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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
[ २६७ कारित-अनुमोदना से इस व्रत का भी पालन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जो वस्तु ग्रहण करे वह निर्दोष भी हो' क्योंकि सदोष वस्तु के ग्रहण करने पर हिंसा का दोष लगता है। साधु के लिए सभी सचित्त वस्तुओं के ग्रहण करने का निषेध है। अतः किसी के द्वारा सचित्त वस्तु के दिए जाने पर भी उसका ग्रहण करना चोरी है। स्वीकृत व्रतों का ठीक से पालन न करना भी चोरी है। इस अचौर्यव्रत की दढ़ता के लिए ग्रन्थ में बहत ही सुन्दर कहा है-'धनादि ग्रहण करना नरक का हेतु है (हिसादि में प्रवत्ति कराने के कारण) ऐसा समझकर साधु एक तृण को भी ग्रहण न करे। आहार के बिना शरीर का निर्वाह नहीं हो सकता है। अत अपनी निन्दा करता हआ पात्र में दिए गए निर्दोष आहार को ही ग्रहण करे।'२ वैदिक-संस्कृति में इसका पालन करनेवाले को ब्रह्मत्व की प्राप्ति बतलाई गई है। ग्रन्थ में इस व्रत का पालन करने वाले को ब्राह्मण कहा गया है तथा इस व्रत का पालन करना दुष्कर बतलाया गया है।"
ब्रह्मचर्य महाव्रत :
मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से मनुष्य, तिर्यञ्च एवं देव शरीरसम्बन्धी सब प्रकार के मैथुनसेवन का त्याग करना १. दंतसोहण माइस्स अदत्तस्स विवज्जणं । अणवज्जेसणिज्जस्स गिण्हणा अवि दुक्करं ।।
-उ० १६.२८. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिण्हाइ अदत्तं जे तं वयं बूम माहणं ॥
-उ० २५.२५. २. आयाणं णरयं दिस्स णाय इज्ज तणामवि । दोगुछी अप्पणो पाए दिण्णं भुजिज्ज भोयणं ।।
-उ० ६.७. ३. उ० आ० टी०, पृ० ११२३. ४. देखिए-पृ० २१६, पा० टि० १.
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