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________________ २६६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन २. करण सत्य का फल-इससे जीव सत्यरूप क्रिया के करने की शक्ति को प्राप्त करता है और वह जैसा कहता है वैसा ही करके प्रामाणिक पुरुष बन जाता है ।' ३. योगसत्य का फल- मन, वचन और काय की प्रवृत्ति (क्रिया) का नाम योग है। अतः जो क्रियारूप में भी सत्य का ही पालन करता है वह अपने योगों को विशुद्ध कर लेता है ।२ इस तरह इस सत्यमहाव्रत के मूल में भी अहिंसा की भावना निहित है। इसीलिए सत्य होने पर भी अहितकारी वचन बोलने का निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त झूठ बोलनेवाला व्यक्ति एक झूठ को छिपाने के लिए अन्य अनेक झूठ बोलता है और हिंसा, चोरी आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होता हुआ सुखी नहीं होता है।' इसके विपरीत सत्य बोलनेवाला साधु जैसा बोलता है वैसा ही करता है और प्रामाणिक पुरुष होकर सुखी होता है। वैदिकसंस्कृति में भी सत्यव्रत को हजारों अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाया गया है तथा इस सत्यव्रत के पालन करनेवाले को ब्रह्मा की प्राप्ति बतलाई गई है।४ ग्रन्थ में इस व्रत से युक्त जीव को ब्राह्मण कहा गया है तथा इस व्रत का पालन करना दुष्कर बतलाया गया है । अचौर्य महाव्रत : तुच्छ से तुच्छ वस्तु को भी स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण न करना अचौर्य महाव्रत है। मन-वचन-काय एवं कृत. १. ....."करणसच्चेणं करणसत्ति जणयइ। करण सच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ । -उ० २६.५१. २. ....जोगसच्चेणं जोगं विसोहे।।। -उ० २६.५२. ३. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरते। ___ एवं अदत्ताणि समाययंतो रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो । -उ० ३२.३१. ४. उ० आ० टी०, पृ० ११२२. ५. देखिए-पृ० २६४, पा० टि० ३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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