१४-१५; २५.३५,३८. ३. जहित्ता पुव्वसंजोग नाइसंगे य बंधवे । जो न सज्जइ भोगेसु तं वयं बूम माहणं ।। ___-उ० २५.२६. तथा देखिए-उ० २५.१६-२८,३४. For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन वाला, कालिमा से रहित स्वर्ण की तरह राग-द्वेष व भय आदि दोषों से रहित, तपस्वी, कृश, दमितेन्द्रिय, सदाचारी, निर्वाणाभिमुख, मन-वचन काय से त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा से रहित, क्रोधादि के वशीभूत होकर मिथ्या वचन न बोलने वाला, सचित्त अथवा अचित्त वस्तु को थोड़ी अथवा अधिक मात्रा में बिना दिए ग्रहण न करने वाला, मन-वचन-काय से किसी भी प्रकार के मैथुन का सेवन न करने वाला, जल में उत्पन्न होकर भी जल से भिन्न कमल की तरह कामभोगों ( धनादि के परिग्रह ) में अलिप्त, लोलुपता से रहित, मुधाजीवी (भिक्षान्न जीवी), अनगार, अकिंचन वत्तिवाला, गहस्थों में असंसक्त, सब प्रकार के संयोगों ( माता-पिता आदि के सम्बन्धों) से रहित तथा सब प्रकार के कर्मों से मुक्त ( जीवन्मुक्त) है वह ब्राह्मण है।' इस तरह सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप बतलाते हुए जैन साध के सामान्य सदाचार को प्रकट किया गया है। इससे स्पष्ट है कि उस समय ब्राह्मणों का प्रभुत्व था तथा वे जनता में पूज्य भी थे परन्तु वे अपने कर्त्तव्य से पतित हो रहे थे। इसीलिए सदाचार-परायण व्यक्ति को ब्राह्मण कहा गया है। ग्रन्थ में ब्राह्मण के लिए 'माहण' शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है-'मत मारो'।' ब्राह्मण के पास जो भी धन होता था वह राजा आदि के द्वारा दानदक्षिणा में दिया गया होता था। अतः उसके धन को ग्रहण करना वमन किए हुए पदार्थ को ग्रहण करने के तुल्य था ।२ ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों का उच्चकुलों में समावेश था । अतः ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने वाले इषकार देशवासी छः जीवों को उच्चकुलोत्पन्न कहा गया है। नमिराजर्षि के दीक्षित होने पर १. वही। २. वंतासी पुरिसो रायं न सो होइ पसंसिओ। महणेण परिच्चत्तं धणं आयाउमिच्छसि ।। -उ० १४.३८. तथा देखिए-उ० ६.३८. ३. सकम्मसेसेण पुराकएणं कुलेसुदग्गेसु य ते पसूया। -उ०१४.२. तथा देखिए-उ० १४.३० For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ३६५ विशाल जनसमुदाय निराश्रित होकर रोता है तथा इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके उनकी परीक्षा लेता है।' इससे भी ब्राह्मण व क्षत्रिय जाति की श्रेष्ठता का पता चलता है। यद्यपि यज्ञादि धार्मिक कार्यों का सम्पादन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा ही होता था परन्तु कुछ ब्राह्मण अपने कर्त्तव्य को भलकर तथा जाति का घमण्ड करके हिंसादि में प्रवत्ति करते थे। ऐसे ब्राह्मणों को ही अनार्य ब्राह्मण कहा गया है। ये अपने को उच्च तथा अन्य को निम्न समझते थे। इसके अतिरिक्त ये यज्ञों में पशूहिंसा का प्रतिपादन करते थे तथा जैन श्रमणों का यज्ञ-मण्डप में आने पर तिरस्कार करते थे।२ ऐसे अनार्य ब्राह्मणों को ग्रन्थ में वेदपाठी होने पर भी सम्यक अर्थ से हीन होने के कारण वेदवाणी का भारवाहक कहा गया है। क्षत्रिय - देश पर शासन करनेवाले क्षत्रिय ही होते थे। ग्रन्थ में ऐसे कितने ही क्षत्रिय राजा और राजकुमारों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने संसार के वैभव को त्यागकर तथा श्रमणदीक्षा लेकर मुक्ति को प्राप्त किया। इन्द्र-नमि संवाद में जैन साधु की कर्म-शत्रओं पर विजय का वर्णन करते हुए रूपक द्वारा क्षत्रिय की युद्ध -विजय का भी प्रतिपादन किया गया है। इससे क्षत्रियों के प्रभुत्व का तथा उनकी युद्धकला का पता चलता है। यहां बतलाया गया है कि एक क्षत्रिय राजा साधु बनकर किस प्रकार कर्मशत्रओं १. सक्को माहणरूवेणं इमं वयणमब्बवी । -उ० ६.६. तथा देखिए-इन्द्र-नमिसंवाद. २. के इत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खंडिएहिं । एयं खु दंडेण फलएण हंता कंठम्मि घेत्तृण खलेज्ज जो णं ।। -उ० १२.१८. तथा देखिए-पृ० ३६२, पा० टि० २-३; उ० १२.१६. ३. तुभेत्थ भो भारधरा गिराणं अट्ठ न जाणेह अहिज्ज वेए । -उ० १२.१५. ४. देखिए-परिशिष्ट २. For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन से युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हो ? जैसे : इस आध्यात्मिक संग्राम में श्रद्धा नगर है, तप-संवर अर्गला है, शान्ति प्राकार (कोट) है, तीन गुप्तियाँ शतघ्नी ( शस्त्र ) हैं, संयम में उद्योग धनुष है, ईर्या समिति प्रत्यञ्चा है, धैर्य केतन है, सत्य धनुष पर बाँधने की डोरी है, तप बाण है, श्रुतज्ञान की धारा कवच है, अवशीकृत आत्मा सबसे बड़ा शत्रु है, पाँच इन्द्रियों के विषयों के साथ क्रोधादि कषाय तथा नोकषाय आदि शत्रु की सेनाएँ हैं । इन पर विजय प्राप्त करना सुभट योद्धाओं की विजय से भी कठिन है । वशीकृत आत्मा के द्वारा इन्हें जीता जाता है । इसमें क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता तथा संयम से क्रमशः क्रोध, मान, माया, लोभ तथा इन्द्रियों के विषयों को जीता जाता है । इस तरह वशीकृत आत्मा के द्वारा अवशीकृत आत्मा पर विजय प्राप्त करना है। इसका फल कर्मग्रन्थि का भेदन करके परमसुख की प्राप्ति है । इस विजय के विषय में इन्द्र भी आश्चर्य प्रकट करता है । अतः यही सच्ची और सबसे बड़ी विजय है।' इस विवेचन से स्पष्ट है कि क्षत्रिय का मुख्य कार्य युद्ध करना एवं प्रजा की रक्षा करना था । ३ε६ ] वैश्य - ये प्राय: प्रचुर धन-सम्पत्ति के स्वामी होते थे तथा देशविदेश में व्यापार किया करते थे । व्यापार करने के कारण इन्हें 'वणिक्' कहा जाता था ।२ पालित वणिक् नाव द्वारा समुद्र के पार पिहुण्ड नगर को व्यापार करने जाता है और वहाँ पर किसी वणिक् १. अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो || अप्पदंती सुही होइ अस्सिं लोए परत्य य ।। - उ० १.१५. अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य ।। - उ० २३.३८. तथा देखिए - उ० ६.२०-२२, ३४-३६, ५६-५८ २३.३६; १.१६; २६.१७, ४६-४६, ६२-७० पृ० २६२, पा० टि०२; पृ०२८६, पा० टि० ४. २. चंपाए पालिए नाम सावए आसि वाणिए । - उ० २१.१. For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [३९७ द्वारा रूपवती कन्या के देने पर उसे लेकर अपने देश आ जाता है।' ये ७२ कलाओं का तथा नीतिशास्त्र आदि का भी अध्ययन करते थे।' ग्रन्थ में वणिक् को 'श्रावक' भी कहा गया है। इससे उनके जैन गृहस्थ होने का प्रमाण मिलता है। कुछ वणिक् जैन दीक्षा भी ले लेते थे। इस तरह इनका मुख्य कार्य व्यापार करना था तथा धनादि से सम्पन्न होने के कारण ये 'श्रेष्ठि' कहलाते थे। ग्रन्थ में 'बहुश्रुत' की प्रशंसा में नाना प्रकार के धन-धान्यादि से परिपूर्ण सामाजिकों ( धान्यपति ) के सुरक्षित कोष्ठागार की उपमा दी गई है।" इससे प्रतीत होता है कि ये लोग धनादि से सम्पन्न तो होते ही थे साथ ही समाज में विशिष्ट स्थान रखने से 'सामाजिक' भी कहलाते थे। अनाथी मुनि के पिता का नाम अत्यधिक धनसंचय करने के कारण 'प्रभूतधनसंचय' पड़ा था। ये अंगनाओं के साथ देवों के तुल्य सुखों का भोग भी किया करते थे। शूद्र-इनकी स्थिति बहुत ही सोचनीय थी। इनके साथ दासों की तरह व्यवहार किया जाता था। ये निम्न श्रेणी के कार्य किया करते १. पोएण बवहरते पिहुंड नगरमागए । तं ससत्तं पइगिज्झ सदेसमह पत्थिओ ।। -उ० २१.२-३. तथा देखिए-उ० ३५.१४. २. बावत्तरीकलाओ य सिक्खिए नीइकोविए । -उ० २१.६. ३. देखिए-पृ० ३९६, पा० टि० २. ४. देखिए-परिशिष्ट २. ५. जहा से सामाइयाणं कोट्ठागारे सुरक्खिए । नाणाधन्नपडिपुण्णे एवं हवइ बहुस्सुए ॥ -उ० ११.२६. ६. कोसंबी नाम नयरी"""पभूयधणसंचओ। -उ० २०.१८. ७. तस्स रूववइं भज्जं पिया आणे इ रूविणीं। पासाए कोलए रम्मे देवो दोगुंदगो जहा ॥ -उ० २१.७. For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन थे और इनका सर्वत्र निरादर ही होता था। कुछ शूद्र अपने गुणों के कारण उच्चपद को भी प्राप्त कर लेते थे। जैसे: चाण्डाल ( श्वपाक ) जाति में उत्पन्न हरिके शिबल ने जैनदीक्षा ग्रहण करके ऋद्धि आदि को प्राप्त किया था ।२ पूर्वभव में चाण्डाल कुलोत्पन्न चित्त और संभूत ने तपस्या करके देवलोक को प्राप्त किया था। हरिकेशिबल आदि कुछ शूद्र कुलोत्पन्न चाण्डाल भी तप के प्रभाव से अपना प्रभुत्व जमा लेते थे। परन्तु ऐसे लोग बहुत ही कम होते थे और इनका समादर प्रायः सर्वत्र नहीं होता था। विभिन्न जातियां एवं गोत्रादि-उपर्युक्त वर्ण-जातियों के अतिरिक्त उस समय अपने-अपने कार्यों के अनुसार अन्य अनेक उपजातियाँ भी थीं। जैसे : सारथि (रथ चलाने वाले), लोहकार (लुहार),५ बढ़ई (लकड़ी तरासने वाले ,६ गोपाल (गायों को पालने वाले), भण्डपाल (कोषाध्यक्ष ), भारवाहक (बोझा ढोने वाले ), १ तीसे य जाईइ उ पावियाए वुच्छासु सोवागनिवेसणेसु । सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा......" -उ० १३.१६.' तथा देखिए-उ० १३.१८. २. सोवागकुल संभूओ गुणुत्तरधरो मुणी । -उ० १२.१. ३. उ० १३.६-७. ४. अह सारही विचितेइ । -उ० २७.१५. तथा देखिए-उ० २२.१५,१७. ५. कुमारेहिं अयं पिव । ताडिओ कुटिट् ओ"। -उ० १६.६८. ६. वडुईहिं दुमो विव । -उ० १६.६७. ७. गोवालो भंडवालो वा जहा तद्दन्वणिस्सरो। -उ० २२.४६. ८. वही। ६. अबले जह भारवाहए। -उ० १०.३३. तथा देखिए- उ० २६.१२. For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ३६९ १ ५ चिकित्साचार्य ( रोगों का इलाज करने वाले ), ' नाविक ( नाव चलाने वाले) र सवार (घोड़े की सवारी करने वाले), 3 कर्षक ( खेती करनेवाले ) ४ तथा नाना प्रकार के शिल्पी ' आदि । कुछ वर्णसंकर जातियाँ भी थीं। वर्णसंकर जातियों में बुक्कुस और श्वपाक जातियों का उल्लेख मिलता है । 1 इन जातियों के अतिरिक्त गोत्रों में काश्यप गोतम, गग तथा वसिष्ठ गोत्र का; " कुलों में अगन्धन, भोग, गन्धन तथा प्रान्त ७ ૮ कुलों (सामान्य गरीबों के कुल - निम्न कुल ) का और वंशों इक्ष्वाकु तथा यादववंश का उल्लेख मिलता है । इस तरह उस समय सामाजिक संगठन वर्ण, जाति, गोत्र, कुल और वंश के आधार से कई भागों में विभक्त था । आश्रम व्यवस्था : वर्ण और जाति पर आधारित समाज में सांस्कृतिक संगठन की दृष्टि से आश्रम - व्यवस्था भी थी। जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के विकासक्रम के अनुसार इन्हें चार भागों में विभक्त किया गया १. विज्जामंततिगिच्छगा । - उ० २०.२२. २. जीवो वच्चइ नाविओ । -उ० २३.७३. ३. हयं भद्द व वाहए । —उ० १.३७. ४. सु बीयाइ ववंति कासगा । -उ०१२.१२. ५. माहणभोइय विविहाय सिप्पिणों । - उ० १५.६. ६. देखिए - पृ० ३६८, पा०टि० २; उ० ३.४; जै० भा०स०, पृ० २२३. ७. उ० अध्ययन २६ प्रारम्भिक गद्य; १८.२२; २२.५; २७.१; १४.२६. ८. उ० २२.४२, ४४; १५.६,१३. ६. उ० १८.३६; २२.२७. For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० 1 उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन था। जैसे : १. ब्रह्मचर्याश्रम, २. गृहस्थाश्रम, ३. वानप्रस्थाश्रम तथ ४. संन्यासाश्रम | १. ब्रह्मचर्याश्रम - यह जीवन की प्रारम्भिक अवस्था थी और यह अवस्था गार्हस्थजीवन में प्रवेश करने के पूर्व तक रहती थी । इसमें व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए मुख्यरूप से विद्या ध्ययन करता था । २. गृहस्थाश्रम - जब व्यक्ति विद्याध्ययन कर चुकता था तो वह ब्रह्मचर्याश्रम को छोड़कर गार्हस्थजीवन में प्रवेश करता था । ग्रन्थ में गृहस्थाश्रमी को 'घोराश्रमी' कहा गया है क्योंकि इस आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को चारों आश्रम वाले व्यक्तियों का भरण-पोषण आदि करना पड़ता था । इस तरह इस आश्रमस्थ व्यक्ति के ऊपर चारों आश्रमवाले व्यक्तियों का भार होने से यह बहुत कठिन था । इसका ठीक से पालन करना क्षत्रियों का ही काम था । इसीलिए: जब नमि राजर्षि गृहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यासाश्रम में प्रवेश लेने के लिए तत्पर होते हैं तो ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र गृहस्थाश्रम की कठोरता आदि का कथन करता हुआ इस गृहस्थाश्रम को न छोड़ने के लिए कहता है । ३. वानप्रस्थाश्रम–गृहस्थाश्रम के बांद व्यक्ति वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करता था । इसमें वह मुख्यरूप से संन्यासाश्रम में प्रवेश का अभ्यास करता था । ४. संन्यासाश्रम - इसमें व्यक्ति गार्हस्थजीवन से पूर्ण मुक्त होकर साधु बन जाता था और तपादि की साधना करता था । इस तरह उस समय की सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था वर्णाश्रम व्यवस्था पर निर्भर थी तथा प्रत्येक वर्ण और आश्रम वाले व्यक्तियों के कार्य भिन्न भिन्न थे । पारिवारिक जीवन उस समय समाज वर्णाश्रम के अतिरिक्त अनेक परिवारों ( कुटुम्बों) में विभक्त था । ये परिवार छोटे-बड़े सभी प्रकार के १. देखिए - १०२३५, पा० टि० ३. For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४०१ होते थे । सामान्यरूप से एक परिवार में माता-पिता, पुत्र एवं पुत्रवधुएँ रहा करती थीं। किसी-किसी परिवार में अन्य सम्बन्धीजन भी रहा करते थे । ' इन सभी परिवारों में मुख्यरूप से पुरुष शासक होता था और नारी शासित । परिवार के कुछ प्रमुख सदस्यों की स्थिति इस प्रकार थी : माता-पिता व पुत्र : 1 परिवार में माता-पिता का स्थान सर्वोपरि होता था । अतः दीक्षा लेते समय साधक को माता-पिता से आज्ञा लेनी आवश्यक होती थी । पिता सबका पालन-पोषण करता था । वृद्धावस्था के आने पर वह अपना भार पुत्र को सौंप देता था । अपने पुत्र की रक्षा के लिए वह सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहता था । २ माता के लिए भी पुत्र अत्यन्त प्रिय होता था । अतः जब पुत्र दीक्षा लेने लगता था तो माता-पिता बहुत दुःखी होते थे । ऐसे समय कभी-कभी पुत्र के साथ माता-पिता भी दीक्षा ले लेते थे । उनकी दृष्टि में पुत्र से ही घर की शोभा थी । भृगु पुरोहित के जब दोनों पुत्र दीक्षा लेने लगते हैं तो प्रथम वह उन्हें सांसारिक भोगों के प्रति प्रलोभित करता है परन्तु जब वे उसके प्रलोभन में नहीं आते हैं तो भृगु पुरोहित कहता है - 'जिस प्रकार वृक्ष अपनी शाखाओं से शोभा को प्राप्त करता है और शाखाओं के कट जाने पर शोभाहीन स्थाणु मात्र रह जाता है उसी प्रकार माता-पिता अपने पुत्रों से सुशोभित होते हैं और पुत्रों के अभाव में निस्सहाय हो जाते हैं । इसी तरह . जैसे पक्ष ( पंख ) से विहीन पक्षी, युद्धस्थल में सेना ( भृत्य ) से विहीन राजा, पोत ( जहाज - जिस पर माल लदा है ) के जल में डूबने से धनरहित वैश्य निस्सहाय हो जाते हैं उसी प्रकार मैं भी पुत्र १. माया पिया हुसा माया भज्जा पुत्ता य ओरसा । २. पिया मे सव्वसारंपि दिज्जाहि मम कारणा । ३. माया वि मे - उ० ६.३० "पुत्तसोग दुहट्टिया । -उ० २०.२४, - ३० २०.२५. For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन से विहीन निस्सहाय हूँ । अतः मेरा गृह में रहना उचित नहीं है। इसी प्रकार माता जब पुत्र व पति को दीक्षित होते देखती थी तो कभी-कभी वह स्वयं भी उनका अनुसरण करती थी क्योंकि स्त्री के लिए घर की शोभा पति और पुत्र से ही थी । भाई-बन्धु : प्रायः भाई-बन्धुओं में चिरस्थायी प्रेम होता था । चित्त और संभूत नाम के दो भाई पाँच जन्मों तक साथ-साथ पैदा होने के बाद छठे भाव में अपने-अपने कर्मों के विपाक से पृथक्-पृथक् जन्म लेते हैं । उनमें से जब एक भाई को 'जाति- स्मरण' ( पूर्व जन्म का ज्ञान ) से अपने पूर्वभव का ज्ञान होता है तो वह अपने दूसरे भाई की खोज के लिए प्रयत्न करता है तथा उसे भी अपने ही समान उच्च वैभव से युक्त करना चाहता है । 3 जयघोष मुनि अपने भाई विजयघोष के कल्याण के लिए उसे सदुपदेश देकर सन्मार्ग में स्थित करता है । इषुकार देश के छः जीव भी इसी प्रकार पूर्व - जन्म से सम्बन्धित रहते हैं । " नारी : नारी अपने कई रूपों में हमारे सामने आती है । जैसे : माता, पत्नी, बहिन, वधू, पुत्री, पुत्रवधू, वेश्या आदि । ग्रन्थों में नारी की १. पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो वासिद्धि भिक्खायरियाइ कालो । साहाहि रूक्खो लहइ समाहि छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं ॥ पंखाविणो व्व जह पक्खी भिच्चाविहूणो व्व रणे नरिदो । विविन्नसारो वणिओ व्व पोए पहीणपुत्तोमि तहा अहंपि ॥ - उ० १४.२६-३०. २. पति पुत्ताय पई य मज्झं ते हूं कहं नाणुगमिस्समेक्का । - उ० १४.३६. ३. आसिमो भायरा दोवि अन्नमन्नवसाणुगा । तथा देखिए- परिशिष्ट २. ४. उ० अध्ययन २५. ५. उ० अध्ययन. १४. - उ० १३.३. For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४०३ इन सभी अवस्थाओं में दो रूप देखने को मिलते है : १. पतित रूप तथा २. आदर्श रूप । दोनों अवस्थाओं में नारी प्रायः पुरुषाधीन रही है । पति रूप - संयम से पतित करने में प्रधान कारण होने से ब्रह्मचर्य महाव्रत के प्रसंग में साधु को स्त्रियों के सम्पर्क से सदा दूर रहने को कहा गया है । इसी उद्देश्य से वहां स्त्रियों को राक्षसी, पंकभूत, उरस्थल में दो मांस के लोथड़े धारण करनेवाली तथा अनेक चित्तवाली कहा गया है । ये पहले अपने हाव-भाव द्वारा पुरुषों को आकर्षित करती थीं और बाद में दासों की तरह व्यवहार करती थीं । पति के मर जाने पर कोई-कोई नारी अन्य दातार के साथ भी चली जाती थी ।' टीकाओं में तथा अन्य जैन आगम ग्रन्थों नारी के इस पतित रूप का काफी वर्णन मिलता है । नारी का यह पतित रूप पुरुषों की सामान्य मनोवृत्ति का परिणाम है । यद्यपि नारी पुरुषाधीन थी तथापि अपने हाव-भावों के द्वारा पुरुषों को आकर्षित करने की शक्ति उसमें अधिक थी । अतः ये स्त्रियाँ अपने कूजित, रुदित, गीत, हास्य, स्तनित, क्रन्दित, विलाप आदि से युक्त वचनों के द्वारा पुरुषों को आकर्षित किया Dada | fari at प्राय: अलंकार प्रिय था । साधु इनमें आसक्त न हों इसीलिए स्त्रियों के इस पतित रूप को चित्रित किया गया है । ब्रह्मचर्य व्रत को सब व्रतों में दुष्कर बतलाने से स्पष्ट है कि उस समय पुरुषों की आसक्ति स्त्रियों में अधिक थी और उनमें आसक्त होकर वे अपना विवेक खो देते थे । आदर्श रूप - इस प्रकार की नारियाँ बहुत कम थीं । पातिव्रत्य इनका प्रमुख धर्म था । गृहस्थावस्था में अनाथी मुनि को जब असह्य चक्षुवेदना होती है तो उनकी पत्नी अत्यन्त स्नेह के कारण अपने पति की जाग्रत एवं मूच्छितावस्था में भी शरीर की १. तओ तेrsज्जिए दव्वे दारे य परिरक्खिए । कति नरा रा तुट्ठमलंकिया ॥ — उ० १८.१६. २. जै० भा० स०, पृ० २४५ - २५०. For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . स्थिति के लिए न तो अन्न-पानादि का सेवन करती है और न स्नान, विलेपन, मालाधारण आदि के द्वारा शरीर का शृङ्गार ही करती है अपितु क्षणभर के लिए भी पति से दूर न होती हुई निरन्तर रोती रहती है। कभी-कभी ऐसी पतिव्रता पत्नियाँ सदुपदेश के द्वारा अपने पति को तथा अन्य जनों को भी सन्मार्ग में प्रवृत्त कराती थीं । ऐसी पतिव्रता पत्नी के लिए पति ही सर्वस्व होता था। पति के अभाव में उसका जीवन दूभर ( बड़ा कष्टमय ) हो जाता था। राजीमती का उदात्त चरित्र इसका एक ज्वलन्त दृष्टान्त है। विवाह की मंगलवेला में राजीमती जब यह सुनती है कि उसके होनेवाले पति अरिष्टनेमी दीक्षा ले रहे हैं तो उसके मुख की हंसी व कान्ति तिरोभत हो जाती है ।२ राजकन्या राजीमती में स्च्युचित सभी अच्छे गुण वर्तमान थे। यदि वह चाहती तो किसी भी मनपसन्द अच्छे राजकुमार से शादी कर सकती थी परन्तु एक बार अरिष्टनेमी को पिता की प्रेरणा से मन में पतिरूप से चन लेने पर दूसरे राजकुमार से शादी नहीं करती है और बाल-ब्रह्मचारिणी होकर पति के मार्ग का अनुसरण करती हुई सुगन्धित बालों को उखाड़कर दीक्षा ले लेती है। स्वयं दीक्षा लेने के बाद वह अन्य स्त्री-समाज को भी श्रमणधर्म में दीक्षित करती है। एक बार जब राजीमती रैवतक पर्वत पर जा रही थी तो वर्षा से वस्त्र के भीग जाने पर वह समीपस्थ अन्धकारपूर्ण गुफा में वस्त्रों को उतारकर सुखाने लगती है। इसी समय १. भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया । ....... ...... ..... अन्नं पाणं च ण्हाणं च गंधमाल्लविलेवणं । मए नायमनायं वा सा बाला नेव भुंजई । -उ० २०.२८-२९. तथा देखिए-उ० २८.३०. २. सोऊण रायकन्ना पव्वज्ज सा जिणस्स उ। णीहासा उ निराणंदा सोगेण उ समुच्छिया ॥ राईमई विचितेई धिगत्यु मम जीवियं । जाऽहं तेणं परिच्चत्ता सेयं पव्वइउं मम ॥ -३० २२.२९-३०. For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४०५ पहले से वहाँ वर्तमान अरिष्टनेमी का भाई रथनेमी उसे नग्नरूप में देखकर काम-विह्वल हो जाता है और उससे काम-भोग भोगने की प्रार्थना करता है। जब राजीमती वहाँ पर-पुरुष को देखती है तो तुरन्त ही काँपती हुई अपने गोपनीय अंगों को छुपा लेती है और मौका पाकर वस्त्र से अपने शरीर को आच्छादित कर लेती है। तदनन्तर अपने कुल, शील आदि की रक्षा करती हई रथनेमी को भी कलोचित सदूपदेश के द्वारा सन्मार्ग में लाती है। इस तरह वह स्वयं को तथा रथनेमी को भी पतित होने से बचाती है।' राजीमती की ही तरह इषुकार देश के राजा विशालकीर्ति की पत्नी कमलावती भी राजा को सदुपदेश द्वारा सन्मार्ग की ओर ले जाती है। ___ इस तरह सिद्ध है कि उस समय नारियाँ न केवल पतिव्रता ही थीं अपितु पुरुषों को भी सदुपदेश द्वारा सन्मार्ग में लाती थीं और स्वयं दीक्षा लेकर अन्य स्त्रियों को भी दीक्षित करती थीं। ये शास्त्रों का भी अध्ययन किया करती थीं। अतः राजीमती को 'बहुश्रुता' कहा गया है। ये स्नान, मालाधारण, विलेपन आदि के द्वारा शरीर का श्रृंगार करती थीं। ५ कर्च और फनक ( ब्रश या कंघी ) से केशों का संस्कार करती थीं।६ श्रेष्ठ राजकन्याएँ राजाओं के द्वारा विवाहार्थ मांगी जाती थीं। इस तरह नारी की १. वही; परिशिष्ट २. २. वही। ३. सा पव्वईया संती पव्वावेसी तहिं बहुं । सयणं परियणं चेव सीलवंता बहुस्सुआ । -30 २२.२३. तथा देखिए-परिशिष्ट २. ४. वही। ५. देखिए-पृ० ४०४, पा० टि० १. ६. अह सा भमरसंनिभे कुच्चफणगप्पसाहिए। -उ० २२. ३.. ७. तस्स राईमई कन्नं भज्ज जायइ केसवो। -उ० २२.६. For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन यद्यपि आदर्श एवं स्वतन्त्र स्थिति भी थी परन्तु सामान्यतौर से वह पुरुषाधीन होकर पुरुष की सम्पत्ति मानी जाती थी । " रीति-रिवाज एवं प्रथाएँ ग्रन्थ में कुछ सांस्कृतिक तथा कुछ सामाजिक रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं का उल्लेख मिलता है जिनसे तत्कालीन सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में कुछ जानकारी उपलब्ध होती है । कुछ प्रमुख रीति-रिवाज एवं प्रथाएँ इस प्रकार हैं : यज्ञ : धार्मिक क्रियाओं में वैदिक यज्ञों का काफी प्रचलन था । ये यज्ञ दो प्रकार के होते थे : १. पशु - हिंसा वाले और २. पशु-हिंसा से रहित । इनमें से जो बड़े यज्ञ हुआ करते थे वे बहुत खर्चीले पड़ते थे । इन यज्ञों का सम्पादन वेदविद् ब्राह्मण किया करते थे परन्तु इनका खर्च यजमान ( यज्ञ कराने वाला ) वह्न किया करता था । यज्ञ की समाप्ति होने पर ब्राह्मण आदि को यज्ञान बाँटा जाता था । अतः नमि राजर्षि से इन्द्र कहता है कि विस्तृत यज्ञ करके तथा श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराकर दीक्षा लेवें । ४ यमयज्ञ या भावयज्ञ - अज्ञानमूलक पशु - हिंसा प्रधान यज्ञों की ओर से लोगों की चित्तवृत्ति को मोड़ने के लिए ग्रन्थ में यज्ञ की भावात्मक ( आध्यात्मिक - अहिंसाप्रधान ) व्याख्या की गई है १. धणं पभूयं सह इत्थियाहि । -- उ० १४.१६. तथा देखिए - उ० १६.१७ आदि । २. वियरिज्जई खज्जइ भुज्जई अन्नं पभूयं भवयाणभेयं । ३. वही ; उ० १२.११; २५.७-८. ४. जइत्ता विउले जन्ने भीइत्ता समणमाह । दत्ता भोच्चा यजिट्ठाय तओ गच्छसि खत्तिया ॥ - उ० १२.१०. - उ० ९.३८. For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४०७ जिसे ग्रन्थ में ‘यमयज्ञ' के नाम से कहा गया है।' 'यम' मृत्यु का देवता माना जाता है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो इस मृत्यु रूपी यम देवता के द्वारा ग्रसित न होता हो। अतः जिस यज्ञ में मृत्यु को जीता जाए या मृत्यु का हवन किया जाए उसे 'यमयज्ञ' कहते हैं। जब ब्राह्मण लोग जैन मुनि हरिकेशिबल तथा जयघोष से कर्मविनाशक यज्ञ की प्रक्रिया पूछते हैं तो वे दोनों इसी यमयज्ञ की प्रक्रिया को बतलाते हैं तथा इसे सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या के स्पष्टीकरण के लिए यज्ञीय अध्ययन से एक प्रसंग उद्धृत किया जा रहा है : __ जयघोष नामक एक जैन मुनि विहार करते हुए अपने भाई विजयघोष ब्राह्मण के यज्ञमण्डप में पहुँचते हैं और वहाँ ब्राह्मण याजकों से यज्ञान्न की याचना करते हैं। यह सुनकर जब ब्राह्मण लोग कहते हैं कि इस यज्ञान को सिर्फ वेदविद, यज्ञकर्ता, ज्योतिषाङ्गविद्, धर्मशास्त्रज्ञाता तथा स्व-परकल्याणकर्ता ब्राह्मण ही प्राप्त कर सकता है तो मुनि इसके जबाब में कहते हैं कि आप लोग वेदादि के मुख को ही नहीं जानते हैं। यह सुनकर जब ब्राह्मण पूछते हैं कि वेदादि के मुख को कौन जानता है और वेदादि के मुख क्या हैं ? तब मुनि वैदिक तथा जैनदृष्टि से समन्वित व गम्भीर अर्थ से युक्त द्वयर्थक भाषा में इस प्रकार उत्तर देते हैं : वेदों का मुख–अग्निहोत्र वेदों का मुख है अर्थात् जिस वेद में अग्निहोत्र का प्रधानता से वर्णन हो वही वेद वेदों का मुख है । वेदों १. ज़ायाइ जमजन्नम्मि जयघोसि ति नामओ। -उ०२५.१. . . सुसंवुडा पंचहिं संवरेहि ...."महाजयं जयइ जन्नसिट्ठ । -उ० १२.४२. २. वही। ग्रन्थ में तीन जगह इस यज्ञ का वर्णन मिलता है: १. इन्द्रनमि-संवाद (हवां अध्ययन) में, २. हरिकेशिबल मुनि और ब्राह्मणों के संवाद (१२वाँ , अध्ययन) में तथा ३. जयघोष मुनि और ब्राह्मणों के संवाद ( २५ वाँ अध्ययन ) में। ३. उ० २५.१-१८. For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन में इसी अग्निहोत्र की प्रधानता होने से अग्नि के संस्कार को यज्ञ कहा जाता है । वैदिक, दैविक और भौतिक अग्नि में वैदिक अग्नि 'यजु' कहलाती है । इस तरह वेदानुसार अर्थ संगत हो जाता है । परन्तु मुनि को यहाँ पर तपरूप अग्नि अभिप्रेत है जिस तपाग्नि से कर्मरूपी महावन ध्वस्त किया जा सके । यज्ञों का मुख - जिससे कमों का क्षय हो वह यज्ञों का मुख है । यह भावयज्ञ कर्मों का क्षय करनेवाला है और इसके अतिरिक्त अन्य हिंसाप्रधान वैदिक यज्ञ कर्मक्षय में कारण न होकर कर्म-बन्ध में कारण हैं । अतः जिन शास्त्रों में यमयज्ञों का विधान है उन्हें वेद कहते हैं और जो ऐसे यज्ञों को करता है वह याजक है । नक्षत्रों का मुख - चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख ( प्रधान ) है | नक्षत्र, चन्द्र मण्डल आदि ज्योतिषशास्त्र का विषय है और ज्योतिषशास्त्र के अनुसार नक्षत्रों में चन्द्रमा की प्रधानता है। धर्मों का मुख - काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेव धर्मों के मुख हैं । जैन धर्म के आदि प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव काश्यपगोत्री थे । ब्रह्माण्डपुराण और आरण्यक आदि में भी ऋषभदेव की स्तुति मिलती है । ' स्व-पर का कल्याणकर्ता - अहिंसारूप यमयज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला याजक ही स्व-पर का कल्याणकर्ता है | इस तरह मुनि ने इस उत्तर द्वारा स्वयं को वेदादि का वेत्ता तथा ब्राह्मणों को वेदादि का अवेत्ता भी सिद्ध किया है । भावयज्ञ के उपकरण व विधि- इस भावयज्ञ में द्रव्य यज्ञ के स्थानापन्न कौन-कौन से उपकरण होते हैं तथा इस यज्ञ को सम्पन्न करने की विधि क्या है ? ब्राह्मणों के द्वारा इस प्रकार का प्रश्न पूछने पर हरिकेशिबल मुनि इस प्रकार उत्तर देते हैं : १. देखिए - - उ० आ० टी०, पृ० १११४-१११५. २. तपो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसंती होमं हृणामि इसिणं पसत्थां ॥ मेहर मे संतितित्थे अणाविले अत्तपसन्नले से || - उ० १२.४४-४६. तथा देखिए- उ० १२.४२-४३,४७, ६.४०; मेरा निबन्ध - 'यज्ञ : एक अनुचिन्तन' श्रमण, सित० - अक्टूबर, १९६६. For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अग्नि प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४०६ द्रव्ययज्ञ भावयज्ञ : १. तप (ज्योतिरूप-क्योंकि अग्नि की तरह तप में कर्ममल भस्म करने की शक्ति है) २. अग्निकुंड ( अग्नि प्रज्वलित २. जीवात्मा __ करने का स्थान ) ३. स वा ( जिससे घृतादि की ३. त्रिविध योग (क्योंकि आहुति आहुति दी जाती है ) किए जाने वाले सभी शुभाशुभ कर्मेन्धनों का आगमन योग के द्वारा ही होता है। ४. करीषाङ ( जिससे अग्नि ४. शरीर ( क्योंकि तपाग्नि इसी प्रज्वलित की जाती है। से प्रदीप्त होती है ) जैसे : घत आदि) ५. समिधा (शमी, पलाश आदि ५. शुभाशुभ कर्म (क्योंकि की लकड़ियाँ ) - ये ही तपाग्नि में लकड़ी की तरह भस्म किए जाते हैं ) ६. शान्तिपाठ ( कष्टों को दूर ६. संयम-व्यापार (क्योंकि इससे करने के लिए) जीवों को शान्ति मिलती है) ७. हवन (जिससे अग्नि प्रसन्न हो) ७. चारित्र ८. जलाशय ( स्नान के लिए) ८. अहिंसा धर्म .. ६. शान्तितीर्थ ( सोपान ) ब्रह्मचर्य तथा शान्ति १०. जल ( जिससे कर्म र ज १०. कलुषभाव से रहित शुभदूर हो ) लेश्यावाली आत्मा ( क्योंकि ऐसे तीर्थजल में स्नान करने से कर्म रज दूर हो जाती है ) ११. निर्मलता ( स्नान के बाद ११. अन्तरङ्गात्मा निर्मल और प्राप्त होने वाली शुद्धि ) ताजी हो जाती है। १२. गौदान ( यज्ञ के अन्त में १२. संयम-पालन ( यह सहस्रों दिया जानेवाला दान ) गौदानों से श्रेष्ठ है ) इस तरह इस भावयज्ञ में जीवात्मारूपी अग्निकुण्ड में शरीररूपी करीषाङ्ग से तपरूपी अग्नि को प्रज्वलित करके कर्मरूपी For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन इन्धनका योगरूपी वा से हवन किया जाता है। संयम - व्यापाररूपी शान्तिपाठ को पढ़ा जाता है । ब्रह्मचर्यरूपी शान्ति-तीर्थ में स्नान किया जाता है । संयम का पालन करना ही गौदान है । इस तरह इस यज्ञ को सम्पन्न करने के बाद अध्यात्म जलाशय में स्नान करने से कर्ममल धुल जाते हैं और आत्मा निर्मल होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेती है । ऐसा ही यज्ञ ऋषियों के द्वारा प्रशस्त एवं उपादेय है। विवाह प्रथा : स्त्री और पुरुष के मधुर मिलन को एक सूत्र में बाँधनेवाली सामाजिक प्रथा विवाह है। उत्तराध्ययन में विवाह सम्बन्धी जो जानकारी उपलब्ध होती है उससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं १. साधारणतया वर एवं कन्या दोनों पक्षों के माता-पिता या उनके अग्रज सम्बन्धीजन पहले विवाह सम्बन्ध तय किया करते 12 विवाह सम्बंध तय हो जाने के बाद विधिपूर्वक विवाह की क्रिया की जाती थी । भगवान् अरिष्टनेमी के युवा - ( विवाह-योग्य ) होने पर जब उनके अग्रज केशव (श्री कृष्ण ) विवाह सम्बन्ध के लिए उग्रसेन की पुत्री राजीमती की याचना करते हैं तो उग्रसेन कहते हैं कि कुमार यहाँ आएं और वधू को ग्रहण करें। इसके बाद वर और वधू को सब प्रकार से अलंकृत किया जाता है । वर अपने राजसी वैभव के साथ श्रेष्ठ गन्धहस्ती पर सवार होकर चतुरङ्गिणी सेना एवं गाजे-बाजे के साथ सपरिवार नगर से प्रस्थान करता है । २. कभी-कभी ऐसा भी होता था कि विदेश से व्यापार आदि के लिए आए हुए वर के गुणों से आकृष्ट होकर लड़की का पिता उसे अपनी कन्या विवाह देता था । इसके बाद वर जब तक चाहता ९. वही । २. देखिए - पृ० ३६७, पा० टि० ७; पृ० ४०५, पा० टि० ७. ३. इहागच्छतु कुमारी जा से कन्नं ददामि हं । - उ० २२.