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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[८३ पर चेतन (जीव) भी नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य चेतनात्मक स्वतन्त्र जीव-द्रव्य नहीं है।'
इसके उत्तर में भ्रगुपुरोहित के दोनों पुत्र कहते हैं कि आत्मा (जीव) चंकि रूपरहित (अमृत) है अतः उसका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। जो अमूर्त है वह नित्य भी है। इस तरह यहाँ बतलाया गया है कि आत्मा के अमूर्त होने से उसका प्रत्यक्षज्ञान नहीं होता है। जब मूर्त होकर भी वायू हमें दिखलाई नहीं पड़ती तो फिर जो अमूर्त जीव है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कैसे हो सकता है ? जीव के अस्तित्व का ज्ञान उसके कार्यों द्वारा ही (अनुमानप्रमाण से) किया जा सकता है। ग्रन्थ में ऐसे चार मुख्य कार्य गिनाए हैं जिनसे जीव के अस्तित्व का ज्ञान होता है। वे ये हैं : 3 १. मैं ज्ञानवान् हूँ, २. मैं अपने आप को जानता हूँ, ३ मैं सुखी हूँ, ४. मैं दुःखी हैं। इस प्रकार से तथा इसी प्रकार के अन्य अनुभवों से प्रतीत होता है कि शरीर से अतिरिक्त कोई चेतन द्रव्य है । भ्रगुपुरोहित ने अरणिमन्थन आदि से जो अविद्यमान अग्नि आदि की उत्पत्ति बतलाई है वह भी अनुभव से विपरीत १. जहा य अग्गी अरणी असन्तो खीरे घयं तेल्ल महातिलेषु । एमेव जाया सरीरंसि सत्ता संमुच्छई नासइ नावचिठे ।।
.-उ० १४.१८. २ नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्त भावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
-उ० १४.१६. ३. नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य ।
-उ० २८.१०. ४. हम अनुभव करते हैं 'मेरा शरीर', 'मेरा हाथ' आदि । इस प्रकार के
भेदात्मक अनुभव से ज्ञात होता है कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। यदि शरीर और आत्मा अभिन्न होते तो 'मेरा शरीर' ऐसा अनुभव नहीं हो सकता। अगर कहा जाए कि 'मेरी आत्मा' ऐसा भी तो अनुभव होता है। तो हम कहेंगे कि इससे आत्मा स्वतः सिद्ध हो जाती है। क्योंकि यहाँ 'मेरी' शब्द का प्रयोग शरीर के लिए हुआ है। इस तरह आत्मा शरीर से भिन्न ही सिद्ध हुआ।
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