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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
जैनधर्मवरस्तोत्र ( श्लोक ३० ) की स्वोपज्ञ टीका में मिलता है ।' तदनुसार विभाजन क्रम निम्नोक्त है :
१. अथ उत्तराध्ययनः १ आवश्यक २ पिण्डनिर्युक्ति तथा ओघनियुक्ति ३ दशवैकालिक ४ इति चत्वारिमूलसूत्राणि ।
'गाथा -
इक्कारस अंगाइ बारस उवंगाइ दस पयन्नाई । छ छेय मूल चउरो नंदी अणुयोग पणयाला ॥
— जैनधर्मं वरस्तोत्र-स्वोपज्ञ टीका, पृ० ९.४. इस प्राकृत गाथा के उद्धृत करने तथा आगम ग्रन्थों के स्पष्ट विभाजन से प्रतीत होता है कि इसके पहले भी इस प्रकार का विभाजन हो चुका था । आ० तुलसी ने द० उ०- भूमिका, पृ० ६, ९ पर समयसुन्दर ( वि० सं० १६७२ ) कृत सामाचारीशतक का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें दशवेकालिक, ओवनिर्युक्ति, पिण्डनियुक्ति और उत्तराध्ययन को मूलसूत्र माना है। प्रभावकचरित ( वि० सं० १३३४ ) में भी अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद के भेद से आगमों के प्राचीन विभाजन का उल्लेख मिलता है
ततश्चतुर्विधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया । ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्यग्रन्थच्छेदकृतागमः ॥
- आर्य रक्षितप्रबन्ध, श्लो० २४१.
प्रभावक - चरित के इस उल्लेख से यह सिद्ध नहीं होता है कि कौन-कौन से ग्रन्थ किस-किस विभाग में थे ? परन्तु ऐसा विभाजन पहले से मौजूद था जिसको आर्यरक्षित ने ४ अनुयोगों में विभक्त किया ।
भद्रबाहु (द्वितीय) की आवश्यकनियुक्ति ( वि० सं० ६ ठी शता० ) में कल्पादि को छेदसूत्रों में परिगणित करने से इस प्रकार के विभाजन की और अधिक प्राचीनता का पता चलता है
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जं च महाकष्पसुयं जाणि य सेसाणि छेयसुत्ताणि
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- आवश्यक निर्युक्ति, गा० ७७८.
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तथा देखिए - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २२६५.
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