८. तथा देखिए – पृ० ४११, पा० टि० ३. For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४११ तब तक वहाँ रहकर उसके साथ भोग भोगता और फिर उसे लेकर स्वदेश लौट आता था।' ३. कभी-कभी माता-पिता कहीं से मनपसन्द सुन्दर कन्या लाकर पूत्र को दे देते थे।२ चंकि उस समय नारी को सम्पत्ति माना जाता रहा है अतः यह तभी संभव है जब कन्या खरीदकर या इसी प्रकार के किन्हीं अन्य उपायों के द्वारा लाई जाए। ४. जब वर दूल्हे के रूप में बारात लेकर कन्या के घर जाता था तो उसे नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत किया जाता था तथा देश और कुलादि के अनुरूप कौतुकमंगल आदि कार्य भी किए जाते थे। बारात में ऊँच-नीच सब प्रकार के लोग जाते थे और उनके लिए भोजनादि का प्रबन्ध भी किया जाता था। ५. कभी-कभी देवता की प्रेरणा से भी राजकन्याएँ वर को सौंप दी जाती थीं।४ . ६. श्रेष्ठ गूण व रूप-सम्पन्न राजकन्याएँ राजकुमारों के द्वारा प्रार्थना करने पर भी बड़ी मुश्किल से प्राप्त होती थीं। यदि किसी को ऐसी राजकन्या राजा स्वयं दे दे तो वह बड़ा सौभाग्यशाली समझा जाता था। अतः भद्रा राजकुमारी उग्र तपस्वी हरिके शिबल मुनि को मारनेवाले ब्राह्मणों से कहती है- 'यह मुनि उग्र तपस्वी तथा ब्रह्मचारी है। स्वयं मेरे पिता कोशल नरेश के द्वारा देवता की प्रेरणा से मुझे इसके लिए दिए जाने पर भी इसने मुझे ग्रहण नहीं किया था। इसी प्रकार सर्वगुणसम्पन्न राजकुमार अरिष्टनेमी १. देखिए-पृ० ३६७, पा० टि० १. २. देखिए-पृ० ३६७, पा० टि० ७. ३. सव्वोसहीहिं हविओ कयकोऊयमंगलो । दिग्वजुयलपरिहिओ आभरणेहिं विभूसिओ ।। तुझं विवाहकज्जंमि भोयावेउं बहुं जणं ।। -उ० २२.६-१७. ४. देवाभिओगेण निओइएणं दिन्नासु रन्ना मणसा न झाया। - जो मे तया नेच्छइ दिज्जमाणि पिउणा सयं कोसलिए ण रन्ना ।। -उ० १२.२१-२२. ५. वही। For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन को याचना करने पर भी राजा उग्रसेन अपनी कन्या राजीमती देने के लिए तभी तैयार होते हैं जब अरिष्टनेमी के बड़े भाई केशव यह स्वीकार कर लेते हैं कि वे वर को लेकर बारात के साथ कन्या के घर आएँगे।' इससे यह भी सिद्ध होता है कि कुछ लोग राजकुमारों के लिए राजकन्याएँ भेंटस्वरूप में भी दे दिया करते थे। इसीलिए जब केशव अरिष्टनेमी के लिए राजीमती की याचना करते हैं तो राजीमती के पिता द्वारा यह कहना कि राजकुमार यहां.. आएँ और ले जाएँ यह सिद्ध करता है कि श्रेष्ठ कन्याएँ विवाहोत्सवपूर्वक ससम्मान दी जाती थीं तथा कुछ साधारण कन्याएँ संभवतः भेटरूप में भी भेज दी जाती थीं। ७. प्रायः बहु-विवाह भी होते थे। राजाओं एवं सम्पन्न कुलों में एक से अधिक पत्नियाँ हुआ करती थीं। जैसे:२ राजा वसुदेव की रोहणी और देवकी ये दो रानियाँ थीं। मृगापुत्र कई स्त्रियों के साथ देवसदृश भोग भोगा करता था। इसी प्रकार मृगापुत्र के पिता बलभद्र राजा की मृगा नाम की पटरानी थी। ८. इन विवाह-सम्बन्धों के अतिरिक्त कभी-कभी पति के मरने पर कुछ विधवाएं हृष्ट-पुष्ट पुरुष के साथ भी चली जाती थीं। सौन्दर्य-प्रसाधन : उस समय वस्त्र व आभूषणों के अतिरिक्त स्नान, मालाधारण, विलेपन आदि के द्वारा शरीर का शृङ्गार किया जाता था। कर्च व फनक (ब्रश या कंघी ) से बालों को संस्कृत किया जाता था तथा कुण्डल कानों में पहने जाते थे। इस तरह ये आभूषण आदि सौन्दर्य-प्रसाधन के काम आते थे। १. देखिए-पृ० ४१०, पा० टि० ३. २. तस्स भज्जा दुवे आसी रोहिणी देवई तहा। -उ० २२.२. तथा देखिए-पृ० ४०३, पा० टि० १; परिशिष्ट २. ३. देखिए-पृ० १३३, पा० टि० २; पृ० ४०३, पा० टि० १. ४. देखिए-पृ० ४०४, पा० टि० १; पृ० ४११, पा० टि० ३. ५. वही; उ० ६.६०. For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४१३ दाह-संस्कार : किसी परिवार में किसी व्यक्ति के मरने पर परिवार के लोग कुछ दिन तक शोक करते हुए मृत प्राणी को घर से निकालकर बाहर ले जाते और वहाँ जलती हुई चिता पर रखकर उसका दाहसंस्कार करते थे। यह क्रिया पिता के मरने पर पुत्र, पुत्र के मरने पर पिता तथा अन्य सम्बन्धीजनों के मरने पर उनके सम्बन्धीजन किया करते थे। इसके बाद जहाँ जीविका चलती वहाँ उसी दातार के पीछे चले जाते थे। पशु-पालन : उस समय की सम्पत्ति में पशु भी एक थे। उनमें कुछ पशु युद्धस्थल में काम आते थे। युद्ध में हाथी और घोड़े बहुत उपयोगी थे। ग्रन्थ में इनका बहुत्र उल्लेख मिलता है। कम्बोज-देशोत्पन्न घोड़े सुशिक्षित, युद्धोपयोगी और श्रेष्ठ होते थे। हाथियों में 'गन्धहस्ती' का उल्लेख मिलता है जिस पर सवार होकर अरिष्टनेमी विवाहार्थ गए थे ।५ जब कभी हाथी बन्धन तोड़कर भाग जाता था तो महावत उस मदोन्मत्त हाथी को अंकुश के द्वारा वश में १. वही । २. गवासं मणिकुंडलं पसवो दासपोरुसं । -उ०६५. तथा देखिए-उ०.६.४६; १३.२४; २०.१४ आदि । ३. नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं । -उ० २. १०. जहा से कंबोयाणं आइण्णे कथए सिया। आसे जवेण पवरे -उ० ११.१६. तथा देखिए-पृ० ३६६, पा•टि०३; उ० १२.३०; १.१२; २३.५८, ४. वही। ५. मत्तं च गंधहत्थिं च वासुदेवस्स जिट्ठयं । -उ० २२.१०. For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन किया करता था।' युद्ध में हाथी ही आगे रहते थे। अतः ग्रन्थ में हाथी को 'संग्राम-शीर्ष' होकर शत्रु को जीतनेवाला कहा गया है। हाथी और घोड़े पशुओं में श्रेष्ठ माने जाते थे। श्रेणिक राजा अनाथी मुनि से अपना परिचय देते हुए इन्हीं दोनों पशुओं का उल्लेख करते हैं। कुत्ता और शूकर ये दोनों पशु शिकार के काम आते थे।४ बकरा मिहमान के भोज के लिए अच्छा समझा जाता था ।५ यज्ञ में भी पशु काम आते थे। अत. यज्ञ में पशुहिंसा का निषेध किया गया है। पशुओं के अतिरिक्त पक्षियों को भी पिजड़े में रखकर. पालापोसा जाता था।६ ग्रन्थ में कई पक्षियों के नाम मिलते हैं परन्तु उन सबको पाला नहीं जाता था। पशुओं और पक्षियों को पकड़ने और पालने के लिए नाना प्रकार के जालों और पिजड़ों का प्रयोग किया जाता था। १. अंकुसेण जहा नागो। -उ० २२.४७. तथा देखिए-उ० १४.४८. २. देखिए-पृ० ४१३, पा० टि० ३. ३. अस्सा हत्थी मणुस्सा मे ।। -उ० २०.१४. ४. कुवंतो कोल-सुणएहिं सबलेहिं य । -उ० १६.५५. ___ तथा देखिए-उ० १६.६६.. ५. अय कक्कर भोइ य".""""जहा एस व एलए। -उ० ७.७. ६. नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा। -उ० १४.४१. ७. देखिए-नभचर तिर्यञ्च, प्रकरण १. ८. पासेहिं क डजालेहि मिओ वा अवसो अहं । वीदंसएहिं जालेहिं लेप्पाहि सउणो विव । -उ० १६.६४-६६. तथा देखिए-उ० १६.५३; २३.४०-४३; ३२.६; २२.१४,१६;पृ० ४१४, पा०टि०६. For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति खान-पान : घी, दूध, अन्न आदि के अतिरिक्त मदिरा और मांस-भक्षण भी काफी मात्रा में होता था। अरिष्टनेमी के विवाह के अवसर पर बहुत से लोगों के भोज के लिए बहुत से पशुओं को एक बाड़े के अन्दर एकत्रित किया गया था। यहाँ पर बहुत से लोगों के लिए कहने से स्पष्ट है कि अधिकांश लोग मांसभक्षण करते थे और बहुत ही कम लोग ऐसे थे जो मांसभक्षण नहीं करते थे। मृग, मत्स्य, बकरा और महिष का मांस अधिक प्रचलित रहा होगा क्योंकि ग्रन्थ में शिकार के अवसर पर मृग-हनन, मिहमान के भोज के लिए बकरा-पालन तथा महिष को अग्नि में पकाने का उल्लेख मिलता है ।२ मत्स्य पकड़ने के लिए बड़िशों (लोहे के काँटोंवाला जाल) का प्रयोग किया जाता था। साधुओं का आहार निरा. मिष और नीरस होता था। ग्रन्थ में मदिरा के पाँच प्रकारों का उल्लेख मिलता है : १. सुरा, २. सीधु ( ताल वृक्ष के रस से उत्पन्न ), ३. मेरक १. वाडेहिं पंजरेहिं य संनिरुद्धा य अच्छहिं । ___ -उ० २२.१६. तथा देखिए-पृ० ४११, पा० टि० ३. .. २. हुआसणे जलंतम्मि चिआसु महिसो विव । -उ० १६.५८. तथा देखिए-पृ० ४१४, पा० टि० ५, ८; उ० १६.७०-७१, ५.९; ७.६; १८.३-६ आदि । ३. रागाउरे वडिस विभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोग गिद्धे । -उ० ३२.६३. तथा देखिए-उ० १६.६५. ४. देखिए-आहार, प्रकरण ४. ५. तुहं पिया सुरा सीहू मेरओ य महूणि य । -उ० १६.७१. वर वारुणीए व रसो विविहाण व आसवाण जरिसओ । महुमेरयस्स व रसो" -उ० ३४.१४. For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन (मैरेयक-दुग्ध आदि उत्तम पदार्थों से निकाली गई), ४. मधु ( महुए से बनाई गई ) और ५. वारुणी ( श्रेष्ठ मदिरा )। इनके अतिरिक्त अन्य विविध प्रकार के आसव (मद्य) भी थे ।' रसों में कुछ रसों का भी उल्लेख मिलता है जिनका अनुभव प्रायः सभी को था। जैसे : शर्करा, खाण्ड, दाख (मृद्वीका), खजूर, आम्र, तुवर, नीम, तूंबी, त्रिकटुका (मघ मिर्च), ईख, कटुरोहिणी (ज्वरनाशक औषधिविशेष), कपित्थ (कैथः) आदि । इन खाद्य और पेय पदार्थों के अतिरिक्त ग्रन्थ में कुछ कन्द-मूल आदि वनस्पतियों का भी उल्लेख मिलता है जिनको सामान्यरूप से खाने के प्रयोग में लाया जाता रहा होगा। मनोरंजन के साधन : मनोरंजन के साधनों में उस समय नृत्य, गीत वाद्य आदि के अतिरिक्त मृगया (शिकार ), द्यूतक्रीडा ( जुआ खेलना ) और उद्यान में विहार ये भी मनोरंजन के साधन थे। जैसे : क. मृगया-राजा आदि अपने मनोरंजनार्थ मृगया के लिए जाया करते थे। मृगया के लिए जाते समय राजा घोड़े पर सवार होता था तथा उसके साथ सैन्यदल भी जाता था। राजा संजय मृगया के लिए जाते समय चतुरंगिणी सेना को भी साथ ले गया था। ___ ख. छू तक्रीड़ा-शिकार की तरह द्यूतक्रीड़ा भी ऋग्वेदकाल से ही भारत में वर्तमान है।५ महाभारत का युद्ध द्यूतक्रीड़ा का ही परिणाम है । ग्रन्थ में अकाम-मरण को प्राप्त होनेवाले जीव १. वही। २. देखिए-लेश्या, प्रकरण २; उ० २४.१०-१३.१५; १९.५६. ३. देखिए-वनस्पति जीव, प्रकरण १; उ० ३४.४, ११, १६; २२.४५. ४. नामेणं संजओ नाम मिगव्वं उवणिग्गए। -उ०१८.१. तथा देखिए-उ० १८.२-६. ५. ऋग्वेद, मण्डल १०, सूत्र ३४. For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४१७ की उपमा जुए में हारे हुए जुआड़ी से दी गई है। इससे द्यूतक्रीड़ा व द्यूतक्रीड़ा में हारे हुए व्यक्ति की स्थिति का ज्ञान होता है। ग. उद्यान में विहार-यात्रा-प्रायः नगरों के समीप में उद्यान हुआ करते थे जो नाना प्रकार के फूलों,२ फलों, वृक्षों, और लतामण्डपों५ आदि से सुशोभित रहते थे।६ इनमें राजा लोग नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ किया करते थे जिन्हें 'विहार-यात्रा' कहते थे। इन उद्यानों में आकर साधु अपनी साधना भी किया करते थे। ग्रन्थ में ऐसे कई उद्यानों का उल्लेख मिलता १. धुत्तेव कालिणा जिए ।। -उ० ५.१६. २. ग्रन्थ में उल्लिखित कुछ फूलों के नाम-अतसी ( १६.५६ ; ३४.६ ), असन, सण ( ३४.८ ), मुचकुन्द या कुन्द ( ३४.६; ३६.६१ ), शिरीष ( ३४.१६ ) आदि। ३. ग्रन्थ में उल्लिखित कुछ फलों के नाम-आम, कपित्थ (७.११; ३४.१२-१३), बिल्व ( १२.१८ ), किंपाक ( ३२.२०; १६.१८ ), तालपुट ( २३.४५; ६.५३; १६.१३ ) आदि । ___४. ग्रन्थ में उल्लिखित कुछ वृक्षों के नाम-चैत्य (६.६-१०), तिन्दुक (१२.८ ), जम्बू-सुदर्शन ( ११.२७ ), शाल्मलि ( १६.५३; २०.३६ ), अशोक ( ३४.५ ), किंपाक ( ३२.२० ) आदि । ५. अप्फोवमंडवम्मि -उ० १६.५. ६. नाणादुमलयाइन्नं नाणापविखनिसेवियं । नाणाकुसुमसंछन्नं उज्जाणं नंदणीवमं ॥ तत्थ सो पासई साहुं संजयं सुसमाहियं । तिसन्नं रक्खमूलम्मि...............। -उ० २०.३-४. तथा देखिए-उ० २५.३; १८.६; २३.४, ८; १६.१. ७. विहारजत्तं निज्जाओ मंडिकुच्छिसि चेइए । -उ० २०.२. . ८. देखिए-पृ० ४१७, पा० टि० ६. For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन है ।' एक जगह इन्हें 'चैत्य' शब्द से भी कहा गया है । कोईकोई उद्यान इतने बड़े होते थे कि वहाँ पर बहुत से लोग एकत्रित हो सकते थे । जैसे : श्रावस्ती नगरी के समीपवर्ती 'तिन्दुक' उद्यान में केशिकुमार तथा 'कोष्ठक' उद्यान में गौतम अपनी-अपनी शिष्यमंडली के साथ ठहरे हुए थे । इसी बीच गौतम जैनधर्म के विषय में उत्पन्न हुई शिष्यमंडली की शंका के निराकरणार्थ अपनी शिष्यमण्डली के साथ तिन्दुक उद्यान में जाते हैं । उस समय वहाँ पर दोनों की शिष्य मण्डली तथा अन्य अनेक देव-दानवों के अतिरिक्त हजारों की संख्या में बहुत से पाखण्डी, कौतुकी तथा गृहस्थ भी एकत्रित होते हैं । 3 व्यापार और समुद्रयात्रा : वैश्यों का मुख्य पेशा व्यापार था और वे व्यापार के लिए विदेश भी जाया करते थे । व्यापार करने के कारण ही उन्हें 'वणिक' कहा जाता था । " वणिक् का ही अपभ्रंश रूप 'बनिया' व्यापारियों के लिए आज भी प्रयुक्त होता है। प्रायः समुद्रपार वणिक् ही जाया करते थे । अतः समुद्र पार करने के विषय में वणिक् का दृष्टान्त दिया गया है । समुद्रपार जाते समय बड़ी १. जैसे : काम्पिल्य नगर का केशरी उद्यान (१८.३ - ४ ), श्रावस्ती कातिन्दुक व कोष्ठक ( २३.४, ८, १५), बनारस का मनोरम ( २५.३ ), मगध का मंडिकुक्षिक ( २००२ - ३ ), देवलोक का नन्दन ( २०.३, ३६ ) । २. देखिए - पृ० ४१७, पा० टि० ६-७० ३. समागया बहू तत्थ पासंडा को उगासिया । गिहत्थाणं अणेगाओ साहस्सीओ समागया || तथा देखिएए - उ० २३.४-१८,२०. ४. देखिए - पृ० ३६७, पा० टि० १; पृ० ४१६, पा० टि० २. ५. किणतो कइयो होइ विक्किणंतो य वाणिओ । - उ० ३५.१४. ६. जे तरंति अतरं वणिया व । - उ० २३.१६. - उ० ८.६. तथा देखिए - पृ० ४०२, पा० टि० १; पृ० ३६७, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४१६ नावों या जल-पोतों का उपयोग किया जाता था। कभी-कभी व्यापार में इन्हें घाटा भी हो जाता था और कभी-कभी मलधन ही निकल पाता था।२ वस्तु को खरीदने के लिए सिक्कों का भी प्रयोग होता था। ग्रन्थ में सिक्का के अर्थ में 'काकिणी' का उल्लेख मिलता है जो उस समय का सबसे छोटा सिक्का था। तोलने के लिए मापक-बाट एवं तराज का प्रयोग होता था। व्यापार के लिए समुद्र पार जाते समय व्यापारियों को बड़ा भय रहता था क्योंकि समुद्र में ज्वार-भाटे आदि के आने पर रक्षा के समुचित साधन नहीं थे। समद्रयात्रा से वापिस आ जाना बड़ी कुशलता समझी जाती थी। अतः पालित वणिक् के विदेश से पोत द्वारा घर आ जाने पर 'कुशलतापूर्वक आ गए' ऐसा कहा गया है। विदेश में कभी-कभी वणिक् शादी भी कर लेते थे। पश्चात् कुछ दिन वहां रहकर पत्नी के साथ घर आ जाते थे। समुद्रयात्रा में काफी समय लगने के कारण कभी-कभी समद्रयात्रा करते समय जल-पोत में गर्भवती स्त्रियां प्रसव भी कर देती थीं।६ समद्रयात्रा या अन्य किसी लम्बी यात्रा पर जाते समय पाथेय ( कलेवा ) ले जाया १. वही; उ० २३.७०-७३. २. एगोत्थ लहई लाभं एगो मूलेण आगओ ॥ ........ ... एगो मूलंपि हारित्ता आगओ तत्थ वाणिओ। -उ० ७.१४-१५. ३. जहा कागिणिए हेउं सहस्सं हारए नरो। -उ० ७.११. ४. जहा तुलाए तोलेउ। -उ० १६.४२. दोमास कयं कज्ज। -उ०८.१७. ५. खेमेण आगए चंपं । -उ०२१.५. ६. अह पालियस्स घरणी समुद्दम्मि पसवइ । -उ० २१.४. तथा देखिए-पृ० ३६७, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन करते थे जिससे मार्ग में क्षुधाजन्य' कष्ट न उठाना पड़े ।' सामान्य यात्रा में तथा माल वगैरह ढोने में बैलगाड़ी व रथ आदि को . उपयोग में लाया करते थे।२ रोगोपचार : ग्रन्थ में रोग तथा उसके औषधोपचार के विषय में सामान्य संकेत मिलते हैं। रोगों का इलाज करने के लिए बहुत से चिकित्साचार्य होते थे। ये वमन, विरेचन, औषधिसेवन, धूम्रप्रदान नेत्रस्नान, सवौंषधिस्नान, मन्त्र-विद्या आदि के द्वारा रोगों का इलाज किया करते थे। जैन साधु के लिए रोगों का इलाज कराना त्याज्य था।५ रोगों का इलाज करने के लिए चतुष्पाद चिकित्सा की जाती थी। चतुष्पाद चिकित्सा के चार अङ्ग १. अद्धाणं जो महंतं तु सपाहेज्जो पवज्जई। गच्छंतो सो सुही होई छुहातण्हविवज्जिओ ॥ -उ० १९.२१. २. अवसो लोहरहे जुत्तो जलते समिलाजुए। चोइओ तुत्तजुत्तेहिं रोज्झो वा जह पाडिओ ।। -उ० १६५७. तथा देखिए-उ० ६.४६ ; ५.१४; २७.२-८. . ३. ग्रन्थ में उल्लिखित रोगों के कुछ नाम-आमय ( ३२.११० ), व्याधि ( ३२.१२), आतंक ( १०.२७; ५.११; २१.१८; १९.७६; २६.३५), विसूचिका, अरइ चित्तोद्वेग, गंड-जिसमें ग्रीवा फूल जाती है ( १०.२७ ), अक्षिवेदना (२०.१६-२१ ). ४. मंतं मूलं विविहं वेचितं वमणविरेयणधुमणेतसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।। -उ० १५.८. तथा देखिए-उ० २०.२२; १६.७६-७७, ७६; १२.५०; २२.६%, जै० भा० स०, पृ० ३११-३१८. ५. वही; परीषहजय व भिक्षाचर्या तप, प्रकरण ५. ६. ते मे तिगिच्छं कुवंति चाउप्पायं जहाहियं । -उ० २०.२३. 'चाउप्पायं' ति 'चतुष्पादां' भिषग्भेषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भाग चतुष्टयात्मिकां 'यथाहितं, हिताऽनतिक्रमेण । - वही, ने० वृ०, पृ० २६६. For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४२१ ये हैं : १. श्रेष्ठ वैद्य या चिकित्सक, २. श्रेष्ठ औषधिसेवन, ३. रोगी के द्वारा इलाज कराने की उत्कट अभिलाषा और ४. रोगी के सेवक । मन्त्र-शक्ति व शकुन में विश्वास : प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में मन्त्र-तन्त्रशक्ति तथा शुभाशुभ फल बतलानेवाले शास्त्रों में विश्वास रहा है। अतः जैन साधु को इन सभी मन्त्र-तन्त्रशक्तियों तथा शुभाशुभ फल बतलानेवाले शास्त्रों का जीविका आदि के लिए प्रयोग न करने को कहा गया है । ' श्रेष्ठ साधु मन्त्रादि शक्तियोंवाले होते थे और उनकी इसी शक्ति के कारण जनता में साधु के प्रकोप का बड़ा भय रहता था। इसीलिए मुनि की शरण में आए हुए मृग को मारने के कारण राजा संजय भयभीतं हो जाता है और क्षमा मांगता है। इसी प्रकार हरिके शिबल मुनि का तिरस्कार करनेवाले ब्राह्मणों से भद्रा कुमारी कहती है कि यह मुनि घोर पराक्रमी तथा आशीविष लब्धिवाला (मनःशक्तिविशेष) है। यह क्रोधित होने पर तुम सबको तथा सम्पूर्णलोक को भी भस्म कर सकता है। इसकी निन्दा करने का अर्थ है-नखों से पर्वत को खोदना, दातों से लोहे को चबाना, पैरों से अग्नि को कुचलना। अतः यदि जीवन और धनादि की अभिलाषा करते हो तो तुम सब लोग इसकी शरण में जाकर क्षमा मांगो। इतना कहकर वह स्वयं भी मुनि से क्षमा मांगती है। 3 अरिष्टनेमी के विवाह के अवसर पर कौतूक-मंगल करने का अर्थ है शुभाशुभ शकुनों में विश्वास । इसी तरह रोगोपचार में भी मन्त्रादि शक्तियों का प्रयोग होता था ।५ ग्रन्थ में इस तरह की निम्नोक्त विद्याओं का उल्लेख मिलता है :६ १. देखिए-आहार, प्रकरण ४. २. विणएण वंदए पाए भगवं एत्थ मे खमे । -उ० १८.८. ३. देखिए-पृ० ३७३, पा० टि० ५; उ० १२.२३, २६-२८, ३०. ४. देखिए-पृ० ४११, पा० टि० ३. ५. देखिए-पृ० ४२०, पा० टि० ४. ६. उ० १५.७; २०.४६; २२.५; ३६.२६७; ८.१३. For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन १. छिन्न विद्या ( वस्त्र व काष्ठ आदि के छेदने की विद्या ), २. स्वर विद्या (संगीत के स्वरों का ज्ञान ), ३. भूकम्प विद्या, ४. अन्तरिक्ष विद्या, ५. स्वप्न विद्या, ६. लक्षण विद्या ( स्त्री व पुरुष के चिह्नों एवं रेखाओं का ज्ञान ), ७. दण्ड विद्या (लाठी के पर्वों का ज्ञान ), ८. वास्तु विद्या ( प्रसाद - सम्बन्धी विद्या), ६. अंगविचार विद्या ( अंग - स्फुरण का ज्ञान ), १०. पशु-पक्षी के स्वरों की विद्या, ११. कौतुक विद्या ( कौतूहल उत्पन्न करनेवाली विद्या), १२... कुहेक विद्या ( आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली विद्या ) और १३. निमित्त विद्या (त्रिकाल में शुभाशुभ फल बतलानेवाली विद्या ) । इनके अतिरिक्त अभीष्ट सिद्धि के लिए मन्त्र तथा भूतिकर्म ( भस्म का लेप ) का भी प्रयोग किया जाता था । इन्हें मन्त्र-तन्त्र या जादू-टोना की शक्ति कहा जा सकता है । इनकी सिद्धि तपादि के प्रभाव से होती थी । अतः साधु को तप के प्रभाव से सिद्ध होनेवाली शक्तियों की ओर से निःस्पृह रहने को कहा गया है। इस तरह इन विविध रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं से तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति के साथ उद्योग व्यापार आदि का भी पता चलता है । किसी भी समाज व संस्कृति की ठीक-ठीक स्थिति के जानने में इन रीति-रिवाजों और प्रथाओं का प्रमुख स्थान होता है । राज्य-व्यवस्था व मानव प्रवृत्तियाँ 'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत प्रायः सभी जानते हैं । साथ ही यह भी सभी जानते हैं कि देशकाल की परिस्थिति के अनुकूल जनसामान्य की प्रवृत्तियाँ भी बदलती रहती हैं और जनसामान्य की प्रवृत्तियाँ बदलने पर तत्कालीन राज्य-व्यवस्था के साथ धार्मिक व दार्शनिक सम्प्रदायों पर भी प्रभाव पड़ता है । प्रकृत ग्रन्थ में राज्य-व्यवस्था आदि के विषय में जो संकेत मिलते हैं वे इस प्रकार हैं : १. मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे परंजंति । - उ० ३६.२६५. For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४२३ राज्य-व्यवस्था : ..प्रजा पर शासन करना क्षत्रिय का काम था और जो शासक होता था वह राजा कहलाता था। सामान्यतया राजा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होता था। अतः राजागण अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर दीक्षा ग्रहण किया करते थे।' जिस सम्पत्ति का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था उसका उत्तराधिकारी राजा होता था। अतः भगु पुरोहित के सपरिवार दीक्षा ले लेने पर इषुकार देश का राजा उस पर अपना अधिकार बतलाता है। ___ राजाओं का ऐश्वर्य-राजाओं का ऐश्वर्य देवों के तुल्य होता था। इनके प्रासादों के तलभाग में मणि-रत्नादि जड़े रहते थे।४ सिर पर छत्र-चामर ढलाए जाते थे।५ ये नृत्य, गीत, वाद्य आदि संगीत-सामग्री से युक्त नारीजनों के साथ भोग भोगा करते थे। युद्ध में कुशलता प्राप्त करने के लिए कभी-कभी ये १. पुत्तं रज्जे ठवित्ता णं। -उ० १८.३७. तथा देखिए-उ० ९.२; १८.४७. २. पुरोहियं तं ससुयं सदारं सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुडुंबसारं विउलुत्तमं च रायं अभिक्खं समुवाय देवी ॥ -उ० १४.३७. ३. सो देवलोगसरिसे अंते उरवरगओ वरे भोए । भुंजित्तु नमी राया बुद्धो भोगे परिच्चयई ।। -उ०६.३. तथा देखिए-उ० ६.५१. ". ४. मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणे ठिओ । आलोएइ नगरस्स चउक्कत्तिय चच्चरे । -उ० १६.४. ५. अह ऊसिएण छत्तेण चामराहि य सोहिओ। -उ० २२.११. न हि गोएहिं य वाइएहिं नारीजणाई परिवारयंतो । -उ० १३.१४. तथा देखिए-पृ०४२३, पा० टि० ३. For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन - सैन्यदल के साथ शिकार खेलने भी जाते थे। ये सुकुमार, सुसज्जित और सूखोचित होते थे ।२ भोग-विलासता के कारण कभी-कभी. कोई कोई राजा अपना राज्य भी हार जाता था। प्रधान राजा के आधीन अन्य कई राजागण होते थे जो एक-एक देश के स्वामी होते थे। राजा की दीक्षा के अवसर का दृश्य भी दर्शनीय होता था।५ राजाओं का इतना ऐश्वर्य एवं प्रभत्व होने पर भी राजाज्ञा को सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार नहीं करते थे अपितु दबाव एवं भय के कारण मानते थे। अतः ग्रन्थ में अविनीत शिष्य के द्वारा गुरु की आज्ञा पालन करने के विषय में राजाज्ञा का दृष्टान्त दिया गया है। राजाओं के प्रमुख कार्य-राजा को अपने राज्य का विस्तार करने तथा शत्र के आक्रमण से राज्य की सुरक्षा करने के लिए युद्ध करना पड़ता था। अतः युद्ध में कुशल होना राजा को आवश्यक होता था। राजा का प्रधान बल सेना थी और वह युद्धस्थल में सेना से ही शोभित होता था। सेना चार भागों (हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल ) में विभक्त रहती थी जिसे चतुरंगिणी सेना १. देखिए-पृ० ४१६, पा० टि० ४. २. सुहोइओ तुमं पुत्ता सुकुमालो सुमज्जिओ। . . -उ० १६.३५.. ३. अपत्थं अंबगं मोच्चा राया रज्जं तु हारए । -उ० ७.११. ४. जे केइ पत्थिवा तुझं नानमंति नराहिवा। वसे ते ठावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ॥ -उ० ६.३२. अनिओ रायसहस्सेहिं सुपरिच्चाई...। -उ०१५.४३. ५. कालोहलगभूयं आसी मिहिलाए पव्वयंतम्मि । -उ० ६.५. ६. रायवेट्टि च मन्नता करेंति भिउडि मुहे । -उ० २७.१३. ७. देखिए-पृ० ४०२, पा० टि० १. For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४२५ कहते थे।' हाथी और घोड़े युद्ध में प्रमुख सहायक होते थे। इनमें हाथी सबसे आगे रहता था।२ शत्र के प्रहारों को रोकने के लिए घोड़ों को कवच पहनाए जाते थे। विजेता प्रधान सैनिक सबके द्वारा प्रशंसित होता था। राज्य की दढ़ता और अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए राजा के कुछ कर्तव्यों का उल्लेख इन्द्र-नमिसंवाद में मिलता है। जैसे : १. राज्य में प्रजा को किसी प्रकार का दुःख न हो। अतः नीतिमान शासक को प्रजा पर अनुकम्पा करनेवाला होना चाहिए। इसीलिए इन्द्र राजा नमि की दीक्षा के समय पूछता है कि आज मिथिला में इतना कोलाहल क्यों व्याप्त है तथा महलों आदि में दारुण शब्द क्यों सुनाई पड़ रहे हैं ? ५ चित्त मुनि भी ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को सब प्रजा पर अनुकम्पा करने तथा धर्मस्थ होकर आर्यकर्म करने का उपदेश देते हैं। २. अन्तःपुर, मन्दिर आदि को जलते हुए देखकर उनकी सुरक्षा करे। अतः इन्द्र दूसरा प्रश्न एतद्विषयक ही पूछता है ।। १. चउरंगिणीए सेणाए रइयाए जहक्कम । तुडियाणं सन्निनाएणं दिव्वेणं गगणंफुसे । -उ० २२.१२. तथा देखिए-पृ. ४१६, पा० टि० ४. २. देखिए-पृ० ४१३, पा० टि० ३; उ० २१.१७. ३. आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी। -उ०४.८. ४. जहाइण्ण समारूढे सूरे दढपरक्कमे । . . . . उभओ नंदिघोसेणं एवं हवइ बहुस्सुए। -उ० ११.१७ ५. किण्णु भो अज्ज"..."सुव्वंति दारुणा सद्दा । -उ० ६.७. ६. अज्जाई कम्माई करेहि रायं धम्मे ठिओ सव्वपयाणु कम्पी । -उ० १३.३२. ७. एस अग्गी य वाऊ य कीसं गं नावपेक्खह । -उ० ६.१२. For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन .. ३. शत्रुओं के आक्रमण से राज्य की सुरक्षा के लिए किला, .. गोपुर, ( किले का दरवाजा ), अट्टालिका, खाई, उत्सूलका ( किले. की खाई ), शतघ्नी ( बन्दूक ), धनुष, अर्गला, नगर, केतन, डोरी, बाण आदि बनवाना चाहिए।' इनके अतिरिक्त राजा को अन्य शस्त्रादि का भी निर्माण करवाना पड़ता था। ग्रन्थ में ऐसे अन्य कई शस्त्रों का उल्लेख मिलता है। जैसे : असि ( अतसी पुष्प के रंग की तलवार ), करपत्र (आरा), क्रकच (आरा विशेष), कुठार, कल्पनी. ( कतरनी ), गदा, त्रिशूल, क्षरिका, मूसल, मुग्दर ( जिसके दोनों किनारों पर त्रिशूल हो ), भल्ली (भाला), वासी (परशु ), अंकुश ( हाथी को वश में रखने का चाबुक ), तूर्य ( वादित्र ), लोहरथ, समिला ( रथ की धुरी ) आदि । ४. वास्तुकला आदि के विकास के लिए विविध प्रकार से अलंकृत अनेक प्रासादों का निर्माण कराना। राज्य में वास्तुकला का विकास कराने में राजा ही समर्थ होता था क्योंकि ये प्रासाद बहुत व्यय साध्य होते थे। ऐसे कुछ प्रासादों का उल्लेख ग्रन्थ में भी मिलता है। ५. चोरी करनेवाले ( आमोष ), डाकू ( लोमहर ), रास्ते में लूटनेवाले लुटेरे ( ग्रन्थि-भेदक ) तथा ठगनेवाले ( तस्कर ) चोर विशेषों से नगर की रक्षा ।५ ग्रन्थ में दस्यु और म्लेच्छों की संख्या १. पागारं कारइत्ता गं गोपुरट्टालगाणि य । उस्सूलग सयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया ।। -उ० ६.१८. तथा देखिए-उ०६.२०-२२. २. उ० १६.३८, ५२, ५६-५७, ६०, ६२-६३, ६७-६८, ९३, १४.२१% २०.४७; २१.५७; २२.१२, २७.४,७; ३४.१८. ३. पासाए कारइत्ताणं बद्धमाणगिहाणि य । वालम्ग पोइयाओ य तओ गच्छसि खत्तिया ॥ -उ० ६.२४. ४. वही; उ० ६.७; ३५.४; १.२६; १६.३.४; १३.१३. ५. आमोसे लोमहारे य गंठिभेए य तक्करे । . नगरस्स खेम काऊणं तओ गच्छसि खत्तिया ॥ -3.६.२८. . For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४२७ बहुत अधिक बतलाई गई है ।' चोर सेंध लगाकर चोरी करते थे । २ पकड़े जाने पर राजदण्ड मिलता था। फांसी का दण्ड मिलने के पूर्व अपराधी को कोई निश्चित वेश-भूषा पहनाई जाती थी जिससे लोग पहचान लेते थे कि अमुक ने चोरी की है। अतः समुद्रपाल वधस्थान को ले जाए जानेवाले वधयोग्य चिह्नों से विभूषित वध्य (चोर) को देख कर वैराग्य को प्राप्त हो जाता है । 3 कभी-कभी सच्चा अपराधी नहीं पकड़ा जाता था और निरपराध को दण्ड मिल जाता था। ६. राज्य का विस्तार करने तथा प्रभुत्व स्थापित करने के लिए नमस्कार न करनेवाले राजाओं को वश में करने का निरन्तर प्रयत्न कराना । ५ ७. लोकहितकारक बड़े-बड़े यज्ञ कराना तथा श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन-पान करना । ८. स्व-पराक्रम से प्राप्त वस्तु का ही उपभोग करना । अतः इन्द्र राजानमि से कहता है कि आप गृहस्थाश्रम में ही रहें अन्य ( संन्यास) आश्रम की अभिलाषा न करें क्योंकि संन्यासाश्रम में याचनापूर्वक जीवन यापन करना पड़ता है। दूसरों से याचना करना क्षत्रियधर्म के विपरीत है । १. बहवे दसुया मिलेक्खुया । - उ० १०.