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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन इन्हें 'द्वादशाङग'१ भी कहा जाता है। इस तरह अर्थरूप में ये सभी अंग-ग्रन्थ महावीर-प्रणीत ही हैं परन्तु शब्दरूप में गणधरप्रणीत हैं ।
इनके अतिरिक्त जो अङ्गबाह्य आगम-ग्रन्थ हैं वे प्राचीन परम्परानुसार प्रथमतः दो भागों में विभक्त है--आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त । आवश्यक में छः ग्रन्थ थे जो आजकल एक आवश्यक-सूत्र में ही सन्निविष्ट हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के पुनः कालिक और उत्कालिक-ये दो भेद किए गये हैं और प्रत्येक के कई प्रकार हैं। जिनका अध्ययन किसी निश्चित समय ( दिन व रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहर ) में किया जाता है उन्हें 'कालिक' और जिनका अध्ययन तदतिरिक्त समय में किया जाता है उन्हें 'उत्कालिक' कहते हैं। उत्तराध्ययन आदि कालिक श्रुत हैं तथा दशवकालिक आदि उत्कालिक । १. वही; बारह अंग-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तःकृद्दशा,
अनुत्त रोषपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद। . २. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ।
-आवश्यक-नियुक्ति, गाथा १६२. ३. देखिए-पृ० १, पा० टि० २. ४. वही; आवश्यक के छः नाम ये हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन,
प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । ५. यदिहनिशाप्रथमचरिमपौरुषीद्वय एवं पठ्यते तत्कालेन निवृत्त
कालिकं-उत्तराध्ययनादि । यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्व कालिकादित्युत्कालिकम्-दशवकालिकादीति ।
-स्था० सू० ७१ अभयवृत्ति । नंदी, सूत्र ४३, ४७ में
इसकी विस्तृत सूची दी गई है। तदङ्गबाह्यमनेकविधम्-कालिकमुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम् । अनियतकालमुत्कालिकम् । तद्भेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः ।
-तत्त्वार्थवार्तिक, १.२०.१४.
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