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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन सूत्र
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इस तरह यह कालिक और उत्कालिक का भेद सिर्फ अंगबाह्य आवश्यक व्यतिरिक्त ग्रन्थों में है । परवर्ती काल में दृष्टिवाद को छोड़कर शेष ग्यारह अंग-ग्रन्थों को भी कालिक में गिनाया है । " दृष्टिवाद के विषय में स्पष्ट कथन नहीं मिलता है कि वह कालिक है अथवा उत्कालिक | परन्तु ग्यारह अंगरूप कालिक श्रुत के ही साथ कहीं-कहीं दृष्टिवाद को भी गिनाया है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि दृष्टिवाद का उच्छेद हो गया था । अतः इसके प्रति उपेक्षा होना स्वाभाविक है । दिगम्बर- परम्परा में सिर्फ अंगबाह्य ग्रन्थों को ही कालिक और उत्कालिक में विभक्त किया है, अंग ग्रन्थों को नहीं । 3
२.
इस तरह आगम- साहित्य के प्राचीन विभाजन के अनुसार उत्तराध्ययन-सूत्र अंगबाह्य आवश्यक व्यतिरिक्त कालिक श्रुत का एक भेद है । .
वर्तमान परम्परा में अंगबाह्य का विभाजन भिन्न प्रकार से किया जाता है । प्राचीन आगम ग्रन्थों में इस प्रकार का विभाजन नहीं मिलता है। जहां तक ज्ञात है, इस विभाजन का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख श्री भावप्रभसूरि ( १८ वीं शताब्दी) द्वारा विरचित
१. इहैकादशाङ्गरूपं सर्वमपि श्रुतं कालग्रहणादिविधिनाऽधीयत इति मुच्यते ।
- विशेषावश्यक भाष्य - मलधारी टीका, गाथा २२६४; विशेष - जै०
सा० ई० पू०, पृ० ५७६-५७८.
२. कालियसुअ दिट्ठीवाए य
- आवश्यक नियुक्ति, ७६४; एक्कारस अंगाई पइण्णगं दिट्टिवाओ य ।
- उ० २८.२३;
उत्तराध्ययनमें अन्यत्र द्वादशाङ्ग ( 'बारसंगविऊ बुद्धे' उ० २३.७; 'दुवालसंग जिणक्खायं' उ० २४.३ ) तथा अङ्ग और अङ्गबाह्यसूत्र ( 'जो सुत्त महिज्जन्तो.अंगेण बहिण व' उ० २८.११ ) के रूप में भी उल्लेख मिलता है ।
३ देखिए - पृ० २, पा० टि० ५.
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