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________________ ८२] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन (उपयोग) नहीं है वह अचेतन है और जिसमें चैतन्य का कुछ भी अंश मौजूद है वह चेतन या जीव है । जीव ही आत्मा है.। .. ऊपर जो जीव का लक्षण बतलाया गया है वह अचेतन से पृथक करने वाला स्वरूप-लक्षण है। जीव के इसी स्वरूप का समर्थन करते हुए ग्रन्थ में अन्य प्रकार से भी लिखा है कि ज्ञान, दर्शन, सुख, दुःख, चारित्र, तपस्या (तप), वीर्य और उपयोग-ये सब जीव के लक्षण हैं।' इस लक्षण में जीव के जिन असाधारण धर्मों का कथन किया गया है वे सिर्फ जीव में ही संभव हैं । यद्यपि वीर्य (सामथर्य) अचेतन में भी पाया जाता है परन्तु अचेतनसम्बन्धी वीर्य उपयोगशून्य होने से यहाँ अभीष्ट नहीं है। क्योंकि ज्ञान-दर्शन आदि असाधारण धर्मों का सम्बन्ध अन्ततः उपयोग से ही है। उपयोग के होने पर ही ज्ञान, दर्शन आदि देखे जाते हैं। अत: जीव के प्रथम लक्षण में सिर्फ उपयोग को ही जीव का लक्षण बतलाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी उपयोग को जीव का लक्षण बतलाकर उसे ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का बतलाया है । २ अतः उपयोग या चेतना ही जीव का प्रमुख लक्षण है। शरीर से पृथक जीव के अस्तित्व के विषय में एक सबसे जबर्दस्त शंका है कि यदि उसका अस्तित्व है तो दिखलाई क्यों नहीं पड़ता ? उत्तराध्ययन में जब भ्रगुपुरोहित अपने पुत्रों को धन, स्त्री आदि के प्रलोभन द्वारा आकृष्ट नहीं कर पाता है तो वह धर्म के आधारभूत आत्मा के अस्तित्व में इसी प्रकार की शंका करता हुआ कहता है कि जैसे अविद्यमान भी अग्नि अरणिमन्थन (दो लकड़ियों की रगड़ से) से, घृत दूध से, तिलों से तेल उत्पन्न हो जाते हैं वैसे ही चेतन जीव की चार भौतिकद्रव्यों (पृथिवी, अप, तेज और वायु) से उत्पत्ति हो जाती है और उनके अलग हो जाने १. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।" वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं ।। -उ० २८.११. २. देखिए-पृ० ८१, पा० टि० ४. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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