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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२६५ वाणी भी साधु को नहीं बोलना चाहिए' क्योंकि सावध वाणी बोलने से हिंसा की और निश्चयात्मक वाणी बोलने से मिथ्या होने की आशंका रहती है। इस तरह सत्यमहाव्रती के लिए मन-वचन-काय से एवं कृत-कारित अनुमोदना से किसी भी अवस्था में उपयोगहीन (निरर्थक), सावध, निश्चयात्मक, असभ्य (अशोभन) एवं अहितकर वचन नहीं बोलना चाहिए अपितु उपर्युक्त दोषों को बचाते हुए हमेशा सावधानीपूर्वक हितकारी, अल्प और प्रियवचन ही बोलना चाहिए। त्रिविधसत्य और उसका फल-ग्रन्थ में वचन बोलने की क्रमिक तीन अवस्थाएँ बतलाई गई हैं :२ १. मन में बोलने का संकल्प (संरम्भ), २ बोलने का प्रयत्न (समारम्भ) और ३. बोलने में प्रवृत्ति (आरम्भ)। वचन बोलने की इन तीन क्रमिक अवस्थाओं में सत्य बोलनेरूप से प्रवत्ति करने पर इनके ही क्रमश: नाम भावसत्य, करणसत्य और योगसत्य हैं । अर्थात मन में सत्य बोलने का संकल्प करना 'भावसत्य', सत्य बोलने का प्रयत्न करना 'करणसत्य' और सत्य बोलना 'योगसत्य' है। इस त्रिविधसत्य से जिस फल की प्राप्ति होती है वह इस प्रकार है : १. भावसत्य का फल-भावसत्य से साधक का अन्तःकरण विशुद्ध होता है और वह धर्म का सेवन करके इस जन्म को तथा आगामी जन्म को भी सफल कर लेता है । १. मुसं परिहरे भिक्खू ण य ओहारिणीं वए । भासा दोसं परिहरे मायं य वज्जए सया ॥ -उ० १.२४. . सुकडित्ति सुपक्कित्ति सुच्छिण्णे सुहडे मडे । सुणिट्ठिए सुलट्ठित्ति सावज्जं वज्जए मुणी ।। -उ० १.३६. . २. संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई ।। ___-उ० २४.२३. ३. ....."भावसच्चेणं भावविसोहि जणयइ । भावविसोहीए वद्रमाणे जीवे अरहतपन्नतस्य धम्मस्स आराहणयाए अन्भुठेइ । अरहतपन्नतस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भु ठित्ता परलोगधम्मस्स आराहए भवइ । -उ० २६.५०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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