१६. २. तेणे जहा संधिमुहे गहीए । - उ० ४.३. ३. वज्झमंडण सोभागं वज्झं पासइ वज्झगं । - उ० २१. ८. ४. असई तु मणुस्सेहि मिच्छादंडो पजुञ्जई । अकारिणोऽत्य बज्झति मुच्चई कारओ जणो । ५. देखिए - पृ० ४२४, पा० टि० ४. ६. देखिए - पृ० ४०६, पा० टि० ४. ७. देखिए - पृ० २३५, पा० टि० ३. - उ० ६.३०. For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन 8. राज्यकोश की वद्धि करना। राजा को कोशवद्धि करना आवश्यक होता था क्योंकि कोश न होने पर राज्य चिरस्थायी नहीं हो सकता था। अतः इन्द्र राजा को हिरण्य, सुवर्ण, मणि, मुक्ता, कांस्य, दूष्य ( वस्त्र ), वाहन ( हाथी-घोड़े ) आदि से कोशवृद्धि करने को कहता है।' कोशवद्धि में सतत प्रयत्नशील रहने के कारण ग्रन्थ में क्षत्रियों को लोक के सम्पूर्ण पदार्थों की प्राप्ति होने पर भी अतृप्त होने के दृष्टान्तरूप में बतलाया गया है। १०. शरणागत को अभयदान देना। अतः मुनि की शरण में आए हुए मृग को मारनेवाला राजा संजय मुनि से क्षमा मांगता है।' - इस तरह तत्कालीन राज्य-व्यवस्था की कुछ झलक ग्रन्थ में मिलती है। मानव-प्रवृत्तियां : उस समय जनसामान्य की प्रवृत्तियां किस प्रकार की थीं? इस विषय में केशि-गौतम संवाद में एक उल्लेख मिलता है। इसमें बतलाया गया है कि आदिकाल ( ऋषभदेव के समय ) के जीव 'ऋजुजड़' थे । इसका अर्थ है-सरल प्रकृति के तो थे परन्तु अर्थबोध अधिक कठिनाई से होता था अर्थात् इस समय के व्यक्ति विनीत होकर के भी विवेक से रहित थे। इसके बाद मध्यकाल (ऋषभदेव के बाद तथा महावीर के जन्म लेने के पूर्व ) के जीव 'ऋजुप्राज्ञ' थे। इसका अर्थ है-सरल के साथ बुद्धिमान् थे अर्थात् ये थोड़े से संकेत मात्र से सब समझ जाते थे और विनीत भी थे। परन्तु महावीर के काल के जीव जिनके शासन काल में उत्तराध्ययन का संकलन हुआ है 'वक्रजड़' थे। इसका अर्थ है-कुतर्क करनेवाले तथा विवेक से १. हिरण्णं सुवणं मणिमुत्तं कंसं इसं च वाहणं । कोसं वडढावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ।। -उ० ९.४६. २. न निविजति संसारे सव्वट्ठसु व खत्तिया। -उ० ३.५. तथा देखिए-उ० ६.४६, . ३. देखिए-पृ० ४२१, पा०, टि० २; उ० १८.७, ११. • For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४२९ हीन अर्थात् धार्मिक उपदेश को कुतर्क द्वारा खण्डित करनेवाले तथा विवेक से रहित ।' अतः इसका अर्थ हुआ कि ग्रन्थ के रचनाकाल में जनता का धर्म के प्रति विश्वास घटता जा रहा था और वे संसार के भोगों में निमग्न होते जा रहे थे । हिंसा, झूठ, लूटपाट, चोरी, मायाचारी, शठता, कामासक्ति, धनादि-संग्रह में आसक्ति, मद्य-मांसभक्षण, पर-दमन, अहंकार, लोलुपता आदि अनेक प्रवृत्तियां जनता में बढ़ रह थीं । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस समय के सभी लोग ऐसे ही थे अपितु बहुत से जीव सदाचारी भीथे । उन्हें अपने कुल, जाति आदि की प्रतिष्ठा का भी ध्यान था । अतः राजीमती संयम से पतित होनेवाले रथनेमी को कुल का स्मरण कराकर उसे व स्वयं को संयम में दृढ़ करती है । ऐसे लोग बहुत कम थे । अतः ग्रन्थ में कई स्थलों पर द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा भावयज्ञ, बाह्यशुद्धि की अपेक्षा अन्तरंगशुद्धि, बाह्यलिङ्ग ( वेष-भूषा ) की अपेक्षा आन्तरिक लिंग, द्रव्य-संयम की अपेक्षा भाव-संयम की प्रधानता बतलाई गई है। इसके अतिरिक्त भाव-संयम से हीन व्यक्ति की निन्दा भी की गई है । ४ धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदाय : : धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों के संचालक प्रायः साधु होते थे । जनसामान्य की तरह ये भी संयम से पतित होकर विषयों के प्रति उन्मुख हो रहे थे । कामासक्ति सबसे अधिक थी । अतः ग्रन्थ में ब्रह्मचर्य व्रत को सबसे कठिन बतलाकर अपरिग्रह व्रत से पृथक् स्वतन्त्र व्रत के रूप में इसे स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त और भी अन्य अनेक कुप्रवृत्तियाँ साधु सम्प्रदाय में बढ़ रही थीं । अतः ग्रन्थ १. देखिए - पृ० २५७, पा० टि० १. २. उ० ५.५-६, ६-१० ७.५-७, २२; १०.२० १७.१; १४.१६; ३४.२१ - ३२ आदि । ३. अहं च भोगरायस्स तं चासि अंघगवहिणो । मा कुले गंधणा होमो संजम निहुओ चर । ४. देखिए - पृ० २३८, पा० टि० ३; अनुशीलन, प्रकरण ५. - उ० २२.४४. पृ० २३६, पा० टि० १-३; For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन में बार-बार साधु को सचेष्ट रहने के लिए कहा गया है। सत्रहवें अध्य यन में पतित-साधुओं के कुछ ऐसे ही क्रिया-कलापों का वर्णन किया गया है। धार्मिक सम्प्रदायों में यद्यपि प्रकृत ग्रन्थ में जैन श्रमणों के आचार का ही वर्णन किया गया है परन्तु कुछ ऐसे संकेत भी मिलते हैं जिनसे अन्य धार्मिक सम्प्रदायों की स्थिति का भी पता चलता है। ग्रन्थ में उन्हें असत् अर्थ की प्ररूपणा करनेवाले, मिथ्यादृष्टि, पाखण्डी आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है । ' - उन सम्प्रदायों के नाम थे :२ १. क्रियावादी ( केवल क्रिया से मुक्ति माननेवाले ), २. अक्रियावादी ( आत्मा की क्रियाशीलता में विश्वास न करनेवाले ), ३. विनयवादी ( पशु-पक्षी आदि सभी के प्रति विनयभाव रखनेवाले ), ४. अज्ञानवादी ( मुक्ति के लिए ज्ञान की अपेक्षा न स्वीकार करनेवाले ) ५. शाश्वतवादी ( वस्तु को नित्य माननेवाले )। इन सम्प्रदायों का उल्लेख जैन आगमों में विस्तार से मिलता है। ____इन चार प्रकार के दार्शनिक सम्प्रदायों के अतिरिक्त ग्रन्थ में बाह्य वेष-भूषा के आधार से पांच प्रकार के साधु-सम्प्रदायों का भी उल्लेख है :४ १. चीराजिन ( वस्त्र व मृगचर्म धारण करने१. कुतित्थिनिसेवए जणे । -उ० १०.१८. पासंडा कोउगासिया ॥ -उ० २३.१६. तथा देखिए-उ० १८.२६-२७, ५२. २. किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं च महामुणी। एएहिं चउहि ठाणेहिं मेयन्ने कि पभासई ॥ -उ०१५.२३. स पुष्वमेवं न ल भेज्ज पच्छा एसोवमा सासय वाइयाणं । -उ० ४.६. ३. देखिए-जै० भा० स०, पृ० ३७६, ४२८; सूत्रकृतांगसूत्र १.१२.१. . ४. चीराजिणं नगिणिणं जडी संघाडि मुंडिणं । एयणि वि न तायंति दुस्सील परियागयं ।। -उ० ५.२१. For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४३१ वाले ), २. नग्न ( नग्न रहनेवाले जैनेतर साधु ), ३. जटाधारी, ४. संघाटी ( गुदड़ी के वस्त्र धारण करनेवाले ) और ५. मुण्डित ( शिर मुड़ानेवाले जैनेतर साधु ) । इन सम्प्रदायों के अतिरिक्त उस समय और भी रहे होंगे परन्तु उनका यहाँ उल्लेख नहीं मिलता है । संवाद से स्पष्ट है कि जैनश्रमणों में भी दो सम्प्रदाय थे : १. सचेल ( पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य ) और २. अचेल ( महावीर की परम्परा के शिष्य ) । ये ही दोनों सम्प्रदाय कालान्तर में श्वेताम्बर ( स्थविरकल्प ) और दिगम्बर ( जिनकल्प ) सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध हुए । अনুळन सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से उस समय जाति और वर्ण के आधार पर सामाजिक संगठन था । जात-पांत का भेदभाव बहुत बढ़ चुका था । शूद्रों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी । ये दास के रूप में काम करते थे और इनका सर्वत्र निरादर होता था । ब्राह्मणों का आधिपत्य था और वे धर्म के नाम पर यज्ञों में अनेक : मूक- पशुओं की हिंसा करके अपना उदर-पोषण करते थे । ये वेदों वास्तविक अर्थ को नहीं समझते थे । जैनों का उनसे वाद-विवाद होता था। अधिकांश क्षत्रिय और वैश्य काफी धनसम्पन्न थे । क्षत्रिय प्रजा पर शासन करते और भोग-विलास में लीन रहते थे । कुछ क्षत्रिय राजा श्रमणदीक्षा भी ले लेते थे । वैश्य विदेशों तक व्यापार करने जाते और निमित्त मिलने पर श्रमण-दीक्षा भी ले लेते थे । कई सम्प्रदाय केशि- गौतम परिवार में माता-पिता का स्थान सर्वोपरि होता था । पिता परिवार का पालन-पोषण करता था । परिवार में पुत्र सबको प्रिय था। माता-पिता पुत्र के अभाव में घर में रहना निरर्थक समझते थे । परिवार में माता-पिता की शोभा पुत्र से ही मानी जाती थी । . अतः पुत्र के दीक्षा ले लेने पर माता-पिता बड़े चिन्तित होते थे और कभी-कभी माता-पिता भी पुत्र के साथ दीक्षा ले लेते थे । पिता की के बाद परिवार की बागडोर पुत्र ही सम्हालता था । 1 मृत्यु For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन साधारणतः पत्नी का जीवन पति-भक्ति तक ही सीमित था। अतः कभी-कभी पति के दीक्षा ले लेने पर पत्नियां भी दीक्षा ले लेती थीं। पति के लिए पत्नियां प्राय: भोगविलास की साधन थीं। कुछ पत्नियाँ पति को भी प्रबोधित करती थीं। एक भाई दूसरे भाई से साधरणतया प्रेम करता था। _ नारी यद्यपि परिवार से पृथक् नहीं है परन्तु उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। पुरुष जैसा चाहता वैसा उसके साथ व्यवहार करने में स्वतन्त्र था। पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करके संयम से पतित करने में कारण नारी ही होती थी। परन्तु यह पुरुष की एकांगी धारणा थी क्योंकि वह अपने आपको संयमित न कर सकने के कारण नारी को दोष देता था और उसे भला-बुरा सब कुछ कहता था। अन्यथा राजीमती, कमलावती जैसी श्रेष्ठ नारियों की भी कमी नहीं थी जिन्होंने पुरुषों को. संयम में प्रवृत्त कराया। यह सच है कि ऐसी श्रेष्ठ नारियाँ कम थीं और अधिकांश नारियां परापेक्षी तथा भोग-विलास में ही निमग्न थीं। ये पिता के द्वारा जिसे दे दी जाती थीं उनका सर्वस्व वही हो जाता था। पति के दीक्षा ले लेने पर कुछ नारियां उनका अनुसरण भी करती थीं। कुछ पति की मृत्यु हो जाने पर पर-पुरुष का भी आलम्बन कर लेती थीं। इस तरह स्त्रियों की स्वतन्त्र-स्थिति का प्रायः अभाव था। धार्मिक-प्रथाओं में यज्ञ का अत्यधिक प्रचलन था। यज्ञों में अनेक मूक-पशुओं की बलि दी जाती थी। कुछ ऐसे भी यज्ञ होते थे जो घृतादि के द्वारा ही सम्पन्न किए जाते थे। इनमें हिंसा नहीं होती थी और ऐसे यज्ञमण्डपों में जैनश्रमण भी भिक्षार्थ जाया करते थे। कभी-कभी वहां उनका तिरस्कार भी होता था परन्तु फिर भी वे वहां पर शान्त रहते और अवसर मिलने पर यज्ञ की भावपरक आध्यात्मिक व्याख्याएँ भी किया करते थे। ___ स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध कराने के लिए विवाह की प्रथा प्रचलित थी। उसमें प्रायः पिता ही सर्वोपरि होता था। अतः पुत्र या पुत्री के अधिकांश सम्बन्ध पिता ही निश्चित किया करता था । श्रेष्ठ कन्याओं का विवाह बड़े उत्सव के साथ होता था। For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [४३३ बारात के साथ वर कन्या के घर जाता था परन्तु हरेक विवाहसम्बन्ध में वर बारात के साथ कन्या के घर नहीं जाता था। इसीलिए राजीमती के पिता उग्रसेन केशव से बारात लेकर आने को कहते हैं। वर जब बारात के साथ प्रस्थान करता था तो उसे नाना प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित किया जाता था तथा देश व कुल की परम्परानुसार कौतुक-मंगल आदि कार्य भी किए जाते थे। कुछ कन्याएँ राजाओं को भेंटरूप में भी दे दी जाती थीं। व्यापार के लिए विदेश गए हुए वैश्य पुत्र कभी-कभी विदेश में ही विवाह कर लेते थे और कुछ दिन घरजमाई बनकर अपने घर वापिस आ जाते थे। उस समय बहु-विवाह भी होते थे। कभीकभी पिता पुत्र के लिए कहीं से सुन्दर कन्या भी ले आते थे। ऐसे सम्बन्ध शायद खरीदकर लाई गई अथवा भेंटरूप में दी गई अथवा बलात् छीनकर लाई गई कन्याओं के साथ होते रहे होंगे। जैसा कि अन्य तत्कालीन जैन आगम-ग्रन्थों में धन देकर कन्याओं को खरीदने के उल्लेख मिलते हैं।' कभी-कभी विवाह-सम्बन्ध देव की प्रेरणा आदि से भी कर दिए जाते रहे होंगे। इस तरह स्त्री और पुरुष को एक बन्धन में बांधने (विवाह ) के लिए कोई एक निश्चित रिवाज नहीं था अपितु यथासुविधा ये सम्बन्ध हो जाया करते थे। __ परिवार में किसी के मर जाने पर उसका दाह-संस्कार करने का रिवाज था । दाह-संस्कार प्रायः पुत्र या पिता करता था। इसके बाद कुछ दिन शोक करके उसके सभी सम्बन्धीजन अपने-अपने कार्यों में यथास्थान लग जाते थे। . जीविका निर्वाह तथा युद्ध आदि में उपयोग के लिए पशुपक्षियों का पालन किया जाता था। पशुओं में हाथी, घोड़ा, गाय, बकरा आदि प्रमुख थे। खान-पान में घी, दूध, फल, अन्न, मांस-मदिरा आदि का आम-रिवाज था। बकरे का मांस बड़े चाव से खाया जाता था। अतः 'एलय' अध्ययन में 'कर्कर' शब्द करते हुए बकरे के मांस-भक्षण का दृष्टान्त दिया गया है। १. जै० भा० स०, पृ० २५५. For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन 1 क्षत्रिय राजा लोग युद्ध-कौशल तथा मनोरंजन आदि के लिए चतुरंगिणी सेना के साथ मृगया - विहार के लिए जाया करते थे । ये शहर के समीप वर्तमान उद्यानों में जाकर स्त्रियों के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए मनोरंजन भी करते थे । धनिक व्यापारी लोग नाव से समुद्र पार करके विदेश में व्यापार करने के लिए भी जाते थे । समुद्रयात्रा में विघ्नों की संभावना अधिक रहती थी । यह समुद्रयात्रा करने का सामर्थ्य प्रायः व्यापारियों में ही अधिक था । कभी-कभी वणिक् स्त्रियां भी समुद्रयात्रा करती थीं । समुद्रयात्रा में इतना समय लगता था कि कभी-कभी गर्भवती स्त्रियां रास्ते में प्रसव भी कर दिया करती थीं । • रोगादि का निवारण औषधिसेवन के अतिरिक्त मन्त्र तन्त्रसे शक्तियों से भी किया जाता था। इलाज करनेवाले बहुत चिकित्सक होते थे और वे वमन आदि क्रिया के द्वारा रोग का इलाज किया करते थे । मन्त्र तन्त्र शक्ति में जनता का काफी विश्वास था । कुछ लोग तपस्या के प्रभाव से मन्त्रादि शक्ति प्राप्त करके जीविका भी चलाते थे । जनता में अन्धविश्वास भी अधिक था । शुभाशुभ शकुनों का विचार किया जाता था। जैनश्रमणों को इन सबसे दूर रहने का विधान था । I समाज में सुख-शान्ति बनाए रखने के लिए शासन-व्यवस्था थी। शासन का अधिकार क्षत्रियों के हाथ में था । शासन करनेवाला राजा कहलाता था । ये प्रायः एक-एक देश के स्वामी होते थे और देश की उन्नति आदि के लिए प्रयत्न किया करते थे । सभी देशों पर एकछत्र राज्य करनेवाला 'चक्रवर्ती' कहलाता था और उसे सभी राजागण नमस्कार करते थे । राजगद्दी प्राप्त करने का अधिकारी सामान्यरूप से राजा का पुत्र होता था । लावारिश सम्पत्ति का अधिकारी राजा होता था । इनका ऐश्वर्य देवों के तुल्य था । ये प्राय: अन्तःपुर की रानियों आदि के साथ भोग-विलास में लिप्त रहा करते थे । कभी-कभी ये श्रमण-दीक्षा भी ले लेते थे । जब कोई योग्य शासक दीक्षा लेता था तो उस समय का दृश्य बड़ा ही दर्शनीय और कारुणिक होता था । शत्रुओं के आक्रमण होते रहने से राजागण सदैव सैन्यदल बढ़ाने तथा कोषवृद्धि करने के प्रति For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ७ : समाज और संस्कृति [ ४३५ जागरूक रहते थे । इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों आदि का निर्माण भी कराते थे । चोर व डाकू भी कई प्रकार के थे । उन्हें पकड़ने और दण्ड देने के लिए न्याय की व्यवस्था थी । अपराधी को मृत्यु - दण्ड भी दिया जाता था । अपराधी को वधस्थान ले जाते समय उसे एक निश्चित वेश-भूषा पहनाकर शहर में घुमाया जाता था ताकि अन्य लोग उसे देखकर वैसा काम न करें । शरणागत की रक्षा की जाती थी । राजाज्ञा को सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार नहीं करते थे । नाट्यकला, स्थापत्यकला, संगीतकला, चित्रकला आदि का विकास था और इनका विकास प्राय: राजाओं के द्वारा ही होता था । 1 जनसामान्य की प्रवृत्ति धर्म से हटकर भोग-विलास की ओर Safar थी । यद्यपि श्रेष्ठ साधुगण धर्म में स्थिर करने के लिए प्रयत्नशील थे फिर भी लोग अपने आचार से बहुत अधिक मात्रा में पतित हो रहे थे । आचार से पतित होनेवाले साधु लोग कुतर्क करके गुरु एवं आचार्य आदि की अवहेलना करते थे । धार्मिक तथा दार्शनिक साधुओं के कई सम्प्रदाय थे । इन सबमें जैन श्रमणों तथा ब्राह्मणों का आधिपत्य था । श्रेष्ठ साधुओं का सत्कार सर्वत्र होता था। राजा भी उनके कोप से भयभीत रहते थे । जैन श्रमणों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी जातियों के व्यक्ति थे । अधिकांश क्षत्रिय थे । जैनश्रमणों के भी दो सम्प्रदाय थे जिन्हें श्रावस्ती के उद्यान में हुए एक सम्मेलन द्वारा एक में मिला दिया गया था परन्तु कालान्तर में वे पुनः श्वेताम्बर और दिगम्बर के रूप में प्रस्फुटित हुए । " इस तरह उत्तराध्ययन में समाज और संस्कृति का जो सामान्य चित्रण मिलता है वह तत्कालीन अन्य ग्रन्थों का अवलोकन किए बिना पूर्ण नहीं कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययन के मुख्यतः धार्मिक ग्रन्थ होने से तथा किसी एक काल-विशेष की रचना न होने से इसमें चित्रित समाज व संस्कृति से यद्यपि किसी एक काल - विशेष का पूर्ण चित्र उपस्थित नहीं होता है फिर भी तत्कालीन समाज एवं संस्कृति की एक झलक अवश्य मिलती है । For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इस सब विवेचन से इतना तो निश्चित है कि उस समय समाज चार वर्णों तथा चार आश्रमों में विभक्त था, जाति-प्रथा का जोर था, ब्राह्मणों का आधिपत्य था, वैदिक यज्ञों का बोलबाला था, जनश्रमणों का जीवन कष्टप्रद होने पर भी उनका प्रसार हो रहा था, समुद्रपार जहाजों से व्यापार होता था, राजा लोग राज्य के विस्तार के लिए सतत प्रयत्नशील रहते थे जिससे अक्सर युद्ध हुआ करते थे, शूद्रों की स्थिति दयनीय थी, नारी विकास की ओर कदम उठा रही थी, समाज भोग-विलास की ओर गतिशील था, धर्म के प्रति जनता की अभिरुचि कम थी तथा धार्मिक एवं दार्शनिक मत-मतान्तर काफी थे। For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण द उपसंहार उत्तराध्ययन सूत्र अर्ध-मागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक धार्मिक काव्य ग्रन्थ है । यह किसी एक व्यक्ति की किसी एक काल रचना नहीं है अपितु इसमें मुख्यतः भगवान् महावीर-परिनिर्वाण के समय दिए गए उपदेशों का विभिन्न समयों में किया गया संकलन है । भगवान् महावीर के शिष्यों ने उनके जिस उपदेश को ग्रन्थों के रूप में निबद्ध किया वे अंग और अंगबाह्य आगम ( श्रुत) कहे जाते हैं । इनमें से जो साक्षात् महावीर के शिष्यों (गणधरों) के द्वारा रचित हैं वे अंग और जो तदुत्तरवर्ती पूर्वाचार्यो ( श्रुतज्ञों ) के द्वारा रचित हैं वे अंगबाह्य कहलाते हैं । इनमें अंग-ग्रन्थों का प्राधान्य है । उत्तराध्ययन उपांग मूलसूत्र आदि अंगबाह्य के भेदों में से मूलसूत्र विभाग में आता है । यद्यपि मूलसूत्र शब्द का अर्थ विवादास्पद है परन्तु उत्तराध्ययन प्राचीनता, आदि सभी दृष्टियों से मूलसूत्र कहे जाने के योग्य है । उत्तराध्ययनयद्यपि अंगबाह्य ग्रन्थों में आता है तथापि यह अंगग्रन्थों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । भाषा और विषय की प्राचीनता की दृष्टि से अंग और अंगबाह्य समस्त आगम ग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान है । मौलिकता, मूलरूपता तथा विषय प्रतिपादनशैली की सुबोधता आदि के कारण यह चारों मूलसूत्रों में अग्रगण्य है । . विन्टरनित्स आदि विद्वानों ने इसकी तुलना धम्मपद, सुत्तनिपात, जातक, महाभारत तथा अन्य ग्रन्थों से की है । इसी महत्त्व के कारण कालान्तर में इस पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया तथा वर्तमान में भी लिखा जा रहा है । मूलरूपता, मौलिकता दिगम्बर- परम्परा में भी उत्तराध्ययन का यद्यपि सविशेष उल्लेख मिलता है परन्तु वर्तमान में उपलब्ध उत्तराध्ययन को वे अन्य आगम ग्रन्थों की ही तरह प्रामाणिक नहीं मानते हैं । इसे प्रामाणिक न मानने का मुख्य कारण है - इसमें प्रतिपादित साधु के For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सामान्य आचार से सम्बन्धित कुछ सैद्धान्तिक मतभेद । परन्तु ग्रन्थ में आए हुए केशि-गौतम संवाद तथा अन्य कई स्थलों को देखने से ज्ञात होता है कि यह बाह्य सैद्धान्तिक मतभेद कोई महत्त्व नहीं रखता है। ग्रन्थ में सर्वत्र बाह्योपचार की अपेक्षा आभ्यन्तरिक उपचार एवं वीतरागता पर जोर दिया गया है जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों को मान्य है। यह अवश्य है कि महावीर के परिनिर्वाण के बाद करीब १००० वर्षों के मध्य इसमें भी अन्य आगम-ग्रन्थों की तरह परिवर्तन और संशोधन होने पर भी यह अपने मूलरूप में सुरक्षित है। जिस प्रकार 'मूलसूत्र' शब्द के अर्थ में मतभेद है उसी प्रकार उत्तराध्ययन के नामकरण के विषय में भी निश्चित मत नहीं है । नियुक्तिकार के अनुसार उत्तराध्ययन का अर्थ है-जिसका आचाराङ्गादि अंग-ग्रन्थों के बाद अध्ययन किया जाए। श्री कानजी भाई पटेल ने अपने लेख 'उत्तराध्ययन-सूत्र : एक धार्मिक काव्यग्रन्थ' में लायमन का मत उदधत करते हए 'Later Reading' का अर्थ 'अन्तिम रचना' किया है। यद्यपि Later Reading का यह अर्थ संदिग्ध है फिर भी यदि ऐसा एक विकल्प मान भी लें तो कोई आपत्ति भी नहीं है । ये दोनों ही मत सयुक्तिक प्रतीत होते हैं क्योंकि उत्तराध्ययन के अध्ययनों के अध्ययन की परम्परा आचाराङ्गादि अंग-ग्रंथों के बाद रही है तथा इसकी रचना भी भगवान महावीर के उत्तरकाल ( परिनिर्वाण के समय ) में हुई है । 'उत्तर' शब्द का 'बिना पूछे प्रश्नों का उत्तर' अर्थ करके अथवा 'उत्तरोत्तर अध्ययनों की श्रेष्ठता' अर्थ करके जिसमें बिना पूछे प्रश्नों का उत्तर दिया गया हो अथवा जिसके अध्ययन उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हों वह उत्तराध्ययन है, ऐसी मान्यता वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ के आधार पर सही नहीं कही जा सकती है क्योंकि प्रकृत ग्रन्थ में ऐसा कोई संकेत नहीं है । ___ उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन हैं जिनमें मुख्यरूप से नवदीक्षित जैन साधुओं के सामान्य आचार-विचार के साथ जैनदर्शन के मूलभूत दार्शनिक सिद्धान्तों की सामान्य चर्चा की गई है। ऐसा होने पर भी हम इसे मात्र जैन साधुओं के आचार-विचार तथा शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक नीरस ग्रन्थ नहीं कह सकते For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४३६ हैं क्योंकि इसमें साधुओं के आचार-विचार आदि का मुख्यरूप से उपदेशात्मक व आज्ञात्मक शैली में प्रतिपादन होने तथा बहुत्र विषय की पुनरावृत्ति होने पर भी साहित्यिक गुणों का अभाव नहीं हुआ है। यद्यपि कुछ अध्ययन अवश्य शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने के कारण नीरस प्रतीत होते हैं परन्तु अन्यत्र उपमा, दृष्टान्त, रूपक आदि अलंकारों तथा सुभाषितों से मिश्रित कथात्मक व संवादात्मक सरस शैली का प्रयोग किया गया है जिससे कहीं-कहीं इसके साहित्यिक गुणों का उत्कर्ष भी हुआ है। इसके अध्ययनों को विषय-शैली की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। जैसे : १. शुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक अध्ययन, २. नीति एवं उपदेश-प्रधान अध्ययन और ३. आख्यानात्मक अध्ययन । यह विभाजन प्रधानता की दृष्टि से ही संभव है क्योंकि प्रायः सर्वत्र सैद्धान्तिक चर्चा की गई है। __कर्मणा जातिवाद की स्थापना, बाह्यशुद्धि की अपेक्षा आभ्यन्तरशुद्धि की प्रधानता, देश-काल के अनुरूप धार्मिक नियमों में परिवर्तन, ज्ञान की प्राप्ति के लिए विनम्रता, यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या, व्यक्ति का पूर्ण स्वातन्त्र्य व परमात्मा बनने की क्षमता, देवों की अपेक्षा मनुष्यजन्म की श्रेष्ठता, सुख-दुःख की प्राप्ति में व्यक्ति के द्वारा स्वतः किए गए भले-बुरे कर्मों की कारणता, वशीकृत आत्मा के द्वारा अवशीकृत आत्मा पर विजय प्राप्त करने का आध्यात्मिक संग्राम, गुरु शिष्य के आपस के सम्बन्ध, हर मुसीबत का अडिगतापूर्वक मुकाबला, ब्राह्मण का आदर्श स्वरूप, अहिंसा-सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह इन पाँच नैतिक नियमों की · · 'सूक्ष्म व्याख्या, संसार की अनादिता के साथ संसार के विषय-भोगों की असा रता, वीतरागता का उपदेश, विश्वबन्धुत्व की भावना, चेतन व अचेतन का विश्लेषण, पुनर्जन्म, स्त्री-मुक्ति व जीवन्मुक्ति में विश्वास, अनादिमुक्त ईश्वर की सत्ता में अविश्वास, जीवन का अन्तिम लक्ष्य-मुक्ति, मुक्ति का स्वरूप और उसकी प्राप्ति आदि प्रकृत ग्रन्थ के विशेष प्रतिपाद्य विषय हैं। इन विषयों के प्रतिपादन में नमि-प्रव्रज्या आदि मार्मिक व आध्यात्मिक संवादात्मक आख्यानों तथा उपमा आदि अलंकारों के प्रयोग से जिस आध्यात्मिक मार्ग For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन का विवेचन किया गया है उसे एक मुमुक्षु व तत्त्वजिज्ञासु की दृष्टि से निम्नोक्त प्रकार से अभिव्यक्त किया जा सकता है : यह प्रत्यक्ष दृश्यमान विश्व असीम है। हमारे द्वारा इसकी कल्पना कर सकना संभव नहीं है। इस असीम विश्व में सर्वत्र सृष्टि नहीं है अपितु इसके बहुत ही स्वल्प भाग में सृष्टि है, उसमें भी मानव की सृष्टि बहुत ही अल्प भाग में है। फिर भी मानव का सृष्टि-स्थल हमारे लिए बहुत विशाल है। सामान्यतः जहां मानव का निवास है उसके ऊपर देवों का और नीचे नारकियों का निवास है। तिर्यञ्चों का सर्वत्र सद्भाव है। इस तरह यह विश्व एक सुनियोजित शृंखला से बद्ध है। इसका संचालक कोई ईश्वर आदि सर्वशक्तिमान् तत्त्व नहीं है। इस विश्व में कुल छः द्रव्य हैं जिनमें से सिर्फ आकाश ही एक ऐसा द्रव्य है जिसका सर्वत्र सद्भाव पाया जाता है, शेष पाँच द्रव्य आकाश के एक सीमित प्रदेश में ही पाए जाते हैं। आकाश के जिस भाग में जीवादि छः द्रव्यों की सत्ता है अथवा सृष्टि है उसे लोक या लोकाकाश कहा गया है तथा जिस भाग में सृष्टि का अभाव है, सिर्फ आकाश ही आकाश है उसे अलोक या अलोकाकाश । अलोकाकाश में पृथिवी. अप, तेज, वायु आदि किसी की भी सत्ता नहीं हैं। वहाँ आकाश मात्र होने से उसे अलोकाकाश कहा गया है। . इस लोक में जिन ६ द्रव्यों की सत्ता स्वीकार की गई है उनके नाम ये हैं : १. जीव (आत्मा-चेतन), २. पुद्गल (रूपी अचेतन), ३. धर्म (गति का माध्यम), ४. अधर्म ( स्थिति का माध्यम), ५. आकाश और ६. काल । चैतन्य के सदभाव और असदभाव की दष्टि से इन्हें जीव और अजीव (पुद्गल आदि पाँच द्रव्य) के भेद से दो भागों में भी विभक्त किया गया है। यह विभाजन चैतन्य नामक गुण के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से किया गया है । इसी प्रकार अन्य गुण-विशेष के सद्भाव-असद्भाव की अपेक्षा से भी ग्रन्थ में द्रव्य को रूपी-अरूपी, अस्तिकाय-अनस्तिकाय, एकत्वसंख्याविशिष्ट-बहुत्वसंख्याविशिष्ट आदि प्रकार से विभाजित किया गया है। चेतन ( आत्मा ) जीव है । पृथिवी आदि समस्त दृश्यमान वस्तुएँ पुद्गल रूपी अचेतन हैं। जीवादि की गति का अप्रेरक For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४४१ माध्यम धर्म है। जीवादि की स्थिति का अप्रेरक माध्यम अधर्म है। सब द्रव्यों के ठहरने का आधार आकाश है और वस्तु में प्रतिक्षण होनेवाले परिवर्तन में कारण काल है। इस तरह लोक में इन छहों द्रव्यों के संयोग और वियोग से इस सृष्टि का यन्त्रवत् संचालन होता रहता है। इसमें ईश्वर तत्त्व की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर तत्त्व को स्वीकार न करने के कारण धर्मादि द्रव्यों की कल्पना करनी पड़ी है। जीव अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन करके परमात्मा बन सकता है और अकर्त्तव्य कर्मों को करके अधम । परमात्म-अवस्था में जीव सब प्रकार के कर्मों से परे होकर तटस्थ हो जाता है । एकेन्द्रियादि जीवों की सत्ता कणकण में स्वीकार की गई है और वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। जीवों का विभाजन पाश्चात्यदर्शन के लीब्नीज के जीवाणुवाद और बर्गसां के रचनात्मक विकासवाद से मिलता-जुलता है । ___ इस प्रकार यथार्थवाद का चित्रण करने के कारण द्रव्य का स्वरूप भी एकान्त रूप से नित्य या एकान्त रूप से क्षणिक न मानकर अनित्यता से अनुस्यूत नित्य माना गया है। द्रव्य में प्रतिक्षण होनेवाले परिवर्तन तथा उस परिवर्तन में वर्तमान एक इकाई या सामञ्जस्य को स्वीकार करते हुए द्रव्य का स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक ( नित्य ) माना गया है। चैतन्य आदि जीव के नित्य धर्म ( गुण ) हैं और मनुष्य, देव आदि उसकी विभिन्न अवस्थाएँ ( पर्याएँ )। नित्यता द्रव्य का गुण ( नित्य-धर्म ) है और अनित्यता उसकी उपाधि (पर्याय-अनित्य-धर्म ) । गुण और पर्यायों ( अनित्य धर्मों ) को द्रव्य से न तो सर्वथा पृथक् किया जा • सकता है और न गुण-पर्यायों के समूह को ही द्रव्य कहा जा सकता है । अतः गुण और पर्यायवाले को द्रव्य कहा गया है। इस तरह यह द्रव्य ( आधारविशेष ) गुण और पर्यायों से सर्वथा भिन्न न होकर कथंचित भिन्न व कथंचित अभिन्न है। इस तरह विश्व की रचना और उसमें वर्तमान सृष्टि-तत्त्वों का वर्णन करके ग्रन्थ में चेतन और अचेतन पुदगल के परस्पर संयोग की अवस्था को संसार कहा गया है। जब तक चेतन के साथ अचेतन पुद्गल का सम्बन्ध रहता है तब तक वह संसारी कहलाता है। जब For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन तक जीव संसारी अवस्था में रहता है चाहे वह देव ही क्यों न हो, तब तक वह अपने शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से सांसारिक सुख-दुःख का भोग करता हुआ जन्म-मरण को प्राप्त करता है। वास्तव में जीव संसार में जन्म-मरणजन्य नाना प्रकार के दु:खों को ही प्राप्त करता है। उसे जो क्षणिक सुखानुभूति होती है वह भी दुख:रूप ही है क्योंकि संसारी व्यक्ति का वह भौतिक सुख कुछ क्षण के बाद ही नष्ट हो जाने वाला है। अतः बौद्धदर्शन की तरह प्रकृत ग्रन्थ में भी संसार को दु:खों से पूर्ण बतलाया गया है। ___ इस दुःख का कारण है- व्यक्ति के द्वारा ( अज्ञानवश ) रागादि के वशीभूत होकर किया गया शुभाशुभ कर्म । यद्यपि ये कर्म अचेतन हैं फिर भी सजग प्रहरी की तरह ये प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया का अध्ययन-सा करते रहते हैं और समय आने पर उसका शुभाशुभ फल भी देते हैं। ये कर्म वेदान्तदर्शन में स्वीकृत स्थूल शरीर के भीतर वर्तमान