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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन के लक्षण में पर्याय को गुण और द्रव्य के ही आश्रित बतलाया गया है । गुण और द्रव्य में जो नाना प्रकार के परिवर्तन दिखलाई पड़ते हैं वे सब पर्यायों के ही हैं। अतः ग्रन्थ में एकट्ठा होना (एकत्व), . अलग होना (पृथक्त्व), संख्या, आकार (संस्थान), संयोग और वियोग इन सबको पर्यायरूप माना गया है।' घटादिक में जो भेद-व्यवहार होता है वह पर्याय से ही होता है। पर्यायों की भी अवान्तर पर्याएँ स्वीकार करने से पर्याएँ सर्वथा अनित्य नहीं हैं। वास्तव में पर्याएँ द्रव्य की उपाधि हैं और द्रव्य उपाधिमान है। अतः दोनों में भेद होने पर भी कथञ्चित् अभेद भी है । __इस तरह द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप आपस में इतने मिलेजुले हैं कि उन्हें आसानी से समझना संभव नहीं है। इन्हें आपस में सम्मिलितरूप से बतलाने का तात्पर्य यह है कि एकान्त रूप से इन्हें भिन्न या अभिन्न न मान लिया जाय क्योंकि द्रव्य, गुण और पर्याएँ आपस में कथञ्चित् भिन्न एवं कथञ्चित् अभिन्न हैं ।' ऊपर जो जीवादि छः द्रव्य गिनाए गए हैं उन सबमें उत्पाद, विनाश और
१. एगत्तं च पुहुत्तं च संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ।।
.. उ० २८.१३. २. पज्जयविजुदं दव्वं दववि जुत्ता य पज्जया णत्थि । दोण्हं अणण्ण भूदं भावं समणा परूविति ।।
-पंचास्तिकाय, गाथा १२. ३. द्रव्य, गुण और पर्यायों की कथंचित् भिन्नाभिन्नता हम एक दृष्टान्त
से स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे - तन्तु को हम तन्तृत्व और वस्त्र से न तो सर्वथा भिन्न ही कह सकते हैं और न सर्वथा अभिन्न क्योंकि तन्तुरूपी द्रव्य अपने तन्तुत्वरूपी गुण से तथा वस्त्ररूपी पर्याय से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न है। यदि उसे सर्वथा भिन्न माना जाएगा तो तन्तु के न रहने पर भी तन्तुत्व और वस्त्र का व्यवहार होना चाहिए। यदि सर्वथा अभिन्न माना जाएगा तो वस्त्र के कार्य को तन्तु से ही हो जाना चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता है क्योंकि वे परस्पर भिन्न होकर भी कथञ्चित् अभिन्न हैं।
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