सूक्ष्मशरीर स्थानापन्न हैं जो स्थल शरीर की प्राप्ति में कारण बनते हैं। कुछ रूपी अचेतन ( पुद्गल ) द्रव्य ही कर्म का रूप धारण करके यन्त्रवत् कार्य करते रहते हैं। इन कर्म-पुदगलों ( कामणवर्गणा ) का जीव के साथ सम्बन्ध कराने में लेश्याएं कारण बनती हैं। लेश्याएँ जीव के रागादिरूप परिणाम हैं । इस कर्म और लेश्याविषयक वर्णन के द्वारा ग्रन्थ में संसार के सुखों एवं दुःखों का स्पष्टीकरण किया गया है। इस तरह संसार के वैचित्र्य की गुत्थी को सुलझाने के लिए किसी ईश्वर आदि नियन्ता की कल्पना नहीं करनी पड़ती है। यद्यपि इन कर्मों का फल भोगे बिना कोई भी जीव बच नहीं सकता है फिर भी यदि जीव चाहे तो उपायपूर्वक पूर्वबद्ध कर्मों को शीघ्र ही बलात नष्ट कर सकता है और आगामी काल में कर्मों के बन्धन को रोक सकता है। ___ कर्मों का बन्धन न होने देने के लिए ग्रन्थ में जिस उपाय को बतलाया गया है वह जैनदर्शन में 'रत्नत्रय' के नाम से प्रसिद्ध है। जिनेन्द्रदेव प्रणीत ६ तथ्यों में दृढ़ विश्वास ( सत्-दृष्टि ), उन तथ्यों का सच्चा ज्ञान और तदनुसार सदाचार में प्रवत्ति ये तीन रत्नत्रय हैं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४४३ प्रसिद्ध हैं। भगवद्गीता का भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का सम्यक् समुच्चय ही यहाँ रत्नत्रयरूप है। इन तीनों की पूर्णता होने पर साधक कर्मों से पूर्ण छटकारा प्राप्त करके संसार से मुक्त हो जाता है। इन तीनों की पूर्णता क्रमशः होती है। इनमें आपस में कारणकार्य सम्बन्ध भी है। तथ्यों में श्रद्धा होने पर ही उनका सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और सच्चा ज्ञान होने पर ही सदाचार में प्रवृत्ति सम्भव है क्योंकि कर्मों के बन्धन का कारण अज्ञान होने से उनसे मुक्ति का उपाय भी ज्ञान होना चाहिए था परन्तु सदाचार की पूर्णता होने पर जो मुक्ति स्वीकार की गई है उसका कारण है पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना। अतएव पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान ) हो जाने पर जीव को जीवन्मुक्त माना गया है। सदाचार पर विशेष जोर देने का दूसरा भी कारण था-लोगों में फैले हुए दुराचार का शमन करना । सदाचार की पूर्णता अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (धनादि-संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग ) रूप पाँच नैतिक व्रतों का पालन करने से होती है। इन पाँच नैतिक व्रतों का पालन करने के अतिरिक्त साधक को कुछ अन्य नैतिक व्रतों का भी पालन करना पड़ता है जो अहिंसादि मूल नैतिक व्रतों के ही पोषक हैं। इन अहिंसादि पाँच व्रतों के भी मूल में अहिंसा है और उस अहिंसा की पूर्णता अपरिग्रह की भावना पर निर्भर है। सदाचार के उत्तरोत्तर विकासक्रम के आधार पर चारित्र को सामायिक आदि पाँच भागों में विभक्त किया गया है। सदाचार का पालन करनेवाले गहस्थ और साधु होते हैं। अतः उनकी अपेक्षा सदाचार को दो भागों में भी विभक्त किया गया है• गृहस्थाचार और साध्वाचार । गहस्थाचार साध्वाचार की प्रारम्भिक अभ्यासावस्था है। इसमें गृहस्थ गार्हस्थ्यजीवन यापन करते हुए स्थूलरूप से अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों का यथासंभव पालन करता है तथा धीरे-धीरे आत्मविकास करते हुए साधु के आचार की ओर अग्रसर होता है। अत: गहस्थाचार पालन करने का उपदेश उन्हें ही दिया गया है जो साध्वाचार पालन करने में असमर्थ हैं। गृहस्थाचार के सम्बन्ध में यहां एक बात विशेष दृष्टव्य है कि ग्रन्थ में गृहस्थाचार पालन For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन करनेवाले को देवत्व के साथ मुक्तिपद का भी अधिकारी बतलाया गया है जबकि वह न तो पूर्ण वीतरागी ही है और न पाँच नैतिक व्रतों का सूक्ष्मरूप से पालन ही करता है । इसका कारण है बाह्यशुद्धि की अपेक्षा आभ्यन्तरिक - शुद्धि पर जोर । इसका तात्पर्य है कि यह आभ्यन्तरिक शुद्धि रूप वीतरागता जैसे और जहाँ भी संभव हो वैसे ही वहाँ आत्म-विकास करते हुए साधना क्योंकि बाह्यलिङ्गादि तो मात्र बाह्यरूप के परिचायक हैं, कार्यसाधक नहीं । अतः गृहस्थ होकर भी व्यक्ति आभ्यन्तरिक शुद्धि की अपेक्षा कुछ काल के लिए पूर्ण वीतरागी भी हो सकता है । वास्तव में ऐसा व्यक्ति गृहस्थ होकर भी वीतरागी साधु ही है क्योंकि वीतरागता में ही साधुता है । वीतरागता, आत्मविकास और ज्ञानादि की साधना गृहस्थजीवन की अपेक्षा गृहत्यागी साधुजीवन में अधिक संभव है क्योंकि साधु सांसारिक मोह - ममता आदि से बहुत दूर रहता है । अतः ग्रन्थ में एक समय में मुक्त होनेवाले जीवों की संख्या-गणना के प्रसंग में साधुओं की अपेक्षा गृहस्थों में तथा पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में वीतरागता आदि की योग्यता कम होने से साधु व पुरुष की अपेक्षा गृहस्थ तथा स्त्री की संख्या कम बतलाई गई है । इस तरह आत्मविकास करते हुए मुक्ति का साधक गृहस्थ-धर्म की चरमावस्था में पहुँचकर जब सूक्ष्मरूप से अहिंसादि व्रतों का पालन करने लगता है तो वह साध्वाचार में प्रवेश करता है । इसके बाद वह ज्ञान और चारित्र की और अधिक उन्नति के लिए मातापिता आदि से आज्ञा लेकर व सभी प्रकार के पारिवारिक स्नेहबन्धनों को तोड़कर किसी गुरु से या गुरु के न मिलने पर स्वयं साधु-धर्म को अंगीकार कर लेता है। इस समय उसे अपने सभी वस्त्राभूषणों के साथ शिर और दाढ़ी के बालों को भी उखाड़कर त्याग करना पड़ता है । इसके बाद वह नियमानुकूल भिक्षा के द्वारा प्राप्त वस्त्र और आहार आदि का उपभोग करता हुआ एकान्त में आत्मचिन्तन करता है । भिक्षान्न के द्वारा जीवन यापन करने के कारण साधु को 'भिक्षु' कहा गया है । इस भिक्षान्न आदि की प्राप्ति के विषय में बहुत ही कठोर नियम हैं जिनके मूल में अहिंसा For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८ : उपसंहार [४४५ आदि पाँच नैतिक महाव्रतों की रक्षा की भावना निहित है। साधु जो भी नियम या उपनियम ग्रहण करता है उन सबका साक्षात् या परम्परया फल कर्म-निर्जरा व मुक्ति बतलाया गया है। इतना विशेष है कि किसी भी एक नियम का पालन करने पर अन्य सभी नियमों का भी पालन करना आवश्यक हो जाता है । ___ साधु जिन अहिंसा दि पाँच नैतिक व्रतों का सूक्ष्मरूप से पालन करता है उनके भी मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना निहित है क्योंकि अहिंसा का अर्थ है-मन-वचन-काय से तथा कृत-कारितअनुमोदना से किसी को जरा भी कष्ट न देना । असत्य-भाषण, चोरी, स्त्री-सेवन और धनादिसंग्रह में स्वाभाविक है कि किसी न किसी रूप में हिंसा का दोष लगे। अत: सत्यादि व्रतों के लक्षण में भी अहिंसा की भावना को ध्यान में रखा गया है। इस अहिंसा की पूर्णता अपरिग्रह (वीतरागता) की भावना पर निर्भर है क्योंकि सभी शुभाशुभ प्रवृत्तियों का कारण राग है। राग के वशीभूत होकर ही जीव धनादि-संग्रह और हिंसादि में प्रवृत्त होता है। अतः साधु को अपनी अशुभात्मक प्रवृत्ति को रोकने के लिए गुप्तियों का और शुभ-व्यापार में सावधानीपूर्वक प्रवत्ति के लिए समितियों का उपदेश दिया गया है। इस तरह इन पाँच नैतिक व्रतों की रक्षा करते हुए आचरण करना ही साधु का सदाचार है। ... इस तरह यद्यपि साधु का सदाचार पूर्ण हो जाता है परन्तु सैकड़ों भवों से संचित पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट करने के लिए एक विशेष कर्त्तव्य-कर्म करना पड़ता है जिसका नाम है-तप । तप कर्मों को नष्ट करने के लिए एक प्रकार की अग्नि है जो साधु . के सामान्य सदाचार से पृथक् नहीं है क्योंकि तप में जिन बाह्य और आभ्यन्तरिक क्रियाओं का पालन करना बतलाया गया है साध उन सभी क्रियाओं का प्रायः प्रतिदिन पालन करता है। अतः उन सभी नियमों के पालन करने में दृढ़ आत्मसंयम बरतना ही तप है। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से तप मुख्यतः दो प्रकार का है। दोनों में प्रधानता आभ्यन्तर तप की है। आभ्यन्तर तपों में ज्ञान की प्राप्ति के लिए मुख्यरूप से आत्म-चिन्तन किया जाता है। तप करते समय जितनी भी क्षुधा, तृषा आदि सम्बन्धी For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन बाधाएँ (परीषह ) आती हैं उन सब पर विजय प्राप्त करना आवश्यक होता है और वीर योद्धा की तरह आयु के अंतिम क्षण तक संयम में अडिग रहना पड़ता है। तप साध के सदाचार की परीक्षा के लिए कसौटीरूप है। साध्वाचार पालन करने की दुष्करता का जो प्रतिपादन किया गया है वह इसी तप की अपेक्षा से किया गया है। प्रकृत ग्रन्थ में वर्णित तप का स्वरूप विशेषकर ध्यानतप योगदर्शन और बौद्धदर्शन में वर्णित समाधि से मिलता-जुलता. है। इस तरह साधु जीवन-पर्यन्त तपोमय जीवन यापन करते हुए मृत्यु-समय सब प्रकार के आहारादि का त्याग करके समाधिमरणपूर्वक शरीर का त्याग करता है। इस शरीर त्याग के बाद उसे जिस फल की प्राप्ति होती है उसका नाम है--मुक्ति । यह मुक्ति की अवस्था सब प्रकार के कर्मबन्धनों से रहित, अशरीरी, अत्यन्त दु:खाभावरूप, निरतिशय सुखरूप और अविनश्वर है। इसे प्राप्त करने के बाद जीव का पुनः संसार में आवागमन नहीं होता है । इनका निवास लोक के उपरितम प्रदेश में माना गया है। अन्तिम जन्म की उपाधि की अपेक्षा से इनमें भेद संभव होने पर भी कोई तात्त्विक भेद नहीं है। ग्रन्थ में जो मुक्ति की अवस्था चित्रित की गई है वह अलौकिक है। वहाँ न तो स्वामी-सेवकभाव है और न कोई अभिलाषा । यह पूर्ण निष्काम व संसार से परे चेतन जीव की स्व-स्वरूप की स्थिति है। इस अवस्था में सब प्रकार के बन्धनों का अभाव हो जाने से इसे मुक्ति कहा गया है। ग्रन्थ में यद्यपि विदेह-मूक्ति का ही वर्णन किया गया है परन्तु जीवन्मुक्ति के भी तथ्य वर्तमान हैं। केवली या केवलज्ञानी की जो स्थिति है वह जीवन्मुक्ति की अवस्था है क्योंकि ये संसार में रहकर भी जल से भिन्न कमल की तरह उससे अलिप्त रहते हैं तथा मृत्यु के उपरान्त नियम से उसी भव में विदेहमुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। मुक्ति प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार की जाति, आयु, स्थान आदि का महत्त्व नहीं है। वह सदा-सर्वदा सबके लिए खुला द्वार है। मुक्तों के विषय में इतना विशेष है कि सभी मुक्त जीव अपने पुरुषार्थ से ही मुक्त हुए हैं । उनमें ऐसा एक भी जीव नहीं है जो अनादिमुक्त हो या बिना पुरुषार्थ किए ही ईश्वर आदि की कृपा से मुक्त हुआ हो। . For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ८ ! उपसंहार [४४७ इस प्रकार उत्तराध्ययन में तत्त्वजिज्ञासु व मुमुक्षु के लिए जिस तत्त्वज्ञान, मुक्ति व मुक्ति के पथ का वर्णन मिलता है वह विशेषकर साधु के आचार से सम्बन्धित है। परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि यह ग्रन्थ सिर्फ साधुओं के लिए ही उपयोगी है क्योंकि इसमें सरल, साहित्यिक व कथात्मक शैली में व्यवहारोपयोगी गहस्थ-धर्म का भी प्रतिपादन होने से जनसामान्य के लिए भी कई दृष्टियों से उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण है। इसमें चित्रित समाज व संस्कृति से तत्कालीन बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातों का पता चलता है। जैसे: वर्णाश्रम-व्यवस्था, ब्राह्मणों का प्रभुत्व व उनका सदाचार से पतन, कर्मणा जातिवाद की स्थापना, यज्ञों का प्राधान्य, काम-भोग की ओर बढ़ती हुई मानव की सामान्य प्रवृत्तियाँ, विभिन्न मत-मतान्तर, राज्य-व्यवस्था, समद्रयात्रा, व्यापार, खेती, विवाह, दाह-संस्कार, पशु-पालन आदि। __ इस तरह इस ग्रन्थ का धर्म व दर्शन के अतिरिक्त साहित्य, इतिहास, भूगोल, भाषाविज्ञान और तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति आदि की अपेक्षा से भी बहुत महत्त्व है। इसीलिए जैन एवं जैनेतर सभी विद्वानों ने इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है तथा इस पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है व आगे भी लिखा जाता रहेगा। For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ कथा-संवाद अत्यन्त प्राचीन काल से ही किसी भी विषय को रोचक, प्रेरणादायक एवं प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उपमा एवं दृष्टान्त के अतिरिक्त कथा एवं संवादों का प्रयोग किया जाता रहा है। उपदेशात्मक तथा धार्मिक ग्रन्थों में इस प्रकार का प्रयोग नितान्त आवश्यक भी है । प्राचीन जैन आगमों में इस दृष्टि से ज्ञातृधर्मकथा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके बाद दूसरा स्थान उत्तराध्ययन का है।' कथाओं का विभाजन सामान्यरूप से चार भागों में किया जाता है । जैसेः १. अर्थकथा, २. कामकथा, ३. धर्मकथा और ४. संकीर्णकथा । उत्तराध्ययन की कथाएँ धर्मकथा विभाग में आती हैं क्योंकि उत्तराध्ययन एक धार्मिक काव्य-ग्रन्थ है और इसमें उपमा, दृष्टान्त, संवाद, कथा आदि के द्वारा धर्म व वैराग्य का ही विशेषरूप से उपदेश दिया गया है। इसकी कथाएँ, उपदेश व संवाद जातक, महाभारत आदि की कथाओं आदि से बहुत-कुछ मिलते-जुलते हैं। उत्तराध्ययन की कथाएँ मूलरूप में संक्षिप्त एवं संकेतात्मक हैं जिनका टीका-ग्रन्थों में पर्याप्त पल्लवन हुआ है। यहाँ पर मूलग्रन्थानुसार हृदयस्पर्शी व रोचक संवाद एवं कथाएं दी जा रही हैं। केशि-गौतम संवाद : - तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य केशिकुमार श्रमण और चौबीसवें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के शिष्य गौतम ये दोनों ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए संयोगवश एक समय श्रावस्ती १. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ३५७. २. वही, पृ० ३६०-३६१. ३. उ० अध्ययन २३. For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नगरी में आए । वहां केशि 'तिन्दुक' उद्यान में और गौतम 'कोष्ठक' उद्यान में अपने-अपने शिष्य-परिवार के साथ ठहर गए। दोनों ज्ञान व सदाचार से सम्पन्न थे। उनके शिष्यों ने जब एक दूसरे के बाह्यवेश व महाव्रतों के विषय में अन्तर देखा तो शंकायुक्त हो गए। उन्होंने सोचा-जब दोनों एक ही धर्म को मानने वाले हैं तो फिर यह बाह्यवेशभूषा और आचार विषयक मतभेद कैसा ? शिष्यों की इस शंका को जानकर दोनों ने आपस में मिलने की इच्छा प्रकट की। केशि को ज्येष्ठकूल का जानते हए गौतम अपने शिष्य-परिवार के साथ तिन्दुक उद्यान में गए । गौतम को आते देखकर केशि ने उनका उचित सत्कार किया। आसन पर बैठे हुए वे दोनों सूर्य और चन्द्रमा की तरह सुशोभित हुए। उनके समागम को देखकर बहुत से गृहस्थ, देव, दानव, यक्ष, राक्षस और पाखण्डी आदि हजारों की संख्या में वहां एकत्रित हो गए। इसके बाद केशि ने शिष्यों की शंकाएँ दर करने के लिए गौतम से अनुमति लेकर कुछ प्रश्न पूछे और गौतम ने उनका देश-कालानुरूप सयुक्तिक उत्तर दिया। केशि-जब दोनों तीर्थङ्करों का उद्देश्य एक ही है तो फिर पार्श्वनाथ के चतुर्यामरूप धर्म को महावीर ने पंचयाम (पाँच महाव्रत) में क्यों परिवर्तित किया ? गौतम-ज्ञान से धर्म-तत्त्व का निश्चय करके तथा देश-काल के अनुसार बदलती हुई जनसामान्य की प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर धर्म में यह आचारविषयक परिवर्तन किया गया। यदि ऐसा न किया जाता तो धर्म स्थिर नहीं रह सकता था। केशि-पार्श्वनाथ के सान्तरोत्तर ( सचेल ) धर्म को महावीर ने अचेलधर्म में क्यों परिवर्तित किया ? गौतम-बाह्यवेश-भूषा तो लोक में मात्र प्रतीति कराने में कारण है। दोनों के मत में मोक्ष के सद्भूत सच्चे साधन तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं। इस वस्त्र-विषयक परिवर्तन का भी कारण पूर्ववत् था। १. देखिए-प्रकरण ७, पृ० ४२८-४२६. For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [ ४५१ केशिक्या तुम उन शत्रुओं को जानते हो जो तुम्हारे ऊपर आक्रमण कर रहे हैं और जिनके मध्य में तुम स्थित हो ? तुमने उन्हें कैसे जीता ? गौतम - हाँ ! मैं उन शत्रुओं को जानता हूँ। मैंने उन अनेक शत्रुओं में से सबसे पहले अवशीकृत आत्मारूपी एक प्रधान शत्रु को वशीकृत आत्मा के द्वारा जीता। इसके बाद कषाय, इन्द्रिय, नोकषाय आदि अन्य अनेक शत्रुओं को क्रमशः जीता । केशि - संसार में बहुत से जीव पाशबद्ध हैं फिर तुम कैसे पाशबन्धन से मुक्त हो ? गौतम - संसार में रागद्वेषरूपी भयंकर स्नेहपाश हैं । उन पाशों को यथान्याय ( जिनप्रवचन के अनुसार - वीतरागता से ) जीतकर मैं पाशरहित होकर विचरण करता हूँ । केशि - हृदय में उत्पन्न विष-लता को तुमने कैसे उखाड़ा ? गौतम - परिणाम में भयंकर फलवाली तृष्णारूपी एक लता है । उस लता को यथान्याय ( निर्लोभता के द्वारा ) जड़मूल से उखाड़कर मैं उसके विषफलभक्षण से मुक्त हूँ । शि- शरीर में प्रज्वलित अग्नि को कैसे शान्त किया ? गौतम - कषायरूपी अग्नियाँ जिनेन्द्ररूपी महामेघ से उत्पन्न श्रुतज्ञानरूपी जलधारा से निरन्तर सींची जाने के कारण मुझे नहीं जलाती हैं । केशि - साहसी, दुष्ट व भयंकर घोड़े पर बैठे हुए तुम सन्मार्ग में कैसे स्थित हो ? गीत-धर्मशिक्षा तथा श्रुतरूपी लगाम के द्वारा मैं मनरूपी दुष्ट घोड़े को पकड़े हुए हूँ जिससे मैं उन्मार्ग में न जाकर सन्मार्ग में ही स्थित हूँ । केशि - संसार में 'बहुत से उन्मार्ग होने पर भी आप सन्मार्ग में कैसे स्थित हैं ? गौतम - मैं उन्मार्ग और सन्मार्ग को अच्छी तरह जानता अतः सन्मार्ग से च्युत नहीं होता हूँ । जिनेन्द्र का मार्ग सन्मार्ग है और अन्य सभी उन्मार्ग | For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन केश - विपुल जलप्रवाह में बहते हुए प्राणियों के लिए शरणरूप द्वीप कौन-सा है ? गौतम - जरा-मरणरूपी जलप्रवाह में डूबते हुए प्राणियों के शरण के लिए संसाररूपी समुद्र के मध्य में एक उत्तम द्वीप है जिसका नाम है धर्म | वहाँ महान् जलप्रवाह की जरा भी गति नहीं है । - केशि - महाप्रवाहवाले समुद्र में विपरीत बहनेवाली नौका पर सवार होकर तुम उस पार ( तीर- प्रदेश ) कैसे जा सकोगे ? गौतम - जो नौका छिद्र ( आस्रव - जलागम ) वाली होती है वह डूब जाती है परन्तु जो नौका छिद्ररहित ( निरास्रव - जलागम से रहित) होती है वह तीर- प्रदेश पहुँच जाती है । मैं छिद्ररहित नौका पर सवार हूँ । अतः तीर- प्रदेश पहुँच जाऊँगा । यहाँ शरीर नौका हैं. जीव नाविक है, संसार समुद्र है, कर्म जल है और मुक्ति तीरप्रदेश है । 1 केशि- बहुत से प्राणी घोर अन्धकार में स्थित हैं । उन्हें कौन प्रकाशित करेगा ? गौतम - मिथ्यात्वरूपी अज्ञानान्धकार में स्थित प्राणियों को प्रकाशित करनेवाला सर्वज्ञ जिनेन्द्ररूपी निर्मल सूर्य उदित हो गया है । वही उन्हें प्रकाशित करेगा । केशि - शारीरिक व मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए शिवरूप व बाधारहित स्थान कौन-सा है ? गौतम - लोकाग्र में जरा - मरणरूपी समस्त बाधाओं से रहित तथा शिवरूप एक स्थान है जिसे निर्वाण (सिद्धलोक ) कहते हैं । इस प्रकार सर्वश्रुतपारगामी गौतम से अपने सभी प्रश्नों का सयुक्तिक उत्तर पाकर केशि ने गौतम को नमस्कार किया तथा अपनी शिष्यमण्डली के साथ महावीरप्रणीत धर्म को अङ्गीकार किया । वहाँ उपस्थित सारी परिषद् ने उन दोनों की स्तुति की। १. पार्श्वनाथ और महावीर के शिष्यों के बीच हुए इस प्रकार के परिसंवादों के उल्लेख अन्य आगम ग्रन्थों व टीका ग्रन्थों में भी मिलते हैं । देखिए - आचार्य तुलसी, उ० भाग १, पृ० २६६-३००, For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद इस समागम के बाद उन दोनों महर्षियों में जिनमें सूत्रार्थ का निर्णय तथा रत्नत्रय का [ ४५३ आगे भी समागम हुए उत्कर्ष हुआ 1 इस तरह इस परिसंवाद में वारह प्रश्न पूछे गए हैं जिनमें प्रारम्भ के दो प्रश्न ही मुख्य हैं और वे ही इस परिसंवाद के कारण हैं। शेष सभी प्रश्न और उत्तर उपस्थित जनता के कल्याणार्थ प्रतीकात्मक रूपक अलंकार की शैली में प्रस्तुत किए गए हैं । इस परिसंवाद से जिन महत्त्वपूर्ण बातों का संकेत मिलता है, वे इस प्रकार हैं : १. किसी भी विषय में मतभेद होने पर आपस में मिलकर उसका समाधान ढूँढ़ना और दुराग्रह किए बिना सम्यक् मार्ग का अनुसरण करना । २. बाह्य वेशभूषा आदि पर विशेष ध्यान न देकर अन्तरङ्गशुद्धि के साधनभूत रत्नत्रय की आराधना करना । ३. अपनी आत्मा को संयमित रखना । ४. ज्येष्ठकुल का ध्यान रखना । ५. अतिथि का समुचित सत्कार करना । ६. बिना अनुमति प्राप्त किए कोई प्रश्न न पूछना ७. समुचित उत्तर मिलने पर उसकी संस्तुति करना । ८. परिस्थितियों के अनुकूल धर्म में परिवर्तन करना । ६. श्वेताम्बर - दिगम्बर मतभेद का संकेत । १०. पार्श्वनाथ व महावीर के धर्मोपदेश का अन्तर । इन्द्र-नमि संवाद : ' देवलोक से च्युत होकर राजा नमि ने मिथिला नगरी में जन्म लिया। रानियों के साथ देवलोक सदृश भोग भोगने के बाद जब उन्हें एक दिन जातिस्मरण हुआ तो अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर दीक्षा लेने के लिए निकल पड़े। राजा नमि के दीक्षार्थ प्रस्थान करने पर सम्पूर्ण नगरी में शोक छा गया । इसी समय देवाधिपति इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके आया और उससे संयम १. उ० अध्ययन ६. For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन में दृढ़ता की परीक्षा के लिए सहेतुक प्रश्न पूछे । राजा ने भी उन सभी प्रश्नों के अध्यात्मप्रधान सयुक्तिक उत्तर दिए । इन्द्र -आज मिथिला में कुहराम क्यों है ? नमि -आज मिथिला में शीतल छाया, पत्र-पुष्प व फलादि से युक्त ( बहुत गुणों वाला) मनोरम चैत्यवृक्ष ( राजर्षि नमि) वायु (वैराग्य) के वेग से गिर पड़ा (गृह त्याग दिया ) है । अत: उसके ( वृक्ष - राजा ) आश्रित जीव ( पक्षी-प्राणी ) निःसहाय होकर स्वार्थवश विलाप कर रहे हैं । इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । इन्द्र – तुम्हारे अन्तःपुर आदि अग्नि से जल रहे हैं । तुम उधर ध्यान क्यों नहीं देते हो ? नमि- सर्व विरत 'साधु को न तो कोई वस्तु प्रिय है और न अप्रिय । अतः मुझ आत्मानुप्रेक्षी को इससे क्या प्रयोजन है । इन्द्र - क्षत्रिय धर्मानुसार आप अपनी व प्रजा की रक्षा के लिए प्राकार, गोपुर अट्टालिका, खाई आदि बनवाकर दीक्षा लेवें । नमि - कर्मशत्रु से अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए मैंने आध्यात्मिक तैयारी कर ली है । ' इन्द्र - महल आदि बनवाकर दीक्षा लेवें । नमि- संशयालु ही मार्ग में महल आदि बनवाता है । संसार में स्थायी निवास न होने से मैं स्थायी निवासंभूत मोक्ष में ही महल बनवाऊँगा । इन्द्र - चोरों से नगर की रक्षा करके दीक्षा लेवें । नमि- अक्सर चोर बच जाते हैं और चोरी न करने वाले पकड़े जाते हैं । अतः क्रोधादि सच्चे चोरों को दण्ड देना उचित है । इन्द्र - नमस्कार न करने वाले राजाओं को जीतकर दीक्षा लेवें । नमि-हजारों सुभटों को जीतने की अपेक्षा अवशीकृत एक आत्मा को जीतना सर्वोत्कृष्ट विजय है और वही सुख है । इन्द्र - यज्ञ कराके, दान देकर व भोग भोगकर दीक्षा लेवें नमि-दस लाख गौदान से संयम श्रेष्ठ है । अतः उसे ही धारण करना उचित है । १. देखिए - प्रकरण ७, पृ० ३६५-३६६. For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [ ४५५ इन्द्र-गहस्थाश्रम छोड़कर संन्यासाश्रम में जाना उचित नहीं है। नमि- सर्वविरतिरूप श्रमणदीक्षा से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है। इन्द्र-कोशवद्धि करके दीक्षा लेवें। नमि-अनन्त धन प्राप्त होने पर भी लोभी की इच्छाएँ शान्त नहीं होती हैं । अतः धनसंग्रह से क्या प्रयोजन है ! इन्द्र-असत् व अप्राप्त भोगों की लालसा से प्राप्त अदभुत भोगों को त्यागना उचित नहीं है। नमि-मैंने काम-भोगों की लालसा से प्राप्त भोगों को नहीं त्यागा है क्योंकि इनकी इच्छा मात्र दुर्गति का कारण है। __ इस तरह ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने राजा नमि की श्रमण-धर्म में दृढ़ आस्था देखकर अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया और मधुर वचनों से राजा नमि के आश्चर्यकारी गुणों की स्तुति करते हुए वन्दना की। इन्द्र देवलोक चला गया तथा नमि और अधिक नम्रीभूत हो गए। पश्चात् नमि ने श्रमण-दीक्षा ली और निर्वाण पद पाया। ___ इस परिसंवाद से जिन महत्त्वपूर्ण बातों पर प्रकाश पड़ता है, वे इस प्रकार हैं: १. श्रमणधर्म गहस्थाश्रम से पलायन नहीं है। २. दीक्षार्थी को गह-कुटम्ब की चिन्ता न करना। ३. अवशीकृत आत्मा की विजय सबसे बड़ी विजय है । ४. संसार के विषय-भोग विषफल सदृश हैं। ये अनन्त की संख्या में प्राप्त होने पर भी सुखकर नहीं होते हैं। .. ५. श्रमणधर्म की श्रेष्ठता व प्रयोजन । ६. दीक्षार्थी के मन में उत्पन्न होने वाले अन्तद्वन्द्व का सफल चित्रण। ७. सहेतुक प्रश्न पूछना व ऐसे ही प्रश्नों के सहेतुक उत्तर देना। चित्त-सम्भूत संवाद : चित्त और सम्भत नाम के दो चाण्डाल थे। वे दोनों मरकर देव हए। उन दोनों में से संभत के जीव ने देवलोक से च्यूत होकर १. उ० अध्ययन १३. For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] . उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कांपिल्य नगर में रानी चूलनी के गर्भ से ब्रह्मदत चक्रवर्ती के रूप में जन्म लिया और चित्त के जीव ने पुरिमताल नगर में एक विशाल श्रेष्ठि कुल में जन्म लिया। चित्त का जीव धर्म का श्रवण करके साधु बन गया परन्तु संभूत का जीव ( ब्रह्मदत्त ) भोगों में आसक्त रहा। संयोगवश चित्त मुनि एक दिन ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए कांपिल्यनगर में आए। वहाँ एक-दूसरे को देखकर उन्हें जातिस्मरण हो गया। इसके बाद संभूत का जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अपने पूर्वभव के भाई चित्त मुनि का सत्कार करके बोला___ संभूत ( ब्रह्मदत्त )-परस्पर प्रीति वाले हम दोनों भाई पूर्वभवों में क्रमशः दशार्ण देश में दासरूप से, कलिजर पर्वत पर मृगरूप से, मतगंगा के तीर पर हंसरूप से, काशी में चाण्डालरूप से और देवलोक में देवरूप से एक साथ उत्पन्न हए, फिर क्या कारण है कि इस छठे भव में पृथक-पृथक् हो गए ? ___ चित्त (चित्त मुनि)-हे राजन् ! हम दोनों एक-से कर्म करने के कारण पाँच भवों तक तो एक साथ पैदा हए परन्तु इस छठे भव में पृथक होने का कारण यह है कि तुमने चाण्डाल भव में जो पुण्यकर्म किए थे वे भोगों की प्राप्ति की अभिलाषा से (अशुभ निदानपूर्वक) किए थे और मैंने अभिलाषारहित (निदान रहित) होकर किए थे। यही कारण है कि एक समान कर्म करने पर भी हम दोनों भाई इस भव में बिछुड़ गए। ____संभूत-मैं पूर्व भव के पुण्यकर्मों का शुभ फल आज सब प्रकार से भोग रहा हूँ। क्या तुम भी इसी प्रकार हो ? चित्त-मुझे भी अपना जैसा ही समझ । मैं एक महान अर्थवाली गाथा को सुनकर प्रवजित हो गया हूँ। संभूत-हे भिक्षु ! यह मेरा घर सब प्रकार से समृद्ध है । तू भी इसका यथेच्छ उपभोग कर क्योंकि भिक्षाचर्या बड़ी कठिन है। चित्त-हे राजन् ! संसार के सभी विषय-भोग क्षणिक एवं सुखाभासरूप हैं। दीक्षा में उनसे कई गुना अधिक सख है। तू भी मेरे जैसा बन जा। ___ संभत-हे मुने ! मैं भी आपकी तरह ही जानता हूँ परन्तु चाण्डाल भव में ( हस्तिनापुर में राजा के ऐश्वर्य को देखकर ) For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४५७ किए गए निदानबन्ध के कारण मैं वस्तुस्थिति को जानकर भी इन काम-भोगों को उसी प्रकार नहीं छोड़ पा रहा हूँ जिस प्रकार कि दलदल में फंसा हुआ हाथी तीर-प्रदेश को देखकर भी दलदल से नहीं निकल पाता है। चित्त-यदि तू भोगों को त्यागने में असमर्थ है तो दया आदि अच्छे कर्म कर जिससे देवत्व की प्राप्ति हो । इस प्रकार स्नेहवश कल्याण की भावना से दिए गए सदुपदेश का जब ब्रह्मदत्त पर कोई प्रभाव न पड़ा तो मुनि ने पुनः कहा'तुम्हारी भोगों को त्यागने की इच्छा नहीं है। तू आरम्भ और परिग्रह में आसक्त है। मैंने व्यर्थ इतना प्रलाप किया। अब मैं जा रहा हूँ।' इसके बाद ब्रह्मदत्त भोगों में आसक्ति के कारण अनुत्तर ( सातवें ) नरक में गया और काम-भोगों से विरक्त चित्तमुनि अनुत्तर सिद्धगति ( मोक्ष ) में गया। इस परिसंवाद से निम्नोक्त बातों पर प्रकाश पड़ता है : १. यदि कोई साधु न बन सके तो गृहस्थ-धर्म का पालन करे। २. उपदेश उसे ही देना चाहिए जो उसे ग्रहण करे। ३. कर्म की विचित्रता। ४. निदानबन्ध का कुपरिणाम । ५. विषय-भोगों की असारता। मृगापुत्र और माता-पिता संवाद :' सग्रीव नगर में बलभद्र राजा राज्य करता था। उसकी मृगावती नाम की पटरानी थी। उनका एक प्रिय पुत्र था जिसका नाम था 'बलश्री' परन्तु वह 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह सुरम्य महलों में रानियों के साथ देवसदृश भोग भोगा करता था तथा हमेशा प्रसन्नचित्त रहा करता था। एक दिन जब वह रत्न. जटित प्रासाद में बैठा हुआ झरोखे से नगर के चौराहों आदि की ओर देख रहा था कि अचानक उसकी दृष्टि एक संयत साधु पर पड़ी। उसे निनिमेष दृष्टि से देखकर वह सोचने लगा कि मैंने पहले भी १. उ० अध्ययन १६. For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कभी ऐसा रूप देखा है। पश्चात साधु-दर्शन तथा पवित्र चिन्तन से . उसे जातिस्मरण हो गया। जातिस्मरण होने पर उसे अपने पूर्व भव के श्रमणपने का स्मरण हुआ तथा उसका अन्तःकरण वैराग्य से भर गया। इसके बाद वह अपने माता-पिता के पास जाकर इस प्रकार बोला मगापत्र-हे माता-पिता ! मैं भोगों को भोग चका हैं। संसार अनित्य व दुःखों से पूर्ण है। अतः अब मैं दीक्षा लेना.. चाहता हूँ। ___ माता-पिता-समुद्र को भुजाओं से पार करने की तरह दीक्षा अत्यन्त कठिन है। इसमें हजारों गुणों को धारण करना पड़ता है। जैसे : जीवनपर्यन्त अहिंसादि पाँच महाव्रतों का पालन, रात्रिभोजन का त्याग, शत्र -मित्र के प्रति समता, केशलोच आदि । हे पुत्र ! तू अभी सकुमार है। अतः अभी भोगों को भोग, बाद में दीक्षा लेना। ___ मृगापुत्र-हे माता-पिता ! आपका कथन यद्यपि सत्य है फिर भी जिसकी भौतिक सुखों की प्यास शान्त हो चुकी है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। इसके अतिरिक्त मैंने पूर्वभव में प्रत्यक्ष दृश्यमान दुःखों से कई गुने अधिक नारकीय कष्टों को भोगा है। माता-पिता-हे पुत्र ! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो प्रव्रजित हो जाओ परन्तु इतना ध्यान रखो कि प्रवजित होने के बाद रोगों का इलाज नहीं कराया जाता है जो अत्यन्त कठिन है। मगापत्र-हे माता-पिता! यद्यपि आपका कथन ठीक है फिर भी जैसे मग रोगादि का इलाज किए बिना अकेले ही अनेक स्थानों से भक्त-पान लेनेवाला, अनेक स्थानों में रहनेवाला और गोचरी से जीवन यापन करनेवाला होता है वैसे ही साधु भी होता है। अत: आपसे दीक्षा के लिए अनुमति चाहता हूँ। माता-पिता-जैसे में तुम सुखी रहो वैसा ही करो। इस प्रकार माता-पिता के द्वारा नाना प्रकार से प्रलोभित किए जाने पर भी मृगापुत्र संयम में दढ़ रहा और माता-पिता को प्रबोधित करके दीक्षा ले ली। पश्चात् बहुत वर्षों तक कठोर श्रमणधर्म का पालन करके समाधिमरणपूर्वक मोक्ष प्राप्त किया। For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४५६ इस परिसंवाद में निम्नोक्त विषयों की चर्चा की गई है : १. विषयासक्त जीवों को ही प्रव्रज्या कठिन है, अन्य को नहीं। २. मगचर्या ( साध्वाचार ) की कठोरता व उसका फल । ३. संसार के दुःख व उनकी असारता। ४. सभी जीवों को नाना प्रकार के भोगों का सख-दुःखरूप अनुभव। श्रेणिक-अनाथी संवाद : मगध देश का राजा श्रेणिक प्रचर रत्नों से परिपूर्ण था। एक बार वह विविध प्रकार के फूलों व फलों से सुशोभित तथा नन्दन वन के समान रमणीक मण्डिकुक्ष नामक उद्यान में विहार-यात्रा के लिए गया। वहाँ घूमते हुए राजा ने एक ध्यानस्थ सौम्याकृतिवाले मुनि को देखा। उसमें रूप, लावण्य, सौम्यता, निर्लोभता और भोगों से अनासक्ति आदि अनेक दुर्लभ गुणों को एकत्र देखकर राजा आश्चर्यचकित हुआ। 'अनाथी' नाम से प्रसिद्ध उस मुनि के प्रति आकृष्ट हुए राजा ने मुनि के चरणों में नमस्कार किया। पश्चात् मुनि से न अधिक पास और न अधिक दूर बैठकर राजा ने हाथ जोड़कर कहा__ श्रेणिक राजा- हे आर्य ! विषय-भोग के योग्य इस युवावस्था में आपके प्रवजित होने का क्या कारण है ? अनाथी मुनि- महाराज ! मैं अनाथ हैं। मेरा कोई नाथ (स्वामी-रक्षक) नहीं है। कोई दयालु मित्र-बन्धु भी नहीं है। अतः प्रवजित हो गया हूँ। __ राजा (हंसकर)- तुम्हारे जैसे सौभाग्यशाली व्यक्ति का कोई 'नाथ नहीं है यह कैसे संभव है ? हे भदन्त ! मैं आज से तुम्हारा नाथ बनता हूँ । अब तुम यथेच्छ दुर्लभ भोगों को भोगो। मुनि-हे मगधाधिप ! तुम खुद अनाथ हो फिर अनाथ होकर मेरे व दूसरों के नाथ कैसे हो सकते हो ? । राजा ( मुनि के अश्रुतपूर्व वचनों को सुनकर अत्यधिक आश्चर्ययुक्त होता हुआ )-मेरे पास सभी प्रकार के उत्कृष्ट भोग१. उ० अध्ययन २०० For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन साधन हैं फिर मैं अनाथ कैसे हो सकता हूँ ? हे भदन्त ! आप मिथ्या न कहें । मुनि - हे राजन् ! तू मेरे द्वारा प्रयुक्त 'अनाथ' और 'सनाथ' शब्द का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जानता है । अतः ध्यानपूर्वक मेरे पूर्ववृत्त को सुन - 'मैं दीक्षा लेने के पूर्व अपार धन-सम्पत्तिवाले अपने पिता के साथ कौशाम्बी नगरी में रहता था। एक बार मुझे असह्य चक्षुरोग हुआ । उस रोग को दूर करने के लिए अद्वितीय चिकित्साचार्यो, ने मेरी सब प्रकार से चिकित्सा की परन्तु वे मेरा रोग दूर न कर सके। पिता ने विपुल सम्पत्ति खर्च की परन्तु वे भी रोगजन्य मेरे कष्ट को दूर न कर सके । रोती हुई माता, बहिन, पत्नी आदि सम्बन्धीजन भी मुझे दुःख से मुक्त न कर सके । यही मेरी अनाथता । इस तरह नाना प्रकार के प्रयत्न किए जाने पर भी जब मेरा चक्षुरोग ठीक न हुआ तो मैंने एक दिन संकल्प किया कि यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा तो साधु बन जाऊँगा । इस संकल्प के साथ मैं सो गया । जैसे-जैसे रात्रि बीतती गई, रोग शान्त होता गया और प्रातःकाल पूर्ण स्वस्थ हो गया । संकल्प के अनुसार मैंने भी माता-पिता से अनुमति लेकर प्रव्रज्या ले ली। तभी से मैं अपना व दूसरों का नाथ हो गया । यही मेरी सनाथता है । जो आत्मा को संयमित रखकर श्रमणधर्म का सम्यक् पालन करते हैं वे सनाथ हैं और जो श्रमण होकर भी विषयासक्त रहते हैं व धर्म विधिपूर्वक पालन नहीं करते हैं वे अनाथ हैं ।' राजा (सनाथ और अनाथ विषयक इस अश्रुतपूर्व अर्थ को सुनकर प्रसन्न होता हुआ व हाथ जोड़कर ) - हे भगवन् ! आपने मुझे सनाथ और अनाथ शब्द का ठीक-ठीक अर्थ बतला दिया । आपका मनुष्य जन्म सफल है । आप सनाथ एवं सबान्धव हैं । इतना ही नहीं आप नाथों के भी नाथ हैं। मैं आपसे धर्म में अनुशा - सित होना चाहता हूँ | मैंने आपको भोगों के लिए निमन्त्रण देकर व प्रश्न पूछकर आपका जो अपराध किया है उसे क्षमा करें। इसके बाद राजा अपने बन्धुजनों के व मुनि की वन्दना करके चला गया। अन्यत्र विहार कर गए । साथ धर्म में दीक्षित होकर मुनि भी निर्मोही भाव से For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [ ४६१ इस तरह इस परिसंवाद में अनाथ शब्द की बहुत ही रोचक व सटीक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इससे निम्नोक्त बातों पर प्रकाश पड़ता है : १. धर्माचरण से युक्त व्यक्ति सनाथ है और धर्महीन अनाथ है। २. धनादि से कोई सनाथ नहीं होता है। ३. बाह्यलिङ्ग की अपेक्षा अभ्यन्तर-शुद्धि की प्रधानता। ४. विनीत व्यक्ति का स्वरूप । ५. स्वल्प भी अपराध के लिए क्षमा-प्रार्थना । इषुकारीय आख्यान : देवलोक के एक ही विमान में रहने वाले छः जीव अवशिष्ट पुण्य कर्मों का उपभोग करने के लिए इषकार नगर में उत्पन्न हुए । वे छः जीव इस प्रकार थे : १. पुरोहित, २. पुरोहित की पत्नी यशा, ३-४. पुरोहित के दो पुत्र, ५. राजा विशालकीर्ति (इषुकार) और ६. राजा की पत्नी रानी कमलावती। संयोगवश एक दिन पुरोहित के दोनों पुत्रों को जातिस्मरण हुआ और उनका अन्तः. करण वैराग्य की भावना से भर गया। इसके बाद वे दोनों दीक्षार्थ अनुमति के लिए माता-पिता के पास जाकर इस प्रकार बोले... पुत्र- यह जीवन विघ्नबहुल तथा दुःखमय है। हमारी आयु अत्यल्प है। हमें घर में आनन्द नहीं मिलता है। अतः दीक्षार्थ अनुमति देवें। पिता-वेदविद् ब्राह्मणों का कहना है कि पुत्र के बिना सद्गति 'नहीं मिलती है। अतः पहले वेद पढ़ो। ब्राह्मणों को भोजन कराओ। स्त्रियों के साथ भोग भोगो। पुत्र पैदा करो। पश्चात दीक्षा लेना। पुत्र - वेदाध्ययन, ब्राह्मण-भोजन आदि रक्षा करने वाले नहीं हैं। इसके अलावा विषय भोग क्षणिक सुखरूप व अनर्थों की खान हैं। १. उ० अध्ययन १४. For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पिता-जिस प्रयोजन से लोग तप करते हैं वह सब कुछ (प्रचुर धन, स्त्रियाँ आदि) जब तुम्हें यहीं प्राप्त है तो फिर क्यों दीक्षा लेना चाहते हो ? पुत्र-पिता जी ! तपरूपी धर्मधुरा को धारण करने वाले को धनादि से क्या प्रयोजन है ? हम तो गुणसमूह को धारण करने के लिए दीक्षा लेना चाहते हैं। पिता-हे पुत्रो! जिस प्रकार अविद्यमान भी अग्नि अरणि से, घी दूध से, तेल तिल से उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार अविद्यमान जीव भी शरीर से उत्पन्न हो जाता है और शरीर के नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है। पुत्र-जीव अमूर्त स्वभाव वाला होने से मूर्त इन्द्रियों के द्वारा दिखलाई नहीं देता है। अमूर्त होने से वह नित्य भी है। वह न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है। इसका सम्यक ज्ञान. न होने से हम लोगों ने अब तक घर में रहकर पापकर्म किए । अतः अब देर करना उचित नहीं है। पिता-यह लोक किससे पीड़ित है, किससे घिरा हुआ है और अमोघा कौन है ? यह जानने के लिए मैं उत्सूक हैं। पुत्र-यह लोक मृत्यु से पीड़ित है,. बुढ़ापे से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोघा कहा गया है। धर्म करने वाले की सभी रात्रियाँ सफल हैं और अधर्म करने वाले की असफल । पिता-पहले हम सब गृहस्थ-धर्म का पालन करें, बाद में दीक्षा लेंगे। पत्र- जिसकी मृत्यु से मित्रता हो, जो मौत से बच सकता हो या जिसे यह विश्वास हो कि वह नहीं मरेगा वही कल के बारे में सोचे । हम दोनों तो आज ही दीक्षा लेंगे। ____ इस तरह पुरोहित के दोनों पुत्र जब अपने निश्चय से विचलित न हुए तो उसने भी पुत्रहीन की दयनीय स्थिति का विचार करके दीक्षा लेने का निश्चय किया और अपनी पत्नी से बोला- पुरोहित-हे वासिष्ठी ! अब मेरा भिक्षाचर्या का समय आ गया है क्योंकि शाखाविहीन वृक्ष की तरह पुत्रविहीन का घर में रहना निरर्थक है। For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४६३ वासिष्ठी-पहले उपलब्ध इन प्रचुर भोगों को भोगें फिर दीक्षा लेंगे। पुरोहित-हम भोग भोग चुके हैं। आयु क्षीण होती जा रही है। अतः अब मैं संयम धारण करने के लिये भोगों को छोड़ना चाहता हूँ। ___ वासिष्ठी-अभी मेरे साथ भोगों को भोगो। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें प्रतिस्रोत में बहने वाले वृद्ध हंस की तरह दीक्षा लेने के बाद बन्धुओं की याद करके पछताना पड़े। पुरोहित-जब पुत्रों ने निर्ममत्वभाव से भोगों को छोड़ दिया है तो फिर मैं भी उनका अनुगमन क्यों न करूं । ___ इस तरह पुत्र और पति का दृढ़ निश्चय देखकर वासिष्ठी भी सोचती है कि जैसे क्रौञ्च पक्षी जाल का भेदन करके चले जाते हैं वैसे ही मेरे पुत्र और पतिदेव जा रहे हैं । अतः मैं भी उनका अनुगमन क्यों न करूं । यह सोच वह भी पुत्र व पति का अनुगमन करती है। इस प्रकार पुरोहित के सपरिवार दीक्षा ले लेने पर जब उस देश के राजा इषुकार ने राजधर्मानुसार उसके धन को लेना चाहा तो उसकी पत्नी कमलावती ने कहा- जैसे वमन किए हुए पदार्थ को खानेवाले की कहीं प्रशंसा नहीं होती वैसे ही ब्राह्मण के द्वारा त्यक्त धन को लेने वाले की प्रशंसा नहीं होती। धन से न तो तृप्ति होती है और न रक्षा। रक्षक एकमात्र धर्म है । अत: उसी का आचरण करना उचित है।' इस तरह विविध प्रकार से कमलावती के द्वारा समझाए जाने पर राजा ने भी अपनी पत्नी के साथ दीक्षा ले ली। अन्त में श्रमणधर्म का पालन करके वे छहों जीव मुक्त हो गए। इस परिसंवाद से निम्नोक्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. विषयभोगों की असारता व दुःखरूपता। २. वेदाध्ययन, ब्राह्मणभोजन, पुत्रोत्पत्ति आदि रक्षक नहीं हैं । रक्षक एकमात्र धर्म है। ३. तप का प्रयोजन गुणधारण है न कि भोगों की प्राप्ति । ४. आत्मा की सिद्धि व उसकी अजरता-अमरता। ५. कल की प्रतीक्षा वही करे जो मृत्यु से बच सकता हो । For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ६. पुत्र के अभाव में माता-पिता की दयनीय स्थिति । ७. परित्यक्त धन का ग्रहण वमित पदार्थ का खाना है । ८. लावारिस धन का अधिकारी राजा होता है । ९. श्रमणधर्म अङ्गीकार करने का फल | हरिकेशिबल आख्यान : ' • हरिकेशिबल मुनि का जन्म चाण्डाल कुल में हुआ था । उन्होंने जैन श्रमण बनकर उग्र तपस्या की । तप के प्रभाव से एक तिन्दुक वृक्षवासी यक्ष इनकी सेवा करने लगा था । इनका रंग काला था । उग्र तपस्या करने से इनका शरीर कृश हो गया था और वस्त्रादि उपकरण जीर्ण-शीर्ण व मलिन हो गए थे । इनका रूप विकराल होने पर भी तप के प्रभाव से भास्वर था । एक समय ये भिक्षार्थ यज्ञमण्डप में गए। वहाँ जाति से पराजित, अजितेन्द्रिय व अज्ञानी ब्राह्मणों ने इन्हें आते हुए देखकर निन्दायुक्त वचनों में कहा ब्राह्मण - ओ वीभत्स रूपवाले ! तुम कौन हो ? किसलिए यहाँ आए हो ? यहाँ क्यों खड़े हो ? हमारी आंखों से दूर भाग जाओ । यक्ष ( मुनिरूपधारी ) - मैं धनादि के संग्रह से विरत संयमी श्रमण हूँ । भिक्षान्न प्राप्त करने के लिए यहाँ आया हूँ । आप बहुतसा भोज्यान्न बाँट रहे हैं । अतः शेषावशेष अन्न मुझे भी प्राप्त हो । ब्राह्मण - यह भोज्यान्न सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है । हम यह तुम्हें नहीं देंगे। फिर क्यों यहाँ खड़े हो ? यक्ष - जैसे किसान अच्छी उपज की आशा से ऊँची-नीची सभी जगह बीज बोता है वैसे ही पुण्याभिलाषी तुम मुझे भी दान दो । यह पुण्यक्षेत्र है । यहाँ दिया गया दान खाली नहीं जाएगा । ब्राह्मण - पुण्यक्षेत्र तो श्रेष्ठ जाति व विद्या से युक्त ब्राह्मण ही हैं । यक्ष - क्रोधादि में आसक्त ब्राह्मण पापक्षेत्र हैं । वे वेदों को पढ़करके भी उनके अर्थ को नहीं जानते हैं । जो श्रमण सभी कुलों में भिक्षा के लिए जाते हैं वे ही पुण्यक्षेत्र हैं । १. उ० अध्ययन १२. For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १: कथा-संवाद [ ४६५ ब्राह्मण-ओ निर्ग्रन्थ ! वकवास मत कर। यह अन्न नष्ट भले ही हो जाए मगर हम तुझे नहीं देंगे। यक्ष-यदि मुझ जितेन्द्रिय को यह अन्न नहीं दोगे तो इस यज्ञ से तुम्हें क्या लाभ होगा? इसके बाद ब्राह्मण की आज्ञा पाकर उसके बहुत से शिष्य मुनि को पीटने लगे। यह देख राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा ( ब्राह्मण की पत्नी ) शिष्य कुमारों को शान्त करते हुए बोली-'यह ऋषि उग्र तपस्वी तथा ब्रह्मचारी है। यह राजाओं और इन्द्र आदि से भी पूजित है। एक बार देवता की प्रेरणा से स्वयं मेरे पिता द्वारा दी गई मुझे इसने मन से भी नहीं चाहा था। यह अचिन्त्यशक्तिवाला है। इसकी अवहेलना करने पर यह तुम सब को तथा समूचे संसार को भी भष्म कर सकता है। यदि तम जीवन और धन की अभिलाषा रखते हो तो इसकी शरण में जाकर क्षमा मांगो।' इसी बीच मुनि की सेवा करने वाले यक्ष ने अपने साथियों के साथ मिलकर शिष्य कुमारों को क्षत-विक्षत कर डाला। यह सब देख उस ब्राह्मण ने अपनी पत्नी भद्रा के साथ मिलकर मुनि से क्षमा मांगी। उसने कहा- 'भन्ते ! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश आपका जो अपराध किया है उसे क्षमा करें क्योंकि मुनि किसी पर कोप नहीं करते हैं, वे हमेशा प्रसन्न रहते हैं । आपके सभी अङ्ग पूजनीय हैं। यह प्रभूत अन्न-पान ग्रहण करके हमें अनुगहीत करें।' यह सुन मुनि ने उत्तर दिया'मेरे मन में न तो पहले कोई द्वेष था, न अभी है और न आगे होगा। कुमारों को जो प्रताड़ित किया है वह मेरी सेवा करने वाले यक्ष का कार्य है।' इसके बाद मुनि ने एक मास के उपवास के बाद उन पर अनुग्रह करने की इच्छा से अन्न-पान ग्रहण किया। यह देख देवों ने पुष्पवृष्टि की और 'आश्चर्यकारी दान' कहते हए दुन्दुभि बजाई। पश्चात् मुनि ने ब्राह्मणों के कल्याण के लिए भावयज्ञ का व्याख्यान किया। इस आख्यान से निम्न विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. श्रेष्ठ जाति में पैदा होना श्रेष्ठता का सूचक नहीं है अपितु कर्म से श्रेष्ठता होती है। For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २. तपस्वी की महिमा। ३. दान का माहात्म्य व दान का सुपात्र । ४. भावयज्ञ की श्रेष्ठता। ५. मुनि का स्वरूप। जयघोष-विजयघोष आख्यान : जयघोष और विजयघोष नाम के दो वेदविद् ब्राह्मण थे। उनमें से जयघोष श्रमण बन गया और विजयघोष वैदिक यज्ञों को करते हए वाराणसी में रहने लगा। एक समय इन्द्रियनिग्रही व कर्मविनाशक यमयज्ञ को करनेवाला महायशस्वी जयघोष श्रमण ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ वाराणसी आया। वहाँ वह शहर के बाहर प्रासुक शय्या व संस्तारक लेकर 'मनोरम' उद्यान में ठहर गया। उस समय वहां पर विजयघोष वैदिक यज्ञ कर रहा था। जयघोष मुनि एक मास के अनशन तप की पारणा के लिए विजयघोष के यज्ञमण्डप में गया। वहां पहुंचने पर यज्ञकर्ता विजयघोष ने कहा विजयघोष-हे भिक्षो ! मैं तुझे भिक्षा नहीं दूंगा। तुम अन्यत्र जाकर भिक्षा मांगो। यह यज्ञान सिर्फ उन्हीं ब्राह्मणों के लिए है जो वेदविद्, यज्ञविद्, ज्योतिषाङ्गविद्, धर्मशास्त्रविद् और स्व-परकल्याणकर्ता हैं। जयघोष ( विजयघोष का कल्याण करने के लिए न कि अन्न-पानादि की अभिलाषा से समतापूर्वक )-आप लोग वेदादि के सम्यक् अर्थ को नहीं जानते हैं। यदि जानते हैं तो हमें बतलाएँ। विजयघोष ( उत्तर देने में असमर्थ हो हाथ जोड़कर )-आप स्वयं वेदादि का सम्यक् अर्थ बतलाएँ। यह सुन जयघोष मुनि ने वेदों का मुख, यज्ञों का मुख, नक्षत्रों का मुख, धर्मों का मुख, स्व-पर का कल्याणकर्ता, सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप, बाह्यलिङ्ग की अपेक्षा आभ्यन्तरलिङ्ग की श्रेष्ठता, जन्मना जातिवाद का खण्डन, कर्मणा जातिवाद की स्थापना आदि विविध विषयों का स्पष्टीकरण किया। १. उ० अध्ययन २५. For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [४६७ विजयघोष ( प्रसन्न होकर )-आपने मुझे ब्राह्मणत्व का यथार्थ स्वरूप समझा दिया। आप वेदविद्, यज्ञविद्, ज्योतिषाङ्गविद्, धर्मविद् तथा स्व-परकल्याणकर्ता हैं । हे भिक्षुश्रेष्ठ ! आप मुझ पर अनुग्रह करके यज्ञान्न ग्रहण करें। ___ जयघोष-मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है । तुम संसाररूपी सागर से पार उतरने के लिए मुनिधर्म को स्वीकार करो। ___ इसके बाद विजयघोष भी प्रवजित हो गया और दोनों ने संयम व तप की आराधना करके मोक्ष प्राप्त किया। इस आख्यान से निम्नोक्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप । २. वेदादि का मुख । ३. जन्मना जाति की अपेक्षा कर्मणा जाति की श्रेष्ठता। ४. बाह्यशुद्धि की अपेक्षा आभ्यन्तर शुद्धि की श्रेष्ठता । ५. वैदिक द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा यमयज्ञ की श्रेष्ठता। ६. अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में मुनिधर्म-समता। . ७. मुनि के उपदेश का प्रयोजन-पर-कल्याण । राजीमती-नेमि आख्यान :' शौर्यपुर नगर में राजा वसुदेव और राजा समुद्रविजय राज्य करते थे। वसुदेव की दो पत्नियां थीं-रोहिणी और देवकी। इन दोनों पत्नियों से क्रमशः दो पुत्र हए-राम ( बलराम ) और केशव ( कृष्ण ) । राजा समुद्रविजय की पत्नी का नाम था 'शिवा' । उसके एक पुत्र का नाम था 'अरिष्टनेमि' और दूसरे का नाम था 'रथनेमि'। ___ उसी समय द्वारकापुरी में भोगराज ( उग्रसेन ) राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम था 'राजीमती'। वह सभी श्रेष्ठ राजकन्याओं के लक्षणों से युक्त, चमकती हई बिजली की प्रभा की तरह दीप्तिमती, चारुप्रेक्षिणी और सुशील थी। समुद्र विजय के पुत्र १. उ० अध्ययन २२. For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अरिष्टनेमि भी इसी प्रकार सर्वगुणों से सम्पन्न थे । वे श्याम वर्ण के थे। संहनन 'वज्रवषभ' था। संस्थान 'समचतुरस्र' था। पेट मछली के पेट जैसा था। अरिष्टनेमि और राजीमती के युवा होने पर केशव ने भोगराज से उन दोनों के विवाह का प्रस्ताव रखा। भोगराज की अनुमति मिलने पर दोनों तरफ विवाह की तैयारियाँ की जाने लगीं। वृष्णिपुंगव अरिष्टनेमि को शुभ मुहूर्त में सौंषधियों से स्नान कराया गया । कौतुक एवं मंगल कार्य भी किए गए। दिव्य वस्त्र-युगल ( उत्तरीय और अधः ) पहनाए गए। आभूषणों से अलंकृत किया गया। वासुदेव के मतवाले ज्येष्ठ गन्धहस्ती पर बैठाया गया। गन्धहस्ती पर बैठे हुए वे मस्तक पर स्थित चूडामणि की तरह सुशोभित हुए। उनके ऊपर छत्र और चामर ढुले जा रहे थे। चारों ओर दशाह लोग बैठे हुए थे। गगनस्पर्शी दिव्य बाजे बज रहे थे। ऐसे शुभ मुहूर्त में अरिष्टनेमि वर के रूप में अपने भवन से निकले और चतुरंगिणी सेना के साथ भोगराज के 'घर प्रस्थान किया। द्वारका पहुंचने पर उन्होंने पिंजरों एवं बाड़ों में निरुद्ध तथा भय से पीड़ित पशु-पक्षियों को देखा । दयार्द्र होकर उन्होंने अपने सारथि से इसका कारण पूछा। सारथि ने कहा -'ये प्राणी तुम्हारे विवाह की खुशी में बहत से लोगों को खिलाने के लिए यहां निरुद्ध हैं।' सारथि के इन वचनों को सुनकर अरिष्टनेमि ने सोचा-'मेरे निमित्त से यदि इन बहुत से प्राणियों का बध होने वाला है तो यह मेरे लिए परलोक में कल्याणकारी नहीं होगा।' ऐसा विचारकर उन्होंने अपने सभी वस्त्राभूषण उतारकर सारथि को दे दिए और दीक्षा लेने का संकल्प किया। दीक्षा का संकल्प करते ही देवतागण अरिष्टनेमि का अभिनिष्क्रमण महोत्सव करने के लिए पधारे। इसके बाद हजारों देव और मनुष्यों से घिरे हए अरिष्टनेमि ने चित्रा नक्षत्र में अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण करते समय वे रत्ननिर्मित पालकी पर बैठकर गिरनार पर्वत पर गए। वहाँ शीघ्र ही अपने सुगन्धित बालों को अपने हाथों (पञ्चमुष्टि) से उखाड़ा। वासुदेव ने अभीष्ट सिद्धि का आशीर्वाद दिया। इसके बाद राम, केशव आदि सभी अरिष्टनेमि की बन्दना करके द्वारकापुरी लौट गए। For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [ ४६६ जब राजीमती ने अपने होनेवाले पति की प्रव्रज्या का समाचार सुना तो वह अपनी हंसी व खुशी को खो बैठी । पश्चात् उसने भी विचार किया - 'मुझ पति-परित्यक्ता के जीवन को धिक्कार है । अत: मेरा भी प्रव्रजित होना उचित है।' इसके बाद कृतनिश्वया धृतिमती राजीमती ने भी अपने सुवासित बालों को अपने हाथों से उखाड़ दिया और स्वयं प्रव्रजित होकर अन्य बहुत से स्वजनों को भी प्रव्रजित किया । यह देख वासुदेव ने बहुश्रुता राजी - ती को भी अभीष्टसिद्धि का शुभाशीर्वाद दिया । प्रव्रजित होने के बाद जब राजीमती एक दिन रैवतक पर्वत पर जा रही थी कि मार्ग में अचानक वर्षा होने से वह भीग गई । वर्षा व घोर अन्धकार देख राजीमती ने समीपस्थ गुफा में जाकर वस्त्रों को उतारा और उन्हें सुखाने लगी । इसी बीच पहले से वहाँ वर्तमान रथनेमि ने राजीमती को यथाजात ( नग्न ) रूप में देख लिया । उसे देख रथनेमि अस्थिर चित्त वाला हो गया । राजीमती भी वहाँ रथनेमि को देख भयभीत हो गई और कांपती हुई उसने अपने गुह्याङ्गों को छिपा लिया । पश्चात् भयभीत राजीमती से रथनेमि ने सान्त्वना भरे शब्दों में प्रणय निवेदन किया । इस तरह रथनेमि को संयम से च्युत होते हुए देख राजीमती अपने शरीर को वस्त्रों से ढकती हुई दृढ़तापूर्वक बोली- 'यदि तू रूप में वैश्रवण और लालित्य में नलकूबर है या साक्षात् इन्द्र ही है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती हूँ । हे यशः कामिन् ! तुझे धिक्कार है जो तू वमन की हुई वस्तु को पीने की अभिलाषा रखता है । इससे तो मरना अच्छा हैं।' इसके बाद उसने दोनों के कुलों की श्रेष्ठता आदि को बतलाते हुए पुन: कहा - 'यदि तू स्त्रियों को देखकर रागभाव करेगा तो अस्थिरात्मा ( चञ्चल चित्तवृत्तिवाला ) होकर श्रमण बनने के फल को प्राप्त न कर सकेगा ।" इस तरह संयमिनी राजीमती के सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि संयम में उसी प्रकार दृढ़ हो गया जिस प्रकार अंकुश से मदोन्मत्त हाथी । इसके बाद दोनों ने निश्चलभाव से आजीवन दृढ़ संयम का पालन करके मुक्ति प्राप्त की । For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इस प्रभावोत्पादक आख्यान से निम्नोक्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. विभिन्न परिस्थितियों में नारी का कर्त्तव्य व शीलरक्षा । २. राजीमती, रथनेमि और अरिष्टनेमि का उदात्त-चरित्र । ३. रीति-रिवाज एवं राज्य-व्यवस्था आदि का चित्र । ४. पशु-हिंसा में निमित्तमात्र बनने का परिणाम । ५. कृष्ण आदि ऐतिहासिक महापुरुषों का प्रथमतः उल्लेख । संजय आख्यान : एक समय देवलोक से च्युत होकर राजा संजय ने कांपिल्य नगर में जन्म लिया। एक बार वह घोड़े पर बैठकर चतुरंगिणी सेना के साथ 'केशर' उद्यान में शिकार के लिए गया। वहां उसने संत्रस्त मृगों को मारा। उसी उद्यान के अप्फोव-मण्डप ( लतामण्डप ) में तपस्वी गर्दभाली मुनि ध्यानमग्न थे। इधर-उधर घूमने के बाद राजा संजय ने उसी लतामण्डप के पास पहले तो मरे हुए मृगों को और बाद में ध्यानस्थ मुनि को देखा। मुनि को देखकर राजा डर गया। उसने सोचा कि रसलोलूपी मैंने यहां के मृगों को मारकर मुनि का अपराध किया है। अतः मुनि के कोप से भयभीत राजा शीघ्र ही घोड़े पर से उतरा और विनयपूर्वक बोला-'हे भगवन् ! मुझे इस विषय में क्षमा करें।' मुनि उस समय ध्यानमग्न थे। अतः उन्होंने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। इससे राजा और भी अधिक भयभीत हो गया। पश्चात् राजा ने अपना परिचय देते हुए पुनः विनती की। ध्यानस्थ मुनि ने मौन भंग करते हुए कहा-'हे राजन् ! तुझे अभय है। तू भी दूसरों को अभय करने वाला बन । तू हिंसावृत्ति क्यों करता है ? यह संसार असार एवं अनित्य है। एक दिन तुझे भी सब कुछ यहीं छोड़कर परलोक जाना होगा। इस तरह विविध प्रकार से मुनि के द्वारा समझाया गया राजा संजय राज्य छोड़कर उनके समीप ही जिनशासन में दीक्षित हो १. उ० अध्ययन १८. For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा-संवाद [ ४७१ गया । एक दिन संजय मुनि के सौम्य रूप को देखकर किसी क्षत्रिय मुनि ने पूछा क्षत्रिय मुनि-तुम्हारा नाम और गोत्र क्या है? तुम मुनि किसलिए बने हो ? आचार्य की सेवा कैसे करते हो और विनीत कैसे कहलाते हो? संजय मुनि-नाम से मैं संजय हूँ। मेरा गोत्र गौतम है। गर्दभालि मुनि मेरे आचार्य हैं। मुक्ति के लिए मुनि बना हूँ और आचार्य के उपदेशानुसार सेवा करता हूँ । अतः विनीत हूँ। ___ संजय मुनि के इस उत्तर से आकृष्ट होकर क्षत्रिय मुनि ने बिना पूछे ही कई बातें बतलाई और प्रसंगवश भरत, सगर आदि बहुत से महापुरुषों के दृष्टान्त दिए जिन्होंने अपनी विपुल सम्पत्ति त्यागकर जिनदीक्षा ली तथा मोक्ष प्राप्त किया। इस तरह इस आख्यान से निम्नोक्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. दीक्षा लेने का परिणाम-मुक्ति । २. संसार की असारता । ३. हिंसावृत्ति का त्याग। ४. अभयदाता होना। समुद्रपाल आख्यान :' चम्पा नगरी में भगवान महावीर का शिष्य पालित नाम का वणिक रहता था। वह निर्ग्रन्थ-प्रवचन में विशारद था। एक बार जल-पोत से वह व्यापार के लिए 'पिहुण्ड' नगर गया। वहाँ किसी सेठ ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण उसके साथ कर दिया। कुछ समय वहाँ रहने के बाद वह अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर स्वदेश लौटा। रास्ते में उसकी पत्नी ने पुत्र का प्रसव किया। समुद्र में पैदा होने के कारण उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा गया। धीरे-धीरे युवा होने पर उसने बहत्तर कलाओं तथा नीतिशास्त्र में पाण्डित्य प्राप्त कर लिया। एक दिन उसके पिता ने उसकी शादी रूपिणी १. उ० अध्ययन २१. For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नाम की कन्या के साथ कर दी। उसके साथ वह सुरम्य महलों में देवसदृश भोग भोगने लगा। एक दिन जब वह झरोखे में बैठा हुआ था तो उसकी दृष्टि अचानक एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो वधभमि की ओर ले जाया जा रहा था। उसे देख समुद्रपाल का हृदय वैराग्य से भर . गया। वह सोचने लगा-'अहो ! अशुभ कर्मों का फल बुरा होता है।' इसके बाद उसने माता-पिता से अनुमति लेकर श्रमणधर्म अङ्गीकार किया। श्रमणधर्म का सम्यक पालन करके उसने सभी प्रकार के कर्मों को नष्ट कर दिया और विशाल संसाररूपी समुद्र को पार करके मोक्ष चला गया। इस आख्यान से निम्नोक्त विषयों पर प्रकाश पड़ता है : १. श्रमणधर्म पालन करने का फल-मुक्ति । २. व्यापार व दण्ड-व्यवस्था । ३. कर्मों का फल । इस तरह सभी कथात्मक संवादों में मुख्य रूप से धार्मिक चर्चा की गई है। इनसे मिलते-जुलते कथानक व संवाद आदि महाभारत . व बौद्धग्रन्थों में भी मिलते हैं।' १. देखिए-प्रास्ताविक, पृ० ४५-४६; उ० समी० अध्ययन, खण्ड २, प्रकरण १. For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय ग्रन्थ में उल्लिखित निम्नोक्त सभी व्यक्ति ऐतिहासिक तो नहीं हैं फिर भी विषय को रोचक एवं प्रभावोत्पादक बनाने के लिए संवाद एवं कथाओं के रूप में इन्हें जोड़ा गया है। जैसे : अनाथी मुनि : प्रभूतधनसंचय इनके पिता थे। ये जीवन की प्रथम अवस्था में ही चक्षरोग से पीड़ित हो गये थे। अनेक प्रयत्न करने पर भी जब रोग ठीक न हुआ तो जैन-श्रमण बन गए। इनका राजा श्रेणिक के साथ वार्तालाप हुआ जिसमें इन्होंने धर्महीन को 'अनाथ' और धार्मिक आचरणवाले को 'सनाथ' बतलाया। इनका रूप और तेज आश्चर्यकारी था। इन्होंने अनाथता का वर्णन किया। अतः ये 'अनाथी मुनि' के नाम से कहे गए । : अर ( अरहनाथ ) :२ ये सातवें चक्रवर्ती राजा और अठारहवें तीर्थङ्कर हुए। १. देखिए-परि० १, पृ० ४५.९. २. उ० १८.४०. . ३. बारह चक्रवर्ती राजा इस प्रकार हैं : १. भरत, २. सगर, ३. मघवा, ४. सनत्कुमार, ५. शान्ति, ६. कुंथु, ७. अरह, ८. सुभूम, ६. महापद्म, १०. हरिषेण, ११. जय और १२. ब्रह्मदत्त । ४. जैनधर्म में चौबीस तीर्थङ्कर इस प्रकार हैं : १. ऋषभ, २. अजित, ३. संभव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पद्मप्रभ, ७. सुपार्श्व, ८. चन्द्रप्रभ, ६. पुष्पदन्त (सुविधि), १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शान्ति, १७. कुन्थु, १८. अर ( अरह), १६. मल्लि, २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि, २२. नेमि, २३. पार्श्व और २४. महावीर । For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अन्धकवृष्णि :' ये समुद्रविजय, वसुदेव, अरिष्टनेमि, कृष्ण आदि के पूर्वज हैं । इन्हीं के नाम से आगे इनके कुल का नाम अन्धकवृष्णि पड़ा। अरिष्टनेमि :२ ये बाईसवें तीर्थङ्कर हैं। ये शौर्यपुर के राजा समुद्रविजय की पत्नी शिवा के पुत्र थे। ये कृष्ण वर्ण के थे। महापुरुषोचित १००८ लक्षणों से युक्त थे। इनके शरीर की अस्थियों आदि का गठन एक विशेष प्रकार का था। जब ये राजीमती के साथ विवाह करने के लिए बारात के साथ जा रहे थे तभी वैराग्य हो जाने से जिन-दीक्षा ले ली। इन्हें वृष्णिपुंगव ( यादववंशी राजाओं में प्रधान ) कहा गया है। इषुकार : यह इषुकार नगर ( कुरु जनपद ) का राजा था। इसने अपनी पत्नी कमलावती के द्वारा प्रबोधित किए जाने पर जिनदीक्षा ली और कर्मों को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त किया। बृहद्वृत्ति में इसका मौलिक नाम 'सीमंधर' आया है तथा बौद्ध-ग्रन्थों में 'एषुकारी' नाम से इसका उल्लेख हुआ है। यह देवों का शासक है। इसे शक्र और पुरन्दर के नाम से भी कहा गया है। इसने ब्राह्मण के वेश में राजा नमि की दीक्षा के अवसर पर राजा के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए उनके संयम की दृढ़ता की परीक्षार्थ कुछ प्रश्न पूछे । पश्चात् नमि के सयुक्तिक उत्तरों को सुनकर उनकी स्तुति की। १. देखिए - उ० समी० अध्ययन, पृ० ३६६. २. देखिए-राजीमती आख्यान, परि० १. ३. उ० १४. ३, ४८. ४. उ० बृहद्वत्ति, पत्र ३६४; हस्तिपाल जातक, ५०६. ५. उ० अध्ययन ६. For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [ ४७५ उदायन : १ यह सौवीर ( सिन्धु ) देश का राजा था । इसने महावीर से दीक्षा धारण करके मुक्ति प्राप्त की । ऋषभ : २ ये जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर हैं । इनका गोत्र काश्यप था । इन्हें धर्मों का मुख कहा गया है । इन्द्रादि देव इनकी पूजा करते हैं । इनका धर्म भगवान् महावीर की तरह पंच महाव्रतरूप था । कपिल : 3 1 ये उत्तराध्ययन के आठवें अध्ययन के आख्याता कहे गए हैं । आप विशुद्ध प्राज्ञ थे । टीकाकारों ने लिखा है कि एक दासी के साथ प्रेम हो जाने पर ये उस दासी की अभिलाषा की पूर्ति के लिए राजदरबार में याचना के लिए गए। संयोगवश राजा ने इनसे प्रसन्न होकर यथेच्छ धन मांगने को कहा। इसी समय इन्हें लोभ की असीमता का ज्ञान हुआ और सब कुछ छोड़कर जैनसाधु बन गए । कमलावती : ४ यह इषुकार देश के राजा की धर्मपत्नी थी । इसके उपदेश से ही राजा को बोध की प्राप्ति हुई और फिर दोनों जिन दीक्षा लेकर व कर्मों का क्षय करके मोक्ष गए । करकण्डू : ५ कलिंग देश के राजा थे । ये प्रत्येक बुद्धों में गिने जाते हैं । इन्होंने पुत्र को राज्य-भार सौंपकर जिन दीक्षा ली और मोक्ष पाया । १. उ०१८. ४८. ३. उ० ८ २० व टीकाएँ । ५. उ० १८. ४६-४७. ६. बोधि प्राप्त करने वाले मुनि तीन प्रकार के होते हैं : १. स्वयं- बुद्ध ( जो स्वयं बोधि प्राप्त करते हैं ), २. प्रत्येक - बुद्ध ( जो किसी एक घटना के निमित्त से बोधि प्राप्त करते हैं ) और ३. बुद्ध-बोधित ( जो बोधिप्राप्त व्यक्तियों के उपदेश से बोधि प्राप्त करते हैं ) । - आचार्य तुलसी, उ० भाग १, पृ० १०५. २. उ० २५. ११, १४, १६. २३.८७. ४. उ० १४.३, ३७. For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन काशीराज :१ . इन्हें टीकाओं में 'नन्दन' नामवाले सप्तम बलदेवके नाम से कहा गया है। इन्होंने काम-भोगों को छोड़कर जिन-दीक्षा ली थी। कुन्थु : ये छठे चक्रवर्ती तथा सत्रहवें जैन तीर्थङ्कर हैं। इक्ष्वाकु कुल में ये वृषभ के समान श्रेष्ठ और विख्यात कीर्तिवाले थे। केशव : ये शौर्यपुर के राजा वसुदेव के पुत्र वासुदेव (कृष्ण) हैं। ये अंतिम (नौवें) वासुदेव' हैं। ये शंख, चक्र तथा गदा धारण करते थे। ये अप्रतिहत योद्धा भी थे। देवकी इनकी माता थी। इन्होंने ही अरिष्टनेमि की शादी के लिए भोगराज की पुत्री राजीमती की याचना की थी तथा इनके ही मदोन्मत्त हाथी पर आरूढ़ होकर अरिष्टनेमि विवाहार्थ गए थे। ज्येष्ठ होने के नाते इन्होंने अरिष्टनेमि को अभीष्ट फलप्राप्ति का आशीर्वाद १. उ० १८. ४६. २. नौ बलदेव ये हैं : १. अचल, २. विजय, ३. भद्र, ४. सुप्रभ, ५. सुदर्शन, ६. आनंद, ७. नंदन, ८. पद्म ( रामचन्द्र ) और ६. राम (बलराम). ३. उ०१८. ३६. ४. उ० २२.२, ६, ८, १०, २७; ११. २१. ५, वासुदेव बलदेव के छोटे भाई कहलाते हैं। वासुदेवों की संख्या नौ है तथा इनके शत्र प्रतिवासुदेवों की संख्या भी नौ है । वासुदेव और प्रतिवासुदेव इस प्रकार हैं : वासुदेव- १. त्रिपृष्ठ, २. द्विपृष्ठ, ३. स्वयम्भू, ४. पुरुषोत्तम, ५. पुरुषसिंह, ६. पुरुषपुण्डरीक, ७. दत्त, ८. नारायण ( लक्ष्मण ) और ६. कृष्ण ( केशव )। प्रति वासुदेव-१. अश्वग्नीव, २. तारक, ३. मेरक, ४. मधुकैटभ, ५. निशुभ, ६. बलि, ७. प्रह्लाद, ८. रावण और ९. जरासन्ध । For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [४७७ दिया तथा अरिष्टनेमि के दीक्षा ले लेने के बाद इन्होंने उन्हें स्वयं नमस्कार भी किया। संभवतः कृष्ण का चरित्र जैन-ग्रन्थों में सर्वप्रथम यहीं मिलता है। ये अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। केशिकुमार श्रमण : ये पार्श्वनाथ के महायशस्वी शिष्य ( चौथे पट्टधर ) थे। ये शिष्यों के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए श्रावस्ती के 'तिन्दुक' नाम के उद्यान में ठहरे और वहाँ इन्होंने भगवान् महावीर के शिष्य गौतम से धर्म-भेदविषयक शिष्यों की शंका को दूर करने के लिए कुछ प्रश्न पूछे । इन्हें अवधिज्ञान था। कोशल राजा :२ ये कोशल देश के प्रसिद्ध राजा थे। इन्होंने यक्ष देवता की प्रेरणा से अपनी कन्या 'भद्रा' हरिकेशिबल मुनि को देना चाही थी परन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं की थी। क्षत्रिय मुनि : ___ इन्होंने राज-पाट त्यागकर जिन-दीक्षा ली थी। संजय ऋषि से इनका वार्तालाप हुआ जिसमें इन्होंने जिन-दीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त करने वाले कई धार्मिक महापुरुषों के दष्टान्त दिए। आत्मारामजी ने इन्हें महावीर के सम-समयवर्ती लिखा है ।। गर्गाचार्य मुनि :५ इन्होंने अविनीत शिष्यों को समाधि में बाधक समझकर उनका त्याग किया और पृथिवी पर एकाकी विचरण किया। गर्दभाली मुनि :६ ___ ये उग्र तपस्वी थे। एक बार जब ये काम्पिल्य नगर के 'केशर' उद्यान में धर्मध्यान कर रहे थे तो उसी समय इनके समीप आए हुए मृगों को मारनेवाले राजा संजय ने इनसे क्षमा मांगी और जिनदीक्षा ली। • १. उ० अध्ययन २३. . ३. उ० १६.२०, २४. ५. उ० २७.१, १६-१७. २. उ० १२.२०, २२. ४. वही, टीका, पृ० ७४२. ६. उ० १८.६, १९, २२. For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन गौतम : ये महावीर के प्रथम गणधर ( प्रमुख शिष्य ) थे।२ इनका समय ई० पू० ६०७ के करीब है। एक बार ये अपने शिष्य-परिवार के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हए श्रावस्ती के 'कोष्ठक' उद्यान में ठहरे। वहाँ केशिकुमार के साथ हुई धर्म-भेदविषयक तत्त्वचर्चा में इन्होंने समाधानात्मक उत्तर दिया और दोनों परम्पराओं में ऊपरीतौर पर दिखलाई पड़ने वाले मतभेद को दूर किया। पंश्चात् केशिकुमार ने अपने शिष्य-परिवार के साथ इनके बतलाए हुए मार्ग का अनुसरण किया। दसवें अध्ययन में गौतम को लक्ष्य करके अप्रमत्त होने का उपदेश दिया गया है। इन्हें 'भगवान्' जैसे शब्दों से भी सम्बोधित किया गया है । अन्त में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। चित्तमुनि : __ ये पुरिमताल नगर के विशाल श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न हुए थे। बाद में जैन श्रमण बन गए। ये अपने पिछले पाँच जन्मों में क्रमशः दशार्ण देश में दासरूप से, कलिंजर पर्वत पर मृगरूप से, मृतगंगा के तीर पर हंसरूप से, काशी में चाण्डालरूप से और देवलोक में देवरूप से अपने भाई संभूत ( ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ) के साथ-साथ उत्पन्न हुए परन्तु छठे जन्म में दोनों भाई पृथक्-पृथक् हो गए। एक बार छठे जन्म में जब ये दोनों काम्पिल्य नगर में मिले तो दोनों ने अपने-अपने सुख-दुःख का हाल एक दूसरे से कहा । ब्रह्मदत्त ने अपना वैभव चित्त मुनि को देना चाहा परन्तु चित्त मुनि ने उसे स्वीकार नहीं किया। इन्होंने ब्रह्मदत्त को धर्मोपदेश दिया परन्तु जब उस पर उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो फिर उसे उपदेश देना व्यर्थ समझकर वहाँ से चले गए। पश्चात् उग्र तप करके मोक्ष प्राप्त किया। १. उ० अध्ययन १० व २३. २. गौतम अपने शिष्य-परिवार के साथ महावीर के शिष्य कैसे बने ? देखिए-विशेषावश्यकभाष्य में गणधरवाद । ३. देखिए-चित्त-संभूत संवाद, परि० १. For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [४७६ चलनी रानी : ___ यह ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की माता थी। जय :२ यह ग्यारहवां चक्रवर्ती राजा था। इसने सैकड़ों राजाओं के साथ राज्य छोड़कर जिन-दीक्षा ली और मुक्ति प्राप्त की। जयघोष : यह जाति से ब्राह्मण था परन्तु बाद में जैन मुनि बनकर इसने यमयज्ञ किए। एक बार जब यह अपने भाई विजयघोष के यज्ञमण्डप में पहुंचा तो ब्राह्मणों के साथ हुए संवाद में यज्ञ और ब्राह्मण का सच्चा स्वरूप बतलाया। इसके उपदेश के प्रभाव से विजयघोष भी जैन श्रमण बन गया । पश्चात् दोनों ने मुक्ति प्राप्त की। दशार्णभद्र : - दशार्ण देश का राजा था। इन्द्र की प्रेरणा से जिन-दीक्षा ली। द्विमुखः५ पांचाल देश का.राजा था। पुत्र को राज्य देकर जिन-दीक्षा ली। देवकी : : यह राजा वसुदेव की पत्नी तथा केशव की माता थी। दोगुन्दुक देव : नित्य प्रसन्नचित्त व स्वर्ग के सुखों का अनुभव करनेवाला देव । नग्गति : गान्धार देश का राजा था। पुत्र को राज्य सौंपकर जिन-दीक्षा ली। नमि : ये विदेह के राजा थे। इनकी राजधानी मिथिला थी। दीक्षा के समय ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र से इनका संवाद हुआ जिसमें आपने १. उ० १३.१. २. उ० १८.४३. ३. उ० २५.१, ३६. ४. उ० १८.४४. ५. उ० १८.४६-४७. ६. उ० २२.२-३. ७. उ० १६.३. . ८. उ० १८.४६-४७. ६. देखिए-इन्द्र-नमि संवाद, परि० १. . For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन अपने दृढ संयम का परिचय दिया। अन्त में पुत्र को राज्य सौंपकर जिन-दीक्षा ली और मोक्ष प्राप्त किया। नलकबर : . लीला-विलास में प्रसिद्ध देव-विशेष । पालित वणिक :3 . यह चम्पा नगरी में रहने वाला भगवान् महावीर का शिष्य था। एक बार जब यह पिहुण्डनगर व्यापार करने गया तो वहाँ के किसी सेठ ने इसे अपनी कन्या विवाह दी थी। उससे इसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम 'समुद्रपाल' रखा गया। पार्श्वनाथ : ये तेईसवें तीर्थङ्कर व ऐतिहासिक महापुरुष हैं। इनका समय महावीर से २५० वर्ष पहले ई० पूर्व ८वीं शताब्दी माना जाता है। इनका धर्म चतुर्याम और सान्तरोत्तर था। 'केशि' इनका शिष्य था। प्रभूतधनसंचय : .. ये कौशाम्बी में रहते थे । अनाथी मुनि इनके ही पुत्र थे। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती :६ यह पांचाल देश का राजा था। यह चित्त मुनि के पूर्व भव का भाई संभूत था जो पांच भवों तक अपने भाई चित्त के साथ-साथ १. विदेहदेश में दो नमि राजा हुए हैं। उनमें से एक २१ वें तीर्थङ्कर हुए हैं और दूसरे प्रत्येकबुद्ध । यहाँ जो नमि राजा का उल्लेख है वे प्रत्येकबुद्ध हैं, तीर्थङ्कर नहीं। देखिए-आचार्य तुलसी, उ० भाग १, पृ० १०७. २. उ० २२.४१. ३. उ० २१.१-४. ४. उ० २३.१, १२, २३, २६. ५. उ० २०. १८. प्रभूतधनसञ्चय नाम है या विशेषण इस विषय में मतभेद है। मालूम पड़ता है कि इनके पुत्र 'अनाथी' की तरह ही इनका भी नाम बहुत धन सञ्चय करने के कारण प्रभूतधनसञ्चय पड़ गया हो । ६. देखिए-चित्त-संभूत संवाद, परि० १. For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [ ४८ १ उत्पन्न हुआ । पूर्वजन्म में निदान बांधने के कारण यह छठे भाव में अपने भाई से पृथक् हो गया और चूलनी रानी की कुक्षि से उत्पन्न होकर आठवां चक्रवर्ती राजा हुआ। इसका चित्त मुनि से संवाद भी हुआ। धर्म का पालन न करने के कारण सातवें नरक में गया । भद्रा : १ यह कोशल राजा की सुन्दर अंगों एवं तदनुरूप गुणोंवाली पुत्री थी। इसने हरिकेशिबल मुनि पर प्रहार करनेवाले ब्राह्मणों को उनके तपोबल का परिचय देकर पीटने से रोका था। पहले यह अपने पिता के द्वारा देवता की प्रेरणा से इन्हीं मुनि को दे दी गई थी परन्तु वीतरागी होने से मुनि ने इसे स्वीकार नहीं किया था । टीकाकारों ने इसे राजा सोमदेव की पत्नी बतलाया है । भरत : २ ये भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती राजा थे । इनके नाम से ही इस देश का नाम 'भारत' पड़ा । इन्होंने राज्य त्यागकर जिन - दीक्षा ली थी । भृगु पुरोहित व पुत्रद्वय : 3 में ये तीनों पूर्व जन्म में देव थे । वहाँ से च्युत होकर इषुकार नगर ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न हुए । भृगु पुरोहित के दोनों पुत्र जब जैन श्रमण बनने के लिए पिता से आज्ञा लेने आए तो पिता ने उन्हें भोगों से प्रलोभित करना चाहा परन्तु उन्होंने अपने प्रभाव से माता-पिता को भी भोगों से विरक्त करके सबके साथ दीक्षा ले । मूल ग्रन्थ में पुरोहित और उसके पुत्रों का नाम नहीं है । यहाँ पुरोहित का 'भृगु' नाम टीका ग्रन्थों के आधार से दिया गया है । भोगराज : ४ राजीमती के पिता ( उग्रसेन ) थे । केशव ने अरिष्टनेमि के साथ विवाह के लिए इनसे ही राजीमती की याचना की थी । मघवा : ५ ये तृतीय चक्रवर्ती थे । इन्होंने राज्य छोड़कर जिन - दीक्षा ली थी । १. उ० १२.२०, २२, २४-२५. ३. देखिए - इषुकार आख्यान, ५. उ० १८.३६. परि० १० २. उ० १८.३४. ४. उ० २२.८, ४४. For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२-] मृगा : १ यह सुग्रीव नगर के राजा बलभद्र की पटरानी तथा मृगापुत्र की माता थी । उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन मृगापुत्र : २ इसका जन्म-नाम 'बलश्री' होने पर भी इसकी प्रसिद्धि 'मृगापुत्र' के नाम से हुई । यह माता-पिता को प्रिय था । प्रासाद में स्त्रियों के साथ क्रीड़ाएँ किया करता था । एक बार गवाक्ष से एक साधु को देखने पर जब इसे पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ तो इसने अपने माता-पिता से जिन - दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पहले तो माता-पिता ने इसे संसार के भोगों से प्रलोभित करना चाहा परन्तु बाद में इसका दृढ़ संयम देखकर दीक्षार्थ अनुमति दे दी । अन्त में मोक्ष प्राप्त किया । माता-पिता के साथ हुए संवाद में इसने नरकों के कष्ट और साधुधर्म का वर्णन किया ।. महावीर : 3 ये अन्तिम ( चौबीसवें ) तीर्थङ्कर हैं । इनका समय आज से २५०० वर्ष पूर्व ( ई० पूर्व छठी शताब्दी ) था । इन्होंने पार्श्वनाथ के 'चतुर्याम' तथा 'सान्तरोत्तर' धर्म को देश - काल का विचार करके पंचयाम' तथा 'अचेलक' के रूप में परिवर्तित किया था। इनका गोत्र काश्यप था । इन्हें ग्रन्थों में वरदर्शी (प्रधानदर्शी), ज्ञातपुत्र, जिन, वर्धमान, वीर, बुद्ध आदि नामों से सम्बोधित किया गया है । गौतम इनका प्रधान शिष्य था । इनके पिता का नाम 'सिद्धार्थ' और माता का नाम 'त्रिशला' था । १. उ० १६.१ २. २. देखिए - मृगापुत्र आख्यान, परि० १ ३. उ० २३. २३, २६; ३६ २६६ आदि । ४. काश्यप २.४६; ज्ञातपुत्र २६.२६६; बुद्ध १८.३२; २५.३४; ३५.१; वरदर्शी २८.२; वीर २०.४० ; जिन २.६; १०.३२; १४.५२; १८.१६, ३२, ४३, ४७; २१.१२; २२.२८, ३८; २४.३; २८.१-२, १८-१६, २७, ३३; ३६.६०, २६१-२६२; वर्धमान २१.२६. For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [४८३ महापन : ये नौवें चक्रवर्ती राजा थे। इन्होंने राज्य त्यागकर जिन-दीक्षा ली और तपश्चरण किया। महाबल राजा :२ इन्होंने उग्र तप करके मुक्ति प्राप्त की। यशा (वासिष्ठी) : यह भगू पुरोहित की धर्मपत्नी थी। पति और पुत्र के दीक्षा ले लेने पर यह भी साध्वी बन गई । वसिष्ठ कुल में उत्पन्न होने के कारण इसे 'वासिष्ठी' भी कहा गया है। रथनेमि : ये अरिष्टनेमि के छोटे भाई तथा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनका कूल अगन्धन. था। समय पाकर इन्होंने दीक्षा ले ली। एक समय राजीमती को अन्धकारपूर्ण गुफा में नग्न देखकर इन्होंने उससे भोग भोगने के लिए प्रार्थना की। बाद में राजीमती के द्वारा प्रबोधित किए जाने पर संयम में दृढ़ होकर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। राजीमती :५ यह भोगराज (उग्रसेन) की सर्वगुणसम्पन्न कन्या थी। अरिष्टनेमि के लिए वासूदेव ने इसी की याचना की थी। होने वाले पति अरिष्टनेमि के दीक्षित हो जाने पर इसने भी जिन-दीक्षा ले ली और घुघराले केशों को अपने हाथों से उखाड़ फेंका । पश्चात् अन्य स्त्रियों को भी दीक्षित किया । रथनेमि जैसे तपस्वी के द्वारा प्राथित होकर भी यह संयम में दृढ़ रही और उसे भी संयम में दृढ़ करके ' मोक्ष प्राप्त किया। इसके द्वारा प्रदर्शित पतिव्रता-धर्म तथा ब्रह्मचर्य व्रत एक उदात्त आदर्श है। १. उ० १८.४१. २. उ० १८.५१. ३. उ० १४.३, २६. ४. देखिए-राजीमती आख्यान, परि० १; जै० भा० स०, पृ० ५००-५०१. ५. वही। For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ४८४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन राम (बलराम):' ये यदुवंशी वसुदेव के पुत्र थे। इनकी माता का नाम रोहिणी था। केशव इनके बड़े भाई थे। ये नौवें बलदेव हैं। रूपिणी : यह समुद्रपाल वणिक् की रूपवती पत्नी थी। रोहिणी : - यह प्रसिद्ध यदुवंशी राजा वसुदेव की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम राम 'बलराम' था। बलभद्र : यह सुग्रीव नगर का राजा था। 'मृगा' इसकी अग्रमहिषी (पटरानी) थी तथा 'मृगापुत्र' (बलश्री) इसका प्रिय पुत्र था। वसुदेव : ये शौर्यपुर के यदुवंशी राजा थे । इनकी 'रोहिणी' और 'देवकी' ये दो रानियां थीं जिनके क्रमश: 'राम' और 'केशव' ये दो पुत्र थे। समुद्रविजय इनका भाई था। वासुदेव : यह केशव (कृष्ण) का ही दूसरा नाम है । विजय : यह दूसरा बलदेव है । यह कीर्तिशाली राजा था। इसने राज्यवैभव छोड़कर जिन-दीक्षा ली थी। विजयघोष :१० ___ यह जयघोष ब्राह्मण का भाई था और बनारस में वैदिक यज्ञ किया करता था। बाद में जयघोष मुनि की प्रेरणा से दीक्षा लेकर इसने मुक्ति प्राप्त की थी। १. उ० २२.२,२७. २. देखिए-पृ० ४७६, पा० टि० २-५. ३. उ० २१.७. ४. उ० २२.२.३. ५. उ० १६.१-२. ६. उ० २२.१-३. ७. देखिए-०भा०स०,पृ० ५००-५०१. ८. उ० २२.८. ६. उ० १८.५०. १०. उ० २५.४-५,३६,४५. For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [४८५ वैश्रवण देव : यह सौन्दर्यशाली देव-विशेष है। राजीमती ने अपने संयम की दृढ़ता बतलाते समय इसका उल्लेख किया था। शान्ति :२ ये शान्ति को देने वाले पांचवें चक्रवर्ती राजा तथा सोलहवें प्रसिद्ध जैन तीर्थङ्कर हैं। शिवा : ___ यह राजा समुद्रविजय की पत्नी तथा अरिष्टनेमि की माता थी। श्रेणिक : ___ यह (महावीर का समकालीन) मगध जनपद का राजा था। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में इस राजा का सविशेष उल्लेख मिलता है। यह किस धर्म को मानने वाला था इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। जैन-ग्रन्थों में इसे भावी तीर्थङ्कर माना गया है तथा इसका सविशेष उल्लेख भी किया गया है। इस राजा के तीनों परम्पराओं में कई नाम मिलते हैं। जैसे: जैन-परम्परा में-श्रेणिक और भंभसार; बौद्ध-परम्परा में-श्रेणिक और बिम्बिसार; पुराणों में अजातशत्रु और विधिसार ।५ मण्डिकूक्षि उद्यान में इसका अनाथी मुनि से 'अनाथ' विषय पर संलाप हुआ जिसके प्रभाव से इसने धर्म को स्वीकार किया था। सगर :६ ये द्वितीय चक्रवर्ती राजा थे। इन्होंने राज्य के वैभव को छोड़कर जिन-दीक्षा ली और मुक्ति को प्राप्त किया। सनत्कुमार : - यह चतुर्थ चक्रवर्ती राजा था। इसने भी पुत्र को राज्य सौंपकर जिन-दीक्षा ली और तप किया। १. उ० २२.४१. २. उ०१८.३८. ३. उ० २२.४. ४. उ० २०.२,१०,१४-१५,५४. ५. विशेष-उ० समी० अध्ययन, पृ० ३६२-३६६. ६. उ० १८.३५. ७. उ० १८.३७. For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र . एक परिशीलन संजय : यह काम्पिल्य नगर का राजा था। आत्मारामजी ने इसे महावीर का समसामयिक लिखा है। एक बार यह चतुरंगिणी सेना के साथ मृगया के लिए गया। वहाँ अज्ञानवश मुनि की शरण में आए हुए मृगों को मारने के कारण मुनि से क्षमा मांगी। मुनि के उत्तर न देने पर यह डर गया। पश्चात् उन्हीं गर्दभालि मुनि से दीक्षा ले ली। बाद में इनका क्षत्रिय मुनि से समागम हआ जिससे ये और अधिक संयम में दृढ़ हो गए । क्षत्रिय मुनि भी इनसे प्रभावित हुए थे। समुद्रपाल :२ यह पालित वणिक का पुत्र था। इसकी माता पिहुण्डनगर की थी। समुद्रयात्रा करते समय जन्म होने के कारण इसका नाम 'समुद्रपाल' रखा गया था। पिता के द्वारा कहीं से लाई गई रूपवती 'रूपिणी' स्त्री के साथ यह देवसदश भोग भोगा करता था। एक बार वध स्थान को ले जाए जाने वाले वध-योग्य वस्त्रों से विभूषित वध्य ( चोर ) को देखकर वैराग्य हो गया । पश्चात् माता-पिता से आज्ञा लेकर जिनदीक्षा ली और अन्त में मुक्ति को प्राप्त किया । समुद्रविजय : ये शौर्यपुर के राजा थे । इनकी पत्नी 'शिवा' और पुत्र 'अरिष्टनेमि' था। 'रथनेमि' भी इन्हीं का पुत्र था। ये 'अन्धकवृष्णि' कुल के नेता थे । यह कुल श्रेष्ठकुल माना जाता था। इसीलिए राजीमती रथनेमि को संयम से च्युत होते देखकर उसे उसके इसी कुल की याद दिलाती है। हरिकेशिबल मुनि :४ ___ यह श्वपाक (चाण्डाल) कुलोत्पन्न उग्र तपस्वी जैन मुनि था। एक यक्ष इसकी सेवा किया करता था। इसने यक्ष देवता की प्रेरणा से कोशल राजा के द्वारा दी गई सुन्दरी 'यशा' कन्या को स्वीकार नहीं किया था। एक बार जब यह भिक्षार्थ यज्ञ-मण्डप में गया १. देखिए-संजय आख्यान, परि० १. २. देखिए-समुद्रपाल, परि० १. ३. उ० २२.३, ३६, ४३-४४, ४. उ० १२.१, ३, ४, ६, १७, २१-२३, ३७, ४०. For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय [४८७ तो ब्राह्मणों ने इसके कुत्सित रूप को देखकर इसकी निन्दा की और पीटा । यह देख यक्ष ने रक्षा की। बाद में ब्राह्मणपत्नी यशा के द्वारा सपरिवार क्षमा मांगने पर इस मुनि ने यज्ञान्न को ग्रहण किया और भावयज्ञ का प्रतिपादन किया। हरिषेण :१ यह मनुष्यों में इन्द्र के समान शत्रुओं का मानमर्दन करने वाला तथा पृथिवी पर एक छत्र राज्य करनेवाला दसवां चक्रवर्ती राजा था। इसने दीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त की। इस तरह इन महापुरुषों में कुछ तो क्षत्रिय राजा हैं, कुछ जैन मुनि हैं, कुछ ब्राह्मण हैं, कुछ देव व तीर्थङ्कर हैं। ऋषभ, पार्श्व, महावीर, श्रेणिक, उदायन आदि ऐतिहासिक महापुरुष हैं । १. उ० १५.४२. २. देखिए-जै० भा० स०, परि० २. For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ साहनाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य उत्तराध्ययन के चरणविधि नामक इकतीसवें अध्ययन में साधु को कुछ विषयों में विवेकवान् होने का उल्लेख किया गया है तथा उसका फल मुक्ति बतलाया गया है। मूल ग्रन्थ में उन विषयों की सिर्फ संख्या गिनाई गई है। टीका-ग्रन्थों में उनका विस्तार किया गया है। साध्वाचार के प्रसङ्ग में जिन विषयों का उल्लेख किया जा चुका है उन्हें छोड़कर शेष को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जा सकता है : १. त्याज्य संज्ञादि दोष तथा २. अध्ययनीय गाथादि ग्रन्थाध्ययन । त्याज्य: त्याज्य संज्ञादि दोष इस प्रकार हैं : संज्ञाएँ' (Expressions of the emotions)-संवेदनात्मक चित्तवत्ति या भावना-विशेष का नाम संज्ञा है। इसके आहार, भय, मैथन तथा परिग्रह के भेद से चार भेद किए गए हैं। सांसारिक सभी विषयों की अभिलाषारूप चित्तवृत्ति से विरक्त होने के कारण साधु को इन सब से भी विरक्त होना आवश्यक है। क्रियाएं २ (Actions )-व्यापार-विशेष का नाम किया है। इसके पाँच प्रकार गिनाए गए हैं : १. कायचेष्टारूप सामान्य क्रिया ( कायिकी ), २. खड़गादि साधन के साथ की गई क्रिया ( आधिकरणिकी ), ३. द्वेषभावजन्य क्रिया ( प्राद्वेषिकी ), ४. कष्ट देनेवाली क्रिया ( पारितापनिकी ) और ५. प्राणविनाशक क्रिया ( प्राणातिपातिकी.) । साधु को अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए इन सब क्रियाओं का त्याग करना आवश्यक है। १. उ० ३१.६; समवा०, समवाय ४. २. उ० ३१.७; समवा०, समवाय ५. For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ : साध्वाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य [४८९ भयस्थान' ( Causes of danger )-चित्तोद्वेग का नाम भय है। इसके सात प्रकार गिनाए गए हैं : १. स्वजातीय जीव को स्वजातीय जीव से होनेवाला भय ( इहलोक भय ), २. परलोक भय, ३. धन के विनाश का भय, ४. अकस्मात् अपने आप सशंक होना ( अकस्मात् भय ), ५. आजीविका का भय, ६. अपयश का भय और ७. मृत्यु का भय । भयवाला व्यक्ति सदाचार में प्रवृत्ति नहीं कर सकता है। अतः साधु को सब प्रकार के भय का त्याग करना आवश्यक है । क्रियास्थान ( Actions-Productive of Karman )जिस प्रवत्ति से कर्मों का आस्रव हो उसे क्रियास्थान शब्द से कहा गया है। इसके तेरह भेद गिनाए गए हैं : १. प्रयोजनपूर्वक की गई हिंसादि में प्रवत्ति, २. प्रयोजन के बिना की गई हिंसादि में प्रवृत्ति, ३. प्रतिपक्षी को मारने के लिए की गई प्रवृत्ति, ४. अनजाने में हुई प्रवृत्ति ( अकस्मात् क्रिया), ५. मतिभ्रम से की गई हिंसादि में प्रवृत्ति ( दृष्टिविपर्यास क्रिया ), ६. झूठ बोलना, ७. चोरी करना, ८. बाह्य निमित्त के अभाव में शोकादि करना ( आध्यात्मिक क्रिया ), ६ मान क्रिया, १०. प्रियजनों को कष्ट देना, ११. माया क्रिया, १२. लोभ क्रिया और १३. संयमपूर्वक गमन। इनमें आदि के १२ क्रियास्थान हिंसादिरूप होने से सर्वथा त्याज्य हैं और अन्तिम क्रियास्थान समितिरूप होने से उपादेय है परन्तु सदाचार की चरमावस्था ( अयोग केवली की अवस्था ) में वह भी हेय ही है क्योंकि प्रत्येक क्रिया से शुभ अथवा अशुभ कर्मों का आस्रव तो होता ही है। इसीलिए ध्यान तप की चरमावस्था में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध बतलाया गया है। असंयम' ( Neglect of self-control )-संयम का अर्थ है-सावधानी ( नियन्त्रण ) तथा असंयम का अर्थ है-असावधानी १. उ० ३१.६; समवा०, समवाय ७. २. उ० ३१.१२; समवा०, समवाय १३. ३. उ० ३१.१३; समवा०, समवाय १७. For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन .. ( अनियन्त्रण )। असावधानी होने पर 'समिति' का पालन नहीं हो सकता और समिति का पालन न करने पर पाँच महाव्रतों की रक्षा नहीं हो सकती। अतः सब प्रकार के असंयम का त्याग आवश्यक है। इसके १७ प्रकार गिनाए गए हैं : १.६. पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियकाय के जीवों की रक्षा में असावधानी, १०. अचेतन वस्तुओं के ग्रहण करने में असावधानी, ११. ठीक से न देखता, १२. उपेक्षापूर्वक वस्त्रादि की प्रतिलेखना करना, १.३. अविधिपूर्वक मूत्रादि का त्याग करना, १४. पात्रादि का ठीक से प्रमार्जन न करना, १५-१७ मन, वचन और काय को वश में न रखकर हिंसादि में प्रवृत्त होना। BAHIFALT ' ( Causes of not concentrating ) - चित्त की एकाग्रता को समाधि (ध्यान ) कहा जाता है। अतः असमाधिस्थान का अर्थ है-जिससे चित्त में एकाग्रता की प्राप्ति न हो। इसके २० स्थान गिनाए गए हैं : १. जल्दी-जल्दी चलना २. रजोहरण से मार्ग को बिना प्रमाजित किए चलना, ३. दुष्प्रमार्जना करके चलना, ४. अधिक शयन करना, ५. गुरु आदि से विवाद करना, ६. गुरु आदि को मारने का विचार करना, ७. प्राणियों के घात के भाव करना, ८. प्रतिक्षण क्रोध करना, ६. ( सामान्य ) क्रोध करना, १०. पिशुनता करना, ११. पुनः पुनः निश्चयात्मक भाषा बोलना, १२. नवीन-नवीन क्रोधादि को उत्पन्न करना, १३. शान्त हुए क्रोधादि को पुन: जाग्रत करना, १४. सचित्त धूलि आदि से हाथ-पैर के भरे हुए होने पर भी अयत्नपूर्वक शय्या पर जाना, १५. निश्चित समय पर स्वाध्याय न करना, १६. व्यर्थ शब्द करना, १७. क्लेश करना, १८. संघभेद करना, १६. रात्रिभोजन करना और २०. एषणासमिति का पालन न करना। शबलदोष ( Forbidden actions )-सदाचार को मलिन करने में कारण होने से इन्हें शबल दोष कहा गया है। यद्यपि १. उ० ३१.१४; समवा०, समवाय २०. २. उ० ३१.१५. For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ : साध्वाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य [४६१ क्रोधादि कषाय व असमाधिस्थान आदि भी सदाचार को मलिन करने वाले हैं परन्तु यहां पर निम्नोक्त २१ दोषों को रूढ़ि से शबल दोष कहा गया है : १. हस्तमैथुन, २. स्त्रीस्पर्शपूर्वक मैथुन, ३. रात्रिभोजन, ४. साधु को निमित्त करके बनाए गए भोजन का ग्रहण, ५. राजपिण्ड लेना, ६. मोल लिया हुआ आहार लेना, ७. उधार लिया हुआ आहार लेना, ८. बाहर से उपाश्रय में लाया हआ आहार लेना, ६. निर्बल से छीनकर लाया हुआ आहार लेना, १०. त्यागी हुई वस्तु को व्रत भंग करके बार-बार खाना, ११. छः माह के भीतर एक गण छोड़ कर दूसरे गण में जाना, १२. एक माह में तीन बार जलप्रवेश तथा तीन बार मायास्थानों का सेवन, १३. हिंसा करना, १४. झूठ बोलना, १५. अदत्त का ग्रहण, १६. सचित्त भूमि पर बैठना, १७. सचित्त रज या घुनवाले काष्ठ आदि पर बैठना, १८. अण्डे. आदि से युक्त स्थान पर बैठना, १६. कन्दमूलादि हरित वनस्पतियों को खाना, २०. एक वर्ष में दस बार जलप्रवेश व दस बार मायास्थानों का सेवन करना और २१. सचित्त जल आदि से भीगे हुए हस्तादि के द्वारा दिए गए भोजन-पान का ग्रहण करना। मोहस्थान' ( Causes of delusion )-मोह के ३० स्थान गिनाए गए हैं : १. सादि जीवों को पानी में डुबाकर मारना, २. हाथ आदि से मुखादि बन्द करके मारना, ३. मस्तक को बांधकर मारना, ४. शस्त्र से प्रहार करके मारना, ५. श्रेष्ठ नेता को मारना, ६ स्वाश्रित रोगी का इलाज न करना, ७. भिक्षादि के लिए आए हुए साधु को मारना, ८. मुक्ति के मार्ग में स्थित साधक को पथभ्रष्ट करना, ६. धर्मादि की निन्दा करना, १०. आचार्य आदि के प्रति क्रोध करना, ११. आचार्य आदि की समुचित सेवादि न करना, १२. पुन: पुनः विकथाओं का प्रयोग करना, १३. जादूटोना आदि की विद्याओं का प्रयोग करना, १४. विषयभोगों का त्याग करके पुनः उनकी प्राप्ति की प्रार्थना करना, १५. अबहुश्रुत होने पर भी बार-बार अपने को बहुश्रुत कहना, १६, तपस्वी न होने पर भी स्वयं को तपस्वी कहना, १७. अग्नि के धएँ १. उ० ३१.१६; श्रमणसूत्र, पृ० १६४. For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन में दम घोटकर मारना, १८. स्वयं पाप करके दूसरे के मत्थे मढ़ना, १६. छलादिपूर्वक ठगना, २०. दूसरे को असत्यवक्ता कहना, २१. दूसरे को क्लेश देना, २२. मार्ग में लोगों के धन को लूटना, २३. परस्त्री को विश्वास देकर गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, २४. बालब्रह्मचारी न होने पर भी बालब्रह्मचारी कहना, २५. ब्रह्मचारी न होने पर भी ब्रह्मचारी कहना, २६. आश्रयदाता का धन चुराना, २७. जिसके प्रभाव से ऊपर उठा हो उसके प्रभाव में विघ्न उपस्थित करना, २८. नायक व श्रेष्ठि आदि की हत्या करना, २६. देवदर्शन न करने पर भी कहना कि देवदर्शन करता हूँ और ३०. देवों की निन्दा करना। इस तरह इन संज्ञादि सभी दोषों की संख्या का विभाजन वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इनमें हीनाधिकता संभव है। पहले बतलाए गए साध्वाचार-सम्बन्धी दोषों से इन्हें सर्वथा पृथक् भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ये अहिंसादि व्रतों के ही घातक हैं। अध्ययनीय : अध्ययनीय गाथादि ग्रन्थाध्ययन इस प्रकार हैं : गाथा-षोडशक' – 'सूत्रकृताङ्ग' के प्रथम भाग ( श्रुतस्कन्ध ) के गाथा-अध्ययन पर्यन्त १६ अध्ययन यहाँ गाथा-षोडशक शब्द से कहे गए हैं। यह उत्तराध्ययन से भी प्राचीन ग्रन्थ है। याकोबी ने उत्तराध्ययन के साथ इसका भी अनुवाद किया है ।२ । ज्ञाताध्ययन -यहाँ ज्ञाताध्ययन से ज्ञातधर्मकथा के प्रथम भाग के १६ अध्ययन अभिप्रेत हैं । इनमें नीतिप्रद कथाओं के द्वारा धर्मोपदेश दिया गया है। १. 'गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि' सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तेषु।। -उ० ३१.१३ भावविजय-टीका। गाहाए सह सोलस अज्झयणा तेसु सुत्तगडपढमसुतक्खंध अज्झयणेसु इत्यर्थः। --उद्धृत, श्रमणसूत्र, पृ० १८०. २. देखिए-से• बु० ई०, भाग ४५. ३. उ० ३१.१४; समवा०, समवाय १६. For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ : साध्वाचार के कुछ अन्य ज्ञातव्य तथ्य [४६३ . सूत्रकृताङ्ग के तेईस अध्ययन' -यहाँ सूत्रकृताङ्ग के दोनों भागों के २३ अध्ययन अभीष्ट हैं। इनमें गाथाषोडशक-सम्बन्धी सोलह अध्ययन भी सम्मिलित हैं। ___ दशादि उद्देश -दशाश्रुतस्कन्ध के १० उद्देश, बृहत्कल्प के ६ उद्देश और व्यवहारसूत्र के १० उद्देश यहाँ 'दशादि' शब्द से कहे गए हैं। प्रकल्प - साध के आचार का प्रतिपादक आचाराङ्गसूत्र यहाँ 'प्रकल्प' शब्द से कहा गया है। इतना विशेष है कि यहां आचाराङ्गसूत्र में 'निशीथ' को भी मिला लिया गया है जो कि आचाराङ्ग के परिशिष्ट (चूलिका) के रूप में लिखा गया है। इसका कारण यह है कि 'प्रकल्प' शब्द का उल्लेख २८ संख्या के क्रम में आया है जबकि आचाराङ्ग में कुल २५ ही अध्ययन हैं । अतः इस संख्या की पूर्ति के लिए निशीथसूत्र को भी ले लिया गया है । यद्यपि यह निशीथसूत्र बहुत विशाल है और कई भागों में विभक्त है फिर भी सम्पूर्ण निशीथ को तीन भागों में विभक्त करके २८ की संख्या पूर्ण की गई है। समवायाङ्गसूत्र में 'आचार-प्रकल्प' शब्द आया है और वहाँ उसके अन्य प्रकार से भेद किए गए हैं। - इन सभी ग्रन्थों में साधु के ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित धार्मिक एवं दार्शनिक विषयों का ही विशेषरूप से वर्णन किया गया है। दशाश्रुतस्कन्ध आदि छेदसूत्रों में मुख्यरूप से आचारादि १. उ० ३१.१६; समवा०, समवाय २३. २. उ० ३१.१७; समवा०, समवाय २६. ३. 'प्रकृष्टः कल्पो' यतिव्यवहारो यत्र स प्रकल्पः, स चेहाचाराङ्गमेव शास्त्रपरिज्ञाद्यष्टाविंशत्यध्ययनात्मकम् । -उ० ३१.१८ भावविजय-टीका आचार प्रथमाङ्ग तस्य प्रकल्प: अध्ययनविशेष निशीथमित्यपराभिधानम् । आचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमिति आचारप्रकल्पः । -उद्धृत, श्रमणसूत्र, पृ० १८६. ४. समवा०,समवाय २८. For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . में लगे हुए दोषों की प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है। इस तरह इन ग्रन्थों के अध्ययन में यत्नवान् होने से उपयुक्त चारित्र मलिन नहीं होता है । अतः ग्रन्थ में साधु को इनके विषय में भी यत्नवान् रहने को कहा गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इनका ही अध्ययन करना चाहिए, अन्य का नहीं अपितु एतत्सदृश अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिए और तदनुकूल प्रवृत्ति भी करनी चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ देश तथा नगर उत्तराध्ययन के विभिन्न स्थलों में कुछ देशों तथा नगरों का उल्लेख हुआ है। ये देश तथा नगर भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तथा विचारणीय भी हैं। अधिकांश देश व नगर जो उस समय बड़े समृद्ध थे आज खण्डहर मात्र रह गए हैं। कुछ के नामों में परिवर्तन हो गया है और कुछ की ठीक-ठीक स्थिति अभी भी संदिग्ध है। कुछ अपनी प्राचीन गरिमा को आज भी किसी न किसी रूप में लिए हुए हैं। उत्तराध्ययन में आए हुए देशों व नगरों का परिचय अकारादि क्रम से इस प्रकार है : इषुकार नगर : यहां के राजा का नाम था 'इषुकार'। इसका प्राकृत नाम 'उसयार' है । नियुक्तिकार ने इसे 'कुरु' जनपद का एक नगर माना है। राजतरंगिणी में भी 'हुशकपुर' का उल्लेख हुआ है। संभवतः कश्मीर की घाटी में वीहट नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित 'हुशकार' ( उसकार ) नगर ही उस समय का इषुकार ( उसुयार ) रहा हो। १. उ० १४.१. २. उ० नि०, गाथा ३६५. ३. उद्धृत-उ० समी०, पृ० ३७७-३७८. ४. उत्तराध्ययन के इषुकार आख्यान से साम्य रखने वाली बौद्ध-जातक ( ५०६ ) की एषुकार कथा में एषुकार राजा को वाराणसी का राजा बतलाया गया है जिससे प्रतीत होता है कि वाराणसी या उसके आसपास का प्रदेश इषुकार रहा है। परन्तु ऐसी धारणा भ्रान्त है क्योंकि इषुकार और वाराणसी एक नहीं हैं । इषुकार कोई समृद्ध नगर रहा है। For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कम्बोज :' उत्तराध्ययन में कम्बोज ( काम्बोज ) देश के 'कन्थक' घोड़े से 'बहुश्रुत' की प्रशंसा की गई है। इससे प्रतीत होता है कि यहाँ के घोड़े उस समय प्रसिद्ध रहे हैं। आचार्य बुद्धघोष ने इसे 'घोड़ों का घर' कहा है। महाभारत में भी इसी तरह का उल्लेख मिलता है। यह अफगानिस्तान के आस-पास (कश्मीर में) हिमालय और सिन्धु नदी के बीच ( गान्धार के पश्चिम प्रदेश ) का जनपदं था। इस तरह यह पश्चिमोत्तर भारतखण्ड का एक जनपद रहा है। बौद्ध साहित्य के सोलह महाजनपदों में इसका उल्लेख है तथा इसकी राजधानी द्वारका बतलाई गई है परन्तु जैन-सूत्रों में उल्लिखित सोलह जनपदों में इसका उल्लेख नहीं है। कलिङ्ग: करकण्डू यहां का राजा था। वर्तमान उड़ीसा का दक्षिणी भाग कलिङ्ग कहा गया है। जैन ' ग्रन्थों में उल्लिखित १. उ०११.१६. २. सुमंगलविलासिनी, भाग १, पृ० १२४. ३. देखिए-महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ० ६३, ४, बौद्ध साहित्य में उल्लिखित सोलह महाजनपद ये हैं : १. अंग, २ मगध, ३. कासी, ४. कोसल, ५. वज्जि, ६. मल्ल, ७. चेति, ८. वंस, ६. कुरु, १०. पंचाल, ११. मच्छ, १२. सूरसेन, १३. अस्सक, १४. अवंति, १५. गंधार और १६. कम्बोज । जैन-सूत्रों में उल्लिखित सोलह जनपद ये हैं : १. मगध, २. अंग, ३. बंग, ४. मलय, ५. मालवय, ६. अच्छ, ७. वच्छ, ८. कोच्छ, ६. पाढ, १०. लाढ, ११. वज्जि, १२. मोलि ( मल्ल ), १३. कासी, १४. कोसल, १५. अवाह, १६. संभुत्तर ( सुह्मोत्तर )। देखिए-जै० भा० स०, पृ० ४६०, फुटनोट १; बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० १७, २१. ५. उ० १८.४५. For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ : देश तथा नगर [ ४६७ साढ़े पच्चीस आर्य देशों में इसकी गणना की जाती है परन्तु बौद्ध ग्रन्थों में उल्लिखित सोलह महाजनपदों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है । जैन सूत्रों के अनुसार इसकी राजधानी कांचनपुर (भुवनेश्वर ) थी। इस जनपद का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान 'पुरी' ( जगन्नाथपुरी ) था । २ ु काम्पिल्य नगर : यहां का राजा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती था । संजय राजा ने भी यहीं पर शासन किया था । उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में कायमगंज स्टेशन ( हाथरस के पास ) से ८ मील दूर गंगा के १. साढे पच्चीस आर्यदेश व उनकी राजधानियां इस प्रकार हैं : राजधानी कांपिल्यपुर ताम्रलिप्त पापा ( पावापुरी) जनपद अंग कलिङ्ग काशी कुणाल ( उत्तर कोशल ) कुशा कुरु केक. ( अ ) ( श्रावस्ती से पूर्व-नेपाल की तराई में) कोशल चेदि जांगल दशार्ण राजधानी चम्पा कांचनपुर वाराणसी श्रावस्ती ✔ सोरिय (शौर्यपुर) गजपुर (हस्तिनापुर) श्वेतिका ra शुक्तिमती अहिच्छत्रा मृत्तिकावती उद्धृत - जै० भा० स०, पृ० ४५९. जनपद पांचाल बंग भंगि मगध मत्स्य मलय भद्रपुर लाढ कोटिवर्ष. वत्स कौशाम्बी वट्टा मासपुरी वरणा अच्छा विदेह मिथिला शाण्डिल्य नन्दिपुर शूरसेन सिंधु- सौवीर सौराष्ट्र राजगृह For Personal & Private Use Only वैराट २. जै० भा० स०, पृ० ४६६. ३. उ० १३.२; १८.१. ४. महाभारत के शान्तिपर्व ( १३६. ५ ) में भी ऐसा उल्लेख मिलता है । देखिए - महा० ना०, पृ० ६३. मथुरा वीतिभयपट्टन द्वारवती (द्वारका) Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन समीप स्थित 'कांपिल' गांव से इसकी पहचान की जाती है। यह दक्षिण पाञ्चाल की राजधानी थी। महाभारत के अनुसार यहां के राजा द्रपद थे।' यह जैनियों का तीर्थक्षेत्र है क्योंकि यहां पर १३वें तीर्थङ्कर 'विमलनाथ' के चार कल्याणकर (अतिशय) हुए थे। काशी : यहां की भूमि में ही चित्त और संभूत नाम के दो चाण्डाल हुए थे। यहां के राजा काशीराज का भी उत्तराध्ययन में उल्लेख मिलता है। इस जनपद की राजधानी वाराणसी थी। जैन-बौद्ध दोनों के साहित्य में इसका समानरूप से उल्लेख मिलता है। इसमें वाराणसी, मिर्जापुर, गाजीपुर, जौनपुर और आजमगढ़ जिले का भूभाग आता था। इसके पूर्व में मगध, पश्चिम में वत्स, उत्तर में कोशल और दक्षिण में सोन नदी का भूभाग था। काशी और कोशल जनपद की सीमाओं में यदाकदा हेरफेर भी होता रहता था। कोशल : इसका प्राचीन नाम 'विनीता' था। विविध विद्याओं में कुशलता प्राप्त करने के कारण इसे 'कुशला' ( कोशल ) कहने लगे थे। उत्तराध्ययन में कोशलराज की पुत्री 'भद्रा' का उल्लेख आया है। बौद्ध साहित्य के अनुसार इस जनपद की राजधानी श्रावस्ती थी। इसमें लखनऊ, अयोध्या आदि नगर आते थे। जैन साहित्य के अनुसार कोशल ( कोशलपुर-अवध ) की राजधानी 'साकेत' ( अयोध्या ) थी। कनिंघम ने आयुपुराण और रत्नावली के आधार से इसकी स्थिति दक्षिण भारत में नागपुर के आसपास मानी है। १. वही। २. जैन तीर्थङ्करों के पांच कल्याणक माने जाते हैं। उनके क्रमशः नाम ये हैं : १. गर्भ, २. जन्म, ३. तप, ४. ज्ञान और ५. मोक्ष । ३. उ० १३.६; १८.४८. ४. उ० समी०, पृ० ३७६. ५. उ० १२.२०,२२. ६. जै० भा० स०, पृ०, ४६८-६९. ७. Ancient Geography of India, p. 438. For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ । देश तथा नगर [ ४६६ कौशाम्बी : यह जैनों का प्रमुख केन्द्र था। उत्तराध्ययन में इसे 'पुराणपुरभेदिनी' कहा गया है । 'अनाथी' मुनि के पिता 'प्रभूतधनसञ्चय' यहीं पर रहते थे। उत्तर प्रदेश में इलाहावाद-कानपुर रेलवे लाइन पर 'भरवारी' स्टेशन से २०-२५ मील दूर ( प्रयाग से ३२ मील दूर ) 'फफोसा' गांव है। यहां से ४ मील दूर 'कुशंवा' ( कोसम ) गांव है। इससे कौशाम्बी की पहिचान की जाती है। इसे छठे तीर्थङ्कर पद्मप्रभ का जन्मस्थान भी माना जाता है। कनिंघम ने इसे बौद्ध और ब्राह्मणों का केन्द्र माना है। यह 'वत्स' जनपद की राजधानी थी। गान्धार: यहां के राजा का नाम था 'नग्गति'। इसमें पश्चिमी पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान सम्मिलित था। स्वात से झेलम नदी के मध्य का प्रदेश इस जनपद में आता था। महाभारत की नामानक्रमणिका में इसकी सीमा सिन्ध और कुनर नदी से लेकर काबुल नदी तक तथा पेशावर व मुल्तान प्रदेश तक बतलाई है।५ जैन साहित्य में इसकी राजधानी 'पुण्ड्रवर्धन' (पूर्वीय बंगाल) बतलाई गई है और बौद्ध साहित्य में 'तक्षशिला'। आचार्य तुलसी ने लिखा है कि उत्तरापथ का यह प्रथम जनपद था। चम्पा : यह बनिज व्यापार का बड़ा केन्द्र था। यहां के व्यापारी मिथिला, पिहण्ड आदि स्थानों पर व्यापारार्थ जाते थे। पालित वणिक और उसका पुत्र समुद्रपाल यहीं रहते थे। यह अंग जनपद ( जिला भागलपुर ) की राजधानी थी। इसकी पहचान बिहार १. उ० २०.१८. २. Ancient Geography of India, p. 330. .३. जै० भा० स०, पृ० ४७५. ४. उ० १८.४५. ५. महा० ना०, पृ० १०१. ६. उ० समी०, पृ० ३७८. ७. उ० २१.१,५. ८. जै० भा० स०, पृ० ४६५. For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन प्रान्त में भागलपुर स्टेशन से २४ मील पूर्व में स्थित चम्पापुर ( चम्पानगर ) के आसपास के प्रदेश से की जाती है । यह जैनियों का तीर्थस्थान भी है क्योंकि यहां से बारहवें तीर्थङ्कर वासुपूज्य मोक्ष गए थे 1 दशार्ण : ' यहां का राजा 'दशार्णभद्र' था । चित्त और सम्भूत नाम के जीव पूर्वभव में दासरूप में यहीं पैदा हुए थे । कालिदास ने दशार्ण जनपद की राजधानी 'विदिशा' ( भेलसा ) बतलाई है। जैन और बौद्ध दोनों के साहित्य में इस जनपद का उल्लेख मिलता है । इसकी पहचान मध्यप्रदेश की धसान नदी के आस-पास के प्रदेश से की जाती है । दशार्ण नाम के दो जनपद मिलते हैं : १. पूर्व दशार्ण ( मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ जिले में ) और २. पश्चिम दशार्ण ( भोपाल व पूर्वमालव का प्रदेश ) 13 जैन ग्रन्थों के अनुसार इसकी राजधानी मृत्तिकावती ( मालवा में बनास नदी के पास ) थी । दशार्णपुर और दशपुर ( मंदसौर ) इस जनपद के प्रमुख नगर थे । द्वारका : भोगराज ( उग्रसेन ) यहां के राजा थे । यहां से रैवतक पर्वत पास में ही था । इसीलिए अरिष्टनेमि ने दीक्षा लेकर रैवतक पर्वत पर केशलुन किया था। यह सौराष्ट्र ( काठियावाड़ ) जनपद की राजधानी मानी जाती है । आर० डेविड्स ने इसे कम्बोज जनपद की राजधानी बतलाया है । ५ राजीमती - नेमि आख्यान से प्रतीत होता है कि अन्धकवृष्णि, कृष्ण, दशार्ह आदि इसी के आस-पास रहने वाले थे । उत्तराध्ययन के पाश्वाल : उत्तराध्ययन में यहां के दो राजाओं का उल्लेख मिलता है१. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और २. द्विर्मुख । यह जनपद कुरुक्षेत्र १. उ० १३.६; १५.४४. ३. उ० समी०, पृ० ३७६. ५. बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० २१. २. मेघदूत, श्लोक २३-२४. ४. उ० २२.२२, २७. ६. उ० १३.२६; १८.४५. For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ : देश तथा नगर के पश्चिम व उत्तर में था। इसकी सीमा में वदायं, एटा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद और उसके आस-पास के प्रदेश आते थे। गंगा नदी के कारण पांचाल दो भागों में विभक्त था-दक्षिण और उत्तर । महाभारत के अनुसार दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी और उत्तर पांचाल की अहिच्छत्रा। महाभारत में पांचाल का कई स्थानों पर उल्लेख हुआ है । पांचाल में उत्पन्न होने के कारण राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी 'पांचाली' कहलाती थी। पिहुण्ड नगर :२ चम्पा नगरी का पालित वणिक् जलपोत से समुद्र पार करके इस नगर में व्यापार के लिए आया था और यहां शादी करके अपने देश लौट गया था। इससे प्रतीत होता है कि यह भारत के समीपवर्ती समुद्र के किनारे का कोई प्रदेश रहा है। शान्टियर ने इसे वर्मा का कोई तटवर्ती प्रदेश माना है। इस नगर की स्थिति के बारे में विद्वानों में मतभेद है।४ डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इसे चिकाकोल और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश माना है।" पुरिमताल नगर : ___चित्त मुनि इसी नगर में पैदा हुए थे। हेमचन्द्र ने इसे अयोध्या का श्रेष्ठ शाखानगर माना है।' डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इसकी स्थिति काशी-कोशल के बीच मानी है। मगध : राजा श्रेणिक यहां का राजा था। दक्षिण बिहार अर्थात् बिहार प्रान्त के गया और पटना जिलों के भूभाग को मगध जनपद कहा गया है। इसके उत्तर में गंगा, पश्चिम में सोन नदी, दक्षिण में १. जै० भा० स०, पृ० ४७०. २. उ० २१.६. ३. उ० शा०, पृ० ३५७. ४. देखिए-उ० समी०, पृ० ३८१. ५, जै० भा० स०, ४६५. ६. उ० १३.२. ७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १.३.३८६. ८, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० ८६-६०. ९. उ० २०.१. For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन विन्ध्याचल पर्वत तथा पूर्व में चम्पा नदी थी। आर० डेविड्स ने लिखा है कि भगवान बुद्ध के समय इस जनपद में ८० हजार गांव थे और क्षेत्रफल करीब २३०० मील था।' ई० पू० ६ठी शताब्दी में यह जनपद जैनियों और बौद्धों का प्रमुख केन्द्र था। इसकी राजधानी राजगृह ( राजगिर ) थी। मगध की दूसरी राजधानी पाटलिपुत्र ( पटना ) थी। मिथिला : यहां पर ही राजर्षि नमि की प्रव्रज्या के समय इन्द्र के साथ . संवाद हुआ था। यह एक समृद्ध एवं खुशहाल नगरी थी। अतः इन्द्र ने मिथिला में कुहराम देखकर राजर्षि नमि से इसका कारण पूछा था। यह विदेह जनपद की राजधानी थी। यहां १६ वें मल्लिनाथ और २१ वें नमिनाथ तीर्थङ्कर का जन्म हुआ था। बिहार प्रान्त में मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले की नेपाल सीमा के पास स्थित जनकपुर को मिथिला कहा जाता है । आर० डेविड्स ने इसकी पहचान 'तिरहुत' ( तीरहुत ) से की है। इसका कारण है कि मिथिला शब्द का प्रयोग जनपद और राजधानी दोनों के लिए हुआ है। इसीलिए विदेहराज की पुत्री वैदेही ( सीता ) 'मैथिली' कहलाती थी। वाणारसी ( वाराणसी ) :६ ___ यहां जयघोष और विजयघोष का संवाद हुआ था। यह काशी जनपद की राजधानी थी। आज भी इसे काशी, बनारस और वाराणसी कहते हैं। यहां ७ वें सुपार्श्वनाथ और २३ वें पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर का जन्म हुआ था। 'वरुणा' और 'असि' नाम की दो नदियों के बीच अवस्थित होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। वाराणसी गंगा नदी के वाम तटभाग में धनुषाकार रूप से अवस्थित है। जैन, बौद्ध और हिन्दुओं का यह पवित्र तीर्थस्थल है। महाभारत के अनुसार यहां प्राणोत्सर्ग करने वाले को मोक्ष मिलता १. जै० भा० स०, पृ० ४६२. २. बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० १७. ३. उ० ६.४-१४. ४. बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ. २७. ५. महा० ना०, पृ० २५६. ६. उ० २५. २-३. For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ : देश तथा नगर [ ५०३ है । राजा दिवोदास ने इन्द्र की आज्ञा से इसका निर्माण किया था और भगवान् श्रीकृष्ण ने इसे जलाया था । ' विदेह : इस जनपद का राजा नमि था । इसकी राजधानी मिथिला थी । भगवान् महावीर की जन्मभूमि विदेह ही थी । इसकी पहचान 'तिरहुत' है । यह पूर्वोत्तर भारत का एक समृद्ध जनपद था । इसकी सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में मही नदी तक थी । वैशाली ( जिला मुजफ्फरपुर ) विदेह की दूसरी महत्त्वपूर्ण राजधानी थी। शौर्यपुर : " यहां वसुदेव और समुद्रविजय राज्य करते थे । उत्तर प्रदेश में आगरा के पास ( मैनपुरी जिले में ) शिकोहाबाद नामक स्थान से १० - १२ मील दूर यमुना नदी के किनारे वटेश्वर गांव है। इस बटेश्वर गांव के पास ही एक 'सूर्यपुर' गांव है जिससे इस 'शौर्य पुर' की पहचान की जाती है । यह कुशार्त जनपद की राजधानी थी । यहां आज भी विशाल मंदिर है । कृष्ण और उनके चचेरे भाई अरिष्टनेमि ( २२ वें तीर्थंङ्कर ) की यह जन्मभूमि थी । श्रावस्ती : यहां केशि-गौतम संवाद हुआ था। यहां उस समय दो बड़े - बड़े उद्यान थे जिनके नाम थे : १. कोष्ठक और तिन्दुक | उत्तरप्रदेश में बहराइच से २६ मील दूर ( फैजाबाद से गोंडा रोड पर २१ मील दूर बलरामपुर है और बलरामपुर से १० मील दूर ) पर एक 'सहेट-महेट' (सेट मेंट ) गांव है। उससे श्रावस्ती की पहचान की जाती है। आज भी यहां उस समय के खण्डहर मौजूद हैं। इसे तीसरे तीर्थङ्कर संभवनाथ की जन्मभूमि माना जाता है । जैन ग्रन्थों के अनुसार कुणाल (उत्तर कोशल ) जनपद की यह राजधानी थी । १. महा० ना०, पृ० ३०४. ३. उ० समी०, पृ० ३७१. ५. उ० २२.१. २. उ० १८.४५. ४. जै० भा० स०, पृ० ४७४. ६. उ० २३.३. For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन सुग्रीव नगर : ___ इसके विषय में निश्चितरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। राजा बलभद्र और उसका पुत्र 'बलश्री' ( मृगापुत्र ) यहीं रहते थे। यह नगर रमणीक तथा वन व उपवनों (उद्यानों) से सुशोभित भी था। सौवीर :२ प्राचीन समय में सिन्धु-सौवीर एक प्रसिद्ध जनपद था। यहां का राजा उदायन था। 'सिन्धु-सौवीर' यह संयुक्त नाम ही प्रचलित है। आदिपुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है। सौवीर जनपद सिन्धु नदी और झेलम नदी के मध्य का भूभाग रहा है। अभयदेव के अनुसार सिन्धु नदी के पास होने के कारण सौवीर (सिन्ध) को सिन्ध-सौवीर कहा जाता था। इसकी राजधानी जैन ग्रन्थों के अनुसार वीतिभयपट्टन थी । बौद्धग्रन्थों में सिन्धु और सौवीर को अलगअलग मानकर सौवीर की राजधानी 'रोरुक' बतलाई गई है । . हस्तिनापुर : ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पूर्वभव के ( संभूत के ) जीव ने यहीं पर निदानबन्ध किया था जिसके प्रभाव से वह अगले भव में वस्तुस्थिति को जानकर भी विषयभोगों को नहीं त्याग सका था। मेरठ से २२ मील ( उत्तर-पूर्व में ) दूर स्थित हस्तिनापुर गांव से इसकी पहचान की जाती है। जैनियों का यह तीर्थक्षेत्र है। यह कुरु जनपद की प्रसिद्ध राजधानी थी। यहां १६वें, १७वें और १८वें तीर्थङ्कर के चार-चार कल्याणक हुए थे । आदिपुराण में इसे गजपुर कहा गया है।६ महाभारत के अनुसार यह कौरवों की राजधानी थी और किसी समय यहाँ राजा शान्तनु राज्य करते थे। सुहोत्र के पुत्र राजा हस्ती ने इसे बसाया था। अतः इसका नाम हस्तिनापुर ( हस्तिपुर ) पड़ा। १. उ० १६.१. २. उ०१८.४८. ३. आदिपुराण, १६.१५५, ४. जै०भा०स०, पृ० ४८२. ५. उ० १३.१. ६. आदिपुराण, ४७.१२८. ७. महा० ना०, पृ० ४०४. For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ-सूची मूलग्रन्थ अंगपण्णत्तिचूलिका-माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बम्बई. अट्ठशालिनी-संपा० पी० व्ही. बाप्टे और आर० डी० वाडेकर पूना, १६४२. अभिधर्मकोश-आ० वसुबन्धु-विद्यापीठ संस्कृत ग्रन्थमाला, वाराणसी, वि० सं० १९८८. अर्थसंग्रह- लौगाक्षी भास्कर- बम्बई, १६३०. अनुयोगद्वार ( मलधारी हेमचन्द्र कृत वृत्ति सहित )-आगमोदय समिति, सूरत, १६२४. आचाराङ्ग (आत्मारामकृत हिन्दी टीका सहित )-जैन स्थानक, लुधियाना, पंजाब, १९६३-६४. आचाराङ्गवृत्ति-शीलाङ्काचार्य-सिद्धचक्र साहित्य समिति, बम्बई, वि० सं० १६६१. आत्मानुशासन-गुणभद्र -जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, चिरगांव, बम्बई, वि० सं० १६८६. आदिपुराण-पुष्पदन्त-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०००. आवश्यकनियुक्ति-( दीपिका टीका सहित )-भद्रबाहु जैन ग्रन्थ माला, गोपीपुरा, सूरत, १६३६. • आवश्यकसूत्र ( मलयगिरि टीका सहित )-आगमोदय समिति, बम्बई, १६२८-१९३६. उत्तराध्ययनचूणि-जिनदासगणिमहत्तर-जैनबन्धु मुद्रणालय, १६३३. उत्तराध्ययनसूत्र ( आत्मारामकृत हिन्दी टीका सहित )-जैन ___ शास्त्रमाला कार्यालय, लाहौर, १६३६-४२. उत्तराध्ययनसूत्र (घासीलालकृत संस्कृत-हिन्दी-गुजराती टीका सहित) - -जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९५६-६१. For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन उत्तराध्ययनसूत्र ( नेमिचन्द्रकृत सुखबोधा वृत्ति सहित ) आत्मवल्लभ ग्रन्थावली, बलाद, अहमदाबाद, १६३७. उत्तराध्ययनसूत्र-अनु० मुनि सौभाग्यचन्द्र सन्तबाल-श्वे० स्था० जैन कान्फरेन्स, बम्बई, वि० सं० १९६२. उत्तराध्ययनसूत्र (भद्रबाहुकृत नियुक्ति, शान्तिसूरिकृत शिष्यहिता. बृहद्वृत्ति टीका सहित )-देवचन्द्र लालभाई ___ जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई १९१६-१७. उत्तराध्ययनसूत्र ( भावविजयगणिकृत वृत्ति सहित )-विनयभक्ति सुन्दर चरण ग्रन्थमाला, वेणप, वि० सं०.१६९७. उत्तराध्ययनसूत्र भाग १ (आचार्य तुलसीकृत.हिन्दी टीका सहित) जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १६६७. उपासकदशाङ्ग-आगमोदय समिति, बम्बई, १९२०.. ऋगवेद-प्रका० श्रीपाद सातवलेकर-भारत मुद्रणालय, औन्धनगर, १६४०. ओघनियुक्ति ( द्रोणाचार्यकृत वृत्ति सहित )-आगमोदय समिति, , मेहसाना, १६१६. कर्मप्रकृति-नेमिचन्द्राचार्य-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९६४. कल्पसूत्र-जैनपुस्तकोद्धार फण्ड- सूरत, वि० सं० १९६७. काषायपाहुड भाग १ (जयधवला टीका सहित)-आ०गुणधर-संपा० पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भा० दि० जैनसंघ, मथुरा, १९४४. गीता ( भगवद्गीता )-संपा० कृष्णपंत शास्त्री - अच्युत ग्रन्थमाला __कार्यालय, काशी, वि० सं० १९६८. गोम्मटसार कर्मकाण्ड-नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती-रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, १६२८. गोम्मटसार जीवकाण्ड (संस्कृत टीका सहित)-प्रका० गांधी हरीभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला, कलकत्ता. चन्द्रप्रज्ञप्ति ( अमोलक ऋषिकृत हिन्दी अनुवाद सहित ) - हैदराबाद, वी. नि० सं० २४४५. छान्दोग्योपनिषद-आ० शंकर-गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं० २०१३. जातक - संपा० भदन्त आनन्द कौसल्यायन-हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, बुद्धाब्द २४८५. For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ सूची [ ५०७ जीवाभिगमसूत्र ( अमोलक ऋषिकृत हिन्दी टीका सहित ) - हैदराबाद, वी० नि० सं० २४४५. जैनधर्म वरस्तोत्र - भावप्रभसूरि - देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, १६३३. ज्ञाताधर्मकथा - अनु० अमोलक ऋषि - हैदराबाद, वी० नि० सं० २४४६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( तत्त्वार्थ वार्तिक) - अकलंक देव - मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १६५३, १६५७. तत्त्वार्थ सूत्र - उमास्वाति - - अनु० कैलाशचन्द्र, भा० दि० जैनसंघ, चौरासी, मथुरा, वी० नि० सं०, २४७७. तत्त्वार्थ सूत्र - अनु० सुखलाल संघवी - जैनसंस्कृति संशोधन मण्डल, वाराणसी, १६५२. तर्क संग्रह - अन्नंभट्ट - हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला, चौखम्बा, वाराणसी १६४३. त्रिलोकप्रज्ञप्ति - यतिवृषभाचार्य जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९४३, १६५१. त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र - हेमचन्द्रसूरि - जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, बंबई, वि० सं० १९६५. वर्णी जैन ग्रन्थमाला, काशी, १६६६. दशकालिक ( आत्मारामकृत हिन्दी टीका सहित ) - महेन्द्रगढ़ वि० सं० १९८६. दशवेकालिक तथा उत्तराध्ययन- संपा० आचार्य तुलसी - जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, वि० सं० २०२३. दशवेकालिक नियुक्ति - भद्रबाहु - देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भण्डागार, बम्बई, १९१८. दशाश्रुतस्कन्ध ( आत्मारामकृत टीका सहित ) - जैन शास्त्रमाला कार्यालय, लाहौर, १९३६. धम्मपद - संपा० अवधकिशोर नारायण महाबोधि ग्रन्थमाला, वि० सं० १६६५. - द्रव्यसंग्रह - नेमिचन्द्र - गणेशप्रसाद नन्दीसूत्र - घासीलाल - जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १६५८. , For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन न्यायकुमुदचन्द्र-प्रभाचन्द्र-संपा. महेन्द्र कुमार, माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, गिरगांव, बम्बई. १९४१. न्यायदीपिका-अभिनव धर्मभूषण यति-संपा० दरबारीलाल कोठिया, वीर सेवा मंदिर, दिल्ली, १९६८. नवपदार्थ-आचार्य भिक्षु-अनु० श्रीचन्द्र रामपुरिया, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६१. नियमसार-कुन्दकुन्द-जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९१६. पंचास्तिकाय-कुन्दकुन्द-रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, वी० नि० सं० २४४१. पाइअसहमहण्णवो-पं० हरगोविन्ददास त्रिकम चन्द सेठ-प्राकृत __ग्रन्थ परिषद, वाराणसी, १९६३. पातञ्जल योगदर्शन ( तत्त्ववैशारदी तथा व्यासभाष्य सहित ) संपा० रामशंकर भट्टाचार्य, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, १६६३. प्रज्ञापना सूत्र ( वृत्ति सहित )-श्यामाचार्य-आगमोदय समिति, मेहसाना, १६१८. प्रभावकचरित-चन्द्रप्रभसूरि-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९०६. प्रमाणमीमांसा-हेमचन्द्र-सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १६३६. प्रमाणवातिक ( सभाष्य )-संपा० राहल सांकृत्यायन, काशीप्रसाद ... जायसवाल अनुशीलन संस्था, पाटलिपुत्र, वि० सं० २०१०. प्रवचनसार-कुन्दकुन्द-रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, १६३५. प्रश्नव्याकरण-आगमोदय समिति, बम्बई, १९१६. पिण्डनियुक्ति (मलयगिरिकृत वृत्ति सहित)-देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, १९१८. पुरुषार्थसिद्धयुपाय-अमृतचन्द्रसूरि-रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई, वी० नि० सं० २४३१. बृहद्कल्पसूत्र-जीवराज घेलाभाई दोशी, अहमदाबाद, १६१५. . बुद्ध चर्या-राहुल-सांकृत्यायन- भारतीय संस्कृति ग्रन्थमाला, काशी, वि० सं० १९८८. भगवतीसूत्र-देखिए-व्याख्याप्रज्ञप्ति । भर्तृहरिशतकत्रयम् ( वैराग्यशतक )-भर्तृहरि-भारतीय विद्या भवन, बम्बई, १६४६. For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ-सूची [ ५०६ मनुस्मृति-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९४६. महाभारत (शान्ति पर्व)-महर्षि वेदव्यास-गीता प्रेस, गोरखपुर. मूलाचार-वट्ट केर-माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि० सं० १९७७. मूल सूत्राणि-संपा० कन्हैयालाल 'कमल'-गुरुकुल प्रिंटिंग प्रेस, व्यावर, वि० सं० २०१०. मेघदूत-कालिदास-निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, १९२६. मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र)-अनु० ५० फूलचन्द्र शास्त्री-गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वी० नि० सं० २४७६. यशस्तिल कचम्पू-सोमदेवसूरि-निर्गय सागर प्रेस, बम्बई, योगशास्त्र ( स्वोपज्ञवृत्ति सहित )-एसियाटिक सोसायटी, बंगाल, १६२१. लघ द्रव्यसंग्रह-देखिए-द्रव्यसंग्रह. विशुद्धिमग्ग-आ० बुद्ध घोषं-महाबोधिसभा, सारनाथ, वाराणसी, १९५६-१६५७. विशेषावश्यकभाष्य-जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण-जैन सोसायटी, अहमदाबाद, १९३७. विशेषावश्यकभाष्य-टीका-मलधारी हेमचन्द्र-यशोविजय, जैन . ग्रन्थमाला, वी० नि० सं० २४३६. वेदान्तसार-सदानन्द-विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला, चौखम्बा, वाराणसी, १९५४. व्यवहारसूत्र ( नियुक्ति तथा भाष्य सहित )-केशवलाल प्रेमचन्द्र, ___अहमदाबाद, वि० सं० १९८२-८५. व्यवहारभाष्य-संशोधक मुनि माणक-प्रका० केशवलाल प्रेमचन्द्र, भावनगर, वि० सं० १६६४. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती सूत्र-अभयदेवकृत वृत्ति सहित ) आममोदय समिति, बम्बई, १६१८-१९२१. श्वेताश्वतरोपनिषद्-हरिनारायण आप्टे, आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थ माला, १६०५. षट्खण्डागम ( पुस्तक १ धवलाटीका सहित)--पुष्पदंत भूतबलि संपा० हीरालाल जैन, जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती, बरार, १६३६. For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन षट्खण्डागम ( पुस्तक ६ )-वही, १९४६. षड्दर्शनसमुच्चय (गुणरत्नसूरिकृत टीका सहित)-हरिभद्रसूरि भावनगर, वि० सं० १९७४. समवायाङ्ग-अनु० मुनि घासीलाल-अ० भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६२. समीचीन धर्मशास्त्र-समन्तभद्र-अनु० जूगल किशोर मुख्तार, __वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली १९५५. सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपाद देवनंदी-माणिकचन्द्र दि. जैन परीक्षालय, बम्बई,. १६३६ सांख्यकारिका-ईश्वरकृष्ण-प्रका० पं० नारायण मूलजी पुस्त कालय, बम्बई, १६२६. सागारधर्मामृत-पं० आशाधार-अनु० मोहनलाल जैन शास्त्री, सरल जैन ग्रन्थ भण्डार, जबलपुर, वी० नि० सं० २४८२-२४८६. सुत्तनिपात-संपा० पी० व्ही. बाप्टे-विश्वभारती शान्तिनिकेतन, १६२४. सूत्रकृताङ्ग ( नियुक्ति सहित )- आगमोदय समिति, बम्बई, १९१७. स्थानाङ्ग ( अभयदेवकृत वृत्ति सहित )-माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद, १६३७. स्याद्वादमञ्जरी-मल्लिषेण-विद्या विलास प्रेस, बनारस, १६००. हरिवंशपुराण-जिनसेन-संपा० पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञान पीठ, काशी, १९६२. निबन्ध-ग्रन्थ ( हिन्दी ) आदिपुराण में प्रतिपादित भारत--डा० नेमिचन्द्र शास्त्री __ गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९६८. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन-आचार्य तुलसी-श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६८. छहढाला-पं० दौलतराम-रत्नाकर कार्यालय, सागर, १९६५. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज-डा. जगदीशचन्द्र जैन चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, १९६५. For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ-सूची [ ५११ जैन आचार - डा० मोहनलाल मेहता पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९६६. जैनदर्शन- महेन्द्रकुमार जैन - गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, काशी, १६५६. जैन दर्शन- - डा० मोहनलाल मेहता - सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १६५६. जैनधर्म - पं० कैलाशचन्द्र - भा० दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १६५५. जैनभारती - मासिक पत्रिका, वर्ष ७, अंक ३३. जैन साहित्य का इतिहास - पूर्वपीठिका - पं० कैलाशचन्द्र - गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, काशी, वी० नि० सं० २४८६. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ( भाग १ ) - पं० बेचरदास दोशीपार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९६६. जैन साहित्य का बृहद इतिहास ( भाग २ ) - डा० जगदीशचन्द्र - पाश्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९६६. तत्वसमुच्चय - डा० हीरालाल जैन-भारत जैन महामण्डल, वर्धा, १६५२. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास - डा० नेमिचन्द्र शास्त्री - तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी, १९६६. प्राकृत साहित्य का इतिहास - डा० जगदीशचन्द्र जैन - चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, १६६१. पाश्चात्य दर्शन - चन्द्रधर शर्मा - भार्गव बुक डिपो, बनारस, १९५४. बुद्धचर्या - राहुल सांकृत्यायन - शिवप्रसाद गुप्त सेवा उपवन, काशी, वि० सं० १९८८. बौद्धदर्शन - बलदेव उपाध्याय - शारदा मन्दिर प्रकाशन, काशी, १६४६. भारतीय दर्शन - बलदेव उपाध्याय - शारदा मन्दिर, वाराणसी, १९६०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान - डा० हीरालाल जैन - मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद्, भोपाल, १९६२महाभारत की नामानुक्रमणिका - गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० स० २०१६. श्रमण ( मासिक पत्र ) - संपा० कृष्णचन्द्राचार्य- पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी - ५ श्रमण सूत्र - मुनि अमरचन्द्र - सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, वि० सं० २००७. For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] उत्तराध्ययन-सूत्र ! एक परिशीलन faasa Trg ( xiqat ) Ancient Geography of India -- A. Cunningham Indological Book House, Varanasi, 1963. Buddhist India-T. W. R. Davids--Pub. Susil Gupta, Calcutta, 1950. Corporate Life in Ancient India -R. C. Maju mdar-Oriental Book Agency, Poona, 1922. Doctrine of the Jainas-W. Schubring-Trans. W.G. Beurlen, Motilal Banarasidas, Delhi, 1962. History of the Canonical Literature of the Jaidas-H. R. Kapadia-Pub. Hiralal Rasikdas Kapadia, Gopipura, Surat, 1941. History of Indian Literature (Vol-II)-M. Win ternitz-University of Calcutta, 1933. Indian Philosophy ( Volume-I )-Dr. S. Radha krishnan-1929. Jaina Yoga-R. Williams-London Oriental Series, 1963. Jinaratna Koša ( Vol-I )-H. D. Velankar Government Oriental Series, Poona, 1944. Pali English Dictionary-R. Davids—Pali Text Society, London, 1921. Sacred Books of the East (Vol. XLV-Uttara dhyayana Sūtra-Translation by Hermann Jacobi ) -Ed. E. Maxmuller, Oxford, 1895. Sumangalavilasini ( Part I-Buddhaghosa's Commentary on the Dighanikāya) - Ed. T.W. Rhys Davids and J. Estlin Carpenter, London 1886. Uttarādhyayana-Sūtra--E. Jarl Charpentier Uppsala, 1922. For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रर्माणका अंकुश अंग १,५,२०८ १ ७० शब्द पृष्ठांक शब्द पृष्ठांक अजर ४२६ अजितदेवसूरि ४६ अजीव १७६,१८० अजीव-द्रव्य अंगप्रविष्ट अंगबाह्य अज्ञान १४४,३५८ . १,५,२०८ अज्ञानवादी ४३० अंजलिकरण २२५,३४५ अणु अंतरद्वीप ५८,६० अदत्तचित्त २६८ अंतराय १५४,१६१ अद्धासमय ८० अंधकवृष्णि ४७४ अधर्म ६३,७४,१६६ अधर्मद्रव्य .अक... ५८,५६ ६२,७६ अधोलोक ५५,६० अक... अध्ययन अकामा ३८,३०८,३४६ १७,३६६,३६७ अनंग अकालमरण ११७ अकिंचन अनंतानुबंधी २७८ १५६ अक्रिय गदी अनगार ४३० अगंधन ३६६ अनवस्थापना अनशन अग्निकायिक ३३२ अनाथ अग्निकुमार १३३,४७३ अग्निहोत्र ४०७ अनाथप्रव्रज्या अघातिया १५४ अनाथी २०,६२,२४६,४५६, अचेतन ६१,६३ अनाथी मुनि १३३,४७३ अचेल २१,२५५,३५४,४३१ अनापात-असंलोक २६६ .अचौर्य-महाव्रत २६१, अनापात-संलोक २६६ - अच्युत ११४ अनार्य ३६१,३६२ २४ ७७७ For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] शब्द अनिवार्यतावाद अनुकंपा अनुत्तर अनुत्तरगति अनुप्रेक्षा अनुभाग अनुमान अनुयोग अनुयोगद्वार अनेकरूपधूना अपंडित अपराजित अपरिकर्म अपरिग्रह अपरिग्रह- महाव्रत अपर्याप्तक अपुनरावृत्त अपुनरावृत्तिपद अपकायिकजीव अप्रत्याख्यानावरणी अप्रमाद अबाल अभयदेवसूरि अभिगमरुचि अभिग्रह _अभिनिबोध अभियोग-भावना उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन पृष्ठांक शब्द १५३ अमूढदृष्टि १६८,२३५ ५ ११४ अर ३७६ अरति १६०,३५५ ३४७ अरहनाथ .४७३ १६४ अरिष्टनेमि २१,१८६,२४६, २५०, २१० २६१,४०४,४१०,४११, १०,३०६ अरूपी २६८ अर्थ २२८ ११४ ३६४ २८१ २७८ अयोगकेवली अल्प- पाशबद्ध अल्प संसारी १ अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण ३७७ १८६ अवधिदर्शनावरण अलाभ अलोक अलोकाकाश ६६ १५६ २३ अविचार ३३७ २१० ३६५ अभ्युत्थान २२५,३०७,३४४ अमर अमरदेवसूरि २३८ अविनय २०५ अविनीत अमोदर्य अवसर्पिणी २०३ अव्याबाध अशरीरी असंयत असंयम असंस्कृत असमाधिस्थान असातावेदनीय ११६ ४६ पृष्ठाक २०० ३८८ ४७३ For Personal & Private Use Only ४६७,४७४ ६३ १८३ ३५७ ५३, ५५ ५५,७६ ३८७ ३८७ २०८, २१२ १५५ १५६ ३३४ १७० .३६४ २२५ २१८ ३७८ ८८ २३६ ४८६ १७ ४६० १५७ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द असावधानता असि असुरकुमार अस्तिकाय अहंकार अहमिंद्र afgar अहिंसा - महाव्रत आकाश आकाशद्रव्य आक्रोश आगम आचारांग आचारांग सूत्र आचार्य आज्ञारुचि आतप आत्मवसति आत्महनन आत्मा आ आत्मानुशासन आदान-निक्षेपसमिति आदिनाथ आनत आपात असं लोक आपात -संलोक आपृच्छन अनुक्रमणिका [ ५१५ पृष्ठांक पृष्ठांक शब्द २२४ आभिनिबोधिकज्ञानावरण १५४ ४२६ आभ्यंतर- तप ३४२ १११ आमोष ४२६ ७२ आम्रफल - भक्षण १४० १५४,१६० २१४ आयु ११३ आरंभ २८१ आरण २६१ आरण्यक आरभटा आर्तध्यान ६२,६३,७४ आर्य ७७ ३५६ ५ ३३ २५६, ३११ २२६ २०२ ७० आर्यकर्म आर्यश्याम आलस्य आलोचना ३७६ ३६२ ८२ आसव २०५ आसुरी - भावना २६४ आस्तिक्य २५७ आस्रव ११४ आहार २६६ आहारक २६६ ३०७ आभिनिबोधिकज्ञान २०८,२१० इंगिनीमरण आवश्यक आवश्यक व्यतिरिक्त आवश्यकी आश्रम आशातना आसनदान For Personal & Private Use Only २८७ ११४ ४०८ २६७ ३४८ ३६१,३६२ २३५ २०५ २२४ ३४२ २,६,२४८, ३०० २ ३०६ ३६६ २२० २२५,३४५ ४१६ ३६६ १६८ १८० २४८,३०६,३१३ ८६ ३६३ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २०० १६२ ६१ १६ उपसर्ग ई २२६ २४८,३१० २३६ उष्ण शब्द पृष्ठांक शब्द তাফ इंद्र १८,१४४,२०९,२३५,३६५ उपपादजन्म ४०६,४५३,४७४ उपबृहा इंद्र-नमिसंवाद २६२,४५३ उपभोग इंद्रिय ६३ उपमा इच्छाकार ३०७ उपयोग इषुकार १९,२४६,३६४,४०२, उपवास १८६,२३५ ४६१,४७४,४६५ उपसंपदा ३०७ इषुकारीय ३५२ उपांग उपाध्याय ईर्यासमिति २६१ उपाश्रय ईशान ११४,१७२ उपासक ईषत्प्राग्भारा उरभ्रीय ३५४ उग्रसेन ४१०,४१२,४६७ उच्चारसमिति २६८ ऊनोदरी उत्कालिक ऊर्ध्वदिशा उत्कीर्तन उत्तर , ३७,३६ ऋ उत्तरकुरु ५८,६० ऋजुजड़ ४२८ उत्तराध्ययन १,६,६,१४ ऋजुप्राज्ञ ४२८ उत्सर्पिणी १७० ऋजुश्रेणी उदधिकुमार . १११ ऋषभ उदयसागर ४६ ऋषभदेव ४०८ उदायन ४७५ उद्योत ७० एकत्ववितर्क-निर्वीचार ३४६ . उपकरण २४७,२५४ एकामर्षा २६८ उपगृहन २०० एलय उपदेशरुचि २०२ एषणा ३३७ उपधि २४७,२५४ एषणासमिति . २६३ ३३४ ३७७ ३०६ ऊर्ध्वलोक ३८७ ४७५ For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१७ पृष्ठांक १४६ २४ १४७,१५० ५८,५६ १६० नाव १५० १५३ ४२० अनुक्रमणिका शब्द पृष्ठांक शब्द कर्मपरमाणु ऐरावत कर्मप्रकृति ५८,५९ कर्म-बंध ओघनियुक्ति कर्मभूमि कर्मयोग ओघोपधि २५८ कर्मरज औ कर्मवन औदारिक ८६ कर्मसिद्धान्त औपग्रहिकोपधि कर्षक औषधिसेवन ४२१ कलिंग औषधोपचार - कल्प कल्पनी कंदर्प-भावना कल्पव्यवहार २६० कल्पाकल्प कंबोज २०६,४१३,४६६ कल्पातीत कथा . ४३ कल्पोत्पन्न कपिल कषाय कपिल ऋषि १८ कांपिल्य कपोतवृत्ति ३३६ काकिणी कमंडलु ५६ कापिलीय कमलसंयम ४६ कापोतलेश्या कमलावती ४०५,४६१,४७५ कामगुण करकंडू .. कायक्लेश करणगुणश्रेणी ३८७ कायगुप्ति करणसत्य २६६ कायोत्सर्ग करपत्र कार्मण १४७,१५३ काल कर्मकंचुक कालद्रव्य कर्मगुरु १५० कालिक कर्मग्रंथि १५० काशी x ww mrY ० ०.m aorm or or ur कंबल ११४ ४७५ ११३ १५६ ४५६,४७०,४६७ १४०,४१६ १६७ ४७५ २७३ ३३६ २८८,२६० ३००,३०३,३५० ४२६ कर्म ६२,६३,७४ ४६८ For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] शब्द काशीराज काश्यप किपाक किंपुरुष किन्नर किल्विषकी कीर्ति वल्लभगणि कुठार कुत्ता कुन्थु कुमार कुल कृतिकर्म कृष्ण कृष्णलेश्या केवलज्ञान -भावना केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन पृष्ठांक शब्द ४७६ कोष्ठक ३६६ कोशलिक १३६ क्रकच ११२ क्रिया ११२ क्रियारुचि ३६५ क्रियावादी ४६ क्रियास्थान केशगौतमीय केशि- श्रमण केशी कोशल ४२६ क्रोध ४१४ क्रौंच ४७६ क्षत्रिय क्षमा. क्षुधा २१,४१०,४६७,४७४ क्षुरिका १९११ ३६६ ६ १६६ २०८,२१३ केवली केशर केशलौंच केशव केशिकुमार ३८५,४१८, ४४६, क्षपकश्रेणी क्षुल्लक - निर्ग्रन्थीय १५५ १५६ ३८८ ४७० २५४,३४० ४१०,४६७, ४७६ गंध गंधन खर-पृथिवी खलुङ्कीय. खान-पान केशि- गौतम संवाद १८८,२४७, गंधहस्ती २५५ गति ४७७ गंधर्व २१ गदा २५६ गर्ग, T २१ गर्गाचार्य ४११,४७७,४६८ गर्दभालि For Personal & Private Use Only पृष्ठांक ४१८,४५० ४६५ ४२६ ४८८ २०३ .४३० ४८६ १५६,२२४ २५१ ३६१,३६५ ३८७ १८६ ३५३ ४२६ १७ ६५ २२ ४१५ ६५ ३६६ ११२ ४१३ ६२,१२६ ४२६ ३६६ ४७७ ३४६, ४७०, ४७७ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द गर्भज गवेषणा गांधार गाथा षोडशक गीत गुण गुणधारण गुणभद्र गुणवत्प्रतिपत्ति गुणशेखर गुणस्थान गुणित गुप्ति गुरु गुरुभक्ति गृहस्थ गृहस्थाचार गृहस्थाश्रम गोचरी गोच्छक गोतम गोत्र गोपाल गौतम गौरव ग्रंथि-भेदक ग्रह ग्रहणषणा ग्रैवेयक अनुक्रमणिका पृष्ठांक शब्द १ .२६३ ४६६ ४६२ ४१६ ११६,१२० चंद्रगुप्त चंद्रमा ३०६ चंपा २०५ ३०६ चक्रवर्ती ४६ चक्षुर्दर्शनावरण घातिया घोराश्रमी २३२,२३३ चतुरंगीय २८४ चतुरिंद्रिय २८६ २१४,२२६,२५३ २२५,३४५ २३६,२३८,२३६ २३५ २३६,४०० ३३६,३३७ चर्या चांडाल चारित्र चारित्रमोहनीय चिता चिकित्सक २५६ चिकित्साचार्य ३६६ चित्त १५४,१६१,३६ε ३६८ २१,२५६,३८५,४१८, चित्तमुनि ४४६, ४७८ चित्तसंभूतीय चीराजिन २०१ ४२६ चूर्णि ११२ चूलनी २६४ चेतन ११४ चैत्य [ ५१६ पष्ठांक चतुर्विंशतिस्तव ६,३००,३०१ चरणविधि १५४ २३५ For Personal & Private Use Only २७ ११२,४०८ ४७१,४६६ ४७३ १५६ १७,१६४ १०२ २३ ३५५ ३६८ १८८,१६१ १५८,१५६ २१० ४२१ १६,२२८,२३५,३६८, ४०२,४५५ १३६,४७८ ३६६ १६ ४३० ४८ ४५६,४७६ ६१ ४१८ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] शब्द चोर चोरी छंदना छाया छेद छेदसूत्र छेदोपस्थापनाचारित्र जलचर जल्ल जाति जिन जिनकल्प जिनकल्पी जिनदास जिनभद्र जीतकल्प जीव जीव- द्रव्य उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन पृष्ठांक शब्द ४२६ जीवन्मुक्ति जीवस्थान 15 जंबूद्वीप जटाधारी जनपद जन्म-मरण जयंत जय जयघोष २२,४०२,४०७,४६६, २६७,४२७ जीवाजीवविभक्ति जुगुप्सा ज्ञाताध्ययन ३०७ ७० ज्ञातासूत्र ३४३ ज्ञान ५ ज्ञानयोग २३० ज्ञानावरणीय ज्ञानोपयोग ज्ञानशील गणि ५८ ज्ञानसागरसूरि ४३१ ज्योतिषी ४६६ १४१ ११४ ४७६ झूठ तत्त्व ४७६ तत्त्वार्थ १०६ तत्त्वार्थ सूत्र ३५८ तथाकार ३९१,३६६ तदुभय ३८८ तप २५७,४३१ तपश्चर्या ३५४ तपस्वी ४८ तपोमार्ग ३०१ तपोरत्नवाचक ३४४ तमः प्रभा ६३,८१,१७६,१८० तर्क ६१ तस्कर ८१,१८८, १६१,२०८, १६० १५३,१५४ ८ १ ४६ ४६ ११२,१७२ For Personal & Private Use Only पृष्ठांक ३८५ २३३ २४ त १६० ४६२ ३३ २६४ ६१,१७७,१८३ १८३ २०६,२१०,३४४ ३०७ ३४३ १८८, ३२६,३४३ २४८, ३२६ २३८ २३ ४६ ६१ २१० ४२६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [ ५२१ ३६० ४२६ १६१ ४१३ तूर्य तृणस्पर्श १४५ दिशा ४६ शब्द पृष्ठांक शब्द पृष्ठांक तारा ११२ दशार्ण ५०० तिदुक ४१८,४५० दशार्णभद्र ४७६ तिर्य च ६२,१०५,१३१ दशाश्रुत तिर्यचगति १२६ दशाश्रुतस्कंध तिर्य चायु १६० दस्यु तिर्यक्लोक ५५,५७ दान तीर्थङ्कर ४७३ दाह-संस्कार ४२६ दिक्कुमार ११२ ३५७ दिगंबर ३५४,४३१ तृषा ३५३ दिनचर्या ३०८ तृष्णा तेजोलेश्या दीक्षा २४७,२४८ तैजस दीक्षागुरु २५३ त्रस ६०,१०१ दीपिका-टीका त्रिशला ३९३ दुःख १४१,१८५ दुःखकारण १८५ त्रींद्रिय दुःखनिरोध दुःखनिरोधमार्ग दुरारोह ३७७ २०१ दुर्गति १३० दंशमशक ३५४ दृष्टांत दया २३५ दृष्टिवाद ३,३२ दर्शन .. ८१,१८८,३५६ देव ६२,११०,१७१ दर्शनावरणीय १५३,१५५ देवकी ४१२,४६७,४७६ दर्शनमोहनीय १५७,१५८ देवकुरु ५८,६० दर्शनोपयोग ८१ देवगति १२६,१३२ दशवकालिक ६,२६ देवधिगणि दशवैकालिक-चूलिका १० देवलोक दशा ३३ देवायु दशादि ४६३ देवेंद्रगणि त्रिशूल १८५ १०२ २७ For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पृष्ठांक १६० नरक ०८७ ५०० नलकूबर . ४८० १११ द्वींद्रिय २७ शब्द पृष्ठांक शब्द ७१ नपुंसक दोगुदुक ४७६ नभचर १०६. द्यूतक्रीड़ा ४१६ नमि १८,४०६,४५३,४७६ द्रव्य ५३,११८,१८३ नमिप्रव्रज्या १८,२३५ द्रव्ययज्ञ नमिराजर्षि १४४,३६४ द्रुमपत्रक ६० द्वादशांग २,२०६ नरकगति . १२६,१३१ द्वारकापुरी नरकायु १६० द्वारिका द्विमुख ४७९ नागकुमार १०१ नागार्जुनसूरि द्वीपकुमार १११ नाम १५४,१६१ १४३ नारक नारकी , १०३,१७१ नारी धर्म ६३,७४,१६३,१६५ नाविक धर्मकथा निःकांक्षित धर्मद्रव्य ६२,७६ निद्रा १५५,३०६ धर्मध्यान ३४८ निद्रानिद्रा १५६ धर्ममंदिर निर्जरा १८०,१८२ धर्मरुचि नियुक्ति ४७ धर्माचार्य २२६ निर्लोभिता १८६ धातकीखंड-द्वीप ५८ निर्वाण ३७५ धूमप्रभा निविचिकित्सा २०० ध्यान ३०६,३४८ निशीथ ५,१० निश्चयकाल निषिद्धिका नक्षत्र नग्गति ४७९ निष्क्रिय-अबद्धकर्म नग्न ४३१ निसर्गरुचि ४०२ ३६६ ३४७ २०० निर्वेद my ० नंदी ११२,४०८ • < For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [५२३ नेमिचन्द्र ४६ ११२ शब्द पृष्ठांक शब्द पृष्ठांक नीललेश्या १६६ पाटलिपुत्र २७ नीलवंत २०६ पात्र २५६, २६० नत्य ४१६ पादकंबल २५९ पादपोंछन २६० नषेधिकी ३०७, ३५५ पादोपगमन नोकषाय १५६ पाप १८० न्यूनाधिक २६८ पापश्रमणीय .२० पापश्रुत २०७ पंकप्रभा ६१ पारांचिक पंचेंद्रिय १०३. पार्श्वनाथ २४७, २५५, ४८० पंडित २२८ पालित ३६६, ४७१, ४८० पंडितमरण ३६१,३६७ पिंडनियुक्ति पदार्थ १८३ पिता ४०१ पद्मलेश्या १६८ पिशाच परमाण ७१ पिहुंड ३९६, ४७१, ५०१ परिभोगैषणा परिवर्तना ३४७ पुडरीक परिवार ४०० पुण्य १७६, १८० परिहार ३४४ पुत्र ४०१ परिहारविशुद्धि चारित्र २३०,२३१ पुद्गल ६२, ६३, ६४ परीतसंसारी - ३८७ पुनरुक्ति परीषह . ___ १७, ३५२ पुरिमताल ५०१ . . परीषहजय २४८, ३५२ पुरुष १६० परोक्ष २११ पुरुषविद्या पर्याप्तक ६१ पुरुषार्थ १६४ पर्याय ११६, १२१ पुरुषार्थवाद पलायनवाद २५२ पुष्करद्वीप पशु-पालन ४१३ पुष्कराध पाइय-टीका ४८ पूज्य पाक्षिकसूत्र १० पृच्छना ३४७ २६५ पीठ २६० ४३ नज For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ५२४ ] शब्द पृथक्त्ववितर्क- सवीचार पृथिवीकायिक प्रकल्प प्रकीर्णक प्रकृतिबंध प्रचला प्रज्ञा प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञान प्रत्याख्यान प्रत्याख्यानावरणी प्रत्येक शरीर प्रदेश प्रदेशाग्र प्रधानगति प्रभा प्रभावना प्रभूतधनसंचय प्रमाण-प्रमाद प्रमाद प्रमादस्थानीय प्रमार्जना प्रलंब उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन पृष्ठांक शब्द ३४६ ६५ ३३, ४६३ ५, ३३ प्रज्ञापना प्रतिक्रमण ६, ३००,३०२,३४३ प्रतिपृच्छना ३०७, ३४७ फल प्रतिमा २३५, २३६,२४८,३६० प्रतिलेखना २२,३०६, ३०६ फलक प्रतिसंलीनता ३४० फाँसी १५३ प्राणत १५६ प्राप्तनिर्वाण १९३, ३४८ प्रायश्चित्त २०४ प्रोषध प्रशम प्रशिथिल प्रस्फोटना ३००, ३०३ प्रांत कुल २११ फूल २१० १६३ ३७६ ७० २०० ३६७, ४८० १५६ बंध ६७ बंधन ७१ बंधु २८ प्रवचनमाता २१,२४७, २८४ बकरा बकरा- पालन बढ़ई बद्ध बलभद्र बलराम बलश्री बहिः विहार २६८ २२४ २३, १६० २५, ३०६ बहुश्रुत बहुश्रुत-पूजा बहुश्रुता ગ For Personal & Private Use Only पृष्ठांक ... १६८ २६८ २६७ ३६६ ११४ ३८६ ३४२ २३५ ४१७ २६० ४२७ ४१७ १७६, १८१ १४७ ४०२ १४०, ४१४ ४१५ ३६८ ८८ ४१२, ४५७, ४८४ ४६७, ४८४ ४५७ ३७६ २०६ १६ ४०५ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [५२५ पृष्ठांक २२६ १११ ४०२ ४६ शब्द पृष्ठांक शब्द बाल भयस्थान ४८६ बालमरण ३६६, ३६७ भरत ५८, ५६, ४८१ बाह्यतप ३३२ भल्ली ४२६ बीजरुचि २०२ भव १२६ बुक्कुस ३६६ भवप्रपंच १२६ बुद्ध भवनपति १११, १७२ बृहत्कल्प ३१२ भवनवासी बृहद्वत्ति ४८ भाई बोधिलाभ १८६, २०६ भांडक २५६ ब्रह्म ११४, १७२ भाग्यवाद १५३ ब्रह्मचर्य २० भारवाहक ३९८ ब्रह्मचर्य-महाव्रत २६७ भावना १८६ ब्रह्मचर्य-समाधिस्थान २० भावयज्ञ ४०६, ४०८, ४०६ ब्रह्मचर्याश्रम ४०० भावविजयगणि ब्रह्मदत्त । १६,४५६, ४८० भावशुश्रूषा २२५, ३४५ ब्रह्मदत्त-चक्रवर्ती १३६, १५२ ।। भावसत्य १५७, २२८, २३५ भाषासमिति ब्रह्मलोक भिक्षाचर्या ३२१, ३३६ ब्रह्माण्डपुराण ४०८ भूत ११२ ब्राह्मण २३८, ३६१, ३६३ भूतिकर्म ४२२ भृगु ४०१, ४८१ भंडपाल भृगु-पुरोहित १३४,१६२:२४६, भंते . .. २२६ भक्तप्रत्याख्यान भोग १६१,३६६ भक्तियोग भोगभूमि भगवतीसूत्र भोगराज ४६७, ४८१ भदंत २२६ भोजन ३१३ भद्रबाहु २७, ४८ भद्रा ३३८, ४६५, ४८१ भय १६० मंत्र ४२१ २६२ mr or mram arur For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन मंदार .. ४८२ ४१५ १५६ मधु १५६ शब्द पृष्ठांक शब्द पृष्ठांक २१० महाबल ४८३ मकरंदटीका ४६ महाविदेह मगध ४५६, ५०१ महावीर २४७,२५५,२५७,३६३, मघवा ४८१ मति २१० महाव्रत .. २४७,२६० मतिज्ञान २०८, २१० महाशुक्र - ११४ मतिज्ञानावरण १५४ महिष मत्स्य ४१५ महोरग ११२ मथुरा २७ मांसभक्षण मद २०१ माणिक्यशेखरसरि .. ४९ मदिरा ४१५ माता ४०१ मद्य ४१६ मान ४१६ मानुषोत्तर मध्यलोक ५५, ५७ माया मनःपर्यायज्ञान २०८, २१२ माहण मनःपर्यायज्ञानावरण १५५ माहेंद्र मनुष्य ६२, १०८, १३२, १७१ मिथिला . ४५३,५०२ मनुष्य-क्षेत्र ५७ मिथ्याकार . मनुष्य-गति १२६ मिथ्यात्वमोहनीय १५८ मनुष्यत्व १९४ मिथ्याशास्त्र २०७ मनुष्यायु १६० मिश्रमोहनीय मनोगुप्ति २८७, २६० मुडित ४३१ मनोरंजन ४१६ मुक्त ८८ ममत्व १४३ मुक्तात्मा ३८२ महाकल्प ६ मुक्ति १८६,३७५ महाजनपद ४६६ मुखवस्त्रिका २५८ महातमःप्रभा ६१ मुद्गर ४२६ महानिर्ग थीय २० मूसल ४२६ महापद्म ४८३ मुनि महापुडरीक ६ मुनिचंद्रसूरि ३०७ २३८ ४६ For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [५२७ ४८३ २०५ १४६ ४८२ शब्द पृष्ठांक शब्द पृष्ठांक ३४४ यज्ञीय मूलधन-रक्षक १२ यथाख्यातचारित्र २३०,२३१ मूलधन-वर्धक ६२ यमयज्ञ ४०६,४०८ मूलधन-विनाशक ६२ यशा मूलसूत्र ५,६ याकोबी मूलाचार ३०८ याचना ३५७ मृगचर्या २०,३३६ योग मृगया ४१६ योगसत्य मृग-हनन ४१५ मृगा मृगापुत्र २०,१३१,१३४,१८६, रजोहरण २५८ २४६,३५७,४१२,४५७, रति १६० ४८२ रत्नत्रय १७६,१८६ मृगापुत्रीय २० रत्नप्रभा मृगावती . . ४५७ रथनेमि २१,१८६,२००,२७५, मृदु-पृथिवी - ६५ ४०५,४६७,४८३ मेरक ४१५ रथनेमीय २१ मैथुन २६७ रम्यक ५८.६० मोक्ष १८०,१८३,३७५ रस ६५,४१६ मोक्षमार्गगति २२,१८८ रस-परित्याग मोसली २६७ राक्षस ११२ मोह १४५ राग १४३ मोहस्थान राग-द्वेष-बुद्धि १४२ मोहनीय १५४,१५७ राजा मोह-भावना ३६५ राजीमती २१,२००,२४६,२५०, २५३,२७५,४०४,४१०, ४१२,४६७,४८३ यक्ष ११२ राज्यव्यवस्था ४२३ यक्षलोक ५५ रात्रिचर्या ३०८ २२,४०६ रात्रिभोजन-त्याग २७८,२८४ ३३६ ४६१ - ४२३ म्लेच्छ ४२६ यज्ञ For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पृष्ठांक शब्द राम रूप रूपक रूपिणी रूपी रैवतक . रोग रोहिणी रोहित रौद्रध्यान पृष्ठांक शब्द ४६७,४८४ वंशीधर २०५ ६५ वक्रजड़ ४२८ ४२ वणिक ४७१,४८४ वचनगुप्ति २८८,२६० ६३ वट्टकेर ४६६ वध २२४,३५७,४२० वनचारी - ११२ ४१२,४६७,४८४ वनस्पतिकायिक ६६ २५१ वरगति ३७६ ३४८ वर्ण ३६१,३६६ वर्णसंकर ४६ वर्णाश्रम ३६१ ११४,१७२ वर्तना वसति २४८,३१० वसिष्ठ ३६६ ४१२,४७४,४८४ २४,१६५ २५६ वाचना २७,३४६ वाणव्यन्तर ११२ वाणारसी ५०२ २०० वाद्य ३७८ वानप्रस्थाश्रम । ४०० ११४ १६१ वसुदेव ५३,५४ वस्त्र . ५७ लक्ष्मीवल्लभ लांतक लांतव लाभ लेश्या लोक लोकांत लोकांतभाग लोकाकाश लोकाग्र लोकोत्तमोत्तम लोभ लोमहरं लोल लोहकार लोहरथ ५४,७६ वात्सल्य ६७ १४५,१५६ वायु ४२६ वायुकायिक २६८ वायूकुमार ११२ ४६६.५०२ ४१६ ३९८ वाराणसी ४२६ वारुणी वालुकाप्रभा ३००,३०१ वासिष्ठी ६ वासी वंदन वंदना ___ • ४२६ For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका [५२९ पृष्ठांक शब्द वैद्य ४२१ शब्द पृष्ठांक वासुदेव १८६,२०६,४६७.४८४ विक्षिप्ता विजय ११४,४८४ विजयघोष ४०२,४०७,४६६, २६७ वनयिक ११३ वैमानिक वैयावृत्य ३४५ ४८४ वैश्य विदेह वैश्रवण ५८,५०३ ३८८ ३६१,३६६ ४८५ ११२,१७२ व्यंतर विदेहमुक्ति विद्या विद्युत्कुमार ४२१ mo १११ विनय व्यवहार व्यवहारकाल व्यापार व्यापारी व्युत्सर्ग २२५,३४४ ४३० ८० ४१८ १४० ३४३,३५० २६६ ४६ व्युत्सर्जन व्रणचिकित्सा २०६ विनयवादी विनयश्रुत विनयहंस विनीत विवाह विविक्तशयनासन विवेक विशालकीति विषमता विषयभोग विस्ताररुचि विहार-यात्रा वीतराग . . . वक्ष २१५ ४१० ३१३,३४० ३४३ ४०५,४६१ शंकिते-गणनोपयोगः . २६८ शकुन ४२१ शक्ति शबलदोष ४६० शब्द ६६,७८ शय्यंभवसूरि २६ शय्या २६०,३११,३५६ शय्यैषणा शरीर शरीर-प्रमाण ३७६ शर्कराप्रभा २०३ ४१७ वेद वेदनीय ४१७ १६०,४०७ and वेदिका वैयिक ४८५ २६७ शांति . ६ शांतिभद्र ११४ शांतिसूरि ४६ वैजयंत ४८ For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठां ३६६ १५६ ३६७ २१० १६६ २६७ ५३० ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन शब्द पृष्ठांक शब्द शाश्वत ३७७ शाश्वतवादी ४३° संक्षेपरुचि २०४ शिक्षाशील . २२३ संग्राम-शीर्ष ४१४ शिल्पी संघाटी शिवा ४६७,४८५ संजय २०,४७०,४८६ মিিষ্ট २१४ संज्ञा २१०,४८८ शिष्यहिता-टीका ४८ संज्वलन शीत ३५३ संथारा शीता संन्यासाश्रम ४०० शील १६३ संप्रदाय ४२६ शुक्लध्यान ३४६ संभूत १९,२२८,३९८,४०२,४५५ शुक्ललेश्या संमर्दा शुभाशुभ-कर्मबंधन १४१ संयम १६४ शूकर ४१४ संरंभ २८७ .. ३६१.३९७ संलीनता ३१३,३४० शोक संवर १८०,१८१ शौर्यपुर ४६७ ५०३ संवाद श्रद्धा १८७,१६१,१६४ संवेग १६८ श्रमण २३८ संसार १२६ श्रावक २३६.३६७ ८८,८६ श्रावस्ती संसारी ४१८,४४६,५०३ संस्कृति ३६१ श्रतज्ञान २०८ संस्तारक २६०,३६७ श्रुतज्ञानावरण संस्थान श्रुतिश्रवण सकाममरण ३६१.३६७ श्रेणिक २०,४५६,४७३.४८५ सक्रिय-अबद्ध-कर्म १४६ श्रेष्ठ ३९७ सक्रिय-बद्ध-कर्म श्वपाक सगर श्वेतांबर ३५४,४३१ सचेल २१,२५५,४३१ सत्कार-पुरस्कार ३५८ षट्-द्रव्य ६१ सत्य-महाव्रत शूद्र १६० ४३ १६४ १४६ ३६६ ४८५ २६४ For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सनत्कुमार सनाथ सनाथी सपरिकर्म भयमरण भिक्षु समय-क्षेत्र समयक्षेत्रिक समाज समाधि समाधिमरण समाधिस्थान समारंभ समिति समितीय समिला अनुक्रमणिका पृष्ठाक शब्द ११४,१७२,४८५ सर्वार्थसिद्ध ४७३ सर्वार्थसिद्धि ६२ सल्लेखना ३६३ ३६६ १६ ५७ ५७ ३६१ १६३ समुच्छिन्नक्रिया-निवृत्ति समुद्रपाल समुद्रपालीय सम्मान सम्मूच्छिम सम्यक्चारित्र सम्यक्त्व सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्श सयोगकेवली २४,२४८,३६१ २६८ २८७ २८४,२६१ साधु समुद्रयात्रा समुद्रविजय ४६७,४७४, ४८६ सवार सविचार सशरीरी २१ साध्वाचार ४२६ सामाचारी सामाजिक ३४६ ४७१,४८६ सामायिक सहस्रार सांतरोत्तर सागार सातावेदनीय सादिमुक्तता साधारण शरीर २२५ सिद्ध १ १७६ २२८ १८७,१६३ सीता सम्यक्त्वपराक्रम २२,२०६,३०३ सम्यक्त्वमिथ्यात्व मोहनीय १५८ सीधु सम्यक्त्वमोहनीय १५८ सुख २१ सामायिकचारित्र ४१८ सारथि सावद्ययोगविरति सिद्ध-जीव सिद्धलोक सिद्ध-शिला १७६.२०७ सुखबोधा टीका १७६,१९७ सुगति ३८८ सुग्रीव For Personal & Private Use Only [ ५३१ पृष्ठांक ११४ ५६,१७२ २४,३६१,३६७ ३६६ ३६३ ८८ ११४ २५५ २३६ १५७ २३८,२३६.२४७ ३८२ - ६७ २४७ २२,२४८,३०६ ३६७ ६,३०० २३० ३६८ ३०६ ८८ ८५ ३७६ __५६,३८२ ५६ ४१५ ३८० ४६ १३०, ३७६ ४५७ ५०४ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुराग स्पर्श 532 ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन शब्द पृष्ठांक शब्द पृष्ठांक सुदर्शन 206 स्थावर 60,63 सुपर्णकुमार 111 स्थिति सुभाषित 43 स्थिरीकरण 200 सुमेरु 210 स्थल सुरा 415 स्थूलभद्र 205 स्नातक सूक्ष्म 60 सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति 346 स्मृति सुक्ष्मसंपरायचारित्र 230,231 स्वयंभूरमण 210 सूत्र 38 स्वर्गलोक सूत्रकृतांग . 33,463 स्वाध्याय 308,306, सूवरुचि 202 310,346 112 सेवा 345 सोमदेव 58,60 सौंदर्य प्रसाधन 412 सौधर्म हरिकेशिबल 16,248,256, 114,172 सौवीर . 318,338,362,398,407, स्कंदिल 408,411,464,468 स्कंध हरिकेशीय 71 स्वैलितनिंदना 306 हेरिर्षण स्तनितकुमार 112 हर्षकुल स्त्यानगद्धि 156 हर्षनंदनगणि 160,355 हस्तिनापुर 504 स्थेलचेर 106 हास्य 160 स्थेविरकल्प 257,431 हिंसा 261 स्थविरकल्पी 354 हैमवत स्थानांग 204 हैरण्यवत 58,60 338 हरि 504 27 16 487 स्त्री 58,60 For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जैन आगम, दर्शन, पुरातत्व तथा अन्य विषयों के गम्भीर विद्वान एवं लेखक तैयार करना। जैन संस्कृति-सम्बन्धी प्रामाणिक साहित्य का निर्माण एवं प्रकाशन करना। 3. योग्य विद्वानों को श्रमण-संस्कृति का सन्देशवाहक बनाकर देश तथा विदेश में भेजना। भारतीय तथा विदेशी विद्वानों का ध्यान जैन संस्कृति की ओर खींचना। 5. श्रमण-संस्कृति को प्रकाश में लाने के लिए प्रोत्साहन देना। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे अन्य प्रकाशन . Jaira Psychology Dr. Mohan Lal Mehta-Rs. 8-00 2. Poliuical History of Northern India from Jaisa Sources-Dr. Gulab Chandra Chou dhary-Rs. 24-00 3. Studies in Hemacandra's Desinama. mala-Dr. Harivallabh C. Bhayani-Rs. 3-00 4. Jaiza Culture-Dr. Mohan Lal Mehta-Rs. 10-00 5. प्राकृत भाषा-डा० प्रबोध बेचरदास पंडित-- 6. जैन आचार---डा० मोहनलाल मेहता रु०-५-०० 7. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास-भाग 150 बेचरदास दोशी 15-00 6. जैन साहित्य का बृहद इतिहास-भाग 2 डा. जगदीश चन्द्र जैन व डा० मोहनलाल मेहता- रु०१५-०० 6. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास-भाग 3 डा० मोहनलाल मेहता- 2015-00 उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 1500 रु० के रवीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत) 10. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग 4 डा० मोहनलाल मेहता त प्रो० हीरालाल कापड़िया-२० 15-00 11. जैन साहित्य का बृहद इतिहास-भाग ५पं. अंबालाल शाह 2015-00 12. बौद्ध और जैन आगमों में नारी-जीवन A डा० कोमलचन्द्र जैन- रु० 15-00 13. जीवन-दर्शन-श्री गोपीचन्द धाडीवाल 30 3-00 14. यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन-डा० गोकुलचन्द्र जैन-रु० 20-70 ( उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा 500 रु० के पुरस्कार से पुरस्कृत ) -लिखिएपार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान जै ना श्रम हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी-५ BarSETTE